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रविवार, 10 अगस्त 2014

बी बी सी हिंदी की साइट कैसी है?

मुझे याद है जब मैं आठ-दस वर्ष का था, हमारे पास एक बाबा आदम के जमाने का मर्फी रेडियो हुआ करता था जिस का सब से बड़ा फैन मेरा बड़ा भाई था, उसे फिल्मी गीत सुनना बड़ा अच्छा लगता था, सारे प्रयोग कर लिया करता था चंद गीतों को सुनने के लिए -- ऊपर छत पर ऐरियर जैसी तार किसी पत्थर के नीचे रख कर आना, आवाज़ में गड़गड़ होने पर उस को हल्के से दो-तीन हाथ भी लगा देता था.......अरे यार, जो स्विच को ऑन करने के बाद वह एक-डेढ़ मिनट का इंतज़ार हुआ करता था कि अब आई आवाज़, अब आई.......वह रोमांच भुलाए नहीं भूलता।

और हां, खबरें भी तो हम उसी पर सुना करते थे और जिस दिन देश में कोई घटना हो जाती तो पड़ोसी-वड़ोसी यह कह कर बड़ी धौंस जमाया करते थे कि अभी अभी बीबीसी पर खबर सुनी है। मुझे धुंधला धुंधला सा याद आ रहा है कि १९७१ के भारत-पाक की सही, सटीक जानकारी के लिए हम लोग किस तरह से बीबीसी रेडियो के कैच होने का इंतज़ार किया करते थे ...शायद अकसर यह रात ही के समय कैच हो जाता था, उस रेडियो के साथ पूरी मशक्कत करने पर.....उस ऐरियर वाली तार के जुगाड़ को कईं बार इधर उधर हिला कर। लेकिन यह क्या, दो मिनट सुन गया, फिर आवाज़ गायब........कोई बात, हम इस के अभ्यस्त हो चुके थे। बहुत सारा सब्र... कोई अफरातफरी नहीं।

उस के पंद्रह बीच वर्ष बाद जब फिलिप्स का वर्ड-रिसीवर लिया.....तब बीबीएस को सुनना हमारे एजेंडा से बाहर हो चुका था. बस १९९० के दशक के बीच तक हम केवल रेडियो पर एफएम ही सुनने के दीवाने हो चुके थे।

हां, अब मैं बात शुरू करूंगा बीबीसी हिंदी वेबसाइट की....... इसे आप इस लिंक पर जाकर देख सकते हैं और आनंद ले सकते हैं। इस का यूआरएल यह है ...  www.bbc.co.uk/hindi 

इस वेबसाइट से मेरा तारूफ़ पांच वर्ष पहले हुआ.. मैं इग्न्यू दिल्ली में विदेशी विशेषज्ञों सें इंटरनेट लेखन की बारीकियां  एक दो महीने के लिए सीखने गया था। वहां पर हमें अकसर बीबीसी साइट (इंगलिश) का उदाहरण लेकर कईं बातें समझाई जाती थीं, इसलिए धीरे धीरे इस साइट में मेरी भी रूचि बढ़ने लगी।

कैसे लिखना है, कितना लिखना है, लेखन को कैसे प्रेजैंट करना है, यह बीबीसी की अंग्रेजी और हिंदी वेबसाइट से बढ़िया कोई सिखा ही नहीं पाएगा, यह मैंने बहुत अच्छे से समझ लिया है।

जब भी इस वेबसाइट पर गया हूं अच्छा लगता है। एक बहुत बड़ी खूबी यह कि जो कुछ भी लिखा जाता है एकदम विश्वसनीय....यह इन की प्रशंसनीय परंपरा है।

एक बात और मजे की यह है कि इस पर हिंदी पत्रकारिता का कखग सीखने के लिए भी रिसोर्स है..... हिंदी पत्रकारिता पर हिंदी बीबीसी की वेबसाइट

एक बार और...जो मैंने नोटिस की कुछ बहुत ही लोकप्रिय हिंदी की वेबसाइटों के बारे में कि कुछ अजीब किस्म की चीज़ें अपनी साइटों पर डालने लगे हैं...सैक्स के फार्मूले, सैक्स पावर बढ़ाने के नुक्ते, बेड-रूम के सीन.......यानि कुछ भी ऐसा अटपटा खूब डालने लगते हैं ...शायद वे लोग यह नहीं समझते कि इस काम के लिए उन्हें इतनी मेहनत करने की ज़रूरत है ही नहीं, वैसे ही नेट इस्तेमाल करने वाले इस तरह की सामग्री से एक क्लिक की दूरी पर हैं, आप का काम है केवल हिंदी में साफ़-सुथरी उपलब्ध करवाना .......और इस महत्वपूर्ण वैश्विक सामाजिक दायित्व के काम के लिए मैं बीबीसी की हिंदी वेबसाइट को पूरे अंक देना चाहता हूं.....एक दम साफ सुथरी, ज्ञान-वर्धक, विश्वसनीय और बिना किसी अश्लील कंटैंट के ......इसलिए भी यह इतनी लोकप्रिय साइट है।

मैंने पिछले दिनों इस के रेडियो के भी कईं प्रोग्राम सुने और फिर उस के बारे में प्रोड्यूसर को फीड बैक भी भेजी.....मैंने भगवंत मान की इंटरव्यू सुनी थी और उसे इतने अच्छे तरीके से पेश किया गया था कि मुझे तुरंत प्रोग्राम प्रस्तुत करने वाले श्री जोशी जी को बधाई भिजवाने पर विवश होना पड़ा।

कुछ बातें इस वेबसाइट पर देख कर थोड़ा अजीब सा लगता है ......... सब से ज़्यादा अहम् बात तो यह है कि पता नहीं क्या कारण है, मेरी समझ से परे है, ये बीबीसी हिंदी वाले लोग (इंगलिश वाले भी) अपने पाठकों से सीधा संवाद क्यों नहीं स्थापित करना चाहते, इस के कारण मेरी समझ में नहीं आ रहे।

 इंटरएक्शन और फीडबैक तो वेब 2.0 की रूह है यार और वही गायब हो तो ज़ायका कुछ खराब सा लगता है, कुछ नहीं बहुत खराब लगता है....ठीक है यार आप लोगों ने अपनी स्टोरी परोस दी, दर्शकों-पाठकों तक पहुंच भी गई, लेिकन उस की भी तो सुन लो, उस की प्रतिक्रिया कौन लेगा।

आप इन की किसी भी न्यूज़-रिपोर्ट के साथ नीचे टिप्पणी देने का प्रावधान पाएंगे ही नहीं, आज के वक्त में यह बात बड़ी अजीब सी लगती है, फीडबैक से क्यों भागना, बोलने दो जो भी कुछ दिल खोल कर कहना चाहता है, उस से दोनों का ही फायदा होगा, वेबसाइट का भी और सभी यूजर्स का भी। अपने दिल की बात लिखने से ज़्यादा क्या कर लेगा फीडबैक देने वाला.......आप चाहे तो मानिए, वरना विवश कौन कर रहा है। लेकिन इस तरह की पारदर्शिता से लोग उस वेबसाइट से सीधा जुड़ पाते हैं --एक रिश्ता सा कायम होने लगता है।

एक बात और मैंने नोटिस की.....वह शायद मुझे ही ऐसा लगा हो कि बीबीसी हिंदी का फांट इतना अच्छा नही है, अगर कोई बढ़िया सा और थोड़ा बड़ा फांट हो तो इस साइट को चार चांद लग जाएंगे।

बहरहाल, यह वेबसाइट हिंदी वेबसाइटों की लिस्ट में से मेरी मनपसंद वेबसाइटों पर बहुत ऊपर आती है.......क्योंकि यहां फीडबैक के प्रावधान के बिना शेष सब कुछ बढ़िया ही बढ़िया है............लेकिन आज के दौर में फीडबैक का अभाव अपने आप में एक उचित बात नहीं लगती, वह ठीक है, उन की अपनी पालिसी होगी। हां, संपर्क के लिए एक फार्म तो भरने के लिए कहते हैं........लेकिन यार यह नेट पर जा कर फार्म वार्म भरने का काम बड़ा पकाने वाला काम लगता है....कौन पड़े इन फार्मों के चक्कर वक्कर में........ दो एक बार भर भी दिया.....लेकिन ये लोग कभी उस का जवाब नहीं देते......कम से कम मैंने यह पाया कि  ..they dont revert back!

फिर भी यह साइट रोज़ाना देखे जाने लायक तो है ही......... strong recommendation!

लीजिए इसी साइट पर रेडियो के एक प्रोग्राम को सुनिए.....बेहतरीन प्रस्तुति ..... (नीचे दिए गये लिंक पर क्लिक करिए) ..

http://www.bbc.co.uk/hindi/multimedia/2014/08/140807_sikh_us_video_akd.shtml

बुधवार, 6 अगस्त 2014

सर्दी-खांसी-जुकाम में ऐंटीबॉयोटिक्स का रोल

आज से ३६ वर्ष पहले -- १९७८ में जब मैं दसवीं कक्षा में पढ़ा करता था...स्कूल की मैगजीन का स्टूडैंट संपादक था तो मैंने इसी सर्दी-खांसी-जुकाम के ऊपर एक लेख लिखा था.. मैंने अभी तक उसे अपने पास रखा हुआ है ..और जो पिछले वर्षों में अखबारों में लेख छपे हैं, उन में से मेरे पास कितने हैं, कितने नहीं है, वह कोई बात नहीं

सोमवार, 13 जनवरी 2014

मेरा पुराना ट्रांसिस्टर..

यह जो ट्रांसिस्टर मैंने यहां दिखा रहा हूं यह मैंने १०-१२ वर्ष पहले एक गाड़ी में खरीदा था। अब तो मुझे पता नहीं कि यह धंधा चलता है कि नहीं, लेकिन लगभग दस वर्ष पहले मैंने इसे गोहाटी से दिल्ली आने वाली एक ट्रेन के सैकेंड एसी के डिब्बे में खरीदा था, शायद २५0-३०० रूपये का था। देखने में इतना बढ़िया लगा कि मैं अपने आप को रोक न पाया। समस्या आज एफएम और विविध भारती प्रोग्राम देखने की है..पहले मैं एक एफएम के डिब्बे से काम चला लिया करता था, लेकिन अब उस में कईं बार थोड़ा झंझट सा या अजीब सा लगता है ..उस के एरियर वाली तार को हिलाते रहो, अजीब सा लगता है ...उन ४०वर्ष पुराने दिनों की बात याद आ जाती है जब अपने मर्फी के रेडियो के साथ ऐंटीना की तार बांध कर घर के ऊपर छत तक पहुंचाई जाती थी। फिर एक एलजी का एक फोन इसी काम के लिए लिया--GM 200- बहुत बढ़िया सेट है यह ...आप सोच रहे होंगे कि एफएम तो आजकल लगभग हर फ़ोन में होता है ऐसे में इस की इतनी क्या विशेषता है, जी हां, यह स्पैशल है ..मेरे बेटे ने नेट पर रिसर्च करने के बाद इसे रिक्मैंड किया था ..खासियत यही है इसकी कि इस में एफएम सुनने के लिए साथ में एयरफोन नहीं लगाने पड़ते। जी हां, यह वॉयरलैस एफएम रेडियो की सुविधा देता है। लेकिन हम ठहरे पक्के रेडियो प्रेमी.....जब तक किसी ट्रांसिस्टर जैसे डिब्बे में रेडियो ना सुना जाए, कुछ कमी सी लगती है। इसलिए आज जब मुझे इस ट्रांसिस्टर की याद आई तो इसे निकाला, सैल डाले और यह बढ़िया चल रहा था। एक बात तो और बता दूं जिस गाड़ी में यह खरीदा था ..शायद उस स्टेशन का नाम सिलिगुड़ी या फिर न्यू-जलपाईगुड़ी है...वहां से नेपाल शायद बिल्कुल पास ही है, इसलिए वहां गाडियों में और इस तरह का तथाकथित इम्पोर्टेड सामान जैसे कि रेडियो, टू-इन-वन,कैमरे आदि खूब बिकते हैं.. मोल-तोल भी खूब होता है उन्हीं पांच-दस मिनटों में..सब डरते डरते लेते हैं कि क्या पता गाड़ी से उतरने पर ये उपकरण चलें भी या नहीं..लेकिन फिर भी मेरे जैसे लोग अपने को रोक नहीं पाते। एक बात और..उसी स्टेशन पर मुझे याद है चाय बेचने वाले अपनी अंगीठी समेत एसी के डिब्बे में भी चढ़ जाते हैं...अच्छे से याद है एक अंगीठी से कुछ कोयले एसी डिब्बे के फर्श पर गिर गये और वह बिल्कुल जल सी गई .....लेकिन न तो कोच अटैंडैंट की और न ही टीटीई की इतनी हिम्मत हुई कि वह उस चाय वाले से उलझने का साहस करें। इस के कारण गाड़ी चलने पर पता चले। लेकिन जो भी है, आज जब गाड़ियों में आग की इतनी वारदातें देखने में आ रही हैं, इस तरह की अराजकता को भी रोकने के लिए कुछ तो करना ही होगा।

बुधवार, 11 दिसंबर 2013

बदल गईं दवाईयां भी आज

कल मेरी एक महिला मरीज़ ने मुझ से पूछा कि क्या उसे अस्पताल से खुला माउथवॉश मिल जायेगा। मेरे जवाब देने से पहले ही उसे याद आ गया कि वह तो शीशी लाई ही नहीं।

अचानक मुझे भी ४० वर्ष पहले का ज़माना याद आ गया जब कुछ सरकारी अस्पतालों में जाते वक्त लोग कांच की एक दो बोतलें साथ लेकर जाते थे ..पता नहीं डाक्टर कोई पीने वाली दवाई लिख दे तो!

हमारे मोहल्ले में एक आंटी जी रहती थीं..जिन का प्रतिदिन यह नियम था कि सुबह नाश्ते के बाद उन्होंने हमारे पास ही के एक अस्पताल में जाना ही होता था, मुझे अच्छे से याद है कि उन के पास एक खाकी रंग का थैला (पुरानी पैंट से निकाला गया) हुआ करता था जिस में वह एक दो कांच की शीशीयां अवश्य लेकर चलती थीं।

वैसे तो हम लोग उस अस्पताल में कम ही जाते थे क्योंकि न तो वहां पर डाक्टर ढंग से बात ही करते थे ...मरीज़ की तरफ़ देखे बिना उस की तकलीफ़ पूरी सुने बिना...वे नुस्खा लिखना शुरू कर देते थे। हां, कभी कभी आते थे ऐसे भी डाक्टर जो ढंग से पेश आते थे लेकिन अच्छे लोगों की हर जगह ज़रूरत रहती है, जल्द ही उन की बदली हो जाया करती थी। और दूसरी बात यह भी उस अस्पताल में कि वहां पर गिनती की दो-तीन दवाईयां ही आती थीं...एपीसी, सल्फाडायाजीन, टैट्रासाईक्लिन, खाकी गोलियां-- खांसी की और दस्तों को दुरूस्त करने वालीं, खांसी का मीठा शर्बत, बुखार की पीने वाली दवाई...बस, .......नहीं नहीं मच्छी के तेल वाली छोटी छोटी गोलियां ...ये हर एक के नसीब में न हुआ करती थीं। लेकिन हम लोग पट्टी करवाने और टीका लगवाने वही जाते थे।

हम लोग जब भी कभी उस अस्पताल में जाते थे तो वह आंटी हमें ज़रूरत मिलती ... जब वह दवाई ले भी चुकी होतीं तो भी वहां पर किसी न किसी लकड़ी के बैंच पर किसी औरत से बतियाती ही मिलती। अब मुझे उस आंटी का नाम तो याद न था, लेकिन एक बात अच्छे से याद थी उस के बारे में कि सारे मोहल्ले में वह लाल-ब्लाउज वाली महिला के नाम से जानी जाती थीं, क्योंकि वह हमेशा लाल-सुर्ख ब्लाउज़ ही पहने दिखती थीं, ऐसा क्यों करती थी, यह मेरा विषय नहीं है। कल रात ही में मुझे वर्षों बाद जब उस आंटी का ध्यान आया तो मैंने अपनी मां से इतना ही कहा, बीजी, आप को याद है वह लाल-ब्लाउज वाली आंटी.......मेरी मां हंसने लगीं और कह उठीं...हां हां, जो रोज़ अस्पताल ज़रूर जाया करती थीं...वह बड़ी हंसमुख स्वभाव की थीं।

न तो डाक्टर ढंग से बात ही करते, न ही ढंग की दवाईयां, और ऊपर से दवाईयां बिना पैकिंग वाली। किसी कागज़ में लपेटी हुई दवाई दी जातीं। जल्द ही कागज़ से इस कद्र चिपक जातीं कि उन्हें बाहर नाली में ही फैंक दिया जाता। मछली के तेल वाली गोलियों के साथ भी कुछ कुछ ऐसा ही होता था। लेकिन वह खांसी की और बुखार की पीने वाली रंग-बिरंगी दवाई खूब पापुलर थीं, महीने में कुछ दिन ही वे मिलती थीं लेकिन जबरदस्त क्रेज़ था। खांसी और बुखार तो तब तक ठीक ही न होते थे जब तक इन दवाईयों को पी नहीं लिया जाता था। वैसे इन दवाईयों को अधिकतर लोग दारू की खाली कांच की बोतले में ही लेकर आते थे...सभी के कपड़ों के थैलों में एक खाली दारू का पौवा या अधिया होना ज़रूरी होता था, वैसे लोग अधिया उस फार्मासिस्ट के आगे सरकाते कुछ झिझक सी महसूस किया करते थे। लेकिन जो व्यवस्था थी सो थी, वह मैंने ज्यों की त्यों आपके सामने रख दी है।

खाने या पीने वाली दवाई लेने के बाद अगर उस कंपांउडर से पूछ लिया कि यह खानी कैसे है तो वे इस तरह से भड़क जाते थे जैसे किसी ने उन्हें गालियां दे डाली हों.. लोग भी सहमे सहमे से उन को भड़काते न थे, जैसे समझ में आया खा लेते थे वरना खुली नालियां तो हर घर के सामने हुआ ही करती थीं।

एक बात जिसे मैं हमेशा याद करता हूं ..उस अस्पताल की एक लेडी हैल्थ-विज़ीटर ...मुझे याद है वह किस तरह से हम सब के घर जा जा कर मलेरिये की गोलियां दे कर जाती थीं। मेरी मां को एक बार मलेरिया हो गया, सत्तर के दशक की बात है, और घर ही आकर पहले तो वह एक स्लाईड तैयार करतीं और फिर अगले तीन-चार दिन तक रोज़ाना आकर अपने सामने मलेरिया की दवाई खिला कर जाया करतीं.......वह यह सब काम अपने लेडी-साईकिल पर किया करती थीं। उस महिला की डेडीकेशन भी कहीं न कहीं मेरे लिए इंस्पिरेशन रही होगी। हम लोग अकसर उसे याद करते हैं....

हर एक के साथ अच्छे से बात करना, उसे हौंसला देना और मरीज़ को चाहिए क्या होता है, दवाई तो जब अपना काम करेगी तब करेगी। मैं जिस अस्पताल की बात कर रहा हूं वहां पर एक एमबीबीएस लेडी डाक्टर भी हुआ करती थीं, मुझे एक बार बुखार हो गया, १०-१२ साल की अवस्था होगी, मुझे याद है वह मुझे घर देखने आई........आते ही ...उसने यह कहा.....ओ हो, इतना ज़्यादा बुखार........अब डाक्टर के मुंह से ऐसे शब्द मेरे बाल मन इन का मतलब न समझ पाए हों, लेकिन मैं अपने पिता जी के मुंह पर हवाईयां उड़ती ज़रूर देखी थीं कि कहीं यह मरने वाला तो नहीं.....वे मुझे तुरंत एक प्राईव्हेट डाक्टर कपूर के पास ले गये ....उन का मरीज़ों को ठीक करने का अपना अनूठा ढंग था.... सब से ज़्यादा अच्छे से बात सुनने, समझाने और हौंसला देने का अनूठा ढंग.......मैं अगले ही दिन ठीक हो गया।

कांच की दवाई वाली शीशीयों से ध्यान आया कि अमृतसर के पुतलीघर चौक में एक बहुत जैंटलमेन डाक्टर कपूर हुआ करते थे जो दिखने में भी अपने ढील-ढौल से, अपनी बातचीत से भी डाक्टर दिखते थे। वे बहुत काबिल डाक्टर थे, हरफनमौला थे, हर बीमारी का इलाज करते थे.....फैमली डाक्टर की एक परफैक्ट उदाहरण। मुझे याद है ..एक बार मेरी आंख में कुछ चला गया, लाली आ गई, पानी से धोने के बाद भी वह नहीं निकला, शायद कुछ लोहे का कण सा था..रिक्शा लेकर मेरी मां मुझे वहां तुरंत ले गईं.....उन्होंने तुरंत ऊपर की पुतली को पकड़ा और शायद कुछ चुंबक-वुंबक हाथ में लिया ...मुझे नहीं पता क्या था, लेकिन अगल ही क्षण मैं ठीक हो गया।

डाक्टर कपूर पुरानी डिग्री वाले डाक्टर थे, होता था ना कुछ लाइसैंशियट-वियट वाली डिग्री.......हां, जो सब से अहम् बात मैंने उन के क्लिनिक के बारे में बतानी है वह यह कि वे नुस्खा लिखते जिसे हम एक खिड़की पर जाकर उन के कंपांउडर के हाथ थमाते......वह चंद मिनटों में हमें खाने की गोलियां और पीने वाली दवाई की एक -दो शीशीयां थमा देता। कांच की शीशियां जिन पर कागज़ का एक स्टिकर भी लगा रहता कि एक बार में दवाई की कितनी खुराक पीनी है। यह जो मैंने कांच की शीशी की तस्वीर ऊपर लगाई है ...ये डाक्टर कपूर के द्वारा हमें दी जाने वाली शीशीयां भी कुछ इसी तरह की ही हुआ करती थीं जैसी कि आप पहली तस्वीर में देख रहे हैं....बहुत बार तो इन के ऊपर निशान पहले ही से लगा रहता था जैसा कि आप उस तस्वीर में भी देख सकते हैं....कभी कभी उस पर उन का कंपांउडर कागज़ का एक स्टिकर सा लगा देता था जिस तरह का मैंने इस दूसरी तस्वीर में दिखाया है।

दवाईयों का रूप फिर धीरे धीरे बिल्कुल बदलना शुरू हो गया.....कांच की बोतलों की जगह सस्ते से पलास्टिक ने ले ली, खुली दवाईयां भी उन दिनों ऐसा लगता है कि शुद्ध हुआ करती होंगी ..क्योंकि आज कल की फैशनेबुल पैकिंग वाली कुछ दवाईयों को किस तरह से लालच की फंगस लग चुकी है, यह हम नित्य प्रतिदिन मीडिया में देखते हैं। और तो और, कुछ तो दवाईयां ऐसीं कि ऊपर लिखा है ६०रूपये और चलता-पुर्ज़ा मरीज़ उसे १० रूपये में ले उड़ता है, ये काल्पनिक बातें नहीं है, सब कुछ हो रहा है.....। लेकिन अनपढ़, गरीब आदमी को उसे ६० में ही बेचा जाएगा। चलिए, इसे यही छोड़ते हैं, इस पर किसी दूसरे दिन मगजमारी कर लेंगे।

लिखते लिखते और भी इतनी बातें याद आ रही हैं कि इतना सब कुछ तो एक नावल में ही समा पाएगा। इसलिए इस पोस्ट को यहीं विराम देता हूं। इस विषय पर बाकी बातें फिर कभी कर लेंगे।

गुरुवार, 21 नवंबर 2013

वो कचरेवाली....

मैं उसे बहुत दिन तक देखता रहा.. जब भी देखा उसे अपने काम में तल्लीन ही देखा...सुबह दोपहर शाम हर समय बस हर समय कचरे को बीनते ही देखा।

आज कल जगह जगह पर म्यूनिसिपैलिटि के बड़े बड़े से कूड़ेदान पड़े रहते हैं ना, जिसे हर रोज़ एक गाड़ी उठा कर ले जाती है और उसी जगह पर एक नया कूड़ादान रख जाती है।

बस वह उसी कूड़ेदान के पास ही सारा दिन कूड़ा बीनते दिखती थी। साथ में कभी कभी उस की लगभग एक साल की छोटी बच्ची भी दिखती थी... मां कूड़े में हाथ मार रही है और बच्ची साथ में कूड़ेदान से सटी खड़ी है, एक साल की अबोध बच्ची ...यह सब देख कर मन बेहद दुःखी होता था।

मैं उसे वह सब करते देखा करता था जो कूड़े प्रबंधन के बारे में किताबों में लिखा गया है, प्लास्टिक को अलग कर रही होती, पन्नियों को अलग, कांच को अलग.. फिर यह सब बेचती होगी।

उस की बच्ची उस कूड़ेदान के पास ही एक चटाई पर अकसर सोई दिखती, साथ में एक कुत्ता ...एक दो बार मैंने उसे एक टूटे खिलौने से खेलते देखा ..शायद उस की मां ने उस कचरे से ही ढूंढ निकाला होगा।

उस औरत को ---उम्र उस की कुछ ज़्यादा न होगी...शायद १८-२० की ही रही होगी लेकिन अकसर इस तरह की महिलाओं को समाज जल्द ही उन की उम्र से ज़्यादा परिपक्व कर देता है.... बदकिस्मती....

सुबह ११-१२ बजे के करीब मैं देखता कि उस का पति चटाई पर सोया रहता ... यह भी मेरा एक पूर्वाग्रह ही हो सकता है कि मुझे लगता कि इस ने नशा किया होगा, दारू पी होगी........लेकिन यह निष्कर्ष भी अपने आप में कितना खतरनाक है, मैंने कभी उस बंदे का हाल नहीं पूछा, कोई बात की नहीं, कोई मदद का हाथ नहीं बढ़ाया लेकिन उस के बारे में एक राय तैयार कर ली। अजीब सा लगता था जब इस तरह के विचार आते थे। क्या पता वह बीमार हो या कोई और परेशानी हो...वैसे भी हम जैसों को बहुत ही गरीब किस्म के लोग पागल ही क्यों लगते हैं, यह मैं समझ नहीं पाता हूं.......गरीबी, लाचारी, पैसे की कमी, भूख........बीमार कर ही देती है।

मैंने यह भी देखा कि पास की बिल्डिंगों से जो भी कूड़ा फैंकने आता उस महिला से ज़रूर बतियाता............उन के हाव भाव से ही वह पुरानी कहावत याद आ जाती ....गरीब की जोरू जने खने की भाभी। कुछ निठल्ले दो चार लोगों को बिना वजह उस की बच्ची के साथ खेलते भी देखा। उन का उस की बच्ची की खेल में ध्यान कम और उस महिला की तरफ़ ज़्यादा होता। आगे क्या कहूं........साथ में पड़ी चटाई पर उस का आदमी सोया रहता।

आते जाते जितनी तन्मयता से मेहनत मैंने उस औरत को करते देखा उतना मैंने किसी सरकारी कर्मचारी को नहीं देखा, मैं सोच रहा था क्या आरक्षण के सही पात्र ऐसे लोग नहीं हैं ...इतनी मेहनत, इतनी संघर्ष, इतनी बदहाली ..इतना शोषण...कईं प्रश्न उधर से गुजरते ही मेरे मन में कौंध जाया करते थे।

सरकारी सफाई कर्मीयों को तो कचरे बीनने के लिए तरह तरह के सुरक्षा उपकरण मिलते हैं, बूट, दस्ताने आदि ...लेकिन वह सब कुछ नंगे हाथों से ही कर रही होती थी, बेहद दुःख होता था............ छोटी उम्र, पति की सेहत ठीक नहीं लगती थी और ऊपर से बिल्कुल अबोध बच्ची ... मैं अकसर सोच कर डर जाता कि अगर यह महिला बीमार हो गई तो उस की बच्ची का क्या।

हां, एक बात तो मैं बताना भूल ही गया.... उस की बच्ची बड़ी प्यारी थी, गोल मटोल सी........मैंने उसे कभी रोते नहीं देखा, चुपचाप चटाई पर खेलते या सोते ही देखा या फिर मैं के साथ कचरेदान के साथ खड़े पाया ... दो एक बार मां उस को चटाई पर बैठा कर स्तनपान करवाती भी दिखी।

एक बार मैं शाम को छः सात बजे के करीब जब उधर से गुजरा तो मैंने देखा कि वह एक ट्रांजिस्टर पर रेडियो का कोई प्रोग्राम सुन रही है। अच्छा लगा।

सरकार की इतनी सामाजिक सुरक्षा स्कीमें हैं, अन्य कईं प्रकार के रोज़गार हैं, लेकिन फिर भी बहुत से लोग अभी भी अमानवीय ढंग से जीवनयापन कर रहे हैं............लिखते लिखते ध्यान आया कि कुछ दिन पहले एक मित्र ने किसी महिला की फेसबुक पर एक तस्वीर लगाई ...बेचारी फटेहाल सी लग रही थी, उस की पीठ थी कैमरे की तरफ़.... और वह गंदे नाले जैसी किसी जगह  से अपने हाथों में चुल्लु भर पानी भर कर पी रही थी। उसी फोटो के नीचे एक कमैंट था ...कोई पगली होगी।

नहीं, ऐसा नहीं होता ...हम ओपिनियन बनाने के मामले में हमेशा बहुत आतुर रहते हैं, गरीबी और पागलपन पर्यायवाची शब्द नहीं हैं ना।

बहुत दिनों तक मेरा रास्ता उधर से हो कर गुज़रता था, मुझे दो बातें सब से ज्यादा कचोटती रहीं ....जितने जोखिम भरी परिस्थितियों में वह काम कर रही है, ऐसे में वह क्या सेहतमंद रह पाएगी और दूसरी बात यह कि उस नन्हीं जान की परवरिश का क्या, कहीं पंद्रह वर्ष बाद वह तो इस रोल को न निभाती मिलेगी...

बुधवार, 14 मई 2008

काश ! थोड़ा-बहुत गुज़ारे लायक ही इतिहास-भूगोल पढ़ लिया होता...

स्वयं एक क्वालीफाईड जर्नलिस्ट होते हुये भी आज आप को बता ही देता हूं कि मेरा हिस्ट्री-ज्योग्राफी का ज्ञान शून्य के बराबर है। अगर मुझे कोई पूछे ना कि बताओ कि हिंदोस्तान के नक्शे में यह अंडमान-निकोबार द्वीप-समूह किधर है तो मेरी आँखें दस मिनट तक नक्शे के इधर उधर ही घूमती रहेंगी और उस के बाद भी मारूंगा तुक्का ही .....हां, हां, बिलकुल मैट्रिक के हिस्ट्री-ज्योग्राफी के पेपर की ही तरह।

मैट्रिक का पेपर देने के बाद मुझे पता है कि रिजल्ट आने तक मेरा डेढ़-दो महीना कैसा गुज़रा था.....क्योंकि मुझे ही पता था कि मैं इतिहास-भूगोल के पेपर में क्या गंद डाल के आया था। बस, इतना सुन रखा था कि हिस्ट्री वाले पेपर जांचने वाले पेपर पढ़ते नहीं है, लंबाई नापते हैं......बस, इसी बात का ही सहारा था। वैसे मैं इतनी गप्पे हांक कर आया था कि क्या कहूं...मुझे अच्छी तरह से याद है कि मुझे अगर किसी प्रश्न के बारे में दो-चार लाइनें भी पता थीं ना तो मुझे पता है कि मैंने कैसे उन्हें चालीस बना कर दम लिया था और वह भी खुला खुला लिख कर ताकि चैक करने वाले मास्टर को 5-6 नंबर देने में कोई आपत्ति तो ना हो....वह बस तरस कर ले कि यार, लड़के ने लिखा तो है ही ना........बस, पता नहीं चैक करने वाले को ही रहम आ गया होगा कि मेरे 150 में से 94 अंक आ गये.....वैसे तो मैं मैरिट सूची में था। बस, सचमुच रिजल्ट आने पर राहत की सांस ही ली थी......क्योंकि मुझे इस तरह के नाइट-मेयर्स होते थे उन दिनों कि बच्चू तू बाकी विषयों में ते लेगा 85-90प्रतिशत लेकिन हिस्ट्री-ज्योग्राफी खोलेगी तेरी पोल।

यह जो ऊपर मैंने चार लाइनों को चालीस तक खींचने की बात की है.....अब लग रहा है कि ब्लॉगर बनने के गुण शायद इस नाचीज़ में बचपन ही से मौज़ूद थे। हां, एक बात ज़रूर कहना चाहूंगा कि जब भी मैं इस पेपर का पहला प्रश्न लिखना शुरू करता था तो यह सुनिश्चित किया करता था कि पहला सवाल एकदम धांसू सा पकड़ूं........हम लोग आपस में बातें तो किया ही करते थे कि यार, बस अग्ज़ामीनर पर एक बार इंप्रैशन पड़ गया ना तो समझो कि उस ने बाकी फिर कुछ नहीं देखना। बस, इस बात को अपनी सारी पढ़ाई में फॉलो किया। पंजाबी में हमारे दोस्त कहा करते थे कि यार, हिस्ट्री विच तक गिट्ठां मिन के नंबर मिलदे ने.......यानि की हिस्ट्री में तो पेपर को हाथ से नाप-नाप के ही नंबर मिलते हैं.....बस, इसी बात का ही आसरा लग रहा था। भूगोल का भी वो हाल कि नक्शे में कुछ भी भऱना आता ना था .....बस, तुक्के पे तुक्के.....फिर रबड़ से मिटा मिटा के बार-बार तुक्के ताकि पेपर जांचने वाले को दूर से पता चल जाये कि इस को आता जाता तो कुछ है नहीं, बेवकूफ बनाने के चक्कर में ही है।

डीएवी स्कूल अमृतसर में पढ़ा हूं.....लेकिन वहां पर मुझे यह ध्यान नहीं है कि कोई भी टीचर ऐसा होता कि जो मेरे को हिस्ट्री-भूगोल में मेरी ऱूचि पैदा कर पाता। वैसे है तो यह बात अपना दोष किसी ओर के ऊपर मढ़ने की.......लेकिन फिर भी कर रहा हूं। क्योंकि अपना दोष किसी और के सिर मढ़ने में अच्छा लगता है....है कि नहीं, सच-सच बताईये। अच्छा , तो इतिहास-भूगोल का इतना ही याद है कि पांचवी-छठी कक्षा तक तो शिखर -दोपहरी में कच्छे-बनियान में बैठ कर बेहद चाव से इस के सवाल-जवाब अपनी कापी पर लिखा करते थे । लेकिन उस के बाद पता नहीं कब यह इंटरैस्ट कहीं दूर हवा हो गया.....मुझे पता नहीं ।

जहां तक मुझे अपने इतिहास-भूगोल के मास्टरों का याद है ....उन्हें तो बस यही होता था कि बस सत्र के शुरू ही में कैसे गाइड़े वगैरा बस लगवा देनी हैं। बस क्लास से क्लास छलांग लगाते तो गये लेकिन इस हिस्ट्री -भूगोल में बिल्कुल कोरे।

चलिये, आप से कैसी शर्म ....अपना इतिहास-भूगोल का ज्ञान आप के साथ एक पैराग्राफ में ही बांट लेतता हूं....पता नहीं वैसे तो मैं बेहद रिज़र्व किस्म का इंसान हूं लेकिन आप से कुछ भी बांटने में कभी भी लज्जा महसूस नहीं हुई .....पता है क्यों......क्योंकि आप सब मुझे अपने सखा -बंधु ही लगते हो......आप भी तो अपने दुःख -सुख कैसे बिना किसी झिझक के सांझे कर लेते हो। हिस्ट्री में तो दोस्तो हम यही पढ़ते रहे कि पानीपत का यूद्ध कब हुया, किस किस के बीच हुया....हां, कुछ कुछ प्लासी का युद्ध भी पढ़ा। जैन और बुद्ध धर्म के नियम भी पढ़े.....धन्यवाद हो, गौत्तम बुद्ध जी का और उस से भी ज़्यादा महावीर जैन प्रभु का ..............क्योंकि ये सिद्धांत बेहद आसान लगते थे। इस्ट इंडिया कंपनी के बारे में भी पढते थे। मोहंमद तुगलक के बारे में पढ़ते तो थे कुछ कुछ.....अब ध्यान नहीं आ रहा कि क्या ...शायद उस ने मेरे पुरखों पर बहुत हमले-वमले किये थे.....शेर शाह सूरी के बारे में पढ़ते थे कि उस ने जीटी रोड बनवाई थी.....अच्छा लगता था.....और हां, मोहम्मद गौरी और महमूद गजनवी ने यारो बहुत डराया है इन छोटी कक्षाओं में ........उन के बार-बार हमलों के बारे में जानकर और मंदिर वगैरह में की गई लूट-पाट जानकर कुछ इस तरह से सहम जाया करता था कि जैसे हमारे घऱ में ही डाका पड़ गया है। यह तो था मेरा हिस्ट्री ज्ञान......हां, हां, था मैंने बिलकुल ठीक लिखा है....अब इन में से कुछ भी नहीं याद।

अब अपने भूगोल ज्ञान के बारे में भी लिख दूं......आज तक मुझे कुछ पता नहीं दुनिया कितने हिस्सों में बंटी हुई है.....कौन सा देश कहां है...बस मेरे लिये जो तस्वीर मन में पांचवी कक्षा से चली आ रही है उसे कोई भी हिला--डुला नहीं पाया ....तस्वीर यही कि हिंदोस्तोन की हदों के बाहर समुंदर है और फिर आता है इंग्लैंड और अमेरिका ........फिर जब पंजाब से बहुत से लोग कैनेडा जाने शुरू हो गये तो मुझे पता चला कि कैनेडा भी कोई जगह है।

जो हमारे मास्टर थे उन में से एक थे ...बहुत डरावने से...बडी-बड़ी मूंछे.......मुझे उन की मानसिक स्थिति एवं आव-भाव देख कर पता नहीं क्यूं लगता था कि उन की पर्सनल लाइफ कुछ ठीक नहीं थी.....दूसरे लड़के तो उन से नफरत सी ही करते थे लेकिन मुझे पता नहीं क्यों उन से सहानुभूति सी लगती थी। वे अपने छोटे से बेटे को अपने साथ कईं बार क्लास में लाते थे......और मुझ उस पर भी बहुत रहम ही आता था........उस को भी वे अजीब से ढंग से डरा-धमका के ही रखते थे। अब सोचता हूं कि क्या मास्टर लोग ह्यूमन नहीं होते क्या .....उन की भी अपनी कुंठायें हैं, अपने मसले हैं , अपने दबी भावनायें हैं......सो, दोस्तो, मुझे अपने इस मास्टर से भी कोई गिला-शिकवा ही नहीं है लेकिन दो बातें याद हैं कि मुझे एक बार तो उन्होंने वर्दी न डालने के कारण एक जबरदस्त करारा सा थप्पड़ मारा था ( नौवीं कक्षा में) और दूसरा जब मैंने किसी कारणवश एक दिन दंदासा इस्तेमाल किया हुया था ....( पंजाब में हम लोग रंगीन दातुन को --अखरोट छाल --- दंदासा कहते हैं).......जिस की वजह से मेरे होंठों पर थोडा उस दातुन का रंग लगा हुया था तो उन्होंने मुझे सारी क्लास के सामने कहा था कि तू सैक्स ही चेंज करवा ले, आज कल हो रहे हैं...............ऐसा उन्होंने इस लिये कहा था कि पंजाब में रंगीन दातुन ज्यादातर महिलायें ही इस्तेमाल करती थीं लेकिन उस दिन शाय़द घर में पेस्ट खत्म थी , या कुछ और कारण था...बस, कुछ तो लफड़ा था, इसलिये मैंने उसे इस्तेमाल किया था।

बस, उस मास्टर की यह बात मैं बहुत दिनों तक सोचता रहा था लेकिन यह तो मानना पड़ेगा कि पहले कईं मास्टर लोग भी शायद इतने सेंसेटिव किस्म के नहीं थे.....कोई कोई, ऑफ कोर्स-----कुछ भी कह देते थे और सब के सामने और फिर उस अबोध मन पर क्या बीतता था , उन इस से कोई खास सरोकार नहीं होता था। चलो, यारो, छोड़ो ....मैं भी क्यों उस बेचारे मास्टर के पीछे ही हाथ धो कर पड़ गया हूं। जहां भी हों, वे खुश रहें।

अब जल्दी जल्दी से एक बात लिखनी यह भी है कि मेरे इस हिस्ट्री-भूगोल के बिलकुल शून्य के बराबर ज्ञान का मेरे ऊपर क्या प्रभाव पड़ा......बिल्कुल पड़ा, सज्जनो, क्योंकि मैं इस अल्प-ज्ञान की वजह से ना तो अखबारों की खबरें ही समझ पाता हूं....ना ही ज़्यादातर खबरों से रिलेट ही कर पाता हूं......और हमारे प्रोफैसर साहब कहा करते थे कि अंग्रेजी का सीएनएन एवं बीबीसी न्यूज़ चैनल रोज़ाना ज़रूर देखा करो ....लेकिन कोशिश तो की ....लेकिन जब भी वे किसी जगह का नाम लेते हैं, मैं कहीं गुम हो जाता हूं और झट से दौड़ कर उस चैनल पर वापिस आ जाता हूं जहां निंबूडा-निंबूडा वाला गाना चल रहा होता है या लाफ्टर चैनल पर पांच मिनट बिता कर अपने इतिहास-भूगोल ना जानने का दुःख भूल सा जाता हूं।

एक बात यह भी करनी चाह रहा हूं कि डाक्टरी की पढ़ाई करने के बाद भी मैंने अपने इतिहास-भूगोल के ज्ञान को सुधारना तो चाहा, कभी बच्चों की किताबें पढ़ के, कभी एनसीईआरटी की बहुत ही बेहतरीन किताबें खरीद कर ....लेकिन मैं भई नहीं जान पाया कि यह हिस्ट्री-ज्योग्राफी क्या बला है।

एक बात और यह भी कह रहा हूं कि एक तरफ मेरे को तो मलाल है कि मैंने हिसट्री-ज्योग्राफी ढंग से नहीं पढ़ी और उधर मेरी माताश्री इस बात से परेशान हैं कि उन्होंने ने काहे अंग्रेज़ी की तरफ़ स्कूल में ध्यान नहीं दिया.......अकसर कहती हैं कि उन की फलां-फलां सखी अंग्रजी में अच्छी थी और वह जम्मू से डिप्टी -डायरैक्टर के पद से रिटायर हुई हैं। और अब सुनाता हूं ...बीवी की .....श्रीमति जी से इस पोस्ट लिखते समय इतना ही पूछा कि ज्योत्स्ना, क्या वह राजा तुगलक ही था ना जो बहुत खाता था....तो उन्होंने भी झट से जवाब दे डाला.......मुझे नहीं पता नहीं इन चीजों के बारे में .....आप ही हो इतनी पुरानी बातों को याद किये रखते हो......हम तो याद करते थे और फिर भूल-भाल के छुट्टी किया करते थे................बस , बीवी का यह जवाब सुन कर मुझे राहत महसूस हुई कि मैं अकेला ही नहीं हूं....यहां तो सारी फैमिली ही अज्ञानी है, तो फिर दिल पे क्या लेना यारो।

हां, अब जाते जाते मुझे कुछ सीरियस से सुझाव दीजिये कि मैं अपने हिसट्री-भूगोल के ज्ञान को थोडा बहुत आगे धक्का देने के लिये आखिर करूं भी तो क्या !!