शनिवार, 23 अप्रैल 2022

बाग-बगीचों की सब से ज़्यादा ज़रूरत किसे?

सुबह सुबह निदा फ़ाज़ली साहब की बहुत सी अच्छी बातों में से एक इस वक्त याद आ रही है ...लगता है आज का दिन अच्छा बीतने वाला है ...

"बाग़ में जाने के भी आदाब हुआ करते हैं..

किसी तितली को न फूलों से उड़ाया जाए..."

बचपन में जहां रहते थे पास ही एक अस्पताल था...जिस के बगीचे में हम लोग अकसर शाम के वक्त कुछ न कुछ खेलने या यूं ही मस्ती करने जा पहुंचते, कुछ और नहीं करने को होता तो तितलियों के ही पीछे भागते रहते, अंधेरा होने पर जुगनूओं का इंतजा़र रहता  ...मज़ा आता होगा तभी तो वहां जाते थे, वरना कौन कहीं जाता है। बस, वहां एक नियम था जो लिखा भी रहता था कि फूल तोड़ना मना है। शायद तब से ही पहले तो डर की वजह से फिर धीरे धीरे जब फूलों-पेड़-पत्तों से मोहब्बत सी हो गई फिर तो तोड़ने का सवाल ही न था...मंदिर जाने से पहले कहींं से फूल तोड़ कर ले जाना या घर में पूजा करते वक्त फूल तोड़ कर प्रभु के सामने रखना, यह कभी हम से हुआ ही नहीं...बस यही अहसास रहा कि प्रभु की नेमत को पेड़ से तोड़ कर उसी के सामने रख देने से क्या हासिल... 



हम 31 मार्च के दिन ही फूल तोड़ते थे ...हमारे घर में फूलों के बहुत से पेड़ थे ...सैंकड़ों फूल लगते थे...किसी फूल को तोड़ने वक्त हमारी जान निकलती थी ...हां, ्र31 मार्च वाले दिन हमारी बड़ी बहन पचास या उस से ज़्यादा फूल तोड़ कर एक चारपाई पर सूई धागा ले कर बैठ जाती हमें साथ बिठा लेती...और हमें गुलाब के फूलों का एक हार गूंथ देती ...और किसी कागज़ में लपेट कर हमें थमा देती कि जब हेडमास्टर साहब तुम्हारा रिज़ल्ट सुनाएं तो उन के पास जा कर उन के गले में इसे डाल देना...और हम चौथी जमात तक यह करते रहे ...उसके बाद तो फूल तोड़ कर या खरीद कर हार बनाना तो बहुत दूर, हम ने तो अभी तक की ज़िंदगी में कभी किसी के लिए एक बुके तक भी नहीं खरीदा और न ही कभी खरीदने की तमन्ना ही है ...

बस, मैं जब लिखने बैठता हूं तो पता नहीं कहीं का कहीं निकल जाता हूं....ये सब बातें भई फिर कभी लिख लेना ...पहले जिस बात को लिखने की इतने अर्से से सोच रहे हो उसे लिख कर बात खत्म करो....बस, यूं ही घुमा फिरा कर बात क्याें करते हो, मेरे दिल से आवाज़ आ रही है...

हां, तो हुआ यूं कि मैं जिस अस्पताल में काम करता हूं वहां का गार्डन बहुत सुंदर है लेकिन वह खुलता साल में दो दिन ही है ...झंडे को जब फहराना होता है। मुझे इस बात का इल्म न था...जब मैं नया नया उस अस्पताल में आया तो एक दिन मैं उस का खुला गेट देख कर अंदर चला गया...लेकिन यह क्या, अभी तो मैंने सुंदर घास से नज़र ही न उठाई थी कि पीछे पीछे कोई सिक्योरिटी वाला आ गया ...आप अंदर नहीं जा सकते, बाहर आ जाइए। ठीक है, उस वक्त मैंने डाक्टरी सफेद चोला नहीं पहना था ...लेकिन इतनी बेरुखी सहने के बाद उस बदतमीज़ से सिक्योरिटी वाले से यह भी कहने की इच्छा नहीं हुई कि मैं वहीं पर काम करता हूं ..वैसे भी मुझे लगता है कि उस से भी वह टस से मस न होता ...और मुझे बाहर आना ही पड़ता...। उस बगीचे पर ताला ही लगा देखा है हमेशा। 

और जब अस्पताल के अंदर घुसते हैं तो मरीज़ और उन के तीमारदारों को यहां वहां बैंचों पर बैठे हुए या किसी कॉरीडोर में लगे बैंच पर लेट कर पीठ सीधी करते वक्त देखते हैं...इतने उदास चेहरे, इतने मायूस बच्चे, इतनी बुझी बुझी सी उम्मीद से बोझिल आंखें एक साथ देख कर कईं बार दिल हिल जाता है ...एक एक उदास चेहरे के लिए दुआएं ही निकलती हैं ...और यही लगता है कि बगीचे की उन को ही सब से ज़्यादा ज़रूरत है ..वे वहां पर लेटें, बैठें, आस का दामन पकड़े रहें ...जो भी दिल करें, वहीं बाग में करें ..क्योंकि रंग-बिरंगे फूल-पत्ते देख कर तनाव तो कम होता ही है बेशक, किसी भी शख्स का अक़ीदा भी पक्का होता है कि कुदरत साथ है तो कुछ भी मुमकिन है, यह अगर इतने अनेकों रंग-बिरंगे फूल पत्ते पैदा कर सकती है तो मरीज़ को टना-टन भी कर सकती है...और अगर मरीज़ भी कुछ वक्त वहां बिताए तो यह यकीनन उस के इलाज के लिए सोने पर सुहागे का काम करती है ...मेडीकल की किताबों में चाहे यह लिखा है या नहीं, मुझे नहीं पता ..लेकिन मैं तो आंखों-देखी और आप बीती ही लिख रहा हूं ...

जितने भी अस्पताल हैं उन के बाग मरीज़ों और तीमारदारों के लिए हर वक्त खुले होने चाहिए....मैं ऐसा सपना देखता हूं ...जब वहां कुदरत की गोद में बैठे बैठे थक जाएं तो उठ कर अपने बिस्तर पर जा कर लेट जाएं...यह भी अच्छा है ख़्वाब देखने में अभी कोई रोक-टोक नहीं है, नहीं तो मेरे जैसे बंदे को तो बहुत दिक्कत हो जाती ...

हम लोगों की उम्र इतनी हो गई है लेकिन जब भी बाग में जाते हैं कुछ न कुछ नया दिखता है, कोई नया फूल या नई बेल देखते ही मन झूम सा उठता है ...बिल्कुल सच बात रहा हूं ....उस दिन हम बाग में टहल रहे थे तो सुंदर सी बोगनविलिया की हैज देख कर बहुत खुसी हुई क्योंकि अकसर हम ने इस के पेड़ ही देखे हैं ...

इस के साथ एक फोटो लेने के लिए इसे राज़ी कर रहा हूं ...

जॉगर्स पार्क का एक नज़ारा 

पेड़-पौधे, पत्ते हरियाली ....यह टॉपिक मेरे लिए ऐसा है कि मैं इस पर हमेशा लिखता रह सकता हूं जैसे वे हमें खुशियां देते नहीं थकते, मैं इन के बारे में लिखते नहीं थकता....साफ साफ कहूं तो यह डैंटिस्ट्री विस्ट्री मुझे कभी करनी ही न थी, मुझे बॉटनी ही पढ़नी थी और अच्छे से पढ़नी थी क्योंकि मुझे फूल-पेड़ शुरू ही से अच्छे लगते थे ..लेकिन वही थ्री -इडिएट्स वाली कहानी की स्क्रिप्ट 40-42 बरस पहले हमारे घर में भी तैयार हो रही थी ..पिता जी को दफ्तर में खन्ना साहब ने बता दिया कि उन का बेटा बीडीएस कर रहा है, और यह कोर्स करने पर नौकरी मिल जाती है ....बस, फिर क्या था, हम भी चुपचाप भर्ती हो गए...

राजेश खन्ना गार्डन, खार (वेस्ट) 

बहुत से बाग बगीचों में प्रवेश शुल्क है ... यह नहीं होना चाहिए, सरकार को कहीं और से टैक्स वगैरा बढ़ा कर यह काम कर लेना चाहिए..बाग बगीचों के अंदर दाखिला तो खुल्लम-खुल्ला होना चाहिए...जब किसी का दिल करे, कोई बोझ महसूस हो...तो इन कुदरती सेहत केन्द्रों पर पहुंच कर उलझे हुए दिल के तार सुलझा ले, ताज़गी महसूस करे, फूल-पत्तियों को देख कर कुदरत की कभी न समझ आने वाली संभावनाओं पर हैरान हो ले, जीने की तमन्ना अच्छे से जगा ले ...और परेशान रूहें वहां जाकर सुकून पा सकें....ये सब किताबी बातें नहीं हैं....ऐसा होता है ..हमें बस लगता ही है कि बड़े बड़े अस्पताल, वहां पर रखे करोड़ों के औज़ार और बड़ी बड़ी डिग्रीयों वाले डाक्टर ही हमें सेहतमंद रख सकते हैं.....कुछ हद तक ही यह ठीक है...वे हमें रास्ता दिखा सकते हैं....उस पर चलना या न चलना तो अपने हाथ ही में है ...


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1 टिप्पणी:

  1. Ever since I stepped into blogging, I always get this feel as if I am writing letters to the people in my life. Just now, my elder sister after reading this post has sent me a whatsapp message which i want to put here ... "very refreshing post. Aisa lag raha hai jaise bagh mein hi masti kar rahe hain."

    Her words matter to me a lot! She is like my younger mother, as I sometimes tease her. She is a very dedicated professor in a high-rated university and never goes to class without reading thorougly even after teaching for decades.

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