गुरुवार, 31 जुलाई 2014

ई-बोला वॉयरस इंफैक्शन आजकल बहुत चर्चा में है---क्या है यह?

 ई-बोला हैमरेजिक बुखार एक बहुत ही खतरनाक बीमारी है जो कि ९०प्रतिशत केसों में जान ही ले लेती है और यह मानव एवं प्राइमेट्स में (जैसे कि बंदर, गोरिल्ला) में होती है। 
यह बीमारी एक वॉयरस के द्वारा होती है -वैज्ञानिकों ने पांच तरह की ई-बोला वॉयरस की पहचान की है। अभी तक तो यह बीमारी अफ्रीका के कुछ भागों तक ही सीमित थी। 
मैं आज कहीं पढ़ रहा था कि इस वॉयरस को बॉयो-टेरेरिज़म के लिए भी इस्तेमाल किया जा सकता है। 
मनुष्यों में यह बीमारी संक्रमित पशुओं एवं पशुओं के पदार्थों से (animal materials)..फैल सकती है। ई-बोला वॉयरस इंसानों में आपस में नज़दीकी संपर्क से एवं संक्रमित शारीरिक द्रव्यों के द्वारा और अस्पताल में संक्रमित सूईंयों से फैल सकती है।
इस की जांच के लिए विभिन्न तरह के टैस्ट उपलब्ध हैं। 
शुरूआती दौर में इस के लक्षण हैं जो कि लगभग एक हफ्ते तक रह सकते हैं...... जोड़ों में दर्द, पीठ दर्द, कंपकपाहट, दस्त, थकान, बुखार, कुछ न करने का मन, मतली, गले में दर्द, उल्टी होना....
बाद में यह लक्षण आ जाते हैं..... आंखों, कानों और नाक से खून बहना, मुंह से और गुदा द्वार से रक्त बहना, आंख की सूजन, यौन अंगों की सूजन (महिलाओं में योनि द्वार - लेबिया और पुरूषों में अंडकोष की सूजन), चमडी में ज्यादा दर्द महसूस होना, सारे शरीर में अजीब तरह की रक्त-रंजित खारिश, और मुंह में तालू लाल दिखने लगता है। 
इस बीमारी का इलाज कुछ है नहीं, लगभग ९० प्रतिकेस तो जान गंवा बैठते हैं. वैसे मरीज़ को आईसीयू में रहने की ज़रूरत पड़ती है और वहां पर उसे रक्त या प्लेटलेट्स दिये जा सकते हैं। अकसर मरीज की मौत रक्त चाप बहुत नीचे गिर जाने से होती है। 
अधिक जानकारी के लिए यहां पढ़िए.....   Ebola Hemorrhagic fever
Further reading.......
                   Sierra Leone declares Ebola Emergency
                   Why Ebola is so dangerous?

मैंने अपनी कमर माप ली, क्या आप ने मापी...

आज सुबह बीबीसी न्यूज़ पर यह रिपोर्ट दिखी तो एक बार फिर से आंखें खुल गईं। क्या करें, आंखें तो कईं बार पहले भी खुल चुकी हैं, लेकिन हम मानते कहां है, कहां मीठा खाने पर कंट्रोल ही करते हैं और कहां नियमित शारीरिक परिश्रम ही करते हैं।

हां तो इस रिपोर्ट में लिखा है जिन पुरूषों की कमर ४० इंच और महिलाओं की ३५ इंच होती है उन में मधुमेह रोग का खतरा पांच गुणा बढ़ जाता है। पूरी रिपोर्ट पढ़ने के लिए आप इस नीचे दिए गये लिंक पर क्लिक कर सकते हैं।
'Tape measure test' call on type 2 diabetes

जैसा अकसर हमारे जैसे घरों में होता है, सुबह जब खबर पढ़ी तब तो इंचीटेप मिला नहीं, हां, जब श्रीमति जी ने दोपहर में ढूंढ लिया तो मैंने कमर मपवाई...बिल्कुल ऐसे ही जैसे इस रिपोर्ट की फोटो में दिखाई गई है..अर्थात् अम्बलाईकस के इर्द-गिर्द। मुझे उम्मीद थी कि यह ४० के करीब होगी। नहीं, ये ४२ से थोड़ी ऊपर थी।

फिर वह पैंट का भी माप लिया जो मैं पहनता हूं और जो अभी ठीक आती है, वह ४१ इंच के लगभग थी।
सीधी सीधी बात कि आंकड़ा ४० इंच तक तो शर्तिया पहुंच ही चुका है और उम्र ५० के पार हो गई है, इसलिए इस तरह की रिपोर्टें मेरे जैसों को यही याद दिलाने के लिए होती हैं कि अभी भी सुधर जाओ....खाना पीना ठीक कर लो, वैसे तो खाना पीना ठीक ही है, पीना है नहीं, लेकिन मीठा ज़्यादा हो ही जाता है और नियमित शारीरिक परिश्रम का अभाव बना हुआ है।

अब इन दोनों बातों का ध्य़ान रखना होगा, और दो एक दिन में फिर से साईक्लिंग शुरू करनी होगी।
आप भी अपनी कमर अभी माप ही लीजिए.....लेकिन मापिए नाभि को रेफरेंस लेकर ही। प्रेरणा हमें कहीं से भी मिल सकती है ..कभी भी.......... There is never a wrong time to do the right thing. So, just check!

आम हिंदोस्तानी की छोटी बड़ी मजबूरियां...

मेरे पास कुछ महीने पहले एक व्यक्ति आता था.. ७० के ऊपर की उम्र... २० साल से कोर्ट कचहरी के धक्के खा रहा है, लेकिन कहीं सुनवाई नहीं हुई..रिटायर हुए भी १२-१३ वर्ष हो गये हैं लेकिन अभी भी बड़ा हैरान, परेशान और एकदम पज़ल सा दिखा मुझे वह।

हैरान परेशान का कारण यही कि अभी तक कोर्ट-कचहरी में इतना पिसता रहा कि अभी भी तीनों बेटियों को ब्याहना है। और जिस बेटी को वह मेरे पास लेकर आया वह बेटी चाहती थी कि उस के आगे के सभी दांत एक दम सुंदर दिखने लगें .. सफ़ेद हो जाएं.. हंसते हुए जो थोड़े भद्दे से दिखते हैं, वे अच्छे दिखें......मैं सब समझ गया जब उस बुज़ुर्ग ने कहा कि लड़के वाले फोटो मंगवा रहे हैं, हम अभी भेज नहीं रहे हैं, ज़्यादा देर नहीं कर सकते, हम चाहते हैं इस के दांत अच्छे दिखने लगें तो ही फोटू खिंचवाए।

एक बाप की मजबूरी मैं समझ रहा था......मैंने भी कुछ दिन लगा दिए उस के दांतों को अपनी तरफ़ से बिल्कुल सफ़ेद-और बिल्कुल तरतीब में करने में। वे बाप और बेटी दोनों खुश थे। उन को खुश देख कर मैं भी बहुत खुश हुआ।
यह पोस्ट मैं इसलिए नहीं लिख रहा कि मैंने बहुत महान काम किया....सरकारी अस्पताल में सरकारी लोगों का अच्छे से इलाज करना मेरा पेशा है, सरकार उस के लिए मेरा ध्यान रखती है...ऐसे बहुत से युवत-युवतियों के चेहरों को सुंदर बनाया होगा.....लेकिन यह केस मुझे भुलाये नहीं भूलता क्योंकि यहां एक बाप की मजबूरी हर पल मुझे द्रवित करती थी।

लगभग ३० वर्ष की रही होगी उस की बेटी लेकिन वह बुजुर्ग बाप बेचारा इलाज के दौरान सामने बैठा  बीच बीच में उस के दांत को ऐसा चैक करता था -- जैसे कि कोई मां-बाप अपने छोटे शिशु को इलाज के लिए लाये हों। मुझे बिल्कुल भी असहज महसूस नहीं हुआ ..हर बाप का अधिकार है ...मैंने तो उन्हें इतना भी कहा कि वह इस बेटी की मां को भी साथ ला सकते हैं, लेकिन उसने बिल्कुल भोलेपन से जब कहा कि डा साहब, वह तो खाट पर पड़ी है, अगर आप कहेंगे तो टैक्सी कर के ले आएंगे। मैंने कहा ..नहीं, नहीं, मैं तो आप की संतुष्टि के लिए कह रहा था।

बहरहाल, इतने वर्ष हो गये इस काम को करते हुए लेकिन जितनी लाचारी, बेबसी और उम्मीद मैंने इस बुज़ुर्ग बाप की आंखों में देखी, मैंने शायद पहले कभी इस का अनुभव नहीं किया होगा। शुक्र है ईश्वर का कि मैं बाप बेटी की उम्मीदों पर खरा उतर सका।

सच में एक औसत हिंदोस्तानी की कितनी अजीबोगरीब मजबूरियां हैं ना....... क्या करे, हाय रे, हमारी सामाजिक व्यवस्था.......सुबह कभी तो आएगी।

बिल्कुल विश्वसनीय हैल्थ जानकारी हिंदी में मैडलाइन प्लस पर..

पांच छः वर्ष पहले मैंने एक लेख इस विषय पर लिखा था कि इंटरनेट पर सेहत से संबंधी जानकारी आप किन किन साइटों से प्राप्त कर सकते हैं। एक बार फिर से इस का लिंक यहां दे रहा हूं..

इंटरनेट पर स्वास्थ्य से संबंधित जानकारी के लिए वेबसाइटें

ये वेबसाइटें एक दम पुख्ता जानकारी उपलब्ध तो करवाती हैं लेकिन इंगलिश भाषा में। होता है कईं बार इंगलिश में किसी को बात ठीक से समझ न आए, ऐसे में कोई क्या करे। अब हिंदोस्तानी साइटों पर --सरकारी पर भी--मुझे तो कुछ इस तरह का इन सात-आठ सालों में दिखा नहीं कि मैं आप को उस की सिफ़ारिश कर सकूं।

लेकिन मुझे कुछ समय पहले यह अवश्य पता चला कि मैडलाइन प्लस नामक वेबसाइट पर सेहत से संबंधित जानकारी हिंदी में भी उपलब्ध करवाई जा रही है। यह जानकारी अमेरिकी की सरकारी संस्था नेशनल लाइब्रेरी ऑफ मैडीसन से उपलब्ध करवाई जाती है....इस का वेबएड्रस जरूर नोट कर लें। बहुत काम की बात है।

इस का यूआर एल है .....   http://www.nlm.nih.gov/medlineplus/languages/hindi.html#E

मैं इस साइट पर लिखी बातों को एक दम विश्वसनीय मानता हूं.....मानता हूं क्या, यह एक दम विश्वसनीय ही है। जिस तरह से हम सरकारी अस्पताल के किसी वरिष्ठ, अनुभवी और ईमानदार चिकित्सक के परामर्श को बिल्कुल विश्वसनीय मानते हैं, बिना किसी नुकुर-टुकुर के आंख बंद कर के उस की सभी बातों पर विश्वास कर लेते हैं, उन्हें मान लेते हैं, इस साइट पर भी जितनी भी सेहत संबंधी जानकारी है वह उसी उच्च कोटि की है.........इंगलिश का पेज भी हिंदी के साथ ही लगा हुआ है, इसलिए किसी तरह की गलतफहमी की कोई गुंजाइश भी नहीं।

होता है कभी हमें किसी सेहत से संबंधित जानकारी को हिंदी में ही पढ़ना होता है, समझना होता है, तो इसके लिए ऊपर दिये गये लिंक से बेहतर विकल्प अभी तक मेरे को दिखा नहीं......भारत की सरकारी वेबसाइटें की छान ली हैं इन वर्षों में ..वहां भी रस्म-अदायगी ज़्यादा है, कहीं कहीं तो वह भी नहीं है। एक कड़ुवा सच।

मुर्गा खाना भी बीमारियों को बुलावे जैसे

मैं जहां रहता हूं लखनऊ ...उस कॉलोनी से बाहर निकलने पर जिस तरह से सड़क के किनारे लकड़ी की अलमारियों में बंद मुर्गे-मुर्गियां देखता हूं.... एक बड़ी ही दयनीय स्थिति लगती है।

मैं अभी कुछ दिन पहले ही सोच रहा था कि ये सब के सब बिल्कुल दुबके से, एक दूसरे से चिपके से, उदास से ऐसे पड़े हुए हैं जैसे इन को इन का अंजाम पता चल गया है और ये एकदूसरे के हमदर्द बने ऐसे दिखते हैं जैसे कि एक दूसरे का हौंसला बढ़ा रहे हों कि चिंता मत करो, देखेंगे जो होगा, देख लेंगे... हम इक्ट्ठे तो हैं .......hoping against hope. Poor souls!

लेकिन अकसर नोटिस यह भी करता हूं कि इन के मसल तो ठीक ठाक होते हैं लेकिन ऊपर की चमड़ी अजीब सी लाल, पंख कमजोर से, झड़ चुके या झड़ने की कगार पर.

इन्हें देखने ही से लगता है कि यार इन बेचारों के साथ सब कुछ ठीक ठाक नहीं है। सोचने वाली बात है कि अगर आदम जात के पट्ठे बनाने के लिए स्टीरॉयड जैसे कैमीकल्स, हारमोन्स आदि इस्तेमाल किए जाते हैं, जिस देश में दस-बीस रूपये किलो बिकने वाली सब्जियों को बढ़ा करने के लिए टीके लगते हों, वहां क्या चूज़ों को बढ़ा करने के लिए तरह तरह की अनाप-शनाप दवाईयों पिलाई या लगाई न जाती होंगी।

मेरी सोच कुछ ऐसी ही रही है कि कुछ न कुछ तो गड़बड़ जरूर इन को बढ़ा करने के चक्कर में होती ही होगी। वैसे तो नॉन-वैज नहीं खाता, कोई भी इस का धार्मिक कारण नहीं है....किंचित मात्र भी नहीं, बस वैसे ही बुरा लगता है किसी जीव को अपने मुंह के स्वाद के लिए पहले मार देना फिर उस को भून कर या तल कर खा लेना। और ऊपर से अगर यह सब बीमारियों का घर हो, तो क्या सोचने मात्र से ही सिर भारी नहीं हो जाता।

आज भी सुबह ऐसा ही हुआ है, टाइम्स ऑफ इंडिया और दा हिंदोस्तान ..दोनों अखबारों के पहले पन्ने पर बड़े बडे़ शीर्षकों के साथ खबर छपी है कि सैंटर फॉर साईंस एंड एन्वायरमैंट की स्टडी में पाया गया है कि चिकन के ४०प्रतिशत नमूनों में ऐंटीबॉयोटिक दवाईयों की मात्रा पाई गई है।

अब सोचने लायक बात यह है आखिर चिकन के नाम पर खाया क्या कुछ जा रहा है, ताकत वाकत की बात छोड़ ही दें, जो पहले से बची-खुची है अगर वही न लुट जाए तो गनीमत जानिए......

यह मार्कीट शक्तियों का रातों रात अमीर होने का जुनून कहीं हमारी जान ही न ले ले ...हर तरफ़ मिलावट...घोर मिलावट.....बीमार कर देने वाली, बहुत बीमार कर देने वाली, जो जानलेवा तक भी हो सकती है।

एक बात और..यह भी नहीं कि आज अखबार में परोसी खबर ही से हमें पता चला हो कि मुर्गों के साथ यह सब कुछ हो रहा है, बहुत बार सुन चुके हैं, देख चुके हैं, पढ़ते भी रहते हैं ...लेकिन इन्हें खा खा कर एक बार नहीं बार बार अपने पैरों पर कुल्हाड़ी से वार किए जा रहे हैं, चोटिल हुए जा रहे हैं, शायद किसी विशेष बीमारी के निमंत्रण का इंतज़ार। अगली बार मुर्गा शुर्गा खाने से पहले आप भी सोचिएगा।

Source-- Antibiotics in your chicken 
              Antibiotic residues in chicken 
लिखते लिखते लव शव ते चिकन खुराना फिल्म का ध्यान आ गया...... कोई गीत ढूंढने लगा तो यह सीन हाथ लग गया, आप भी देखिए...मेरी पोस्ट पढ़ने से जो सिर भारी हुआ होगा वह हल्का हो जाएगा इस परिवार की कच्छा चर्चा सुन कर।

बुधवार, 30 जुलाई 2014

आग बुझाने वालों में नाम शामिल हो तो बात बने....

एक बार सत्संग में एक प्रेरणात्मक प्रसंग सुना...खेत मे एक जगह सूखे भूसे जैसा कुछ पड़ा हुआ था, एक शैतान पंक्षी को शरारत सूझी, कहीं से आग की चिंगारी उठा ले आकर उस पर फैंक दी, देखते ही देखते आग जंगल की आग की तरह चारों तरफ़ फैलने लगी। एक चिड़िया दूर किसी पेड़ पर बैठी यह मंज़र देख रही थी.....वह तुरंत उड़ कर दूर एक तालाब तक गई, वहां से चोंच में भर कर पानी लाई... और धधकती आग पर उस पानी को छिड़क कर वापिस तालाब से पानी लेने चली गई..यह सिलसिला चल रहा था, तपिश के कारण उस का बुरा हाल हो रहा था, लेकिन उस की सेवा निरंतर चल रही थी।

इतने में दूर से आग का मंज़र देख रहे एक आदमी से रहा नहीं गया, उस ने उस से पूछ ही लिया.. अरी चिड़िया, तुम जो इतना परेशान हो रही है, इतनी बड़ी आग है, चोंच भर पानी के छिड़काव से आखिर क्या हो जाएगा। चिड़िया ने तुरंत जवाब दिया.....देखो, समझदार इंसान, मुझे नहीं पता कुछ होगा कि नहीं, लेकिन इतना तो मानते हो कि जब इस आग का इतिहास लिखा जाएगा, तो मेरा नाम आग लगाने वालों में नहीं, बल्कि आग बुझाने वालों में दर्ज होगा। क्या इतना कम है?

मुझे इस प्रेरक प्रसंग ने बहुत बार प्रेरणा दी।
 श्री निहाल सिंह जी
आज एक इंसान से आप को मिलाना है, यह तस्वीर आप जो देख रहे हैं, यह ७८ वर्षीय रिटायर्ड रेलकर्मी श्री निहाल सिंह जी की है। इन्हें रेलवे से सेवानिवृत्त हुए बीस वर्ष हो चुके हैं, लेकिन अभी भी मैं इनमें बच्चों जैसा उत्साह देखता हूं। खूब साईकिल चलाते हैं, योगाभ्यास करते हैं और सदैव खुश रहते हैं।

मैं इन को पिछले लगभग एक वर्ष से देख रहा हूं...यह लोगों को योगाभ्यास करने के लिए प्रेरित करते हैं......उन्हें योग की किताबें-प्रतिकाएं पढ़ने को दे जाते हैं, और कुछ भी अपने अनुभव बांटते रहते हैं।
मैं जब भी इन्हें देखता हूं तो यही सोचता हूं कि समाज सेवा केवल कोई बड़े बड़े संगठनों द्वारा ही नहीं की जा रही, बल्कि ऐसे लोग भी अपनी धुन में पता नहीं कितने लोगों का अपनी क्षमता के अनुसार भला करते रहते हैं।

जितनी बार भी मिलता हूं इन से और बात करता हूं तो इन का एक अलग पहलू ही जानने को मिलता है....कईं बार ये जोधपुर के सेवा संस्थान के लिए दान देने के लिए प्रेरित करते दिखते हैं.. कभी अनाथ बच्चों की किसी संस्था के समर्थन में आप से दो बातें करते हैं।

अस्पताल में जहां कहीं भी दिखते हैं किसी न किसी की सहायता या किसी का मार्गदर्शन ही करते इन्हें देखा है।
 आज भी जब यह अस्पताल में आए तो इन के पास एक अखबार में प्रकाशित एक विज्ञापन की कुछ कापियां थीं, मुझे भी पांच छः देकर कहने लगे कि आप भी इसे आगे बांट देना। विज्ञापन यही है कि एक समाचार पत्र ने पर्यावरण संरक्षा हेतु पुराने अखबार अपने नेटवर्क द्वारा इक्ट्ठा करने का एक अभियान चला रखा है, यही लिखा था उस पर और पेड़ों के महत्व की बातें बड़े अच्छे ढंग से लिखी थीं।

आप सुन रहे हैं ना इन का कुछ भी अच्छा काम रोज़ाना करने का ज़ज्बा..........हां, एक और बात......आप पता चला कि ये सुबह सुबह जब सैर के लिए निकलते हैं तो सड़कों पर चल रही स्ट्रीट लाइटों के स्विचों को बंद करते चलते हैं। जब उन्होंने यह कहा कि पता है कि एक घंटे में ये मरकरी के लैंप कितनी बिजली खा जाते हैं तो मुझे उन के दर्द में बिल्कुल ऐसा अपनापन था जैसा अपने घऱ में बिजली की फिजूलखर्ची पर होता है।

रेलवे में हूं ......ऐसी बहुत सी शख्सियतों से मिलता रहता हूं.....जो कुछ न कुछ प्रेरणादायी किए जा रहे हैं। पहले जहां था वहां एक ८५ से भी ऊपर के शख्स थे जो रिटायर्ड लोगों की चिट्ठीयों की मदद, उन की विधवाओं की पैंशन के फार्म या किसी परेशान करने वाले बाबू या किसी की भी खबर लेनी होती थी तो पहुंच जाते थे। सब कुछ निःस्वार्थ भाव की सेवा।

एक रिटायर्ड कर्मचारी को मैं देखता था कि बैंक में , एक को डाकखाने में जा कर लोगों के फार्म भरने, लोगंों को गाइड करना, उन की जितनी भी हो सके मदद कर देना......यह सब मैं लगभग १५ वर्षों से देख रहा हूं। अच्छा लगता है कि रिटायर होने पर किस कद्र सेवा का जज्बा इन में ज़िंदा है,  हम सब के लिए प्रेरणा का एक स्रोत है।

एक बार और...जाते जाते पता नहीं क्या बात हुई........कि कहने लगे श्री निहाल सिंह जी कि डाक्टर साहब, अब ये कुर्ते-पायजामे पांच-छः इक्ट्ठे हो गये हैं मेरे पास, इतने क्या करने हैं, कुर्ते फटते तो हैं नहीं, घर में रखे रखे क्या करना है इन्हें, अब इन्हें भी बांटना शुरू कर दूंगा।

वाह जी वाह, क्या बात कही........वे तो चले गये लेकिन मुझे यह ध्यान आया कि यह शख्स की तो पांच कुर्तों से ही ऐसी तृप्ति हो गई कि वे अब इन्हें ज़रूरतमंद बंदों को बांटने वाले हैं लेकिन जो मेरे घर में सैंकड़ों कमीज़े-पतलूनें पड़ी हैं, जिन  का एक एक साल भर नंबर नहीं आता, मैंने उन्हें बांटने के लिए क्या किया ?....... कुछ भी तो नहीं, एक कड़वा सच। बस विचार आया और यह गया, वो गया, इस के आगे कुछ भी तो नहीं।

अब मैं ऊपर लिखे प्रेरक प्रसंग से निहाल सिंह जी जैसे लोगों के कामों को रिलेट कर सकता हूं......हमारे पास अनेकों अनेकों काम करने वाले हैं, लेकिन यही लगता है ना बहुत बार कि एक हमारे करने से क्या बदल जायेगा, नहीं ऐसा नहीं है, सब बदलेगा.....लेकिन वही चिड़िया जैसी भावना होनी चाहिए.......

शुद्ध पानी भी मिलता है एटीएम से

मेरी नईं नईं नौकरी लगी थी १९९१ में दिल्ली के ईएसआई अस्पताल में.....जहां किराये पर घर लिया उस के पास ही मदर डेयरी का बूथ था। शाम को जाओ, उस बूथ पर बैठे क्लर्क को पैसा दो, वह कुछ टोकन देगा, उन्हें मशीन में डालो और अपना बर्तन टोटी के नीचे रखो ...बस, दूध बाहर आ जायेगा। बड़ी हैरानगी सी हुई थी उस दिन जब पहली बार इस तरह के दूध लेकर आया था....क्योंकि जहां से हम दूध लेना देखते रहे थे, वहां पर लंबा समय इंतजार करो, इधर उधर की बक बक भी सुनो, मक्खियों-मच्छरों को सहो... फिर कहीं जा कर दूध मिलता था।

अब लगता है कि शायद उस समय के लोगों में पेशेंस कुछ ज़्यादा ही थी.......याद है बचपन में पहले साईकिल चला कर दूर डेयरी पर दूध का डोल टांग कर जाना, फिर वहां लाइन में उन की बिखरी चारपाईयों पर बैठो...फिर मशक्कत, फिर दूध......आधे-एक घंटे की तो स्कीम हो ही जाया करती थी। चलिए, वह भी समय अच्छा था, आज भी अच्छे दिन लगभग आ ही गये हैं, आहट नहीं भी सुनी तो कोई बात नहीं.

एटीएम से दूध का मिलना.....इस की खबर मुझे हिंदोस्तानी मीडिया से नहीं, बल्कि दो दिन पहले बीबीसी की न्यूज़ साइट पर मिली। पहले तो एक साधारण सी बात दिखी ...लेकिन जब इस खबर को ढंग से देखा और सुना तो लगा कि यह तो बड़े काम की चीज है।

पानी से एटीएम से दिल्ली में मिलता है शुद्ध पानी (इस लिंक पर क्लिक करने पर जो पेज खुलेगा, वहां पर लगी वीडियो भी ज़रूर देखिएगा)

दिल्ली के कईं इलाकों में पानी की एटीएम मशीनें लगी हुई हैं ...जहां पर लोग कुछ पैसा खर्च करके अपने पीने का पानी ले लेते हैं। बहुत अच्छी शुरूआत है। सारी खबर मैंने पढ़ सुन ली, लेकिन मुझे उत्सुकता थी कि आखिर कितने पैसे खर्च करने पड़ते होंगे लोगों को इस को पीने के लिए।

सर्वजल वालों की साइट पर भी रेट की कोई बात नहीं दिखी तो फिर वही किया जो हम लोग हार कर करते हैं, गूगल बाबा की शरण में चला गया। उस के सर्च रिज़ल्टस में एक पेज खुल गया जिस में हिमाचल प्रदेश में भी एक ऐसी ही पानी की एटीएम योजना शुरू की जा रही है, आज ही की खबर थी...रेट लिखा था ..पचास पैसे में एक लिटर शुद्ध पानी। बात नहीं भी हजम हो रही तो कैसे भी कर लें, लिखा तो है इस पेज पर सब कुछ साफ साफ।

अब मैं सोच रहा था कि अगर पचास पैसे में वहां हिमाचल में मिलेगा एक लिटर ऐसा शुद्ध जल तो दिल्ली में तो शायद सस्ता ही मिलना चाहिए... क्योंकि यह तो भू-जल ही है, हिमाचल के झरनों से भरा हुआ तो है नहीं, जिसे शुद्ध कर के दिल्ली की जनता तक पहुंचाया जा रहा है। बहरहाल, मुझे दिल्ली के रेट का कुछ पता नहीं है, अगर किसी पाठक को पता हो तो कमैंट में ज़रूर लिखिएगा।

पानी के बारे में यह कह देना कि कुछ लोगों को कैसा भी पानी पीने की आदत हो जाती है, बिल्कुल बेवकूफ़ों वाली बात है. जैसा पानी मेरे को चाहिए वैसा ही मेरे चपरासी को भी चाहिए, जैसे हमारे बच्चों को वैसा भी हमारे नौकर के बच्चों को भी चाहिए, कोई भी सुपर-ह्यूमन नहीं है कि किसी को तो दूषित पानी मार कर देता है किसी को नहीं करता। वो ठीक है कि कुछ समय तक वह मार दिखती न होगी, और एक ही साथ कईं बार धमाका हो जाता है।

बंबई में पिछले दिनों गया था, वहां पर पीने के पानी की २० लिटर की जो बोतल आती है वह लगभग ८०-८५ रूपये की होती है.....अब चार-पांच घर में लोग हैं तो पीने के ज़रूरतों के लिए तो सही है, और शायद उच्च-मध्यवर्गीय लोगों के लिए यह कोई विशेष बात भी न होगी कि एक-डेढ़ हज़ार पीने वाले पानी पर ही खर्च कर दिया जाए।

लेकिन यह बताने की बात नहीं है कि एक औसत भारतीय घर का बजट इतनी महंगी २० लिटर की बोतल में पटड़ी से नीचे उतर जायेगा। इसलिए जब इस तरह के सर्वजल के सस्ते, शुद्ध जल की बात सुनी तो मन खुश हुआ कि चलो, इस तरह का जल सब को मुहैया हो पाएगा।

मुझे इस तरह की स्कीम का कुछ ज़्यादा तो पता नहीं, लेकिन दुआ यही है कि दिल्ली क्या, देश के ज़्यादा से ज़्यादा इलाकों में इस तरह की स्कीमें पहुंचे......और इन के दाम लोगों की पहुंच में हों, ताकि सभी लोग पानी से होने वाली बीमारियों से बच पाएं.....गंगा मैया को साफ़ होने में समय लग सकता है, भाईयो, लेकिन इंसान के शरीर को तो हर समय साफ़-स्वच्छ जल चाहिए। काश, यह हर बाशिंदे को नसीब हो।

जो भी कंपनी ऐसे काम  करती है , ज़ाहिर सी बात है, कुछ मुनाफ़े के लिए ही करती होगी, किसी भी तरह का मुनाफ़ा--- और कुछ नहीं तो सामाजिक सरोकार (या शोहरत ?) के लिए ही सही..... लेिकन फिर भी अच्छा है....बिल्कुल सुलभ-शौचालय जैसे अभियान की हल्की सी खुशबू आ रही है......क्या आप को आई?

अब बारी आती है ..पोस्ट के अंत में एक फिल्मी गीत फिट करने की......शायद जितने भी लेख मैंने पेय जल पर लिखे हैं... उन में से कुछ के अंत में यही सुपर-हिट गीत आप को टिका मिलेगा......क्या करें, बचपन के ८-१० वर्ष की अवस्था के दौरान हमारे ऐतिहासिक रेडियो पर यही बार बार बजता था, यही याद रह गया, आप भी सुनिएगा...........

डा आनंद की बच्चों की देखभाल संबंधी गाइड

  डा आनंद, महान चिकित्सक
डा आर के आनंद विश्व विख्यात बच्चों के डाक्टर हैं, बंबई में रहते हैं, वहां मैडीकल कालेज में वरिष्ठ प्रोफैसर रह चुके हैं और आज से कुछ वर्ष पहले तक बंबई के ओपेरा हाउस के पास (चरनी रोड़ रेलवे स्टेशन) इन का क्लिनिक था। शायद आज भी होगा। इन के जैसा बच्चों का रोगों का माहिर मैंने आज तक नहीं देखा, जो आज से १७-१८ साल पहले भी बच्चों की ओपीडी स्लिप पर यह अकसर लिखा करते थे......किसी दवा की ज़रूरत नहीं है।

आप सोच रहे होंगे, आज सुबह सुबह डा आनंद का कैसे ध्यान आ गया। तो होता यूं है कि आज कल हम देखते हैं कि मां-बाप बच्चों की बिल्कुल छोटी छोटी तकलीफ़ों के लिए बड़े से बड़े ऐंटीबॉयोटिक शुरू कर देते हैं, छोटी मोटी तकलीफ़ों के लिए बड़े से बड़े व्यस्त विशेषज्ञ के पास पहुंच जाते हैं.......ऐसा नहीं है कि डाक्टर के पास जाने में कोई बुराई है, ठीक है, लेकिन अगर बिल्कुल बेसिक सी बातें पता हों तो बहुत बार ऐसे मां-बाप बिना वजह के पैनिक से बच सकते हैं।

हमारे छोटे बेटे का जन्म बंबई में ही हुआ था..१९९७ में और हम उसे सामान्य चैक अप के लिए उन के यहां ही लेकर जाते थे। हर बच्चे और उस के मां बाप को वे पूरा समय देते थे, कोई जल्दी नहीं, हर बात को अच्छे से समझाना, माताओं को स्तनपान के लिए प्रेरित करते रहना, किसी के भी मन में कैसे कोई डाउट रह जाए, सब से दिल से बात करना यह इस महान डाक्टर की फितरत है, वरना डाक्टर तो सब अच्छे ही होते हैं, सेवा कर रहे होते हैं, लेकिन कईं बार मैंने नोटिस किया है कि कुछ महान डाक्टरों में थोड़ा अहम् सा आ जाता है, जो इन में मैंने लेशमात्र भी न पाया। एकदम विनम्र शख्शियत.... यह भी और इन की पत्नी भी जो इन के क्लिनिक में इन के साथ रहती हैं।

हां, तो मैं बताना चाहता था कि छोटे बच्चों वाले घर में एक किताब तो ज़रूर ही होनी चाहिए और वह ही डा आनंद के द्वारा लिखी गई...... गाइड टू चाइल्ड केयर। मुझे याद है शायद १९९७ के दिन रहे होंगे, बंबई के हाजीअली एरिया में एक किताबों की मशहूर दुकान है, क्रॉसवर्ड, वहां पर इन की इस किताब का लोकार्पण हुआ था.......लोकार्पण ही बोलते हैं ना, जब तालियों की गड़गड़ाहट के बीच नईं किताब को बड़े बड़े लोग चमकीले कागज से बाहर निकाल कर फोटू खिंचवाते हैं। इन के निमंत्रण पर मैंने और मेरी श्रीमति जी ने भी वह कार्यक्रम अटैंड किया था। उन के दस्तखत की हुई किताब के पन्नों को अभी भी हम लोग यदा-कदा उटलते-पटलते रहते हैं।

किताब क्या है, मैं नहीं सोचता कि इतनी ईमानदारी और दिल से लिखी किताब मैंने किसी डाक्टर के द्वारा लिखी कभी पढ़ी है। एकदम परफैक्ट.......बच्चों के बारे में सब बातें उन्होंने बिल्कुल आम भाषा में उन्होंने ब्यां कर दी हैं। बच्चों की तरूणावस्था तक के मुद्दे उस में हैं। बच्चों की सभी छोटी मोटी तकलीफ़ों का उस में बहुत सुंदर वर्णन है। मैं ऐसा समझता हूं कि इसे बच्चों वाले हर घर में होना चाहिए।

एक उदाहरण है कि छोटे बच्चों का नाक बंद, सांस लेने में दिक्कत आ रही है, ऐसे में कैसे उस के नाक में घर तैयार की गई सेलाइन नेज़ल ड्राप्स डाल कर आप तुरंत उस की हेल्प कर सकते हैं।

आज पहली बार इस किताब की उस तरह की प्रशंसा करने की इच्छा हो रही है जिस तरह की तारीफ़ स्टेट रोड़वेज़ की बस में दस रूपये में पांच किताबें बेचने वाला लड़का हमें किताबें लेने पर विवश सा कर देता है, हम वे खरीद तो लेते हैं ..फिर सोचते हैं कि इन्हें देंगे किसे किसे। लेिकन यह डा आनंद की किताब तो एक बेशकीमती उपहार भी है मेरे विचार में किसी भी छोटे शिशु और उसके मां बाप के लिए।

टीकों के बारे में कितने प्रश्न रहते हैं,  मां बाप के मन में, टीका लगवाने के बारे कईं बार बच्चों को छोटी मोटी तकलीफ़े एक दो दिन रहती है, सब के बारे में आश्वस्त किया गया है इस किताब के बारे में। आज कल नये नये महंगे टीके भी आ गये हैं, इन सब के बारे में यह किताब आप को अच्छे से समझा देती है।

मुझे अभी अभी याद आ रहा था, आज से लगभग १५-१६ वर्ष पहले की बात थी, हमारा छोटा बेटा स्तनपान करता था उन दिनों, मेरे श्रीमति जी को चिकन-पॉक्स हो गया। डा आनंद को फोन किया ...मिला नहीं, तुरंत इन की किताब उठाई इस प्रश्न का उत्तर ढूंढने के लिए कि क्या इस अवस्था में मां स्तनपान करवा सकती है। तुरंत जवाब भी मिल गया..कि बिना किसी परेशानी के मां चिकन-पॉक्स होते हुए भी शिशु को स्तनपान करवा सकती है, ऐसा करना शिशु के हित ही में है क्योंकि इस से उस में भी चिकन-पॉक्स के लिए रोग प्रतिरोधक शक्ति (इम्यूनिटि) का विकास होता है।

अब ऐसे मैं डा अानंद की और उन की किताब की कितनी भी प्रशंसा किए जाऊं, आप को तभी पता चलेगा जब आप उन की किताब को देखेंगे।

इस लिंक पर जा कर आप उस किताब के बारे में और भी जानकारी पा सकते हैं..... गाइड टू चाइल्ड केयर 
मुझे भी अभी अभी पता चला है कि अब यह किताब हिंदी में भी उपलब्ध हो चुकी है, बहुत ही अच्छा लगा यह देख कर।

मेरे विचार में बहुत हो गया आज के दिन के लिए। और कितनी तारीफ़ करूं, आप स्वयं उन के बारे में जानिए और उन के बेशकीमती अनुभव से लाभ उठाईए।
Guide to Child Care --Dr Anand

मंगलवार, 29 जुलाई 2014

अब यह नितंब बड़ा करने का अजीब सा अमेरिकी फितूर

मेरे पास जब कोई सड़क छाप डैंटिस्ट से कोई काम करवा के आता है .. तो मुझे बहुत गुस्सा आता इस लिए है कि उस के किए हुए काम को अन-डू करने के चक्कर में कईं बार मेरे इंस्टर्यूमैंट्स मुड़-वुड़ जाते हैं. लेकिन उसे कैसे भी अन-डू करना ज़रूरी होता है क्योंकि वे मरीज़ के मुंह के साथ बिल्कुल कसाई जैसे पेश आते हैं।

बहुत बार इस समस्या के बारे में लिख भी चुका हूं --लेकिन फिर भी झुंझलाहट तो होती ही थी कि क्या, यार, हम लोग अभी तक इन नीम-हकीमों और सड़क छाप डाक्टरों, हकीमों और दंदान-साज़ों से लोगों को निजात नहीं दिला सके। शायद कागज़ों में पूरी कार्यवाही होती रहती है लेकिन ये सब खुराफ़ाती लोग समाज की सेहत को बिगाड़ने--- बहुत ज़्यादा बिगाड़ने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ते।

मैं सोचा करता था कि यह नीम-हकीम और इन के चक्कर में हमारी जनता ही पड़ती है. नहीं, लेकिन मुझे कल एक रिपोर्ट पढ़ कर यह पता चला कि अमेरिका जैसे विकसित देश में भी लोग इस तरह के चक्करों में पड़ कर अपनी सेहत खराब क्या, जान तक गंवा बैठते हैं। और वह भी किस तरह के काम के लिए, आप भी जानेंगे तो दंग रह जाएंगे?

वैसे तो शरीर का शायद ही कोई अंग है जो ठीक नहीं किया जा सकता हो, हर तरह की प्लास्टिक सर्जरी हो रही है, बडे़ शहरों की अखबारों में शादी से पहले युवतियों को अपने निजी अगों को दुरूस्त करवाने तक की सलाह दी जा रही है। लेकिन यह जो अमेरिकी महिलाओं में आज कल नितंबों को बड़ा, सुढौल करवाने का क्रेज़ है ...या फितूर है.....इस के बारे में मैंने कल पहली बार पढ़ा, इसलिए आप के साथ शेयर करना चाहा।

अच्छा तो बात यूं है कि अमेरिकी महिलाओं को लगता है कि जिन महिलाओं के नितंब बड़े, सुढौल और सैक्सी होते हैं, उन्हें हर जगह फायदा रहता है, नौकरी में भी, समाज में भी.....हर जगह वे लोगों को मोह लेती हैं, यह कथन मेरा नहीं, नीचे दिए गए लिंक में लिखा है यह सब कुछ।

नितंबों को बढ़ाने और सुढौल बनाने के लिए करवाई जाने वाली प्लास्टिक सर्जरी एक महंगा झंझट है---हज़ारों पाउंड उस पर खर्च होते हैं अगर यह सर्जरी किसी अच्छे प्लास्टिक सर्जन से करवाई जाती है।

लेिकन जैसा कि होता है, महंगे इलाज के बहुत से सस्ते विक्लप भी दिखने लगते हैं। ऐसा ही इस काम के लिए भी हुआ। कुछ महिलाओं की आपबीती भी आप इस लिंक पर पढ़ सकते हैं कि किस तरह से ऑनलाइन उन की किसी डाक्टरनुमा इंसान से मुलाकात हुई, वह उन के घर पर आकर प्लास्टिक के सिरिंज से उन के नितंबों में कुछ इंजैक्शन ठोक गया। ज़ाहिर सी बात है यह सब बहुत ही सस्ता विक्लप था।

कुछ दिन तो इन महिलाओं को लगा कि सब कुछ सुढौल हो गया है, लेकिन जल्द ही उन्हें एमरजैंसी विभागों में दाखिल किया जाने लगा....क्योंकि वे अमेिरकी झोलाछाप इंजैक्शन के नाम पर विभिन्न तरह के खतरनाक पदार्थ... सीमैंट, सुपर-ग्लियू (गोंद) , टायरों के सिलेंट तक के टीके लगा देते थे। एक महिला को तो इन सब के चक्कर में जान ही गंवानी पड़ी। और बहुत लोगों को तो सर्जरी से वह सब कचरा अपने नितंबों से निकलवाना पड़ा। एक ऐसी ही करैक्टिव सर्जरी वाले डाक्टर ने तो वे सब सामान इक्ट्ठा कर के रखे हैं जो वह इस तरह के इलाज की शिकार महिलाओं के नितंबों से निकाल चुका है।

महिलाओं को जागरूक तो वहां बहुत किया जा रहा है..ठीक है, अगर इस तरह के इलाज से उन की जान बच भी जाती है तो उन के नितंबों का, उस एरिया की चमड़ी का इतना बुरा हाल हो जाता है, झुलस जाता है सब कुछ कि वे बिना सहायता से उठ-बैठ भी नहीं पाती हैं।

इस रिपोर्ट से ही पता चला कि महिलाओं इस तरह का काम करवाने के लिए झिझक सी महसूस करती हैं, इसलिए अंडरग्राउंड होने वाले इन गोरखधंधों के चक्कर में पड़ कर अच्छी भली सेहत खराब कर लेती हैं।

दुनिया अजीब है ना, कहीं पर तो नितंबों को बड़ा, सुढौल करने के लिए ये खतरनाक उपाय किए जा रहे हैं और कईं जगहों पर इन्हीं पर चढ़ी चर्बी को उतरवाने के लिए लाइपोसक्शन आप्रेशन करवाए जा रहे हैं।

आप को क्या लगता है कि यह फितूर कहीं अपने यहां भी न आ जाए, क्या पता बड़े शहरों में आ ही चुका हो, यहां पर सब कुछ गुप-चुप चलता रहता है। लेकिन मुझे लगता है कि अपुन के देश में लोगों को इस काम के लिए विभिन्न प्रकार के टीके चुभवाने की ज़रूरत न पड़ेगी............अपना खानपान, अपना देसी घी प्रेम, अपना जंक-फूड, कोल्ड-ड्रिंक मोह जिंदाबाद.........ये सब कितनी सहजता से वही काम कर देते हैं, न किसी नीम-हकीम के चक्कर में पड़ने का झंझट और न ही कोई एक्सट्रा खर्च।
Idea --   Illegal botton injections on rise in US



रविवार, 27 जुलाई 2014

चलिए मिलते हैं आज ९० वर्ष के युवा सैक्सपर्ट डा महेन्द्र वत्स से.....

रेडियो में देर रात आजकल एक प्रोग्राम आता है ..लव गुरू.......जो भी उस कार्यक्रम में लव गुरू का काम करता है, वह लोगों को अच्छे से बिल्कुल दोस्ताना अंदाज़ में गाइड करता दिखता है। बिल्कुल एक सच्चे दोस्त की तरह वह अपनी सिचुएशन ब्यां करने वाले लोगों को उस से जूझने का रास्ता सुझा देता है। बीच बीच में पुराने फिल्मी गीतों की अच्छी डोज़ भी दी जाती है। यह कार्यक्रम रात में रेडियो सिटी चैनल पर आता है।

सैक्स गुरू .. डा महेन्द्र वत्स 
बीबीसी न्यूज़ के होमपेज पर आज एक सैक्स गुरू के चित्र के साथ  एक लिंक देखा जो कि ९० वर्ष की उम्र में भी पूरी सक्रियता से लोगों के सेक्स से संबंधित प्श्नों का रोज़ाना उत्तर देते हैं। अब तक ३०हज़ार के करीब प्रश्नों के उत्तर वे दे चुके हैं।
Ask the Sexpert : The 90-year-old sex guru

अभी मैंने डा वत्स के बारे में पढ़ना शुरू ही किया था तो मुझे ऐसे लगा कि नाम तो कुछ जाना पहचाना सा लग रहा है। फिर आगे इसी लेख में पढ़ा कि वे रोज़ाना मुंबई मिरर में पाठकों के सैक्स से संबंधित प्रश्नों का जवाब देते हैं। फिर मुझे ध्यान आया कि अच्छा, तो यह ग्रेट बंदा है जो इतनी सच्चाई और सटीकता से इन सब प्रश्नों का जवाब देता है।

अभी कुछ दिन पहले मैं मुंबई में था तो रोज़ाना मुंबई मिरर पढ़ता ही था, और उन के कॉलम पर भी नज़र पड़ ही जाती थी। उस कॉलम में प्रश्न और उन के उत्तर देख कर यही लगता था कि ये उत्तर किसी ऐसे वैसे ने नहीं बल्कि किसी विशेषज्ञ द्वारा ही दिए गये हैं, क्योंकि हर प्रश्न को बड़ी सहानुभूति एवं वैज्ञानिक सत्यता के आधार पर हैंडल किया गया पाया। लेकिन आज इस का राज़ खुला जब यह खुलासा हुआ कि इस कॉलम के कर्ता-धर्ता ये डा वत्स साहब हैं।

सैक्स ऐजुकेशन के बारे में क्या बात करें, आए दिन जब विध्यार्थियों को सैक्स ऐजुकेशन दिए जाने की बात होती है तो इतनी राजनीति होती है अगले कुछ दिनों तक फिर सब कुछ ठंडा पड़ जाता है और एक स्तरीय सैक्स ऐजुकेशन के अभाव में छात्रों को उन की तरूणावस्था और युवावस्था के शुरूआती दिनों में भगवान के भरोसे छोड़ कर चैन की सांस ले ली जाती है।

बहुत आ रहा है कि सैक्स ऐजुकेशन का न ही यह मतलब है कि बस आप को बच्चों को प्रजनन अंगों की नीरस सी बॉयोलाजी ही पढ़ानी है, और न ही सैक्स ऐजुकेशन से कोई ऐसी मांग ही की जा रही है कि वह काम-सूत्र के पाठ पढ़ाने लगेगी.....नहीं, ऐसा बिल्कुल नहीं .....बस इतना सी अपेक्षा तो बनती है कि छात्रों की उन की अवस्था के अनुसार उन के शरीर में होने वाले बदलावों के बारे में अच्छे से आश्वस्त तो करवा ही दिया जाए...लड़के हों या लड़कियां, उस उम्र में प्रश्न केवल दो चार ही होते हैं ..सैक्सुएलिटी के बारे में......लेकिन पांच-सात-दस साल तक वही प्रश्न हमारी जान लिए रहते हैं।

अपने दिल पर हाथ रख के टटोलें कि ऐसा आप के साथ हुआ कि नहीं, क्या कुछ प्रश्न ऐसे नहीं थे जिस की वजह से आप अपनी पढ़ाई ठीक से न कर पाए या अभी भी पढ़ाई में मन नहीं लगा पा रहे.......हां, मैं तो नहीं कर पाया, उस उम्र में होने वाली सामान्य सी शारीरिक परिस्थितियों को मैं पांच-सात वर्ष तक विभिन्न काल्पनिक बीमारियों से इक्वेट करता रहा ...किस से पूछते उस दौर में कि ऐसा क्यों होता है ..रात में सोते सोते अपने आप वीर्य स्खलन कैसे हो जाता है, इतने कामुक स्वपन उस उम्र में क्यों आते हैं ...वगैरह वगैरह....... उफ़, वे भी क्या दिन थे....सिर भारी ही रहता था सोच सोच कर कि पता नहीं यह सब क्या है, पता नहीं यह क्या कोई भयंकर बीमारी है क्या।

पढ़ाई में बिल्कुल मन नहीं लगता था ...कहीं से २१ उम्र में एक किताब हाथ लग गई कि यह सब सामान्य है, बस उसे पढ़ कर जैसी ज़िंदगी ही बदल गई। धीरे धीरे सब कुछ अपने आप ठीक हो गया....ठीक क्या हो गया, पहले भी ठीक ही था, लेकिन मुझे ही नहीं पता था कि यह सब उस उम्र में कितनी सामान्य सी बात थी।

हां, बात तो हो रही थी इन डाक्टर साहब की। इन की इंटरव्यू आप इस लिंक पर जा कर देख सकते हैं। इंगलिश में बात कर रहे हैं, लेकिन आसानी से बातें समझ में आ जाएंगी।

बीबीसी न्यूज़ की साइट पर पड़े इस आर्टीकल को आप पूरा ज़रूर पढ़ें और देखें अगर आप को ज़रूरत लगती है किसी के साथ इस लेख को शेयर करने की तो शेयर भी करें।

अब डा वत्स के इतने बढ़िए लेख के बारे में मैं और क्या लिखूं......सब कुछ तो इतने बढ़िया तरीके से वह पिछले ५० वर्षों से किए जा रहे हैं, काश, हमें भी कोई ऐसे डा वत्स स्कूल के दिनों में मिल गये होते तो हम भी अपना दिमाग फिजूल की चिंताओं से मुक्त कर पाते। आते तो थे हमारे स्कूल में भी कुछ डाक्टरनुमा लोग जो हर वर्ष हमारा हैल्थ-चैक अप करते थे.....कभी उन से इन सब के बारे में बात करने की तमन्ना तो बहुत होती थी, लेकिन कभी भी हिम्मत न हो पाई....बस, एक बार इतनी हिम्मत सी जुटा ली कि उन्हें कह दिया कि कमज़ोरी सी महसूस होती है। उन्होंने एक पर्चे पर वॉटरबरी टॉनिक लिख दिया....... शाम को पापा को वह पर्चा दिया, वे बाज़ार से तुरंत ले कर आ गए। लेिकन मन की बातें तो मन ही में रह गईं।

मेरा इन डाक्टर वत्स साहब के बारे में यह विचार है कि वे एक बहुत ही महान काम कर रहे हैं, जहां लोग सैक्स के बारे में बोलना एक पाप जैसा समझते हैं, ऐसे में इन डा साहब की वजह से लोग दिल खोल कर अपनी शंकाओं का निवारण कर रहे हैं। कभी फुर्सत हो तो इन के प्रश्न-उत्तर के इन पन्नों को खोल कर देखिएगा (न तो मैं यौन रोग विशेषज्ञ हूं और न ही इस तरह के विभिन्न अनुभव हैं... वैसे इस से कोई खास फर्क भी नहीं पड़ता,  मैं इतना तो कह ही सकता हूं कि कम से कम डा वत्स जैसा कोई ऐसा शख्स  है तो जो इन सब के बारे में बात कर रहा है, जिस से आप अपना दिल खोल सकते हैं, लेकिन कुछ निर्णय लेने आप के अपने विवेक पर भी निर्भर होते हैं...........बहरहाल, मेरी राय में वे एक प्रशंसनीय काम कर रहे हैं)

और जहां तक स्कूल में सैक्स शिक्षा की बात है, इसी लेख में एक वीडियो भी है जिस में इस पर बहुत सही कटाक्ष किया गया है कि हमारे सिस्टम ने सैक्स शिक्षा को कितना बड़ा मज़ाक बना कर रखा हुआ है।इस यू-ट्यूब वीडियो को  कुछ ही दिनों में १५ लाख के करीब लोग देख चुके हैं।


लगता है अब बस करूं......डा साहब का लेख और उन के प्रश्न उत्तर पढ़ने का भी समय आप को मिलना चाहिए।
जाते जाते एक बात.......अकसर हिंदी की स्थानीय अखबारों में देखते हैं किस तरह से युवाओं को गुमराह करने वाले विज्ञापन और यहां तक की नीम हकीमों के नुस्खे छपते रहते हैं जो उन की काल्पनिक तकलीफ़ों को दूर करने का ढोल पीटते नहीं थकते। बाकी सब तो आप उस लेख में पढ़ ही लेंगे लेकिन उस पेज पर डा वत्स से पूछे दो एक प्रश्न और उन के जवाबों को  शेयर करने से रहा नहीं जा रहा.......

प्रश्नकर्ता- डा साहब, मेरा लिंग छोटा है, और मुझे लगता है कि मैं अपनी गर्ल-फ्रेंड को संतुष्ट नहीं कर पाता हूं। मेरे ज्योतिषी ने मुझे कहा है कि मैं इसे रोज़ाना एक शलोक को पढ़ते हुए १५ मिनट तक खींचा करूं। मैं यह सब पिछले एक महीने से कर रहा हूं लेकिन कुछ भी फायदा नहीं हुआ...अब मुझे क्या करना चाहिए?

डा वत्स ने उत्तर दिया है.......... बच्चे, अगर तुम्हारा ज्योतिषी सही कह रहा होता तो ज्यादातर पुरूषों के लिंग इतने लंबे हो जाते कि वे उन की घुटनों तक पहुंच जाते। ईश्वर भी इस तरह से किसी की भी बात में आ जाने वाले बेवकूफ़ लोगों की मदद नहीं कर पाते। जाओ, जा कर किसे ऐसे सैक्स एक्सपर्ट से परामर्श लो जो तुम्हें प्यार करने के फंडे सिखा पाये।

एक और प्रश्न सुनिए.....मेरे परिवार की मांग है कि मैं शादी कर लूं लेकिन मैं लड़की के कौमार्य (विर्जिन) को  लेकर कैसे आश्वस्त हो सकता हूं ...

डा वत्स का जवाब सुनिए.....मेरी सलाह है कि तुम शादी कर लो। जब तक तुम किसी लड़की की विर्जिनिटी जानने के लिए जासूस ही न रख लो, तुम यह नहीं जान पाओगे। अपनी शक्की स्वभाव से बेचारी लड़की को बचा लो।

  PS......ईमानदारी से सब कुछ लिखना बहुत हल्कापन लाता है........लेिकन इसे आते आते बहुत समय बीत जाता है।
आप इस लिंक पर क्लिक कर के डा वत्स के बारे में हिंदी में भी बहुत कुछ जान सकते हैं।


एकदम खालिस कैफ़ीन भी बिकती है इंटरनेट पर

अभी अभी यह जानना भी मेरे लिए एक बड़ी खबर थी कि शुद्ध कैफ़ीन पावडर इंटरनेट से भी खरीदा जा सकता है।

कैफ़ीन से अपना परिचय कालेज के दिनों में हुआ.....जब हमें यह पता चला कि चाय-काफी में भी कैफ़ीन होती है और थोड़ी बहुत मात्रा में तो ठीक है, यह ताज़गी देती है लेकिन इस की ज़्यादा मात्रा से कईं प्रकार का नुकसान होता है। यह भी तो एक तरह का नशा ही हुआ क्योंकि इस के ऊपर फिर एक तरह से डिपेंडैंस हो जाती है। 

कैफ़ीन की विशेषता यह भी सुनते थे अपनी फार्माकॉलोजी की प्रोफैसर से कि गांव के लोग क्यों बुखार वार होने पर एक प्याली चाय पी कर ही ठीक हो जाया करते थे, वह भी इसी कैफ़ीन का कमाल ही होता था---दवाईयों के वे लोग ज़्यादा आदि थे नहीं, इसलिए यह भी एक दवाई का ही काम करती थी, चाय पीने के बाद उन का पसीना-वीना निकल जाता था और वे छोटी मोटी तकलीफ़ से बाहर निकल आया करते थे, तरोताज़ा सा महसूस कर लेते थे। 

अभी ध्यान आ रहा था कि बचपन में हमारे दौर के लोगों की जुबां पर एक दवाई का नाम चढ़ गया था.......एपीसी......  APC... बाद में कॉलेज में फार्माकॉलोजी पढ़ने के दौरान पता चला कि इस में ए का मतलब है एसिटाअमाईनोफैन, पी से से फिनैसेटिन और सी से कैफ़ीन.... यह टेबलेट बड़ी पापुलर सी हुआ करती थी। सरकारी अस्पतालों के नुस्खों पर पहली दवा यही हुआ करती थी..... फिर अस्सी के दशक में अमेरिका में जब फिनेसेटिन पर प्रतिबंध लगा दिया गया तो फिर यह टेबलेट यहां से भी गायब हो गई। हमारे घर में भी एपीसी की गोलियां बहुत इस्तेमाल हुआ करती थीं....दांत दर्द, बदन दर्द, सिर दर्द, बुखार, ..हर किस्म के दर्द का बस एक ही इलाज हुआ करता था। 

इस पृष्ठभूमि के साथ अपनी बात कहनी शुरू करें....शुद्ध कैफ़ीन के बारे में। यह जो शुद्ध कैफ़ीन पावडर के पैकेट इंटरनेट पर बिक रहे हैं, यह एक चिंताजनक ट्रेंड है। अमेरिकी फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन ने इस के बारे में लोगों को सावधान करते हुआ कहा है कि शुद्ध कैफ़ीन का एक चम्मच कॉफी के २५ कपों को एक साथ पी लेने के बराबर है।

एफ डी आई ने मां-बाप को भी इस मुसीबत से बच्चों को बचाए रखने के लिए कहा है क्योंकि यह कैफ़ीन एक बहुत शक्तिशाली स्टुम्लैंट (उत्तेजित करना वाला) है और ज़रा सी भी लापरवाही से शुद्ध कैफ़ीन की थोड़ी सी मात्रा से भी ओवरडोज़ का खतरा हो सकता है। 

मैं जो चेतावनी पढ़ रहा था उस में स्पष्टता से लिखा है कि कैफ़ीन की ओवरडोज़ से दिल की धड़कन में कुछ खतरनाक बदलाव, दौरे और मृत्यु तक हो सकती है। उल्टी आना, दस्त लगना और बेसुध सा हो जाना कैफ़ीन की विषाक्ता के लक्षण हैं। और शुद्ध कैफ़ीन के पावडर रूप में सेवन करने में ये लक्षण चाय, काफ़ी, या अन्य कैफ़ीन सम्मिलित पेय पदार्थ पीने वालों की अपेक्षा में बहुत ज़्यादा उग्र किस्म के होते हैं। 
अब ऑनलाइन पर हर कुछ खरीदना वैसे ही बहुत आसान सा हो गया है, मन में विचार आया और तुरंत खरीद लिया और अगले दिन आप के द्वार पर सामान पहुंच जाता है, ऐसे में स्वयं भी सचेत रहिए, दूसरों को भी करते रहिए।


शनिवार, 26 जुलाई 2014

टी बी के मरीज़ के गिरफ्तारी वारंट

अभी अभी बीबीन्यूज़ पढ़ रहा था तो एक खबर की तरफ़ विशेष ध्यान चला गया कि कैलीफोर्निया में एक टीबी के मरीज़ ने अपना नौ महीने का दवाईयां का कोर्स पूरा नहीं किया ..और बिना बताए कहीं चला गया तो उस के गिरफ्तारी के वारंट इश्यू हो गये हैं क्योंकि प्रशासन जानता है कि इस मरीज़ के दूसरे लोगों को टीबी का मर्ज होने का खतरा है।

इस खबर का लिंक यहां लगा रहा हूं.. इस पर क्लिक कर के इसे देख सकते हैं.....  California manhunt for tuberculosis -positive patient

मैं भी पिछले ३० वर्षों से सरकारी अस्पतालों में ही काम कर रहा हूं और इसलिए जो भी सरकारी अस्पतालों में टीबी और छाती रोग विशेषज्ञ पूरी कर्त्त्व्यपरायणता से अपना काम करते हैं उन के लिए मेरे मन में एक विशेष सम्मान है। और इस के साथ ही साथ जिन चिकित्सकों का व्यवहार भी इन मरीज़ों के साथ अच्छा होता है उन के आगे तो नतमस्तक होने की इच्छा होती है।

ये विशेषज्ञ ही नहीं, बल्कि लैब में जो टैक्नीशियन इन मरीज़ों की थूक की जांच कर के सही सही रिपोर्ट देते हैं मैं उन के फन की भी बहुत तारीफ़ करता हूं।

यह रोग इतने व्यापक स्तर पर भारत में फैला हुआ है कि सरकारी अस्पताल के टीबी के सरकारी डाक्टर का व्यवहार भी मेरे विचार में यह तय करता है कि मरीज़ उन की बात को कितनी गंभीरता से लेगा या दवाई खायेगा भी कि नहीं।

इस बीमारी के इलाज में इतना गड़बड़ घोटाला है कि हम सब आए दिन अखबारों में पढ़ते हैं कि टीबी की नकली दवाईयों की खेप पकड़ी गई। मुझे लगता है कि जो भी आदमी टीबी की ऩकली दवाईयों की कमाई खा रहा है उस से तो पशु भी बेहतर हैं।

हम चाहे जितना मरजी ढोल पीट लें कि हम डाक्टरों की कार्यक्षमता की ऐसी जांच करेंगे, वैसी जांच करेंगे.......साहब, ये दिल के मामले हैं, दिल से करने वाले काम हैं, कोई भी ऐसा मापदंड ऐसा बन ही नहीं पाएगा कि किस डाक्टर ने कितनी अच्छी तरह से कितनी कुशलता से अपने काम को अंजाम दिया या फिर किस टैक्नीशियन ने कितने थूक के सैम्पल कितने अच्छे से चैक किए और उस में से इतने कम पॉज़िटिव ही क्यों आए।

थूक की जांच का पॉज़िटिव या निगेटिव आना ही बहुत बार यह तय करता है कि बंदे को टीबी की दवाईयां दी जाएंगी या नहीं,  सोच कर मन कांप उठता है कि जिस टीबी के रोगी का थूक  का टैस्ट निगेटिव आ गया और उसे दवाईयां शुरु न की गईं।

ऐसे ही बहुत बार देखने सुनने में आता है कि किसी बंदे को टीबी थी ही नहीं और उस ने छः -नौ महीने दवाईयां भी खा लीं, फिर पता चला कि इस कोर्स की तो उसे ज़रूरत नहीं थी।
मैं गलतियां नहीं गिना रहा हूं....मुझे स्वयं पता नहीं मेरे में कितनी खामियां हैं, मैंने तो गिनती ही करनी छोड़ दी है, लेकिन टीबी के मरीज़ की ज़रा बात करते करते थोड़ा भावुक सा हो गया हूं........जिस तरह से टीबी की बीमारी इस देश में प्रचलित है, ऐसे में टीबी रोग विशेषज्ञों एवं लैब टैक्नीशियन (जो थूक की जांच करते हैं) को अति उत्तम श्रेणी का प्रशिक्षण समय समय पर दिया जाना चाहिए।

पाठकों को लगता होगा कि थूक की जांच बहुत आसान सा काम है, थूक की जांच ही तो करनी है, जी नहीं, यह एक बहुत कठिन काम है, इस में गलती की कोई गुंजाइश नहीं होती, कईं बार यही रिपोर्ट ही यह तय करेगी कि मरीज़ को दवा का कोर्स दिया जायेगा या नहीं.

ऐसा नहीं है कि अन्य साधन नहीं हैं --- हैं तो ..छाती का एक्स रे है, रक्त की अन्य प्रकार की जांच है, और नये नये प्रकार के टैस्ट भी आने लगे हैं--एलाईज़ा जैसे, जिस से बड़ी सटीकता से टीबी का पता चल जाता है। अभी ध्यान आ गया जब वी मैट के दारा सिहं के वह संवाद का जिस में वह करीना और शाहिद को देख कर बड़े चुटीले अंदाज़ में कहता है कि एक नज़र से ही पता चल जाता है कि लड़के और लड़की के बीच चल क्या रहा है। जी हां, ये विशेषज्ञ भी अपने मरीज़ों की बीमारी पहचानने में भी ऐसी ही नज़र रखते हैं।


लेकिन वही बात है, कहां लोग इतने साधन-संपन्न हैं कि वे इतने इतने महंगे टैस्ट करवाते फिरें, नहीं करवा पाते, ईश्वर का शुक्र है कि एक छाती का एक्स-रे और कुछ मामूली सी रक्त जांच से ही अनुभवी विशेषज्ञ निदान कर लेते हैं और दवाई शुरू कर देते हैं।

१०-१२ वर्ष पहले की बात है कि मैं फिरोज़पुर में जहां बाल कटवाने जाता था, वहां एक लड़का एक दिन कहने लगा कि उस की मां को टीबी है, बड़ी कमज़ोर हो गई है... प्राइव्हेट से इलाज करवा रहे हैं, कुछ फ़र्क ही नहीं पड़ रहा, सरकारी अस्पताल में जाते डर लगता है कि वहां कोई ठीक से बात सुने कि नहीं।

अब मुझे इतने वर्षों के बाद यह लगने लगा कि सरकारी अस्पतालों में बहुत अच्छा टेलेंट भी है, हर किसी को एक ही लेबल लगा देना ठीक नहीं है। इस में भी कोई संदेह नहीं रहा कि कुछ के अपने स्वार्थी मनसूबे रहते होंगे, और डाक्टरी पेशे में और वह भी सरकारी अस्पताल में सरकारी कुर्सी पर बैठ कर अपना कोई भी स्वार्थी मनसूबा रखना ...मैं इस श्रेणी को भी बेहद बेवकूफ़ मानता हूं........ मरीज़ आ रहा है आप के पास आप का नाम सुन कर, शायद उस के पास उतने साधन भी नहीं हैं, आप इतने माहिर बने बैठे हैं इसी तरह के सैंकड़ों-हज़ारों मरीज़ों को देख देख कर.......फिर इस में इतना इतराने की क्या बात है, क्यों इन मरीज़ों को हम दूसरे चक्करों में डालें..........अपना सारा ज्ञान जो संजो कर रखा है वह कब काम आयेगा.....

अच्छा तो बात उस हेयर-कटर की हो रही थी, वैसे तो मेरे जाने की ज़रूरत थी ही नहीं, क्योंकि फिरोज़पुर के सिविल अस्पताल में जो टीबी के विशेषज्ञ थे उन का बहुत ही नाम था.....काबिलियत के हिसाब से भी व्यवहार के नज़िरये से भी......फिर भी मैं पहली बात जा कर उस की मां और उस का परिचय करवा के आ गया, बाद में वे लगातार जा कर दवाई वहां से जा कर लेते रहे, खाने पीने के बारे में मैं भी उस का मार्गदर्शन करता रहा, कुछ ही महीने में उस की मां एकदम फिट हो गईं, वह बहुत खुश था.....लेकिन उस ने कोर्स पूरा किया।

प्राइव्हेट में बैठे कुछ नीम हकीम के हत्थे अगर कोई इस तरह का मरीज़ चढ़ गया तो वे उसे ठीक होने ही नहीं देते, या शायद उन का ज्ञान ही उतना होता होगा, लेकिन इतने भी बेवकूफ़ न होते होंगे कि भोली -भाली जनता को सरकारी टीबी अस्पताल में ही न रेफर कर पाएं.......ये नीम-हकीम टाइप के डाक्टर तो बस थोड़ी थोड़ी दवा देते रहते हैं, कभी कोई आधा अधूरा टीका लगा दिया.......मरीज़ ठीक हो या ना हो, इस से मतलब नहीं, बस उन की दुकानदारी चमकती रहनी चाहिए।

इस देश में तो ऐसे ऐसे केस देखें हैं कि मरीज़ महीनों महीनों खांसता रहता है, उस की खांसी से ही पता चल रहा है कि सब कुछ ठीक नहीं है, लेकिन जब वह गंभीर अवस्था में किसी बड़े अस्पताल में पहुंच जाता है, और वहां मौत से चंद दिन पहले ही पता चल पाता है कि उस का तो स्पूटम-पॉज़िटिव (लार में टीबी के कण) था। बेहद अफ़सोसजनक परिस्थिति !!

शुक्रवार, 25 जुलाई 2014

भसीड़ा, कमलगट्टा और कमल का फूल एक साथ.....

आज शाम को लखनऊ के आलमबाग एरिया में ऐसे ही आवारागर्दी कर रहा था तो सड़क किनारे एक भाई कुछ साग सब्जियां बेच रहा था।

जमीन पर सजी उस की दुकान की तरफ़ मेरा ध्यान खिंचने का कारण था कोलडोडे....जी हां, पंजाबी में कमल के फल को कोलडोडे ही कहते हैं। इधर यूपी में इधर क्या कहते हैं, मुझे पता नहीं था। मेरे पूछने पर उस ने बताया कि इसे कमलगट्टा कहते हैं। यह बाज़ार में बहुत कम बिकता दिखाई देता है, शायद मैं भी वर्षों बाद इस के दर्शन कर रहा था।

कमलगट्टा -इस के बीजों का छिलका उतार कर खाया जाता है
मेरी उस कमलगट्टे में रूचि देखते हुए एक बुज़ुर्ग महानुभाव की भी रूचि उस कमलगट्टे में पैदा हो गई। वह भी पूछने लगे कि यह क्या है, मैंने बताया ..फिर पूछने लगे कि इस की सब्जी बनती है क्या, इसे कैसे खाते हैं। मैंने उस कमलगट्टे का एक बीज निकाला, उस का छिलका उतार कर उन्हें खाने के लिए पेश किया तो वे लगे दूर दूर हटने......मैंने कहा, नहीं, यह तो आपको खाना ही होगा, झिझकते हुए उन्होंने खा लिया.. और उन्हें उस का स्वाद अच्छा लगा। और उन्होंने भी दस रूपये के तीन कमलगट्टे तुरंत खरीद लिए। जाते समय शुक्रिया अदा करने लगे कि मेरी वजह से उन्होंने आज ज़िंदगी में पहली बार इसे चखा।

हम केवल स्कूल-कालेज में ही तो नहीं सीखते, हर जगह सीखते रहते हैं, शर्त केवल इतनी है कि सीखने की अभिलाषा होनी चाहिए। हम भी राह चलते फुटपाथों से ही बहुत कुछ सीखते रहते हैं......जाने अनजाने यह प्रक्रिया सदैव चलती रहती है।

मुझे यह जो कमलगट्टा है खाने में बहुत अच्छा लगता है। इस के बीज का छिलका उतार कर खाया जाता है। लेकिन अभी गूगल सर्च किया तो पता चला कि यह तंत्र-वंत्र के लिए भी प्रयोग किया जाता है। बहरहाल, वह अपना विषय कभी भी नहीं रहा।
कमलगट्टा, भसीड़ा और कमल का फूल 
कमलगट्टे के साथ ही कमल-ककड़ी पड़ी हुई थी..... मेरी श्रीमति इसे कमल-ककड़ी कहती हैं, शायह हरियाणा में जहां पर हम पहले रहते थे, वहां यह इसी नाम से पहचानी जाती है। पंजाब में इसे 'भें' कहा जाता है।   दुकानदार वाले भैया ने बताया कि इसे यूपी में भसीड़ा कहते हैं। गूगल पर अभी देखा तो पता चला कि इस का साग वाग भी बनता है. लेकिन अकसर हम लोग तो इस की और आलू की सब्जी बना कर खाते हैं।

दुकानदार ने भी यह  बता दिया था कि कमल की जड़ जो पानी मे होती है जिसे भसीड़ा कहते हैं इस का साग बनता है। और जो भाग फूल के रूप में पानी के ऊपर होता है वही बाद में कमलगट्टे का रूप ले लेता है।

अब उत्सुकता यह थी कि कमलगट्टा हो गया, भसीड़ा भी हो गया लेकिन यह कमल के फूल यहां इस दुकान में क्या कर रहे हैं, मैंने पूछा कि क्या इस की भी सब्जी बनती है, इतने में एक और ग्राहक बीच में बोल पड़ा कि आज कल पूजा चल रही है, इसे पूजा के लिए इस्तेमाल किया जाता है। और उसी ने बताया कि ये जो आप कमलगट्टे की बात कर रहे थे, मखाने भी इसी से तैयार होते हैं।

कितना अद्भुत देश है, उम्र पचास के पार हो गई, लेकिन अभी तक सब्जियों की पहचान कर रहे हैं, उन महानुभाव की बात करें जिन्होंने सत्तर की उम्र के आस पास होने के बावजूद कमलगट्टे का स्वाद नहीं चखा।

यह तो हो गई मेरी पीढ़ी की बात, मेरी से थोड़ी पिछली की भी बात, लेकिन आज की युवा पीढ़ी का क्या, उन्हें कैसे पता चलेगा कि कितनी कितनी अद्भुत चीज़ें हैं जिन का हमें अभी पता ही नहीं है, ये छोटी छोटी दुकान चलाने वाले दो पैसे कमाने के लिए कितनी मेहनत कर के इन्हें हमारे तक पहुंचाते हैं। शायद यह जानने पर हम इन लोगों की मेहनत की कुछ कद्र कर सकें।

मेरे पूछने पर क्या किसी भी तलाब से इसे उखाड़ लिया जाता है तो वह भैया बताने लगा कि नांव में नदी तालाब के अंदर जाना पड़ता है इस के लिए।

आते आते मुझे अपने स्कूल के हिंदी के मास्टर साब की वे पंक्तियां याद आ गईं.....जब भी वे विज्ञान के लाभ हानियां पर निबंध लिखवाते तो ये ज़रूर लिखवाते कि अपने आप में कुछ भी भला या बुरा नहीं होता....

नज़र का भेद ही सब भला बुरा दिखता है,
कोई कमल का फूल देखता है कीचड़ में,
किसी को चांद में भी दाग नज़र आता है। 

बॉडी-शॉडी बनाना भी एक खतरनाक जुनून हो सकता है..

कितनी बार बातें चलती रहती हैं कि किस तरह से जिम जाने वाले लड़के तरह तरह के पावडर लेकर अपने डोले शोले बना कर अपनी बॉडी शॉडी से लोगों को इंप्रेस करने लगते हैं। जानते लगभग सब हैं कि इस तरह के प्रोडक्टस का क्या नुकसान है, लेकिन फिर भी जिस से पूछो उस का यही जवाब होता है कि बस एक या दो डिब्बे ही खाए थे, वे भी जिम से ही खरीद कर। लेकिन एक दो डिब्बे खा लेना भी किसी खतरे से कम नहीं है।

यह जो आजकल हम लोग छः पैक (सिक्स पैक) और बिल्कुल मकैनिकल सी बॉडी देखने लगे हैं, ऐसा पहले क्यों नहीं होता था...बचपन से ही हम देखते आ रहे हैं कि पहलवान कुश्तियां लड़ते थे, दंगलों में हिस्सा लेते थे, वज़न भी उठाते थे....लेकिन फिर भी उन के शरीर इस तरह के नज़र नहीं आते थे जितना आज के किसी युवा की बॉडी एक-दो महीने ही जिम जा कर दिखने लगती है।

यह सब उन हारमोन्ज़ और स्टीरॉयड आदि का प्रभाव है जो कि इतनी जल्दी मांसपेशियां इतनी फूल सी जाती हैं...
पहले भी इस विषय पर कईं बार लिख चुका हूं लेकिन आज फिर अचानक ध्यान आ गया कि किस तरह से अमेरिकी युवा इस तरह के हारमोन्ज़ एवं स्टीरायड के चक्कर में पड़ कर अपनी सेहत से खिलवाड़ कर रहे हैं।

और इस रिपोर्ट में इसी बात की परेशानी ब्यां की गई है कि इस तरह के प्रोडक्ट्स की बिक्री पर कोई रोक ही नहीं है,  लोग ये सब चीज़ें ऑनलाईन भी खरीदने लगे हैं।

 Dangerous use of Growth Hormone Surges Among U.S Teens

अगर अमेरिका जैसे देश में इतनी बेबसी है कि इन सब चीज़ों की बिक्री पर अंकुश रखने के लिए तो आप यह तो कल्पना भलीभांति कर ही सकते हैं कि यहां भारत जैसे देश में कैसी विकट समस्या होगी। यहां तो वैसे ही कुछ भी बिकने लगता है।

दरअसल ये दवाईयां हैं जो कि एक विशेषज्ञ डाक्टर ही लिखते हैं ..किन्हें लिखते हैं ..डाक्टर साहब ये दवाईयां.......ये दवाईयां दी जाती हैं एड्स के रोगियों को जिन की मांसपेशियां कमज़ोर पड़नी शुरू हो जाती हैं,  दिमागी के कुछ ट्यूमर ऐसे हैं..पिचूटरी ट्यूमर जिन में इन दवाईयों को देना पड़ता है और हां, कुछ बच्चे जो बचपन से ही कम विकास का शिकार होते हैं उन्हें भी ये दवाईयां एक विशेषज्ञ पूरी छानबीन कर के देता है.........ये वो बच्चे हरगिज़ नहीं होते जिन की ग्रोथ जंक-फूड खाने से प्रभावित होती है ...ऐसे बच्चों को भी ये दवाईयां नहीं दी जातीं, यह एक बहुत गहरा वैज्ञानिक मुद्दा है जिसे विशेषज्ञ डाक्टर ही जानते हैं. और यही बात जानने के लिए वे बीस वर्ष की डाक्टरी पढ़ाई करते हैं....... एमबीबीएस फिर एम डी ..फिर कुछ आगे डी एम ..ऐंडोक्राईनॉलॉजी में......फिर अपने अनुभव के आधार पर ये निर्णय लेते हैं अपनी निगरानी में किसे ये दवाईयां देनी हैं, किसे नहीं।

यह कैसे हो सकता है कि आपके जिम का मालिक जो कुछ हफ़्ते में एक दो फैशनेबुल कोर्स कर के आ जाए और लगे बांटने यह ज्ञान......... नहीं, ऐसा नहीं हो सकता, अपने जिम की शानोशौकत पर, दिखावे पर और जिम मालिक की स्लैंग या ट्रेंडी इंगलिश पर मत जाइए........बस, कसरत करिए और अपने आप को तंदरूस्त रखिए........क्योंकि आज रात ही रात में लखपति नहीं, करोड़पति बनने की एक दौड़ सी लगी हुई है।

कुछ डाक्टर भी स्पोर्ट्स मैडीसिन के विशेषज्ञ होते हैं, हो सके तो मैडीकल कालेज या अन्य सरकारी संस्थानों से इस तरह के प्रोडक्ट्स के बारे में चर्चा की जा सकती है। 

एच पी वी (HPV) टीकाकरण के बारे में बात स्पष्ट होनी चाहिए

आज भी एक न्यूज़-रिपोर्ट में दिखा कि अमेरिका में किस तरह से तरूणावस्था में एचपीवी वैक्सीन कम लोगों को लगाये जाने पर चिंता प्रकट हो रही है। इस न्यूज़-रिपोर्ट का लिंक यहां दिए दे रहा हूं..

Safe and effective vaccine that prevents cancer continues to be underutilized

इस रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि केवल ५७ प्रतिशत युवतियां जो तरूणावस्था में हैं और ३५ प्रतिशत तरूण युवक ही ऐसे हैं जिन्होंने एक या अधिक खुराकें इस वैक्सीन की ली हैं।

मुझे भी बड़ी हैरानी हुई ये आंकड़े देख के.....पहली बात तो वहां के आंकड़ों में कुछ संदेह नहीं है..... लेकिन इतने युवकों युवतियां को यह इंजैक्शन लगना शुरू हो चुका है, यह एक सुखद सूचना थी।

अभी भी हमारे देश में इस इंजैक्शन के बारे में स्थिति कोई साफ़ है नहीं। इतने वर्ष हो गये इस पर चर्चा ही हो रही है। मुझे याद है मैंने ३-४ वर्ष पहले एक महिला रोग विशेषज्ञ से पूछा था कि  इस वैक्सीन के बारे में क्या रिस्पांस है...ह्यूमन पैपीलोमा वॉयरस संक्रमण के संदर्भ में--- तो उस ने झट से कह तो दिया था......यह समस्या बाहर देशों की ही है।

लेकिन मैं उस के जवाब से संतुष्ट नहीं हुआ। कईं बार मीडिया में इतने वर्षों से दिखता रहता है कि युवतियों पर इस वैक्सीन के क्लीनिकल ट्रायल चल रहे हैं। फिर कुछ आने लगा कि क्लीनिक ट्रायल इस तरह से नहीं किये जाने चाहिए। जो भी है, अभी तक स्थिति कुछ भी स्पष्ट है नहीं।

अभी कुछ ही सप्ताह पहले एक मंत्रालय ने कुछ महिला रोग विशेषज्ञों की एक कमेटी गठित की ताकि वे इस तरह के इंजैक्शन के बारे में मैडीकल लिटरेचर का गहन अध्ययन कर के इस तरह के टीकाकरण के बारे में अपनी राय कायम कर सकें। पता नहीं क्या हुआ उस कमेटी का।

मुझे ऐसा लगता है कि इस तरह की अलग अलग कमेटियां बनाने से कहीं ज़्यादा बेहतर होगा कि इंडियल काउंसिल ऑफ मैडीकल रिसर्च संस्था जैसा शीर्ष संस्थान देश के चुन हुए संस्थानों से एवं देश के जाने माने विशेषज्ञों की एक समिति का गठन करे ताकि वे अपनी ठोस सिफारिशें तैयार कर सकें जिन्हें बिना किसी संदेह के लागू किया जा सके।

बहुत बार कईं टीकों के बारे में आता रहता है कि कुछ टीके ऐसे हैं जो लोग अफोर्ड कर सकते हैं वे अपने खर्च पर लगवा लें, लेकिन इस तरह की टीके के बारे में मेरा विचार यही है कि अगर विशेषज्ञों का समूह यह तय करे कि इस तरह का टीकाकरण देश के युवकों-युवतियों का भी होना चाहिए तो फिर इसे कैसे भी राष्ट्रीय टीकाकरण पालिसी में ही शामिल कर लिया जाए ताकि सारे युवा वर्ग को इस का लाभ मिल सके।

सब से पहले तो यही ज़रूरी है कि इस टीके के बारे में स्थिति पूरी तरह से स्पष्ट होनी चाहिए.....पता नहीं इतना समय क्यों लग रहा है। और इस में इंडियन काउंसिल ऑफ मैडीकल रिसर्च, एम्स, पीजीआई जैसे संस्थानों के विशेषज्ञों की विशेष भूमिका रहेगी। 

गल्तियां करने से नहीं, दोहराने से परहेज़ करें...

एक बार एक इंगलिश की कहावत कहीं पढ़ी थी कि गल्तियां करने से नहीं डरें, जितनी मरजी करते जाएं, होता है जब हम काम करते हैं तो गल्तियां तो होती ही हैं, लेकिन बस ध्यान यही होना चाहिए की एक ही गलती फिर से रिपीट न होने पाए। बस एक कोशिश रहनी चाहिए, ऐसी है।

हम लोग भी आए दिन गल्तियां करते ही हैं, जैसे कि सफ़र के दौरान खाना खा के बीमार होने की गलती, लेकिन फिर भी कुछ गल्तियां करने से शायद हम अपने आप को रोक नहीं पाते। हमें पता है कि बाज़ार का खाना मेरे सेहत के लिए ठीक नहीं है, लेकिन फिर भी मजबूरी वश (मरता क्या न करता वाली बात) कभी कभी खाना पड़ता है, न चाहते हुए भी, और फिर बीमार होने के लिए तैयार रहना ही पड़ता है।

हर गलती से हम लोग कुछ न कुछ सीखते जाते हैं। कुछ दिन पहले हमने बंबई से लखनऊ रेलगाड़ी से वापिस लौटना था, वैसे तो बढ़िया गाड़ीयां हैं इस रूट पर... पुष्पक एक्सप्रैस जैसी.. जो २३-२४ घंटे लेती हैं। वहां से चलने का और यहां लखनऊ में पहुंचने का टाइम भी सुविधाजनक है।

जब मैं रिज़र्वेशन करवाने गया.. तो देखा कि बाकी गाड़ीयों में तो वेटिंग लिस्ट थी, और एक होलीडे स्पेशल गाड़ी थी जिसमें समय ज़्यादा लगता है, लंबे रूट से, मथुरा से होती हुई, भारत दर्शन करवाती हुई लखनऊ पहुंचती है और ३२-३३ घंटे लगते हैं...यानि कि सामान्य गाड़ी से १० घंटे ज्यादा.......चूंकि रिज़र्वेशन मिल रही थी, ले तो ली....लेकिन उस गाड़ी से इतना लंबा सफ़र करना बहुत कठिन लगा।

इस सफ़र से यही सीखा कि आगे से सफ़र न करना मंजूर है, लेकिन इस तरह के इतने बड़े लंबे रूट से यात्रा करना बड़ा टेढ़ा काम लगा। यह मेरा व्यक्तिगत अनुभव है .....मैं तो शायद इस से एक सबक ले चुका हूं......लेकिन अनुभव तो तभी सफल होगा जब इस तरह की गल्ती को कभी दोहराया न जाए।

एक गलती और.....कल मुझे दिल्ली जाना था। चार बजे बाद दोपहर किसी के साथ मीटिंग थी। सोचा सुबह एक गाड़ी पकड़ कर चलूंगा और दोपहर २ बजे के करीब वहां पहुंच जाऊंगा। लेकिन पुष्पक एक्सप्रैस सुबह ५.२५ पकड़ने के लिए घर से सुबह पौने पांच बजे चला ...और गाड़ी दिल्ली पहुंचते पहुंचते २ घंटे लेट हो गई और मैं चार बजे नई दिल्ली स्टेशन से पहले शिवाजी ब्रिज पर ही उतर गया और वहां से आटो पकड़ कर अपनी मीटिंग वाली जगह पर पहुंच गया।

तो दूसरी गलती जो मैंने व्यक्तिगत तौर पर की कि दिल्ली जाने के लिए सुबह की गाड़ी पकड़ी.......इस तरह की गाड़ी की यात्रा सुबह के समय इतनी बोरिंग होती है, इस का अंदाज़ा कोई भी लगा सकता है। इसलिए कल ही यह निर्णय लिया कि सामान्तयः सुबह की गाड़ी में इतना लंबा सफ़र नहीं करूंगा चाहे उस के लिए कितना भी नुकसान हो जाए।
देखता हूं इन दोनों गलतियों को दोहराने में कितना समय बच पाता हूं।

वैसे एक गलती जो मैंने पिछले कितने ही वर्षों से नहीं दोहराई ...वह यह है कि मैं सफ़र के दौरान चाय नहीं पीता, वह चाय मेरे हलक से नीचे ही नहीं उतरती। शायद पिछले कुछ सालों में एक दो घूंट भर लिये हों, वह भी सिरदर्द से बचने के लिए ...वरना इस तरह की चाय से तो मेरी तो तौबा। 

17 साल के लड़के के 232 दांत

आज अभी बीबीसी की साइट पर इस खबर पर नज़र पड़ी कि बंबई में डाक्टरों ने एक १७ साल के लड़के के मुंह से २३२ दांत निकाले।

मैंने भी इस तरह की खबर पहली बार ही देखी है। यह लड़का किसी गांव में रहता था, एक महीने पहले उसे जबड़े में बहुत ज़्यादा दर्द हुआ। उस के पिता उसे इस डर से बंबई लेकर आ गये कि कहीं कैंसर ही न हो।

इस खबर के बारे में आप अधिक जानकारी इस लिंक पर क्लिक कर के बीबीसी की साइट पर देख सकते हैं। अभी भी लड़के के मुंह में २८ दांत बचे हैं।

India Doctors remove 232 teeth from boy's mouth

यहां यह बताना ज़रूरी होगा कि यह सब एक ट्यूमर की वजह से हुआ.....लेकिन यह ट्यूमर बिनाईन होता है, अब बिनाईन को कैसे बताऊं.....बस आप यही जान लें कि इस तरह की ट्यूमर खतरनाक नहीं होता, यह शरीर के दूसरे अंगों में फैलता नहीं है, और इस से सामान्यतः जान भी नहीं जाती। लेकिन लड़के की तो २३२ दांत उखड़वाने के बाद जान में जान आई होगी।

ईश्वर सब को सेहतमंद रखे।


शनिवार, 12 जुलाई 2014

आप की पर्सनल एमरजैंसी किट..

अकसर हम लोग यात्रा पर जाने से पहले अपनी दवाईयों की एमरजैंसी किट को इतना महत्व नहीं देते। लेकिन फिर जब अचानक इन में से कुछ की ज़रूरत पड़ती है तो अपनी गलती का अहसास होता है।
हर व्यक्ति को पता होता है कि उसे एमरजैंसी में किन किन दवाईयों आदि की ज़रूरत पड़ सकती है।
चलिए अपनी उदाहरण लेता हूं. मैं कुछ दिनों के लिए बंबई आया हुआ था, आज लौट रहा हूं। परसों रात को अचानक रात एक-दो बजे मेरे पेट में बहुत ज़ोर का दर्द होने लगा और साथ में शरीर दुःखने लगा और बुखार जैसा लग रहा था। दो बार बिल्कुल वॉटरी स्टूल्स भी हुए।

समझ में नहीं आया कि ऐसा तो कुछ खाया भी नहीं..अकसर खाने में अपनी तरफ़ से थोड़ी एहतियात ही बरतते हैं। बहरहाल, मेरे पास उस समय Norflox 400 mg की एक टेबलेट पड़ी थी, मैंने तुरंत ले ली और साथ में Tab Zupar (Ibuprofen and Paracetamol combination) ली, उस के बाद कोई मोशन नहीं आई ..लेकिन अगले दिन सारा दिन बदन दुखता रहा और बुखार जैसा लगता रहा। इसलिए मैंने Norflox-TZ का तीन दिन का कोर्स करना ही ठीक समझा।वैसे मैं यहां अपने ब्लॉग में दवाईयों के ट्रेड नेम नहीं लिखता लेकिन कुछेक का नाम तो लिखना ही पड़ता है जिन्हें अपने ऊपर अाजमाया हो।

आज अच्छा लग रहा है।

अकसर हम लोग इस तरफ़ कभी ध्यान नहीं देते कि सफ़र में जाते समय या बाहर कहीं जाते वक्त दो चार दवाईयां लेकर चलना चाहिए।

सफर के दौरान सिर दुःखना या फिर एसिडिटी जैसे लक्षण मुझे अकसर हो जाते हैं। मुझे याद है कि एक बार हम लोग दिल्ली से फिरोज़पुर जा रहे थे.. रास्ते में सिर दर्द शुरू हो गया ..भटिंडा पहुंचने पर मुझे इतना सिर दर्द हुआ कि मेरे में चलने की बिल्कुल भी हिम्मत नहीं थी लेकिन फिर भी मैं अपनी मां और तीन-चार साल के बेटे को प्लेटफार्म पर छोड़ कर बाहर एक डिस्परिन की टेबलेट लेने गया।

मैं लगभग पिछले कईं वर्षों से बाहर चाय नहीं पीता.....जब से यह मिलावटी दूध वूध के किस्से सुनने में आने लगे हैं, इसलिए कईं बार थोड़ा विदड्रायल सा होने की वजह से सिर दुःखता है सफर के दौरान या फिर एसिडिटी हो जाती है, इसलिए एसिडिटी के लिए भी ओमीप्राज़ोल कैप्सूल जैसी दवाईयां अपने साथ रखता हूं।

बस यही लिखना चाह रहा था आज इस पोस्ट में कि अपने साथ दो-चार दवाईयां जिन की हमें अकसर ज़रूरत पड़ती है लेकर ही चलना चाहिए। आप का क्या ख्याल है। रात के समय अकसर कैमिस्ट की दुकानें बंद होती हैं, दिक्कत होती है।