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शनिवार, 16 अगस्त 2014

सी टी स्कैन का दिन प्रतिदिन बढ़ता धंधा

बीबीसी की यह न्यूज़-रिपोर्ट पढ़ कर कुछ ज़्यादा अचंभा नहीं हुआ कि वहां पर २०१२ में बच्चों में किए जाने वाले सी टी स्कैनों की संख्या दोगुनी हो कर एक लाख तक पहुंच गई।

रिपोर्ट पढ़ कर और तो कुछ ज़्यादा आम बंदे को समझ नहीं आयेगा लेकिन वह इतना तो ज़रूर समझ ही जायेगा कि कुछ न कुछ तो लफड़ा है ही।

Sharp rise in CT scans in children and adults

समझ न आने का कारण है कि रिपोर्ट में कुछ कह रहे हैं कि यह ठीक नहीं है, कुछ कह रहे हैं कि नहीं जिन बच्चों को ज़रूरत थी उन्हीं का ही सी टी स्कैन करवाया गया है, खिचड़ी सी बनी हुई है।

लेिकन एक बात जो सब को अच्छे से समझने की ज़रूरत है कि बिना वजह से करवाए गये सी टी स्कैन का वैसे तो हर एक को ही नुकसान होता है, लेकिन बच्चों को इस से होने वाले नुकसान का सब से ज़्यादा अंदेशा रहता है क्योंकि उन का जीवन काल अभी बहुत लंबा पड़ा होता है।

इस रिपोर्ट में एक २०१२ की स्टडी का भी उल्लेख है जिसमें यह पाया गया कि अगर बच्चों के सी टी स्कैन बार बार किए जाएं (१० या उस से अधिक) तो उन में रक्त  एवं  दिमाग का कैंसर होने का रिस्क तिगुना हो जाता है।

अब सोचने वाली बात यह है कि यह पढ़ कर सभी मां बाप कहेंगे कि हमें पता कैसे चले कि डाक्टर जो सी टी स्कैन के लिए लिख रहा है, उस जांच की मांग उचित है या नहीं। वैसे भी बच्चा बीमार होने पर मां-बाप अपनी सुध बुध सी खोए रहते हैं और ऐसे में यह कहां से पता चले कि सीटी स्कैन करवाना उचित है कि नहीं, इस की ज़रूरत है भी कि नहीं।

बिल्कुल सही बात है यह निर्णय मां-बाप के लिए लेना मुमकिन बिल्कुल भी नहीं है।

लेकिन एक बात तो मां-बाप कर ही सकते हैं कि छोटी मोटी तकलीफ़ों के लिए बच्चे को बड़े से बड़े विशेषज्ञ के पास या बड़े कार्पोरेट अस्पतालों में लेकर ही न जाएं, सब से पहले अपने पड़ोस के क्वालीफाइड फैमली डाक्टर पर ही भरोसा रखें, यकीनन वह अधिकतर बीमारियों को ठीक करने में सक्षम है। अगर किसी बड़े टेस्ट की ज़रूरत होगी तो वह बता ही देगा।

और मुझे ऐसा लगता है कि यह मंहगे महंगे टेस्ट अगर किसी ने लिखे भी हैं, तो भी अगर समय की कोई दिक्कत नहीं है तो भी किसी दूसरे डाक्टर से परामर्श कर ही लेना चाहिए।

वैसे यह सब कुछ कर पाना क्या उतना ही आसान है जितनी आसानी से मैं लिख पा रहा हूं। बहुत मुश्किल है मां -बाप के लिए डाक्टर के कहे पर प्रश्नचिंह लगाना.......बहुत ही कठिन काम है।

यू के की बात तो हमने कर ली, लेकिन अपने यहां क्या हो रहा है, रोज़ हम लोग अखबारों में देखते हैं, टीवी पर सुनते हैं। कुछ कुछ गोरखधंधे तो चल ही रहे हैं।

एक बात जो मैंने नोटिस की है कि भारत में लोग पहले किसी गांव के नीम-हकीम झोला छाप के पास जाते हैं जिसने सीटी स्कैन या एमआरआई का बस नाम सुना हुआ है, बस वह हर सिरदर्द के मरीज़ को सीटी स्कैन और हर पीठ दर्द के मरीज़ को एमआरआई करवाने की सलाह दे देता है। इन नीम हकीमों तक ने भी सैटिंग कर रखी होती है...... और यह सैटिंग ज़्यादा पुख्ता किस्म की होती है। समझ गये ना आप?

अब अगर तो यह मरीज़ किसी सही डाक्टर के हाथ पड़ जाता है तो वह उसे समझा-बुझा कर उस की सेहत और पैसा बरबाद होने से बचा लेता है, वरना तो......।

बीबीसी की इसी रिपोर्ट में आप पाएंगे कि यह मांग की जा रही है वहां यूके में किस सीटीस्कैन सैंटर ने वर्ष में कितने सीटीस्कैन किए और मरीज़ों की एक्सरे किरणों की कितनी डोज़ दे कर ये सीटीस्कैन किए जा रहे हैं, इस की पूर्ण जानकारी सरकार को उपलब्ध करवाई जाए। इस तरह के उपाय क्या भारत में भी शुरू नहीं किये जा सकते है या अगर शुरू हो भी गये तो इन का बेवजह किए जाने वाले सीटी स्कैनों की निरंतर बढ़ रही संख्या पर क्या प्रभाव पड़ेगा, यह भी एक प्रश्न ही है।

अंत में बस यही बात समझ में आ रही है कि अपने फैमिली फ़िज़िशियन पर भी हम लोग भरोसा करें......... और महंगे टैस्ट करवाने के लिए कहे जाने पर.....जिन के बार बार करवाने से नुकसान भी हो सकता है----ऐसे केस में हमें दूसरे चिकित्सक से ओपिनियन लेने में नहीं झिझकना चाहिए। यह नहीं कि दूसरे डाक्टर की फीस २०० रूपये है और यह टैस्ट तो ८०० रूपये में हो जायेगा, बात पैसे की नहीं है, बात सेहत की सुरक्षा की है कि बिना वजह एक्सरे किरणें शरीर में जा कर इक्ट्ठी न हो पाएं, किसी तरह की जटिलता न पैदा कर दें।

कुछ अरसा पहले भी मैंने इस विषय पर कुछ लिखा था, ये पड़े हैं वे लिंक्स........

सी.टी स्कैन से भी होता है ओवर-एक्सपोज़र
मीडिया डाक्टर: ओव्हर-डॉयग्नोसिस से ओव्हर ...

बुधवार, 2 मार्च 2011

अस्पताल में होने वाली इंफैक्शन की व्यापकता

अस्पताल में भर्ती लोगों को जो संक्रमण (इंफैक्शन) उन को वहां दाखिल होने के दौरान लग जाते हैं उन्हें हास्पीटल-एक्वॉयर्ड संक्रमण कहते हैं। सामान्यतयः इस विषय पर बात करना एक पाप समझा जाता है क्योंकि इस से अस्पतालों की साख पर प्रश्न उठ सकता है। मीडिया में दो एक साल में एक सनसनीखेज़ सी रिपोर्ट दिख जाती है कि भारतीय अस्पतालों में हास्पीटल इंफैक्शन रेट इतना ज़्यादा है, इस से ज़्यादा कुछ विशेष मुझे कभी दिखा नहीं।

मैं भी अकसर भारत से संबंधित इस तरह के आंकड़े इंटरनेट पर ढूंढता रहता हूं.. लेकिन मुझे बहुत अफसोस से कहना पड़ता है कि ये आंकड़े कभी दिखते नहीं है, इस का कारण जो मुझे लगा वह मैं पहली ही बता चुका हूं।

मैडीकल ऑडिट (medical audit) नाम की बात तो शायद कहीं दिखती नहीं ...बड़े बडे टीचिंग अस्पतालों में इस तरह की मीटिंग नियमित होती होंगी लेकिन भारत में तो मैं इन के बारे में कम ही सुनता हूं।और इस के कारण लिखने की ज़रूरत मैं नहीं समझता।

मैडीकल ऑडिट तो आप जानते ही होंगे ... यह एक ऐसी व्यवस्था है जिस को अगर पूर्ण इमानदारी से निभाया जाए तो चिकित्सा सुविधाओं को यह पता चलता रहता है कि किस किस जगह पर चूक हुई और ये गल्तियां फिर से न दोहरायी जाएं, इस के उपायों पर चर्चा भी होती है। एक महीने में जितने मरीज़ों की अस्पताल में मौत हो जाती है, उन के बारे में भी चर्चा होती है, क्या उन्हें समुचित इलाज दिया गया, क्या उन के सभी ज़रूरी टैस्ट करवा लिये गये अथवा उन की बीमारी का डॉयग्नोसिस क्या सही है, ये सारी बातें एक मैडीकल ऑडिट कमेटी जांचती है।

उसी तरह से अच्छे अस्पतालों में एक हास्पीटल इंफैक्शन कंट्रोल कमेटी भी होती है जो इस बात को लगातार सुनिश्चित करती है कि किस तरह से इस तरह के इंफैक्शन की व्यापकता में लगातार कमी लाई जाए। जो मैंने सुना है कि अधिकतर तौर पर बढ़िया बढ़िया कमेटियां तो बन जाती हैं, लेकिन यह कितना सुचारू रूप से काम कर पाती हैं, यह तो वही जानते हैं।

अब बात आती है, पारदर्शिता की .. ठीक है, आम आदमी ने सूचना के अधिकार कानून का इस्तेमाल कर के अपना राशन-कार्ड तो बनवा लिया, पंचायत का लेखा जोखा तो मांग लिया लेकिन कुछ मुद्दे ऐसे हैं जिन के बारे में शायद किसी आमजन ने सोचा ही नहीं है, और अस्पताल के भर्ती होने के दौरान जो इंफैक्शन किसी मरीज़ को लग सकती है (नोज़ोकोमियल इंफैक्शन – nosocomial infection), यह भी एक ऐसा ही मुद्दा है जिस के बारे में आम आदमी ज़्यादा अवेयर ही नहीं और न ही इस के बारे में कोई बात करने को राजी ही है।

लेकिन पारदर्शिता की दाद मैं उस समय देते न रह सका जब आज मैं न्यू-यार्क टाइम्स की एक रिपोर्ट देख रहा था कि अमेरिका में इंटैंसिव केयर यूनिट में सैंट्रल लाइन इंफैक्शन के केसों की संख्या में 2001 की तुलना में वर्ष 2009 में 58प्रतिशत की कमी आई है – 2001 में इस तरह के 43000 केस थे और 2009 में यह आंकडा 18000 तक आ गया है।

सैंट्रल लाइन इंफैक्शन से अभिप्रायः उन ट्यूबों से उपजे संक्रमण से है जिन्हें मरीज़ के अस्पताल में दाखिल होने के दौरान मरीज़ की गले अथवा छाती की बड़ी शिराओं (veins, रक्त की नाड़ी) में डाला जाता है जिन के द्वारा दवाईयां एवं न्यूट्रिशन मरीज़ों तक पहुंचाई जाती है।

यह नोट करें कि इस अमेरिकी रिपोर्ट में कहा गया है कि सैंट्रल-लाइन इंफैक्शन आम समस्या है लेकिन इस तरह के ज़्यादातर केसों से मरीज को बचाया जा सकता है। इस तरह के इंफैक्शन सीरियस हो सकते हैं और 12 से 25 प्रतिशत केसों में मौत भी हो सकती है।

एक समस्या और भी है.... अमेरिकी आंकड़े हैं कि वहां पर रोज़ाना लगभग तीन लाख पचास हज़ार मरीज़  लोग गुर्दे के रोगों के इलाज हेतु अपनी डॉयलायसिस करवाते हैं ..और 2008 में 37000 हज़ार मरीज़ों को सैंट्रल लाइन इंफैक्शन हो गई – और इस तरह की इंफैक्शन डायलिसिस के दौरान मरीज़ों को अधिक समय तक भर्ती रखे जाने और उन की मृत्यु का मुख कारण है। लेकिन हमारे अपने यहां के आंकड़े कहां हैं ?

यह पोस्ट केवल यह बात रेखांकित करती है कि अगर अमेरिका जैसा देश इतने सीरियस मुद्दे पर इतनी पारदर्शिता रख सकता है तो अपने यहां ऐसा करने में आखिर क्या परेशानी है? हमें क्यों इस तरह के आंकड़े कहीं नहीं दिखते --- मैं आम नागरिक की बात नहीं कर रहा हूं – इस तरह के विश्वसनीय जानकारी हमें भी कहां दिखती है। सब कुछ चटाई के नीचे सरका देने ही से क्या सब कुछ ठीक ठाक हो जाएगा?  ….सोचने की बात यह है कि अमेरिका जैसे देश में अगर इस तरह की इंफैक्शन इतनी व्यापक है तो हम लोग कल्पना कर सकते हैं कि हमारे यहां पर ज़मीनी वास्तविकता क्या होगी।

नीम-हकीमों द्वारा खोले गये अस्पताल, अन-ट्रेंड स्टाफ, अन-ट्रेंड नर्सें, शिक्षा का अभाव, तरह तरह के मैडीकल उपकरणों की रि-साईक्लिंग..... क्या फ़ायदा ये सब कारण गिनाने का .. चिकित्सा सुविधायों को स्वयं अपने अंदर झांकने की ज़रूरत है ... और एक बात .... कहीं से पता चले कि अपने देश के लिये इस तरह के आंकड़े कहां से मिलेंगे, तो बतलाईयेगा ......ठीक या गलत, जैनूईन या फ़र्ज़ी वो तो बाद की बात है, पहले किसी विश्वसनीय पोर्टल पर ये आंकड़े दिखें तो सहीं, फिर इस का इलाज भी हो जाएगा, लेकिन अगर मर्ज़ की व्यापकता का ही पता नहीं है, तो फिर इस निष्क्रियता रूपी कोढ़ का आप्रेशन कैसे होगा !!

Further Reading …
Fewer Patients in ICU getting Blood Infections
Fewer Bloodstream Infections in Intensive care, CDC says




शुक्रवार, 25 फ़रवरी 2011

दूषित ग्लूकोज़ ने ली कईं जानें

आज दोपहर मैं जब लोकसभा टीवी पर प्रश्न-काल के दौरान एक प्रश्न को सुन रहा था तो मुझे उस समय तो समझ नहीं आया कि यह किस संदर्भ में है .. प्रश्न यही था कि अगर ग्लूकोज़ चढ़ाए जाने से ही जान चली जाए तो यह एक गंभीर मामला है ... संसद सदस्य ने यह भी कहा कि अगर किसी की जान किसी दवाई से होने वाले रिएक्शन की वजह से जाती है तो वह बात तो समझ में आती है लेकिन अगर ग्लूकोज़ चढ़ाये जाने से मौतें हो जाती हैं तो यह एक गंभीर मसला है। स्वास्थ्य राज्य मंत्री ने प्रश्न रखने वाले सदस्य को विस्तृत जानकारी देने को कहा।

मैं तब से यही सोच रहा था कि आखिर यह मामला है क्या ....लेकिन सारा मामला मेरी समझ में तब आया जब मैंने अभी अभी बीबीसी की यह न्यूज़ स्टोरी देखी...Tainted IV Fluid kills 13 pregnant women in India. राजस्थान के जोधपुर में पिछले दस दिनों में तेरह गर्भवती महिलायें दूषित ग्लूकोज़ ड्रिप की बलि चढ़ गईं।

इस तरह का केस तो मैंने भी पहली बार ही सुना है कि दूषित ग्लूकोज़ चढ़ने से इतने लोगों की मौत हो गई। यह एक बेहद दुःखद घटना तो है ही लेकिन इस दुर्घटना से सबक इस तरह के सीखने की ज़रूरत है कि इस तरह की घटना फिर से न घटे।

इतना तो आप सब भी सुनते ही होंगे कि ग्लूकोज़ या कोई भी इंट्रा-विनस फ्लूयड़ (intravenous fluid) लगने से किसी को कोई रिएक्शन-सा हो गया ...कंपकंपी छिड़ गई लेकिन उस तरह के केसों पर डाक्टर तुरंत काबू पा लेते हैं।

मौतें तो हो गईं ... अब कारण का पता भी लगा ही लिया जाएगा कि ऐसा क्या था उस “लोकल” ग्लूकोज़ की बोतलों में जिस से कि बहुत ज़्यादा रक्त बह जाने से इतनी महिलाओं की मौत हो गई ...लेकिन मुझे लगता है कि इस दुर्घटना से उस तबके को भी सीख लेने की ज़रूरत है जो समझते हैं अपनी मरजी से कभी भी किसी तरह की शारीरिक दुर्बलता दूर करने के लिये ग्लूकोज़ चढ़ाने से सब कुछ ठीक हो जायेगा।

और आम आदमी के इस भ्रम को गांवों, कसबों के झोलाछाप डाक्टर भुनाने में कोई कसर नहीं छोड़ते। पहले तो खबरे देखते-सुनते थे कि ग्लूकोज़ आदि आई-व्ही फ्लूयड़ लगाने के लिये इस्तेमाल की जाने वाले आई-व्ही सैट (कैनुला आदि) की बढ़े स्तर पर री-साईक्लिंग होती है, कोई पता नहीं नीम-हकीम इस तरह की दवाईयां चढ़ाने के नाम पर कौन कौन सी लाइलाज बीमारियां भोली भाली जनता को चढ़ा देते हैं।

आमजन के इस बात पर विचार करना चाहिये कि अगर एक बड़े अस्पताल में इस तरह की दूषित ग्लूकोज़ की बोतलें पहुंच गईं तो इस तरह की क्वालिटी वाली बोतलों अथवा अन्य दवाईयों को अन्य छोटी जगहों पर पहुंचते कहां देर लगती होगी !

इस बात का बेहद दुःख है कि इतनी महिलाएं जो अपने नवजात शिशुओं को लेकर खुशी खुशी घर आतीं वे कहीं और हमेशा के लिये चली गईं.... आखिर किसी का तो दोष है, देखियेगा अगले कितने दिन यही दोषारोपण- प्रत्यारोपण चलता रहेगा, कुछ ही दिनों में मामला ठंडा भी पड़ ही जायेगा लेकिन दिवंगत  महिलाएं जिन परिवारों से जुड़ी हुई थीं उन का यह घाव हमेशा हरा रहेगा।

शनिवार, 19 फ़रवरी 2011

टैटू गुदवाने से हो सकती हैं भय़ंकर बीमारियां

सुनते हैं कि पुराने ज़माने में टैटू गुदवाने का बड़ा शौक हुआ करता था.. और ये अपना नाम, अपने धर्म चिन्ह अथवा देवी-देवताओं की आकृतियां टैटू के रूप में गुदवाने का काम मेलों आदि में खूब ज़ोरों शोरों से हुआ करता था।

लगभग छः साल पहले हम लोग भी मुक्तसर में माघी का मेला देखने गये .. मुक्तसर शहर फिरोज़पुर से लगभग 50किलोमीटर दूर है और वहां का माघी का मेला बहुत प्रसिद्ध है। अन्य नज़ारों के इलावा वहां ज़मीन पर बैठे एक टैटू बनाने वाले को भी देखा.. वह 20-20, 30-30 रूपये में टैटू बनाये जा रहा था... जिसे जो भी आकृति चाहिये होती वह पांच मिनट में बनती जा रही थी।

कोई मशीन की साफ़ सफ़ाई का ध्यान नहीं, और यह संभव भी नहीं था। लेकिन लोग जो इस तरह का खतरनाक गुदवाने का काम करवाते हैं वे इस के संभावित दुष्परिणामों से अनभिज्ञ होते हैं ... यह उन्हें एचआईव्ही, हैपेटाइटिस बी एवं सी जैसी बीमारियां दे सकता है। मैं अकसर ऐसे मौकों पर सोचता हूं कि इस तरह के धंधे कब तक चलते रहेंगे .. या तो लोग ही इतने जागरूक हो जाएं कि इस सब के चक्कर में न पड़ें, वरना सरकारी तंत्र को मेलों आदि से इस तरह की “कलाओं” को दूर रखना चाहिये।

मुझे आज इस का ध्यान इसलिये आया क्योंकि सुबह मैं msnbc की साइट पर एक न्यूज़-स्टोरी देख रहा था जिस में बताया गया था कि जर्मनी में टैटू बनाने के लिये इस्तेमाल की जाने वाली स्याही में विषैले तत्व पाये गये जिस से चमड़ी का कैंसर तक होने का खतरा मंडराने लगता है। मैंने भी आज तक टैटू के अन्य नुकसान दायक पहलूओं के बारे में ही सोचा था ...और आज उस में एक बात और जमा हो गई है ...इस में इस्तेमाल की जाने वाली स्याही।

और एक बात ...अगर जर्मनी जैसे देश में ऐसी बात सामने आई तो आप स्वयं सोच सकते हैं कि हमारे देश में फुटपाथ पर बैठ कर इस तरह का धंधा करने वाले कैसी स्याही इस्तेमाल करते होंगे।

एक तो हिंदी प्रिंट मीडिया भी लोगों को बहुत उकसाता है... कुछ दिन पहले मैंने एक दूध की डेयरी पर पड़ी एक हिंदी की अखबार देखी.. उस में होठों के अंदर की तरफ़ विभिन्न आकर्षक आकृतियां गुदवाने के बारे में बताया गया था। और साथ में एक रंगीन तस्वीर भी छपी थी ... मैंने उस लेख को इसलिये पढ़ा क्योंकि मैं यह जानना चाहता था कि क्या इस से भयंकर बीमारियां होने के खतरे के बारे में कुछ लिखा गया है ...नहीं, ऐसा कुछ भी नहीं लिखा गया था।

बात वही है, अब लोगों को स्वयं जागरूक होना होगा.. ये सब मुद्दे बेहद अहम् हैं .. लेकिन अखबारों के अपने मुद्दे हैं, उन की अपनी प्राथमिकताएं हैं.... क्योंकि उस लिप-टैटू के नुकसान बताए जाने से कहीं ज़्यादा उस अखबार ने एक लंबी-चौड़ी खबर के द्वारा पाठकों को यह बताना ज्यादा ज़रूरी समझा कि किस तरह से दस साल से बिना शादी के रहने वाले दो फिल्मी कलाकार अब अलग हो गये हैं.... अब हो गये हैं तो हो गये हैं, इस से आमजन को क्या लेना देना, यार, आम आदमी के सरोकारों की बात कौन करेगा ?

वैसे एक बात है कि ये जो बच्चे धुल जाने वाले टैटू को कभी कभी लगा कर अपना शौक पूरा कर लेते हैं, वही ठीक है। पता नहीं ना कि अब इस में कंपनियां किस तरह का कैमिकल इस्तेमाल करती होंगी, लगता है कि इस तरह के सभी शौंकों से दूर ही रहने में समझदारी है।



मंगलवार, 15 फ़रवरी 2011

ओव्हर-डॉयग्नोसिस से ओव्हर-ट्रीटमैंट का कुचक्र.. 3.(concluded)

अगर बीते ज़माने के चिकित्सकों के पास ऐसा हुनर था कि वे नब्ज़ पर हाथ रख कर किसी की शारीरिक एवं मानसिक हालत का पता लगा लिया करते थे तो क्या आज के चिकित्सक के पास यह क्षमता ही नहीं है ?

चिकित्सा क्षेत्र भी बाज़ारवाद से अनछुआ नहीं रह पाया और यह संभव भी नहीं था। जब महिलाओं के लिये बोन-स्कैन (हड्डी स्कैन) आदि के लिये कैंप आदि लगते हैं तो मुझे यह सब देख कर बड़ा अजीब सा लगता है कि जहां पर अधिकांश महिलायें ढंग का खाना तो खा नहीं पातीं, ऐसे में इन की हड्डीयों का स्कैन करने से क्या हो जाएगा?  महिलाओं में रक्त की कमी तो सालों-साल दूर होती नहीं और ये बोन-स्कैन .....।

बात क्लोरोक्विन से भी कड़वी है लेकिन अब है तो है ... इस से कैसे मुंह फेर लें .. चिकित्सा क्षेत्र में बड़ी बड़ी मशीनें आ गई हैं तो उन पर जंग तो कोई लगने नहीं देगा, खूब पैसा लगा है उन पर, इसलिये टैस्ट तो होंगे ही ... अब कौन सा टैस्ट ज़रूरी है और कौन सा नहीं, इस प्रश्न का उत्तर अगर पश्चिमी देशों में निरंतर ढूंढा जा रहा है तो हमारी तो बात ही छोड़ दें....यह एक विकराल समस्या तो है ही जैसा कि इस से पहली दोनों पोस्टों में यह डिस्कस किया जा चुका है।

आज आम आदमी भी ऐसा ही सोचने लगा है कि पांच-सितारा होटलों जैसी सुविधाओं से लैस टनाटन हास्पीटल खुल तो गये हैं ... खैरात बांटने के लिये तो खुले नहीं, इन के बिस्तरों पर सड़कछाप आम  आदमी तो सुस्ताने से रहा ... अब इन अस्पतालों में महंगे महंगे आप्रेशन होंगे, भारी भरकम पर्स वाले इन के बैडों पर कुछ दिन स्वास्थ्य लाभ पाएंगे, भारी भरकम बिल आएंगे तो बात बनेगी ......वरना, ये तो बंद पड़ जाएंगे।

हां, तो बात हो रही थी चिकित्सक के हुनर की ... अब चर्चा होने लगी है कि लगातार प्रगति करती तकनीकों की वजह से चिकित्सक एवं मरीज़ के संबंध पहले जैसे नहीं रहे, काफ़ी कमज़ोर पड़ गये हैं। ताली एक हाथ से नहीं बजती ...उसी तरह न तो मरीज़ के पास टाइम है, उस के अपने फंडे हैं, वह सोचता है कि धन के बलबूते पर वह सब कुछ खरीद लेगा ..महंगे से महंगा इलाज करवा लेगा ...लेकिन ज़रूरी नहीं कि महंगा इलाज ही उस के लिये उपर्युक्त हो और उस से सब कुछ ठीक भी हो जाए..।

सारा सिस्टम इस तरह का हो गया है कि कईं बार लगता है कि चिकित्सकों के पास भी पहले ज़माने के चिकित्सकों की तरह समय नहीं है, और इस में केवल उन का दोष नहीं है ... एक एक दो दो मिनट में मरीज़ “निपटाएं जाएंगें” तो फिर न तो मरीज़ की ही संतुष्टि होती है और न ही डाक्टर की प्रोफैशनल संतुष्टि... अकसर देखने में आता ही है कि अब मरीज़ के साथ पंद्रह मिनट बिताने की फुर्सत कहां? …..क्या कहा, फुर्सत ही फुर्सत है, डाक्टर लोग इतना समय आराम से दे देते हैं, तब तो बहुत बढ़िया बात है।

कहने को तो हम कह देते हैं कि पहले चिकित्सक बहुत लायक हुआ करते थे .. हों भी क्यों न? उन्हें अपने मरीज़ों की शारीरिक अवस्था के साथ साथ पारिवारिक, सामाजिक, मानसिक, आर्थिक, पारस्परिक संबंधों, और भी जितनी अवस्थायें हो सकती हैं, उन सब का ज्ञान होता था। ऐसे में वे मरीज़ का होलिस्टिक इलाज (holistic health care)  कर पाते थे क्योंकि वे अंदर की भी सभी बातें जानते थे, अब सब कुछ हो गया.... छिन्न छिन्न, ऐसे में किसी भी चिकित्सक से कहां वैसे हुनर की अपेक्षा की जा सकती है। ज़रूर होंगे ऐसे भी चिकित्सक कहीं तो लेकिन सुना है उन की संख्या नित-प्रतिदिन घटती जा रही है।

यह पोस्ट लिखते मुझे ध्यान आ रहा है कि आखिर दोष किस का है? मरीज़ का, डाक्टर का, समाज का, सामाजिक व्यवस्था का, बाज़ारवाद का, आधुनिकता की बेतहाशा अंधी दौड़ का, हमारे लगातार बिगड़ते सामाजिक संबंधों का, धार्मिक असहिष्णुता का ........ यकीनन दोष इन सब का ही है, केवल यह कहना कि डाक्टर अपनी जगह पर ठीक हैं, मरीज़ अपनी जगह पर ठीक हैं......इतना कह देना ही काफ़ी नहीं है...क्योंकि किसी भी समाज का स्वास्थ्य ऐसी अनेकों बातों पर भी निर्भर करता है जिन का मैडीकल क्षेत्र से कुछ लेना देना होता ही नहीं है। यह एक जटिल एवं विषम मुद्दा है ...जो भी है, एक अभिलाषा है कि कम से कम यह क्षेत्र बाज़ारवाद की मार से बच पाए....।

पोस्ट समाप्त करते करते ध्यान आ रहा है हमारे एक महान् प्रोफैसर का जो अकसर हमें कहा करते थे ... Listen to the patient, he is giving you the diagnosis ! (मरीज़ को ध्यान से सुना करो, वह अपना डॉयग्नोसिस स्वयं तुम्हें बता रहा होता है) ……और आज भी चिकित्सक पूर्णतयः सक्षम है ....क्या आप को पता है कि चिकित्सक किसी भी मरीज़ की बीमारी का पता यह देख कर लगाना शुरू कर देता है कि मरीज़ किस ढंग से चल कर उस के कमरे में आया है, मरीज़ का चेहरा, उस की सांसों की महक, उस की चमड़ी की हालत, उस के हाथों का तापमान.......अनेकों अनेकों तरीके हैं मंजे हुये चिकित्सक के पास उस की तकलीफ़ ढूंढने निकालने के लिये .....लेकिन इस सब के लिये उस के हाथों को छूना भी पड़ेगा, उस के कंधे पर हाथ भी रखना होगा, ज़रूरत पड़ने पर उस का पेट को हाथ भी तो लगाना होगा......इस का जवाब मैं आप के ऊपर छोड़ता हूं कि क्या यह सब उतने अच्छे ढंग से हो पाता है जहां बीसियों मरीज़ों लाइन में अपनी बारी का इंतज़ार कर रहे होते हैं और साथ में उन की टिप्पणी बार बार चिकित्सक के कान में पड़ती रहती है ... यह डाक्टर नया है क्या ? इतना समय लगता है क्या दवाई लिखने में ?

सच्चा कौन है –डाक्टर या मरीज़? --इस पोस्ट का उद्देश्य केवल एक बात को रेखांकित करना है कि ताली दोनों हाथों से बजती है, ज़रूरत है समाज के सभी अंगों को अपने आप को टटोलने की....... बस, मुझे अभी इतना ही कहना है, अगर आप के मन में भी कुछ बातें हैं तो टिप्पणी में लिखियेगा।

बुधवार, 2 जून 2010

बड़ी आंत की सफाई वाला बिजनैस ?

एक वेबसाइट है जिस पर प्रिंटमीडिया एवं इलैक्ट्रोनिक मीडिया पर चल रही सेहत संबंधी समाचारों की खिंचाई भी होती और जो बिल्कुल सुथरा और बिना किसी लाग-लपेट के सेहत के बारे में बढ़िया संदेश देते हैं उन की प्रशंसा भी की जाती है --इस साइट का नाम है healthnewsreview.org. मैं अकसर एक दो दिन में इस साइट को ज़रूर विज़िट करता हूं ---हो सके तो कभी कभी आप भी देख लिया करें।
मैं इस पर एक रिपोट---क्या अपने आप आंत साफ करने वाली दवाईयां सेहत में सुधार करती हैं?--- देख रहा था जिस में बड़ी आंत को साफ़ करने संबंधी एक न्यूज़-रिपोर्ट को इस साइट पर पांच सितारे मिले थे क्योंकि उस में बड़ी साफगोई से आंत की सफाई के लिये मार्कीट में आने वाले प्रोडक्टस् की पोल खोली गई है।
बड़ी आंत की सफ़ाई की बात करते हैं तो मुझे अपने योग में बहुत सक्रिय होने वाले दिन याद आ जाते हैं--यह बात आठ सल पहले की है जब हम लोग योग के एक रैज़ीडैंशियल कार्यक्रम के लिये जाया करते थे तो वहां पर एक क्रिया करते थे --शंख-प्रक्षालन। इस क्रिया के दौरान हमें एक दिन सुबह सुबह गुनगुना नमकीन पानी पीने को कहते थे ---जितना हम आसानी से पी सकें ---होता यूं था कि कुछ गिलास पीने के बाद हम लोग टायलेट की तरफ़ भागना शुरू कर देते थे --- और शायद एक घंटे में आठ दस बार हमें टायलेट जाना पड़ता था ---कुछ ही मिनटों में बिल्कुल पानी जैसे मल होने लगते थे और देखते ही देखते बिल्कुल हल्कापन --- और उस के बाद हमें चावल का पानी (क्या बोलते हैं उसे मांड) दिया जाता था।
और हमें यह सचेत भी किया जाता था कि हम लोग इस प्रक्रिया को अपने आप घर में ना आजमाएं ---केवल योग गुरू की निगरानी में ही यह प्रक्रिया दो महीने के बाद की जा सकती है। मुझे भी इस तरह की क्रिया को एक योग आश्रम में तीन-चार बार करने का अवसर मिला।
अच्छा हम लोग तो उस रिपोर्ट की चर्चा कर रहे थे जिस में कुछ विज्ञापनों का विश्लेषण किया गया है जो अपने प्रोड्क्टस के द्वारा बड़ी आंत को साफ़ करने का ढिंढोरा पीट रहे हैं। दरअसल अमीर दूर-देशों में आंत की बहुत ज़्यादा तकलीफ़े हैं --अन्य कारणों के साथ साथ वहां पर यह जो नॉन-वैजीटेरियन खाना बहुत चलता है और वह भी अत्यंत प्रोसैस्ड----इस सब से यह तकलीफ़ें जैसे कि बड़ी आंत का कैंसर जैसे रोग काफी आम हैं।
मैं जब इस रिपोर्ट को देख रहा था तो मैं भी यह सोच कर दंग था कि ऐसे कैसे किसी स्वस्थ बंदे की आंत में 10पाउंड, बीस पाउंड और यहां तक कि चालीस पाउंड तक मल फंसा रहता है जिस के परिणामस्वरूप उसे हमेशा यह बोझा ढोने के लिये मजबूर होना पड़ता है।
इस में कोई शक नहीं कि अगर पेट ठीक तरह से साफ़ नहीं होता तो तबीयत नासाज़ सी ही रहती है । लेकिन अब अगर तीस चालीस पाउंड मल आंतों में फंसे होने की बात कोई कहे तो कोई उसे क्या कहे?
इस बढ़िया सा रिपोर्ट की पारदर्शिता देखिये कि उस में एक पेट के रोगों के माहिर डाक्टर की टिप्पणी भी दी गई थी। उसे भी यह बीस-तीस-चालीस पाउंड वाली बात बड़ी रोचक दिखी--उस ने मज़ाक में यह भी कह दिया कि गिनिज़ बुक आफ वर्ल्ड रिकार्ड को खंगालना पड़ सकता है।
और उस ने इस तरह के प्रोड्कट्स के बारे में लोगों को यह कहते हुये भी सचेत किया कि इस में मैग्नीशयम की मात्रा इतनी ज़्यादा होती है कि यह गुर्दे के रोगों से जूझ रहे लोगों के लिये खतरनाक हो सकती है। और जाते जाते उन्होंने यह भी कह दिया अगर कोई स्लिम-ट्रिम होने के लिये इन आंत की सफाई के लिये आने वाले पावडरों का सहारा ले रहा है तो उसे भी इन से दूर ही रहने की ज़रूरत है।
वैसे आप को भी लगता होगा कि अखबार में,मीडिया में छपने वाली सेहत की खबरों की अगर रोज़ाना इतनी खिंचाई होगी तो यह सब लिख कर लोगों को भ्रमित करने वाले लोग कैसे अपने आप लाइन पर न आएंगे।
मुझे यह लिखते लिखते ध्यान आ रहा है कि रिपोर्ट का पोस्ट-मार्टम तो हो गया लेकिन क्या इस में लिखी बातों ने क्या हमें कुछ सोचने पर मजबूर भी किया ? -- बात सोचने वाली यह भी है कि आंते भी क्या करें ----ऐसी कौन सी मशीनरी है जो 365दिन चौबीस घंटे चलती रहे --कोई विश्राम नहीं ----आखिर वह कब थोड़ी सुस्ताए --- वह तो तभी हो सकता है जब हम अपने मुंह को थोड़ा विराम दें ----उपवास रखने की आदत डालें ----दिन, विधि और अवधि आप स्वयं तय करें। मैं भी सोच रहा हूं कि उपवास रखना शूरू करूं।

सोमवार, 26 अप्रैल 2010

बीमारी एक ----बीसियों इलाज, बीसियों सुझाव

वैसे जब किसी को कोई शारीरिक तकलीफ़ हो जाती है तो बीमारी से हालत पतली होने के साथ साथ उस की एवं उस के परिवार की यह सोच कर हालत और भी दयानीय हो जाती है कि अब इस का इलाज किस पद्धति से करवाएं, या थोड़ा इंतज़ार ही कर लें।

चलिये, एक उदाहरण लेते हैं कि किसी बंदे को पेट में दर्द हुई और दर्द कुछ ज़्यादा ही थी, इसलिये अल्ट्रासाउंड निरीक्षण के बाद यह पता चला कि उस के गुर्दे में पत्थरी है। अब पेट की दर्द तो अपनी जगह कायम है और शुरू हो जाते हैं तरह तरह के सुझाव --

- तू छोड़ किसी भी दवाई को, पानी ज़्यादा पी अपने आप घुल जायेगी
-फलां फलां को भी ऐसी ही तकलीफ़ थी उस की तो देसी दवाई खाने से पत्थरी अपने आप घुल गई थी
- तुम्हें लित्थोट्रिप्सी (lithotripsy) के द्वारा इस निकलवा लेना चाहिये जिस में किरणों के प्रभाव से पत्थरी को बिल्कुल छोटे छोटे टुकड़ों में तोड़ कर खत्म कर देते हैं
-- तुम दूरबीन से अपना आप्रेशन करवाना
---तुम तो प्राइवेट ही किसी को दिखाना, सरकारी अस्पतालों के चककर में न पड़ना, चक्कर काट काट के परेशान हो जायेगा, लेकिन आप्रेशन तेरे को फिर भी बाहर ही से करवाना पड़ेगा
---एक हितैषी कहता है कि तू इधर जा, दूसरा कहता है कि नहीं, नहीं, उस से वो वाला ठीक है
--- तू सुन, किसी चक्कर में मत पड़ कर, न देसी न अंग्रेज़ी, चुपचाप तू होम्योपैथी की दवाई शुरू कर दे ---मेरे पड़ोस में जो रिटायर्ड बाबू रहता है उसे होम्योपैथी का अच्छा ज्ञान है, उस के पास एक बड़ी किताब भी है ---वह तेरी तकलीफ़ देख कर दवाई दे देगा, आगे तू देख ले, जैसा तेरे को ठीक लगे।
यह तो बस एक उदाहरण है, बात वही है कि इतने ज़्यादा सुझाव आ जाते हैं कि मरीज़ का एवं उस के सगे-संबंधियों का परेशान हो जाना स्वाभाविक है। जाएं तो कहां जाएं।
लेकिन यह स्थिति केवल हमारे देश में ही नहीं है, सारे विश्व में यह समस्या है कि शारीरिक रूप से अस्वस्थ होने पर असमंजस की स्थिति तो हो ही जाती है।

यह सब बात करने का एक उद्देश्य है कि एक बात आप तक पहुंचाई जा सके ---- Evidence-based medicine. इस से अभिप्रायः है कि किसी बीमारी का ऐसा उपचार जो पूर्ण रूप से वैज्ञानिक तथ्यों पर आधारित हो, प्रामाणिक हो, जिस के परिणामों का वैज्ञानिक ढंगों से आंकलन हो चुका हो, जिस में किसी भी तरह के व्यक्तिगत बॉयस (personal bias) की कोई जगह न हो----सब कुछ वैज्ञानिक एवं तथ्यों पर आधारित ---अर्थात् अगर Evidence based medicine के द्वारा किसी बीमारी के लिये किसी तरह की चिकित्सा को उचित बताया गया है तो वह एक तरह से उस समय तक के प्रमाणों पर आधारित होते हुये पूर्ण रूप से प्रामाणिक होती है।
मैंने एक ऐसी ही साइट को जानता हूं --- www.cochrane.org जिस में विभिन्न तरह की शारीरिक व्याधियों के उपचार हेतु cochrane reviews तैयार हैं, बस किसी मरीज़ को सर्च करने की ज़रूरत है। आप भी इस साइट को देखिये और इस के बारे में सोचिये।

वैसे मेरे विचार में इस तरह की संस्थायें बहुत बड़ी सेवा कर रही हैं। मैं आज ही इन का एक रिव्यू देख रहा था जिसमें इन्होंने एक परिणाम यह निकाला है कि इलैक्ट्रोनिक-मॉसक्यूटो रिपैलेंट (electronic mosquito repellent) मशीनों का उपयोग बिल्कुल बेकार है --इन को तो बनाना और बेचना ही बंद हो जाना चाहिये क्योंकि ये ना तो मच्छर को भगाने में ही कारगर है और न ही ये किसी को मच्छर के द्वारा काटने से ही बचा पाती हैं । अब ऐसे ऐसे रिव्यू जो कि अनेकों समर्पित वैज्ञानिकों की कईं कईं साल की तपस्या का परिणाम होते हैं --इन्हें देखने के बाद भी कोई अगर अपनी बुद्धि को तरज़ीह दे तो उसे क्या कोई क्या कहे ?

अधिकतर बीमारियों के लिेय cochrane reviews उपलब्ध हैं ----और कुछ न सही, आप इन्हें सैकेंड ओपिनियन के रूप में देख सकते हैं। इतना तो मान ही लें कि उपचार के विभिन्न विकल्पों की इफैक्टिवनैस के बारे में इस से ज़्यादा प्रामाणिक एवं विश्वसनीय जानकारी शायद ही कहीं मिलती हो।

वैसे याहू-आंसर्ज़ नामक फोरम भी एक अच्छा प्लेटफार्म है जहां पर आप अपनी सेहत संबंधी प्रश्न बेबाक तरीके से लिख सकते हैं और फिर आप को विश्व के प्रसिद्ध विशेषज्ञ सलाह देंगे। सैकेंड ओपिनियन लेने में भी हर्ज़ क्या है ?