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शुक्रवार, 4 मार्च 2011

पैरों की सेहत—मछली ने संवार दी, कुत्ते ने बिगाड़ दी ?

कुछ साल पहले से यह तो सुनने में आने लगा था कि पैरों की देखरेख भी अब ब्यूटी पार्लर में होती है जहां पर इस के लिये दो-तीन सौ रूपये लगते हैं ...लेकिन इस तरह के क्रेज़ के बारे में शायद ही आप ने सुना हो कि पैरों की साफ़-सफ़ाई के लिये छोटी छोटी मछलियों की मदद लेने की नौबत आ गई है।

इस तरह की साज सज्जा के दौरान एक पानी के टब में जिस में एक विशेष तरह की मछलियां पड़ी रहती हैं उन में पैरों को डुबो दिया जाता है और ये नन्ही मुन्नी मछलियां पैरों पर धीरे धीरे काट कर मृत चमड़ी (dead skin) को उतार देती हैं। लेकिन चिंता की बात यह है कि इस तरह का शौक पालने से तरह तरह की इंफैक्शन का जो खतरा मंडराने की बात होने लगी है, उसे समझने की ज़रूरत है। वैसे भी अपना देसी बलुआ पत्थर (sandstone, पंजाबी में इसे झांवा कहते हैं) इस काम के लिये क्या किसे से कम है ....एकदम सस्ता, सुंदर और टिकाऊ उपाय है, लेकिन अगर किसी को अथाह इक्ट्ठी की हुई दौलत से बेइंतहा खुजली हो तो कोई क्या करे? …. फिर तो शुक्र है कि इस काम के लिये मछली से ही काम चलाया जा रहा है !!

यह खबर देख कर बहुत दुःख हुआ .... रात को एक आदमी सोया, सुबह उठा तो देखता है कि उस के पांव की तीन उंगलियां और पैर का एक हिस्सा उस का पालतू कुत्ता खा गया है.. दरअसल इस आदमी को डायबीटीज़ रोग था जिस की वजह से उस के पैर सुन्न पड़ चुके थे, उन में किसी तरह का कोई अहसास नहीं होता था, इसलिये जब कुत्ता अपना काम कर रहा था तो उसे पता ही नहीं चला...एक दुःखद घटना। मधुमेह के रोगियों को यह खबर चेता रही है कि अपनी ब्लड-शुगर के स्तर को नियंत्रण में रखें, अपनी पैरों की भी विशेष देख भाल करें, छोटी मोटी तकलीफ़ होने पर विशेषज्ञ से परामर्श लें और रात में अपने कुत्ते को अपने कमरे में न रखें ......यह कुत्ते को अपने साथ रखने वाली बात मैंने कहीं पढ़ी नहीं है, लेकिन इस खबर से तो इस का यही मतलब निकलता है !!
Further reading --
For diabetics --keep your feet and skin healthy.

गुरुवार, 3 मार्च 2011

डॉयबीटीज़ की मैनेजमेंट में हो रही विश्व-व्यापी गड़बड़

मैं अकसर यही सोचता रहा हूं कि डायबीटीज़ की मिस-मैनेजमैंट भारत ही में हो रही है, लेकिन कुछ रिपोर्टें ऐसी देखीं कि लगा कि इस से तो अमीर देश भी खासे परेशान हैं।

भारत में बहुत से लोगों को तो पता ही नहीं कि उन्हें मधुमेह है –कभी कोई चैकअप करवाया ही नहीं। पूछने पर बताते हैं कि जब हमें कोई तकलीफ़ ही नहीं तो फिर चैक-अप की क्या ज़रूरत है!

जब मैं किसी ऐसी व्यक्ति को मिलता हूं जो लंबे अरसे से डायबीटीज़ को अपने ऊपर हावी नहीं होने दे रहा तो मुझे बहुत प्रसन्नता होती है। लेकिन अधिकतर लोग मुझे ऐसे ही मिलते हैं जिन में मधुमेह की मैनेजमेंट संतोषजनक तो क्या, चिंताजनक है।

दवाईयों का कुछ पता नहीं, कभी खरीदीं, जब लगा “ठीक हैं” तब दवाईयां छोड़ दीं, कईं कईं सालों पर शूगर का टैस्ट करवाया ही नहीं, किसी शुभचिंतक ने कभी कोई देसी पुड़िया सी दे दीं कि यह तो शूगर को जड़ से उखाड़ देगी, कभी किसी तरह की शारीरिक सामान्य जांच नहीं, वार्षिक आंखों का चैक-अप नहीं, ग्लाईकोसेटेड हिमोग्लोबिन टैस्ट नियमित तो क्या कभी भी नहीं करवाया, रोग के बारे में तरह तरह की भ्रांतियां, नकली एवं घटिया किस्म की दवाईयों की समस्या, कभी ऐलोपैथी, अगले महीने होम्योपैथी, फिर आयुर्वैदिक और कुछ दिनों बाद यूनानी या फिर कुछ दिनों तक इन सब की खिचड़ी पका ली, शारीरिक श्रम न के बराबर, खाने पीने पर कोई काबू नहीं.............ऐसे में हम लोग किस तरह की डॉयबीटीज़ की मैनेजमेंट की बात कर सकते हैं !

डाक्टर अपनी जगह ठीक हैं, व्यवस्था ऐसी है कि किसी भी अस्पताल में मैडीकल ओपीडी देख लें...वे एक-दो मिनट से ज़्यादा किसी मरीज़ को दे नहीं पाते .... और जिन बड़े अस्पतालों में वे 15-20 मिनट एक मरीज़ को दवाईयां समझाने में, जीवनशैली में परिवर्तन की बात समझाते हैं, वे देश की 99.9प्रतिशत जनता की पहुंच से बाहर हैं।

लेकिन यह हमारी समस्या ही नहीं लगती ...एक रिपोर्ट देखिए जिस में बताया गया है कि संसार में करोड़ों लोग ऐसे हैं जिन को अभी पता ही नहीं है कि उन्हे शूगर रोग है और जिन का इलाज उचित ढंग से नहीं हो पा रहा है, जिस की वजह से वे मधुमेह से होने वाली जटिलताओं (complications)का जल्दी ही शिकार हो जाते हैं और एक बात—कल यह भी दिखा कि किस तरह से डायबीटीज़ रोग का ओव्हर-डॉयग्नोज़िज हो रहा है।

डायबीटीज़ एक महांमारी का रूप अख्तियार कर चुकी है और एक अनुमान के अनुसार आज विश्व भर में 28 करोड़ अर्थात विश्व की कुल जनसंख्या का लगभग 7 प्रतिशत भाग इस रोग की गिरफ्त में है।

अमेरिका में लगभग 90 प्रतिशत लोग ऐसे हैं जिन का मधुमेह ठीक तरह से कंट्रोल नहीं हो रहा है, मैक्सिको में यह आंकड़े 99 प्रतिशत हैं ... थाईलैंड में लगभग 7 लाख लोगों पर एक सर्वे किया गया जिस का रिज़ल्ट यह था कि उन में से 62 प्रतिशत लोगों में या तो डायबीटीज़ डायग्नोज़ ही नहीं हुई और या उन में इस अवस्था का इलाज ही नहीं हुआ................यह आंकड़े केवल इसलिये कि हम थोड़ा सा यह सोच लें कि हमारे देश में इस के बारे में स्थिति कितनी दहशतनाक हो सकती है, इस का आप भलीभांति अनुमान लगा ही सकते हैं। दो दिन पहले ही कि रिपोर्ट है (लिंक नीचे दिया है) कि इंग्लैंड में लगभग एक लाख लोगों का डायबीटीज़ का डायग्नोसिस ही गलत था।

सदियों पुरानी बात है ... जिसे बाबा रामदेव हर दिन सुबह सवेरे दोहरा रहे हैं ... परहेज इलाज से बेहतर है ... लोग पता नहीं क्यों इस संयासी के पीछे हाथ धो कर पड़े हुये हैं, राजनीति के बारे में मैं कोई भी टिप्पणी करने में असमर्थ हूं , मैं तो केवल यह जानता हूं कि विश्व में लोग इस महान संत की वजह से सुबह उठना शुरू हो गये हैं, कम से कम किसी की अच्छी बातें सुनने लगे हैं, थोड़ा बहुत अपनी खान-पान जीवनशैली को बदलने की दिशा में अग्रसर हुये हैं, थोड़ा बहुत योग करने लगे हैं, जड़ी-बूटियों की चर्चा होने लगी है......केवल यही कारण हैं कि मैं मानता हूं कि बाबा जिस तरह से विश्व की सेहत को सुधारने में जुटा हुआ है , उसे देख कर मैं यही सोचता हूं .........एक नोबेल पुरस्कार तो बनता है!!

संबंधित लेख
Diabetes out of control in many countries : study. (medline)
Review Reveals thousands wrongly diagnosed diabetics.


लगातार चलते रहने के लिये प्रेरित करता हुआ एक पुराना गीत ..


मंगलवार, 23 नवंबर 2010

शुगर डॉयन खाये जात है ...

कल शाम को मुझे एक बंदा मिला – 50-52 की उम्र—चिकित्सा क्षेत्र से ही संबंधित—बातचीत के दौरान उस ने अपने यूरिन-टैस्ट की रिपोर्ट मेरे आगे की – ज़रा देखो कि क्या सब कुछ ठीक है ? मैं बड़ा हैरान हुआ –यूरिन में शूगर डबल प्लस, साथ में यूरिन में पस सैल(pus cells), रक्त सैल और क्रिसटल्स का भी ज़िक्र था। मैंने पूछा कि यार, तुमने यह टैस्ट करवाया क्यों था ? बताने लगा कि यह टैस्ट उस ने इसलिये करवाया क्योंकि उस के अंडरवियर पर पीले दाग पड़ने लगे हैं जो धुलने से भी नहीं छूटते।

आगे उस ने बताया कि दरअसल उसे लगभग 15 वर्ष पहले पेट में दर्द हुआ था –उस के विवरण से पता लग रहा था कि गुर्दे का दर्द था। खैर, उस ने बताया कि उसे इतने सालों में कोई तकलीफ़ नहीं थी। लेकिन अब यह अंडरवियर वाली बात से वह परेशान था, वैसे उस ने मुझे बताया कि पंद्रह सोलह साल पहले भी जो यूरिन टैस्ट करवाया था उस में भी क्रिस्टल्स की बात तो आई थी, लेकिन उसे कोई तकलीफ़ नहीं थी और इसलिये उस ने किसी तरह का मशवरा लेना ज़रूरी नहीं समझा।

मुझे उस की रिपोर्ट देख कर बहुत अफसोस सा हुआ – इतना मस्त रहने वाला बंदा, न किसी की बुराई में न किसी की अच्छाई में... लेकिन इत्मीनान इतना था कि चलो अगर कोई तकलीफ़ है तो पकड़ी तो जायेगी।

सो, मैंने आज सुबह उसे खाली पेट ब्लड-शूगर टैस्ट करवाने के लिये कहा ---रिपोर्ट आई 297mg%. यह तो तय ही हो गया कि शूगर (मधुमेह) तो है ही। अब उसे पेट का अल्ट्रासाउंड (Ultrasound Abdomen) करवाने के लिये कहा है और साथ में किडनी फंक्शन टैस्ट, और अन्य सामान्य टैस्ट आदि ---बाद में और भी टैस्ट तो करवाने ही होंगे।

आज मेरा मूड उस के बारे में सोच कर खराब ही रहा। बस वही बातें जो अकसर ऐसे मौकों पर होती हैं –मेरे पूछने पर उस ने बताया कि मीठे का तो वह शौकीन है ही --- वैसा चलता तो वह पैदल ही है। मैंने उसे कहा कि यार, चिंता न करो, बस फिजिशियन के बताए अनुसार दवाई तो लेनी ही होगी, और अपने खाने पीने का ध्यान रखना होगा.........

मैं यही सोच रहा हूं कि उस बंदे को तो चिकित्सा विज्ञान के बारे में थोडी बहुत नालेज थी, इतना भी कहूंगा कि साहसी था कि उस ने अपनी मर्जी से ही यूरिन टैस्ट करवा लिया और अभी बाकी टैस्ट करवाने को राजी हो गया---- वरना, बिना किसी जटिलता (complication) के कहां अकसर लोग शूगर वूगर टैस्ट करवाते हैं जब कि 35-40 वर्ष की उम्र के बाद एक-दो साल के बाद इस तरह की जांच तो जरूरी है ही।

अब इस बंदे में भी पता नहीं कि कब से यह रोग था --- बता रहा था कि पिछले दो-तीन साल से दो-तीन किलो वज़न कम चल रहा है। बिना दवाई के अनियंत्रित शूगर-रोग हमारे शरीर के महत्वपूर्ण अंगों (vital organs—kidneys, heart, eyes, vascular and nervous system)को तब तक नुकसान पहुंचाता रहता है जब तक कि वे हड़ताल ही न कर दें।

वैसे एक बात आप से साझी करूं --- यह टैस्ट वैस्ट करवाने में डर बड़ा लगता है, मुझे भी अपने सभी सामान्य टैस्ट करवाये तीन साल हो गये है.......पता नहीं यह क्या मसला है, डाक्टर वाक्टर ऊपर से कितने भी साहसी से नज़र आते हैं , मैंने देखा है जब उन की अपनी एवं उन के सगे-संबंधियों की बात होती है तो बिल्कुल बच्चे जैसे डरे से, भयभीत से, आशंकित से ---------बस, बिल्कुल एक आम मरीज़ की तरह ही होते हैं -----शायद उस से भी बढ़ के।

शुक्रवार, 4 जून 2010

तो क्या अब मधुमेह से बचने के लिये भी दवाईयां लेनी होंगी?

एक बार तो यह रिपोर्ट देख कर मेरा भी दिमाग घूम गया कि अब नौबत यहां तक आ पहुंची है कि मधुमेह जैसे रोग से बचने के लिये भी दवाईयों का सहारा लेना होगा। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि प्री-डॉयबीटिज़ को मधुमेह तक न पहुंचने में दवाईयां सहायता कर सकती हैं।
प्री-ड़ॉयबीटिज़ से तो आप सब भली भांति परिचित ही हैं ---यानि कि डॉयबीटिज की पूर्व-अवस्था। इस के बारे में जाने के लिये इस पोस्ट को देख सकते हैं...क्या आप प्री-डॉयबीटिज़ के बारे में जानते हैं ?
हम सब लोग समझते हैं कि हैल्थ-जर्नलिज़्म भी एक मिशन जैसा काम है। ऐसा नहीं हो सकता कि किसी को भी कुछ भी परोस कर हम किनारा कर लें----क्योंकि हैल्थ से जुड़ी न्यूज़-रिपोर्ट को लोग कुछ ज़्यादा ही गंभीरता से लेते हैं ---इसलिये इन में हमेशा वस्तुनिष्ठता (objectivity) का होना बहुत लाज़मी सा है।
पता नहीं जब मैंने भी इस रिपोर्ट....Drug Combo staves off Type2 Diabetes-- को पढ़ना शुरु किया तो बात मुझे बिल्कुल हज़्म नहीं हो रही थी लेकिन जैसे तैसे पढ़ना जारी रखा तो बहुत सी बातें अपने आप ही स्पष्ट होने लगीं ---अर्थात् इस तरह की सिफारिश कर कौन रहा है, इस तरह का अध्ययन कितने लोगों पर किया गया है, यह स्टड़ी करने के लिये फंड कहां से आए और सब से अहम् बात यह कि इस के बारे में मंजे हुये विशेषज्ञों का क्या कहना है?
एक बात का ध्यान आ रहा है कि जिन दवाईयों की बात हो रही है उन में से एक के तो कभी कभी बुरे प्रभाव भी देखने को मिलते हैं और इस तरह की कुछ रिपोर्टें पीछे देखने को भी मिलीं। लेकिन जब विशेषज्ञ डाक्टर किसी मधुमेह के रोगी को ये दवाईयां देते हैं तो सब देख भाल कर देते हैं और उन के प्रभावों को नियमित मानीटर करते रहते हैं ----और रिस्क और लाभ को तोल कर---भारी पलड़ा देख कर ही इस तरह के निर्णय लेते हैं। लेकिन जब इस तरह की दवाईयों की बात मधुमेह से बचने के लिये की जाए तो किसी के भी कान खड़े हो जाना स्वाभाविक सा ही है।
हां, तो जब सारी रिपोर्ट पढ़ी तो यह पता चला कि यह अध्ययन केवल 207 लोगों पर किया गया ---जैसा कि इस रिपोर्ट में बताया गया है कि चाहे किया तो इसे गया लगभग चार साल के लिये लेकिन इस स्टडी को करने के लिये ये दवाईयां बनाने वाली कंपनी ने फंड उपलब्ध करवाये। और साथ ही साथ आप पारदर्शिता की हद देखिये कि रिपोर्ट में एक तटस्थ विशेषज्ञ (independent expert) की राय भी छापी गई है।
विशेषज्ञ की राय की तरफ़ भी ध्यान करिये कि वह कह रहे हैं कि प्री-डायबीटिज़ एक ऐसी अवस्था तो है जिस के बारे में जागरूक रहने की ज़रूरत है और इस को डायबीटिज तक पहुंचने से रोकने के लिये अपना वज़न नियंत्रित करने के साथ साथ नियमित शारीरिक व्यायाम करना भी बेहद लाजमी है। रिपोर्ट के आखिरी लाइन में तो उस ने यह भी कह दिया कि इस छोटे से अध्ययन के परिणामों से यह नहीं कहा जा सकता कि इन दवाईयों के प्रभाव से प्री-डायबीटिज को डायबीटिज़ में तबदील होने से रोका जा सकता है।
अब आप देखिये कि हैल्थ रिपोर्टिंग कितने ध्यान से की जानी चाहिये----अखबारों में छपी इन खबरों को हज़ारों-लाखों लोग पढ़ते हैं और फिर बहुत बार रिपोर्ट में लिखी सारी बातों को पत्थर पर लकीर की तरह मान लेते हैं। और तो और, अगर किसी हिंदी अखबार में यही खबर छपे तो पता है कैसे छपेगी-----डायबीटिज़ से बचने के लिये वैज्ञानिकों ने रोज़ाना दवाई लेने की सलाह दी है -------और शीर्षक भी कुछ ऐसा ही होता -----"डायबीटिज़ की रोकथाम के लिये लें दवाईयां" ।
अच्छा तो हो गई खबर----अब आपने क्या फैसला किया है --- शायद मेरी ही तरह रोज़ाना टहलने का मन बनाया हो, मीठा कम करने की ठानी हो और मैंने तो फिर से साइकिल चलाने की प्लॉनिंग कर ली है।
मुझे यह सब लिखने का बड़ा फायदा है---- मेरे गुरू जी कहते हैं कि तुम लोग किसी बात को अपनी लाइफ में उतारना चाहते हो तो उस से संबंधित ज्ञान को दूसरों के साथ बांटना शूरू कर दो ----इस से जितनी बार तुम दूसरों को इस के बारे में कहोगे, उतनी ही बार अपने आप से भी तो कहोगे और वह पक्की होती जायेगी। मेरे खाने-पीने के साथ भी ऐसा ही हुआ ----मैं पिछले कुछ वर्षों से जब से सेहत विषयों पर लिख रहा हूं तो मैंने भी बाहर खाना बंद कर दिया है, जंक बिल्कुल बंद है -------क्या हुआ छः महीने साल में एक बार कुछ खा लिया तो क्या है !!
अब मैं चाहता हूं कि नियमित शारीरिक व्यायाम और मीठे के कंट्रोल के बारे में भी मैं इतनी बातें लिखूं कि मुझे भी थोड़ी शर्म तो महसूस होने लगे ------परउपदेश कुशल बहुतेरे!!!!

गुरुवार, 13 मई 2010

तो क्या सच में भूसी इतने काम की चीज़ है ?

शायद अगर आप भी मेरे साथ इस वक्त अपने बचपन के दिन याद करेंगे तो याद आ ही जायेगा कि सुबह सुबह गायें गली-मौहल्लों में घूमते आ जाया करती थी और घरों की महिलायें रोज़ाना उन के आगे एक बर्तन कर दिया करती थीं जिन में दो-एक बासी रोटी और बहुत सी भूसी(चोकर, Bran) पड़ी रहती थी। और गायें इन्हें बड़े चाव से खाती थीं। हम छोटे छोटे थे, हमें देख कर यही लगता था कि हो न हो यह भूसी भी बहुत बेकार की ही चीज होगी।
लेकिन फिर जैसे जैसे पढ़ने लगे तो पता चलने लगा कि यह भूसी तो काम की चीज है। हां, तो बचपन में क्या देखते थे--कि आटा को गूंथने से पहले उसे छाननी से जब छाना जाता तो जितना भी चोकर(भूसी) निकलती उसे गाय आदि के लिये अलग रख दिया जाता। और फिर समय आ गया कि लोग गेहूं को पिसवाने से पहले उस का रूला करवाने लगे ---मुझे इस के बारे में कोई विशेष जानकारी तो नहीं है, लेकिन ज़रूर पता है कि रूला करने के प्रक्रिया के दौरान भी उस गेहूं के दाने की बाहर की चमड़ी (Outer thin covering) उतार दी जाती है। ज़ाहिर है इस से पौष्टिक तत्वों का ह्रास ही होता है।

और मैंने कईं बार आटे की चक्कीयों में देखा है कि लोग उन से बिल्कुल सफ़ेद,बारीक आटे की डिमांड करते हैं ---इसलिये इन चक्की वालों ने इस तरह का सफेद आटा तैयार करते वक्त निकली भूसी को अलग से जमा किया होता है ---जो पहले तो केवल पशुओं को खिलाने के लिये ही लोग खरीद कर ले जाया करते थे लेकिन अब मैंने सुना है कि मीडिया में सुन कर लोग भी इसे खरीदने लगे हैं ताकि इसे बाद में बाज़ारी आटे में मिला सकें।

जी हां, भूसी(चोकर) गेहूं की जान है ---मैं तो बहुत पहले से जान चुका हूं लेकिन अधिकांश लोग तभी मानते हैं जब इस बात को गोरे लोग अपने मुखारबिंद से कहते हैं ---तो फिर सुन लीजिये, अमेरिका की हार्डवर्ड इंस्टीच्यूट ऑफ पब्लिक हैल्थ ने यह प्रमाणित कर दिया है कि भूसी के बहुत फायदे हैं ----आप को तो पता ही है कि जो बात यह लोग रिसर्च करने के बाद कहते हैं वे एक तरह से पत्थर पर लकीर होती है....क्योंकि इन के रिसर्च करने के तौर-तरीके एकदम जबरदस्त हैं --न कोई कंपनी इन को इंफ्ल्यूऐंस कर सके और न किसी भी तरह की सिफारिश ही इन के पास फटक पाए।

हां, तो इन वैज्ञानिकों ने लगभग 8000 महिलायों पर यह रिसर्च की है --और आप इस बात की कल्पना भी नहीं कर सकते कि इन्होंने इस रिसर्च को 26 वर्षों तक जारी रखा और उस के बाद यह निष्कर्ष निकाला है कि भूसी का लाभ डायबीटिज़( मधुमेह) के रोगियों को तो बहुत ही ज़्यादा होता है, और आप स्वयं मैडी-न्यूज़ पर प्रकाशित इस रिपोर्ट को विस्तार से पढ़ लें ---Bran Intake helps those with Diabetes.

वैसे तो इस रिपोर्ट में इतने बढ़िया ढंग से सब कुछ ब्यां किया गया है लेकिन अगर मैडीकल भाषा थोड़ी मुश्किल लगे तो परवाह नहीं। हम ने आम गिन कर क्या करने हैं, आम छक के बात को दफ़ा करने की बात करते हैं। कितने अच्छे से लिखा है कि जिन डायबीटीज़ से ग्रस्त लोगों ने भूसी का इस्तेमाल किया और ऱेशेदार खाने वाली चीज़ों( जैसे कि साबुत अनाज आदि) उन में हृदय-रोग की वजह से मृत्यु होने के चांस 35फीसदी कम हो गये---------क्या यह कम उपलब्धि है ?

बातें सुनने सुनाने में तो और भी बहुत बढ़िया बढ़िया हैं ----क्या हमें भूसी के फायदों का पहले से पता नहीं है, लेकिन हमारी वेदों-शास्त्रों पर दर्ज़ इन बातों पर जब विदेशी समझदार लोगों की मोहर लग जाती है, हम लोग तभी सुनने के लिये तैयार होते हैं वरना हमें लगता है---ठीक है, देख लेंगे, कभी ट्राई कर लेंगे।

अब, भूसी को कैसे अपने खाने पीने में लाएं --सब से पहले मोटा आटा इस्तेमाल करें जिस में से न तो चोकर ही निकला हो और न ही उस का रूला किया गया हो। यह बेइंतहा ज़रूरी है ---- हर अच्छे चिकित्सक द्वारा इस का ढिंढोरा पीटा जा रहा है लेकिन मरीज़ इस तरफ़ शायद कोई विशेष ध्यान नहीं देते।

और मैं कईं मरीजों से सुनता हूं कि वे भूसी बाज़ार से खरीद लाते हैं -----मेरा व्यक्तिगत विचार है कि जहां हर तरह मिलावट का बा़ज़ार गर्म है, वहां बाज़ार में बिकने वाली इस भूसी में भी मिलावट का कीड़ा लगते कहां देर लगेगी ?

इसलिये बेहतर होगा कि हम लोग मोटे आटे से शूरूआत करें ---और मैंने कुछ लोगों से बात की है कि इस आटे को छानना तो पड़ता ही है, वह ठीक है, छानिये, लेकिन कचरा अलग कर के भूसी को वापिस आटे में मिला ही देना चाहिये।

यह स्टडी तो है मधुमेह के रोगियों को लेकर -----लेकिन इस तरह का मोटा आटे खाने से स्वस्थ लोगों को भी अपनी सेहत बरकरार रखने में मदद मिलती है। इस तरह का आटा रक्त-की नाड़ियों के अंदरूनी परत के लिये तो लाभदायक है, यह हमें पेट की नाना प्रकार की बीमारियों से बचा लेता है।

बाजार मे मिलने वाले आटे के बारे में आप का क्या ख्याल है ? -- क्या करें, बड़े शहरों में रहने वालों की अपनी मजबूरियां होंगी, लेकिन फिर भी इतना तो ध्यान रखें ही आटा मोटा है, और उस में चोकर है, इस के बारे में अवश्य ध्यान देना होगा------सफेद, मैदे, रबड़ जैसी रोटियों के पीछे भागने से परेशानी ही हाथ लगेगी।

आटे का दिल देखिये, उस का चेहरा नहीं। और साबुत अनाज लेने के भी बहुत लाभ बताये गये हैं क्योंकि इन में रेशे (fibre) की मात्रा बहुत अधिक होती है। बहुत बार सुनता हूं कि यह डबलरोटी रिफाइन्ड फ्लोर से नहीं होल-व्हीट से तैयार की गई है ----अब कौन जाने इस में कितना सच है, मुझे बहुत बार लगता है कि क्या शुद्ध गेहूं का इस्तेमाल करने से ही डबलरोटी इतनी ब्राउन हो जाती है ----हो न हो, कोई कलर वलर का लफड़ा तो होगा ही। लेकिन अब किस किस बात की पोल खोलें -----यहां तो जिस भी तरफ़ नज़र घुमाओ लफड़े ही लफड़े हैं, ऐसे में क्या करें..........फिलहाल, मोटे आटे (जिस में भूसी मौजूद हो) की बनी बढ़िया बढ़िया रोटियां सिकवायें।

और हां, उुस घर की चक्की को याद करती हुई एक संत की बात का ध्यान आ गया --
दादू दुनिया बावरी पत्थर पूजन जाए,
घर की चक्की कोई न पूजे जिस का पीसा खाए।