शनिवार, 16 अगस्त 2014

पानमसाला जिन की जान नहीं भी ले पाता....

कुछ दिन पहले मेरे पास एक आदमी आया --कहने लगा कि उस की बीवी को मुंह में कुछ शिकायत है। मैंने कहा- ठीक है, ले आओ कभी भी। झिझकते हुए कहने लगा कि उसे पानमसाला खाने की लत है और आप उसे मत झिड़कियेगा, आप ने जो कहना होगा बाद में मुझे कह लीजिएगा। वह कमजोर दिल वाली है। मैंने इस तरह की रिक्वेस्ट पहली बार सुन रहा था। मैंने कहा --नहीं, नहीं, तुम चिंता न करो.....मैं तो उसे क्या तुम्हें भी कुछ नहीं कहूंगा। अब कोई क्या खा-पी रहा है, उस पर मेरा कोई कानूनी नियंत्रण थोड़े ही ना है।

बहरहाल, दो तीन दिन पहले वह मेरे पास अपनी बीवी को ले आया--- ३३-३४ साल की उम्र.. मुंह खुल नहीं रहा था, बिल्कुल भी नहीं, बस इतना कि दूध-चाय में बिस्कुट डुबो कर अंदर डाल ले। दुःख होता है इस तरह के मरीज देख कर......वैसे सेहत बिल्कुल ठीक ठाक और इतनी छोटी उम्र में ऐसा लफड़ा।

फिर उसने मेरे सामने अपने पुराने पेपर कर दिए.....जिस से मुझे पता चला कि २००७ में भी उसने कुछ इलाज तो लिया था। वह बताने लगी कि उस समय मेरे मुंह में तीन अंगुली चली जाती थी और अब एक अंगुली भी नहीं जा पाती। मुंह के लगभग ना के बराबर खुलने की बात तो मैं पहले ही कर चुका हूं।

इलाज के नाम पर वही मुंह में घाव के ऊपर लगाने वाली कुछ दवाईयां, गुब्बारे फुलाने वाली एक्सरसाईज़........कुछ नहीं होता वोता इन सब से.......अगर ना तो पानमसाला ही छोड़ा जाए और न ही अगर किसी ढंग की जगह से --मेरे कहने का मतलब है ओरल सर्जन से इस का उपचार न करवाया जाए....कुछ नहीं होता इस तरह के घरेलू उपायों से।

मुझे अफसोस इस बात का हुआ कि सात वर्ष थे इस के पास --- कितना समय नष्ट हो गया, न तो इसने पानमसाला ही छोड़ा और न ही इस ही यह किसी विशेषज्ञ से इलाज करवा पाई। अब तीन दिन पहले उसने पानमसाला छोड़ दिया है।
उस के बाद वह फिर २००९ में भी किसी डाक्टर के पास गई जिसने उसे एक डैंटल कालेज में रेफर किया , लेकिन किसी कारण वश वह वहां पर भी न गई।

ऐसे केस मैं देखता हूं कि मुझे लगता है कि मरीज की गलती तो है ही कि वह यह मसाला-वाला छोड़ नहीं रहा, डाक्टर का भी क्या हुनर कि वह एक इंसान का इतना ब्रेन-वॉश न कर पाए कि उसे मसाले से नफ़रत हो जाए। यहां चिकित्सक भी फेल हुआ..।

मैंने जब पूछा कि कब से खा रही हैं मसाला......तो उसने जो बताया वह संदेश आप सब को भी जानने की ज़रूरत है कि औरतों को किस किस हालात में यह लत लग जाती है ताकि आप औरों को भी सचेत कर सकें।

उसने बताया कि शादी से पहले उसने कभी कुछ इस तरह का नहीं खाया.......२१ वर्ष की उम्र में जब वह पेट से थी और गांव में रहती थी तो उसे थोड़ी बेचैनी होने लगती तो बस उसे पानमसाले की आदत पड़ गई। लेकिन कुछ महीनों के बाद जब उस का पहला बेटा हुआ तो उसने फिर यह खाना बंद कर दिया।

दो साल बाद जब वह फिर से उम्मीद से हुई तो फिर उसे पानमसाले की आदत पड़ गई......लेकिन फिर दूसरा बच्चे होने पर इसे छोड़ दिया। लेकिन तीसरा बच्चा होने पर फिर उस के बाद वह इस आदत को छोड़ न पाई और निरंतर ५-६ पाउच पानमसाले के चबाती रही । ऐसे ही तीन चार साल चबाने के बाद जब मुंह खुलना कम होने लगा तो फिर दंत चिकित्सक के पास पहुंच गई। बाकी की बात तो मैंने पहले आप को सुना ही दी है। अब इस का पूरा इलाज होगा किसी ओरल सर्जन की देख रेख में।

अब पढ़ने वाले यह मत सोच लें कि यह तो ६ पैकेट खाती रही, हम तो चार ही खाते हैं, इस ने तो इतने वर्ष खाए, हम ने तो ३-४ वर्ष ही खाए हैं, इसलिए हम तो सुरक्षित हैं, नहीं ऐसा नहीं है,  आज ही कहीं नोट कर लें कि गुटखा-पानमसाला खाने वाला कोई भी सुरक्षित नहीं है। हां, अगर आप अपनी किस्मत अजमाने के चक्कर में हैं, तो फिर आप को कौन रोक सकता है।

इस पोस्ट से मैं एक बात और रेखांकित करना चाहता हूं कि इस तरह की तकलीफ जैसी की इस औरत में पाई गई (सब-म्यूक्स फाईब्रोसिस) --यह कैंसर की पूर्व-अवस्था है....और ऐसे हर केस में कैंसर बनेगा, यह नहीं है, लेकिन किस में बनेगा, यह पहले से कोई नहीं बता सकता। वैसे भी अगर कैंसर डिवेल्प होने से ऐसे मरीज बच भी जाएं तो क्या इतना लंबा और महंगा इलाज, मुंह में बार बार तरह तरह के टीके लगवाने, मुंह के अंदर चमड़े की तरह जुड़ चुकी मांसपेशियों को खोलने के लिए किए जाने वाले आप्रेशन........क्या हर कोई करवा सकता है, क्या हर एक के पास इतना पैसा है या विशेषज्ञ इतनी आसानी से मिल जाते हैं ? और तौ और खाने पीने की बेइंतहा तकलीफ़, दांत साफ़ न करने का दुःख, आप बस एक क्लपना सी करिए की मुंह न खुलने पर किसी को कैसा लगता होगा, और कौन कौन से काम वह बंदा करने में असमर्थ होगा, आप सोच कर ही कांप उठेंगे। है कि नहीं?

लिखता रहता हूं इस तरह के ज़हर के बारे में क्योंकि रोज़ इस ज़हर से होने वाली तकलीफ़ों से लोगों को तड़फते देखता हूं.........इतना तो आप मेरा ब्लॉग देख पढ़ कर समझ ही चुके होंगे कि इस में आप किसी भी पेज को खोल लें, केवल सच और सच के सिवा कुछ भी नहीं लिखा, मुझे क्या करना है किसी भी बात को बढ़ा चढ़ा कर लिखने से, मैं कौन सा आप से परामर्श फीस ले रहा हूं.  केवल जो सच्चाई है, जो सीखा है उसे आप के साथ साझा करने आ जाता हूं, मानो या ना मानो, जैसी आप की खुशी।

एक बात और ......पिछले सप्ताह एक आदमी आया........पानमसाला उसने १९९५ में छोड़ दिया था जब उस का मुंह खुलना कम हुआ....... ऐसा उसने मेरे को बताया, अब उस के मुंह में गाल के अंदर एक घाव था, मुझे वह घाव अजीब सा लगा, मैंने कहा कि इस का टुकड़ा लेकर टेस्ट करना होगा। कहने लगा कि वह तो उसने करवा लिया है सरकारी कालेज से ...रिपोर्ट लेकर आया तो मुझे बहुत दुःख हुआ.......वह घाव मुंह के कैंसर में बदल चुका था. मैंने उसी दिन उसे मुंबई के टाटा अस्पताल में जाने की सलाह दी, लेकिन वह आज तक लौट कर नहीं आया।

मुझे कईं बार लगता है कि ये तंबाकू, गुटखा, पानमसाला भी एक बहुत बड़े आतंकवाद का हिस्सा है, लगभग हर कोई खाए जा रहा है, इस उम्मीद के साथ कि इस के दुष्परिणाम तो दूसरों में होंगे, उसे तो कुछ नहीं होगा........अगर ऐसा कोई विचार भी मन में आ रहा है या कभी भी आया हो मैं अपने इस विषय पर लिखे अन्य लेखों के लिंक्स यहां लगा रहा हूं........हो सके तो नज़र मार लीजिएगा।

और एक बात...ऐसे केस इक्का-दुक्का नहीं हैं दोस्तो, आते ही रहते हैं, रोज़ ही आते हैं, इसलिए अगर पान-पानमसाला, गुटखा, तंबाकू-- खाने,पीने,चूसने,चबाने,दबाने के बावजूद भी अभी तक बचे हुए हैं तो तुंरत इसे थूक डालिए और किसी अनुभवी दंत चिकित्सक से अपने मुंह की जांच करवाईए........फायदे में रहेंगे। लाख टके की बात बिल्कुल मुफ्त में बता रहा हूं।

चमड़ी को चमड़ा बनने से पहले --- पानमसाले को ...
मुंह न खोल पाना एक गंभीर समस्या 
दो वर्षों में भी अपना काम कर लेता है गुटखा..
मीडिया डाक्टर: गुटखा छोड़ने का एक जानलेवा ...
काश, किसी तरह भी इस लत को लात पड़ जाये
मीडिया डाक्टर: तंबाकू --- एक-दो किस्से ये भी ...

सी टी स्कैन का दिन प्रतिदिन बढ़ता धंधा

बीबीसी की यह न्यूज़-रिपोर्ट पढ़ कर कुछ ज़्यादा अचंभा नहीं हुआ कि वहां पर २०१२ में बच्चों में किए जाने वाले सी टी स्कैनों की संख्या दोगुनी हो कर एक लाख तक पहुंच गई।

रिपोर्ट पढ़ कर और तो कुछ ज़्यादा आम बंदे को समझ नहीं आयेगा लेकिन वह इतना तो ज़रूर समझ ही जायेगा कि कुछ न कुछ तो लफड़ा है ही।

Sharp rise in CT scans in children and adults

समझ न आने का कारण है कि रिपोर्ट में कुछ कह रहे हैं कि यह ठीक नहीं है, कुछ कह रहे हैं कि नहीं जिन बच्चों को ज़रूरत थी उन्हीं का ही सी टी स्कैन करवाया गया है, खिचड़ी सी बनी हुई है।

लेिकन एक बात जो सब को अच्छे से समझने की ज़रूरत है कि बिना वजह से करवाए गये सी टी स्कैन का वैसे तो हर एक को ही नुकसान होता है, लेकिन बच्चों को इस से होने वाले नुकसान का सब से ज़्यादा अंदेशा रहता है क्योंकि उन का जीवन काल अभी बहुत लंबा पड़ा होता है।

इस रिपोर्ट में एक २०१२ की स्टडी का भी उल्लेख है जिसमें यह पाया गया कि अगर बच्चों के सी टी स्कैन बार बार किए जाएं (१० या उस से अधिक) तो उन में रक्त  एवं  दिमाग का कैंसर होने का रिस्क तिगुना हो जाता है।

अब सोचने वाली बात यह है कि यह पढ़ कर सभी मां बाप कहेंगे कि हमें पता कैसे चले कि डाक्टर जो सी टी स्कैन के लिए लिख रहा है, उस जांच की मांग उचित है या नहीं। वैसे भी बच्चा बीमार होने पर मां-बाप अपनी सुध बुध सी खोए रहते हैं और ऐसे में यह कहां से पता चले कि सीटी स्कैन करवाना उचित है कि नहीं, इस की ज़रूरत है भी कि नहीं।

बिल्कुल सही बात है यह निर्णय मां-बाप के लिए लेना मुमकिन बिल्कुल भी नहीं है।

लेकिन एक बात तो मां-बाप कर ही सकते हैं कि छोटी मोटी तकलीफ़ों के लिए बच्चे को बड़े से बड़े विशेषज्ञ के पास या बड़े कार्पोरेट अस्पतालों में लेकर ही न जाएं, सब से पहले अपने पड़ोस के क्वालीफाइड फैमली डाक्टर पर ही भरोसा रखें, यकीनन वह अधिकतर बीमारियों को ठीक करने में सक्षम है। अगर किसी बड़े टेस्ट की ज़रूरत होगी तो वह बता ही देगा।

और मुझे ऐसा लगता है कि यह मंहगे महंगे टेस्ट अगर किसी ने लिखे भी हैं, तो भी अगर समय की कोई दिक्कत नहीं है तो भी किसी दूसरे डाक्टर से परामर्श कर ही लेना चाहिए।

वैसे यह सब कुछ कर पाना क्या उतना ही आसान है जितनी आसानी से मैं लिख पा रहा हूं। बहुत मुश्किल है मां -बाप के लिए डाक्टर के कहे पर प्रश्नचिंह लगाना.......बहुत ही कठिन काम है।

यू के की बात तो हमने कर ली, लेकिन अपने यहां क्या हो रहा है, रोज़ हम लोग अखबारों में देखते हैं, टीवी पर सुनते हैं। कुछ कुछ गोरखधंधे तो चल ही रहे हैं।

एक बात जो मैंने नोटिस की है कि भारत में लोग पहले किसी गांव के नीम-हकीम झोला छाप के पास जाते हैं जिसने सीटी स्कैन या एमआरआई का बस नाम सुना हुआ है, बस वह हर सिरदर्द के मरीज़ को सीटी स्कैन और हर पीठ दर्द के मरीज़ को एमआरआई करवाने की सलाह दे देता है। इन नीम हकीमों तक ने भी सैटिंग कर रखी होती है...... और यह सैटिंग ज़्यादा पुख्ता किस्म की होती है। समझ गये ना आप?

अब अगर तो यह मरीज़ किसी सही डाक्टर के हाथ पड़ जाता है तो वह उसे समझा-बुझा कर उस की सेहत और पैसा बरबाद होने से बचा लेता है, वरना तो......।

बीबीसी की इसी रिपोर्ट में आप पाएंगे कि यह मांग की जा रही है वहां यूके में किस सीटीस्कैन सैंटर ने वर्ष में कितने सीटीस्कैन किए और मरीज़ों की एक्सरे किरणों की कितनी डोज़ दे कर ये सीटीस्कैन किए जा रहे हैं, इस की पूर्ण जानकारी सरकार को उपलब्ध करवाई जाए। इस तरह के उपाय क्या भारत में भी शुरू नहीं किये जा सकते है या अगर शुरू हो भी गये तो इन का बेवजह किए जाने वाले सीटी स्कैनों की निरंतर बढ़ रही संख्या पर क्या प्रभाव पड़ेगा, यह भी एक प्रश्न ही है।

अंत में बस यही बात समझ में आ रही है कि अपने फैमिली फ़िज़िशियन पर भी हम लोग भरोसा करें......... और महंगे टैस्ट करवाने के लिए कहे जाने पर.....जिन के बार बार करवाने से नुकसान भी हो सकता है----ऐसे केस में हमें दूसरे चिकित्सक से ओपिनियन लेने में नहीं झिझकना चाहिए। यह नहीं कि दूसरे डाक्टर की फीस २०० रूपये है और यह टैस्ट तो ८०० रूपये में हो जायेगा, बात पैसे की नहीं है, बात सेहत की सुरक्षा की है कि बिना वजह एक्सरे किरणें शरीर में जा कर इक्ट्ठी न हो पाएं, किसी तरह की जटिलता न पैदा कर दें।

कुछ अरसा पहले भी मैंने इस विषय पर कुछ लिखा था, ये पड़े हैं वे लिंक्स........

सी.टी स्कैन से भी होता है ओवर-एक्सपोज़र
मीडिया डाक्टर: ओव्हर-डॉयग्नोसिस से ओव्हर ...

शुक्रवार, 15 अगस्त 2014

पायरिया का इलाज

आज मैं नेट पर घूमते हुए एक सेहत से संबंधित साइट पर पहुंच गया....वहां एक लिंक दिखा कि पायरिया का इलाज कैसे करें.....मैंने सोचा देखते हैं क्या लिखा है, उत्सुकता हुई।

मैं उस साइट पर पायरिया के बारे में अजीब अजीब बातें पढ़ कर हैरान-परेशान हो गया। सब कुछ गलत लिखा हुआ था। पहले तो लिखा था कि आप नमक, तेल और हल्दी बस एक दिन के इस्तेमाल कर लें, पायरिया खत्म हो जायेगा। और साफ साफ लिखा था कि अगर यह काम तीन दिन कर लिया तो समझो पायरिया सारी ज़िंदगी के लिए भाग जाएगा।
और भी अजीब अजीब सी बातें....... कि पायरिया ठीक करने के लिए तंबाकू लेकर उसे जलाया जाए, फिर उसे मसूड़ों पर लगाया जाए।

मैं जानबूझ कर उस वेबसाइट का लिंक यहां नहीं दे रहा..... ठीक नहीं लगेगा.......पर केवल यह संदेश देना चाहता हूं कि िजस का काम उसी को साजे।

हिंदी ऑनलाइन लेखन बड़ी संवेदनशील सा विषय है। इसलिए अनुरोध है कि हम जिस क्षेत्र से जुड़ें हैं, जो काम करते करते हमारे बाल पक गये, अगर हम उन्हीं विषयों के बारे में लिखेंगे तो पढ़ने वाले को तो लाभ होगा ही, हमारी विश्वसनीयता भी बढ़ेगी।

यह भी ज़रूरी नहीं कि हम अपने विषय में बिल्कुल परफैक्ट ही हों तभी लिखें, नहीं.......... जो कुछ भी ठीक तरह से जानते हैं, बस उसे ही लिख कर अगली पीढ़ियों के लिए नेट पर सहेज कर रख दें तो बढ़िया है। वैसे तो हम किसी भी विषय पर लिखने के लिए स्वतंत्र हैं, लेकिन अगर हम अपने विषय तक ही सीमित रहेंगे तो बेहतर होगा....वैसे नेट से कुछ भी ढूंढ-ढांढ कर कापी-पेस्ट करना कौन सा मुश्किल काम है ...लेकिन ना ही तो यह चलता है और वैसे भी ऐसा करने की क्या मारा-मारी पड़ी है।

कहानीकार हैं तो कहानियों से ही पाठकों को गुदगुदाएं, व्यंग्यकार हमें अपनी रचनाओं से लोटपोट करते हैं, कवि बंधु कविताए, तकनीकी विशेषज्ञ अपने तकनीकी विषयों पर लिखें.........ऐसे ही जो भी लोग जो काम कर रहे हैं या जिस क्षेत्र से जुड़े हैं, जब वे उस विषय के बारे में लिखते हैं तो सहजता से यह काम कर पाते हैं।

वैसे ये मेरे विचार हैं, बिल्कुल फिजूल भी हो सकते हैं, हर बंदा अपनी कलम का राजा है, जो चाहे लिखे........कौन किसे रोक सकता है लेकिन कईं बार गुमराह करने वाली सामग्री दिख जाती है तो बहुत दुःख होता है जैसा कि मैंने पायरिया के इलाज के बारे में आज नेट पर जो देखा। जिस के बारे में अच्छे से पता हो, जिस का पूरा ज्ञान हो, उसी के बारे में लिखा जाए और विशेषकर जब यह मामला लोगों की सेहत का हो तो और भी सचेत रहने की ज़रूरत है.....क्योंकि जिस तरह से मैंने उस पोस्ट पर कमैंट देखे, आठ दस, मुझे और भी दुःख हुआ ...सबने लिखा था...बड़ी उपयोगा पोस्ट.. बड़ी अच्छी जानकारी।

चलिए, इस टापिक को इधर ही विराम दें, और पायरिया के बारे में आप सब को हिंदी के कुछ अच्छे लेखों का लिंक देकर आप से विदा लूं........

मीडिया डाक्टर: मसूड़ों से खून निकलना.....कुछ 
बहुत ही ज़्यादा आम है मसूड़ों से खून आना
मीडिया डाक्टर: पान से भी होता है पायरिया
यह रहा टुथपेस्ट/टुथपावडर का कोरा सच......भाग II

मोटापे से बढ़ जाता है दस तरह के कैंसर होने का रिस्क

यह तो अब लोग जान ही गये हैं कि मोटापे से अन्य तकलीफ़ों --जैसे कि मधुमेह (शक्कर रोग, शूगर), हाई-बल्ड प्रैशर (उचित रक्त चाप), जोड़ों की तकलीफ़ और कैंसर जैसी बीमारियों का खतरा बढ़ जाता है।

एक वैज्ञानिक स्टडी जो कि ५० लाख लोगों पर की गईं, अब उस से भी यही निष्कर्ष निकला है कि मोटापे का मतलब कि कैंसर होने का ज़्यादा रिस्क.......इस की विस्तृत जानकारी आप इस लिंक से पा सकते हैं...... Being overweight or obese linked to 10 common cancers.

चलिए, थोड़ी सी बात करते हैं मोटापे को कंट्रोल करने की। वैसे तो मैं इस के लिए बात करने के लिए कोई ज़्यादा बढ़िया रोल-माडल नहीं हूं ..क्योंकि मेरा अपना वज़न भी मेरे आदर्श वजन से १०-१५ किलो ज्यादा ही है......कल ही करवाया है यह ९२ किलो आया है।

लेकिन फिर भी जब मैं अपने खाने पीने पर कंट्रोल करता हूं तो एक-दो महीने में ही दो एक किलो वजन कम हो जाता है, लेकिन बहुत बार मैं उस रूटीन पर टिक नहीं पाता......

चलिए जिन बातों को मैंने वजन को कंट्रोल करने के लिए बहुत लाभदायक पाया है, उन की चर्चा ही कर लेते हैं....

  • चाय, दूध, लस्सी को बिना चीनी के फीका पीना........ इस से चीनी की मात्रा काफ़ी कम हो जाती है। कोल्ड ड्रिक्स बिल्कुल नहीं और बाज़ार से मिलने वाले बोतलबंद ज्यूस भी बहुत कम.....सारे साल में एक-दो बार।
  • नाश्ते में तले परांठे बिल्कुल बंद.......नहीं तो कभी १५ दिन या एक महीने में एक बार ले लिए तो ले लिये। 
  • जंक फूड पर टोटल नियंत्रण -- मैं यह काम आराम से कर लेता हूं। 
  • बिस्कुट -- भी ब्रिटानिया के मैरी जैसे ---हल्के मीठे वाले ज़्यादा ठीक रहते हैं। 
  • और रोज़ाना शारीरिक परिश्रम...... पैदल टहलना, साईकिल चलाना या जो भी आप अपनी पसंद का करना चाहें। 
ये छोटी छोटी बातें दिखती हैं, लेकिन वजन कम करने में बहुत सहायक हैं। मेरा व्यक्तिगत अनुभव है।

मोटापे पर मेरी कुछ पोस्टें ये भी हैं.....
 सेब जैसा मोटापा पहुंचाता है ज़्यादा नुकसान

ज़्यादा नमक का सेवन कितना खतरनाक है....

इस का जवाब आज की टाइम्स ऑफ इंडिया के पहले पन्ने पर मिलेगा कि ज़्यादा नमक के सेवन से हर वर्ष कितने लाखों लोग अपनी जान गंवा रहे हैं.....ज़्यादा नमक खाने का मतलब सीधा सीधा -- उच्च रक्त चाप (हाई ब्लड-प्रेशर) और साथ में होने वाले हृदय रोग। आप इस लिंक पर उस न्यूज़-रिपोर्ट को देख सकते हैं......बड़ी विश्वसनीय रिपोर्ट जान पड़ रही है.....अब इस रिपोर्ट के पीछे तो किसी का कोई वेस्टेड इंट्रस्ट नज़र नहीं ना आ रहा, लेकिन हम मानें तो....
 1.7 million deaths due to too much salt in diet

 भारत में तो लोग और भी ज़्यादा ज़्यादा नमक खाने के शौकीन हैं.... आप इस रिपोर्ट में भी देख सकते हैं। यह कोई हैरान करने वाली बात नहीं है..क्योंकि जिस तरह से सुबह सवेरे पारंपरिक जंक फूड--समोसे, कचोरियां, भजिया.... यह सब कुछ सुबह से ही बिकने लगता है..... और जिस तरह से वेस्टर्न जंक फूड--बर्गर, पिज्जा, नूड्लस.... और भी पता नहीं क्या क्या.......आज का युवा इन सब का आदि होता जा रहा है, इस में कोई शक नहीं कि २० वर्ष की उम्र में भी युवा  मोटापे और हाई-ब्लड-प्रैशर का शिकार हुए जा रहे हैं.

दरअसल हम लोग कभी इस तरफ़ ध्यान ही नहीं देते कि इस तरह का सारा खाना किस तरह से नमक से लैस होता है, जी हां, खराब तरह के फैट्स (वसा) आदि के साथ साथ नमक की भरमार होती है इन सब से। और किस तरह से बिस्कुट, तरह तरह की नमकीन आदि में भी सोडियम इतनी अधिक मात्रा में पाया जाता है और हम लोग कितने शौकीन हैं इन सब के.....यह चौंकाने वाली बात है। आचार, चटनियां भी नमक से लैस होती हैं। और कितने दर्ज़जों तरह के आचार हम खाते रहते हैं। ज़रूरत है कि हम अभी भी संभल लें.......वरना बहुत देर हो जाएगी।

और एक बात यह जो आज के युवा बड़े बड़े मालों से प्रोसैसड फूड उठा कर ले आते हैं....रेडीमेड दालें, रेडीमेड सब्जियां, पनीर ...और भी बहुत कुछ मिलता है ऐसा ही, मुझे तो नाम भी नहीं आते.....ये सब पदार्थ नमक से लबालब लैस होते हैं।

मैं अकसर अपने मरीज़ों को कहता हूं कि घर में जो टेबल पर नमकदानी होती है वह तो होनी ही नहीं चाहिए...अगर रखी होती है तो कोई दही में डालने लगता है, कोई सब्जी में, कोई ज्यूस में....... नमक जितना बस दाल-साग-सब्जी में पढ़ कर आता है, वही हमारे लिए पर्याप्त है। और अगर किसी को हाई ब्लड-प्रैशर है तो उसे तो उस दाल-साग-सब्जी वाली नमक को भी कम करने की सलाह दी जाती है।

मुझे अभी अभी लगा कि यह नमक वाला पाठ तो मैं इस मीडिया डाक्टर वाली क्लास में आप सब के साथ मिल बैठ कर पहले भी डिस्कस कर चुका हूं.......कहीं वही बातें तो दोहरा नहीं रहा, इसलिए मैंने मीडिया डाक्टर ब्लाग पर दाईं तरफ़ के सर्च आप्शन में देवनागरी में नमक लिखा तो मेरे लिए ये लेख प्रकट हो गये......यकीन मानिए, इन में लिखी एक एक बात पर आप यकीन कर सकतें......बिना किसी संदेह के.......

मीडिया डाक्टर: केवल नमक ही तो नहीं है नमकीन ! (जनवरी १५ २००८)
मीडिया डाक्टर: एक ग्राम कम नमक से हो सकती है ... सितंबर २६ २००९
मीडिया डाक्टर: नमक के बारे में सोचने का समय ...(मार्च २९ २००९)
आखिर हम लोग नमक क्यों कम नहीं कर पाते (जून १६ २०१०)
श्रृंखला ---कैसे रहेंगे गुर्दे एक दम फिट (अक्टूबर ४ , २००८)
आज एक पुराने पाठ को ही दोहरा लेते हैं (जनवरी २९ २००९)
मीडिया डाक्टर: श्रृंखला ---कैसे रहेंगे ... (अक्टूबर १ २००८)

सर्च रिजल्ट में तो बहुत से और भी परिणाम आए हैं ..जिन में भी नमक शब्द का इस्तेमाल किया गया था।  मेरे विचार में आज के लिए इतने ही काफ़ी हैं।

आज इस विषय पर लिख कर यह लगा कि इस तरह के पाठ बार बार मीडिया डाक्टर चौपाल पर बैठ कर दोहराते रहना चाहिए......अगर किसी ने भी आज से नमक कम खाना शुरू कर दिया तो जो थोड़ी सी मैंने मेहनत की, वह सफल हो गई। मेरे ऊपर भी इस लिखे का असर हुआ.....मैं अभी अभी जब दाल वाली रोटी (बिना तली हुई).. खाने लगा तो मेरे हाथ आम के आचार की शीशी की तरफ़ बढ़ते बढ़ते रूक गये। ऐसे ही छोटे से छोटे प्रयास करते रहना चाहिए।

यह पाठ तो हम ने दोहरा लिया, आप अपनी कापियां-किताबें बंद कर सकते हैं .....और आज स्वतंत्रता दिवस के मौके पर एक दूसरा पाठ भी दोहराने की ज़रूरत है......मैं तो इसे अकसर दोहरा लेता हूं.....आप भी सुनिए यह लाजवाब संदेश...

मंगलवार, 12 अगस्त 2014

बिना काटे आम खाना बीमारी मोल लेने जैसा

फिर चाहे वह लखनऊवा हो, सफ़ेदा हो या दशहरी ....किसी भी आम को बिना काटे खाने का मतलब है बीमार होना। अभी आप को इस का प्रमाण दे रहा हूं।

मुझे वैसे तो आमों की विभिन्न किस्मों का विशेष ज्ञान है नहीं लेकिन यहां लखनऊ में रहते रहते अब थोड़ा होने लगा है। वैसे तो मैं भी कईं बार लिख चुका हूं कि आम को काट कर खाना चाहिए, उस के छिलके को मुंह से लगाना भी उचित नहीं लगता ---हमें पता ही नहीं कि ये लोग कौन कौन से कैमीकल इस्तेमाल कर के, किन किन घोलों में इन्हें भिगो कर रखने के बाद पकाये जाने पर हम तक पहुंचाते हैं......तभी तो बाहर से आम बिल्कुल सही और अंदर से बिल्कुल गला सड़ा निकल आता है।

मेरी श्रीमति जी मुझे हमेशा आम को बिना काट कर खाने से मना करती रहती हैं। और मैं बहुत बार तो बात मान लेता हूं लेकिन कभी कभी बिना वजह की जल्दबाजी में आम को चूसने लगता हूं। लेकिन बहुत बार ऐसा मूड खराब होता है कि क्या कहें.....यह दशहरी, चौसा, सफ़ेदा या लखनऊवा किसी भी किस्म का हो सकता है। सभी के साथ कुछ न कुछ भयानक अनुभव होते रहते हैं।

आज भी अभी रात्रि भोज के बाद मैं लखनऊवा आम चूसने लगा.......अब उस जैसे आम को लगता है कि क्या काटो, छोटा सा तो रहता है, लेकिन जैसे ही मैंने उस की गुठली बाहर निकाली, मैं दंग रह गया......वैसे इतना दंग होने की बात तो थी नहीं, कईं बार हो चुका है, हम ही ढीठ प्राणी हैं, वह अंदर से बिल्कुल सड़ा-गला था....अजीब सी दुर्गंध आ रही थी, तुरंत उसे फैंका।

काटे हुए लखनऊवे आम का अंदरूनी रूप 
अभी मुझे इडिएट-बॉक्स के सामने बैठे पांच मिनट ही हुए थे कि श्रीमति ने यह प्लेट मेरे सामने रखते हुए कहा...विशाल के बापू, आप को कितनी बार कहा है कि आम काट के खाया करो, यह देखो। मैं तो यार यह प्लेट देख कर ही डर गया। आप के लिए भी यह तस्वीर इधर टिका रहा हूं।

मेरी इच्छा हुई कि उसे उलट पलट कर देखूं तो कि बाहर से कैसा है, तो आप भी देखिए कि बाहर से यही आम कितना साफ़-सुथरा और आकर्षक लग रहा है। ऐसे में कोई भी धोखा खा कर इसे काटने की बजाए चूसने को उठा ले।

बाहर से ठीक ठाक दिखता ऊपर वाला लखनऊवा आम 
लेकिन पता नहीं आज कर चीज़ों को क्या हो गया है, कितनी बार इस तरह के सड़न-गलन सामने आने लगी है।

अब दाल में कंकड़  आ जाए, तो उसे हम थूक भी दें, अगर ऐसे आम को चूस लिया और गुठली निकालने पर पर्दाफाश हुआ तो उस का क्या फायदा, कमबख्त उल्टी भी न हो पाए.......अंदर गया सो गया। अब राम जी भला करेंगे।

पहले भी मैं कितनी बार सुझाव दे चुका हूं कि आम की फांकें काट कर चमच से खा लेना ठीक है।

वैसे श्रीमति जो को आम इस तरह से खाना पसंद है.........अब मुझे भी लगने लगा है कि यही तरीका या फिर काट कर चम्मच से खाना ही ठीक है, कम से कम पता तो लगता है कि खा क्या रहे हैं, वरना तो पता ही नहीं चलता कि पेट में क्या चला गया। फिर अब पछताए क्या होत.......वाली बात।

आम खाने का एक साफ़-सुथरा तरीका 
दो दिन पहले ही मैं पढ़ रहा था कि किसी दूर देश में किस तरह से भुट्टे (मक्के) में किसी तरह की बीमारी को मानव जाति में किसी बीमारी से लिंक किया जा रहा है और वहां पर हड़कंप मचा हुआ है। उस जगह का ध्यान नहीं आ रहा, कभी ढूंढ कर लिंक लगाऊंगा।

यह पहली बार नहीं हुआ .....बहुत बार ऐसा हो चुका है, और बहुत से फलों के साथ ऐसा हो चुका है। मेरी श्रीमति जी मुझे हर एक फल को काट कर खाने की ही सलाह देती रहती हैं....... अमरूदों, सेबों के साथ भी ऐसे अनुभव हो चुके हैं.

मुझे बिल्कुल पके हुए पीले अमरूद बहुत पसंद हैं.......मैं उन्हें ऐसे ही बिना काटे खा जाया करता था, लेकिन मिसिज़ की आदत चाकू से काटने के बाद भी उस का गहन निरीक्षण करने के बाद ही कुछ खाती हैं या खाने को देती हैं।

ऐसी ही एक घटना पिछले साल की है .....उन्होंने मेरे सामने एक अमरूद काट कर रखा कि आप देखो इस में कितने छोटे छोटे कीड़े हैं, मैंने तुरंत कहा कि यह तो बिल्कुल साफ सुथरा है, इस में तो कीड़े हैं ही नहीं, लेकिन जब उन्होंने मुझे वह कीड़े दिखाए तो मैं स्तब्ध रह गया........मुझे अपनी गलती का अहसास हुआ कि मैं कितनी गलती करता रहा। वैसे मैंने अमरूद में मौजूद कीड़ों के खाए जाने पर होने वाले नुकसान के बारे में नेट पर बहुत ढूंढा लेकिन मुझे कुछ खास मिला नहीं, लेिकन बात फिर भी वही है कि मक्खी देख कर तो निगली नहीं जाती।

हां, मैंने उस अमरूद में मौजूद कीड़ों के चलने -फिरने की एक वीडियो ज़रूर बना ली और अपने यू-ट्यूब चैनल पर अपलोड कर दी, आप भी देखिए.........(और गल्ती से इसे पब्लिक करना भूल गया..)

लगता है आज से एक बार फिर संकल्प करना होगा कि बिना काटे केवल आम ही नहीं, कोई भी फल खाना ही नहीं,  यह बहुत बड़ी हिमाकत है.............आप भी सावधान रहियेगा।

मछली खाने का सलीका

अगर किसी रिपोर्ट का शीर्षक यह है ... Relearning how to eat Fish...... तो मेरी तरह आप को भी यही लगेगा कि शायद यहां मछली के खाने का कुछ विशेष सलीका बताया जा रहा होगा।

मैं झट से उस लिंक पर क्लिक कर के उधर पहुंच गया इस उम्मीद के साथ कि शायद इस में लिखा हो कि मछली खाते समय इस के कांटों से कैसे अपना बचाव करना है क्योंकि बचपन में जाड़े के दिनों में चंद बार जो भी मछली खाई उस का कभी भी मज़ा इसलिए नहीं आया कि ध्यान तो हर पल उधर ही अटका रहा कि कहीं हलक में कांटा-वांटा अटक न जाए...हर बार खाते समय बंगाली बंधुओं का ध्यान कि कैसे वे लोग मछली इतनी सहजता से खा लेते हैं और वह भी चावल के साथ........और हैरानी की बात सारे कांटे मुंह के अंदर ही अलग करते हैं और इक्ट्ठे होने पर बाहर फैंक देते हैं. मेरे को यह बात हमेशा अचंभित करती है।

हां, तो मैंने उस लिंक पर जाकर देखा कि वहां तो बातें ही बहुत ज़्यादा हाई-फाई हो रही हैं, न तो मेरी समझ में कुछ आया न ही मैंने कोशिश की...क्योंकि जितने नियंत्रण की, जिस तरह से मछली की श्रेणियों की बातें और जितनी एहतियात मछली खरीदने वक्त करने को कहा गया, मुझे वह सब बेमानी सा लगा.........क्योंकि यहां पर ऐसा कुछ भी कंट्रोल तो है नहीं, जो बिक रहा है, लेना हो तो लो, वरना चलते बनो।

अगर खाने का सलीका नहीं सिखाया जा रहा इस लिंक में तो मैंने लिंक क्यों टिका दिया........केवल इस कारण से कि अपने मछली खाने वाले बंधु न्यूयार्क टाइम्स की इस रिपोर्ट से कुछ तो जान लें, शायद कुछ काम ही आ जाए। 

पहले ९० दिनों में विकसित हो जाता है बच्चों का आधा दिमाग

बच्चों का मस्तिष्क बहुत तेज़ी से विकसित होता है लेकिन इसके विकास का स्तर ऐसा है कि यह जन्म के बाद पहले ९० दिनों में व्यस्क स्तर के आधे स्तर तक विकसित हो जाता है, यह पता चला है एक बहुत ही महत्वपूर्ण रिसर्च के द्वारा।

वैज्ञानिकों को इस अध्ययन से मस्तिष्क से जुड़ी कुछ बीमारियों की जड़ तक भी पहुंचने में मदद मिलेगी।

मस्तिष्क के इतने तेज़ी से विकास का समाचार सुनने के बाद मेरा ध्यान दो-तीन मुद्दों की तरफ़ जा रहा है। 

स्तनपान...... दुनिया के सारे चिकित्सक माताओं को जन्म के तीन महीने तक केवल अपना स्तनपान करवाने की ही सलाह देते हैं। यह दूध न हो कर एक अमृत है.....जो बढ़ते हुए बच्चे के लिए एक आदर्श खुराक तो है , यह उस बच्चे को कईं तरह की बीमारियों से भी बचा कर रखता है। 

जब बच्चा पहले तीन माह तक मां के दूध पर ही निर्भर रहता है तो वह बाहर से दिये जाने वाले दूध-पानी की वजह से होने वाली विभिन्न तकलीफ़ों से बचा रहता है। यह तो आप जानते ही हैं कि पहले तीन महीने तक तो चिकित्सक बच्चे को केवल मां के दूध के अलावा कुछ भी नहीं----यहां तक कि पानी भी न देने की सलाह देते हैं। 

अब विचार करने वाली बात यह है कि जिस मां के दूध पर बच्चा पहले तीन महीने आश्रित है और जिस के दौरान पहले तीन महीनों में ही उस का मस्तिष्क आधा विकसित होने वाला है, उस मां की खुराक का भी हर तरह से ध्यान रखा जाना चाहिए....यह बहुत ही, बहुत ही ज़्यादा ज़रूरी बात है। 

चूमा-चाटी से परहेज..   और मुझे ध्यान आ रहा था कि पहले हम देखा करते थे कि बच्चे जब पैदा होते थे तो कुछ दिन तक अड़ोसी-पड़ोसी, रिश्तेदार आदि उस के ज़्यादा खुले दर्शन नहीं कर पाते थे.....हां, झलक वलक तो देख लेते थे, लेकिन यह चूमने-चाटने पर लगभग एक प्रतिबंध सा ही था......कोई कुछ नहीं कहता था, लेकिन हर एक को पता था कि नवजात शिशु पर पप्पियां वप्पियां बरसा कर उसे बीमार नहीं करना है। अब लगने लगा है कि लोग इस तरफ़ ज़्यादा ध्यान नहीं देते......

लेिकन अब यह रिसर्च ध्यान में आने के बाद लगता है हम सब को और भी सजग रहने की ज़रूरत है.....

और एक बात, डाक्टर लोग जैसे बताते हैं कि जन्म के बाद बच्चे को चिकित्सक के पास डेढ़ माह, अढ़ाई माह और साढ़े तीन माह के होने पर लेकर जाना चाहिए, यह सब भी करना नितांत आवश्यक है क्योंकि इस के दौरान शिशुरोग विशेषज्ञ उस के विकास के मील पत्थर (Development mile-stones) चैक करता है, स्तनपान के बारे में चंद बातें करता है, उस के सिर के घेरे को टेप से माप कर उस के विकास का अंदाज़ा लगाता है। 

यह पोस्ट केवल यही याद दिलाने  के लिए कि पहले तीन माह तक बच्चे का विशेष ध्यान रखा जाना क्यों इतना ज़रूरी है, क्यों उसे केवल मां ही दूध ही दिया जाना इतना लाजमी है, इस का उद्देश्य केवल उसे दस्त रोग से ही बचाना नहीं है......

सोमवार, 11 अगस्त 2014

यह भी पर्सनल हाइजिन का ही हिस्सा है..


सैक्स ऐजुकेशन, किशोरावस्था के मुद्दे, स्वपनदोष, शिश्न की रोज़ाना सफ़ाई......शायद आप को लगे कि यह मैंने किन विषयों पर लिखना शुरू कर दिया है। लेकिन यही मुद्दे आज के बच्चों, किशोरों एवं युवाओं के लिए सब से अहम् हैं।

मुझे कईं बार लगता है कि मैं पिछले इतने वर्षों से सेहत के विषयों पर लिख रहा हूं और मैं इन विषयों पर लिखने से क्यों टालता रहा। याद है कि २००८ में एक लेख लिखा था......स्वपनदोष जब कोई दोष है ही नहीं तो.... लिखा क्या था, बस दिल से निकली चंद बातें थीं जो मैं युवाओं के साथ शेयर करना चाहता था.....बस हो गया।

मैंने वह लेख किसी तरह की वाहावाही के लिए नहीं लिखा था.....लेकिन वह लेख हज़ारों युवाओं ने पढ़ा है......मैंने अपने बेटों को भी उसे पढ़ने को कहा......और वह लेख पढ़ने के बाद मुझे बहुत सारी ई-मेल युवाओं से आती हैं कि हमें यह लेख पढ़ कर बड़ी राहत मिली।

मैं जानता हूं कि मैं कोई सैक्स रोग विशेषज्ञ तो हूं नहीं, लेकिन फिर भी जो हमारे पास किसी विषय का ज्ञान है, चाहे वह व्यक्तिगत अनुभव पर आधारित हो और जो कुछ चिकित्सा क्षेत्र में रहने के कारण उस में जुड़ता गया, अब अगर वह ज्ञान हम जैसी उम्र के लोग शेयर नहीं करेंगे तो कौन आयेगा इस काम के लिए आगे। अच्छा एक बात और भी है कि इंगलिश में तो यह सब जानकारी उपलब्ध है नेट पर लेकिन हिंदी में इस तरह के कंटैंट का बहुत अभाव है।

मैं जानता हूं कि कितना मुश्किल होता है अपने लेख में यह लिखना कि मुझे भी किशोरावस्था के उस दौर में स्वपनदोष (night fall)  होता था....लेकिन क्या करें युवा वर्ग की भलाई के लिए सब कुछ सच सच शेयर करना पड़ता है. वरना मैं हर समय यह लिखता रहूं कि यह एक नार्मल सी बात है उस उम्र के लिए.....तो भी कहीं न कहीं पाठक के मन में यह तो रहेगा कि लगता है कि इसे तो नहीं हुआ कभी स्वपनदोष........ वरना यह लिख देता। यही कारण है कि सब कुछ दिल खोल कर खुलेपन से लिखना पड़ता है। उद्देश्य सिर्फ़ इतना सा ही है कि जिस अज्ञानता में हमारी उम्र के लोग जिए--इस तरह की सामान्य सी बातों को भी बीमारी समझते रहे..... आज के युवा को इस तरह के विषयों के बारे में सटीक जानकारी होनी चाहिए।

आज ध्यान आ रहा था...... शिश्न की रोज़ाना सफ़ाई के मुद्दे का। यह एक ऐसा मुद्दा है कि जिस पर कभी बात की ही नहीं जाती क्योंकि वैसे ही बालावस्था में शिश्न को हाथ लगाने तक को पाप लगेगा कहा जाता है, ऐसे में इस की सफ़ाई की बात कौन करेगा।

अगर इस लेख के पाठक ऐसे हैं जिन के छोटे बच्चे हैं तो वे अपने बच्चे के शिशु रोग विशेषज्ञ से इस मुद्दे पर बात करें। यह एक बहुत ही संवेदनशील मुद्दा है...मैं इस के ऊपर जान बूझ कर कोई सिफारिश नहीं करूंगा....लेकिन बस इतना कह कर अपने अनुभव शेयर करने लगा हूं कि इस की रोज़ाना सफाई शिश्न की आगे की चमड़ी आराम से पीछे कर के (जितनी हो उतनी ही, बिना ज़ोर लगाए... यह बहुत ज़रूरी है)...... उस पर थोड़ा साबुन लगा कर रोज़ाना धोना ज़रूरी है।

चाहे अपने बारे में लिखना कितना ही एम्बेरेसिंग लगे ... तो लगे, लेकिन लिखूंगा। हमें पता ही नहीं था कि शिश्न के अगल हिस्से की इस तरह से सफ़ाई करनी होती है, कभी किसी से भी चर्चा हुई नहीं, किसी ने बताया नहीं। इस के कारण १४-१५ वर्ष की उम्र में बड़ा लफड़ा सा होने लगा। जब भी पेशाब जाएं तो जलन होने लगे...... कुछ समय के बाद ठीक हो जाए...ठीक से याद नहीं कि पेशाब करने से पहले हुआ करती थी या बाद में, लेकिन होती तो थी, बीच बीच में अपने आप ही ठीक भी हो जाया करती थी। अपने आप ही थोड़ा पानी ज़्यादा पीने लगता था कि आराम मिलेगा, किसी से बात क्या करें, इसलिए झिझक की वजह से यह सब पांच-छः वर्ष ऐसे ही चलता रहा।

१९-२० की उम्र में एक दिन हिम्मत कर के मैं अपने आप पहुंच ही गया मैडीकल कालेज के मैडीसन विभाग की ओपीडी में .....उस डाक्टर ने अच्छे से बात की, और मेरे से पूछा कि क्या तुम रोज़ाना इस की सफ़ाई नहीं करते.....मैंने तो उस तरह की सफ़ाई के बारे में पहली बार सुना था। आगे की चमड़ी (prepuce) बिल्कुल अगले हिस्से के साथ (glans penis)  चिपकी पड़ी थी।

बहरहाल, सब टैस्ट वेस्ट करवाए गये, उस डाक्टर के समझाए मुताबिक आगे की चमड़ी पीछे करने के पश्चात मैंने उस दिन से ही साफ़ सफाई का ख्याल रखना शुरू किया..... और मैं अब यह लिखने के लिए बिल्कुल असमर्थ हूं कि मुझे वैसा करने से कितना सुकून मिला....होता यूं है कि शिश्न की आगे से सफ़ाई न करने से.....शिश्न के अगले हिस्से के आस पास वाली चमड़ी से निकलने वाला एक सिक्रेशन.... स्मैग्मा--- इक्ट्ठा होने से ---शिश्न की अगले हिस्से वाली चमड़ी अगले हिस्से से ( glans penis) से चिपक जाती है, उस से उस जगह पर इरीटेशन होने लगती है .. और फिर यूटीआई (यूरिनरी ट्रेक्ट इंफैक्शन) भी हो जाती है..... यही हुआ मेरे साथ भी....... यूरिन की टैस्टिंग करवाई-- और उस के अनुसार सात दिन के लिए मुझे दवाई खाने के लिए दी गई........और बस मैं ठीक हो गया बिल्कुल।

पाठकों को यह भी बताना ज़रूरी समझता हूं कि उस अगले हिस्से में चमड़ी पीछे करने के पश्चात ज़्यादा साबुन भी रोज़ रोज़ लगाना ठीक नहीं है, बस केवल यही ध्यान रखना ज़रूरी है कि शरीर के हर हिस्से की सफ़ाई के साथ उस हिस्से की सफ़ाई भी रोज़ाना करनी नितांत आवश्यक है, वरना दिक्कतें हो ही जाती हैं।

 मेरे यह पोस्ट लिखने का उद्देश्य केवल आज के युवावर्ग तक यह संदेश पहुंचाना है, अब यह कैसे पहुंचेगा, मुझे पता नहीं। वैसे भी मैं यह कहना चाहता हूं कि मेरे इस तरह के लेखों को आप मेरी डायरी के पन्नों की तरह पढ़ कर भूल जाएं या किसी विशेषज्ञ के साथ इस में लिखी बातों की चर्चा कर के ही कोई निर्णय लें, यह आप का अपना निर्णय है। मैं जो संदेश देना चाहता था, मैं आप तक पहुंचा कर हल्का हो जाता हूं। आप अपने चिकित्सक से परामर्श कर के ही कोई भी निर्णय लें, प्लीज़।
Parenting literacy -- Cleanliness. 

किशोर युवतियों में कॉपर-टी लगा देना क्या सही है?

अमेरिका के कोलोरेडो की खबर अभी दिखी कि वहां पर किशोर युवतियों को गर्भ धारण करने से बचाने के लिए इंट्रा-यूटरीन डिवाईस फिट कर दिया जाता है। इसे संक्षेप में आईयूडी कहते हैं। मैंने पाठकों की सुविधा के लिए कॉपर-टी लिख दिया है।

रिपोर्ट में आप देख सकते हैं कि पांच साल से यह प्रोग्राम चल रहा है --किसी व्यक्ति ने इस महान काम के लिए २३ मिलियन डालर का गुप्तदान दिया है कि किशोर युवतियों को इस अवस्था में गर्भावस्था से बचाया जाए। और इस से कहा जाता है कि इस उम्र की किशोरियों में प्रेगनेंसी की दर ४०प्रतिशत कम हो गई है।

अमेरिका जैसे संभ्रांत एवं विकसित देशों में स्कूल जाने वाली किशोरियों में प्रेगनेंसी होना कोई छुपी बात नहीं है। और कहा जा रहा है कि कोलोरेडो में इस तरह की सुविधा मिलने से टीन्ज़ को बड़ी राहत मिल गई है। वैसे तो वहां पर कॉपर-टी जैसे उपकरण फिट करवाने में ५०० डालर के करीब का खर्च आता जो कि ये लड़कियां करने में असमर्थ होती हैं और अपने मां-बाप से इस तरह के खर्च के लिए मांगने से झिझकती हैं।

ऐसा नहीं है कि इस तरह की दान-दक्षिणा वाले काम का कोई विरोध नहीं हो रहा.......वहां पर कुछ संगठन इस तरह की विरोध तो कर ही रहे हैं कि इस तरह से तो आप किशोरियों को एक तरह से फ्री-सैक्स करने का परमिट दे रहे हैं कि बिना किसी झँझट के, बिना किसी फिक्र के वे अब इस अवस्था में ही सैक्स में लिप्त हो सकती हैं। और यह भी चेतावनी दी गई है कि १३-१५ वर्ष की बच्चियों के यौन संबंध बनाने में वैसे ही कितने नुकसान हैं। और इन सब के अलावा यह यौन जनित बीमारियों (STDs--Sexually transmitted diseases) को बढ़ावा देने जैसा है।

दुनिया आगे तो बढ़ रही है, बड़ी एडवांस होती दिख रही है .....भारत ही में देख लें कि अभी तो हम असुरक्षित संभोग के तुंरत बाद या फिर चंद घंटों के बाद उस एक गर्भनिरोधक टेबलेट के लिए जाने के बारे में ही चर्चा कर रहे हैं कि किस तरह से उस टेबलेट का दुरूपयोग हो रहा है।

मैं कोई नैतिक पुलिस के मामू की तरह बात नहीं कर रहा हूं.... लेकिन जो है वही लिख रहा हूं कि कितनी अजीब सी समस्या दिखती है कि स्कूल जाने वाली १३-१५ की बच्चियों में इस तरह के कॉपर-टी जैसे उपकरण फिट कर दिए जाएं ताकि वे गर्भावस्था के झंझट से बच पाएं।

विकसित देशों की अपनी सोच है....हमारी अपनी है.......क्या किशोरावस्था में इस तरह के डिवाईस लगवा कर प्रेगनेंसी से बचना ही सब कुछ है, सोचने वाली बात है, कोई भावनात्मक स्तर पर जुड़ाव, कोई पढ़ाई-लिखाई में रूकावट, यौन-संक्रमित बीमारीयां जैसे मुद्दे भी तो कोई मुद्दे हैं।

टीनएज प्रेगनेंसी विकसित देशों में (यहां का पता नहंीं, कोई आंकड़े नहीं...)एक विषम समस्या तो है ही, लेिकन उस से झूझने का यह तरीका मेरी समझ में तो आया नहीं। ठीक भी नहीं लगता कि कोई और ढंग का तरीका --उन की सोच बदलने का प्रयास- आजमाने की बजाए यह कॉपर-टी या इंप्लांट ही फिट कर दिए जाएं........न रहेगा बांस, न बजेगी बांसुरी.. .......नहीं, नहीं, इस तरह की स्कीमों में दम नहीं है।

भारत में तो विमेन-एक्टिविस्ट एवं महिलारोग विशेषज्ञ अभी उस असुरक्षित संभोग के बाद ली जाने वाले टेबलेट के कुछ युवतियों-महिलाओं के द्वारा किए जाने वाले दुरूपयोग के बारे में ही जन-जागरूकता बढ़ा रही हैं कि इस गोली को नियमित बार बार लेना सुरक्षित नहीं है, हर पक्ष से......... हर पक्ष का मतलब तो आप जानते ही हैं।

Colorado birth control scheme casues drop in teen pregnancy  (BBC Report) 

रविवार, 10 अगस्त 2014

किशोरावस्था के अहम् मुद्दे...

अभी कुछ सर्च कर रहा था तो यह पन्ना दिख गया...अमेरिकन एकेडमी ऑफ पिडिएट्रिक्स का तैयार किया हुआ.. इस की विश्वसनीयता के बारे में आप पूरी तरह से आशवस्त हो सकते हैं। बिल्कुल विश्वसनीय जानकारी है ...इस पेज पर यह बताया गया है कि किशोरावस्था में कौन से मुद्दे किशोरों को परेशान किए रहते हैं.......

मोटी आवाज़ --- लड़के जब किशोरावस्था में प्रवेश करते हैं तो उन की आवाज़ भारी भरकम हो जाती है। इस से उन्हें बड़ी परेशानी सी होती है.....एम्बेरेसमैंट महसूस करते हैं, यह इस लेख में लिखा गया है तो मैं लिख रहा हूं लेकिन मेरे को नहीं लगता कि इस देश में यह कोई मुद्दा भी है। मैंने नहीं नोटिस किया कि आवाज़ के इस बदलाव से बच्चे परेशान होते हैं, पता नहीं मेरे अनुभव में यह बात आई ऩहीं।

गीले सपने (वेट ड्रीम्ज़).....यह अकसर होता है कि बच्चा सुबह उठता है तो उस का पायजामा और चद्दर भीगे हुए हों। यह पेशाब की वजह से नहीं बल्कि गीले सपने या रात में वीर्य के स्खलन की वजह से होता है, जो रात में सोते सोते ही हो जाता है। इस का मतलब यह नहीं कि लड़के को कोई कामुक सपना आ रहा था। लेकिन ऐसा हो भी सकता है (यह मेरा व्यक्तिगत अनुभव है)

लड़के के बापू को अपने बेटे को इस बार के बारे में बता चाहिए, उस के साथ इस विषय पर बात करनी चाहिए और उसी इस बात के लिए पूरी तरह से आश्वस्त करें कि आप को पता है कि इस के ऊपर उस (लड़के) का कोई नियंत्रण नही है..और वह इसे रोक नहीं पायेगा। बड़े होने की प्रक्रिया का यह वेट-ड्रीम्ज़ भी एक हिस्सा ही है।

अपने आप ही शिश्न का खड़ा हो जाना (involuntary erection)-- किशोरावस्था में प्रवेश करने पर लड़कों का पिनिस बिना उसे टच किए या बिना किसी प्रकार के कामुक विचारों के.. अपने आप ही खड़ा हो जाता है..अगर ऐसा कभी किसी पब्लिक जगह पर जैसे कि स्कूल आदि में हो जाता है तो लड़के को एम्बेरेसिंग लग सकता है। अगर आप का लड़का उम्र की इस अवस्था में है तो उसे बता कर रखें कि इस तरह से पिनिस का अपने आप उस की उम्र में उठ जाना भी एक बिल्कुल सामान्य सी बात है और यह केवल इस बात का संकेत है कि उस का शरीर मैच्यओर हो रहा है। यह सभी लड़कों में इस उम्र में हो सकता है......और जैसे जैसे समय बीतेगा इन की फ्रिक्वेंसी कम हो जायेगी। जी हां, मेरे साथ भी उस उम्र के दौरान ऐसा कईं बार हुआ था।

बस इतना सा कहना ही उस किशोर के मन पर जादू सा काम करेगा, भारी भरकम बोझ उतर जाएगा उस के सिर से कि पता नहीं यह सब क्यों होता है।

स्तन बड़े होना -- इन वर्षों में कईं बार किशोरों के स्तन थोड़े बढ़ जाते हैं और वे इस के बारे में चिंतित रहने लगते हैं लेकिन इस के लिए कुछ करना नहीं होता, अपने आप ही यह सब कुछ ठीक हो जाता है। इस और पता नहीं कभी मैंने तो ध्यान दिया ही नहीं।

एक अंडकोष दूसरे से बड़ा होना......एक अंडकोष का दूसरे से बड़े होना सामान्य भी है और एक आम सी बात भी है।

आप ने देखा कि किस तरह के कुछ छोटी छोटी दिखने वाली बातें किशोरों के मन का चैन छीन लेती हैं उस समय के दौरान जब उन का पढ़ाई लिखाई में मन लगा होना चाहिए। लेकिन अफसोस अभी तक हम लोग यही निर्णय नहीं कर पा रहे कि किशोरों को सैक्स ऐजुकेशन दी जानी कि नहीं, कितनी दी जानी चाहिए........आप भी ज़रा यह सोचिए कि अगर किशोरावस्था में बच्चों को ये सब बातें बता दी जाएंगी तो कौन सा पहाड़ टूट पड़ेगा।

मुझे मेरे मित्र बार बार कहते रहते हैं कि यार तुम इंगलिश में लिखा करो.........लेकिन अकसर इंगलिश में लिखने की इच्छा इसलिए नहीं होती क्योंकि इतनी सुंदर जानकारी हर विषय पर नेट पर इंगलिश में उपलब्ध है लेकिन हिंदी पढ़ने वालों की ज़रूरत कैसे पूरी हो, उन्हें क्यों विश्वसनीय जानकारी से वंचित रखा जाए, बस यही जज्बा है जो मेरे से हिंदी में कुछ भी लिखवाता रहता है।

प्रमाण --->>   Concerns boys have about puberty   और साथ में मेरे व्यक्तिगत अनुभव का आधार. अगर अभी भी किशोरों तक यह सब जानकारी न पहुंचे तो मैं क्या कहूं ?

Generally we take for granted that our adolescent boys know all this. No, they don't know the truth explained above. They just know distorted facts dished out to them by vested interests and peer-groups. Take care--- Stay informed, stay care-free!!

बी बी सी हिंदी की साइट कैसी है?

मुझे याद है जब मैं आठ-दस वर्ष का था, हमारे पास एक बाबा आदम के जमाने का मर्फी रेडियो हुआ करता था जिस का सब से बड़ा फैन मेरा बड़ा भाई था, उसे फिल्मी गीत सुनना बड़ा अच्छा लगता था, सारे प्रयोग कर लिया करता था चंद गीतों को सुनने के लिए -- ऊपर छत पर ऐरियर जैसी तार किसी पत्थर के नीचे रख कर आना, आवाज़ में गड़गड़ होने पर उस को हल्के से दो-तीन हाथ भी लगा देता था.......अरे यार, जो स्विच को ऑन करने के बाद वह एक-डेढ़ मिनट का इंतज़ार हुआ करता था कि अब आई आवाज़, अब आई.......वह रोमांच भुलाए नहीं भूलता।

और हां, खबरें भी तो हम उसी पर सुना करते थे और जिस दिन देश में कोई घटना हो जाती तो पड़ोसी-वड़ोसी यह कह कर बड़ी धौंस जमाया करते थे कि अभी अभी बीबीसी पर खबर सुनी है। मुझे धुंधला धुंधला सा याद आ रहा है कि १९७१ के भारत-पाक की सही, सटीक जानकारी के लिए हम लोग किस तरह से बीबीसी रेडियो के कैच होने का इंतज़ार किया करते थे ...शायद अकसर यह रात ही के समय कैच हो जाता था, उस रेडियो के साथ पूरी मशक्कत करने पर.....उस ऐरियर वाली तार के जुगाड़ को कईं बार इधर उधर हिला कर। लेकिन यह क्या, दो मिनट सुन गया, फिर आवाज़ गायब........कोई बात, हम इस के अभ्यस्त हो चुके थे। बहुत सारा सब्र... कोई अफरातफरी नहीं।

उस के पंद्रह बीच वर्ष बाद जब फिलिप्स का वर्ड-रिसीवर लिया.....तब बीबीएस को सुनना हमारे एजेंडा से बाहर हो चुका था. बस १९९० के दशक के बीच तक हम केवल रेडियो पर एफएम ही सुनने के दीवाने हो चुके थे।

हां, अब मैं बात शुरू करूंगा बीबीसी हिंदी वेबसाइट की....... इसे आप इस लिंक पर जाकर देख सकते हैं और आनंद ले सकते हैं। इस का यूआरएल यह है ...  www.bbc.co.uk/hindi 

इस वेबसाइट से मेरा तारूफ़ पांच वर्ष पहले हुआ.. मैं इग्न्यू दिल्ली में विदेशी विशेषज्ञों सें इंटरनेट लेखन की बारीकियां  एक दो महीने के लिए सीखने गया था। वहां पर हमें अकसर बीबीसी साइट (इंगलिश) का उदाहरण लेकर कईं बातें समझाई जाती थीं, इसलिए धीरे धीरे इस साइट में मेरी भी रूचि बढ़ने लगी।

कैसे लिखना है, कितना लिखना है, लेखन को कैसे प्रेजैंट करना है, यह बीबीसी की अंग्रेजी और हिंदी वेबसाइट से बढ़िया कोई सिखा ही नहीं पाएगा, यह मैंने बहुत अच्छे से समझ लिया है।

जब भी इस वेबसाइट पर गया हूं अच्छा लगता है। एक बहुत बड़ी खूबी यह कि जो कुछ भी लिखा जाता है एकदम विश्वसनीय....यह इन की प्रशंसनीय परंपरा है।

एक बात और मजे की यह है कि इस पर हिंदी पत्रकारिता का कखग सीखने के लिए भी रिसोर्स है..... हिंदी पत्रकारिता पर हिंदी बीबीसी की वेबसाइट

एक बार और...जो मैंने नोटिस की कुछ बहुत ही लोकप्रिय हिंदी की वेबसाइटों के बारे में कि कुछ अजीब किस्म की चीज़ें अपनी साइटों पर डालने लगे हैं...सैक्स के फार्मूले, सैक्स पावर बढ़ाने के नुक्ते, बेड-रूम के सीन.......यानि कुछ भी ऐसा अटपटा खूब डालने लगते हैं ...शायद वे लोग यह नहीं समझते कि इस काम के लिए उन्हें इतनी मेहनत करने की ज़रूरत है ही नहीं, वैसे ही नेट इस्तेमाल करने वाले इस तरह की सामग्री से एक क्लिक की दूरी पर हैं, आप का काम है केवल हिंदी में साफ़-सुथरी उपलब्ध करवाना .......और इस महत्वपूर्ण वैश्विक सामाजिक दायित्व के काम के लिए मैं बीबीसी की हिंदी वेबसाइट को पूरे अंक देना चाहता हूं.....एक दम साफ सुथरी, ज्ञान-वर्धक, विश्वसनीय और बिना किसी अश्लील कंटैंट के ......इसलिए भी यह इतनी लोकप्रिय साइट है।

मैंने पिछले दिनों इस के रेडियो के भी कईं प्रोग्राम सुने और फिर उस के बारे में प्रोड्यूसर को फीड बैक भी भेजी.....मैंने भगवंत मान की इंटरव्यू सुनी थी और उसे इतने अच्छे तरीके से पेश किया गया था कि मुझे तुरंत प्रोग्राम प्रस्तुत करने वाले श्री जोशी जी को बधाई भिजवाने पर विवश होना पड़ा।

कुछ बातें इस वेबसाइट पर देख कर थोड़ा अजीब सा लगता है ......... सब से ज़्यादा अहम् बात तो यह है कि पता नहीं क्या कारण है, मेरी समझ से परे है, ये बीबीसी हिंदी वाले लोग (इंगलिश वाले भी) अपने पाठकों से सीधा संवाद क्यों नहीं स्थापित करना चाहते, इस के कारण मेरी समझ में नहीं आ रहे।

 इंटरएक्शन और फीडबैक तो वेब 2.0 की रूह है यार और वही गायब हो तो ज़ायका कुछ खराब सा लगता है, कुछ नहीं बहुत खराब लगता है....ठीक है यार आप लोगों ने अपनी स्टोरी परोस दी, दर्शकों-पाठकों तक पहुंच भी गई, लेिकन उस की भी तो सुन लो, उस की प्रतिक्रिया कौन लेगा।

आप इन की किसी भी न्यूज़-रिपोर्ट के साथ नीचे टिप्पणी देने का प्रावधान पाएंगे ही नहीं, आज के वक्त में यह बात बड़ी अजीब सी लगती है, फीडबैक से क्यों भागना, बोलने दो जो भी कुछ दिल खोल कर कहना चाहता है, उस से दोनों का ही फायदा होगा, वेबसाइट का भी और सभी यूजर्स का भी। अपने दिल की बात लिखने से ज़्यादा क्या कर लेगा फीडबैक देने वाला.......आप चाहे तो मानिए, वरना विवश कौन कर रहा है। लेकिन इस तरह की पारदर्शिता से लोग उस वेबसाइट से सीधा जुड़ पाते हैं --एक रिश्ता सा कायम होने लगता है।

एक बात और मैंने नोटिस की.....वह शायद मुझे ही ऐसा लगा हो कि बीबीसी हिंदी का फांट इतना अच्छा नही है, अगर कोई बढ़िया सा और थोड़ा बड़ा फांट हो तो इस साइट को चार चांद लग जाएंगे।

बहरहाल, यह वेबसाइट हिंदी वेबसाइटों की लिस्ट में से मेरी मनपसंद वेबसाइटों पर बहुत ऊपर आती है.......क्योंकि यहां फीडबैक के प्रावधान के बिना शेष सब कुछ बढ़िया ही बढ़िया है............लेकिन आज के दौर में फीडबैक का अभाव अपने आप में एक उचित बात नहीं लगती, वह ठीक है, उन की अपनी पालिसी होगी। हां, संपर्क के लिए एक फार्म तो भरने के लिए कहते हैं........लेकिन यार यह नेट पर जा कर फार्म वार्म भरने का काम बड़ा पकाने वाला काम लगता है....कौन पड़े इन फार्मों के चक्कर वक्कर में........ दो एक बार भर भी दिया.....लेकिन ये लोग कभी उस का जवाब नहीं देते......कम से कम मैंने यह पाया कि  ..they dont revert back!

फिर भी यह साइट रोज़ाना देखे जाने लायक तो है ही......... strong recommendation!

लीजिए इसी साइट पर रेडियो के एक प्रोग्राम को सुनिए.....बेहतरीन प्रस्तुति ..... (नीचे दिए गये लिंक पर क्लिक करिए) ..

http://www.bbc.co.uk/hindi/multimedia/2014/08/140807_sikh_us_video_akd.shtml

शनिवार, 9 अगस्त 2014

केवल गुटखा-पानमसाला ही तो नहीं है विलेन...

हिंदी की एक अखबार के पहले पन्ने पर एक विज्ञापन देखा --एक पानसाले का..
उस मे लिखे शब्दों पर ध्यान दीजिए..
अच्छा खाईये निश्चिंत रहिये
वो स्वाद जिसमें छुपी हैं अनमोल खुशियां
भारत का सर्वाधिक लोकप्रिय पान मसाला
साफ---सुरक्षित-- स्वादिष्ट
0%Tobacco   0%Nicotine

ठीक है, ठाक है .. एक कोने में छुपा कर यह भी लिखा है .... पानमसाला चबाना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है।

अब आप बताएं कि इस तरह का विज्ञापन हो और आप के शहर में हर तरफ़- आप के दोस्त, परिवारजन, अध्यापक, डाक्टर हर तरफ पान मसाला गुटखा चबाने में लगे हों तो फिर कैसे एक स्कूल-कालेज जाने वाला लोंडा इस से बच सकता है।

कितनी खतरनाक बात लिखी है कि पानमसाले में तंबाकू नहीं, निकोटीन नहीं... बहुत से पानमसालों पर यह लिखने लगे हैं.. लेकिन फिर भी क्यों इसे खा कर युवक अपनी ज़िंदगी बरबाद कर लेते हैं। उस का कारण है सुपारी ---और नाना प्रकार के अन्य कैमीकल जो इस में मौजूद रहते हैं और जिन्हें खाने से रोटी खाने के लिए मुंह तक न खुलने की नौबत आ जाती है...इस अवस्था को ओरल-सबम्यूकसफाईब्रोसिस कहते हैं और यह मुंह के कैंसर की पूर्व अवस्था भी है।
अब आप ही बताईए की गुटखा तो विलेन है ही जिस में तंबाकू-वाकू मिला रहता है लेकिन यह पान मसाला भी कितना निर्दोष है?

सब से पहले तो मैं बहुत से मरीज़ों से पूछता हूं कि क्या आप गुटखा-पान मसाला खाते हैं तो जवाब मिलता है कि नहीं, नहीं वह तो हम बिल्कुल नहीं लेते, कभी लिया ही नहीं, या बहुत पहले छोड़ दिया। लेकिन थोड़ी बात और आगे चलने पर कह देते हैं कि बस थोड़ी बहुत बीड़ी से चला लेता हूं। ऐसे किस्से मेरे को बहुत बार सुनने को मिलने लगे हैं.....बहुत बार......और कितने युवक यह कह देते हैं कि और किसी चीज़ का नशा नहीं, बीड़ी सिगरेट नहीं,  बस कभी कभी यह सुपारी वारी ले लेते हैं.......फिर उन की भी क्लास लेने पड़ती है कि ये सब के सब आग के खेल हैं।

आज मेरे पास एक महिला आई..सारे दांत बुरी तरह से घिसे हुए.....ये जो देसी मंजन बिकते हैं न बाज़ार में ये बेइंतहा किस्म के खुरदरे होते हैं....और इन को दांतों पर लगाने से दांत घिस जाते हैं। उसने कहा कि उसने इन्हें कभी इस्तेमाल नहीं किया.... मैं भी हैरान था कि ऐसे कैसे इस के दांत इतने ज़्यादा घिस गये। कहने लगी नीम की दातुन पहले करती थी गांव में. मैंने कहा कि उस से दांत इस तरह खराब नहीं होते। बहरहाल, अभी मैं सोच ही रहा था कि उसने कहा कि एक बात आप से छुपाना नहीं चाहती.......कहने लगी कि मैं गुल मंजन इस्तेमाल करती हूं. बस, फिर मैंने उसे समझा दिया कि क्यों गुल मंजन को छोड़ना ज़रूरी है......और बाकी तो उस का इलाज कर ही दूंगा, घिसे हुए दांत बिल्कुल नये जैसे हो जाते हैं आज कल हमारे पास बहुत से साधन मौजूद हैं।

उस के बाद अगला मरीज़ था, एक दो दांतों में दर्द था, मेरा प्रश्न वही कि गुटखा-पानमसाला लेते हैं, तो कहने लगा कि कभी नहीं यह सब किया. लेकिन कुछ अरसे से दांत में जब दर्द होता है तो तंबाकू-चूना तेज़ सा मिक्स कर के दांत के सामने गाल में दबा लेता हूं. .आराम मिल जाता है।

यहां यह बताना चाहूंगा कि तंबाकू की लत लगने का एक कारण यह भी है कि लोग दांत के दर्द के लिए मुंह में तंबाकू या नसवार (पिसा हुआ तंबाकू) रगड़नी शुरू कर देते हैं......मेरी नानी को भी तो यही हुआ था, दांत में दर्द होता रहता था, पहले डाक्टर वाक्टर ढंग के कहां दिखते थे, नीम हकीम ही दांत उखाड़ देते थे (अभी भी बहुत जगहों पर यही चल रहा है).. सो, मेरी नानी को नसवार मसलने की लत लग गई..... और फिर वह आदत नहीं छूटी......इस तरह की आदत का शिकार लोगों को मसाने में भयंकर रोग होने का रिस्क तो रहता ही है, बस इसी रोग ने हमारी चुस्त-दुरूस्त नानी हम से छीन ली। अफसोस, मुझे उन दिनों पता ही नहीं था कि यह नसवार इतनी खराब चीज है, वह बहुत झिझकते हुए हमें हमारे स्कूल-कालेज के दिनों में बाज़ार से नसवार की डिब्बी लाने को कहती और हम भाग कर हरिये पंसारी से खरीद लाते।

बच के रहो बई इन सब तंबाकू के रूपों से और हां, पानमसाले से भी....... कुछ दिन पहले मेरे पास एक मरीज आया ५० के करीब का रहा होगा, यही पानमसाले से होने वाला रोग था, मुंह नहीं खुल रहा था, घाव तो मुंह के पिछले हिस्से में थे ही, मुंह के अंदर की चमड़ी बिल्कुल सख्त चमड़े जैसी हो चुकी थी.....और साथ ही एक घाव मुझे ठीक नहीं लग रहा था जिस की टेस्टिंग होनी चाहिए और पूरा इलाज होना चाहिए......मैंने उसे समझाया तो बहुत था लेकिन वह वापिस लौट कर ही नहीं आया। यह युवक की बात केवल इसलिए की है कि पानमसाला छोड़ने के वर्षों बाद तक इस ज़हर का दंश झेलना पड़ सकता है, तो क्यों न आज ही, अभी ही से मुंह में रखे पानमसाले को दस गालियां निकाल कर हमेशा के लिए थूक दें।

तंबाकू-गुटखे की बातें लिख लिख कर थक गया हूं. लेकिन फिर भी बातों को दोहराना पड़ता है। हां, एक काम करिएगा, अगर मेरे इन विषयों से संबंधित लेख देखना चाहें तो इस ब्लॉग के दाईं तरफ़ जो सर्च का ऑप्शन है, उस में तंबाकू, गुटखा या पानमसाला लिख कर सर्च करिएगा। ये सब ज़हर आप हमेशा के लिए थूकने के लिए विवश न हो जाएं तो लिखिएगा।

सदियों से होता आ रहा कीटाणुओं का जंग में इस्तेमाल

जब कभी कैमीकल वारफेयर के बारे में या फिर बॉयोलाजीकल वॉरफेयर के बारे में मैं कभी भी पढ़ता था तो यही सोचता था कि यह तो एक आधुनिक जुनून है। लेकिन आज ही पता चला कि लड़ाईयों में कीटाणुओं को इस्तेमाल पिछली कईं सदियों से चला आ रहा है।

बीबीसी इस रिपोर्ट पर जब मैंने इस विषय पर लिखा पढ़ा तो मुझे बड़ा शॉक सा लगा कि किस तरह से चेचक का वैसे तो उन्मूलन बीसवीं सदी में ही हो गया था और अगर आज चेचक कहीं फैल गया तो दुनिया किस तरह से फनां हो जायेगी। यह बात भी इस रिपोर्ट में लिखी है कि अमेरिका और सोवियत संघ ने किसी गोपनीय लैब में स्माल-पॉक्स के कीटाणु सहेज कर रख छोड़े हैं। सोच कर ही डर लगता है ना।

एक और देश के बारे में लिखा है कि उसने ३५०० वर्ष पूर्व एक दुश्मन देश के बार्डर पर छः भेड़े छोड़ दीं.....और जब उस देशवासियों ने उन्हें अंदर कर लिया तो उन भेड़ों के शरीर पर विद्यमान टिक्स (ticks) ने ऐसी एक बीमारी फैला दी जिस से देश की आधी जनसंख्या खत्म हो गई होगी।

How long mankind has been waging warfare?

मुझे यह सब पढ़ कर यही लग रहा है कि सुबह सवेरे उठ कर फेसबुक पर निरंतर धुआंधार स्टेट्स छोड़ने की बजाए सारे संसार की सद्बुद्धि की प्रार्थना निरंतर करते रहना चाहिए, पता नहीं किस के पास क्या धरा-पड़ा है और कब किस की बुद्धि थोड़ी सी भी सटक जाए।

एटमबम-वम के बारे में तो हम सुनते ही हैं, हीरोशीमा-नागासाकी अभी तक सत्तर वर्ष बाद भी उस एक धमाके का दंश सह रहे हैं, लेकिन क्या ये कीटाणु और कैमीकल्स भी किसी एटमबम से कम हैं।

चलिए सब के कल्याण की कामना करते हैं........

दांत उखड़वाने के लिए हर सप्ताह ५०० बच्चे भर्ती

मुझे अभी तक किसी भी बच्चे का दांत उखड़वाने के लिए उसे अस्पताल में दाखिल करने की ज़रूरत नहीं पड़ी। जब हम लोग डैंटिस्ट्री पढ़ रहे थे तब भी कभी नहीं सुना-देखा कि इस तरह से बच्चों के दांत उखड़वाने के लिए कभी हमारे प्रोफैसरों ने भी बच्चों के दांत उखाड़ने के लिए उन्हें पहली भर्ती किया हो।

हां, कभी कभी कुछ वर्षों बाद कोई ऐसा बच्चा आ जाता था जो बहुत ही डरा हुआ, भयभीत सा या फिर किसी ऐसी मानसिक अथवा शारीरिक बीमारी से ग्रस्त होता था कि उस के दांत बिना उस को भर्ती किए और बिना अलग तरह का अनेस्थिसिया दिए (जिस के पश्चात उसे कुछ समय के लिए नींद आ जाती है)... नहीं हो पाता था। यह भी मैंने अपनी प्रोफैसर को एक बार करते देखा था।

वैसे तो जो भी चिकित्सक यह इलाज करते होंगे वे सब कुछ जांच कर ही करते होंगे, लेकिन वर्ष में २०-२५ हज़ार बच्चे अगर अस्पतालों में दांत उखड़वाने के लिए दाखिल किए जा रहे हैं तो यह एक चिंताजनक आंकड़ा है।
इस मुद्दे पर अपने विचार लिखना चाहता हूं।

इंग्लैंड जैसे देशों में बच्चों के दांत यहां की अपेक्षा बहुत ज़्यादा खराब होते हैं.......इस के पीछे उन का खानपान बहुत ज़्यादा जिम्मेदार है। वे बच्चें कोला ड्रिंक्स, चाकलेट्स, बर्गर और दूसरे तरह के जंक फूड के किस कद्र दीवाने हैं, हम जानते हैं। दीवानापन इधर भी बढ़ रहा है लेकिन यहां बच्चे के मां बाप दाल-रोटी की जुगाड़बाजी में ही इतने उलझे हुए हैं कि अधिकतर पेरेन्ट्स बच्चों को यह सब कचरे जैसा खाना उपलब्ध नहीं करवा पाते, और यह बच्चों का सौभाग्य नहीं तो और क्या है कि अधिकांश को दाल-रोटी-सब्जी से ही संतुष्ट होना पड़ता है।

मैं नहीं गया कभी इंगलैंड..लेकिन जो मीडिया से जाना वहां के बारे में कि वहां पर डाक्टरों और मरीज़ों के बीच कुछ ज़्यादा बढ़िया संवाद है नहीं, किसी के पास समय ही नहीं है इस तरह के संवाद में पड़ने का.......लेकिन यहां अभी भी डाक्टर और पेरेन्ट्स के बीच अच्छी बातचीत हो ही जाती है...... पता नहीं आप मेरे से कितना सहमत हों, लेकिन अभी यहां हालात उतने स्तर तक गिरे नहीं है, मुझे तो ऐसे लगता है।

इसी संवाद के अभाव में...शायद डाक्टर मरीज़ के संबंध में विश्वास का हनन भी हुआ है, ऊपर से इतने सारे कोर्ट-केस, मुआवजा ..और सब तरह की पेशियां, झंझट..ऐसे में लगता है कि बच्चों को अस्पताल में भर्ती कर के उन के दांत निकालना ही इंगलैंड के दंत चिकित्सकों को एक सुरक्षित रास्ता जान पड़ता होगा।

वहां पर इंश्योरैंस का भी कुछ चक्कर है, अस्पतालों को भुगतान इंश्योरैंस द्वारा होता है, इसलिए अस्पताल में इस तरह की भर्तीयां करनी ज़रूरी भी होती होंगी।

यहां के बच्चे बात समझ लेते हैं, अकसर मां-बाप उन के साथ ही होते हैं, वहां पर मां-बाप बाहर रोक दिये जाते हैं.....बच्चे मां-बाप की उपस्थिति में बिंदास अनुभव करते हैं, है कि नहीं ?...और इलाज के लिए बच्चे हम जैसों की बातों में भी आसानी से आ जाते हैं कि दांत उखड़वाने के बाद पापा, दो आइसक्रीम दिलाएंगे, कुछ को उन के पापा दस रूपये का नोट थमा देते हैं.........यानि कि कुछ भी जुगाड़बाजी से आसानी से बिना किसी विशेष परेशानी के बच्चे अाराम से दांत उखडवा ही लेते हैं।

हां, कभी कभार दो एक साल में एक बच्चा आ जाता है जो बहुत डरता है, रोता है और डैंटल चेयर पर बैठने ही से मना करता है, अकसर वह भी दूसरी या तीसरी बार प्यार-मनुहार से काम करवा ही लेता है। कोई विशेष दिक्कत नहीं आती, कोई विशेष दवाईयां या विशेष टीके नहीं लगवाने पड़ते। थैंक गॉड--तुसीं ग्रेट हो।

मैं उस इंगलैंड वाली रिपोर्ट में पढ़ रहा था कि कईं बच्चों के सारे के सारे दांत ही उखड़वाने पड़त हैं। इस से पता चलता है कि वहां बच्चों के दांतों की स्थिति कितनी खराब है।

ऐसा मैंने कोई बच्चा नहीं देखा अभी तक यहां जिस के सारे दांत निकलवाने की ज़रूरत पड़ी हो........ वैसे भी हम जैसे लोगों ने अपने प्रोफैसरों की बात तीस साल पहले ही गांठ बांध ली थी कि बिना किसी विशेष कारण के बच्चों के दांतों को उखाडना नहीं चाहिए क्योंकि उन के गिरने का एक नियत समय है, जब वे गिरेंगे और उन की जगह पर पक्के दांत उन का स्थान लेंगे। अब अगर किसी दांत के गिरने वाले टाइम-टेबल से बहुत पहले उसे निकाल दिया जाए या निकालना पड़े तो फिर उस के नीचे विकसित हो रहे पक्के दांत के मुंह में निकलने में गड़बड़ी होने की आशंका बनी रहती है... ऊबड़-खाबड़ दांत होने का एक बहुत बड़ा कारण।

हमें यह सिखाया गया कि अगर बच्चे के दांत में कोई दांत पूरी तरह से क्षतिग्रस्त हो चुका है और उस की केवल जड़ या जड़ें ही बाकी रह गई हैं लेकिन बच्चे को इन जड़ों की वजह से कोई परेशानी नहीं है, तो भी इन जड़ों को बिना निकाले ही रहने दिया जाना चाहिए जब तक वे अपने नियत टाइम-टेबल अनुसार या तो स्वयं ही हिल कर न निकल जाएं या फिर जब तक उन में कोई दिक्कत न हो। ये बातें बच्चों के दांतों के बारे में लिख रहा हूं।

लेकिन यह निर्णय कि कौन से बच्चे में कौन से दांत बिना किसी चिंता-परेशानी के पड़े रहें और किन्हें निकालना ज़रूरी है, यह निर्णय दंत चिकित्सक का होता है, आप स्वयं यह निर्णय नहीं कर पाएंगे. मेरे निर्णय को यह बात अकसर प्रभावित करती है कि अगर तो किसी टूटे फूटे दूध के दांत में बार बार पस पड़ने लगी है, ऐब्सेस बन रहा है जिस के लिए बच्चे के बार बार कुछ कुछ समय के बाद ऐंटीबॉयोटिक दवाईयां खिलानी पड़ रही हैं तो ऐसे टूटे फूटे दूध के दांतों को बाहर का रास्ता दिखाना ही ठीक रहता है।

मैं यह बात एक सामान्य दंत चिकित्सक की हैसियत से रख रहा हूं ..जो दंत रोग विशेषज्ञ बच्चों के स्पैशलिस्ट हैं, उन के अनुभव क्या हैं, जब वे लिखेंगे तो पता चलेगा। बाकी बातें तो सब की सब वही हैं जो मैंने लिखी हैं, लेकिन चूंकि उन के पास जटिल से जटिल केस भी आते होंगे जब वे किसी डैंटल कालेज में काम कर रहे हों, ऐसे में वे किस तरह के दांत उखाड़ते हैं.......क्या उन्हें बच्चे को रिलैक्स करने के लिए, उस का भय भगाने के लिए कोई टीका भी इस्तेमाल करना पड़ता है, यह तो वे ही बता सकते हैं। लेिकन मुझे कभी इस की ज़रूरत महसूस नहीं हुई या मैंने इस्तेमाल नहीं किया...इस का आप जो भी मतलब निकाल लें।

कईं बार किसी पोस्ट में इतनी विश्वसनीयता घुस आती है कि उस के नीचे डिजिटल सिग्नेटर करने की इच्छा होती है।
Warning Over Children's Dental Health 

शुक्रवार, 8 अगस्त 2014

यौवन की दहलीज़ तो ठीक है लेकिन ...

कुछ दिन पहले मैं एक किताब का ज़िक्र कर रहा था ... यौवन की दहलीज़ पर जिसे यूनिसेफ के सहयोग से २००२ में प्रकाशित किया गया है।

इस के कवर पेज पर लिखा है...... मनुष्य के सेक्स जीवन, सेक्स के माध्यम से फैलने वाले गुप्त रोगों(एस टी डी) और एड्स के बारे में जो आप हमेशा से जानना चाहते थे, लेकिन यह नहीं जानते थे कि किससे पूछें।

मैंने इस किताब के बारे में क्या प्रतिक्रिया दी थी, मुझे याद नहीं ..लेकिन शायद सब कुछ अच्छा ही अच्छा लिखा होगा --शायद इसलिए कि मैं पिछले लगभग १५ वर्षों से हिंदी भाषा में मैडीकल लेखन कर रहा हूं और मुझे हिंदी के मुश्किल शब्दों का मतलब समझने में थोड़ी दिक्कत तो होती है लेकिन फिर भी मैं कईं बार अनुमान लगा कर ही काम चला लेता हूं।

यह किताब हमारे ड्राईंग रूम में पड़ी हुई थी, मेरे बेटे ने वह देखी होगी, उस के पन्ने उलटे पलटे होंगे। क्योंकि कल शाम को वह मेरे से पूछता है --डैड, यह किताब इंगलिश में नहीं छपी?..... मैंने कहा, नहीं, यह तो हिंदी में ही है।

वह हंस कर कहने लगा कि डैड, इसे पढ़ने-समझने के लिए तो पहले संस्कृत में पीएचडी करनी होगी। उस की बात सुन कर मैं भी हंसने लगा क्योंकि किताब के कुछ कुछ भागों को देख कर मुझे भी इस तरह का आभास हुआ तो था.....पीएचडी संस्कृत न ही सही, लेकिन हिंदी भाषा का भारी भरकम ज्ञान तो ज़रूरी होना ही चाहिए इस में लिखी कुछ कुछ बातों को जानने के लिए।

अच्छा एक बात तो मैं आप से शेयर करना भूल ही गया ... इस के पिछले कवर के अंदर लिखा है...यह पुस्तक बिक्री के लिए उपलब्ध नहीं है। मुझे यह पढ़ कर बड़ा अजीब सा लगा ...कि यौवन की दहलीज पर लिखी गई किताब जिन के लिए लिखी गई है, वे इस के अंदर कैसे झांक पाएंगे अगर यह किताब बिकाऊ ही नहीं है।कहां से पाएंगे वे ऐसी किताबें.

मुझे जब इस में कुछ कुछ गूढ़ हिंदी में लिखी बातों का ध्यान आया तो मेरा ध्यान इस के पिछले कवर की तरफ़ चला गया जिस में लिखा था कि जिस ने इस पुस्तक में बतौर हिंदी अनुवादक का काम किया वह बीएससी एम ए (अर्थशास्त्र) एम ए (प्रयोजन मूलक हिंदी) अनुवाद पदविका (हिंदी) आदि योग्यताओं से लैस थीं.......उन की योग्यता पर कोई प्रश्न चिंह नहीं, हो ही नहीं सकता।

लेिकन फिर भी अकसर मैंने देखा है कि इस तरफ़ ध्यान नहीं दिया जाता कि एक तो हम आम बोल चाल की हिंदी ही इस्तेमाल किया करें, सेहत से जुड़ी किताबों में जो किसी भी हिंदी जानने वाले को समझ में आ जाए। यह बहुत ज़रूरी है। किताबों में तो है ही बहुत ज़रूरी यह सब कुछ.... वेबसाइट पर तो इस के बारे में और भी सतर्क रहने की ज़रूरत है...किताबें तो लोग खरीद लेते हैं, अब एक बार खरीद ली तो समझने के लिए थोड़ी मेहनत-मशक्कत कर ही लेंगे, लेकिन नेट पर आज के युवा के पास कोई भी मजबूरी नहीं है......एक पल में वह इस वेबपेज से उस वेबपेज पर पहुंच जाता है, आखिर इस में बुराई भी क्या है, नहीं समझ आ रहा तो क्या करे, जहां से कुछ समझने वाली बात मिलेगी, वहीं से पकड़ लेता है।

ऐसे में हमें सेहत से जुड़ी सभी बातें बिल्कुल आम बोलचाल की भाषा ही में करनी होंगी...वरना वह एक सरकारी आदेश की तरह बड़ी भारी-भरकम हिंदी लगने लगती है। और उसी की वजह से देश में हम ने हिंदी का क्या हाल कर दिया है, आप देख ही रहे हैं......दावों के ऊपर मत जाइए। जो मीडिया आम आदमी की भाषा में बात करता है वह देखिए किस तरह से फल-फूल रहा है।

और दूसरी बात यह कि अनुवाद में भी बहुत एहतियात बरतने की ज़रूरत है। सेहत से संबंधित जानकारी को जितने रोचक अंदाज़ में अनुवादित किया जायेगा, उतना ही अच्छा है.. और इस में इंगलिश के कुछ शब्दों को देवनागरी लिपी में लिखे जाने से भला क्या आपत्ति हो सकती है।

बस यही बात इस पोस्ट के माध्यम से रखना चाह रहा था।

आप देखिए कि इंगलिश में कितनी बेबाकी से डा वत्स इन्हीं सैक्स संबंधी विषयों पर अपनी बात देश के लाखों-करोड़ों लोगों तक कितनी सहजता से पहुंचा रहे हैं........ आईए मिलते हैं ९० वर्ष के सैक्सपर्ट डा वत्स से।  (यहां क्लिक करें)

गुरुवार, 7 अगस्त 2014

मेंढक, कॉकरोच, केंचुआ, खरगोश, छिपकली बच गये जी बच गये..

आज जब अखबार पकड़ा तो पहले ही पन्ने पर यह खबर देख कर बहुत खुशी हुई कि यूजीसी ने कालेजों में जीव-जंतुओं की चीड़-फाड़ पर प्रतिबंध लगा दिया है।

खबर तो कुछ वर्ष पहले भी इस तरह की छपी थी लेकिन अब यह खबर....अखबार पढ़ने पर पता चल गया कि पहले यूजीसी ने प्रतिबंध लगाया था कि विद्यार्थी कालेजों में ऐसी चीड़-फाड़ नहीं कर सकेंगे, लेकिन उन के प्रोफैसर लोग छात्रों को सिखाने के लिए यह चीड़-फाड़ कर सकते हैं।

लेकिन आज की खबर ने तो कमाल ही कर दिया कि अब तो प्रोफैसर लोग भी यह सब नहीं कर सकेंगे।

यह यूजीसी का एक प्रशंसनीय निर्णय है। आज कल के छात्र तकनीकी तौर पर इतने एडवांस हो चुके हैं कि नेट पर दुनिया जहान की चीज़ें सीखते रहते हैं....सब कुछ तो नेट पर पड़ा है। इसलिए बस इतने से काम के लिए इतने सारे जीव-जंतुओं की बलि दे दी जाए ... बात गलत तो बिल्कुल है ही।

लेकिन अफसोस मेरे जैसे लोगों को भी अब यह बात गलत दिखने लगी जब जानवरों के हितों के लिए सक्रिय संस्थाओं ने इस मुद्दे पर हाय-तौबा मचाई शुरू की। और वे बिल्कुल ठीक हैं .. उन के प्रयासों से लाखों-करोड़ों जीव-जंतु लगता है आजकल जश्न के मूड में होंगे।

मुझे याद है मैंने कालेज में प्री-यूनिवर्सिटी मैडीकल और प्री-मैडीकल के दौरान-- काकरोच, अर्थवर्म (केंचुआ), मेंढक, छिपकली---इन की चीड़फाड की थी। प्री-यूनीवर्सिटी में काकरोच और अर्थवर्म ... और अगले साल मेंढक और छिपकली की चीड़फाड़ की थी। हमें लैब में एक ट्रे दे दी जाती थी जिस में इन में से किसी भी जीव-जंतु को रख दिया जाता था....मुझे अभी ध्यान नहीं आ रहा कि क्या वे सब मरे हुए ही हुआ करते थे.... जहां तक याद है कईं बार मेंढक आदि के कुछ अंग उसकी चीड़फाड़ करने पर फड़फड़ाते से दिखते थे। अब कुछ ठीक से याद नहीं आ रहा।

जो भी हो, इस निर्णय से बड़ी राहत मिली है। जीव-जंतुओं के कल्याण के लिए काम करने वाली संस्थाओं को बड़ी आपत्ति थी कि इन जीव-जंतुओं को चीर-फाड़ के लिए उन के प्राकृतिक वातावरण (natural habitat) से ही पकड़ा जाता है और इस सब की वजह से वातावरण मंडल का संतुलन गड़बड़ हुआ जा रहा है।

एक धुंधली सी याद यह भी आ रही है कि उस जमाने में जिस छात्र के हाथ में एक डाईसैक्शन बाक्स होता था, जिस में एक छोटी कैंची और दो-तीन और औजार हुया करते थे.. तो जिस ने इस बाक्स को अपने हाथ में पकड़ा होता या फिर साईकिल के अगले हैंडल पर लगे कैरियर पर कसा होता, उस की ठसक मोहल्ले में और कालेज में पूरी होती थी क्योंकि आर्ट्स वाले छात्र इतना तो समझ ही लेते थे कि ये चीड़फाड़ वाले हैं........और इसी चक्कर में मेरे जैसा अनाड़ी भी बाक्स को पकड़े हुआ अपने आप को आधा डाक्टर तो समझने ही लगता था।

वे भी क्या दिन थे, हमारी डेयरी वाला एक बार किसी अन्य प्रदेश में गया, वहां से खरीद कर एक बीवी लेकर आया, जो अपने आप को डाक्टर कहा करती थी और अकसर पूरे विश्वास के साथ कहा करती थी कि हमारे यहां तो बंदर के दिल को आदमी के दिल में आसानी से लगा दिया जाता है......और हम छोटे छोटे बच्चे उस की बातें सुन कर हैरान हुआ करते थे।

जब हम लोग कालेज में थे तो एक लकड़ी की जाली वाली अलमारी में खरगोश भी देखा करते थे....हमें बताया जाता था कि जो बीएससी मैडीकल करते हैं उन्हें खरगोश की चीर-फाड़ करनी होती है। मैं भी दो दिन बीएससी मैडीकल की क्लास में गया था ... लेिकन फिर बीडीएस का बुलावा आ गया और हम अगले आठ साल के लिए सरकारी डैंटल कालेज अस्पताल के सुपुर्द कर दिए गये।
UGC finally gives in, bans animal dissections in colleges





अगली बार कोई खुला मेनहोल दिखे तो इस का ध्यान रखिएगा

इस पोस्ट का हीरो नं१.. सुरेश कुमार
पांच छः दिन पहले की बात है मैं अपनी ड्यूटी पर जा रहा था.. उस िदन मैं अपने टू-व्‌हिलर पर था। अस्पताल के अंदर जा रहा था, आगे एक बिल्कुल नुकीला सा मोड़ है जिसे क्रॉस करने पर मैंने पाया कि यह क्या कुछ तो खुला हुआ था
मेनहोल की चौड़ई और लंबाई का अंदाज़ा आप इस से लगा सकते हैं
मैंने आगे चल कर अपना स्कूटर रोक दिया...और फिर देखा कि वहां तो एक बहुत बड़ा मेनहोन खुला पड़ा है...तीन चार फुट गहरा और चौड़ाई तो आप इस इन तस्वीरों में देख ही रहे हैं।

एक बार तो मैं हिल गया.....मुझे लगा कि आज तो जान बाल बाल बच गई... ईश्वर का शुक्र अदा किया...लेकिन इतना बड़ा मेनहोल खुला देख कर वहां से हटने की इच्छा नहीं हुई।

सब से पहले तो मुझे पास ही कुछ ईंटे पड़ी हुईं मिली तो मैंने झट से उन पांच सात ईंटों को उस के किनारे पर रख दिया..इस उम्मीद के साथ कि आने वाले को दूर से ही कुछ तो दिखेगा कि यहां कुछ तो गड़बड़ है।

खुले मेनहोल की लोकेशन को आप यहां देख सकते हैं
इतने में मैंने अपने सहायक सुरेश कुमार को फोन किया....वह बाहर आया ..मैंने कहा कि देखो, इस का क्या हो सकता है।

बहरहाल उसे वहीं खड़ा कर के मैं अंदर आ गया और अंदर आने पर वह सब कुछ किया.....लिख कर, फोन पर, सूचित किया, इंफार्म किया......और इस एमरजैंसी के बारे में बताया। एक शख्स ने तो इतना कह दिया की ये लोग इतनी जल्दी सुनते नहीं हैं।

जो भी हो, मुझे पता चल गया कि अभी कुछ दिन तो होने वाला है नहीं.... मैं जानता हूं ना जहां हम लोग काम करते हैं। इसलिए मेरी चिंता यही थी कि अस्पताल में आने वाला कोई कर्मचारी, मरीज या कोई रिश्तेदार अगर उस में गिर विर कर चोटिल हो गया तो अगर उस की जान पर ना भी बन आई तो बेचारा कुछ हड्डियां तो टुड़वा ही बैठेगा और अगर सिर पर चोट लग गई तो और मुसीबत।

इतने में मेरा अटैंडेंट वापिस लौट आया...और मुझे खबर देने लगा कि सर, ऐसा जुगाड़ कर आया हूं कि दूर ही से किसी भी वाहन चालक को पता चल जायेगा कि यहां लफड़ा है, इस से बच कर निकलना है। बताने लगा कि एक पेड़ की टहनी उन ईंटों के बीचो बीच खड़ी कर के आ गया है। 

चलिए मुझे इत्मीनान पहले से थोड़ा ज़्यादा तो हुआ कि चलिए, ईंटों की बजाए यह तो एक बेहतर तरीका है दूर से ही आने वालों को सचेत करने का।

लेकिन उस दिन अपनी ओपीडी में मन बिल्कुल भी लगा नहीं.....शायद अगले दिन ईद की छुट्टी थी और यही चिंता सता रही थी कि पेड़ की टहनी कितना समय ऐसा ही टिकी रहेगी....अंधेरी से, पानी बरसने से िगर विर जायेगी और विशेषकर रात में आने वालों की तो भयंकर आफ़त हो जायेगी।

शायद प्रार्थना ही काम कर गई.....मेरे अटैंडेंट ने भी इस समस्या का हल खोजने के लिए कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी। उस दिन वह भी उस काम ही में लगा रहा.....अपने पांच छः साथियों को, सफ़ाई वालों को इक्ट्ठा कर के अस्पताल के किसी दूर कोने में पड़े एक बहुत बड़े पत्थर को धक्का देता हुआ वहां तक पहुंच गया और उस खुले मेनहोल पर टिका दिया। बनियानें इन लोगों की पसीने से लथपथ हो रही थीं।

 ऐसे  जुगाड़ से जनता को बचाने की कोशिश की गई
मुझे भी बुलाने आया बाद में कि आप देखो सर, कैसा है यह इंतजाम। मैं भी उस के साथ वहां देखने गया.... वह भारी भरकम पत्थर देख कर इतना हैरान हुआ कि ये लोग कैसे धक्का मारते हुए इसे यहां तक लाए होंगे। Where there is will, there is a way!

उस मेनहोल से जिस लोहे के कवर को चुराया गया था, उस का वजन ही ५०-६० किलो का बताया जाता है, पुराने जमाने के तैयार ये कवर......किसी चिंदीचोर की नज़र पड़ गई होगी, उसे काट कर उठा ले गया।

स्टॉफ के कुछ लोगों ने जिस तरह से इस एमरजैंसी को संभाल लिया ...मैं उस दिन यही सोचता रहा कि हर संस्था में कुछ न कुछ ऐसे लोग ज़रूर होते ही हैं जिन के लिए हर काम उन का अपना काम है, वे कभी किसी काम को ना करना तो जैसे सीखे ही नहीं, बल्कि स्वयं आगे आ कर इस तरह की सेवा में लग जाते हैं। 

सही बात है, विभिन्न तरह के ईनामों के सही पात्र इसी तरह के लोग होते हैं........लेकिन मजे की बात है कि इन लोगों की इन सब दिखावटी चीज़ों की कोई भी तमन्ना नहीं होती। जब मैंने अपने अटैंडेंट से ऐसा कहा तो उस ने हंसी में बात टाल दी और अपने साथियों के साथ चाय-पार्टी करने चला गया।

यह बात तो थी आज से शायद पांच-सात दिन पुरानी लेकिन आज भी यह पत्थर ही उधर पड़ा लोगों को बचा रहा है, देखते हैं कब तक उस का कवर तैयार हो कर आता है।

इस पोस्ट को लिखते का उद्देश्य केवल यही था कि हम लोग िजस रास्ते पर भी चल रहे हैं, वहां पर इस तरह के खुले मेनहोलों के बारे में सजग रहें और कुछ इस तरह का इंतजाम कर दें कि आने वाला बिना किसी पूर्वाभास के अपने जान माल का नुकसान न करवा बैठे..... चलिए माल तो फिर इक्ट्ठा हो भी जाएगा लेकिन हर बंदे की जान बेशकीमती है, अनमोल है, उस की हर कीमत पर रक्षा होनी चाहिए। पिछले महीने मैं अंधेरी क्षेत्र में एक फुटपाथ पर चल रहा था तो अचानक देखा उस फुटपाथ के बीचो बीच एक बहुत बड़ा मेनहोल खुला पड़ा है...... ऐसा दिखना ही संवेदनशीलता की कमी को दर्शाता है।

अाज कल हम सोशल मीडिया को इतना इस्तेमाल करते हैं....तो उस की फोटू निकाल कर व्हस्ट-एप, फेसबुक, ट्विटर पर संबंधित अधिकारियों तक पहुंचाने में देखिए तो क्या होता है। कुछ अरसा पहले एक फेसबुक पेज के बारे में इलैक्ट्रोिनक मीडिया से जाना कि उन्होंने उस पेज पर देश में कहीं भी मिलने वाले खुले मेनहोलों, गड्ढ़ों की तस्वीरें अपलोड की हुई हैं...... और फिर उन के ही कुछ वालेंटियर्ज़ उस गड्ढे को भरने निकल भी जाते हैं। इन के काम को सलाम। यही सच्ची इबादत है....जैसा कि इस गीत में भी कहा जा रहा है। 

मेरा बेटा बता रहा था कि कुछ दिन पहले बंबई में एक फ्लाईओव्हर पर एक गड्‍ढा होने से एक बाईक चालक की जान चली गई।




बुधवार, 6 अगस्त 2014

सर्दी-खांसी-जुकाम में ऐंटीबॉयोटिक्स का रोल

आज से ३६ वर्ष पहले -- १९७८ में जब मैं दसवीं कक्षा में पढ़ा करता था...स्कूल की मैगजीन का स्टूडैंट संपादक था तो मैंने इसी सर्दी-खांसी-जुकाम के ऊपर एक लेख लिखा था.. मैंने अभी तक उसे अपने पास रखा हुआ है ..और जो पिछले वर्षों में अखबारों में लेख छपे हैं, उन में से मेरे पास कितने हैं, कितने नहीं है, वह कोई बात नहीं

मंगलवार, 5 अगस्त 2014

कैमिस्ट की दुकानों पर होने वाली २० रूपये की ब्लड-शूगर जांच

अकसर अब हम लगभग सभी शहरों में कैमिस्टों की दुकानों पर इस तरह की जांच होने के बोर्ड देखने लगे हैं कि रक्त में शूगर की जांच २० रूपये में और ब्लड-प्रैशर की जांच १० रूपये में। यह जो १०-२० रूपये में जांचें वांचें होने लगी हैं, ठीक है, एक-दो रूपये में सड़क पर चलते हुए अपना वज़न देख लिया, और ज़रूरत पड़ने पर अपनी ब्लड-प्रेशर भी मपवा लिया.....कोई विशेष बात नहीं लगती, लेकिन है। और जहां तक यह २० रूपये में कैमिस्ट की दुकान से अपना ब्लड-प्रैशर मपवाने की बात है, यह मुझे ठीक नहीं लगती, क्योंकि इस के लिए मुझे नहीं पता कि ये लोग ज़रूरी सावधानियां बरतते भी होंगे कि नहीं!

 मैंने यह भी देखा है कि जिन घरों में भी यह घर में ही ब्लड-शूगर की जांच करने वाली मशीनें होती हैं, उस घर में दूसरे सदस्यों, रिश्तेदारों, मेहमानों और पड़ोसियों को भी अपनी शूगर की जांच के लिए एक उत्सुकता सी बनी रहती है। लेकिन मेरे विचार में यह सब करना बीमारी को बुलावा देने जैसा है।

मैं कईं बार लोगों से पूछा है कि आप जिस मशीन से इतने सारे लोग यह जांच करते हो, क्या उस लेंसेट (जिस से अंगुली से ब्लड निकाला जाता है) को बदलते हो, तो मुझे कभी संतोषजनक जवाब मिला नहीं। हर बार यही बात सुनने को मिलता है कि स्पिरिट से पोंछ लेते हैं। नहीं, ऐसा करना बिल्कुल गलत है।

इस तरह की मशीनों के पेम्फलेट पर भी लिखा रहता है कि यह जो इस में लेंसेट है, यह केवल एक ही व्यक्ति के ऊपर इस्तेमाल करने के लिए है।

जो बात मैं कहना चाहता हूं वह केवल इतनी सी है कि जिस भी चीज़ से --लेंसेट आदि से-- अंगुली से रक्त निकाला जाता है, उसे आज के दौर में एक दूसरे के ऊपर ऐसे ही स्पिरिट से पोंछ कर इस्तेमाल नहीं किया जा सकता। किया पहले भी नहीं जाना चाहिए था, आज से ३०-४० वर्ष पहले भी ..लेकिन तब कुछ बीमारियों के बारे में हैपेटाइटिस बी, सी और एचआईव्ही संक्रमण जैसे रोग के बारे में जागरूकता ही कहां थी, इसलिए सब कुछ भगवान भरोसे ही चलता रहा।

मुझे याद है बचपन में एक टैस्ट तो हम लोगों को बार बार लगभग हर साल करवाना ही पड़ता था , मलेरिया की जांच के लिए पैरीफ्रल ब्लड फिल्म...इस के लिए लैब वाला अंकल हमारी अंगुली से रक्त निकालने के लिए कुछ चुभो देता और सभी मरीज़ों पर उसी को स्पिरिट से पोंछ पोंछ कर इस्तेमाल किया करता। निःसंदेह एक खतरनाक प्रैक्टिस।

हां तो मैं बाज़ार में होने वाली कैमिस्ट की दुकान पर ब्लड-शूगर की जांच की बात कर रहा था, मुझे नहीं पता कि ये लोग हर केस में नईं लेंसेट इस्तेमाल करते होंगे या नहीं।

आज मुझे पता चला कि ये जो कंपनियां इस तरह की मशीनें बना रही हैं वे अलग से इस तरह के लेंसेट भी बेचती हैं लेकिन ये थोड़े महंगे ही दिख रहे थे जब मैंने नेट पर चैक किया। ऐसे में क्या आप को लगता है कि बाज़ार में २० रूपये में होने वाली जांच के लिे हर मरीज़ के लिए नया डिस्पोज़ेबल लेसेंट इस्तेमाल किया जाता होगा। आप इस के बारे में अवश्य सोचिए और उसी के आधार प ही इस तरह की जांच के लिए निर्णय लें और अपने से कम पढ़े-लिखों तक भी यह बात पहुंचाएं।

बात जितनी छोटी दिखती है उतनी है नहीं .. इस तरह का सस्ता टैस्ट बाज़ार में करवाना और जिस के लिए लेंसेट नया नहीं है, बिल्कुल वैसा ही हो गया जैसे कि कोई किसी दूषित या किसी दूसरे पर इस्तेमाल की गई सिरिंज से टीका लगवा ले। जहां पर एक दूसरे पर इस्तेमाल किए जाने वाले लेंसेंट या सिरिंज से बीमारी फैलने की बात है, इस में ज्यादा अंतर नहीं है, यह जानना बहुत ज़रूरी है।

वो फिल्मों की बात अलग है कि अमर अकबर एंथोनी में अकबर का खून निकल रहा है और सामने ही दूसरे किरदार को चढ़ाया जा रहा है, कोई बीमारी फैलने के लिए बिना टैस्ट किये हुए रक्त की जांच ही नहीं, रक्त की एक बूंद का उतना छोटे से छोटा अंश (देखना तो दूर, जिस की आप कल्पना भी नहीं कर सकते ) भी भयानक संक्रमण फैला सकता है।

ऐसा नहीं है कि लेंसेट बाज़ार में सस्ते नहीं मिलते ... मिलते हैं, मैंने कईं अस्पतालों मेंंदेखा है कि जिन रक्त की जांच के लिए उन्हें अंगुली को थोड़ी सूईं चुभो कर रक्त निकालना होता है, वे लोग यह काम एक कागज़ में मिलने वाली डिस्पोज़ेबल लेंसेट से करते हैं और फिर उस को नष्ट कर देते हैं। होना भी यही चाहिए, वरना तो खतरा बना ही रहता है।

मैं सोच रहा था कि क्या ऐसा नहीं हो सकता कि जिन लोगों को बाज़ार से बार बार रक्त की इस तरह की जांच करवानी पड़ती है, वे लोग कुछ डिस्पोज़ेबल लेंसेट खरीद लें ...और अगर टैस्ट के समय देखें कि वहां पर इस तरह के उपलब्ध नहीं हैं तो अपना लेंसेट ही इस्तेमाल किए जाने का अनुरोध करें।

मामला इतना आसान है नहीं , यह काम हम डाक्टर लोग किसी लैब में जाकर नहीं कर पाते, ऐसे में आप कैसे कर पाएंगे यह आपने देखना है, क्योंकि यह आप की सेहत का मुद्दा है, किसी भी दूषित उपकरण के चुभने से आप की सेहत खतरे में पड़ सकती है।

इतना पैनिकि होने की बात भी नहीं है, बस बात तो है केवल सचेत करने के लिए।

ध्यान आ रहा है कि पिछले सरकार के कुछ दावे अखबारों में खूब छपा करते थे ..कि अब शूगर की जांच के लिए स्ट्रिप्ज़ २-२ रूपये में बिकने लगेंगी.......कहां गई ऐसी स्ट्रिप्ज़ जो आने वाली थीं।

अपनी सेहत के बारे में स्वयं भी सगज रहिए. और औरों को भी करते रहिए।

जाते जाते ध्यान यह भी आ रहा है कि क्या ये कैमिस्ट की दुकानों वाले इस तरह की रक्त की जांचें करने के लिए अधिकृत भी हैं या बस धक्कमपेल किए जा रहे हैं। विचारों का क्या है, कुछ भी मन में आ सकता है......पिछले दिनों आपने देखा कि एम्स जैसी संस्था के डाक्टरों ने अखबारों में लिखा था कि चिकित्सा व्यवसाय में कैसे कैसे गोरखधंधे चल रहे हैं...... जब मैडीकल प्रैक्टीशनर किसी के साथ सांठ-गांठ कर लेते हैं, इसलिए मुझे तो यह भी लगता है कि हो न हो, कहीं कुछ कैमिस्ट की दुकानों पर होने वाले टैस्ट भी ये दवाईयां बनाने वाले कंपनियों के सांठ-गांठ का ही तो नतीज़ा नहीं है... चलते फिरते राहगीर का खड़े खड़े ब्लड-प्रैशर मापो, ब्लड-शूगर की जांच करो और जब रिपोर्ट देख कर वह डरा हुआ इलाज के बारे में पूछे तो उसे उन्हीं कंपनियों की दवाईयां थमा दो...बस, इस चक्कर में चिकित्सक बाहर हो गया, कितने लोग तो वैसे ही इसी तरह से दवाई लेकर खाना शुरू कर देते हैं।

इन मसलों पर जागरूक किये जाने की बहुत ज़रूरत है........लेकिन अकसर मीडिया को आइटम नंबर की राजनीति और किस हीरो को किस हीरोइन के साथ किस देश के किस होटल में एक साथ देखा गया, मीडिया को ये सब चटखारे लेने से फुर्सत मिले तो ऐसी जनोपयोगी बातों को उठाने की बारी आए।

बीच साइड हैल्थ चैक अप स्टाल 
शूगर की जांच हो जायेगी बहुत सस्ती 
एक आवश्यक सूचना..
रक्त की जांच के समय ध्यान रखिए..