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बुधवार, 6 अगस्त 2014

सर्दी-खांसी-जुकाम में ऐंटीबॉयोटिक्स का रोल

आज से ३६ वर्ष पहले -- १९७८ में जब मैं दसवीं कक्षा में पढ़ा करता था...स्कूल की मैगजीन का स्टूडैंट संपादक था तो मैंने इसी सर्दी-खांसी-जुकाम के ऊपर एक लेख लिखा था.. मैंने अभी तक उसे अपने पास रखा हुआ है ..और जो पिछले वर्षों में अखबारों में लेख छपे हैं, उन में से मेरे पास कितने हैं, कितने नहीं है, वह कोई बात नहीं

बुधवार, 11 दिसंबर 2013

बदल गईं दवाईयां भी आज

कल मेरी एक महिला मरीज़ ने मुझ से पूछा कि क्या उसे अस्पताल से खुला माउथवॉश मिल जायेगा। मेरे जवाब देने से पहले ही उसे याद आ गया कि वह तो शीशी लाई ही नहीं।

अचानक मुझे भी ४० वर्ष पहले का ज़माना याद आ गया जब कुछ सरकारी अस्पतालों में जाते वक्त लोग कांच की एक दो बोतलें साथ लेकर जाते थे ..पता नहीं डाक्टर कोई पीने वाली दवाई लिख दे तो!

हमारे मोहल्ले में एक आंटी जी रहती थीं..जिन का प्रतिदिन यह नियम था कि सुबह नाश्ते के बाद उन्होंने हमारे पास ही के एक अस्पताल में जाना ही होता था, मुझे अच्छे से याद है कि उन के पास एक खाकी रंग का थैला (पुरानी पैंट से निकाला गया) हुआ करता था जिस में वह एक दो कांच की शीशीयां अवश्य लेकर चलती थीं।

वैसे तो हम लोग उस अस्पताल में कम ही जाते थे क्योंकि न तो वहां पर डाक्टर ढंग से बात ही करते थे ...मरीज़ की तरफ़ देखे बिना उस की तकलीफ़ पूरी सुने बिना...वे नुस्खा लिखना शुरू कर देते थे। हां, कभी कभी आते थे ऐसे भी डाक्टर जो ढंग से पेश आते थे लेकिन अच्छे लोगों की हर जगह ज़रूरत रहती है, जल्द ही उन की बदली हो जाया करती थी। और दूसरी बात यह भी उस अस्पताल में कि वहां पर गिनती की दो-तीन दवाईयां ही आती थीं...एपीसी, सल्फाडायाजीन, टैट्रासाईक्लिन, खाकी गोलियां-- खांसी की और दस्तों को दुरूस्त करने वालीं, खांसी का मीठा शर्बत, बुखार की पीने वाली दवाई...बस, .......नहीं नहीं मच्छी के तेल वाली छोटी छोटी गोलियां ...ये हर एक के नसीब में न हुआ करती थीं। लेकिन हम लोग पट्टी करवाने और टीका लगवाने वही जाते थे।

हम लोग जब भी कभी उस अस्पताल में जाते थे तो वह आंटी हमें ज़रूरत मिलती ... जब वह दवाई ले भी चुकी होतीं तो भी वहां पर किसी न किसी लकड़ी के बैंच पर किसी औरत से बतियाती ही मिलती। अब मुझे उस आंटी का नाम तो याद न था, लेकिन एक बात अच्छे से याद थी उस के बारे में कि सारे मोहल्ले में वह लाल-ब्लाउज वाली महिला के नाम से जानी जाती थीं, क्योंकि वह हमेशा लाल-सुर्ख ब्लाउज़ ही पहने दिखती थीं, ऐसा क्यों करती थी, यह मेरा विषय नहीं है। कल रात ही में मुझे वर्षों बाद जब उस आंटी का ध्यान आया तो मैंने अपनी मां से इतना ही कहा, बीजी, आप को याद है वह लाल-ब्लाउज वाली आंटी.......मेरी मां हंसने लगीं और कह उठीं...हां हां, जो रोज़ अस्पताल ज़रूर जाया करती थीं...वह बड़ी हंसमुख स्वभाव की थीं।

न तो डाक्टर ढंग से बात ही करते, न ही ढंग की दवाईयां, और ऊपर से दवाईयां बिना पैकिंग वाली। किसी कागज़ में लपेटी हुई दवाई दी जातीं। जल्द ही कागज़ से इस कद्र चिपक जातीं कि उन्हें बाहर नाली में ही फैंक दिया जाता। मछली के तेल वाली गोलियों के साथ भी कुछ कुछ ऐसा ही होता था। लेकिन वह खांसी की और बुखार की पीने वाली रंग-बिरंगी दवाई खूब पापुलर थीं, महीने में कुछ दिन ही वे मिलती थीं लेकिन जबरदस्त क्रेज़ था। खांसी और बुखार तो तब तक ठीक ही न होते थे जब तक इन दवाईयों को पी नहीं लिया जाता था। वैसे इन दवाईयों को अधिकतर लोग दारू की खाली कांच की बोतले में ही लेकर आते थे...सभी के कपड़ों के थैलों में एक खाली दारू का पौवा या अधिया होना ज़रूरी होता था, वैसे लोग अधिया उस फार्मासिस्ट के आगे सरकाते कुछ झिझक सी महसूस किया करते थे। लेकिन जो व्यवस्था थी सो थी, वह मैंने ज्यों की त्यों आपके सामने रख दी है।

खाने या पीने वाली दवाई लेने के बाद अगर उस कंपांउडर से पूछ लिया कि यह खानी कैसे है तो वे इस तरह से भड़क जाते थे जैसे किसी ने उन्हें गालियां दे डाली हों.. लोग भी सहमे सहमे से उन को भड़काते न थे, जैसे समझ में आया खा लेते थे वरना खुली नालियां तो हर घर के सामने हुआ ही करती थीं।

एक बात जिसे मैं हमेशा याद करता हूं ..उस अस्पताल की एक लेडी हैल्थ-विज़ीटर ...मुझे याद है वह किस तरह से हम सब के घर जा जा कर मलेरिये की गोलियां दे कर जाती थीं। मेरी मां को एक बार मलेरिया हो गया, सत्तर के दशक की बात है, और घर ही आकर पहले तो वह एक स्लाईड तैयार करतीं और फिर अगले तीन-चार दिन तक रोज़ाना आकर अपने सामने मलेरिया की दवाई खिला कर जाया करतीं.......वह यह सब काम अपने लेडी-साईकिल पर किया करती थीं। उस महिला की डेडीकेशन भी कहीं न कहीं मेरे लिए इंस्पिरेशन रही होगी। हम लोग अकसर उसे याद करते हैं....

हर एक के साथ अच्छे से बात करना, उसे हौंसला देना और मरीज़ को चाहिए क्या होता है, दवाई तो जब अपना काम करेगी तब करेगी। मैं जिस अस्पताल की बात कर रहा हूं वहां पर एक एमबीबीएस लेडी डाक्टर भी हुआ करती थीं, मुझे एक बार बुखार हो गया, १०-१२ साल की अवस्था होगी, मुझे याद है वह मुझे घर देखने आई........आते ही ...उसने यह कहा.....ओ हो, इतना ज़्यादा बुखार........अब डाक्टर के मुंह से ऐसे शब्द मेरे बाल मन इन का मतलब न समझ पाए हों, लेकिन मैं अपने पिता जी के मुंह पर हवाईयां उड़ती ज़रूर देखी थीं कि कहीं यह मरने वाला तो नहीं.....वे मुझे तुरंत एक प्राईव्हेट डाक्टर कपूर के पास ले गये ....उन का मरीज़ों को ठीक करने का अपना अनूठा ढंग था.... सब से ज़्यादा अच्छे से बात सुनने, समझाने और हौंसला देने का अनूठा ढंग.......मैं अगले ही दिन ठीक हो गया।

कांच की दवाई वाली शीशीयों से ध्यान आया कि अमृतसर के पुतलीघर चौक में एक बहुत जैंटलमेन डाक्टर कपूर हुआ करते थे जो दिखने में भी अपने ढील-ढौल से, अपनी बातचीत से भी डाक्टर दिखते थे। वे बहुत काबिल डाक्टर थे, हरफनमौला थे, हर बीमारी का इलाज करते थे.....फैमली डाक्टर की एक परफैक्ट उदाहरण। मुझे याद है ..एक बार मेरी आंख में कुछ चला गया, लाली आ गई, पानी से धोने के बाद भी वह नहीं निकला, शायद कुछ लोहे का कण सा था..रिक्शा लेकर मेरी मां मुझे वहां तुरंत ले गईं.....उन्होंने तुरंत ऊपर की पुतली को पकड़ा और शायद कुछ चुंबक-वुंबक हाथ में लिया ...मुझे नहीं पता क्या था, लेकिन अगल ही क्षण मैं ठीक हो गया।

डाक्टर कपूर पुरानी डिग्री वाले डाक्टर थे, होता था ना कुछ लाइसैंशियट-वियट वाली डिग्री.......हां, जो सब से अहम् बात मैंने उन के क्लिनिक के बारे में बतानी है वह यह कि वे नुस्खा लिखते जिसे हम एक खिड़की पर जाकर उन के कंपांउडर के हाथ थमाते......वह चंद मिनटों में हमें खाने की गोलियां और पीने वाली दवाई की एक -दो शीशीयां थमा देता। कांच की शीशियां जिन पर कागज़ का एक स्टिकर भी लगा रहता कि एक बार में दवाई की कितनी खुराक पीनी है। यह जो मैंने कांच की शीशी की तस्वीर ऊपर लगाई है ...ये डाक्टर कपूर के द्वारा हमें दी जाने वाली शीशीयां भी कुछ इसी तरह की ही हुआ करती थीं जैसी कि आप पहली तस्वीर में देख रहे हैं....बहुत बार तो इन के ऊपर निशान पहले ही से लगा रहता था जैसा कि आप उस तस्वीर में भी देख सकते हैं....कभी कभी उस पर उन का कंपांउडर कागज़ का एक स्टिकर सा लगा देता था जिस तरह का मैंने इस दूसरी तस्वीर में दिखाया है।

दवाईयों का रूप फिर धीरे धीरे बिल्कुल बदलना शुरू हो गया.....कांच की बोतलों की जगह सस्ते से पलास्टिक ने ले ली, खुली दवाईयां भी उन दिनों ऐसा लगता है कि शुद्ध हुआ करती होंगी ..क्योंकि आज कल की फैशनेबुल पैकिंग वाली कुछ दवाईयों को किस तरह से लालच की फंगस लग चुकी है, यह हम नित्य प्रतिदिन मीडिया में देखते हैं। और तो और, कुछ तो दवाईयां ऐसीं कि ऊपर लिखा है ६०रूपये और चलता-पुर्ज़ा मरीज़ उसे १० रूपये में ले उड़ता है, ये काल्पनिक बातें नहीं है, सब कुछ हो रहा है.....। लेकिन अनपढ़, गरीब आदमी को उसे ६० में ही बेचा जाएगा। चलिए, इसे यही छोड़ते हैं, इस पर किसी दूसरे दिन मगजमारी कर लेंगे।

लिखते लिखते और भी इतनी बातें याद आ रही हैं कि इतना सब कुछ तो एक नावल में ही समा पाएगा। इसलिए इस पोस्ट को यहीं विराम देता हूं। इस विषय पर बाकी बातें फिर कभी कर लेंगे।

शनिवार, 30 जुलाई 2011

एक्सपॉयर दवाईयों को आप कैसे फैंकते हैं?

कुछ दिन पहले की बात है मेरे बेटे ने मेरे से अचानक पूछा कि पापा, आप इस्तेमाल किये हुये ब्लेडों का क्या करते हो, उस का कारण का मतलब था कि उन को आप फैंकते कहां हो? …मैं समझ गया... मैं उस को कोई सटीक सा जवाब दे नहीं पाया....लेकिन मुझे इतना पता है कि वह भी इन्हें घर के कचरेदान में कभी फैकना नहीं चाहेगा।

एक कारण तो यही है कि उस ने कभी मेरे को ऐसा करते देखा नहीं... क्यो? आप को भी उत्सुकता हो रही होगी कि आखिर मैं इस्तेमाल किये गये ब्लेडों का करता क्या हूं। वैसे आजकल तो मैं इलैक्ट्रिक शेवर ही इस्तेमाल करता हूं ... लेकिन आजकल ह्यूमिडिटि बढ़ जाने से यह ढंग से काम नहीं करता ... इसलिये वही ट्विन ब्लेड इस्तेमाल कर लेता हूं ...जिसे कहीं भी फैंकने में सोचना नहीं पड़ता।

लेकिन बहुत वर्षों तक आम ब्लेड़ों से ही दाढ़ी बनाता रहा हूं लेकिन कभी भी याद नहीं पुराने ब्लेडों को कूडेदान में फैंका हो ... कारण? कारण तो लंबा चौड़ा नहीं... बस इतना सा ही है कि यार, हमारी वजह से किसी को कोई चोट क्यों पहुंचे...पहले तो जो घर में जो आप के डोमैस्टिक हैल्प है उसे चोट लगने का डर, फिर घर के बाहर कचरेदान से किसी जानवर आदि के चोट लगने का अंदेशा, फिर उन वर्करों को चोट लगने का चांस जो आज भी बिल्कुल थोड़े थोड़े पैसों में ट्राली में कूडा भरने का काम करते हैं, और आगे से आगे वे रैग-पिकर उन गार्बेज ग्राउंड से कूड़ा बीनेंगे....................कमबख्त इतने लोगों को घायल करने से अच्छा है दाढ़ी से न बनाई जाए।

मैं इस्तेमाल किये ब्लेड़ों को ऐसे ही कहीं अपनी स्टडी रूम की खिड़की आदि में रख दिया करता था .. जहां पर उसे पड़े पड़े इतना जंग लग जाया करता था ..... पता नहीं, ऐसी वस्तुओं ..ब्लेड, सूईंयों, कांच के टुकड़ों को कचरेदान में फैंकते डर लगता है । मुझे याद है एक बार मैं इन सब ब्लेडों को इक्ट्ठे कर के अस्पताल ले गया था क्योंकि वहां पर sharp objects को डिस्पोज ऑफ करना का अपना सलीका होता है क्योंकि Pollution Control Board की आजकल निगाहें अस्पतालों पर तो खासकर टिकी रहती हैं....अच्छा भी है, इस में सब की भलाई निहित है।

हां, तो इस बात का ध्यान आज ऐसे आया कि नेट पर एक शीर्षक दिख गया कि इस्तेमाल करने के बाद बची हुई दवाईयों (इस का मतलब एक्सपॉयर लें) को कैसे फैंकें? मैं जिस लेख की बात कर रहा हूं उस में लिखा था कि बची हुई दवाईयों को सिंक में या टायलेट में न गिराएं ...इस से जल प्रदूषण तो होता ही है जिस की वजह से साथ में जानवर एवं अन्य लोग बीमार पड़ सकते हैं। और साथ में यह सिफारिश की गई थी ...

Remove the label from the bottle, then place the bottle inside a sealed plastic bag.
Throw the sealed bag in the garbage, and keep pets and children away from this trash.
If you need to dispose of pills, grind them up first. Mix the crushed pills into used coffee grounds, sand or cat litter.

हां, बोतल से लेबल हटाने की बात ठीक है, लेकिन फिर उसे किसी प्लास्टिक बैग में सील कर के कूड़ेदान में फैंकने के लिये कहा गया है और साथ में कहा गया है कि पालतू जानवरों को और बच्चों को इस क्लेश से दूर रखिए .....चलिए, इतनी ज़हमत उठा भी ली, लेकिन क्या बाहर घूमने वाले पशु इस प्लास्टिक को नहीं खा जाएंगे, आए दिन अखबारों में देखते हैं किस तरह से इन जानवरों की प्लास्टिक खाने से मौत हो जाती है। अगर ये पालतू नहीं हैं तो फालतू भी नहीं हैं .... इसलिये हम लोग इस तरह की दवाईयों से कैसे निजात पाया करें, इस के लिये आप भी कुछ सोचें और सुझाव लिखिए ...

और गोलियों (टैबलेट) को फैंकने से पहले कहा गया है कि पहले उन्हें पीस लें, फिर उन्हें इस्तेमाल की गई कॉफ़ी से या रेत आदि से मिला कर फैंक दें ...................थोड़ा मुश्किल सा नहीं लगा काम, या मुझे ही ऐसा लगा ...लेकिन हम लोग एक्सपॉयरी आदि वाली टैबलेट्स को उन की स्ट्रिप से निकाल कर ---बहुत बार हाथ ही से तोड़ कर कचरेदान में फैक देते हैं ... आप के क्या सुझाव हैं ? ..मैं आप के सुझावों का इंतज़ार कर रहा हूं।

सुझाव देना मत भूलिये ....

नहाने वाले पावडर (Bath salts) पर क्यों हो रहा है हंगामा

Bath Salts का अगर हिंदी में अनुवाद करना हो तो यही तो कहेंगे--- नहाने वाले पावडर या फिर बिल्कुल देसी भाषा में नहाने वाले मसाले। सुना तो मैंने इन के बारे में बहुत बार था ...लेकिन कभी विस्त्तृत से इन के बारे में जानने की कोई कोशिश नहीं की। याद आ रहा है कि जहां पर भी इन के बारे में पढ़ा बड़ा नैगेटिव सा पढ़ा जैसे कोई इन्हें इस्तेमाल कर के बहुत बुरा काम कर रहा है। जो भी हो, मेरी सोच यही थी कि ये bath salts कुछ पावडर-वाउडर होंगे जो बाहर देशों में नहाने के समय पानी में डाल लेते होंगे। लेकिन मेरा अनुमान केवल आंशिक रूप तक ही सही था, इस की थोड़ी चर्चा करते हैं।

आज सुबह भी जब मैं न्यू-यार्क टाइम्स देख रहा था तो फिर एक बार कुछ ऐसी खबर दिखी कि बॉथ-साल्ट के ऊपर प्रतिबंध लगाया जा रहा है। सुबह समय मेरे पास कम था लेकिन मैंने सोचा कि आज तो इन के बारे में जानना ही होगा कि इन के इस्तेमाल का आखिर लफड़ा है क्या। मैंने तभी गूगल बंधु की सहायता से इस के बारे में जानना चाहा।

मैं बहुत खुश हुआ कि मेरा अनुमान सही निकला कि यह तो बस कुछ साल्ट हैं जिन्हें नहाते समय पानी में मिला कर ताज़गी का अहसास हो जाता है, स्फूर्ति सी महसूस होने लगती है। इस के बारे में और पढ़ कर पता चला कि ये समुद्र से प्राप्त होने वाले साल्ट हैं (‌sea salts) हैं....और अगर ये शुद्ध रूप में मिलते हैं तो ताज़गी का अहसास होता है, नहाने वाला हल्कापन महसूस करता है...नहाने समय इस पावडर की केवल एक चुटकी ही काफ़ी है.....और बताया गया था कि अगर इस को किसी तरह से मार्कीट में मॉडीफाई किया जाता है तो इस के बहुत से गुण नष्ट हो जाते हैं।

लेकिन मेरी उत्सुकता बढ़ रही थी ....भला ऐसी छोटी मोटी चीज़ को प्रतिबंधित किये जाने का क्या फितूर है? लेकिन एक दो पन्ने देखने पर सारी बात समझ में आ गई।

हां, तो bath salts (बॉथ-साल्ट) जिन पर प्रतिबंध लगाने की बात की जा रही है उस का इन नहाने वाले बाथ-साल्ट (जो कि समुद्री साल्ट है) से कोई संबंध नहीं है।

बाथ-साल्ट के नाम से दरअसल कुछ नशे मिलते हैं ... और ये पावडर एवं क्रिस्टल रूप में बिकने वाले नशे समुद्री साल्ट (बाथ साल्ट) की तरह दिखते हैं इसीलिये इन्हें बॉथ-साल्ट कह दिया जाता है .....एक बहुत ही भयानक तरह की नशा है..इस नशे को अधिकतर ऑन-लाइन खरीदा जाता है –इस का इंजैक्शन लगाया जाता है, या तो इसे किसी सिगरेट आदि में डाल के पी लिया जाता है(smoking) ..या फिर इसे नसवार की तरह सूंघ कर ही काम चला लिया जाता है।

बाथ-साल्ट नामक नशे में भयानक साल्ट – Mephedrone एवं methylenedioxypyrovalerone (MDPV) होते हैं और इन के इस्तेमाल से नशा इतना गहरा होता है कि आदमी बिल्कुल अजीबो-गरीब हरकतें करना लगता है, उसे यह लगने लगता है कि कोई उसे मार देगा या बहुत बड़ा नुकसान पहुंचा देगा (paranoid symptoms) ....बिल्कुल अजीबो गरीब हरकतें ....और इन की वजह से इन्हें एमरजैंसी विभागों में लेकर जाना पड़ता है।

तो एक बात अब समझ में आ गई कि यह जो बाथ-साल्ट हैं इन में आदमी के बनाए हुये कैमीकल(रासायन) मौजूद रहते हैं -- Mephedrone एवं methylenedioxypyrovalerone (MDPV) जिन का प्रभाव बिल्कुल ख़त के पत्तों जैसा होता है ...अब यह ख़त के पत्ते किस बला का नाम है, इसे जानने के लिये मेरे इस लेख पर चटका लगाएं।

यह बाथ-साल्ट बहुत महंगे मिलते हैं ... 50 मिलीग्राम (एक ग्राम का बीसवां हिस्सा) 25 से 50 यूएस डालर में मिलता है... पहले यह नशा ब्रिटेन में खूब चलता था लेकिन वहां पर इस पर प्रतिबंध 2010 में लगा दिया गया था .... बस ज़रा ठहरिये ... किसी ऐसी वैसी बात में हम कैसे पीछे रह जाएं ... विशेषज्ञों का कहना है कि इन बाथ-साल्टों की अधिकतर सप्लाई चीन एवं भारत से आती है क्योंकि वहां पर कैमीकल बनाने वाली फैक्टरियों के ऊपर सरकारी निगरानी इतनी पुख्ता नहीं है ... यह मेरी स्टेटमैंट नहीं है ...न्यू-यार्क टाइम्स के इस लेख में ऐसा ही कुछ लिखा है।

बात एक और भी है, अधिकतर सप्लाई चीन और भारत से जाए और यहां के बशिंदे इस से महरूम रह जाएं ....लगता नहीं ना ऐसा हो सकता है ....तो फिर का मतलब यह कि ये सब नशे इस देश में भी इस्तेमाल तो ज़रूर होते होंगे ....किसी दूसरे नाम से .... कभी यह बाथ-साल्ट नाम पहले नहीं सुना.....लेकिन नशा करने वालों को नाम से क्या लेना देना, नाम में रखा ही क्या है। खैर, मेरा काम था आगाह करना और इस बाथ-साल्ट की मिस्ट्री को हल करना..................ये नशीले बाथ-साल्ट नहाने वाले बेकसूर बाथ-साल्ट से बिलकुल अलग हैं, दूर दूर से भी कुछ भी लेना देना नहीं।

सेहत खराब करने वाली दवाईयां आखिर बिकती ही क्यों हैं?

परसों मेरा एक मित्र मुझ से पूछने लगा कि वज़न बढ़ाने के लिये ये जो फूड-सप्लीमैंट्स आते हैं इन्हें खा लेने में आखिर दिक्तत है क्या। मैंने कहा कि लगभग इन सब में कुछ ऐसे प्रतिबंधित दवाईयां –स्टीरॉयड आदि – होते हैं जो कि सेहत के लिये बहुत नुकसानदायक हैं। अच्छा, आगे उस ने कहा कि यह जो जिम-विम वाले हैं वे तो कहते हैं कि जो डिब्बे वो बेच रहे हैं, वे बिल्कुल ठीक हैं। बात वही है कि अगर उन्होंने इन डिब्बों को आठ-नौ सौ रूपये में बेचना है तो इतना सा आश्वासन देने में उन का क्या जाता है, कौन सा ग्राहक इन की टैस्टिंग करवाने लगा है, और सच बात तो यह है कि किसी को पता भी तो नहीं कि यह टैस्टिंग हो कहां पर सकती है।

पिछले सप्ताह अस्पताल में एक युवक मेरे से कोई दवाई लेने आया ...अच्छा, अब पता झट चल जाता है कि सेहत का राज़ क्या है, शारीरिक व्यायाम, पौष्टिक आहार या फिर वही डिब्बे वाला सप्लीमेंट से डोले-शोले बना रखे हैं ....मुझे लगा कि यह डिब्बों वाला केस है ...मेरे पूछने पर उस ने बताया कि सर, दो महीने डिब्बे खाये हैं, पहले महीने तो मुझे अपने आप में लगा कि मुझ में नई स्फूर्ति का संचार हो रहा है तो दूसरे महीने मुझे देख कर लोगों ने कहना शुरू कर दिया। आगे पूछने लगा कि सर, क्या आप अपने बेटे को ये सप्लीमैंट्स खिलाने के लिये पूछ रहे हैं.....उस के बाद मुझे इन सप्लीमैंट्स की सारी पोल खोलनी पड़ी।

हां, तो मैं उस मित्र की बात कर रहा था जो कह रहा था कि जिम संचालक तो कहते हैं कुछ नहीं इन में सिवाए बॉडी को फिट रखने वाले तत्वों के ......लेकिन जो बात उस ने आगे की, मुझे वह सुन कर बहुत शर्म आई क्योंकि मेरे पास उस की बात का कोई जवाब नहीं था।

हां, जानिए उस मित्र ने क्या पूछा....उस ने कहा ..डाक्टर साहब, मैं आप के पास आया हूं, आप ने बता दिया और मैंने मान लिया ...लेकिन उन हज़ारों युवकों का क्या होगा जो ये सप्लीमैंट्स खाए जा रहे हैं.... उस ने यह भी कहा कि इन डिब्बों पर तो स्टीरायड नामक प्रतिबंधित दवाईयों के उस पावडर में डाले जाने की बात कही नहीं होती।

अब इस का मैं क्या जवाब देता ? – बस, यूं ही यह कह कर कि कोई कुछ भी कहें, इन में कुछ प्रतिबंधित दवाईयां तो होती ही हैं जो शरीर के लिये नुकसानदायक होती हैं। लेकिन उस का प्रश्न अपनी जगह टिका था कि अगर ये नुकसानदायक हैं तो फिर ये सरे-आम बिकती क्यों हैं, अब इस का जवाब मैं जानते हुए भी उसे क्या देता!! बस, किसी तरह यह बात कह कर इस विषय को चटाई के नीच सरका दिया कि लोगों की अवेयरनेस से ही सारी उम्मीद है। लेकिन उस बंदे के सारे प्रश्न बहुत कुछ सोचने पर मजबूर करने वाले हैं।

परसों उस मित्र से होने वाली इस बातचीत का यकायक ध्यान इसलिए आ गया क्योंकि कल मैंने अमेरिकी फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन की साइट पर एक पब्लिक के लिये नोटिस देखा जिस में उन्होंने जनता को आगाह किया था एक गर्भनिरोधक दवाई न लें क्योंकि वह नकली हो सकती है, इस से नुकसान हो सकता है.....यह उस तरह की दवाई थी जो एमरजैंसी गर्भनिरोधक के तौर पर महिलाओं द्वारा खाई जाती है.....असुरक्षित संभोग के बाद (unprotected sex) ….. वैसे तो अब इस तरह की दवाईयों के विज्ञापन भारतीय मीडिया में भी खूब दिखने लगे हैं....इन की गुणवत्ता पर मैं की प्रश्नचिंह नहीं लगा रहा हूं लेकिन फिर भी कुछ मुद्दे अब महिला रोग विशेषज्ञ संगठनों ने इन के इस्तेमाल से संबंधित उठाने शुरू कर दिये हैं।

सौजन्य .. फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन
पहला तो यह कि कुछ महिलाओं ने इसे रूटीन के तौर पर इस्तेमाल करना शुरू कर दिया है ... दंपति यह समझने लगे हैं कि यह भी गर्भनिरोध का एक दूसरा उपाय है....लेकिन नहीं, यह एमरजैंसी शब्द जो इन के साथ लगा है यह बहुत ज़रूरी शब्द है. वरना रूटीन इस्तेमाल के लिये अगर इसे गर्भनिरोधक गोलियों (माला आदि) की जगह इसे इस्तेमाल किया जाने लगेगा तो अनर्थ हो जाएगा, महिलाओं की सेहत के ऊपर बुरा असर – after all, these are hormonal preparations-- और दूसरी बात यह कि लोगों को यह गलतफहमी है कि इस तरह का एमरजैंसी गर्भनिरोधक लेने से यौन-संचारित रोगों की चिंता से भी मुक्ति मिलती है, लेकिन ऐसा बिल्कुल नहीं है।

हम भी कहां के कहां निकल गये ....वापिस लौटते हैं उस अमेरिकी एफडीआई की चेतावनी की तरह जिस में उन्होंने एक ऐसे ही प्रोडक्ट की फोटो अपनी वेबसाइट पर डाल दी है ताकि समझने वाले समझ सकें, लेकिन मेरी भी तमन्ना है कि जो किसी भी नागरिक के लिये खराब है ...पहली बात है वो कैमिस्टों की दुकानों पर बिके ही क्यों और दूसरी यह कि क्यों न अखबारों में, चैनलों पर इन के बारे में जनता को निरंतर सूचित किया जाए ..........आखिर चैनल हमें प्रवचनों की हैवी डोज़ या फिर सास-बहू के षड़यंत्र दिखाने-सिखाने के लिए ही तो नहीं बने....सामाजिक सरोकार तो भी कोई चीज़ है। कोई मेरी बात सुन रहा है या मैं यूं ही चीखे जा रहा हूं?

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सप्लीमैंट्स से सावधान

शनिवार, 23 जुलाई 2011

बिना डाक्टर की पर्ची के दवाईयां न बेचने पर इतना बवाल!

कुछ दिन पहले मैं एक खबर की चर्चा कर रहा था जिस से पता चला था कि इंदौर में डाक्टर दो पर्चीयां बनाया करेंगे –एक मरीज़ के पास रहेगी और दूसरी कैमिस्ट अपने पास रख लिया करेगा। लेकिन आज सुबह पता चला कि दिल्ली में भी कुछ ऐसा ही होने जा रहा है जिस की वजह से वहां कैमिस्टों ने खासा बवाल मचा रखा है।

कैमिस्टों का कहना है कि दिल्ली में यह जो ओटीसी दवाईयों के ऊपर प्रतिबंध लगाने का प्रस्ताव है, यह उन के लिए बहुत कठिन काम है। ऐंटीबॉयोटिक दवाईयों के बारे में उन का कहना है कि उन की जितनी कुल दवाईयां बिकती हैं उन का 60 प्रतिशत तो ऐंटीबॉयोटिक दवाईयां ही तो होती हैं...ऐसे में कैमिस्ट का एक वर्ष तक उन सभी डाक्टरी नुस्खों को संभाल के रखना संभव नहीं है।

न्यूज़ में यह भी लिखा है कि कुछ 16 ऐसी दवाईयां जिन्हें बेहद आपातकालीन परिस्थितियों (life-threatening conditions) में ही इस्तेमाल किया जाता है जैसे कि कैंसर एवं दिल के रोग से संबंधित किसी एमरजैंसी के लिये – इन को भी केवल अस्पताल में स्थित दवाई की दुकानों में ही बेचे जाने का प्रस्ताव है। पढ़ तो मैंने यह लिया लेकिन मुझे यह समझ में नहीं आया कि अगर ऐसा कुछ सरकार कर रही है तो इस में आखिर बुराई क्या है!

हां, कैमिस्ट एसोशिएशन का यह भी मानना है कि इस तरह की व्यवस्था हो जाएगी तो ऐंटीबॉयोटिक दवाईयों की कालाबाज़ारी शुरू हो जाएगी।

चलिए खबर में लिखी बातों की बात तो हो गई...अब ज़रा मैं भी आपसे दो बातें कर लूं।

ऐसा है कि जितना स्वास्थ्य दुनिया में लोगों को इन ऐंटीबॉयोटिक दवाईयों ने खराब किया है, शायद ही किसी अन्य दवाई ने किया है। बस नाम पता होना चाहिए...जिस की जो मर्जी होती है कोई भी सख्त से सख्त ऐंटीबॉयोटिक कैमिस्ट से खरीद कर लेना शुरू कर देता है ....बीमारी का पता नहीं, आम मौसमी खांसी जुकाम के लिये भी ऐंटीबॉयोटिक दवाईयां लेना आम सी बात है। ऐसी दवाईयों का पूरा डाक्टर की सलाह से न करना भी आज विश्व के लिये एक बहुत बड़ी चुनौती है। घटिया, नकली दवाईयां, तरह तरह की हर जगह होने वाली सैटिंग ... खुले ऐंटीबॉयोटिक के नाम पर अजीबो गरीब साल्ट बेचे जाना एक आम सी बात हो गई है... ऊपर से यह जैनरिक और एथिकल दवाईयों का पंगा ... जैनरिक दवाईयां ---जिन के उदाहरणतयः प्रिंट तो रहेगा 60 रूपये की दस कैप्सूल की स्ट्रिप –लेकिन आप के कैमिस्ट से संबंधों के अनुसार वह 30 की मिले, 18 की मिले या आठ रूपये की ही मिल जाए.....................यह एक ऐसा एरिया है जिसे मैंने पिछले 10 वर्षों से जानना चाहिए लेकिन हार कर जब कुछ भी कोई ढंग से बता ही नहीं पाता (या बताना चाहता ही नहीं?) तो मैंने भी घुटने टेक देने में ही समझदारी समझी।

आलम यह है कि मुझे 25 साल इस व्यव्साय में बिताने के बाद आज तक यह पता नहीं है कि जैनरिक दवाई को एथिकल दवाई से कैसे पहचान सकते हैं। एथिकल दवाईयों जैसे ही नाम में आती हैं जैनरिक दवाईयां --- अब पता नहीं इस राज़ को कौन खोलेगा!

अच्छा, यह जो इन कैमिस्ट ऐसोसिएशनों का कहना है कि इस से ऐंटीबॉय़ोटिक दवाईयों की कालाबाज़ारी शूरू हो जाएगी ... मुझे ऐसा बिलकुल नहीं लगता .. जिन्हें सही में इस तरह की दवाईयां चाहिए होंगी उन को तो कभी भी इन को प्राप्त करने में कोई कठिनाई आयेगी नहीं और जिन्हें केवल काल्पनिक, रोगों के लिये, अपनी मरजी से ही इस तरह की दवाईयां चाहिए उन के लिये ऐसी कालाबाज़ारी कल की बजाए आज शुरू हो जाए तो बेहतर होगा..... कम से कम इस तरह की दवाईयां कम ही तो खरीद पाएंगे ...इसलिये इन्हें खाया भी कम ही जाएगा जिस से वे सारी दुनिया का भला ही करेंगे।

यह जो मैं बार बार लिख रहा हूं कि बिना कारण इस तरह की ऐंटीबॉयोटिक दवाईयां न खा कर भला कैसे कोई सारे विश्व का भला कर सकता है? ¬¬¬ ---दरअसल समस्या यह है कि ऐसी महत्वपूर्ण दवाईयों के अंधाधुंध उपयोग से बहुत सी महत्वपूर्ण दवाईयां जीवाणु मारने की क्षमता खोने लगी हैं --- जीवाणुओं पर अब इन का असर ही नहीं होता --- (Drug Resistance) … जिस की वजह से बीमारी पैदा करने वाले जीवाणु ढीठ होते जा रहे हैं .. यह एक भयंकर समस्या है .... सोचिए जब पैनसिलिन नहीं था तो किस तरह से मौतें हुया करती थीं . किस तरह से टीबी की दवाईयां आने से पहले टीबी होने का मतलब मौत ही समझा जाता था।

जो भी सरकार इस तरह के नियम बना रही है बहुत अच्छी कर रही है.... इस तरह के फैसले बड़ी सोच विचार करने के बाद, विशेषज्ञों की सहमति से लिये जाते हैं... इसलिये इन पर कोई भी प्रश्नचिंह लगा ही नहीं सकता। सरकार का दायित्व है कि उस ने सारी जनता के हितों की रक्षा करनी है ---अब अगर कुछ लोग अनाप शनाप दवाईयां खाकर कुछ इस तरह के बैक्टीरिया उत्पन्न करने में मदद कर रहे हैं जिन के ऊपर दवाईयां असर ही नहीं करेंगी तो फिर कैसे चलेगा, सरकारों ने तो यह सब कुछ देखना है।

जितना लिख दिया था लिख दिया मैंने ---लेकिन इतना तो तय है कि जितने मरजी नियम आ जाएं ... यह जो लोग अपनी मरजी से दवाई खरीद कर खाने के आदि हो चुके हैं, ये बाज नहीं आने वाले, ये कैसे भी जुगाड़बाजी कर के मनचाही दवाईयां खरीद ही लेते हैं ....इस के अनेकों कारण हैं।

इससे दुःखद बात क्या हो सकती है कि अधिकांश अस्पतालों में कोई ऐंटीबॉयोटिक पालिसी ही नहीं है ....और अगर कहीं कहीं है भी तो डाक्टरों को ही उस का नहीं पता .....क्या कहा, पता होगा! --- मुझे तो कभी नहीं लगा ...जिस तरह से सादे खांसी जुकाम के लिये धड़ाधड़ महंगे से महंगे, सख्त से सख्त ऐंटीबॉयोटिक दवाईयां लिखी जा रही हैं, उस के बाद भी कैसे मान लूं कि कहीं पर भी कोई ऐंटीबॉयोटिक पालिसी है।

Source : Chemists plan to protest OTC ban

शनिवार, 16 जुलाई 2011

नकली दवाईयों की फैक्टरी पकड़ी गई


आज की दा हिंदु में खबर छपी है कि फरीदाबाद में एक नकली दवाईयों की फैक्टरी पकड़ी गई है ... और लाखों रूपये की नकली दवाईयां बरामद की गई हैं। आतंकवादी घटनाओं से जितना सारा देश हिल जाता है उतना इस तरह की खबरों को सुनने से क्यों नहीं हिलता .... मेरे विचार में दोनों ही बातें बेहद शर्मनाक है। आतंकी तो पीठ में छुरा घोंपने जैसी बात करते हैं, लेकिन ये जो अपने ही सफेदपोश जिन्हें समाज अपना ही कहता है, ऐसा धंधा करने वाले लोग आतंकियों की श्रेणी में कब आएंगे?

किसी भी सरकारी अस्पताल में हाल-बेहाल घंटों इंतज़ार करने वाले मरीज़ों के चेहरों को याद भी नहीं करते ऐसा धंधा करने वाले लोग – वे लोग घंटों डाक्टर की इंतज़ार में भूखे-प्यासे इंतज़ार करते रहते हैं कि डाक्टर उन के मरीज़ को देखेगा, बढ़िया सी दवाई लिखेगा ...कोई बात नहीं अच्छी कंपनी की दवाई खरीद लेंगे कैसे भी ..अपना मरीज़ ठीक होना चाहिए। लेकिन मैं जिस खबर की बात कर रहा हूं उस में मशहूर कंपनियों की दवाईयों के नकली बनाए जाने की बात कही गई है।

यही सोच रहा हूं कि आम आदमी आखिर मरे तो मरे कहां, अगर आतंकी हमलों से बच भी गया तो बेचारा इन नकली दवाईयों की वजह से कोई सफेदपोश, संभ्रांत आतंकी उसे मार गिरायेगा। सोच रहा हूं पहली बार तो इस तरह की दवाईयां पकडी नहीं गई ...हम लोग लगातार नियमित तौर पर ये सब भंडे फूटते देखते सुनते रहते हैं लेकिन आगे के आंकड़े पता करने की बात है ---उन का आगे जा कर बना क्या, कितनो को सज़ा हुई .....कितनो को कोई ऐसा सबक मिला कि उन्होंने ऐसे धंधों से तौबा कर ली।

बात यह नहीं है कि इतने लाखों की दवाईयां पकड़ी गईं----लेकिन सोचने वाली बात यह है कि ये नकली दवाओं का धंधा करने वाले मौत के सौदागर पता नहीं कितने वर्षों से इन धंधों में लिप्त रहते हुये कितने हज़ारों-लाखों लोगों की ज़िंदगी से खिलवाड़ करते रहे .... यह तो तय है कि इन की नकली दवाईयों से हज़ारों-लाखों ज़िदगीयां खत्म तो हुई ही होंगी ...लेकिन उस बात का हिसाब कौन रखेगा। यह भी तय है कि बिना किसी साक्ष्य के पिछली करतूतों को किस सफ़ाई से ढक दिया जाएगा।

नकली दवाई का धंधा ... माफ़ कीजिए, यह नाम सुनते ही इस तरह का धंधा करने वाले शैतानों की मानसिकता के बारे में सोच कर घिन्न आने लगती है। एक उदाहरण देखिये ---आज कल यह Drug Resistance अर्थात् जब किसी बीमारी के जीवाणुओं पर कोई दवा असर करना बंद कर देती है, उसे हम कह देते हैं कि ये ढीठ हो गये हैं.... इसे ही ड्रग-रिसिस्टैंस कहते हैं ... सब से बड़ा मुद्दा है आज चिकित्सकों के सामने टीबी की बीमारी के इलाज में टीबी की दवाईयों का काम न कर पाना। है ना, यह तो आप भी यहां वहां देखते सुनते ही हैं।

अब देखिए..गरीब मज़दूर, टीबी हुई ...पहले तो सरकार को कितना प्यार से समझाना बुझाना पड़ता है कि खा ले दवाईयां ठीक हो जाएगा, चलो जी उस ने कहीं से मुफ्त में लेकर या कहीं से कैसे भी जुगाड़ कर के मार्कीट से दवाईयां ले भी लीं .. लेकिन अगर दवाईयां किसी शैतान की फैक्टरी से निकली नकली या घटिया किस्म की दवाईयां हैं, तो उस की स्थिति में सुधार नहीं होगा, तो चिकित्सकों के पास और कोई चारा नहीं होगा, और स्ट्रांग दवाईयां दी जाने लगेंगी, लेकिन अगर वे भी नकली-घटिया हैं तो उस गरीब को कोई मौत के मुंह से बचा के तो दिखाए।

यह तो एक उदाहरण थी .. किसी भी बीमारी के लिये यह कल्पना कीजिए कि ऐसी वैसी दवाईयां क्या कोहराम मचाती होंगी....शूगर में, ब्लड-प्रैशर में, किसी इंफैक्शन में ... किसी भी स्थिति में यह दवाईयां मरीज़ों की हालत बद से बदतर ही करती हैं। मैं आप से पूछता हूं कि ऐसा धंधा करने वाले आतंकी क्यों नहीं है।

आज सुबह पेपर में देखा कि अमिताभ ने बंबई बम विस्फोटों के संदर्भ में लोगों से कहा है कि आप सब अब पुलिस की तरह ही अपना रवैया रखो --- अर्थात् फूंक फूंक कर कदम रखो .... सोच रहा हूं कहने सुनने के लिये बातें अच्छी लगती हैं, बुद्धिजीवि सोच है.....काश, इन नकली दवाईयों के लिये भी कुछ समाधान सामन आ जाए ... एक छोटा सा सुझाव यह है कि कोई भी दवाई खरीदते समय उस का बिल ज़रूर लिया करें... ऐसा करना अपने आप में ऐसे धंधों को न पनपने देने की एक रोकथाम ही है। चालू किस्म की दवाईयां, बस अड्डों में जो बसों में जो बिल्कुल सस्ती दवाईयां बेचते होंगे, वे क्या बेचते होंगे, इस में अब कोई शक नहीं होना...............और यह तो है कि यह नकली दवाईयों के धंधे का कोढ़ इतना फैल चुका है कि इस की कल्पना भी करना कठिन है।

कल्पना करिये तो बस इस बात की अगर दमे के अटैक के समय दी जाने वाली दवाई नकली निकले, हार्ट अटैक में दिया जाने वाला टीका मिलावटी हो, बच्चे के निमोनिये के टीके नकली हैं, आप्रेशन के वक्त बेहोश करने वाली दवाई नकली हो, गर्भवती औरत को रक्त बढ़ाने के लिये दी जाने वाली दवाईयां घटिया हों.................................सिर दुःखता है न सोच कर.... दुःखना ही चाहिये, यह पाठकों की मानसिक सेहत की निशानी है, अगर सिर दुःखेगा तो ही आप और हम सजग रहेंगे, जितना हो सकेगा पूरे प्रयास करेंगे कि ऐसी दवाईयों से बचा जा सकें (?????) ..हर दवाई का बिल लें, यहां वहां से खुली दवाईयां, टैबलेट न लें..... इस के अलावा एक आम करे भी तो क्या करे.............ध्यान आ रहा है कि बड़ी बड़ी मशहूर कंपनियों की दवाईयों को अगर इन नकली फैक्टरियों ने मिट्टी पलीत कर दी है तो ये जो झोलाछाप, गांवों-कसबों-शहरों में बैठे नीम हकीम ये जो खुली दवाईयां खिलाये जा रहे हैं, यह क्या खिला रहे होंगे, सोचने की बात है!!

कोई नहीं, इतनी टेंशन लेने की बात नहीं है, थोड़ी दार्शनिक सोच रखेंगे तो ही यहां जी पाएंगे---जो हो रहा है अच्छा हो रहा है, जो हुआ अच्छा ही हुआ और जो होगा वह भी अच्छा ही होगा...........तो फिर चिंता काहे की, यही बातें आप वाले सत्संग में भी बार बार दोहराई जाती हैं ना .......... शुभकामनाएं।

बुधवार, 13 जुलाई 2011

यौन-रोग सूज़ाक की बेअसर होती दवाईयां

क्या सूज़ाक का नाम नहीं सुना? – ये जो लोग पहले सिनेमाघरों, बस अड्डों और रेलवे स्टेशनों के बाहर हर किसी को एक इश्तिहार सा थमाते दिखते थे – जिस में किसी खानदानी नीम हकीम द्वारा हर प्रकार के गुप्त-रोग का शर्तिया इलाज का झांसा दिया जाता था, उस लिस्ट में कितनी बार लिखा तो होता था – आतशक-सूज़ाक जैसे रोग भी ठीक कर दिये जाते हैं। खैर वे कैसे ठीक करते हैं, अब सारा जग जानता है, केवल मरीज़ को उलझा के रखना और उन से पैसे ऐंठना ही अगर झोलाछापों का ध्येय हो तो इन से बच के रहने के अलावा कोई क्या करे।

हां, तो इस योन रोग सूज़ाक को इंगलिश में ग्नोरिया रोग (Gonorrhoea) कहते हैं – समाचार जो कल दिखा है वह यह कि इस रोग के इलाज में इस्तेमाल की जाने वाली दवाईयां बेअसर हो रही हैं और आने वाले समय में इस का इलाज करना मुश्किल हो जायेगा--- जब दवाईयां ही काम नहीं करेंगी तो इलाज क्या होगा!!

थोड़ा सा इस रोग के बारे में – यह रोग किसी संक्रमित व्यक्ति से संभोग से फैलता है और यह केवल vaginal sex से ही नहीं बल्कि ओरल-सैक्स एवं एनल सैक्स (मुथमैथुन एवं गुदा-मैथुन) से भी फैलता है। तो इस के लक्षण क्या हैं? –इस के लक्षणों के बारे में महत्वपूर्ण बात यह है कि लगभग 50फीसदी महिलाओं में तो इस के कोई लक्षण होते ही नहीं हैं, लेकिन 2 से 5 प्रतिशत पुरूषों में इस के कोई लक्षण नहीं होते।

इस के ऊपर भारतीयों की एक और विषम समस्या --- वे अकसर इन रोगों को छोटे मोटे समझ कर या झिझक की वजह से किसी क्वालीफाइड डाक्टर से मिल कर न तो इस का आसान सा टैस्ट ही करवाते हैं और न ही इस के लिये कुछ दिन दवाईयां लेकर इस से मुक्ति ही हासिल कर पाते हैं। नतीजतन यह रोग बढ़ता ही रहता है ... और महिलाओं में तो बांझपन तक की नौबत आ जाती है ...और भी बहुत सी परेशानियां – जैसे पैल्विक इंफेमेटरी डिसीज़(pelvic inflammatory disease), पेशाब में जलन आदि हो जाती हैं।

पुरूषों में भी इस रोग की वजह से पेशाब में जलन (पेशाब की जलन के बहुत से अन्य कारण है, केवल पेशाब की जांच से ही कारण का पता चल सकता है), अंडकोष में सूजन और गुप्तांग से डिस्चार्ज हो सकता है। लेकिन इन नीम हकीमों के चक्कर में सही इलाज से दूर ही रहा जाता है।

विश्व भर के हैल्थ विशेषज्ञों की यही राय है कि ऐसे यौन-जनित रोग जिन का इलाज नहीं करवाया जाता ये रोग एचआईव्ही संक्रमण को बढ़ावा देने में भी मदद करते हैं—क्योंकि इन की वजह से यौन अंगों पर जो छोटे मोटे घाव, फोड़े, फुंसियां होते हैं वे एचआईव्ही वॉयरस को शरीर में प्रवेश करने का एक अनुकूल वातावरण उपलब्ध करवाते हैं।

तो इस खबर पढ़ कर हरेक का यह कर्तव्य बनता है कि इस के बारे में जितनी भी हो सके जनजागरूकता बढ़ाए ताकि अगर किसी को इस तरह की कोई तकलीफ है भी तो वह उस से जल्द से जल्द निजात पा सके....फिर धीरे धीरे इस के जीवाणु इतने ढीठ (drug resistance) होने वाले हैं कि पछताना पड़ सकता है।

इस तरह के रोग अमीर देशों में बहुत हैं यह हम लोग अकसर देखते पढ़ते हैं ...बेपरवाह उन्मुकता जैसे बहुत से अन्य कारणों (जिन्हें आप जानते ही हैं) में से एक कारण यह भी है कि वहां लोग इस तरह के टैस्ट करवा लेते हैं ...लेकिन भारत में पहले तो ढंग के डाक्टर (मतलब क्वालीफाइड) के पास जाता ही नहीं और अगर वहां चला भी गया तो बहुत बात टैस्ट और दवाईयां करवाने लेने के लिये टालमटोल करता है, चलो थोड़ा दिन और देशी दवाई खा कर देख लेते हैं ...इन हालातों में वह आगे से आगे यह रोग तो संचारित करता ही है, अपना तो ऩुकसान करता ही है।
Further reading
Drug resistant STD now a global threat
स्वस्थ लोगों को बीमार करने की सनक या कुछ और

सोमवार, 11 जुलाई 2011

ताकत के कैप्सूल की पाठशाला ...

कल हिंदी की एक अखबार में मुझे "ताकत के कैप्सूल" का एक विज्ञापन दिख गया ... उसे ध्यान से पढ़ते-देखते हुये मैं यही सोच रहा था कि जितनी मेहनत ये कंपनियों वाले इस तरह के कैप्सूल आम जन को बिना सोचे-समझे गटकने के लिये विवश करने के लिये करते हैं .....इन के विज्ञापनों की साज सज्जा, शैली, भाषा ...एकदम परफैक्ट। अगर मरीज़ों को अपने स्तर पर कुछ निर्णय लेने के लिये प्रेरित करने की बात है तो हमारी चिकित्सा व्यवस्था को भी इन के तौर-तरीकों से कुछ सीखने की ज़रूरत है। यह रंगीन विज्ञापन था जिसे एक कॉमिकस की तरह पेश किया गया था।

उस विज्ञापन में जो कुछ लिखा था, यहां बताना चाहूंगा .... उस की स्कैन्ड कॉपी अपरिहार्य कारणों से यहां चिपकाने में असमर्थ हूं। एक बंदा बाज़ार में घूम रहा है ..तो अचानक उसे एक केन्द्र का बोर्ड दिख जाता है....यह केन्द्र कोई और केन्द्र-वेन्द्र नहीं है, बस उस कैप्सूल के नाम के आगे केन्द्र लिख दिया गया है..... और आगे सुनिये ...
---अरे, .....केन्द्र। इस के बारे में थोड़ी जानकारी ले लेता हूं।
-- वह बंदा अदंर जाता है और एक सफेद कोट धारण हुये बंदे से उस कैप्सूल का नाम लेकर पूछता है .... यह क्या है?
कंपनी वाला -- यह भारत का नंबर 1 दैनिक स्वास्थ्य पूरक है जिसमें 11 विटामिन, 9 मिनरल और जिनसेंग का संतुलित मिश्रण है।
जिज्ञासु - अरे वाह! इसके क्या फ़ायदे हैं?इसे दैनिक स्वास्थ्य पूरक क्यों कहते हैं?
कंपनी वाला- यह शरीर में ऐसे पौष्टिक तत्वों की भरपाई करता है जिनकी कमी के कारण थकान, कमज़ोरी और शरीर टूटने लगता है। इस तरह से यह आपको सारा दिन चुस्त और तन्दरूस्त रखता है। इस का सेवन रोज़ करना चाहिए, इसलिेए इसे दैनिक स्वास्थ्य पूरक कहते हैं।
जिज्ञासु - अच्छा!
कंपनी वाला - यही नहीं, यह मानसिक चेतना और एकाग्रता भी बढ़ाता है। इस से रोगरोधी क्षमता मज़बूत होती है। यह विटामिन और मिनरल की भरपाई करता है और अच्छा स्वास्थ्य बनाए रखने में मदद करता है।
जिज्ञासु - मैं घर का बना नियमित आहार लेता हूं, क्या तब भी यह कैप्सूल लेना चाहिए ?
कंपनी वाला - यह कैप्सूल कुछ ऐसे ज़रूरी विटामिन और मिनरल की पूर्ति करता है जो नियमित आहार लेने के बाद भी हमारे शरीर को नहीं मिल पाते।
जिज्ञासु - यह कैप्सूल कौन ले सकता है?
कंपनी वाला -- 12 वर्ष से अधिक आयु के पुरूष इस का सेवन कर सकते हैं। यही नहीं अब तो महिलाओं के लिए खास कैप्सूल वुमन और 50 वर्ष से अधिक आयु वर्ग के लिए ...सीनियर भी उपलब्ध है। यह कैप्सूल अत्यंत व्यस्त जीवनशैली और शारीरिक अथवा मानसिक तौर पर थका देने वाले हालात में काम करने वालों के लिए अति उत्तम है।
जिज्ञासु - धन्यवाद.. ..कैप्सूल एक्सपर्ट, मैं आज से ही इस कैप्सूल का नियमित सेवन करूंगा।

और इस बढ़िया से विज्ञापन से नीचे लिखा है -- तो आप यह कैप्सूल लेना कब से शुरू कर रहे हैं? और इस कैप्सूल विशेषज्ञ के लिये टॉल फ्री नं ......या एसटीडी नंबर ..... पर कॉल करें या ......इस नंबर ....पर SMSकेरं या e-mailकरें इस पते पर ....और तो और साथ ही net-savvy ग्राहकों के लिए इस कैप्सूल के फेसबुक पेज़ का पता भी दिया गया है। और सब से नीचे लिखा गया है कि इस कैप्सूल से संबंधित ज्ञान को अगले तीन हफ़तों तक रविवारीय संस्करण के माध्यम से बटोरें और फिर 31 जुलाई के अंक में इस कैप्सूल पर आधारित सवालों का जवाब भेजें और जीतें ढेर सारे आकर्षक इनाम।

साइड में एक अंतर्राष्ट्रीय खिलाड़ी की फोटू भी लगी है जिस ने इन कैप्सूलों को पकड़ा हुआ है --- मुझे लगता है कि वह तो इन्हें खाता नहीं होगा, और असल में उसे इतनी युवावस्था में इन्हें लेने की ज़रूरत पड़ती है तो किसी चिकित्सक से मिल लेना उस के लिये हितकारी होगा। हां, तो बताइए, इस तरह का विज्ञापन देख कर है कोई जो इन के चक्कर में पड़ने से बच पाए।

और जिज्ञासु की बात सुनी आपने - वह बेचारा इसी गम में दुबला हुआ जा रहा है कि वह घर का खाना खाता है ----और क्या खाएगा, भाई। और किस तरह से कंपनी वाले द्वारा उस का ब्रेन-वॉश किया जा रहा है कि घर में तो तुम कुछ भी खा लो, तुम्हें कुछ न कुछ कमी तो रह ही जाएगी, थकान भी होगी और कमज़ोरी भी लगेगी।

लेकिन इस तरह के कैप्सूलों के बारे में सच्चाई यह है कि बिना किसी शारीरिक बीमारी के और बिना किसी डाक्टरी परामर्श के इस तरह के कैप्सूल स्वयं भी लेने शुरू कर देना बिल्कुल बेकार सी बात है। हां, चिकित्सक कुछ अवधि तक किसी पुरानी बीमारी आदि में विटामन आदि के कैप्सूल लेने की सलाह दे सकते हैं.... वो अलग बात है। एक बात पढ़ कर तो और भी अजीब लगा कि इसे 12 वर्ष से अधिक आयु के पुरूष ले सकते हैं ...... यह पढ़ते हुये यही लग रहा था कि कंपनी को क्या फ़र्क पड़ेगा --- चाहे तो कोई नवजात् शिशु को दलिेये, खिचड़ी के साथ मिला के ही देने की हिमाकत कर दे।

कंपनी का सीधा सीधा फंडा है कि उस के कैप्सूल बिकने चाहिएं ...और खूब बिकने चाहिएं। काश, चिकित्सा व्यवस्था इन कंपनियों की अपनी दवाईयां बेचने की शिद्धत से कुछ पाठ सीख सकें ....ताकि वे भी अपने सेहत से जुड़े बेशकीमती संदेश करोड़ों लोगों तक और भी प्रभावपूर्ण ढंग से बेच पाएं।

शुक्रवार, 1 जुलाई 2011

डाक्टरी नुस्खे की दो कापियां करेंगी जादू ?

जी हां, आज की टाइम्स ऑफ इंडिया में यही खबर छपी है .. Now, two prescriptions to buy medicines. दरअसल, मैंने जब यह समाचार देखा कि यह तो इंदौर से संबंधित है तो मुझे लगा कि इस का भी संबंध उस लड़कियों को लड़के बनाने वाले लफड़े से ही होगा, लेकिन नहीं, यहां कुछ दूसरा मसला था।

इंदौर की पुलिस के मुताबिक आज कल के मुजरिम कोई भी बड़ी वारदात अंजाम देने से पहले कैमिस्ट के यहां से आसानी से मिल जाने वाली दवाईयों को इस्तेमाल कर के बेखौफ़ हो जाते हैं। दवाईयों की जिस लिस्ट को अखबार में छपा गया, वह यह थी –Alprazolam, Diazepam, Oxazepam, Nitrazepam, Clobazepam, Flurarepam, Pentozocine, Clobazam, Chlordiazepoxide, Midazolam, Lorazepam.

यह दवाईयां अवसाद (anti-depressant), मूड को दुरूस्त रखने के लिये (mood elevators), मन को शांत रखने के लिये ( sedatives) इस्तेमाल की जाती हैं.. इन में से दौरों के लिये इस्तेमाल की जाने वाली दवाई भी है।
इन में से कुछ दवाईयां ऐसी हैं जिन्हें अगर शराब के साथ ले लिया जाए तो नशा कईं गुणा बढ़ जाता है। दरअसल ये दवाईयां उस लिस्ट में आती हैं जिन्हें डाक्टरी नुस्खे के बिना कैमिस्ट के यहां से खरीदा ही नहीं जा सकता।

अब इंदौर में ऐसा प्रबंध सुनने में आया है जो कि पुलिस ने इंडियन मैडीकल एसोशिएशन की सहमति से एक व्यवस्था शुरू की है जिस के अंतर्गत अब इन दवाईयों को लेने के लिये चिकित्सक नुस्खे की दो कापियां बनाया करेंगे, एक कापी मरीज़ के पास रहेगी, दूसरी कैमिस्ट के द्वारा जमा कर ली जाया करेगी।

और 1 अगस्त 2011 से पुलिस इन कैमिस्टों का औचक निरीक्षण किया करेगी ---अगर इन नियमों का पालन नहीं किया जायेगा तो केस रजिस्टर किये जाएंगे।

आप को कैसे लगा यह खबर पढ़ कर –पता नहीं टाइम्स की साइट से यह खबर क्यों गायब है, चलिये इस व्यवस्था पर टिप्पणी करने से पहले इंदौर को अपनी शुभकामनाएं तो भेंट कर दें कि काश, वह शहर कुछ ऐसी उदाहरण पेश कर सके जिसका देश भर में अनुसरण किया जा सके।

लेकिन मुझे हमेशा से यही लगता रहा है कि कैसे डाक्टरी नुस्खे से ही दवाई हासिल की जाती होगी ---वैसे हकीकत क्या है, किस तरह से कोई भी दवाई कोई भी कहीं से कैसे भी हासिल कर सकता है।

मुझे हमेशा से यही लगता है कि अगर किसी के पास एक नुस्खा है भी तो कैमिस्ट के पास क्या प्रूफ़ है कि उस ने डाक्टरी नुस्खे के आधार पर वो दवाईयां दी हैं, लेकिन वह भी इतनी माथापच्ची क्यों करे क्योंकि यहां पर दवाईयों की कैश-मीमो तक लेने का रिवाज ही नहीं है।

एक नुस्खे को बीसियों कैमिस्टों को बीसियों जगह से कोई भी दवा हासिल की जा सकती है, कोई शक ? हम लोग अकसर यह भी देखते सुनते और पढ़ते रहते हैं कि कुछ लोगों की लापरवाही से किस तरह यह नशों का धंधा किस तरह से फल-फूल रहा है।

मुझे यह खबर पढ़ कर यह भी हैरानी हुई कि क्या पुलिस वाले भी कैमिस्ट की दुकानों पर जा कर चैकिंग कर सकते हैं, जैसा कि इस खबर में बताया गया है। जहां तक मुझे जानकारी है यह काम तो ड्रग –इंस्पैक्टर करते हैं, लेकिन पता नहीं अब क्या नये नये नियम बन रहे हैं।

कितना सही हो , अगर सब लोग अपना अपना काम सही ढंग से करें – न ही बिना ज़रूरत के इस तरह के खतरनाक नुस्खे लिखे ही जाएं, न ही ये नशे बेचे जाएं , न ही इन्हें बिना वजह खाया जाए ... वही बात है ..wishful thinking .... लेकिन अगर नशे करने वाला ही यही समझ ले कि सब से ज़्यादा तो वही अपना नुकसान किये जा रहा है, मौत को बुलावा दे रहा है, नियमों का क्या है, बनते रहेंगे, टूटते रहेंगे..............काश, इस व्यवस्था को सुचारू किया जा सके। लेकिन मुझे लगता है कि इस कोढ़ का इलाज इतना आसान नहीं है कि दो नुस्खे बनने से और पुलिस के सरप्राइज़ चैक से ही सब लोग अच्छे बच्चे बन जाएंगे ..... इस समस्या के अनेकों पहलू हैं जो बुरी तरह से गुथे हुये हैं... जिन को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता।

सोमवार, 9 मई 2011

गुप्त रोगों के लिये नेट पर बिकने वाली दवाईयां

बचपन में स्कूल आते जाते देखा करते थे कि दीवारों पर अजीबो-गरीब विज्ञापन लिखे रहते थे....गुप्त-रोगों का शर्तिया इलाज, गुप्त रोग जड़ से खत्म, बचपन की गल्तियों की वजह से खोई ताकत हासिल करने के लिये आज ही मिलें, और फिर कुछ अरसे बाद समाचार-पत्रों में विज्ञापन दिखने शुरू हो गये इन ताकत के बादशाहों के जो ताकत बेचने का व्यापार करते हैं।

इस में तो कोई शक नहीं कि ये सब नीम हकीम भोली भाली कम पढ़-लिखी जनता को कईं दशकों से बेवकूफ बनाए जा रहे हैं....बात केवल बेवकूफ बनाए जाने तक ही सीमित रहती तो बात थी लेकिन ये लालची इंसान जिन का मैडीकल साईंस से कुछ भी लेना देना नहीं है, ये आज के युवाओं को गुमराह किये जा रहे हैं, अपनी सेहत के बारे में बिना वजह तरह तरह के भ्रमों में उलझे युवाओं को भ्रमजाल की दलदल में धकेल रहे हैं...... और इन का धंधा दिनप्रतिदिन बढ़ता जा रहा है ...अब इन नीमहकीमों ने बड़े बड़े शहरों में होटलों के कमरे किराये पर ले रखे हैं जहां पर जाकर ये किसी निश्चित दिन मरीज़ों को देखते हैं।

यह जो कुछ भी ऊपर लिखा है, इस से आप सब पाठक भली भांति परिचित हैं, है कि नहीं ? ठीक है, आप यह सब पहले ही से जानते हैं और अकसर जब हम यह सब देखते, पढ़ते, सुनते हैं तो यही सोचते हैं कि अनपढ़ किस्म के लोग ही इन तरह के नीमहकीमों के शिकार होते होंगें.....लेकिन ऐसा नहीं है।

हर जगह की, हर दौर की अपनी अलग तरह की समस्याएं हैं..... अमेरिकी साइट है –फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन (Food and Drug Administration) ..कल जब मैं उस साइट को देख रहा था तो अचानक मेरी नज़र एक आर्टिकल पर रूक गई। एफडीआई द्वारा इस लेख के द्वारा लोगों को कुछ पंद्रह तरह के ऐसे उत्पादों के बारे में चेतावनी दी गई है जो गल्त क्लेम करती हैं कि वे यौन-संक्रमित रोगों (sexually-transmitted diseases –STDs--- हिंदोस्तानी भाषा में कहें तो गुप्त रोग) से बचाव करती हैं एवं इन का इलाज करने में सक्षम हैं। इस के साथ ही एक विशेषज्ञ का साक्षात्कार भी था।

आम जनता को चेतावनी दी गई है कि ऐसी कोई भी दवाई नहीं बनी जिसे कोई व्यक्ति अपने आप ही किसी दवाई से दुकान से खरीद ले (over-the-counter pills) अथवा इंटरनेट से खरीद ले और यौन-संक्रमित से बचा रह सके और इन रोगों का इलाज भी अपने आप कर सके। ये जिन दवाईयों अथवा फूड-सप्लीमैंट्स के बारे में यह चेतावनी जारी की गई है, उन के बारे में भी यही कहा गया है कि इन दवाईयों के किसी भी दावे को एफडीआई द्वारा जांचा नहीं गया है।

यौन-संक्रमित रोग होने की हालत में किसी सुशिक्षित विशेषज्ञ से परामर्श लेना ही होगा और अकसर उस की सलाह अनुसार दवा लेने से सब कुछ ठीक ठाक हो जाता है लेकिन ये देसी ठग या इंटरनेट पर बैठे ठग बीमारी को ठीक होना तो दूर उस को और बढ़ाने से नहीं चूकते, साथ ही साथ चूंकि दवाई खाने वाले को लगता है कि वह तो अब दवाई खा ही रहा है (चाहे इलाज से इस तरह की दवाईयों को कोई लेना देना नहीं होता) इसलिये इस तरह की यौन-संक्रमित रोग उसके सैक्सुयल पार्टनर में भी फैल जाते हैं।

आज की युवा पीढ़ी पढ़ी लिखी है, सब कुछ जानती है, अपने शरीर के बारे में सचेत हैं लेकिन इंटरनेट पर बैठे ठग भी बड़े शातिर किस्म के हैं, इन्हें हर आयुवर्ग की कमज़ोरियों को अच्छे से जानते हैं ....अकसर नेट पर कुछ प्रॉप-अप विज्ञापन आते रहते हैं –दो दिन पहले ही कुछ ऐसा विज्ञापन दिखा कि आप अपने घर की प्राइवेसी से ही पर्सनल वस्तुएं जैसे की कंडोम आदि आर्डर कर सकते हैं ताकि आप को मार्कीट में जाकर कोई झिझक महसूस न हो। चलिए, यह तो एक अलग बात थी लेकिन अगर तरह तरह की बीमारियों के लिये (शायद इन में से बहुत सी काल्पनिक ही हों) स्वयं ही नेट पर दवाई खरीदने का ट्रेंड चल पड़ेगा तो इंटरनेट ठगों की तो बांछें खिल जाएंगी ........ध्यान रहे कि इन के जाल में कभी न फंसा जाए क्योंकि आज हरेक को प्राईव्हेसी चाहिए और यह बात ये इंटरनेट ठग अच्छी तरह से जानते हैं।

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रविवार, 1 मई 2011

पतला करने वाले हर्बल जुगाड़..सावधान !

काफी समय से यह खबरें तो सुनने में आ ही रही हैं कि कुछ हर्बल दवाईयों में, या कुछ देसी दवाईयों में एलोपैथिक दवाईयों को डाल दिया जाता है जिस के बारे में पब्लिक को कुछ बताया नहीं जाता। इस का परिणाम यह होता है कि उस दवाई से कुछ अप्रत्याशित परिणाम निकलने से लोगों को नुकसान हो जाता है। इस पर मैंने पहले भी बहुत से लेख लिखे हैं।

अभी मैं बीबीसी की साइट पर यह न्यूज़-स्टोरी देख रहा था कि किस तरह से यूरोपीयन देशों में हर्बल दवाईयों पर शिकंजा कसा जा रहा है। अनेकों दवाईयां ऐसी बिक रही हैं जिन की प्रामाणिकता, जिन की सेफ्टी प्रोफाइल के बारे में कुछ पता ही नहीं ...इसलिये वहां पर कानून बहुत कड़े हो गये हैं।
New EU regulations on herbal medicines come into force....(BBC Health)

लेकिन भारत में क्या है, देसी दवाईयों की तो वैसे ही भरमार है, लेकिन जगह जगह पर मोटापा कम करने वाले कैप्सूल, हर्बल दवाईयों के इश्तिहार चटका कर भोली भाली जनता को बेवकूफ़ बनाया जा रहा है।

आज सुबह मैं टीवी पर देख रहा था कि एक हर्बल चाय का विज्ञापन दिखाया जा रहा था ... दो महीने के लिये 2000 रूपये  का कोर्स –मोटापा घटाने के लिये इसे रोज़ाना कईं बार पीने की सलाह दी जा रही थी। और विज्ञापन इतना लुभावना की मोटापे से परेशान कोई भी शख्स कर्ज़ लेकर भी इस खरीदने के लिये तैयार हो जाये।

मैं उस विज्ञापन को देखता रहा –बाद में जब उस में मौजूद पदार्थों की बात आई तो बहुत बढ़िया बढ़िया नाम गिना दिये गये ..जिन्हें सुन कर कोई भी प्रभावित हो जाए... और साथ में इस चाय में चीनी हर्बल औषधियों के डाले जाने की भी बात कही गई।

इस तरह के हर्बल प्रोडक्ट्स से अगर विकसित देशों के पढ़े लिखे लोग बच नही पाये तो इस देश में किसी को कुछ भी बेचना क्या मुश्किल काम है?
वजन कम करने वाली दवाईयों के बारे में चेतावनी 

बात केवल इतनी सोचने वाली है कि ऐसा क्या फार्मूला कंपनियों के हाथ लग गया कि इन्होंने एक चाय ही ऐसा बना डाली जिस से इतना वज़न कम हो जाता हो......मेरी खोजी पत्रकार जैसी सोच तो यही कहती है कि कुछ न कुछ तो लफड़ा तो होता ही होगा.....अगर सब कुछ हर्बल-वर्बल ही है तो इस देश में इतने महान् आयुर्वैदिक विशेषज्ञ हैं, वे क्यों इन के बारे में नहीं बोलते ....क्यों यह फार्मूला अभी तक रहस्य ही बना हुआ है?

पीछे भी कुछ रिपोर्टें आईं थीं कि मोटापे कम करने वाले कुछ उत्पादों में कुछ ऐसी एलोपैथिक दवाईयों की मिलावट पाई गई जिस से भयंकर शारीरिक परेशानियां इन्हें खाने वालों में हो गईं........तो फिर इस से सीख यही लें कि ऐसे ही हर्बल वर्बल का लेबल देख कर किसी तरह के झांसे में आने से पहले कम से कम किसी की सलाह ले लें, और अगर हो सके तो ऐसी हर्बल दवाई की लैब में जांच करवा लें, लेकिन क्या ऐसी जांच वांच करवाना सब के वश की बात है!!

रविवार, 13 मार्च 2011

दवाओं के धंधे में हो रहे गोरखधंधे की सुनामी

मेरी कोई जान पहचान वाला कैमिस्ट तीन सौ रूपये के बिल पर तीस रूपये कम कर दे और साथ खड़े लोगों से एमआरपी चार्ज कर रहा होता है तो मुझे इस से बिल्कुल भी खुशी नहीं होती... मुझे शायद इस छूट की ज़रूरत भी नहीं है, बात यह है कि अगर मुझे यह छूट दी जा रही है तो वह अपनी जेब से तो दे नहीं रहा, फिर पब्लिक क्यों इस तरह की छूट से महरूम रहती है, मुझे यह ठीक नहीं लगता।

दो तीन दिन पहले एक परिचित से मुलाकात हुई ---अपने पास पड़ी दवाईयां दिखाने लग गया कि उस का एक मित्र है जो दवाईयों का थोक-विक्रेता है...आगे बताने लगा कि यह जिस स्ट्रिप पर साठ रूपये लिखा है, पता है यह मुझे कितने में मिलती है ....केवल आठ रूपये में। ऐसी अन्य दवाईयां भी मुझे दिखलाने लग गया।

25 वर्ष से भी ज़्यादा हो गये हैं मुझे प्रोफैशन में ....लेकिन अभी तक जो बात मैं समझ नहीं पाया वह यह है कि जैनरिक एवं एथीकल—अर्थात् ब्रैंडेड (Generic and Ethical medicines) दवाईयों में आखिर अंतर है क्या !! कानूनी भाषा मैं ठीक के समझता हूं... टैक्नीकली भी समझता ही हूं लेकिन जो बात सब से अहम् है वह मैं अभी तक समझ नहीं पाया हूं वह यह है कि मेरे को कोई स्ट्रिप थमा दे और मेरे से पूछे कि क्या यह जैनरिक है या एथिकल रेंज है, तो मेरे पास इस का कोई जवाब है ही नहीं !!

1992-93 में मैं मुंबई की टाटा इंस्टीच्यूट ऑफ सोशल साईंसिज़ में एक वर्ष के लिये हास्पीटल एडमिनिस्ट्रेशन पढ़ रहा था ... एक विषय भी होता था ..Drug Policy Administration….उस दौरान दवाईयों के गोरखधंधों के बारे में बहुत कुछ समझने का अच्छा मौका मिला था। उस में काफ़ी कुछ याद भी है। लेकिन यह प्रिंटिंग दाम और बिक्री दाम में अंतर का गोलमाल मेरी समझ से अभी भी परे की बात है।

और मैं पिछले दस-बारह वर्षों में बहुत बार सुन चुका हूं कि इतने ज़्यादा प्रिंटिंग दाम वाली दवा इतने कम दाम में हासिल कर ली गई। हासिल कर ली, जिन्होंने इसे हासिल किया, वे मुकद्दरवाले हैं लेकिन यह तो जगजाहिर है ही कि ये सब चोंचलेबाज़ियां एक आम आदमी के हित में नहीं हैं.... अब देखिये मैं कोई दवाई लेने गया तो किसी परिचित कैमिस्ट ने दस प्रतिशत कम कर दिया, उस का कोई रिश्तेदार गया तो उस ने तीस प्रतिशत कम कर दिया, किसी सरकारी संस्था को अपनी ऑफर भेजते समय यह कह दिया कि हम तो प्रिंटिंग दाम पर पचास या साठ प्रतिशत की छूट देंगे.........यह सब क्या है.... इस तरह के धंधे से सब से ज़्यादा चपत उस एक आम आदमी को लगती है जिसे साठ रूपये प्रिंटिंग वाली दवाई साठ रूपये में ही खरीदनी होगी। और तो और, बिल मांगने की वह कभी हिम्मत करेगा नहीं...............इसीलिये ये सब तरह के गोरखधंधे दिनप्रतिदिन पनपते ही जा रहे हैं।

आप मेरी दुविधा समझ रहे हैं ना ...एक तो अस्सी रूपये वाली कोई दवाई दस रूपये में बिक रही है तो उस के ऊपर दस ही क्यों नहीं लिखा हुआ.... यह कोई चाइनीज़ गेम थोड़े ही है ... मेरा व्यक्तिगत विचार यह है कि इस तरह की लुका-छुपी से हर तरह के भ्रष्टाचार को सिर उठाने का मौका मिल जाता है। अगर कोई भी मेरी बात से सहमत नहीं है तो वह बिना किसी बात की परवाह किए बिना इस लेख की टिप्पणी के रूप में लिखे..... I shall be too happy to hear a different viewpoint.

और दूसरी व्यथा यह कि ... लोगों को अभी तक यही समझ है कि जैनरिक दवाईयां हैं तो वे किसी ब्रांड के नाम से नहीं जानी जाएंगी ...उन पर केवल कंपनी का नाम और साल्ट ही लिखा होगा। लेकिन मैं कईं बार किसी कैमिस्ट के यहां यह देख कर चौंक गया हूं कि कुछ ब्रांड नाम से बिकने वाली दवाईयां भी जैनरिक कैटेगरी में ही आती हैं.

सीधी सी बात .... कंपनी कह दे या कैमिस्ट कह दे कि यह जैनरिक और यह ब्रांडेड तो वही सच है, हमारे पास ऐसी कोई कसौटी नहीं कि हमें अपने आप पता चल सके दवाई को देख कर कि यह जैनरिक है या ब्रांडेड। क्या आप मेरी बात से सहमत हैं?

अकसर कंपनियां अपनी दवाईयां बेचते समय जैनरिक पर बहुत ज़्यादा और ब्रेंडेड पर बिलकुल कम छूट देती हैं ...एक बात तो मुझे सूचना के अधिकार नियम के अंतर्गत यह भी पता चली कि कहीं पर तो ब्रांडेड-जैनरिक नाम की श्रेणी भी बना दी जाती है, मैंने भी इस तरह की श्रेणी के बारे में पहली बार ही सुना था।

जो भी हो, एक बात की आप कल्पना कीजिए .. कोई दवाई ब्रेंडेड होते हुये अगर जैनरिक है ....(so-called Branded-generic drugs?...यह क्या माजरा है, मेरी समझ से परे है!) और अगर उस पर साठ-सत्तर प्रतिशत की छूट की बजाए ब्रेंडेड दवाई जैसी कम छूट दी जाती होगी, और देश में करोड़ों अरबों रूपयों की दवाईयां तो खरीदी जाती ही होंगी .......क्या यह सब किसी सुनामी से कम है? बस, इस के आगे मैंने अपने होंठों पर ताला लगा लिया है, कुछ भी नहीं कहूंगा, बिल्कुल कुछ भी नहीं......क्योंकि फिर आप ही कहेंगे कि मैं ज़्यादा बोल देता हूं..................लेकिन क्या करूं, कहीं पर भी लफड़ा दिखता है तो कंट्रोल नहीं होता !!

संबंधित लेख ...
कैमिस्ट से बिल मांगते हुए झिझक क्यों ?



शुक्रवार, 25 फ़रवरी 2011

दूषित ग्लूकोज़ ने ली कईं जानें

आज दोपहर मैं जब लोकसभा टीवी पर प्रश्न-काल के दौरान एक प्रश्न को सुन रहा था तो मुझे उस समय तो समझ नहीं आया कि यह किस संदर्भ में है .. प्रश्न यही था कि अगर ग्लूकोज़ चढ़ाए जाने से ही जान चली जाए तो यह एक गंभीर मामला है ... संसद सदस्य ने यह भी कहा कि अगर किसी की जान किसी दवाई से होने वाले रिएक्शन की वजह से जाती है तो वह बात तो समझ में आती है लेकिन अगर ग्लूकोज़ चढ़ाये जाने से मौतें हो जाती हैं तो यह एक गंभीर मसला है। स्वास्थ्य राज्य मंत्री ने प्रश्न रखने वाले सदस्य को विस्तृत जानकारी देने को कहा।

मैं तब से यही सोच रहा था कि आखिर यह मामला है क्या ....लेकिन सारा मामला मेरी समझ में तब आया जब मैंने अभी अभी बीबीसी की यह न्यूज़ स्टोरी देखी...Tainted IV Fluid kills 13 pregnant women in India. राजस्थान के जोधपुर में पिछले दस दिनों में तेरह गर्भवती महिलायें दूषित ग्लूकोज़ ड्रिप की बलि चढ़ गईं।

इस तरह का केस तो मैंने भी पहली बार ही सुना है कि दूषित ग्लूकोज़ चढ़ने से इतने लोगों की मौत हो गई। यह एक बेहद दुःखद घटना तो है ही लेकिन इस दुर्घटना से सबक इस तरह के सीखने की ज़रूरत है कि इस तरह की घटना फिर से न घटे।

इतना तो आप सब भी सुनते ही होंगे कि ग्लूकोज़ या कोई भी इंट्रा-विनस फ्लूयड़ (intravenous fluid) लगने से किसी को कोई रिएक्शन-सा हो गया ...कंपकंपी छिड़ गई लेकिन उस तरह के केसों पर डाक्टर तुरंत काबू पा लेते हैं।

मौतें तो हो गईं ... अब कारण का पता भी लगा ही लिया जाएगा कि ऐसा क्या था उस “लोकल” ग्लूकोज़ की बोतलों में जिस से कि बहुत ज़्यादा रक्त बह जाने से इतनी महिलाओं की मौत हो गई ...लेकिन मुझे लगता है कि इस दुर्घटना से उस तबके को भी सीख लेने की ज़रूरत है जो समझते हैं अपनी मरजी से कभी भी किसी तरह की शारीरिक दुर्बलता दूर करने के लिये ग्लूकोज़ चढ़ाने से सब कुछ ठीक हो जायेगा।

और आम आदमी के इस भ्रम को गांवों, कसबों के झोलाछाप डाक्टर भुनाने में कोई कसर नहीं छोड़ते। पहले तो खबरे देखते-सुनते थे कि ग्लूकोज़ आदि आई-व्ही फ्लूयड़ लगाने के लिये इस्तेमाल की जाने वाले आई-व्ही सैट (कैनुला आदि) की बढ़े स्तर पर री-साईक्लिंग होती है, कोई पता नहीं नीम-हकीम इस तरह की दवाईयां चढ़ाने के नाम पर कौन कौन सी लाइलाज बीमारियां भोली भाली जनता को चढ़ा देते हैं।

आमजन के इस बात पर विचार करना चाहिये कि अगर एक बड़े अस्पताल में इस तरह की दूषित ग्लूकोज़ की बोतलें पहुंच गईं तो इस तरह की क्वालिटी वाली बोतलों अथवा अन्य दवाईयों को अन्य छोटी जगहों पर पहुंचते कहां देर लगती होगी !

इस बात का बेहद दुःख है कि इतनी महिलाएं जो अपने नवजात शिशुओं को लेकर खुशी खुशी घर आतीं वे कहीं और हमेशा के लिये चली गईं.... आखिर किसी का तो दोष है, देखियेगा अगले कितने दिन यही दोषारोपण- प्रत्यारोपण चलता रहेगा, कुछ ही दिनों में मामला ठंडा भी पड़ ही जायेगा लेकिन दिवंगत  महिलाएं जिन परिवारों से जुड़ी हुई थीं उन का यह घाव हमेशा हरा रहेगा।

सोमवार, 14 फ़रवरी 2011

दवा की पुड़िया लेना खतरनाक तो है ही !

हर रोज़ मेरी मुलाकात ऐसे मरीज़ों से होती है जो पुरानी बीमारियों से जूझ रहे होते हैं और देसी दवाईयां ले रहे होते हैं.. और देसी दवाईयां कौन सी ? जो कोई भी नीम हकीम पुड़िया बना कर इन लोगों को थमा देता है और यह लेना भी शुरू कर देते हैं।

मैं किसी भी मरीज़ द्वारा इन पुडि़यों के इस्तेमाल किये जाने के विरूद्ध हूं। उस के कारण हैं ...मैं सोचता हूं कि नामी गिरामी कंपनियों की दवाईयां तो कईं बार क्वालिटी कंट्रोल टैस्ट पास कर नहीं पाती, ऐसे में इन देसी दवाईयों का क्या भरोसा? आज कल तो अमेरिका जैसे देशों में भी कुछ तरह की ये देसी दवाईयां खूब चर्चा में हैं .... यहां जैसा तो है नहीं वहां पर, टैस्टिंग होती है और फिर पोल खुल जाती है।

दूसरा कारण यह भी है कि अकसर सुनने में आता है कि नीम-हकीमों को यह पता लग चुका है कि ये जो स्टीरॉयड नाम की दवाईयां हैं, ये राम बाण का काम कर सकती हैं ....बस इन लालची किस्म के लोगों ने इन दवाईयों को पीस कर इन पुड़ियों में मिला कर आमजन की सेहत से खिलवाड़ करना शुरू किया हुआ है। यह आज की बात नहीं है, यह सब कईं दशकों से चल रहा है।

दो दिन पहले एक महिला आईं ... उस का पति बताने लगा कि यह गठिया से ग्रस्त है ..मैंने कहा कि कोई दवाई आदि ? ...उस ने बताया कि इसे तो केवल एक देसी दवाई से ही आराम आता है ...उस से यह झट खड़ी हो जाती है .. मेरे पूछने पर उस ने बताया कि यह दवाई पुड़िया में मिलती है। मैंने उसे समझाया तो बहुत कि इस तरह की दवाई खाने के नुकसान ही नुकसान है , इस तो कईं गुणा बेहतर यही है कि आप इस के लिये कोई इलाज न ही करवाएं ...कम से कम बाकी के अंग तो बचे रहेंगे (कृपया इसे अन्यथा न लें)..

उस महिला का पति बता रहा था कि इसे न ही तो ऐलीपैथिक और न ही होमोपैथिक, आयुर्वैदिक दवा ही काम करती है .. और यह पुड़िया पिछले कईं सालों से खा रही है। अब जिस पुड़िया में स्टीरॉयड मिले हों, उस के आगे दूसरी दवाईयां क्या काम करेंगी .... लेकिन ये देसी दवाईयां स्टीरॉयड युक्त सारे शरीर को तहस-नहस कर देती हैं ... जोड़ों का दर्द तो दूर इन से कुछ भी ठीक नहीं होता, ये तो केवल क्वालीफाइड डाक्टरों के द्वारा इस्तेमाल करने वाली दवाईयां हैं।

और प्रशिक्षित डाक्टर भी इन दवाईयों को मरीज़ों को देते समय बहुत सावधानी बरतते हैं। इन दवाईयों को लेने की एक विशेष विधि होती है ...जो केवल प्रशिक्षित एवं अनुभवी डाक्टर ही जानते हैं।

मैं अकसर मरीज़ों को कहता हूं कि अगर आप को देसी इलाज ही करवाना है तो करवाएं लेकिन उस के लिये प्रशिक्षित डाक्टर हैं --होम्योपैथी में , आयुर्वेद प्रणाली के चिकित्सक हैं , वे आप को ब्रांडेड दवाईयां लिखते हैं ...अच्छी कंपनियों की दवाई लें और अपनी सेहत को दुरूस्त करें।

नीम हकीमों द्वारा पुड़िया में स्टीरायड नामक दवाईयां मिलाने की बात के इलावा मैंने बहुत बार ऐसा देखा है कि कुछ कैमिस्ट मरीज़ को तीन-चार तरह की जो खुली दवाईयां थमाते हैं उन में भी एक छोटी सी टेबलेट स्टीरायड की ही होती है ...मरीज़ का बुखार जाते ही टूट गया और कैमिस्ट हो गया सुपरहिट ....चाहे वह उसे स्टीरायड खिला खिला कर बिल्कुल खोखला ही क्यों न कर दे।

कुछ चिकित्सक अपने मरीज़ों को खुली टेबलेट्स, खुले कैप्सूल देते हैं, मुझे इस में भी आपत्ति है, जब स्ट्रिप में, बोतल में बिकने वाली दवाईयां नकली आ रही हैं, रोज़ाना मीडिया में देखते पढ़ते हैं न, तो फिर इस तरह से खुले में बिकने वाली दवाईयों की गुणवत्ता पर सवालिया निशान क्यों नहीं लगता ?

बस ध्यान केवल इतना रहे कि पुड़िया थमाने वालों से और इस तरह की पुड़िया से दूर ही रहने में समझदारी है ... वरना तो बस गोलमाल ही है। लेकिन क्या मेरे लिखने से आज से पुड़िया खानी बंद कर देंगे .. देश की अपनी समस्याएं हैं ..गरीबी, अनपढ़ता, जनसंख्या का सुनामी.....अनगिनत समस्याएं हैं, मैंने भी यह लिखते समय  एक ऐसे कमरे में जहां घुप अंधेरा है, वहां पर एक सीली हुई दियासिलाई सुलगाने का जुगाड़ कर रहा हूं.... कभी तो इस गीली तीली में भी आग लगेगी.. जागरूकता का अलख जग के रहेगा , कोई बात नहीं, मैं इंतज़ार करूंगा।


सोमवार, 22 नवंबर 2010

जमा हुई दवाईयों का भूल-भुलैय्या

अकसर डाक्टरों के आसपास के लोग –परिचित, रिश्तेदार,मित्र-सगा उन से यह बात कहते रहते हैं कि भई हमें तो आम तकलीफ़ों के लिये कुछ दवाईयां लिखवा दो, जिसे हम ज़रूरत पड़ने पर इस्तेमाल कर लिया करें। और अकसर लोग यह भी करते हैं कि घर में जमा हो चुकी दवाईयां किसी डाक्टर (जिस से उन्हें डांट-फटकार का डर न हो) के पास ले जाकर उन के नाम एवं उन के प्रभाव लिखने की कोशिश करते हैं।

जिस तरह से आज जीवनशैली से संबंधित तकलीफ़ें बढ़ गई हैं और जिस तरह से तरह तरह के रोगों के लिये नई नई दवाईयां आ गई हैं, ऐसे में एक आम आदमी की बड़ी आफ़त हो गई है। इतनी सारी दवाईयां –तीन चार इस तकलीफ़ के लिये, तीन चार उस के लिये ---अब कैसे कोई हिसाब रखे कि कौन सी कब खानी है, कितनी खानी है। मैं इस विषय के बारे में बहुत सोच विचार करने के बाद इस निर्णय पर पहुंचा हूं कि यह सब हिसाब किताब रखना अगर नामुमकिन नहीं तो बेहद दुर्गम तो है ही। और ऊपर से अनपढ़ता, स्ट्रिपों के ऊपर नाम इंगलिश में लिखे रहते हैं, और कईं बार किसी दवाई का एक ब्रांड नहीं मिलता, अगली बार किसी और दवाई का पुराना ब्रांड नहीं मिलता ----बस, इस तरह की अनगिनत समस्यायें –देखने में छोटी दिखती हैं लेकिन जिसे उन्हें खाना होता है उन की हालत दयनीय होती है।

मैं डाक्टरों की उस श्रेणी से संबंधित रखता हूं कि जिन के साथ कोई भी किसी भी समय कितनी भी बेतकल्लुफी से बात करते हुये किसी तरह की डांट फटकार से नहीं डरता—क्योंकि मैं इतने वर्षों के बाद यही सीखा है कि मरीज से ऐसी डांट-डपट करने वाले बंदे से ज़्यादा ओछा कोई भी नहीं हो सकता। मेरे को कोई भी इन दवाईयों के बारे में कितने भी सवाल पूछे मैं कभी भी तंग नहीं आता ---- जिस का जो काम है, वही बात ही तो लोग पूछेंगे। वरना यह ज्ञान-विज्ञान किस काम का।

इस तरह के लोगों से जिन्हें इंगलिश नहीं आती, बेबस हैं, मुझे इन पर बहुत तरस आता है, तरस इसलिये नहीं कि इंगलिश नहीं आती , बल्कि यह सोच कर कि यह सब मेरे से पूछने के बाद भी ठीक दवाईयां ठीक समय पर कैसे लेंगे ? गलती होने का पूरा चांस रहता ही है।

आज भी एक अम्मा जी आईं --- चार-पांच पत्ते दिखा कर कहने लगीं कि बेटा, ज़रा बता दे कि किस तकलीफ़ के लिये कौन सी दवा लेनी है, दवाईयां वह कहीं और से लेकर आ रही थीं। बता तो मैंने अच्छे से दिया --- न ही मैंने जल्दबाजी ही की और न ही मैंने उस के ऊपर किसी तरह की नाराज़गी करने की हिमाकत ही की --- वह बीबी तो संतुष्ट हो गईं लेकिन मुझे बिल्कुल भी संतोष नहीं हुआ क्योंकि मैं इस बात से बिल्कुल भी कनविंस नहीं हूं कि उस ने सब कुछ अच्छे से समझ लिया होगा और सत्तर पार की उम्र में सब कुछ याद भी रखेगी। लेकिन यह एक ऐसा मुद्दा है कि इस के बारे में कितना भी सोच लें ----- अपने लोगों की अनपढ़ता का कसूर और ऊपर से दवाईयां बनाने वाले कंपनियों का इंगलिश-प्रेम। सुना तो भाई मैंने भी है कि इन दवाईयों के पत्तों पर हिंदी में भी नाम लिखे जाने ज़रूरी हो गये हैं, या खुदा जाने कब से ज़रूरी हो जाएंगे---पता नहीं, कुछ तो आ रहा था एक-दो साल पहले मीडिया में।

वैसे एक बात है घर में अगर आठ दस तरह की दवाईयां हों तो अकसर नान-मैडीकल लोगों में यह उत्सुकता सी रहती है कि यार, कहीं से यह पता लग जाए कि यह किस किस तकलीफ़ के लिये है तो बात बन जाए। ऐसे में मेरी मां जी तो पहले या कभी कभी अभी भी यह करती आई हैं कि वह दवाईयों के नाम एक काग़ज पर लिख कर मेरे से उन के इस्तेमाल के बारे में भी पूछ कर लिख लेती हैं।

और एक महाशय हैं जो मेरे पास अकसर कुछ महीनों बाद दस-बारह स्ट्रिप लेकर आते हैं साथ में स्टैप्लर ---मेरे से हर स्ट्रिप के बारे में पूछ कर एक छोटी सी स्लिप पर वह सूचना पंजाबी में लिख लेते हैं और फिर उसे उस पत्ते के साथ स्टेपल कर देते हैं। मुझे उन का यह आईडिया अच्छा लगा --- आज भी वो सुबह मेरे पास इस काम के लिये आये थे –तो मैंने सोचा था कि यह आईडिया मैं नेट पर लिखूंगा, सो मैंने अपना काम कर दिया। वैसे जाते जाते एक बार और भी है कि जब भी आप किसी स्ट्रिप से कोई टैबलेट अथवा कैप्सूल निकालें तो कुछ इस तरह का ध्यान रहे कि आखिरी टैबलेट तक उस पत्ते के पीछे लिखी एक्सपायरी की तारीख दिखती रहे ---ऐसा करना बिल्कुल संभव है – वरना मैं बहुत बार देखा है कि अभी स्ट्रिप में छः गोली होती हैं लेकिन उस के पीछे एक्सपॉयरी की तारीख न होने की वजह से वह कुछ दिनों बाद कचरेदान में ही जाती है।

कहां ये सब दवाईयों-वाईयों की बातें --- परमात्मा से प्रार्थना है कि सब तंदरूस्त रहें --- और हमेशा मस्त रहें। आमीन !!

गुरुवार, 27 मई 2010

छाती की जलन के लिये ली जाने वाली दवाई बढ़ा देती है फ्रैक्चर रिस्क

आज की आधुनिकता की अंधी दौड़ की एक देन तो है कि हर दूसरा आदमी छाती की जलन से परेशान है और इस के लिये बहुत बार बिना किसी डाक्टरी नुस्खे के ही अपने आप ही पेट में एसि़ड कम करने वाली दवाईयां लेना शुरू कर देते हैं।
और इस तरह की दवाईयों की हाई डोज़ अथवा लंबे समय तक सामान्य डोज़ लेना रिस्क से खाली नहीं है, वैज्ञानिकों की खोज से पता चला है कि हाई डोज़ अथवा लंबे समय तक इन दवाईयों को लेने से हिप (कुल्हा), कलाई एवं स्पाईन (रीढ़ की हड्डी) का फ्रैक्चर होने का रिस्क बढ़ जाता है।
पता नहीं आज कल इन दवाईयों का चलन बहुत ही ज़्यादा बढ़ गया है ---जिन हस्पतालों में दवाईयां मुफ्त वितरित की जाती हैं वहां भी मरीज इन दवाईयों का नाम ले कर इस तरह से मांगते हैं जैसे पिपरमिंट की गोलियों हों। और खाने पीने संबंधी बदलाव की सलाह देने पर वही जवाब होता है कि हम तो पहले ही से सावधानी बरतते हैं।
क्या आप को नहीं लगता कि हमारे शरीर में जो कुछ भी पदार्थ (सिक्रेशन्ज़-- secretions) आदि बन रहे हैं उन का अपना बहुत महत्व है--वे कईं शारीरिक क्रियाओं में अहम् भूमिका निभाते हैं। इस लिये अपनी मरजी से इस तरह की बिल्कुल हानिरहित सी दिखने वाली दवाईयां ले लेने से हम लोग कईं रिस्क मोल ले लेते हैं।
लेकिन अगर क्वालीफाईड डाक्टर कुछ समय के लिये इस तरह की दवाईयां खाने का नुख्सा दे तो अवश्य लें---वैसे तो इस रिपोर्ट में डाक्टरों को भी इन दवाईयों को लंबे समय तक मरीज़ों को देने के बारे में अच्छा खासा चेताया गया है।
बिल्कुल छोटे छोटे से तो देखते थे कि नानी-दादी इस काम के लिये थोड़ा सा मीठा सोड़ा पानी में घोल कर पी लिया करती थीं--- घर में बात करते हैं कि मेरी दादी पकौड़ों की बहुत शौकीन थीं --- और इन्हें खाने के बाद मीठे सोडा तो उन्हें चाहिये ही था। फिर समय आया जब हम लोग 15-20 साल के हुये तो टीवी पर हाजमा दुरूस्त करने के लिये एक पावडर का विज्ञापना बहुत आता था जिस की शीशी को लोगों ने घर में रखना एक स्टेट्स सिंबल समझना शुरु कर दिया था।
फिर हम लोग मैडीकल की पढ़ाई पढ़ने लगे तो देखा कि एंटासि़ड की गोलियां और पीने वाली दवाईयां खूब पापुलर हो गई हैं। और पिछले कुछ सालों से तो लोगों का इन एंटासिड की गोलियों एवं सिरिपों से भी कुछ नहीं बनता ---अब तो वे चाहते हैं कि किसी तरह से पेट में पैदा होने वाले एसिड् को समाप्त ही कर दिया जाये, लेकिन इस तरह की दवाईयां मनमर्जी से एवं लंबे समय तक लेने से होने वाले रिस्क आप जान ही गये हैं।
दवाई तो दवाई है ---- साल्ट है, ऐसे कैसे हो सकता है कि किसी भी साल्ट का कोई भी दुष्परिणाम न हो। और हां, जिन एंटासिड की गोलियों एवं सिरिपों की बात हो रही थी उन के अंधाधुंध इस्तेमाल से होने वाले दुष्परिणामों ( जैसे कि फ्रैक्चर रिस्क बढ़ना) के बारे में भी कुछ समय पहले खूब रिपोर्ट दिखीं थीं।
और तो और कुछ समय से यह भी सुनने में आ रहा है कि ये जो कोलेस्ट्रोल कम करने के लिये इस्तेमाल की जाने वाली दवाईयां है इन के भी लिवर पर, किडनी पर बुरे प्रभाव हो सकते हैं और इन के उपयोग से सफेद मोतिया भी हो सकता है ---अब बात यह है कि अगर कोई पहले से ऐसी दवाईयां ले रहा है तो क्या वह इसे बंद कर दे। नहीं, ऐसा करना उचित नहीं है, फ़िज़िशियन ने आप के लिये वे दवाईयां लिखी हैं तो लेनी ही होंगी ताकि आप के हृदय की सेहत की रक्षा की जा सके।
लेकिन यह ध्यान भी रखा जाना ज़रूरी है कि इस तरह की दवाईयां लेते समय अगर कोई भी ऐसे वैसे अजीब से लक्षण दिखें तो डाक्टर से संपर्क अवश्य करें और मैं कुछ दिन पहले कहीं पढ़ रहा था कि ऐसे ज़्यादातर दुष्परिणाम इस तरह की दवाईयां शुरू करने के एक साल के भीतर होने की संभावना ज़्यादा होती है।
वैसे आप को भी लगता होगा कि इस तरह की कोलैस्ट्रोल कम करने वाली दवाईयों को अगर एक बैशाखी के रूप में इस्तेमाल किया जाए तो ही बेहतर है ---ठीक है, डाक्टर कहते हैं तो लेनी ही पड़ती हैं लेकिन क्यों न अपने खाने-पीने के तौर-तरीके और जीवन शैली इस कद्र बदल दिये जाएं कि डाक्टर लोग जब लिपिड प्रोफाईल जैसा टैस्ट करवायें और वे इतने आश्वस्त हो जाएं कि इन्हें बंद करने की सलाह ही दे डालें।
हां, बात शूरू हुई थी छाती में जलन से इसलिये बात खत्म भी वही होनी चाहिये ----मेरे को भी महीने में एक-आध बार इस तरह की समस्या तो होती ही है ---कईं बार तंग आ कर मैं भी इस तरह के कैप्सूल ले तो लेता हूं लेकिन बहुत बार मैं इस काम के लिये आंवले के पावडर का एक चम्मच ले कर सैट हो जाता हूं ----आप भी इसे आजमा सकते हैं।