मुझे कईं बार यह ख्याल आता है कि आदमी का क़द जितना बड़ा हो जाता है, उतना ही वह दुनिया से कटना शुरू हो जाता है...कद़ से मतलब यहां है रुतबा...इतने इतने नामचीन लोग हैं, कभी आप को फुटपाथ पर थोड़े न दिखेंगे ..हां, एक्टिंग करते वक्त आप उन्हें कभी फुटपाथ पर देख लें तो बात और है ...लेकिन एक्टिंग तो ठहरी एक्टिंग ...और असल ज़िंदगी की तो बात ही क्या है...
मेरी ख़्याल में किसी की शहर की ज़िंदगी उस के गली, कूचे, बाज़ारों, फुटपाथों पर देखी जा सकती है ...और बंबई जैसी जगह हो तो आप इस के रास्तों पर, फुटपाथों पर, लोकल स्टेशनों पर पूरे हिंदोस्तान के दीदार कर सकते हैं ..और सच में ऐसा ही है ...सब कुछ रास्तों पर ही दिखता है ...बहुत से सबक वहीं से सीखते हैं, इन्हीं रास्तों पर चलते हुए हमारी सोई हुए संवेदनाएं जब उठने लगती हैं पता ही नहीं चलता... वह ठीक है कि हम इतने बड़े समाज के हाशिया पर जी रहे लोगों के लिए कर कुछ ख़ास नहीं पाते ...लेकिन दुआ तो कर ही सकते हैं कि सब के दिन पलट जाएं...बदल जाएं, खुशनुमा हो जाएं...
मुझे अभी लिखते लिखते ख्याल आ रहा है कि वैसे लिखने-विखने को मेरे पास है कुछ खास नहीं ...मुझे तो सच में लगता है कि मैं एक फ्रॉडिया किस्म का ही लेखक हूं, अगर अपने आप को लेखक कहूं भी तो .....क्योंकि मेरे पास बातें कुछ खास है नहीं कहने को, बस वही बातें इधर उधर से पकड़ कर जब लिख देता हूं मन हल्का हो जाता है ...हां, अभी मैं जिस विषय पर लिख रहा हूं तो मुझे याद आ गया कि इस पर तो मैं शायद एक डेढ़ साल पहले कल्याण में रहते हुए भी कुछ तो लिख चुका था...ब्लॉग में सर्च किया तो मिल गया...लेकिन मुझे बिल्कुल एक हल्का सा अंदाज़ा ही होता है कि मैंने उसमें क्या लिखा होगाा....लेकिन मेरी कोशिश यही रहती है कि मैं उसे लिख कर कभी पढ़ूं नहीं....और खास कर के अगर मुझे अपने किसी पुराने आलेख का लिंक नए आलेख में साझा करना हो...उस हालत में तो बिल्कुल नहीं। क्योंकि मैं लिखते वक्त ज़्यादा सोचता नहीं ...कुछ तो सोचता ही हूं ..क्या करूं बंदे की जात ही ऐसी होती है ..वरना लिखने को तो इतना कुछ है कि ...खैर, मैं पुराने लेख के लिंक शेयर करते वक्त इसलिए भी उन्हें नहीं पढ़ता क्योंकि मुझे सच में पता नहीं होता कि बरसों पहले मनोस्थिति कैसी रही होगी, किस घड़ी में क्या लिखा गया...बहुत सी व्यक्तिगत बातें भी लिख देता हूं, इसलिए कभी बाद में पढऩे के बाद मुझे थोड़ा असहज भी महसूस हो सकता है, इसलिए फिर से पढ़ने के लटंके में ही नहीं पड़ता......बस, इतना इत्मीनान तो होता है कि जितना लिखा होगा सच ही लिखा होगा...शायद कहीं कुछ कड़वा सच छुपा लिया हो, हो सकता ही नहीं, होता भी है.....क्या करें, कुछ भी परोसते वक्त स्वाद का भी तो ख्याल रखना पड़ता है ...
दरअसल बात यह है कि मैं अकसर फुटपाथों पर बैठे जब छोटे छोटे दुकानदार देखता हूं तो मैं बहुत हैरान होता हूं ....मैं अकसर यही सोचने लगता हूं कि यार, ये कितना कमा लेते होंगे, फिर भी सामान्य ढंग से रह रहे हैं, एक दूसरे के साथ प्यार-मोहब्बत से पेश आते हैं ...इन लोगों के साथ मोल-भाव कोई क्या करेगा, बड़े बड़े स्टोर्ज़ ने, बड़ी बड़ी ऐप्स ने तो सच में इन की पीठ पर ऐसी चोट मारी है कि वे किस के आगे फरियाद करें...
इसे भी ज़रुर पढ़िएगा कभी ...आम, खरबूज़ा, तरबूज फीका है, अंगूर खट्टे हैं..
जब कभी किसी फुटपाथ पर आप किसी बहुत ही बुज़ुर्ग औरत को सब्जी बेचते देखते हो और उस के अच्छे बर्ताव को देखते हो तो अच्छा लगता है...फिर किसी दिन वह अपनी सब्जियों के बीच में थकी-मांदी सी लेटी हुई दिखती है तो चिंता होती है ...दिल से उसकी सलामती की दुआ निकलती है ...अगले दिन वह अपने टिफिन से इत्मीनान से रोटी-दाल, सब्जी खाती दिखती है तो थोड़ा इत्मीनान होता है ..जब हम कुछ फुटपाथों से आए दिन गुज़रते हैं तो हम वहां पर काम कर रहे लोगों को पहचानने लगते हैं ...
मुुझे नहीं पता कि कितने लोग मेरी इस बात से रिलेट कर पाएंगे ...क्योंकि यह एक दिन का काम नहीं है कि हम फुटपाथ पर हो कर आ गए, बाज़ार टहल आए....सोचता हूं कि शायद ये आदतें जवानी से ही नहीं, बचपन से ही पड़ जाती होगी....रोज़ बहुत से लोगों को देखना, उनसे बतियाना, उन को समझना....होता क्या है, यह करते करते एक वक्त ऐसा आ जाता है कि आप को कोई भी बंदा बुरा या गलत लगता ही नहीं ...सब कुछ चंगा ही चंगा लगने लगता है ...किसी की ज़िंदगी में क्या चल रहा है, हम आसानी से उस की कल्पना कर सकते हैं ...
दादर स्टेशन के बाहर सैंकड़ों दुकानदार फुटपाथ पर अपनी दाल-रोटी कमाने का जुगा़ड़ करते हैं...मैं यह ढंके की चोट पर कह सकता हूं कि ये जो लोग दिन में हर चीज़ की शिकायत ही करते हैं ...अगर वे कुछ दिन इन को आते जाते देख लें न तो ये शिकायत करना तो दूर, मुंह खोलने से पहले कईं बार सोचने लगेंगे। इतनी मुफ़लसी, छोटे छोटे बच्चे...औरतें बेचारी कुपोषित ही नहीं, अनपोषित ही समझिए...मां ही नहीं कुछ खा रही तो गोद उठाए शिशु को कहां से कुछ मिलेगा...पसीने से लथपथ कपड़े...किसी का मर्द उस के सामान के पीछे ही लेटा पड़ा है ...ज़रूरी नहीं कि इस तरह से सोया हुआ हर बंदा बेवड़ा ही हो ..वह बीमार भी हो सकता है, काम धंधा न होने की वजह से परेशान भी हो सकता है ..कुछ भी ....पैसे की कमी भी तो सब से बड़ी बीमारी है ...
एक बुज़ुर्ग 70-75 साल की औरत को अकसर देखता हूं ...उस के पास ताड़गोला रहता है, मुझे यहां मुंबई में रहते हुए अच्छा लगने लगा है...जब भी उस के पास ताड़गोला दिखता है, ज़रूर लेता हूं ...उस के पास ही उस का 10-12 साल का पोता भी बैठा होता है जो या तो मोबाइल पर लगा रहता है ..और या फिर दादी को कुछ दिलाने के लिए तंग करता दिखता है ...यह कोई बड़ी बात नहीं है, वह फुटपाथ पर बैठा है तो मैं उस के बारे में लिखने की गुस्ताखी कर रहा हूं ...लेकिन घरों में आज कल कुछ अलग नहीं हो रहा...खैर, उस बुज़ुर्ग औरत की भी दरियादिली मैं देखता हूं ...कभी उस को पाव-भाजी, कभी पिज़्जा, कभी मैक्केन जैसे पैकेट दिलाती है ...कभी उसे मोबाइल न देखने के लिए कहती है तो वह चिल्लाने लगता है ...सुबह से शाम तक ऐसे ही बैठे रहना, कितना सब्र रखना पड़ता होगा..
फनस... लाजवाब स्वाद!! |
ताज़ी अंजीर भी खा ली ....😂...अब बचा क्या!! |
अंजीर तो मैंने कुछ शायद पहली बार दो चार दिन पहली ही खाई ...हमें तो यही लगता था कि अंजीर सूखी ही होती है ...जो कभी कभी सुबह स्मूदी में पड़ी हमें नसीब हो जाती थी ...लेकिन कभी नहीं सोचा था कि यह ताज़ी भी मिलती है ....बस, वह भी ऐसे बाज़ार में आते जाते ही देखा ....अब खरीद तो ली, लेकिन यह समझ में नहीं आ रहा था कि इसे छिलके के साथ खाना है या छिलका उतार कर ..परसों अपने एक डाक्टर साथी से पूछा कि इस का छिलका भी खा लेते हैं तो उन्होंने कहा कि हां, खाते हैं ...
बातों-बातों में कितनी अच्छी-अच्छी बातें निकल आती हैं, यह हर पढ़ने वाला अच्छे से जान सकता है। सच कपोल कल्पित के बजाय वास्तविक धरा पर चलना हर लिहाज़ से बेहतर होता है।
जवाब देंहटाएंफनस के बारे में जरूर अभी लिंक पर जाकर देखती हूँ
बहुत अच्छी प्रस्तुति है
सर, बहुत ही सरल और सहज भाषा में समाज को बयां कर देते हैं आप.. ताड़गोले किसी दिन ट्राई करता हूं.. आप की बातों से लग रहा कि अच्छा होता होगा बहुत
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