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गुरुवार, 20 मई 2010

विवाह-शादियों में शिरकत तो करें लेकिन आखिर खाएं क्या?

कल ऐसे ही हम कुछ दोस्त लोग बैठे हुये थे तो चर्चा चली कि आखिर क्यों किसी विवाह-शादी या पार्टी-वार्टी में खाकर तबीयत क्यों बिगड़ सी जाती है, हम लोग ऐसे ही मज़ाक कर रहे थे कि पहले तो हम डाक्टर लोग ही कह दिया करते थे कि इन पार्टियों आदि में तो बस थोड़ा दही-चावल लेकर छुट्टी करनी चाहिए। लेकिन अब तो वह दही भी उस लिस्ट में गायब होने लगा है।

चलिये थोड़ा विस्तार से देखें तो सही कि आखिर हम किस स्टॉल पर जाएं और किस पर ना जाएं---

आप में से कुछ लोगों को लग सकता है कि इतने भ्रम किये जाएंगे तो फिर कैसे चलेगा, लेकिन अगर हम यह सोचते हैं तो फिर पेट की तकलीफ़ों के लिये भी तैयार ही रहना चाहिये। अच्छा तो हम यहां चर्चा उन वस्तुओं की ही करेंगे जिन से बच के रहना चाहिये।

जहां तक हो सके इन समारोहों में पानी पीने से बचना चाहिये -----यह कैसे संभव है, मुझे भी नहीं मालूम---क्योंकि अकसर पानी प्रदूषित न भी हो तो भी उस की हैंडलिंग गलत ढंग से होने से बीमारीयां फैलती ही हैं। और यह जो आजकल गिलास की पैकिंग का ज़माना आ गया है अब इन में भी कितनी शुद्धता है कितनी नहीं, कौन जाने। और इस पानी को पी लेने से शायद उतनी प्यास नहीं बुझती जितना अपराधबोध हो जाता है कि यार, इस तरह के प्लास्टिक के गिलास में पानी पीना कहां से पर्यावरण की सेहत के अनुकूल है!!

चलिये, आगे चलें ---अभी बारात आने में टाइम है--- इसलिये पानी-पूरी के स्टॉल का चक्कर लगा कर आते हैं --- अब इस में इस्तेमाल किये जाने वाले पानी के बारे में आप का विचार है, तरह तरह के इसैंस, कलर, फ्लेवर आदि को नज़र-अंदाज़ कर भी दें तो जो बंदा अपने हाथ के साथ साथ आधी बाजू को भी उस खट्टे-मीठे पानी के मटके में बार बार डाल रहा है, और किसी किसी फेशुनबल, हैल्थ-कांसियस पार्टी में उस नें डाकटरों वाले दस्ताने डाल रखे होते हैं ---- आप यही पूछ रहे हैं न कि फिर पानी पूरी भी न खाएं ----- यह आप का निर्णय है। और बर्फ के गोलों, शर्बत आदि में कौन सा पानी- कौन सी बर्फ इस्तेमाल हो रही है, इसे देखने की किसे फुर्सत है।

मिल्क से बने उत्पाद --- पिछले तीन सालों में मिलावटी नकली दूध के बारे में इतना पढ़ सुन चुका हूं कि कईं बार सोचता हूं कि इस के बारे में तो मेरा ब्रेन-वॉश हो गया है। और यह खौफ़ इस कद्र भारी है कि मैं बाज़ार से कभी भी चाय-काफ़ी पीना पिछले कईं महीनों से छोड़ चुका हूं। अच्छा तो यह भी देखते हैं कि दूध से बनी क्या क्या वस्तुयें इन पार्टियों में मौजूद रहती हैं ---- मटका कुल्फी, आइसक्रीम, पनीर, दही, कईं कईं जगहों पर रबड़ी वाला दूध --- मेरे अपने व्यक्तिगत विचार इन सब के बारे में ये हैं कि ये सब ऐसे वैसे दूध से ही तैयार होते हैं ---और अगर कुछ नहीं भी है तो भी मिलावट की तो लगभग गारंटी होती ही है। ऐसे में क्यों ऐसा कुछ खाकर अगले चार दिन के लिये खटिया पकड़ ली जाए।

और यह इधर क्या नज़र आ रहा है-----इतनी लंबी लाइन यहां क्यों हैं? ---यहां पर फ्रूट-चाट का स्टॉल है और सत्तर के दशक में अमिताभ बच्चन की फिल्म के पहले दिन पहले शो जितनी भीड़ है --- लेकिन यहां भी दो तीन चीजें ध्यान देने योग्य हैं -- बर्फ जिन पर ये फल कटे हुये सजे पड़े हैं, फलों की क्वालिटी ---कुछ तो लंबे सयम से कटे होते हैं और गर्मी के मौसम में तो इस से फिर पेट की बीमारियां तो उत्पन्न होती ही हैं। इसलिये अगली बार फ्रूट-चाट के स्टाल की तऱफ़ लपकने से पहले थोड़ा ध्यान करिये।

और हां सलाद के बारे में तो बात कैसे हम लोग भूल गये ----न तो ये खीरे,टमाटर,ककड़ी, प्याज ढंग से धोते हैं और न ही काटते और हैंडलिंग के समय कोई विशेष साफ सफाई का ध्यान रखा जाता है ---तो फिर क्या शक है कि इन से सेहत कम और बीमारी ज़्यादा मिलने की संभावना रहती है। पता नहीं अकसर लोग घर में तो साफ-सुथरे तरीके से तैयार किये गये सलाद से तो दूर भागते हैं लेकिन इन सार्वजनिक जगहों पर तो सलाद ज़रूर चाहिये।

हां, और क्या रह गया ? ---हां, उधर तरफ़ से जलेबियों और अमरतियों की बहुत जबरदस्त खुशबू आ रही है। तो, चलिये एक एक हो जाये लेकिन रबड़ी के साथ तो बिलुकल नहीं, क्योंकि पता नहीं क्यों हम भूल जाते हैं कि इतनी रबड़ी के लिये कहां से आ गया इतना दूध -----लेकिन जलेबी-अमरती भी तभी अगर उस में नकली रंग नहीं डाले गये हैं। और कृपया यह तो देखना ही होगा कि कहीं ये बीमारी परोसने वाले दोने तो नहीं है।

आप को यह पोस्ट पढ़ कर यही लग रहा है ना कि डाक्टर तूने भी झाड़ दी ना हर बात पर डाक्टरी --- मैं मान रहा हूं कि आप मुझ से पूछना चाहते हैं कि फिऱ खाएं क्या--- चुपचाप थोड़े चावल और दाल लेकर लगे रहें।

मुझे भी यह सब लिखते बहुत दुःख हो रहा था क्योंकि कोई अगर मेरे को पहली बार पढ़ने वाला होगा तो उसे मैं बहुत घमंडी लगूंगा लेकिन तस्वीर का दूसरा रूख दिखाना भी मेरा कर्तव्य है। मुझे इस बात का भी अच्छी तरह से आभास है कि इन पार्टियों में जो सामान इस्तेमाल हो रहा है उन में घरवालों का रती भर भी दोष नहीं है ---- वे भी क्या करें, पैसा ही खर्च सकते हैं ---मिलावट हर चीज़ में इतनी व्याप्त हो गई है कि वे भी क्या करें ?

और अब बात अपने आप से पूछता हूं कि अगर मेरे घर में कोई इतना बड़ा समारोह होगा तो क्या मेरे पास इन सब मिलावटी चीज़ों को खरीदने-परोसने के अलावा कोई विकल्प है------ नहीं है, तो फिर इन सब से बचते हुये अपनी सेहत की रक्षा करने का एक ही मूलमंत्र बच जाता है ---------अवेयरनैस -----इन सब बातों के बारे में जगह जगह पर बात करें ताकि जनमानस को जागरूक किया जा सके।

क्या हुआ अभी आप के दाल-चावल ही खत्म नहीं हुये? ---- वैसे कैसी रही पार्टी --- ओ हो, जाते जाते उस मीठे पान को चबाने से पहले यह ध्यान रखिये कि उस पर उस मिलावटी चांदी का वर्क तो नहीं चढ़ा हुआ। और एक बात, दांतों में टुथ-पिक का इस्तेमाल सख्त वर्जित है।

मैं भी क्या---- आप की पार्टी का मज़ा किरकिरा कर दिया -----तो फिर इस समय यह गाना सुनिये जो मुझे भी बहुत पसंदे हैं ----- विशेषकर इसके बोल ------ धागे तोड़ लायो चांदनी से नूर के ...............................वाह, भई, वाह, यह किस ने लिखा है, क्या आप बता सकते हैं ?

रविवार, 23 अगस्त 2009

ब्रेड --- पाव रोटी या पांव रोटी ?

कल रात टीवी पर मैं एक रिपोर्ट देख रहा था जिस में वह बाज़ार में मिलने वाली डबल-रोटी ( ब्रैड) की पोल खोल रहे थे --- पाव-रोटी को पांव रोटी कहा जा रहा था।

उस प्रोग्राम में बार बार यही ऐलान किया जा रहा था कि यह प्रोग्राम देखने के बाद कल से आप अपना नाश्ता बदल लेंगे। अलीगढ़ की एक ब्रेड फैक्ट्री में खुफिया कैमरे की मदद से ली गई वीडियो दिखाई जा रही थी जिस में दिखाया जा रहा था कि किस तरह किस गंदे से फर्श पर ही मैदा फैला कर उसे पैरों से गूंथा जा रहा था।

प्रोग्राम ऐंचर करने वाली पत्रकार बिल्कुल सही कह रही थी कि यह गोरख-धंधा केवल छोटे शहरों एवं कस्बों तक ही महदूद नहीं है --- मैट्रो शहरों में रहने वाले लोग यह ना समझ लें कि ऐसा तो छोटे शहरों में ही हो सकता है।

खुफिया कैमरे ले कर कुछ पत्रकार दिल्ली के नांगलोई, बादली एवं सुल्तानपुरी एरिया में भी जा पहुंचे। डबल-रोटी बनाने वाली जगहों पर गंदगी का वह आलम था कि क्या कहें ---हर तरफ़ मक्खियां, कीड़े मकौड़े भिनभिना रहे थे जिधर मैदा गूंथा जा रहा था पास ही में वहां पर काम करने वालों की खाने की प्लेटें बिखरी पड़ी थीं।

इस स्टोरी को कवर करने वाला संवाददाता दिखा रहा कि कितना खराब मैदा इस्तेमाल किया जा रहा है ---यह इतना कठोर हो चुका था कि उस के ढले बने हुये थे।

फिर इन पत्रकारों ने इन स्थानों से ली गई ब्रेड को दिल्ली की एक जानी-मानी लैब से टैस्ट करवाया। सिर्फ़ एक ब्रैंडेड ब्रेड को छोड़ कर बाकी सभी ब्रेड के सैंपल पीएच ( pH) में फेल पाये गये। और एक में तो फंगस ( फफूंदी) लगी पाई गई। मेरी तरह आप ने भी अनुभव किया होगा कि कईं बार घर में फ्रिज में रखी हुई तथाकथित फ्रेश-ब्रेड में भी फफूंदी लगी पाई जाती है।

और इस रिपोर्ट में यह भी बताया गया कि ब्रेडों के इन विभिन्न सैंपलों में किस किस तरह के कैमीकल पाये गये । जो ब्रेड ग्राहक के हाथ में जाये वह बिल्कुल सफेद हो इसलिये गेहूं को ब्लीच गिया था। ब्रेड में प्लास्टर ऑफ पैरिस ( plaster of paris ---POP) भी पाया गया। बाज़ार में खमीर की कमी होने की वजह से yeast ( खमीर) की जगह फिटकड़ी का इस्तेमाल किया गया था। इन के साथ साथ ब्रेड में घटिया किस्म के वनस्पति तेल, तरह तरह के प्रिज़र्वेटिव एव पोटाशियम ब्रोमेट भी पाया गया ---इस का खुलासा रिपोर्ट में किया गया।

रिपोर्ट में बताया गया था कि लोग समझते हैं कि वे ब्रैंडेड ब्रेड खा रहे हैं ---रिपोर्ट में यह भी दिखाया गया कि किस तरह से कूड़ा-कर्कट बीनने वालों से बड़ी कंपनियों की ब्रैडों के खाली रैपर ले कर उन में चालू किस्म की ब्रैड भर दी जाती है----रिपोर्ट में कहा गया कि बाज़ार में बिकनी वाली 60 से 70 फीसदी डबल-रोटी कुछ इन्हीं तरह की परिस्थितियों में तैयार की जाती है जहां पर साफ़-सफ़ाई का बिल्कुल भी ध्यान नहीं रखा जाता।

लेकिन मुझे इस रिपोर्ट में जो कुछ कमियां दिखीं वह यह थीं कि इसे बहुल लंबा खींचा गया ---- लगभग एक-डेढ़ घंटे तक यह प्रोग्राम खिंच गया, और बीच में बार बार कमर्शियल ब्रेक। मुझे सब से ज़्यादा इन डबल-रोटियों की लैब रिपोर्ट देखने की ललक थी। लेकिन उन रिपोर्टों को टीवी की स्क्रीन पर दिखाया नहीं गया ---- मुझे यह बहुत अटपटा लगा। एक प्राइवेट लैब के डायरैक्टर ने बस अपने हाथ में थामी रिपोर्ट में बता दिया कि अधिकतर सैंपल पीएच( pH) के मापदंड पर खरे नहीं उतरते पाये गये।

और जिन कैमीकल्स की बात मैंने ऊपर की उन के बारे में भी किसी लैब-रिपोर्ट को टीवी स्क्रीन पर नहीं दिखाया गया । मैं जिस बात की एक घंटे से प्रतीक्षा कर रहा था वह मुझे दिखी नहीं ---इसलिये मुझे निराशा ही हुई।

यह भी बताया गया कि किस तरह से कुछ डबल-रोटी निर्माता इस की पैकिंग पर इस के तैयार होने की तिथि के आगे बाद की तारीख लिखवा देते हैं। ऐसा इसलिये किया जाता है कि तैयार होने के तीन-चार दिन बाद ब्रैड किसी के भी खाने लायक नहीं रहती।

आप को भी लग रहा होगा कि क्यों आप के पड़ोस वाला दुकानदार किसी अच्छी कंपनी की ब्रैड मांगने पर क्यों किसी स्थानीय, चालू किस्म के ब्रांड को आपको थमा देने में इतनी रूचि लेता है। सब मुनाफ़ाखोरी का चक्कर है। और जहां पर मुझे ध्यान है कि अधिकतर चालू किस्म की ब्रेड पर तो इस के तैयार होने की तारीख प्रिंट ही नहीं हुई होती ----इसलिये इन दुकानदारों की चांदी ही चांदी।

वैसे तो हम लोग भी नियमित ब्रैड लेने के बिल्कुल भी शौकीन नहीं है ---जहां तक मेरी बात है मुझे तो मैदे ( refined flour) से बनी कोई भी वस्तु परेशान ही करती है ---- तुरंत गैस बन जाती है, सारा सारा दिन सिर दर्द से परेशान हो जाता हूं ---इसलिये मैं तो ब्रैड से बहुत दूर ही रहता हूं । लेकिन अब जब भी इसे खरीदूंगा तो केवल बढ़िया कंपनी( बढ़िया ब्रैंड) र की खरीदूंगा जिस पर उस के तैयार होने की तारीख अच्छी तरह से प्रिंट हो -----बस, ज़्यादा से ज़्यादा यही कर सकते हैं, और क्या !!

मुझे याद है कि बचपन में हमारे मोहल्ले में एक ब्रेड-वाला सरदार आया करता था जो एक ट्रंक में ब्रैड लाया करता था जो कि वह खुद तैयार किया करता था । बिल्कुल थोड़ी सी ब्रैडें उस के पास हुआ करती थीं -----लेकिन आज कल बस हर तरफ़ लालच का इतना बोलबाला है कि आम आदमी करे तो आखिर करे क्या ?

मैंने कुछ साल पहले ऐसे ही किसी से सुन तो रखा था कि कुछ ब्रेड की कंपनियों में मैदे को पैरों से गूंथा जाता है। जब मैं यह प्रोग्राम देख रहा था तो मुझे अमृतसर के कुलचे याद आये --- यह केवल अमृतसर में ही बनते हैं और वहीं पर ही मिलते हैं, यह अमृतसर की एक स्पैशलिटी है। और मैं बचपन से ही इन्हें खाने का बहुत शौकीन रहा हूं। लेकिन हुआ यह कि कुछ साल पहले मैं अमृतसर गया हुया था ---अपने पुराने स्कूल के पास ही हमारा एक बचपन का दोस्त सतनाम रहा करता था --- तो मैं उस का पता ढूंढता ढूंढता एक मकान में घुसा ही था कि क्या देखता हूं कि एक घर के आंगन में एक दरी पर हज़ारों कुलचे बिखरे पड़े हैं जिन पर कम से कम हज़ारों ही मक्खियां भिनभिना रही थीं ----शायद उस जगह पर कुचले तैयार हो रहे थे -----उस दिन के बाद मैंने कभी कुलचे न ही खाये और न ही ता-उम्र कभी खाऊंगा। मुझे वह मंज़र याद आता है तो बड़ी तकलीफ़ होती है।

शुक्रवार, 21 अगस्त 2009

बहुत लंबे अरसे से मैं इस प्रश्न से परेशान हूं ----मदद कीजिये।


आज की अखबार की एक खबर थी ---लिवर ट्रांसप्लांट के एक विशेष आप्रेशन करने के लिये दिल्ली के सर गंगा राम हास्पीटल के 35 विशेषज्ञ 16 घंटे के लिये आप्रेशन करने में लगे रहे।

इसी तरह से गुर्दे के मरीज़ों में भी ट्रांसप्लांट करने के लिये किसी मरीज को , उस के रिश्तेदारों को कितनी मेहनत करनी पड़ती है, तरह तरह के टैस्ट करवाने के लिये किस तरह से पैसों का जुगाड़ करना होता है, सारी चिकित्सा व्यवस्था कितने सुचारू रूप से अपना काम करती है -- तो, लो जी हो गया सफल आप्रेशन।

मैं भी एक ऐसे ही 25-30 साल के युवक को जानता था –दो तीन साल पहले उस के गुर्दे का आप्रेशन हुआ, उस की सास ने उस को अपना गुर्दा दान में दिया था। खर्चा काफ़ी आया था लेकिन वह सारा खर्च रेलवे के चिकित्सा विभाग ने उठाया। बढ़िया से बढ़िया दवाईयां बाद में भी दी गईं ---जो आम तौर पर ऐसे मरीज़ों को दी जाती हैं ताकि जो गुर्दा मरीज़ के शरीर में ट्रांसप्लांट किया गया है वह मरीज़ के शरीर द्वारा रिजैक्ट न किया जा सके।

लेकिन कुछ महीने पहले वह बेचारा चल बसा ---दो अढ़ाई साल बस वह बीमार ही रहा। तीन-चार साल की उस की प्यारी से बच्ची है जो शायद आज पहले दिन स्कूल जा रही थी --- किलकारियां मार रही थी , अपने कलरफुल फ्राक पर लगा आईडैंटिटी कार्ड सब को बड़े शौक से दिखा रही थी ---- मुझे भी उस ने दिखाया। उस बच्ची को देख कर मन बहुत दुःखी होता है।

यह बच्ची उस घर में रहती है जहां से मैं सुबह दूध लेने जाता हूं ----ये लोग किरायेदार हैं। जितने लोग भी सुबह दूध लेने की प्रतीक्षा कर रहे होते हैं वे अकसर इस बच्ची की सुबह सुबह इस तरह की ज़ोर ज़ोर चीखें सुनते हैं ------- मुझे पापा पास जाना है !! पापा, आ जाओ ना !!

यह उस मरीज़ की बात है जो कि सरकारी सर्विस में था ---रेलवे ने लाखों रूपया इलाज पर लगा दिया लेकिन क्या कोई आम आदमी अपने बल-बूते पर यह सब करवाने की सोच सकता है।

यह लंबी चौड़ी बात कहने का मकसद ? --- मकसद केवल इसी बात को रेखांकित करना है कि यह जो आधुनिक इलाज हैं यकीनन बहुत ही बढ़िया हैं --- इतनी तरक्की हो गई है कि कुछ भी संभव है। लेकिन ये आम आदमी की पहुंच से तो बहतु दूर हैं ही, और कईं बार इस तरह के इलाज का परिणाम क्या निकला वह तो कुछ महीनों बाद ही पता चलता है।

तो फिर चलिये इन से बचाव की बात कर ही लें ---- ठीक है, कुछ केसों में शरीर की भयानक व्याधियों के बारे में cause and effect relationship को परोक्ष रूप से सिद्ध नहीं किया जा सकता। लेकिन फिर भी कोई भी आम आदमी इन से बचने के लिये क्या करता है ? वह अपनी जीवन-चर्या ठीक कर लेगा, दारू से , तंबाकू से बच कर रहेगा, दिन में थोड़ा बहुत टहल लेगा और मेहनत कर लेगा, बाज़ार में मिलने वाली तरह तरह की चीज़ों से बच कर रह लेगा........यह सब तो बहुत हो गया लेकिन समझ लो कि बंदे ने जैसे तैसे यह सब कर ही लिया लेकिन सोचने की बात यह है कि क्या ऐसा करने से वह सेहतमंद रह पायेगा। आप का क्या ख्याल है ?

मेरा ख्याल है कि कोई गारंटी नहीं ---- कारण ? कारण तो बहुत से हो सकते हैं जिन में हम नाम गिना लें कि उस को फलां फलां तकलीफ़ें तो उस की हैरेडिटी से ही मिली हैं, आजकल कीटनाशक बहुत हैं सब्जियों में, यह सब खादों की कृपा हो रही है ---कह देते हैं ना हम ये सब बातें ----और ये सब बातें करते करते हम थकते नहीं हैं, रोज़ाना ये बातें घरों में होती हैं, साथ साथ चाय की चुस्कियां भरी जाती हैं।

लेकिन यह शायद कोई नहीं सोचता कि इस कमबख्त चाय में जो दूध है वह कैसा है। नहीं, नहीं, मैं उस की उत्तमता की बात नहीं कर रहा हू ----आप के दूध में साफ सुथरा पानी मिल के आ रहा है, आप का दूध वाला भैंस के दूध में गाय का दूध डाल कर दे जाता है, इसे आप मिलावट न समझें, और जो बात कईं बार मीडिया में कही जाने लगी है कि पशुओं के चारे में ही इस तरह के कैमीकल हैं कि दूध में तो फिर वे आ ही जायेंगे। यह भी मान कर ही चलें कि पशुओं को दुहने से पहले टीका भी लगना ही लगना है ---- देश का कोई कानून इसी रोक नहीं पायेगा ---- यह सब बातें तो अब लोगों ने स्वीकार ही कर ली हैं ---चाहे इस टीके और कैमीकल्स की वजह से अब कुछ लड़के लड़कियों जैसे दिखने लगे हैं और लड़कियां लड़कों जैसी --- लेकिन जो है सो है। जो भी हो, ये मुद्दे तो अब रहे ही नहीं ।

अब तो भाई इस देश का मेरे विचार में सब से बड़ा मुद्दा है मिलावाटी दूध । मेरा अपना विचार ---अपने ब्लाग में लिख रहा हूं ---कि until unless proven otherwise, for me every milk is adultered. मुझे इस तरह की स्टेटेमैंट के लिये माफ़ कीजिये लेकिन हमारे कुछ अपने व्यक्तिगत विचार तैयार हो जाते हैं, दूध के बारे में मेरे ऐसे ही विचार बन गये हैं।

कल मैं रोहतक में था --- थैली वाले दूध से बनी चाय पी ---यकीन जानिये ऐसे लगा कि दवाई पी रहा हूं --- एक घूंट के बाद उसे फैंक ही दिया। वैसे चलिये मैं आप से शेयर करता हूं कि पिछले कुछ सालों से जब से यह दूध में तरह तरह के हानिकारक पदार्थ मिलाने का धंधा सामने आया है --- मैं कभी भी चाय बाहर नहीं पीना चाहता --- बाहर का पनीर बिल्कुल नहीं, बाहर का दही बिल्कुल नहीं --- और यहां तक कि मुझे बर्फी आदि भी बहुत पसंद रही है लेकिन अब मैं उस से भी कोसों दूर रहता हूं और कभी यहां-वहां एक दो टुकड़ी खा भी लेता हूं तो अच्छी तरह से यही सोच कर खाता हूं कि मैं जैसे धीमा ज़हर ही खा रहा हूं। वैसे इतना मन मारते हुये जीना भी कितना मुश्किल है ना !! लेकिन जो है सो है, अब हमारे सब के सामूहिक लालच ने हमें आज की इस स्थिति में ला खड़ा कर दिया है तो क्या करें ? --- बस, चुपचाप भुगतें और क्या !!

डाक्टर हूं, लेकिन किसी को भी पिछले कईं सालों से यह सलाह नहीं दी कि आप दूध पिया करें। और अगर देता भी हूं तो साथ में इसी तरह के लैक्चर का गिलास भी ज़रूर पिला कर भेजता हूं। अधिकतर इस तरह की सलाह मैं इसलिये नहीं देता हूं कि अगर मैं ही किसी वस्तु की गुणवत्ता के बारे में आश्वस्त नहीं हूं तो दूसरों को क्यों चक्कर मे डालूं ?

मिलावटी दूध की खबरें ऐसी ऐसी पिछले कुछ सालों से टीवी पर देख ली हैं कि अब तो ऐसी खबरें देखते ही उल्टी सी आने को होती है। और यह जो हम नाम लेते हैं ना मिलावटी दूध या कैमीकल दूध -----मुझे इस पर बहुत आपत्ति है, यह काहे की मिलावट जो लोगों को धीमे धीमे मार रही है , रोज़ उन का थोड़ा थोड़ा कत्ल कर रही है ---जो लोग इस ज़हरीले दूध का धंधा कर रहे हैं क्या वे सब के सब आतंकवादी नहीं है, इस तरह के आतंकवादियों का क्या होगा ?


आप सब जानते हैं कि इस तरह के कैमीकल्स से लैस दूध में वे सब चीज़े डाली जा रही हैं जो कि आप की और मेरे सेहत से रोज़ खिलवाड़ कर रही है लेकिन यह एके47 से निकली गोली जैसी नहीं जिस का प्रभाव तुरंत नज़र आ जाये ---- तरह तरह की भयंकर पुरानी ( Chronic illnesses) बीमारियां, छोटी छोटी उम्र में गुर्दे फेल हो रहे हैं, लिवर खराब हो रहे हैं, तरह तरह के कैंसर धर दबोचते हैं, लेकिन इस तरह का आतंक फैलाने वालों की कौन खबर ले रहा है ? ----- शायद मेरा वह जर्नलिस्ट बंधु जो ऐसी किसी खबर को सुबह से शाम तक बार बार टीवी पर चीख चीख कर लोगों को आगाह करता रहता है लेकिन कोई सुने भी तो !!

हर कोई यह समझता है कि यह तो खबर है , दूध के बारे में जितने पंगे हो रहे हैं वे तो लोगों के साथ हो रहे हैं, हमें क्या ? अपना तो सब कुछ ठीक चल रहा है । बस, यही हम लोग भूल कर बैठते हैं।

पिछले कुछ हफ्तों से मैंने इस टॉपिक पर काफी रिसर्च की है ---- लेकिन मुझे मेरे इस सवाल का जवाब अभी तक नहीं मिला कि किसी भी आम आदमी के घर में जो दूध आ रहा है क्या वह विश्वास से यह कह सकता है कि उस में कोई इस तरह की ज़हर ---यूरिया, शैंपू या कोई और कैमीकल नहीं मिला हुआ। आज कल मेरी खोज कुछ ऐसा ढूंढने में लगी है कि कोई ऐसा मामूली सा टैस्ट हो जिसे कोई भी आम आदमी एक-दो मिनट में अपने घर में ही कर के यह फैसला कर ले कि आज सुबह जो दूधवाला दूध दे कर गया है उस में यूरिया, शैंपू , बाहर से मिलाई गई तरह तरह की अजीबोगरीब चिकनाई तो नहीं है जो कि उसे पीने वालों के लिये बहुत सी बीमारियां ले कर आ जायेगी। अगर, किसी ऐसे टैस्ट का जुगाड़ हो जाये तो ग्राहक भी तुरंत फैसला कर ले दूध उस के बच्चे के पीने लायक है या फिर बाहर नाली में फैंकने लायक।

पिछले हफ्तों में मैंने बहुत ही डेयरी संस्थानों की वेबसाइटें छान डालीं ----लेकिन मेरा बस एक प्रश्न वैसा का वैसा ही बना हुआ है ---कि कोई तो ऐसा घरेलू टैस्ट हो जिसे कोई भी दो-चार रूपये में एक दो मिनट में कर ले और यह पता लगा ले कि क्या दूध में कोई ज़हरीले कैमीकल्स तो नहीं मिले हुये ------पानी वानी की चिंता तो छोड़िये, उस की तो सारे देश को ही आदत सी पड़ चुकी है।

अभी मेरी खोज जारी है---- कुछ न कुछ तो ढूंढ ही लूंगा, क्योंकि मैं इस विषय के बारे में बहुत ही ज़्यादा सोचता हूं। पिछले दिनों तो हद ही हो गई ----आपने भी खबर तो देखी होगी कि सातारा में कोई मैट्रिक फेल आदमी एक ऐसा कैमीकल तैयार करने लग गया जो कि वह 70 रूपये किलो बेचता था ---- और इस एक किलो कैमीकल से 30 किलो दूध तैयार किया जा सकता है ----खबर थी इस तरह के कैमीकल से तैयार लाखों टन लिटर दूध बाज़ार में सप्लाई हो चुका था। लेकिन इस पावडर की यह विशेषता बताई जा रही थी कि यह दूध की गुणवता जांचने वाले सभी तरह के टैस्ट पास कर रहा था यानि कि कोई टैस्ट यह ही नहीं बता पाता था कि इस तरह से तैयार दूध में किसी तरह की कोई मिलावट भी है !! कितनी खतरनाक स्थिति है !!

लेकिन क्या है , हम सब इस तरह की इतनी खबरें देख-सुन चुके हैं कि अब यह सब कुछ भी नहीं लगता ----- हम ज़िदा ही हैं ना, let’s pinch ourselves and assure ourselves that we are very much alive !!

Prevention of Food Adulteration नामक कानून से संबंधित आंकड़े कहां से मिलेंगे ? ---यह जानकारी तो अपने मित्र दिनेशराय जी द्विवेदी जी ही दे पायेंगे --- पता नहीं मुझे इन दिनों इस के आंकड़े जानने का इतना ज़्यादा भूत क्यों सवार है कि कितने लोगों को इस कानून के अंतर्गत कितने कितने लंबे समय की सज़ा हुई ? ---- इस के बारे में कोई वेब-लिंक हो तो मुझे बताईयेगा।

पोस्ट को बंद करते वक्त बस यही अनुरोध है कि दूध एवं दूध के उत्पादनों से बहुत ज़्यादा सचेत रहा कीजिये ----- आप को भी अब तो लग ही रहा होगा कि काश कोई तो ऐसा टैस्ट हो जो हमें बता सके कि घर में जो दूध आया है वह यूरिया एवं अन्य कैमीकल रहित है। इस के लिये किसी लंबे-चौड़े टैस्ट की कोई गुंजाईश नहीं है ---टैस्ट बिल्कुल सुगम और सादा हो, सस्ता हो, स्वदेशी हो और इस देश की आम जनता की पहुंच में हो।

P.S……1. हम लोग मुंबई में लगभद दस साल सर्विस में रहे ---अब लगता है कि जो दूध वहां पर भी इस्तेमाल किया वह सब मिलावटी ही था ---- उस दूधवाले से चौबीस घंटे जितना चाहे दूध आप लेकर आ सकते थे -----हम तब सोचा करते थे कि यह दूध दही की नदियां पंजाब की बजाए अब बंबई में बहने लगी हैं क्या !!

2. उस के बाद जब हमारी नौकरी फिरोज़पुर पंजाब में लगी तो वहां पर एक मशहूर डेयरी वाला इस लिये बहुत मशहूर था कि वह तो गांव से दूध लाने वालों को उस दूध में फैट की मात्रा देख कर भुगतान करता है ---वह सब दूध वालों के दूध का सैंपल भर कर रोज़ाना उन में एक इंस्ट्रयूमैंट लगा छोड़ता है ----इस से उसे फैट के प्रतिशत का पता चल जाता था ----लेकिन अब सोचता हूं कि क्या कुछ कैमीकल वगैरह से इस फैट को बढ़ाना कोई मुश्किल काम है ?

शिक्षा ---- तो, साथियो, आज के पाठ से हम ने क्या सीखा ------गोलमाल है भई सब गोलमाल है।

रोटी, कपड़ा और मकान का यह गीत भी तो कुछ यही कह रहा है -----पावडर वाले दुध दी मलाई मार गई, बाकी कुछ बचा तो महंगाई मार गई !!

सोमवार, 17 नवंबर 2008

आंखो-देखी ---- मिलावटी खान-पान के कुछ रूप ये भी !!

मेरे ही तरह आप ने भी शायद सपने में भी यह नहीं सोचा होगा कि बाज़ार में बिकने वाले अनानास( पाइन-एप्पल) में भी मिलावट हो सकती है। मैंने कल दिल्ली में देखा कि तीन-चार रेहड़ीयों पर बहुत से लोग जमा हैं ----वहां पर लोग अनानास के पीस कटवा कर उन का लुत्फ़ उठा रहे थे।

अनानास के उन टुकड़ों का कुछ अजीब सा रंग---बिलकुल गहरा पीला सा- देख कर मेरे से रहा नहीं गया। मैंने रेहड़ीवाले से पूछ ही लिया कि अनानास का रंग कुछ अजीब सा लग रहा है। तब उस ने कहा कि इन फलों से मक्खी को दूर रखने के लिये इन पर रंग लगा हुआ है। एक बार तो यही सोचा कि जिस खाने पर मक्खीयां भी बैठना अपनी तौहीन समझती हों, उन्हें पब्लिक को परोसा जा रहा है।

मेरी खोजी पत्रकार वाली उत्सुकता यूं ही भला कैसे शांत हो जाती !—उस ने आगे बताया कि यह खाने वाला मीठा रंग है ---क्या आप लड्डू में, अमरती में, जलेबी में नहीं देखते कि यही रंग पड़ा होता है ?—कहने लगा कि एक शीशी को पानी की एक बाल्टी में घोल कर अनानास के स्लाईसिज़ को इस बाल्टी में बस डाल कर निकाल लिया जाता है ----बस, उन पर रंग चढ़ जाता है और मक्खीयां फिर इस के पास नहीं फटकती । पता नहीं मैं यह कैसे उस से पूछना ठीक नहीं समझा कि जलेबियों और अमरती से तो मक्खीयां भिनभिनाने से हटती नहीं, तो फिर यह माजरा क्या है !!

अपनी एक पोस्ट में मैंने लिखा था कि एक डाक्टर मित्र के छोटे बेटे के जब गुर्दे फेल हो गये तो सारी जांच की गई ---कुछ पता ही नहीं चल रहा था ---आखिरकार आल इंडिया इस्टीच्यूट ऑफ मैडीकल साईंसज़ के डाक्टरों को पता चला कि बच्चा तरबूज़ बहुत खाया करता था और उस में एक लाल-रंग ( red dye) का टीका लगा होने की वजह से उसे इन सारी तकलीफ़ों से दोचार होना पड़ा था। यह भी दिल्ली की ही बात है ।

मेरे दिल्ली लिखने का यह मतलब तो नहीं कि बाकी जगहें किसी तरह से इन से बची हुई हैं। कुछ दिन पहले हम लोग पानी-पूड़ी ( गोलगप्पे) खा रहे थे ---बहुत मशहूर दुकान है----अचानक एक हरे रंग का गोलगप्पा देख कर बहुत हैरानी हुई, हमने खाया तो नहीं , लेकिन दुकानदार ने बताया कि इस तरह के रंगीन गोल-गप्पे बनाने का हम एक्सपैरीमेंट कर रहे हैं।

जिस तरह का इन कृत्तिम रंगों का चलन चल निकला है ---यह बहुत ही चिंता का विषय है। कुछ हद तो इस से बचा जा सकता है अगर हम लोग इस के बारे में अपनी जानकारी बढ़ायें। बात गोल-गप्पों की हो रही तो अब उन में डलने वाला पानी भी कहां पहले जैसा रह गया है !

एक दिन अपनी श्रीमति जी से पूछ बैठा कि यह बाज़ार में बिकने वाला गोल-गप्पों का पानी कुछ अजीब सा स्वाद देने लगा है। चूंकि मैं इमली का भाव नहीं जानता था और न ही अभी भी जानता हूं तो श्रीमति ने सचेत किया कि अब ये लोग इस पानी को तैयार करने के लिये इमली-विमली कहां इस्तेमाल करते हैं ---इस के लिये ये टाटरी( ?tartaric acid----क्या टाटरी को ही टारटैरिक एसिड कहते हैं, मेरे ध्यान में नहीं है), और फ्लेवर्ज़, क्लर्ज़ और इसेंस (flavours , colours and essence) का ही इस्तेमाल करते हैं।

बंबई के उपनगरीय स्टेशनों के बाहर बड़े बडे टबों में बिकने वाली फलों के रसों का तो मैंने पहले एक बार खुलासा किया था लेकिन कल भी नोटिस किया कि जलजीरा भी कुछ इस तरह का ही बिक रहा था। लेकिन धूप से त्रस्त लोगों को खींचने के लिये इस धंधे के खिलाड़ी उस बड़े से मटके के बाहर एक गीला लाल कपड़ा लपेटने के साथ साथ पुदीने की कुछ टहनियां उस पर लगानी कभी नहीं भूलते ---ताकि हम सब को गुमराह किया जा सके। मैं समझता हूं कि जलजीरे का रैडीमेड पावडर बाज़ार में बिकता है ---अगर वे उस का ही इस्तेमाल कर रहे होते तो सुकून हो जाता, लेकिन मुझे यकीन है कि जितने गहरे रंग का ये रेहड़ीवाले यह जलजीरा बेचते हैं उस में हरा रंग तो अवश्य ही पड़ा रहता होगा ---बिल्कुल गोल-गप्पे के हरे पानी की तरह।

हां, तो बात शुरू हुई थी अजीब से पीले रंग के अनानास से---सोचने की बात यही है कि आखिर इन खोमचे वालों ने अब खाने-पीने की इतनी कोमल सी वस्तुओं को भी क्यों नहीं बख्शा----- यह बात तो उस की ठीक नहीं लगती कि केवल मक्खियों को दूर रखने के लिये ही इस रंग का इस्तेमाल किया जाता है। और उस की बात सच भी है तो यह बात गले से नीचे नहीं उतरती कि सभी खोमचे वाले इतने जागरूक हो गये कि हम सब की सेहत के लिये रोज़ाना 10-15 रुपये का रंग ही इस्तेमाल करने लग जायें। इसलिये इस बात की तो और भी बहुत संभावना है कि पीला रंग जो इस्तेमाल भी किया जाता हो वह बेहद चीप, सस्ता, चालू किस्म का , बिना किसी कंपनी की पैकिंग वाला, घटिया और सेहत के लिये और भी नुकसानदायक टाइप का होता हो।

मक्खियों की ये खोमचे-वाले इतनी परवाह करते कहां हैं----बस थोड़ी धूप-बत्ती जला कर काम चला लिया करते हैं, वरना एक बारीक सा जालीदार कपड़ा डाल देते हैं -----तो फिर क्यों रंग इस्तेमाल किया जा रहा है ----इस का कारण जो मुझे लगता है वह यही है कि एक तो ग्राहकों को अपनी माल की तरफ़ आकर्षित करने के लिये और दूसरा यह कि उस के इस गहरे पीले रंग के चड़ते उस के माल में छोटी मोटी खराबी किसी की नज़र में आये ही नहीं।

मैं आज कल इन कृत्तिम रंगों, फ्लेवर्ज़ आदि पर शोध कर रहा हूं ---- बाहर के देशों में तो इन के इस्तेमाल के बारे में लोग बहुत ही ज़्यादा सजग हैं और इन से संबंधित कानून भी बहुत कड़े हैं क्योंकि इन के अनियंत्रित इस्तेमाल से खतरनाक बीमारियां ---यहां तक कि कैंसर भी – दस्तक दे सकती हैं। इसलिये आमजन का यह सोचना कि ये तो मीठे कलर हैं ----अर्थात् खाने में इस्तेमाल किये जा रहे हैं, इसलिये बिना सोचे-समझे इन का जितना मन चाहे सेवन कर लिया जाए ----यह सोचना खतरे से खाली नहीं है।

लेकिन अफसोस इसी बात का है कि आम आदमी इस के बारे में ज़रा भी सचेत नहीं है। बंबई में रहते हुये हमारा एक संबंधी बम्बई-सैट्रल की एक दुकान से पिस्ते की बर्फी ले कर आया----अब पिस्ता इतना महंगा कि एक हज़ार के पिस्ते पिसने के बाद भी उतना बढ़िया रंग न दे पायें जितना उस पिस्ते की बर्फी का लग रहा था ---लेकिन स्वाद उस का इतना बेकार कि क्या लिखूं ----बिल्कुल बक-बका सा, पिस्ते के स्वाद जैसी कोई खास बात ही नहीं ----आज समझ आ रही है कि उस बर्फी में भी चंद पिस्तों के साथ साथ पिस्ते के रंग से मिलता जुलता हल्का हरा रंग ही पिसा होगा।

बस, भई अब किस किस चीज़ की पोल खोलें ---अपने यहां तो बस सबकुछ गोलमाल ही है---मुझे तो लगता है कि हम सब लोगों को बहुत जल्दी ही घर में बनी दो चपातियों, दाल-साग-सब्जी के इलावा इधर-उधर देखना भी खौफ़नाक लगेगा---इस में मेरा क्या दोष है ?--- जो देखा आप के सामने रख दिया ।

वैसे पता नहीं मेरा छोटा बेटे की हिंदी फिल्म गोलमाल रिटर्ऩज़ में इतनी रूचि क्यों है ---गोलमाल रिटर्नज़ ----अर्थात् गोलमाल लौट कर आ गया ----यहां तो दोस्तो दशकों से सब कुछ गोलमाल ही है , आज भी है और कल भी रहेगा, लौटता तो वही है जो कहीं चला गया हो ।

PS -- कल भी मैंने नोटिस किया कि लोग पाईन-एपल के स्लाईसिज़ पर भी खूब नमक लगवा कर खा रहे थे। केले को काट कर, शकरकंदी काट कर---इन सब खाध्य पदार्थों पर इतना इतना नमक लगवा के खाना हाई-ब्लडप्रैशर को एकदम खुला निमंत्रण है। इसलिये यह आदत जितनी जल्दी छोड़ सकें, उतनी ही बेहतर होगा।

मंगलवार, 16 सितंबर 2008

दौलत जमा करने के लिये गिरने की भी हद है !!

आज सुबह ही खबर आई है कि चीन में मिल्क-पावडर बनाने वाली एक कंपनी पकड़ में आई है जो कि इस मिल्क-पावडर में मैलामाइन ( melamine) की मिलावट किया करती थी। आप भी सोच रहे होंगे कि कहां मिल्क-पावडर और कहां मैलामाइन।

आप का सोचना जायज़ है- मैलामाइन एक इंडस्ट्रीयल कैमीकल है जिसे कपड़ा उद्योग, पलास्टिक बनाने में एवं गौंद( gum) बनाने के लिये इस्तेमाल किया जाता है। लेकिन आप शायद सोच रहे होंगे कि यह मैलामाइन नाम का कैमीकल मिल्क-पावडर में क्या कर रहा है ?

ध्यान देने योग्य बात यही है कि मैलामाइन देखने में बिल्कुल मिल्क-पावडर जैसा ही सफेद एवं पावडर जैसा ही दिखता है- इसलिये इसे खाद्य पदार्थों की मिलावट के लिये धड़ल्ले से इस्तेमाल किया जाता है क्योंकि इस से नकली तौर पर उन खाद्य पदार्थों में प्रोटीन की मात्रा बढ़ जाती है।

मैलामाइन की मिलावट से किसी खाद्य पदार्थ का प्रोटीन कंटैंट कैसे बढ़ सकता है ?.....जी हां, बढ़ता वढ़ता कुछ नहीं है, लेकिन जब उस मिलावटी पावडर में पानी डाल कर उस के प्रोटीन कंटैंट को टैस्ट किया जाता है तो उस की रीडिंग बढ़ जाती है । इस का कारण यह है कि मैलामाइन में नाइट्रोजन की मात्रा बहुत अधिक होती है और किसी भी खाद्य पदार्थ में प्रोटीन की मात्रा का आकलन करने के लिये उस में नाइट्रोजन की मात्रा का ही आकलन कर लिया जाता है।
चीन में तो इस तरह के मिल्क-पावडर का इस्तेमाल करने वाले दो शिशुओं की तो मौत ही हो गई और 1253 बच्चे बुरी तरह से बीमार हो गये .....जिन में से बहुत से बच्चों के गुर्दों में पत्थरी बन गई।

पिछले साल मार्च 2007 में भी चीन में तैयार कुछ पालतू जानवरों के लिये खाद्य पदार्थों की वजह से अमेरिका में कुछ कुत्तों एवं बिल्लीयों की जब मौत हो गई थी तो बहुत हंगामा हुआ था।

कुछ महीने पहले मुझे ध्यान है अमेरिकी एजेंसी फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन ने चीन में तैयार कुछ टुथपेस्टों के बारे में भी चेतावनी इश्यू की थी....इन में भी कुछ लफड़ा था।

वैसे आप ने भी नोटिस किया होगा कि आज कल बहुत से स्टोरज़ में कुछ इस तरह के विदेशी खाद्य पदार्थ अथवा पेय पदार्थ बिकते हैं जिन की भाषा हमें बिल्कुल समझ नहीं आती....लेकिन अकसर हम देखते हैं कि लोग ऐसी वस्तुओं को खरीदते समय भी ज़रा भी संकोच नहीं करते। बस सेल्स-मैन विभिन्न कारणों की वजह से इन की थोड़ी बहुत तारीफ़ कर देते हैं। इन प्रोडक्ट्स का कुछ पता नहीं कि ये कब तैयार हुये हैं, कब इन की एक्सपॉयरी है, क्या इनग्रिडिऐंट्स हैं......कुछ पता नहीं .....क्योंकि सब कुछ या तो उर्दू में या फिर ऐसी किसी दूसरी भाषा में लिखा होता है कि हमें इस के का कुछ पता ही नहीं चल पाता।

अकसर आप देखेंगे कि तरह तरह की चाकलेट्स में, तरह के आकर्षक वेफर्स में, जूसों में यह सब गोरख-धंधा खूब चलता है। मैं सोचता हूं कि हम लोग जब तक इन की गुणवत्ता के बारे में आश्वस्त ना हो जायें, हमें इन से तो बच कर ही रहना चाहिये, वरना चीन में मिलने वाले मिल्क-पावडर के बारे में तो आप ने सुन ही लिया।

किसी भी वस्तु पर किसी विदेश का ठप्पा का क्या श्रेष्ट हो गया कि हम लोग उस आइट्म के बारे में बेसिक से प्रश्न पूछने ही भूल गये। और तो और, अकसर आपस में भी लोग इस तरह की चाकलेट्स गिफ्ट वगैरा में देने लगे हैं.......पैकिंग बड़ी कैची होती है, देखने में इन की शेप-वेप बड़ी हाई-फाई होती है, इसलिये अकसर बच्चों को इन से दूर रख पाना अच्छा खासा दिक्कत वाला काम हो जाता है।

चीन के मिल्क-पावडर से ध्यान आ रहा है कि वहां तो ये मामले पकड़ में आ गये लेकिन हम लोगों का यहां क्या पता है कि हम लोग क्या क्या खाये जा रहे हैं, पिये जा रहे हैं.........आप सब यह तो जानते ही हैं ना कि हमारे यहां भी सिंथैटिक मिल्क बनाने के लिये मिल्क-पावडर का इस्तेमाल धड़ल्ले से हो रहा है। लेकिन मैं तो इतने लोगों से पूछ चुका हूं कि दूध में कैमिकल्स की मिलावट है या नहीं ( नहीं, नहीं, पानी की नहीं.....वह तो अब हम लोग स्वीकार कर ही चुके हैं !!)….. उस को जानने का कोई घरेलू जुगाड़ तो होगा..............लेकिन मुझे कोई संतोषजनक जवाब अभी तक मिला नहीं।

बुधवार, 20 अगस्त 2008

कौन सी दवा ले रहे हैं...इस का ध्यान तो रखना ही होगा !!

हमारे देश में कितने लोग हैं जो आम-सी दिखने वाली ( नोट करें दिखने वाली) तकलीफ़ों के लिये डाक्टर के लिये जाते हैं.....इस के पीछे छिपे कारणों में हम इस समय नहीं जाते कि ऐसा क्यों होता है.....लेकिन आम तौर पर बुखार, जुकाम, दस्त आदि के लिये अकसर लोग क्या करते हैं ?....अपनी जानकारी के अनुसार जिस भी किसी उपयुक्त दवा का नाम पहले से पता है, उसे ही पास वाले कैमिस्ट से मंगवा लेते हैं।

दवा कैमिस्ट ने कौन सी दी है ......किस कंपनी की दी है.....इस के बारे में अधिकतर लोगों को कुछ पता वता होता नहीं है। तो, दवा शुरू कर दी जाती है.....भगवान भरोसे ठीक हो गये तो ठीक है, वरना देखा जायेगा।

मैं पिछले सप्ताह दस्त रोग/ पेचिश से परेशान था.....मुझे पता था कि पानी की ही गड़बड़ी है, खैर दो-तीन दिन यूं ही देखा ....यही सोचा कि बाहर आकर अकसर ऐसा हो ही जाता है। लेकिन जब दो-तीन दिन बाद भी ठीक ना हुआ तो मैंने दस्त के लिये एक दवा जो मेरे पास मौजूद थी वह लेनी शुरू कर दी लेकिन उस दवाई को लेते मुझे दो दिन हो गये तो भी मुझे जब कोई फर्क नहीं पड़ा तो मुझे यकीन हो गया कि हो ना हो, यह दवा ही चालू है, घटिया किस्म की है।

मैं कैमिस्ट के पास जा कर एक बढ़िया किस्म की दवाई ले आया .....वैसे मैं नाम-वाम तो अपनी पोस्टों में लिखता नहीं हूं....लेकिन इस का लिख ही रहा हूं......बस इच्छा हो रही है सो लिख रहा हूं.....कंपनी से मुझे कुछ लेना-देना है नहीं। इस दवाई का नाम था....Tiniba 500mg …..यह लगभग पैंतालीस रूपये का दस टेबलेट का पत्ता आता था ...इस में Tinidazole 500mg ( टिनीडाज़ोल 500मिग्रा.) होता है। यह मुझे दिन में दो-बार 12-12 घंटे के अंतराल के बाद खानी है । हां, तो मैं यह बताना चाहता था कि इस की एक –दो खुराक लेने के बाद ही मुझे बिल्कुल फर्क पड़ गया। हां, लेकिन इसे पांच दिन खा कर पूरा कोर्स तो करना ही होगा और इस के साथ साथ पानी के बारे में विशेष ध्यान तो रखना ही होगा।

मेरा यह सारी स्टोरी लिखने का मतलब केवल इतना है कि कितने लोग इस तरह से दवा अपनी मर्जी से चेंज कर सकते हैं। कहने का मतलब है कि हम लोग तो चिकित्सा के क्षेत्र से जुड़े हैं, अगर एक आम सी समस्या के लिये एक प्रचलित दवाई काम नहीं कर रही है तो सब से पहले तो इस का अर्थ यही निकलता है कि हो ना हो , दवाई में ही कोई गड़बड़ है। और यह सच भी है....आज कल दवाईयों के फील्ड में इतनी गड़बड़ है कि क्या कहें.....एक ही साल्ट की एक टेबलेट पांच रूपये में तो दूसरी किसी कंपनी की वही टेबलेट पचास रूपये में बिक रही होती है। यह बिल्कुल सच्चाई है।

और एक ही साल्ट की इन दोनों दवाओं के दाम में इतने ज़्यादा फर्क का कारण अकसर यही बताया जाता है कि एक जैनेरिक है और एक एथिकल है। इन में असली अंतर क्या है, यकीन मानिये मैं लगभग पिछले आठ-दस सालों से इस का जवाब ढूंढ नहीं पाया हूं। जब भी कोई सीनियर डाक्टर, मैडीकल रिप्रज़ैंटेटिव अथवा कोई पहचान वाला कैमिस्ट मिलता है तो इस का जवाब तो देता है लेकिन मैं आज कल पूरी तरह से संतुष्ट नहीं हुआ हूं।

अब एक ही साल्ट की दवा एक तो पांच रूपये में और दूसरी पचास रूपये में बिके और यह कह दिया जाए कि एक तो जैनेरिक है और दूसरी एथिकल है.........चूंकि जैनेरिक में कंपनी को टैक्स वगैरा की काफी बचत हो जाती है, विज्ञापनबाजी पर ज़्यादा खर्च नहीं करना पड़ता, ........इसलिये इस जैनेरिक दवाईयों को कंपनी सस्ते में बेच पाती है। लेकिन मुझे कभी भी पता नहीं कभी भी यह बात क्यों हज़्म नहीं होती ( नहीं...नहीं, दस्त की वजह से नहीं, वह तो अब थैंक-गॉड ठीक है) ......मुझे हमेशा यही सवाल कचोटता रहता है कि क्या इस की क्वालिटी बिल्कुल वैसी ही होगी.....पता नहीं मुझे क्यों ऐसा लगता है। जिस से भी पूछा है ,वही कहता है कि हां, हां, बिलुकल वैसी ही होती है जैसे एथिकल ब्रांड की होती है।

चलिये यह चर्चा तो चलती रहेगी। बिलकुल ठीक उसी तरह से जिस तरह से हमारे देश में सेल्फ-मेडीकेशन चलती रहेगी यानि लोग अपनी ही समझ अनुसार, अपने ही ज्ञान अनुसार दवाईयां खरीद खरीद कर खाते रहेंगे। इसलिये कुछ बातें यहां रेखांकित करने की इच्छा सी हो रही है।

मेरे कहने से कोई भी सेल्फ-मेडीकेशन खत्म करने वाला नहीं है। लेकिन इतना तो हम कर ही सकते हैं कि बिलकुल आम सी समस्याओँ के लिये अपने फैमिली डाक्टर से मिल कर बढ़िया कंपनी की दवाईयों के नाम एक फर्स्ट-एड के तौर पर ही सही किसी डायरी में लिख कर रखें........और जब भी ये दवाईयां बाज़ार से खरीदें तो इस का बिल बिना झिझक ज़रूर लें।

हमारे देश में अपने आप ही दवा खरीद कर ले लेना बहुत ही प्रचलित है। मैं आज ही किसी अखबार में पढ़ रहा था कि अमेरिका के हस्पतालों में हर साल एक लाख चालीस हज़ार ऐंटीबायोटिक दवाईयों के रिएक्शन के केस पहुंचते हैं। अब हम लोग खुद अंदाजा लगा सकते हैं कि अगर अमेरिका में ये हालात हैं जहां पर हर बात पर इतना कंट्रोल है, लोग अच्छे-खासे पढ़े लिखे हैं, बिना डाक्टरी नुस्खे के दवा मिलती नहीं..........तो फिर हमारे यहां पर क्या हालत होगी। पता नहीं इन घटिया किस्म की चालू दवाईयों के कितने किस्से बेचारे लोगों की कब्र में उन के साथ ही हमेशा के लिये दफन हो जाते होंगे।

अब आप इमेजन करिये.........एक टीबी मरीज बाजार से खरीद कर दवा खा रहा है, लेकिन उस की टीबी ठीक नहीं हो रही तो उस का डाकटर क्या करेगा.....उस की दवाईयों की खुराक बढ़ायेगा ....नहीं तो दवाईयां चेंज करेगा, ......यह सब कुछ करने पर भी अगर बात नहीं बनेगी तो उस के केस को Drug-resistant tuberculosis अर्थात् ऐसी टीबी जिस पर दवाईयां असर नहीं करती, डिक्लेयर कर देगा। और फिर उस का इलाज शुरू कर दिया जायेगा। कहने का भाव केवल इतना ही है कि टीबी जैसे रोगों के लिये कुछ चालू किस्म की घटिया दवाईयां मरीज़ की ज़िंदगी से खिलवाड़ करती हैं, यह अकसर हम लोग अखबारों में पढ़ते रहते हैं।

मैं बहुत बार सोचता हूं कि आदमी करे तो क्या करे................वही बात है कि दवा का जब नाम आये तो कभी भी किसी किस्म का समझौता नहीं करना चाहिये, यह बहुत ही लाजमी है, बेहद लाजमी है, इस के इलावा कोई भी रास्ता नहीं है, दवाई बढ़िया से बढ़िया कंपनी की जब भी ज़रूरत पड़े तो ले कर खानी होगी.......वरना अगर किसी के बच्चे का बुखार दो-तीन दिन से ऐंटीबायोटिक दवाई खिलाने के बाद भी नहीं उतर रहा तो उस की हालत पतली हो जाती है.......एक एक मिनट बिताना परिवार के लिये पहाड़ के बराबर लगता है।

ऐसे में क्या आप को नहीं लगता कि नकली दवाईयां बेचने वाले, स्टाक करने वाले, और इन्हें बनाने वाले भी उजले कपड़े के पीछे छुपे (काला धंधा गोरे लोग) खतरनाक आतंकवादी ही हैं। बस, अभी तो इतनी ही बात करना चाह रहा था......आशा है कि आप मेरी इस पोस्ट के सैंट्रल आइडिये को समझ ही गये होंगे।

रविवार, 25 मई 2008

मिलावटी खाद्य -पदार्थों की जांच कैसे हो पायेगी सुगम !!

आप किसी भी क्षेत्र की तरफ़ नज़र दौड़ा कर देख लीजिये....तरक्की तो खूब हुई है। डेयरी इंडस्ट्री को ही देख लें.....बड़े बड़े संस्थान खुल गये, बहुत से लोग पीएचडी कर के आस्ट्रेलिया में डालरों से खेल रहे हैं, लेकिन जितनी भी रिसर्च हुई है क्या आप को लगता है कि उस का लाभ एक आम भारतीय को भी हुया है। पहले तो वह गवाले की दूध में पानी मिलाने की आदत से ही परेशान था....अब तो उसे पता ही नहीं है कि दूध के रूप में उसे क्या क्या पिलाया जा रहा है।

अभी अभी मैं सिंथैटिक दूध के बारे में नेट पर ही कुछ पढ़ रहा था, तो यकीन मानिये इस का वर्णन पढ़ कर कोई भी कांप उठे। इसीलिये मैं सोच रहा था कि देश में विभिन्न क्षेत्रों में तरक्की तो खूब हुई लेकिन आम आदमी की तो पतली हालत की तरफ ध्यान कीजिये कि उसे यह भी नहीं पता कि वह जिस खाद्य पदार्थ का सेवन कर रहा है वह असली है या नकली ....अगर नकली भी है या मिलावटी भी है तो इस के लिये इस्तेमाल किये जाने वाले ऐसे पदार्थ तो नहीं हैं जिन से उस की जान पर ही बन आये।

अभी मैं जब सिंथैटिक दूध का विवरण पढ़ रहा था तो मुझे उस का वर्णन पढ़ कर यही लगा कि यार हम लोग भी बंबई में ज्यादातर सिंथेटिक दूध ही पीते रहे होंगे...क्योंकि जिस तरह के बड़े बड़े टैंकरों में हमारे दूध वाले के यहां दूध आया करता था और 24घटे दूध उपलब्ध होता था, उस से यही शक पैदा होता है कि इतना खालिस दूध बंबई में अकसर आता कहां से था। लेकिन क्या करें......हम लोगों की बदकिस्मती देखिये कि हम लोग इतना पढ़ लिख कर भी असली और नकली में पहचान ही नहीं कर पाते।

मेरा तो यहां डेयरी वैज्ञानिकों से एवं अन्य विशेषज्ञों से केवल एक ही प्रश्न है कि आप क्यों कुछ ऐसे टैस्ट पब्लिक में पापुलर नहीं करते जिस से वे झट से घर पर ही पता कर सकें कि दूध असली है या सिंथेटिक है....क्योंकि सिंथेटिक दूध पीना तो अपने पैर पर अपने आप कुल्हाडी मारने के बराबर है।

ऐसे ही और भी तरह तरह की वस्तुओं के लिये टैस्ट होने चाहियें जो कि आम पब्लिक को पता होने चाहिये....इस से मिलावट करने वालों के दिमाग में डर बैठेगा.......मैंने कुछ साल पहले इस पर बहुत कुछ पढ़ा लेकिन जो मुझे याद है वह इतना विषम कि उपभोक्ता यही सोच ले कि कौन ये सब टैस्ट करने का झंझट करे....सारी दुनिया खा रही है ना ये सब कुछ....चलो, हम भी खा लें...जो दुनिया के साथ होगा , हमारे साथ भी हो जायेगा। बस, यही कुछ हो रहा है आज हमारे यहां भी।

लोगों में जागरूकता की कमी तो है ही, लेकिन उसे सीधे सादे ढंग से जागरूक करने वाले बुद्धिजीवी तो चले जाते हैं अमेरिका में ......यकीनन बहुत विषम स्थिति है।

छोटे छोटे सवाल हैं जो हमें परेशान करते हैं लेकिन उन का जवाब कभी मिलता नहीं......यह जो आज कल सॉफ्टी पांच-सात रूपये में बिकने लग गई है...इस में कौन सी आइस-क्रीम डाल दी गई है जो इतनी सस्ती बिकने लग गई, इसी तरह से मिलावटी मिठाईयों, नकली मावे का बाज़ार गर्म है। यकीन मानिये दोस्तो पिछले कुछ वर्षों में इतना कुछ देख लिया है, इतना कुछ पढ़ लिया है कि बाज़ार की किसी भी दूध से बनी चीज़ को मुंह लगाने तक की हिम्मत नहीं होती।

अभी यमुनानगर के पास ही एक कसबे में यहां के अधिकारियों ने हलवाईयों की कईं दुकानों पर छापे मारे हैं जो बहुत से शहरों में मिल्क-केक सप्लाई किया करते थे.....लेकिन उन को वहां पर बहुत मात्रा में एक्पायरी डेट का मिल्क-पावडर मिला और साथ ही कंचों की बोरियां भी मिलीं.......पेपर में ऐसा लिखा गया था कि शायद इन कंचों को पीस कर मिल्क केक में डाल कर उस में चमक पैदा की जाती थी। मिल्क में चमक तो पैदा हो गई लेकिन उसे खाने वाले के गुर्दे फेल नहीं होंगे तो क्या होगा, दोस्तो।

स्थिति इतनी विषम है कि बाज़ार में बिक रही किसी भी चीज़ की क्वालिटि के बारे में आप आश्वस्त हो ही नहीं सकते। ऐसे में मेरा अनुरोध सभी विशेषज्ञों से केवल इतना ही है कि अपनी सामाजिक, नैतिक जिम्मेदारी समझते हुये कुछ इस तरह से जनता को सचेत करें कि उन्हे नकली और असली में पता लग जाये, उन्हें पता लग जाये कि यह खाद्य़ पदार्थ खाने योग्य है या नाली में फैंकने योग्य ।

यह सब बहुत ही ज़रूरी है.....हर तरफ़ मिलावट का बोलबाला है, कुछ साधारण से टैस्ट तो होंगे ही हर चीज़ के लिये जिन से यह पता चले कि हम लोग आखिर खा क्या रहे हैं। मेरे विचार में इस तरह की जागरूकता हमारे समाज को मिलावटी वस्तुओं से निजात दिलाने के लिये पहला कदम होगी....क्योंकि जब पब्लिक सवाल पूछने लगती है तो बड़ों बड़ों की छुट्टी हो जाती है।

बाज़ारी दही का भी कोई भरोसा नहीं है, पनीर पता नहीं किस तरह के दूध का बन रहा है.....सीधी सी बात है कि दूध एवं दूध से बने खाध्य पदार्थों की गुणवत्ता की तरफ़ खास ध्यान दिया जाना ज़रूरी है। वैसे तो अब मिलावट से कौन सी चीज़ें बची हैं !!

मैंने एक डेयरी संस्थान के प्रोफैसरों को बहुत पत्र लिखे हैं कि कुछ छोटे छोटे साधारण से टैस्ट जनमानस में लोकप्रिय करिये जिस से उन्हें पता तो लगे कि आखिर वे क्या खा रहे हैं, क्या पी रहे हैं। मुझे याद आ रहा है कि बंबई के वर्ल्ड-ट्रेड सेंट्रल में अकसर कईं तरह की प्रदर्शनियां लगा करती थीं ...वहां पर अकसर एक-दो स्टाल इस तरह के उपभोक्ता जागरूकता मंच की तरफ से भी हुया करते थे......लेकिन अब तो उस तरह के स्टाल भी कहीं दिखते नहीं।

ऐसे में क्या सुबह सुबह घर की चौखट पर जो दूध आता है क्या वही पीते रहें ?....यही सवाल तो मैं आप से पूछ रहा हूं .....तो, अगली बार जब अपने घर में आये हुये दूध को देखें तो उस के बारे में कम से कम यह ज़रूर सोचें कि आखिर इस की क्वालिटी की जांच के लिये आप क्या कर सकते हैं.....नहीं, नहीं, मैं फैट-वैट कंटैंट की बात नहीं कर रहा हूं.....मैं तो बात कर रहा हूं सिंथैटिक दूध में इस्तेमाल की जाने वाले खतरनाक कैमिकल्ज़ की ....जो किसी भी आदमी को बीमार बना कर ही दम लें।

वैसे हम लोग भी कितनी खुशफहमी पाले रखते हैं कि हो न हो, मेरा दूध वाला तो ऐसा वैसा नहीं है.......पिछले बीस सालों से आ रहा है.......लेकिन फिर भी ...प्लीज़ ..एक बार टैस्टिंग वैस्टिंग के बारे में तो सोचियेगा। बहुत ज़रूरी है......मैं नहीं कह रहा है, आये दिन मीडिया की रिपोर्टें ये सब बताती रहती हैं।

सोमवार, 19 मई 2008

ये लोग क्यों नहीं आते आतंकवादियों की श्रेणी में ?

क्या आप ने किसी कैमिस्ट शॉप पर खड़े किसी आम आदमी के चेहरे पर उस समय हवाईयां उड़ती देखी हैं जिस समय कैमिस्ट बड़ी रकम का बिल्कुल छोटा सा बिल उस की ओर सरका देता है ?.....मैं यह सब बहुत बार देखता हूं और फिर यह भी देखता हूं कि उस परिवार के जितने लोग वे दवायें खरीदने आये होते हैं वे आपस में सलाह-मशविरा करने लग पड़ते हैं कि ऐसा करो, अभी एक हफ्ते की बजाय आप तीन-चार दिन की ही दवायें दे दें। ऐसे मौकों पर मैं चुपचाप खड़ा केवल उन के बीमार मरीज़ के लिये खूब सारी दुआये ज़रूर मांग लेता हूं कि यार, इन बंदों को हमेशा फिट रखा कर।

यह तो तय ही है कि दवायें बहुत महंगी है और दावे चाहे जितने जो भी हों, आंकड़े कुछ भी कहें( आंकड़ों की ऐसी की तैसी !)…लेकिन दवाईयां आम आदमी की पहुंच से दूर हो गई हैं। लेकिन अब आप सोचिये कि महंगी दवाईयां खरीद कर जब कोई आम बंदा अपने किसी परिजन को उन्हें देने के लिये भागा हुया जाता है तो अगर उसे पता हो कि वे तो नकली दवाईयां हैं, मिलावटी दवाईयां हैं, तो उस पर क्या बीतेगी ?......

अकसर लोग एक दूसरे ट्रैप में भी फंस जाते हैं.......कईं नीम-हकीम टाइप के डाक्टर अपनी टेबल पर ही बिल्कुल सस्ती सी, लोकल टाईप की दवाईयां सजा लेते हैं और उन्हें मरीजों को डायरैक्ट्ली बेचने लगते हैं। मुझे याद है मेरा एक सहपाठी कालेज के दिनों में अपने एक पड़ोसी नीम-हकीम के बारे में बताया करता था कि उस के बच्चे सारा दिन कैप्सूल भरते रहते थे.....जब हम लोग जिज्ञासा जताते थे तो उस ने एक दिन बताया कि खाली कैप्सूल बाजारा में 10-15 रूपये के एक हज़ार मिल जाते हैं और वे लोग उस में चीनी और मीठा –सोडा भरते रहते थे.....हमारा सहपाठी बताया करता था कि जब भी कभी उन के घर में खेलने-वेलने जाते थे तो हमें भी कुछ समय के लिये तो इस काम में लगा ही दिया जाता था। तो, चलिये इस बात को इधर ही छोड़ता हूं ॥वरना मेरी पोस्ट इतनी लंबी हो जाती है कि आप लोग चाहे कुछ मुझे कहें या ना कहें ...लेकिन मुझे इस का अहसास हो जाता है।

अच्छी तो आज यह लिखने के पीछे क्या कारण ?......केवल इतना ही कारण है कि मैंने परसों ( 17मई 2008) की टाइम्स ऑफ इंडिया में नकली दवाईयों के ऊपर एक बहुत ही बढ़िया संपादकीय लेख पढ़ा है। उस संपादकीय में यह भी दिया गया था कि विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार सारे विश्व में जितनी भी नकली दवाईयां पैदा होती हैं उन का 35 प्रतिशत भारत ही में बनता है। और यू।पी, पंजाब एवं हरियाणा में तो इस के गढ़ हैं। एक अन्य संस्था के अनुसार तो सारे विश्व की में जितनी भी नकली दवाईयां सरकुलेट होती हैं उन में से 75 फीसदी तो भारत से ही चलती हैं। आप भी कांप गये होंगे ये आंकड़े देख कर !!

संपादकीय में कुछ यह भी लिखा था कि अब भारत के ड्रग-कंट्रोलर जनरल द्वारा विभिन्न तरह की दवाईयों की क्वालिटी की जांच हेतु लगभग 31000सैंपलों का परीक्षण किया जाना है।

आप यह सुन कर कुछ ज़्यादा मत चौंकियेगा कि ऐसी रिपोर्ट हैं जिन से पता चला है कि नकली इंसुलिन के टीके लगने से शूगर के रोगियों की मौत हो गई और टीबी के मरीज नकली दवाईयां खाने की वजह से पहले से भी ज़्यादा बीमार हो गये।

उस संपादकीय में एक प्रश्न यह भी उठाया गया कि दवाईयों के दामों को तो बहुत अच्छे ढंग से नियमित किया जाता है लेकिन जहां तक दवाईयों की गुणवत्ता का संबंध है वहां यह वाली टाइटनैस नहीं दिखती । क्या इस का कारण यह है कि भारत में इतनी ज़्यादा दवाईयों की टैस्टिंग के लिये मूलभूत ढांचे की ही कमी है ?...इसलिये संपादक ने इस तरफ इशारा दिया है कि भारत के ड्रग-कंट्रोलर जनरल द्वारा जो स्टडी की जानी है उसे ड्रग-टैस्टिंग, ड्रग-क्वालिटी मॉनीट्रिंग के बारे में भी पूरी जांच-पड़ताल करनी होगी और इस एरिया में सुधार लाने के प्रयास करने होंगे।

मीडिया डाक्टर की टिप्पणी ---- मैं तो बस यही सोच सोच कर परेशान हो जाता हूं कि जो निर्दोष लोगों को बिना वजह मारते हैं उन्हें हम आतंकवादी कहते हैं ना, तो फिर ये नकली दवाईयां बनाने वाले , उन्हें पास करने वाले, उन्हें बेचने वाले क्या आतंकवादी नहीं हैं......मैं तो इन सब को भी आतंकवादियों का ही दर्जा देता हूं। कागज़ के टुकड़ों के लिये बिल्कुल निर्दोष जनता की ज़िंदगीयों से खिलवाड़। दो-तीन साल पहले एक बार खबरों में आया तो था कि नकली दवाईयों बनाने वालों और बेचने वालों के लिये मौत की सजा मुकर्रर हुई है ,लेकिन इस पर सही प्रकाश तो अपने चिट्ठाजगत के बड़े वकील साहब दिनेशराय द्विवेदी जी या अदालत ब्लाग वाले काकेश ही डाल सकते हैं कि ऐसा क्या कोई कानून बना हुया है और अगर है तो हमें यह भी तो ज़रा बता दें कि आज तक कितने लोगों को इस कानून के अंतर्गत सज़ा हो चुकी है।

अब आते हैं एक –दो पते की बातों पर......दोस्तो, क्या आप को लगता है कि आंकड़ों से किसी का पेट भरा है, क्या बड़े बड़े दावों से सब कुछ ठीक हुया है ....लेकिन जिस परिवार के एक आदमी की भी जान ये नकली दवाईयां ले लेती हैं ना , केवल वह परिवार ही जानता है कि इन नकली , मिलावटी दवायों की त्रासदी क्या है !

एक बात और भी तो है ना कि ज्यादातर लोगों के पास बाजार से खरीदी दवायों का कोई बिल ही नहीं होता.......मैं बस में चड़े किसी काले बैग वाले चुस्त चालाक सेल्स-मैन से खरीदी दर्द-निवारक दवाईयां की या आंख में डालने वाली बूंदों की बातें नहीं कर रहा हूं.....इन में क्या होता है अब तक तो हमारी समझ में आ ही जाना चाहिये.....वैसे मैं बात कर रहा हूं कैमिस्ट के यहां से खरीदी दवाईयों से जिन का बिल अकसर लोग लेते नहीं हैं।

तो एक पते की बात यह है कि आप कभी भी कैमिस्ट से दवाई लें तो उस से बिल लेने में किस तरह से झिझक महसूस न करें......आखिर यह आप की सेहत का मामला है। हर आदमी यही सोच रहा है कि उसे थोड़ा नकली दवाईयां थमाई जायेंगी....लेकिन क्या पता आप ही नकली दवा खाये जा रहे हों !!

अगर आप कैमिस्ट से खरीदी दवाईयों का बिल ले रहे हैं तो आप दवाईयों की क्वालिटी के बारे में आश्वस्त हो सकते हैं क्योंकि उस बिल में उसे दवाई के बाबत सारा ब्योरा देना होता है....बैच नंबर, ब्रैंड-नेम, एक्पायरी डेट आदि.......और अगर कोई दवा का अनयुज़ूअल प्रभाव होता है तो आप अपना दुःखड़ा किसी तो बता सकते हैं ....वरना कौन करेगा यकीन आप की बात का ?

एक पते की बात मैंने अभी और भी करनी है ...वह यह कि आप लोग शायद महंगी बड़ी रकम की दवाईयां खरीदते समय तो बिल विल ले लेते होंगे लेकिन आमतौर पर मैंने लोगों में छोटी मोटी दवाईयों के लिये बिल मांगने में इतनी झिझक देखी है कि क्या बताऊं। लेकिन यह तो हमें याद रखना ही होगा कि जैसे एक चींटी हाथी को नाच नचा सकती है उसी तरह से केवल एक नकली या मिलावटी टेबलेट ही काफी है हमारी जिंदगी में ज़हर घोलने के लिये।

एक बात जो मैंने नोटिस की है कि हम लोग अकसर अपने पड़ोस वाले कैमिस्ट से तो बिल मांगने में कुछ ज़्यादा ही झिझकते हैं क्योंकि वो कुछ ज़्यादा ही फ्रैंडली सा दिखने लगता है.....लेकिन यह बात हमारे लिये ठीक नहीं है। जगह जगह कैमिस्ट की दुकानें खुली पड़ी हैं.....तो किसी और जगह से यह दवाईयां खरीदने में क्या हर्ज हैं ....जहां आप बेझिझक हो कर बिल मांग सकें। यकीन मानिये यह आप ही के हित में है.....भले ही बुखार के लिये टेबलेट्स का एक पत्ता ही खरीद रहे हों, बिल जरूर लें, जरूर लें......जरूर लें...............अगर अभी तक ऐसी आदत नहीं है, तो प्लीज़ डाल लीजिये.....अगर किसी फैमिलियर से कैमिस्ट से यह बिल मांगना दुश्वार लगता है तो अपनी और अपनों की सेहत की खातिर किसी दूसरे कैमिस्ट के यहां से दवाईयां आदि खरीदना शुरू कर दीजिये.......................यह निहायत ज़रूरी है........बेहद महत्त्वपूर्ण है..........क्योंकि केवल एक यही काम है जो आप लोग इन नकली दवाईयों से बचने के लिये कर सकते हैं........वरना अगर आप अगर सोचें कि आप असली-नकली में फर्क को ढूंढ सकते हैं, खेद है कि यह आप न कर पायेंगे............हम लोग तो इतने सालों में यह काम नहीं कर पाये।

वैसे मेरा प्रश्न तो वहीं का वहीं रह गया............क्या नकली दवाईयों से किसी तरह से संबंधित लोग...बनाने वाले, पास करने वाले, बेचने वाले हैं खूंखार आतंकवादी नहीं हैं..................अगर हैं तो चीख कर, खुल कर कहिये अपनी टिप्पणी में।

रविवार, 27 अप्रैल 2008

पावडर वाले दूध की मलाई मार गई !!

कुछ दिन पहले मेरी मुलाकात एक मिठाई-विक्रेता से हुई। मैंने उस से निवेदन किया कि तुम मुझे ईमानदारी से यह बताओ कि ये जो इतनी बर्फी -इतना पनीर बाज़ार में बिक रहा है, यह सब आखिर है क्या !...उस ने बताया कि ज्यादातर मिठाईयां वगैरा तो पावडर-वाले दूध से ही तैयार हो रही हैं..........


शुक्रवार, 21 मार्च 2008

आखिर ये हैं क्या---होली के रंग, रंगीन मिट्टी, सफेदी या चाक मिट्टी....


बचपन में जहां तक होली की यादें हैं उन में बस रेहड़ीयां ही याद हैं जिन के ऊपर छोटी-छोटी थैलियों में तरह तरह के रंग बिका करते थे। लेकिन आज जब बाज़ार में तो कुछ अजीब ही नज़ारा देखने को मिला......तरह तरह के रंग तो बिक रहे थे...लेकिन जिस तरह से बिक रहे थे , वो तरीका देख कर बहुत अचंभा हुया । आप भी इन तस्वीरों में देख सकते हैं कि इतनी इतनी बड़ी बोरियों में ये तथाकथित रंग बिक रहे हैं कि यकीन ही नहीं हो पा रहा कि ये रंग ही हैं। इन को देख कर हंसी ज्यादा आ रही है क्योंकि ये तो रंगीन मिट्टी , चाक, सफेदी के इलावा तो मुझे कुछ भी नहीं लग रहे। लेकिन अगर आप को इस तरह से बिक रहे रंगों के बारे में कुछ विस्तृत जानकारी हो तो कृपया बतलाईएगा।

इन बिक रहे रंगों की भी अलग अलग श्रेणीयां हैं....एक है बीस रूपये किलो और दूसरी क्वालिटी थी चालीस रुपये किलो !

अब मेरी हिमाकत देखिये....मैं आप सब के लिये इन की फोटो खींचने में इतना तल्लीन था कि मुझे यह भी नहीं पता कि बेटे ने गुब्बारों और पिचकारी के इलावा कुछ रंग भी खरीदे हैं या नहीं। अगर रंग भी खरीदे हैं तो कल पूरा ध्यान रखना पड़ेगा। वैसे मैंने दुकानदार से पूछ ही लिया कि वैसे इन रंगों में होता क्या है। उस का जवाब भी तो पहले ही से तैयार था......... यह हमें कुछ नहीं पता...बस जो पीछे से आ रहा है, हम बेच देते हैं।उस की बात सुन मेरे मन में क्या विचार आया, अब यह भी आप को बताना पड़ेगा क्या !

चलिये, छोड़िये....काहे के लिये होली मूड को खराब किया जाए !


अच्छा तो आप सब को होली की बहुत बहुत मुबारकबाद। और यह लीजिये हमारी तरफ से होली का तोहफा.....बस क्लिक मारिये और सुन लीजिये।

6 comments:

Kagahn said...

See here or here

PD said...

Don't click there.. 99% chance of Virus.. :)
holi me khushi manaaiye... virus ka gam na paalen.. :D

PD said...

ek baat to bhul hi gaya..
Holi mubarak ho Dr. sahab.. :)

मीत said...

होली आप को भी बहुत बहुत मुबारक़ !

पंकज अवधिया Pankaj Oudhia said...

आपको होली की हार्दिक शुभकामनाए।

Dr.Parveen Chopra said...

कृपया नोट करें कि जैसे डियर PD ने हमें सचेत किया है...इस पोस्ट में कोई वॉयरस नहीं है , केवल एक Kagahn नामक id से जो कमैंट आया है उस पर क्लिक न करने को कहा गया है। वैसे मैं सोचता हूं कि अब जैसे जैसे हिंदी की प्रयोग इंटरनैट पर बढ़ेगा,ये सब चीज़ें भी , ये सब शरारतें, सैडिस्टिक हरकतें भी बढ़ेंगी....इसलिये इन की क्या परवाह करनी । वैसे आज तो पीडी की एडवाइस ने बचा लिया।
@मीत जी, आप को भी बहुत बहुत होली मुबारक, आशा है अब आप की अक्कू आप के साथ होली का हुड़दंग मचाने के लिये बिल्कुल फिट हो गई होंगी। बॉय गाड, उस दिन आप की पोस्ट बहुत टचिंग थी, शायद हम सब ने ही अक्कू के शीघ्र स्वास्थय लाभ की प्रार्थना कर डाली होगी।
@ पंकज अवधिया जी, आप के लिये एक काम है..कृपया इसी बलोग पर पिछली पोस्ट...रंगों का त्योहार न लाये.....ज़रूर देखें। आप को भी होली की बहुत बहुत शुभकामनायें....आप सब बलोगर बंधुओं की पोस्टें पढ़ता रहता हूं .....लेकिन बस बात ही नहीं हो पाती।
@PD, I am very thankful to you for your timely help. May God bless you...today I went to your blog reg..telephonic conversation but the comment box never opened up. It was a nice post.....आज होली की पूर्व-संध्या पर आप ने अपने बचपन के कॉमिक्स को याद कर लिया...अच्छा है। खुश रहो।
@अरे भईया Kagahn तेरा भी बहुत बहुत शुक्रिया...तूने की तो बहुत शरारत...लेकिन तेरी इस शरारत ने भी हम लोगों को बहुत सिखा दिया ..वह यह कि किसी भी अनजान बंदे की टिप्पणी पर किसी लिंक को क्लिक करने की कोशिश मत करो।
एक तो यह जब से बलोगिंग की है, बच्चे पास ही बैठे रहते हैं.....और इस समय डायलाग मार रहे हैं कि बापू, कमैंट को मार रहा है, इतना ही लिखना है तो एक पोस्ट ही लिख डाल।
सो, अब बंद करता हूं।
शुभकामनायें।

शुक्रवार, 7 मार्च 2008

क्या है आखिर इस तरह के फ्रूट-जूस में ?



दो-तीन दिन से गर्मी के मौसम के पदचाप सुनाई देने लगे हैं....ऐसे में आने वाले दिनों में फलों के जूस वगैरह का बाज़ार गर्म होता नज़र आयेगा..........फलों के ताज़े जूस का नहीं पिछले कुछ समय से तो टैट्रा-पैक में मिलने वाले कुछ फलों के जूसों ने भी तो धूम मचा रखी है। कल जब एक ऐसे ही टैट्रा-पैक को देखा तो उस के बारे में अपने व्यक्तिगत विचार लिखने की बात मन में आई।


इस मिक्सड़ फ्रूट जूस (जिसे वर्ल्ड के नंबर वन होने का दावा किया गया है) की एक लिटर की पैकिंग के बारे में टैट्रा-पैक के बाहर लिखा हुया है (अंग्रेज़ी में) कि इस में ये सब इन्ग्रिडीऐंट्स मौजूद हैं........ पानी, सेब के जूस का कंसैन्ट्रेट, अनानास के जूस का कंसैन्ट्रेट , चीनी( शूगर), संतरे के जूस का कंसैन्ट्रेट, आम के जूस का कंसैन्ट्रेट, अमरूद की पलप, एसिडिटी रैगुलेटर( 330), विटामिन-सी। और साथ में फलेवर्ज़ डले होने की बात भी कही गई है.....( contains added flavor….natural flavouring substances)..

यही सोच रहा हूं कि अगर इतने सारे फलों के रस इस में मौज़ूद हैं तो आखिर इस में विटामिन-सी बाहर से डालने की आखिर क्या ज़रूरत आन पड़ी है। क्या कोई मेरी इस प्रश्न का जवाब देगा ?


लेकिन इस के बारे में ग्राहकों को कुछ नहीं बताया गया कि ये सब इन्ग्रिडीऐन्ट्स कितनी मात्रा में उपलब्ध हैं.......अब ग्राहक को तो लगता है कि इस से कुछ लेना देना है नहीं, बस उसे तो जूस का स्वाद अच्छा लगना चाहिये जो उसे चंद पलों के लिए ठंडक पहुंचा दे.....चाहे यह कंपनी तो यह दावा कर रही है कि इस का ज़ायका आप को सारा दिन मज़ा देता रहेगा ( लेकिन कंपनी तो आखिर ठहरी कंपनी !)..


अब अगर ग्राहक दस-गिलास ताजे जूस के दाम के बराबर कोई ऐसे जूस का डिब्बा खरीद रहा है तो उसे क्या इतना जानने का अधिकार भी नहीं है कि उस में कितनी चीनी(शक्कर ) मिली हुई है ! …..शायद नहीं। अब ये सब बातें आप को कंपनी बताने लगेगी तो उसे बड़ी दिक्कत हो जायेगी। ताजे जूस में हमारे पड़ोस वाला जूसवाला क्या कम शक्कर उंडेलता है जो हम इस डिब्बे वाले जूस में शक्कर के इतना पीछे पड़ रहे हैं। इस के बारे में आप भी सोचिए....। मेरी पत्नी, डा.ज्योत्स्ना चोपड़ा, जो एक जर्नल फिजिशियन हैं ....उन्हें भी इस के बारे में ( शक्कर वाली बात) जान कर बहुत हैरानगी हुई। खैर, चलिये आगे चलते हैं।


इस स्वीटंड फ्रूट-जूस ( sweetened fruit juice) के डिब्बे के ऊपर यह भी लिखा हुया था कि इस में न तो कोई एडेड कलर है और न ही प्रिज़र्वेटिव..........(No added colour and preservative)………लेकिन यह इस में किसी प्रिज़र्वेटिव के ना होने वाली बात मुझे तो हज़म नहीं हो रही है ( क्या करूं ?.......हाजमोला ले लूं !........ठीक है , वह भी ले लूंगा, पहले आप से दो बातें तो कर लूं। ) .....लेकिन हाजमोला लेने के बाद भी मुझे इस नो-प्रिज़र्वेटिव वाली बात की बदहज़मी बनी रहेगी क्योंकि मैं बड़े विश्वास से यह सोच रहा हूं कि ऐसी कौन सी वस्तु है जो बिना प्रिज़र्वेटिव के छःमहीने पर ठीक ठाक रहती है..........इस की पैकिंग पर लिखा हुया है कि दिसंबर 2007 में बना यह जूस का डिब्बा जून 2008 तक ले लेना बैस्ट है ( Mfd…Dec.2007, Best before June 2008)..


इस जूस के 100 मिलीलिटर की न्यूट्रिश्नल वैल्यू भी तो आप जानना चाहेंगे.....तो सुनिये इस में प्रोटीन है – 0.4 ग्राम, फैट और कोलेस्ट्रोल ज़ीरो ग्राम, कार्बोहाइड्रेट- 13.7ग्राम ..............आगे लिखा हुया है सोडियम 5मिलीग्राम, पोटाशियम 103मिलीग्राम और विटामिन-सी 40मिलीग्राम। अब इन के बारे में अलग अलग से बतलाना शुरू करूंगा तो भी पोस्ट कुछ ज़्यादा ही लंबी न हो जायेगी, यही सोच कर आगे बढ़ रहा हूं। वैसे यह जो फैट और कोलेस्ट्रोल के नाम के आगे ज़ीरो ग्राम लिखने का चलन शुरू हो गया है ना, इस के बारे में फिर कभी लिखूंगा।


इस डिब्बे बंद जूस की पैकिंग पर यह घोषणा भी बेहद शानदार तरीके से की गई है कि इस जूस के एक पाव-किलो( 250मिलीलिटर) का गिलास पी लेने पर आप सारे दिन में उन पांच फलों एवं सब्जियों की सर्विंग्स (जिन की डाक्टर सलाह देते हैं)...में से एक सर्विंग हासिल कर लेते हो और यह गिलास पीने से आप सारे दिन की विटामिन-सी की सप्लाई प्राप्त कर लेते हो। इस के बारे में भी मेरे विचार अलग हैं.....(कहां राजा भोज, कहां गंगू तेली !)..क्या है ना, कहां वे ताज़े फल और सब्जियां ...और कहां ये डिब्बे में मिलने वाले जूस...........और जहां तक सारे दिन की विटामिन-सी की पूरे दिन की सप्लाई की बात है, उस बात में भी कुछ ज़्यादा वज़न लगा नहीं ...क्योंकि उस सप्लाई को प्राप्त करने के लिये इतने रूपये खर्च करने की क्या ज़रूरत है....वह तो कोई भी ताज़ा फल( संतरा, कीनू इत्यादि और यहां तक कि बहुत ही प्रचुर मात्रा में आंवले से भी मिल ही सकता है) ..बड़ी आसानी से दिला सकता है।


और हां, एक बात की तरफ़ और भी ध्यान दीजियेगा कि टैट्रा-पैक तो यह भी लिखा हुया है कि अगर आप को यह डिब्बा फूला हुया सा लगे तो इसे न खरीदें। वैसे उन्होंने इसे लिखवा कर अच्छा किया है।


सीधी सी बात है कि ताज़े फल का कोई सानी नहीं है.....हां,अगर आप किसी ऐसे टापू पर जाने का प्रोग्राम बना रहे हैं जहां पर ताज़े फल का जूस नहीं मिलेगा या फल ही न मिलेंगे, वहां पर आप इस डिब्बा-बंद जूस को ज़रूर ले कर जा सकते हैं। लेकिन, एक बात जो मैं अकसर बहुत बार कहता हूं और जो हम सब को हमेशा याद रखनी है , वह यही है कि ज़ूस से भी कहीं ज्यादा बेहतर होगा अगर हम ताज़े फलों को ही खा सकें....क्योंकि इन फलों में कुछ अन्य फायदेमंद इन्गर्डिऐन्ट्स भी हैं जो हमें केवल ताज़े फले खाने से ही प्राप्त हो सकते हैं .....वैसे एक बात और भी है कि इन फलों में तो कुछ ऐसी अद्भुत चीज़ें भी हैं जिन का राज़ इस प्रकृति ने अभी भी राज़ ही बना कर रखा हुया है।......अभी तो वैज्ञानिक इन चमत्कारी घटकों के बारे में कुछ पता ही नहीं लगा पाये हैं।


दो-चार दिन पहले मैं स्टेशन पर बैठा हुया था तो दो पुरूष आपस में बैठे प्लेटफार्म के बैंच पर बातें कर रहे थे...उन में से एक शायद किसी कोल्ड-ड्रिंक कंपनी में काम करने वाला था। जब दूसरे बंदे ने यह पूछा कि यार, वैसे पीछे बड़ा सुनने में आ रहा था कि इन ठंडे की बोतलों में कीटनाशक हैं और यह फलां-फलां बाबा जी अपने प्रवचनों में इन ठंडों की बड़ी क्लास लेते हैं तो उस कोल्ड-ड्रिंक कंपनी वाले ने इस पर कुछ इस तरह से प्रकाश डाल कर उस की ( साथ में मेरी भी !)…जिज्ञासा शांत कर डाली......................देख, भई, ये ठंडे तो बिकने ही हैं...चाहे कुछ भी हो जाये....कोई कुछ भी कहता रहे.......ठीक है , लोग खरीद कर ना भी पियेंगे, लेकिन विवाह-शादियों एवं अन्य पार्टियों में जहां ये फ्री में मिलते हैं....इन जगहों पर तो वे इन पर टूटने से बाज़ आयेंगे नहीं, तो फिर कंपनियों को टेंशन लेने की क्या ज़रूरत है...........इन पार्टियों वगैरह में तो एक एक बंदा चार-पांच गिलास तक गटक जाता है। बस, हमारी कंपनियों के लिये इतना ही काफी है............अब तुम्हें बताऊं यह जो सारी तरह की पब्लिसिटि इन ठंडों के बारे में पीछे हो रही थी ना, इस में कंपनियों की सेल में सिर्फ़ 3-4 प्रतिशत का ही फर्क पड़ा है, लेकिन इस से भी जूझने के लिये कंपनियों के पास बहुत से रास्ते हैं..........................


लेकिन अफसोस इन रास्तों के बारे में मैं कुछ ज़्यादा सुन नहीं पाया क्योंकि उसी समय प्लेटफार्म पर ऐंटर हो रही मेरी गाड़ी के शोर में उन दोनों की बातें मेरी ऑडिबल-रेंज से बाहर हो गईं।

4 comments:

दिनेशराय द्विवेदी said...

भाई, हमें तो कभी ये जूस का आइडिया नहीं पचा। जूस पी जाओ और फल के फाईबर को कूड़े के हवाले करो, ये कौन सी समझदारी है। फिर डिब्बे का क्या। वो गाना नहीं सुना आप ने- खाली की गारंटी दूंगा, भरे हुए की क्या गारंटी। डिब्बा ही चाहिए तो खाली खरीदो।

mamta said...

आँखें खोलने वाली पोस्ट। भाई कभी-कभार हम जूस तो पीते है पर इतनी सारी बातों पर ध्यान नही देते है।

Sanjeet Tripathi said...

जूस से याद आया, किडनी इन्फेक्शन वाल पेशेंट को जूस पीने से मना किया था एक विशेषज्ञ नें यह कहते हुए कि इससे शरीर में यूरिया की मात्रा बढ़ जाएगी और खतरा होगा इसलिए जू्स पीने की बजाय फल सीधे खाए जाएं बेहतर होगा!!

तो कृपया यह ज्ञानवर्धन करें कि क्या जूस में यूरिया की मात्रा ज्यादा होती है

राज भाटिय़ा said...

चोपडा जी,हम यह सब जानते हे फ़िर भी थोडा बहुत पीना ही पढ्ता हे,घर मे हो तो हम सिर्फ़ पानी ही पीते हे, बाहर इस लिये की या बीयर पियो वो भी यहा पानी की तरह हे,या कोक जिसे हम बिलकुल भी नही पीते, फ़िर कोक से अच्छा डिब्बे का जुस ही ठीक हे,
आप का बहुत बहुत धन्यवाद जानकारी देने का

गुरुवार, 3 जनवरी 2008

दोस्तो, मिठाइयों के ऊपर लगे चांदी के वर्क के बारे में आप क्या कहते हैं ?



चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी

दोस्तो, इस के बारे में मेरा तो यह दृढ़ विश्वास यही है कि कुछ कुछ केसों में तो ये और कुछ भी हो, चांदी तो हो नहीं सकती। जिस जमाने में पनीर, दूध, दही तो हमें शुद्ध मिलता नहीं, ऐसे में मिठाईयों के ऊपर शुद्ध चांदी के वर्क लगे होने की खुशफहमी पालना भी मेरी नज़र में मुनासिब नहीं है। तो दोस्तो, मैंने इस समस्या से जूझने का एक रास्ता निकाल लिया है-- वैसे तो हम लोग मिठाई कम ही खाते हैं, लेकिन अगर यह सो-काल्ड चांदी के वर्क वाली मिठाई खाने की नौबत आती भी है तो पहले तो मैं चाकू से उस के ऊपर वाली परत पूरी तरह से उतार देता हूं। दोस्तों, कुछ समय पहले मीडिया में भी इसे अच्छा कवर किया जाता रहा है कि मिलावट की बीमारी ने इस वर्क को भी नहीं बख्शा ....कई केसों में इसे एल्यूमीनियम का ही पाया गया है। अब आप यह सोचें कि अगर यह एल्यूमीनियम का वर्क हम अपने शरीर के सुपुर्द कर रहे हैं तो यह हमारे गुर्दों की सेहत के साथ क्या क्या खिलवाड़ न करता होगा। इस लिए,दोस्तो, चाहे यह मिठाई महंगी से महंगी दुकान से खरीदी हो, मैं तो इस वर्क को खाने का रिस्क कभी भी नहीं लेता। आप भी कृपया आगे से ऐसी मिठाईयां खाने से पहले इस छोटी सी बात का ध्यान रखिएगा---दोस्तो, वैसे ही हमारे चारों इतनी प्रदूषण --जी हां, सभी तरह का-- फैला हुया है , ऐसे में चांदी के वर्क के चक्कर में न ही पड़ें तो ठीक है। यह तो हुई,दोस्तो, इन वर्कों की बात, तो इन में इस्तेमाल रंगों एवं फ्लेवरों की बात कभी फिर करते हैं।
Good morning, friends !!

1 comments:

Raviratlami said...

अल्यूमिनियम से याददाश्त पर भी दुष्परभाव पड़ता है ऐसा मैंने भी कहीं पढ़ा था...