बुधवार, 24 सितंबर 2008

आज इन दो दवाईयों की दो बातें करते हैं ....

परसों लखनऊ में था – टाइम पास करने के लिये स्टेशन के सामने से एक बुक-शाप से सिम्स की किताब खरीद ली ......सिम्स यानि CIMS- Current Index of Medical Specialities. यह किताब तीन महीने में एक बार छपती है और हम लोग तो अपने कालेज के दिनों से इसे नियमित देखते रहते हैं। CIMS में बाज़ार में उपलब्ध दवाईयों के बारे में जानकारी दी गई होती है। सभी डाक्टरों के लिये यह बहुत उपयोगी प्रकाशन है। इस का दाम 120रूपये है। वैसे पब्लिक को तो इसे खरीदने की कोई ज़रूरत होती नहीं......क्यों कि उन के लिये इस की बहुत लिमिटेड उपयोगिता है ---काफी सारी बातें तो ले-मैन को समझ में आ ही नहीं सकती । और अगर ले-मैन इस के अनुसार स्वयं दवाई लेना शुरू करने की कोशिश भी करेगा तो अच्छा खासा जोखिम से भरा रास्ता है। वैसे अगर आप को किसी दवाई के बारे में कोई विशेष जानकारी चाहिये तो आप उस दवाई का नाम ( प्रैफरेबली उस के साल्ट का नाम) लिख कर गूगल सर्च कीजिये या विकिपीडिया पर सर्च कीजिये, आप को सटीक सी जानकारी मिल जायेगी।
अच्छा चलिये इस पोस्ट के शीर्षक के अनुसार दो दवाईयों के बारे में दो बातें करें। ऐसा है कि यह जो सिम्स मैंने खरीदी उस के पिछले कवर पर दो दवाईयों का विज्ञापन दिखा – एक तो थी stemetil- MD और Omez Insta. ये दोनों दवाईयां लोगों में अच्छी खासी पापुलर हैं, इसलिये इन के बारे में सोचा कि आप से भी दो बातें करते हैं।

Stemetil के नाम से तो आप में से बहुत से लोग परिचित ही होंगे....यहां पर यह बताना चाहूंगा कि यह स्टैमेटिल की टेबलेट ज्यादातर उल्टी के लिये इस्तेमाल की जाती है। इस में Prochloroperazine ( प्रोक्लोरोपेराज़ीन) नाम का साल्ट होता है उस एक टेबलेट में इस की मात्रा 5 मिलीग्राम रहती है। मुझे जिस बात ने यहां पर इस के बारे में लिखने पर मजबूर किया वह यह है कि मुझे यह कल ही पता चला कि अब यह Stemetil –MD के रूप में भी उपलब्ध है.........MD का मतलब कि mouth-dissolving tablet ………यानि कि इसे आप मुंह में रखेंगे और यह कुछ ही क्षणों में अपने आप घुल जायेगी और फिर इसे आप पानी के बिना भी अंदर ले जा सकते हैं। हां, अगर हालत ऐसी हो कि पानी पच रहा हो तो थोड़ा सा पानी पी लें, वरना कोई ज़रूरत नहीं।

इस मुंह में घुलने वाली गोली की ज़रूरत दोस्तो विशेषकर उन मौकों पर पड़ती है जब मरीज़ कुछ भी पचा नहीं रहा----उल्टिय़ों पर उल्टियां किये जा रहा है----दो-घूंट पानी भी पीता है तो उल्टी कर के बाहर निकाल देता है। ऐसे मौकों के लिये यह दवाई बहुत उपयुक्त है। और मेरे विचार में इस की एक स्ट्रिप आप के घरेलू मैडीसन-बॉक्स में होनी ही चाहिये। सीधी सी बात है कि अगर बंदा पानी भी नहीं पचा रहा तो उसे ऐसी टेबलेट मिल गई जिसे लेने के लिये उसे पानी की ज़रूरत ही नहीं रही।

ठीक है, ऐसी स्थिति से निपटने के लिये टीके वगैरा भी लगाये जाते हैं लेकिन घर पर कुछ समय के लिये इस तरह की टेबलेट को आजमाने में क्या हर्ज है ??

दूसरी दवाई है ........Omez Insta ….इस में Omeprazole powder होता है......Omeprazole powder for suspension ….इस पाउच में छः ग्राम के लगभग पावडर होता है जिसे पानी में घोल कर पी लिया जाता है जिस से गैस्ट्राइटिस में तुरंत राहत मिल जाती है। यहां पर यह बताना चाहूंगा कि Omeprazole के कैप्सूल तो डाक्टरों के द्वारा एसिडिटी एवं पैप्टिक-अल्सर डिसीज़ में अकसर प्रैसक्राइब किये जाते हैं.....लेकिन इस तरह एक पावडर के रूप में यह दवाई पहली बार आई है....ऐसा विज्ञापन में दावा किया गया है।

मेरा विचार तो यही है कि इस तरह की दवाई के भ दो-तीन पाउच तो आप को अपने मैडीसन-बाक्स में रखने ही चाहिये। अकसर आप ने देखा है कि हम लोग किसी पार्टी वगैरह में बदपरहेज़ी करने के बाद जब वापिस लौटते हैं तो हालत एक दम खराब हुई होती है.....फ्रिज में रखा ठंडा दूध भी ले लिया , ऐंटासिड की गोली भी ले ली, लेकिन कोई असर पड़ता नहीं दिखता ----ऐसे में आप को याद होगा हम लोग ENO के एक चम्मच को एक गिलास में घोल कर पी लिया करते थे। लेकिन कईं बार गैस्ट्राइटिस के सिंप्टम इतने ज़्यादा होते हैं कि पेट का एसिड बार बार मुंह तक आता है, बहुत ही अजीब सी खट्टी डकारें रूकने का नाम ही नहीं लेती और छाती की जलन परेशान कर देती है ....ऐसे में एक एमरजैंसी तरीके के तौर पर इस OMEZ- Insta को ट्राई किया जा सकता है। लेकिन यह ध्यान रहे कि इस का रैगुलर इस्तेमाल आप केवल अपने चिकित्सक की सलाह से ही कर सकते हैं क्योंकि जिन मरीज़ों को इस दवाई को रैगुलरी लेना होता है उन की अलग से इंडीकेशन्ज़ हैं, उन की अलग से डोज़ है। इसलिये बिना डाक्टरी सलाह के तो इसे आप एक एमरजैंसी हथियार के तौर पर ही इस्तेमाल कर सकते हैं। इतना ध्यान अवश्य रहे।

मुझे जो भी नई बात पता चलती है ...चाहे कितनी ही छोटी क्यों न हो, बस यही इच्छा होती है कि झट से नेट पर डाल दूं क्योंकि लगता है अगर दो बातें मेरी लिये ही नईं हैं तो शायद बहुत से और लोगों के लिये भी नईं ही होंगी ....और खासकर अगर वे बातें चिकित्सा के क्षेत्र से हों तो उन्हें सब से साझा करना तो और भी ज़रूरी हो जाता है।

मंगलवार, 23 सितंबर 2008

रेल-गाड़ी के शौचालय के बारे में सोचा तो ......

रेल-गाड़ी की विभिन्न श्रेणीयों के शौचालय के बारे में जब हम सोचते हैं तो हमें वैल्यू-एडड सर्विस ( value added service) का फंडा एकदम क्लियर हो जाता है। चलिये, शुरू करते हैं....ए.सी फर्स्ट क्लास के डिब्बे से .....कुछ ऐसे कोच हैं जिन में डिब्बे के यात्री को अपने ए.सी कैबिन में बैठे बैठे एक हरी या लाल बत्ती से यह पता चल जाता है कि कौन सा शौचालय( कौन सी साइड का –इंडियन अथवा वैस्टर्न ) खाली है अथवा आक्यूपाईड़ है। शायद यह इसलिये कि सुबह सुबह पानी वानी पी कर अगर आदमी किसी भी शौचालय का रूख करे तो उसे किसी किस्म की निराशा न हो.....निराशा तो उस स्केल पर सब से नीचे टिकी पड़ी है, जिस के सब से ऊपर है......आप समझ ही गये हैं, अब हर बात लिखनी थोड़े ही ठीक लगती है।

यहां तक कि अगर आप ने अपने कैबिन में नोटिस नहीं भी किया तो शौचालय के दरवाजे के बाहर चिटकनी पर भी इस तरह का इंडीकेटर सा आ जाता है कि बाथ-रूम खाली है या यूज़ में है। अंदर गये हुये बंदे को भी कितना सुकून है कि वह इतमीनान से अपना टाइम ले सकता है---नहीं तो कईं बार हम लोग बिना वजह उस चिटकनी को यूं ही इधर उधर कर के अपनी एमरजैंसी का संदेश अंदर बैठे महांपुरूष तक पहुंचाना चाहते हैं......कि शायद इस से उस की आंतड़ियों की सफाई की चाल में कुछ फर्क पड़ जाये।

तो ठीक है, बंदा एसी फर्स्ट क्लास के शौचालय में पहुंच गया है ....लेकिन पहली बार अंदर जाने वाला अंदर का वातावरण ऐसा फील करता है कि यार, यह बाथरूम ही तो है ना.....उस में तरह तरह के स्विच, तरह तरह के नलके, डिब्बे पड़े होते हैं और इतनी तरह की हिदायतें दी गई होती हैं कि आदमी सोचता है कि इन्हें समझने के चक्कर में क्या पड़ना। बस अपने काम से फारिग हो कर बाहर निकलें। एसी फर्स्ट के बाथरूम की जो मैं बातें कर रहा हूं,ये सब खासकर राजधानी गाड़ियों पर ज़्यादा लागू होती हैं।

यात्रियों की सुविधा का इतना ख्याल कि बाथरूम के ऊपर एक छोटी सी खिड़की भी होती है ताकि ताज़ी हवा का आनंद लूटने की ख्वाहिशमंद आत्मायें इस का भी भरपूर आनंद ले सकें।

हां, हां,साबुन-पानी की तो कोई दिक्कत ही नहीं.......टिश्यू पेपर भी पड़ा है, लिक्विड-सोप भी है और एक सोप की टिकिया जो यात्रा शुरू करने से पहले अकसर आप को दी जाती है, वह भी है----यानि पूरा इंतजाम।

चलिये, बहुत हो गया.....चाहे एसी फर्स्ट का ही बाथ-रूम है, लेकिन टाइम कुछ ज़्यादा ही लगा दिया है। अब आते हैं, सैकेंड एसी के बाथरूम की ओर। बस उस कोच में मैंने बहुत अरसा पहले एक इंडीकेटर देखा था गेट के पास कि शौचालय खाली है या कोई उस में गया हुया है। वैसे सैकेंड एसी में भी पानी वानी की तो कोई खास दिक्कत होती नहीं.....हां, साबुन का जुगाड़ आप को पहले से कर के रखना होगा। लेकिन राजधानी गाड़ीयों में सैकेंड एसी में भी साबुन वगैरह की व्यवस्था रहती ही है।

अच्छा, अब आगे समझने वाली बातें शुरू हो रही हैं.....वैल्यू-एडड सर्विस की बातें समझनी शुरू करें ?---हां, तो कुछ सैकेंड एसी के शौचालयों में लिक्विड सोप का कंटेनर लगा होता है , कुछ में नहीं और कुछ में खाली या .......!! यानि कि सैकंड एसी में सफर करने वाले अपनी साबुनदानी घर पर न ही भूलें तो बेहतर है वरना उस कागज़ी-साबुन (पेपर-सोप) से ही हाथ धोने की रस्म निभानी होगी।

अब आते हैं थर्ड-एसी के डिब्बे के शौचालय में....सीटें काफी बढ़ गई हैं ...इसलिये सुबह सुबह शौचालय के बाहर वेटिंग-लिस्ट में खड़े लोग दिख जाते हैं। कुछ कोशिश करते हैं कि बगल वाले सैकंड एसी के शौचालय में जाकर ही फारिग हो आया जाये। हां, हां, पानी की कोई दिक्कत नहीं.....बस साबुन का जुगाड़ पहले से रखो, भाई।

अब चलते हैं उस स्लीपर कोच की तरफ़ जिस में सब लोग रिजर्वेशन करवा कर ही चलते हैं.....उस में भी अधिकतर कोई प्राबलम होती नहीं। पानी वानी अकसर मिल ही जाता है.......हां, थोड़ा खिड़की-विड़की के कांच को जरूर चैक कर लेना होता है कि यह कहीं टूटा वूटा तो नहीं है या कहीं पारदर्शी कांच ही तो नहीं लगा हुया है। चिटकनी की तरफ़ भी पहले से थोड़ा ध्यान दे ही लें तो बेहतर होगा। और अंदर घुसने से पहले दोनों कानों में थोड़ी रूईं ठूंसनी होगी ताकि बाहर खड़ी जनता की किच-किच आप की दैनिक दिनचर्या को किसी तरह से बाधित न कर पाये। इस स्लीपर में दिक्कत आती है तब जब लोग बिना रिजर्वेशन वाले भी इस में जबरदस्ती घुस जाते हैं और फिर सुबह तो हर तरफ़ सामान भरा होता है और ट्रंकों के ऊपर ट्रंक पड़े रहते हैं जिस से दूसरे यात्रियों को काफ़ी परेशानी होती है.....लेकिन मैं चाहता हूं कि आप भी मेरे साथ रेलों में सफर कर रहे एक आम भारतवाशी के इत्मीनान को याद करते हुये एक सलाम ठोंके। उस बाथरूम के बाहर खड़े सब की एमरजैंसी एक सी है, लेकिन फिर भी वे एक-दूसरे की बात सुन लेते हैं और जो केस बिल्कुल होप-लैस लगते हैं उसे परायरटी बेस पर तुरंत अंदर भिजवा दिया जाता है।

इन स्पीलर क्लासेस के पश्चिमी शौचालयों का तो और भी बुरा हाल लोगों नें उस के ऊपर चप्पलों समेत बैठ बैठ कर किया होता है। इसलिये वही लोग उस तरफ का मुंह करते हैं जो नीचे नहीं बैठ सकते।

रेल गाड़ी से संबंधित तो नहीं , लेकिन अपने ज्ञानदत्त् जी पांडे की ब्लाग मानसिक हलचल पर मैंने लगभग एक साल पहले एक बहुत ही बढ़िया पोस्ट पढ़ी थी जिस में उन्होंने हिंदोस्तानी बाथ-रूम के बारे में बहुत बढ़िया कुछ लिखा था।

अच्छा तो अब हम चलते हैं बिना रिजर्वेशन वाले डिब्बे की तरफ़ जिस में लोग बोरों की तरह से ठसे हुये हैं और उस में मेरी नानी/दादी, मेरी मां, मेरी बीवी , मेरी बहन और हमारी बेटियां की उम्र की औरतें भी ठसाठस भरी होती हैं..........मैं जब इन डिब्बों को इतना ठसाठस भरे हुये देखता हूं तो सोचता हूं कि यार, जब इन में से किसी को बाथ-रूम जाना होना होता होगा तो क्या हाल होता होगा...........इन लोगों को विशेषकर हर उम्र की महिलाओं को क्या तकलीफ़ें पेश आती होंगी, शायद इस की तो हम लोग ठीक से कल्पना भी नहीं कर पायें..........आप स्वयं सोचिये ठसा ठस भरे डिब्बे में से चल कर किसी महिला के लिये बाथरूम जाना कैसा अनुभव होता होगा। और यह भी हो सकता है कि उस डिब्बे में दो-चार लोग ऐसे हों जो डायबिटीज़ से परेशान हों। अकसर इन डिब्बों के शौचालयों की हालत भी कुछ इस तरह की हालत होती है कि चिटकनी का पूरा ध्यान रखना होगा और पानी तो पहले से ही देख लिया जाये कि चल रहा है कि नहीं ...................वरना बाद में तो ...अब पछताये होत क्या.....!!!

ये जो थोड़ी दूरी की पैसेंजर गाड़ियां होती हैं इन के शौचालयों को तो लोगों ने इतना मिसयूज़ कर रखा होता है कि क्या कहें---कईं बार इन के बल्ब तक उतरे होते हैं....अंदर सब तरफ गंदगी बिखरी पड़ी होता है, ऐसे में इस बात की तो बिल्कुल हैरानगी करें नहीं कि गोलू की अम्मा गई तो गोलू को गोद में उठा कर उसे साफ करने लेकिन यह क्या उसे तो वहां गंदगी की हवाड़ से शुरू हो गई मतली और गोलू बेचारा रह गया वैसा का वैसा ही .....लेकिन वह फिर भी मस्त है और दूसरे यात्रियों को देख कर किलकारियां मारता जा रहा है । और सामने वाले बाथरूम में से शहर जा कर आधा-दूध आधा-पानी बेचने वाले अपनी कैनीयों में बाथरूम से पानी भर भर उंडेलने में व्यस्त हैं क्योंकि शीघ्र ही उन का स्टेशन आने वाला है।

दो-चार महीने पहले एक बार रात को मैं और मेरा बेटा अंबाला स्टेशन पर बैठे हुये थे तो हमारे बैंच के सामने एक सैकेंड क्लास का ऐसा डिब्बा रुका जिस के शौचालय की खिड़की न थी ....लेकिन उस में भीड़ इतनी थी कि लोग इस बात की परवाह किये बिना उस का इस्तेमाल किये जा रहे थे। मेरे बेटे ने थोड़े मजाकिया अंदाज़ में मुझे कुछ कहा, तो मैंने उसे प्यार से समझा दिया कि यार, तू एक बार अपने आप को इन लोगों की जगह पर रख कर के देख......बात केवल इतनी ही कही कि यार, इन लोगों की इस अवस्था के बारे में एक फीकी सी मुस्कान भी चेहरे पर लाना घोर जुल्म है। और हम लोग वहां से उठ खड़े हुये।

लेकिन इतना लिखते लिखते लगता है कि वैल्यू-एडड सर्विस का कंसैप्ट मैं समझा पाया हूं........key words are …..इंडीकेटर्स, लिक्विड सोप, चिटकनियां, टूटी खिड़कियां, टूटे बल्ब ।

मैं इन सब श्रेणियों में सफर करने का फर्स्ट-हैंड तजुर्बा रखता हूं।

और जितना अब तक सीखा है वह यही है कि हमारी रेलें हमें बहुत कुछ सिखाती हैं....आपस में एक दूसरे की ज़रूरत का ध्यान रखना और सब से बड़ी बात जो मैंने बहुत शिद्दत से ऑब्जर्व की है और जिस बात में मेरा विश्वास पत्थर पर खुदे नाम जैसा है ....वह यह है कि जैसे जैसे ट्रेन की श्रेणी बढ़ती है........सुविधा तो बेशक बढ़ती ही है ....लेकिन हमारी टोलरैंस, हमारी सब्र, हमारा ठहराव, हमारी इत्मीनान......यह सब कुछ पता नहीं क्यों कम होता जाता है। ये सब विशेषतायें मैंने दूसरे दर्जे के बिना रिजर्वेशन वाले डिब्बे के यात्रियों के चेहरे पर बहुत अच्छी तरह से पढ़ी हैं........किसी के पैर में घिसी चप्पल है, किसी का कुर्ता छः जगह से टांका हुया है, कोई शायद समझता है कि उसे बात करने का ढंग नहीं है, कोई अपनी बढ़ी दाढ़ी या दूसरे किसी बाबूनुमा व्यक्ति की बढ़िया कमीज़ की वजह से बिना वजह अपने आप को छोटा समझ रहा है बिना यह जाने की यह उस ने आज ही स्टेशन के बाहर फुटपाथ से सैकेंड-हैंड खरीदी है, कोई अपनी मां के हाथ की रोटियां और आचार खाने में बिना वजह झिझक महसूस कर रहा है...........लेकिन कोई परवाह नहीं,दोस्तो, इन सब छोटी छोटी बातों का कोई मतलब है ही नहीं....असली हीरो इस देश के यही लोग हैं जिन में इतनी टॉलरैंस है, इतना सब्र है कि मैं तो भई इन की आंख में आंख डाल कर बात ही नहीं कर सकता। इस के इतने सब्र के पीछे कारण यही है कि इन सब के सपने एक से हैं.....ये एक दूसरे की तकलीफ़ समझते हैं और उस की मदद करने के लिये आगे आते हैं।

मंगलवार, 16 सितंबर 2008

ब्लड-प्रैशर का यह कैसा हौआ है ?....2

मैंने कुछ महीने पहले भी ब्लड-प्रैशर के इस हौवे के बारे में कुछ लिखा था जो यहां पड़ा हुया है, आज सुबह जब अपना रूटीन ब्लड-प्रैशर चैक करवाया तो अचानक उस के आगे फिर से कुछ लिखने की इच्छा हो गई। तो उस के आगे शुरू करता हूं।

आज मैंने जब ऑटोमैटिक मशीन से अपना ब्लड-प्रैशर चैक करवाया तो एक बाजू में 142/92 तथा दूसरी बाजू में 142/94 आया। यह ऑटोमैटिक मशीन वही वाली जिस के कफ को बाजू पर बांधने के बाद एक बटन दबा देने से कफ में अपने आप ही हवा भरनी शुरू हो जाती है और कुछ समय बाद ब्लड-प्रैशर की रीडिंग आ जाती है।

चूंकि पास में ही ब्लड-प्रैशर चैक करने की वह कन्वैंशनल मशीन ( स्फिगमोमैनोमीटर) पड़ी थी....तो विचार आया कि इस से भी बी.पी चैक करवा ही लिया जाये। उसी समय उस मशीन से चैक करवाया तो एक बाजू में 110/80 और दूसरी में 110/88 की रीडिंग थी। ध्यान देने योग्य बात यह है कि इन दोनों मशीनों की रीडिंग्ज़ में दो-चार मिनट का ही अंतर था।

जब मैंने अपने फिजिशियन से पूछा कि आप रीडिंग पर विश्वास करेंगे तो उन्होंने कहा कि वह तो बरसों से चल रही कन्वैंशनल स्फिगमोमैनोमीटर की रीडिंग्ज़ पर ज़्यादा भरोसा करेंगे।

यह आज सुबह वाला किस्सा मैंने केवल इसलिये सुनाना ज़रूरी समझा ताकि मैं इस बार को रेखांकित कर सकूं कि आज के दौर में अगर हम डाक्टर लोग अपने आप को किसी मरीज़ के शूज़ में खड़े होकर देखते हैं तो हमें इस बात का आभास होता है कि आज के दौर में जब इस तरह की मशीनें घर-घर में आ चुकी हैं तो मरीजों का कंफ्यूज़ होना कितना स्वाभाविक सा है। रीडिंग्ज़ में अंतर तो आपने देख ही लिया है।

मैं इस समय किसी ना तो किसी मशीन की पैरवी कर रहा हूं और ना ही किसी के खिलाफ़ ही कुछ कह रहा हूं – केवल अपना अनुभव आप के सामने रख रहा हूं ताकि इस मुद्दे पर हम लोग कुछ चर्चा कर सकें।

सचमुच बी.पी का तो एक हौआ ही बना हुआ है- मैंने अपने उस पहली पोस्ट में शायद बहुत कुछ इस के बारे में लिखा था।

आज भी ब्लड-प्रैशर चैक करवाना हम में से कुछ लोगों के लिये एक हौआ ही है। खैर आप तो जानते ही होंगे कि मैडीकल साईंस में एक ऐँटिटि होती है ....वाईट-कोट हाइपर-टैंशन ..अर्थात् कुछ मरीज़ों में ऐसा देखा गया है कि जैसे ही वे किसी सफेद-कोट पहने डाक्टर को अपना बी.पी चैक करते देखते हैं तो उन का बी.पी अचानक शूट कर जाता है।

यह तो हम मानते ही हैं कि विभिन्न मशीनों में थोड़ी बहुत वेरिएशन तो होती ही है......इसलिये बार बार यही सलाह दी जाती है कि बी.पी के बारे में इतना ज़्यादा मत सोचा करें। यह जीवन-शैली से संबंधित है और जीवन-शैली में छोटे छोटे परिवर्तन लाने निहायत ही ज़रूरी हैं।

यह पोस्ट लिखने का एक मकसद यह भी है कि अगर आप अपने घर ही में हमेशा ऐसी ही किसी ऑटोमैटिक मशीन से अपना बी.पी चैक करते रहते हैं तो यह भी ज़रूरी है कि कभी कभी किसी फ्रैंडली फैमिली डाक्टर से भी अपना बी.पी अवश्य दिखवा लिया करें।

फ्रैंडली फैमिली डाक्टर से ध्यान आया कि यह भी देखा गया है कि अकसर कुछ केसों में जब किसी मरीज़ का बी.पी किसी फ्रैंडली नर्सिंग स्टाफ द्वारा लिया जाता है तो रीडिंग कम आती है।

एक बात और भी यहां कहना चाहूंगा कि ये जो कन्वैनश्नल बी.पी अपरेट्स ( स्फिगमोमैनोमीटर) भी होते हैं, किसी भी हास्पीटल में अगर कुछ अपरेट्स हैं तो थोड़ा बहुत फर्क तो इन की रीडिंग्ज़ में ही होता है लेकिन मुझे याद है कि बंबई में जिस हास्पीटल में काम करते थे वहां पर दो मशीनें ऐसी थीं जिन में यह वेरीएशन काफी ज़्यादा हुआ करती थी।

इतना लिखने के बाद मेरा यह प्रश्न बना हुया है....
क्या हर मरीज़ के बीपी की जांच इस तरह से कर पाना संभव है कि पहले एक मशीन से की जाए और फिर दूसरी से। ऐसे में कईं बार मरीज़ कहीं बिना-वजह दवाईयों के चक्कर में पड़ कर परेशान तो ना होते होंगे या फिर दवाई की ज़रूरत होने पर भी बिना दवाई के ही तो ना चलते रहते होंगे। यह सवाल मेरे मन में बरसों से है और पता नहीं कितने सालों तक चलता रहेगा।

इसीलिये जब डाक्टर मरीज के पास जाता है और उस की बी पी बड़ा हुआ होता है तो तुरंत ही उस की दवा शुरू नहीं कर दी जाती......उस का बीपी बार कुछ समय के बाद, कुछ दिनों के अंतराल के बाद चैक करने के बाद ही कोई दवा शुरू करने या ना करने का फैसला किया जाता है। जिस समय मरीज डाक्टर के पास आया है उस समय उस की क्या मनोस्थिति है इस बात का भी आप सब को पता है कि उस की बीपी की रीडिंग पर असर पड़ता है।

तो, सीधी सी बात है कि मामला शायद कुछ ज़्यादा ही पेचीदा है.....बिलकुल एक हौए जैसा लेकिन पूरी कोशिश करें कि इसे हौआ कभी बनने न दें। मस्त रहने की पूरी कोशिश करें........क्योंकि जहां मस्ती है, खुशी है, ज़िंदादिली है, हंसी-मज़ाक है वहां यह हौआ टिक नहीं पाता है। पिछले 25 सालों से ज़िंदगी की किताब से जो सीखा है, जो अनुभव किया है, आप के सामने रख दिया है।

आप के बी.पी के सदैव नियंत्रण में रहने के लिये ढ़ेरों शुभकामनायें।

दौलत जमा करने के लिये गिरने की भी हद है !!

आज सुबह ही खबर आई है कि चीन में मिल्क-पावडर बनाने वाली एक कंपनी पकड़ में आई है जो कि इस मिल्क-पावडर में मैलामाइन ( melamine) की मिलावट किया करती थी। आप भी सोच रहे होंगे कि कहां मिल्क-पावडर और कहां मैलामाइन।

आप का सोचना जायज़ है- मैलामाइन एक इंडस्ट्रीयल कैमीकल है जिसे कपड़ा उद्योग, पलास्टिक बनाने में एवं गौंद( gum) बनाने के लिये इस्तेमाल किया जाता है। लेकिन आप शायद सोच रहे होंगे कि यह मैलामाइन नाम का कैमीकल मिल्क-पावडर में क्या कर रहा है ?

ध्यान देने योग्य बात यही है कि मैलामाइन देखने में बिल्कुल मिल्क-पावडर जैसा ही सफेद एवं पावडर जैसा ही दिखता है- इसलिये इसे खाद्य पदार्थों की मिलावट के लिये धड़ल्ले से इस्तेमाल किया जाता है क्योंकि इस से नकली तौर पर उन खाद्य पदार्थों में प्रोटीन की मात्रा बढ़ जाती है।

मैलामाइन की मिलावट से किसी खाद्य पदार्थ का प्रोटीन कंटैंट कैसे बढ़ सकता है ?.....जी हां, बढ़ता वढ़ता कुछ नहीं है, लेकिन जब उस मिलावटी पावडर में पानी डाल कर उस के प्रोटीन कंटैंट को टैस्ट किया जाता है तो उस की रीडिंग बढ़ जाती है । इस का कारण यह है कि मैलामाइन में नाइट्रोजन की मात्रा बहुत अधिक होती है और किसी भी खाद्य पदार्थ में प्रोटीन की मात्रा का आकलन करने के लिये उस में नाइट्रोजन की मात्रा का ही आकलन कर लिया जाता है।
चीन में तो इस तरह के मिल्क-पावडर का इस्तेमाल करने वाले दो शिशुओं की तो मौत ही हो गई और 1253 बच्चे बुरी तरह से बीमार हो गये .....जिन में से बहुत से बच्चों के गुर्दों में पत्थरी बन गई।

पिछले साल मार्च 2007 में भी चीन में तैयार कुछ पालतू जानवरों के लिये खाद्य पदार्थों की वजह से अमेरिका में कुछ कुत्तों एवं बिल्लीयों की जब मौत हो गई थी तो बहुत हंगामा हुआ था।

कुछ महीने पहले मुझे ध्यान है अमेरिकी एजेंसी फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन ने चीन में तैयार कुछ टुथपेस्टों के बारे में भी चेतावनी इश्यू की थी....इन में भी कुछ लफड़ा था।

वैसे आप ने भी नोटिस किया होगा कि आज कल बहुत से स्टोरज़ में कुछ इस तरह के विदेशी खाद्य पदार्थ अथवा पेय पदार्थ बिकते हैं जिन की भाषा हमें बिल्कुल समझ नहीं आती....लेकिन अकसर हम देखते हैं कि लोग ऐसी वस्तुओं को खरीदते समय भी ज़रा भी संकोच नहीं करते। बस सेल्स-मैन विभिन्न कारणों की वजह से इन की थोड़ी बहुत तारीफ़ कर देते हैं। इन प्रोडक्ट्स का कुछ पता नहीं कि ये कब तैयार हुये हैं, कब इन की एक्सपॉयरी है, क्या इनग्रिडिऐंट्स हैं......कुछ पता नहीं .....क्योंकि सब कुछ या तो उर्दू में या फिर ऐसी किसी दूसरी भाषा में लिखा होता है कि हमें इस के का कुछ पता ही नहीं चल पाता।

अकसर आप देखेंगे कि तरह तरह की चाकलेट्स में, तरह के आकर्षक वेफर्स में, जूसों में यह सब गोरख-धंधा खूब चलता है। मैं सोचता हूं कि हम लोग जब तक इन की गुणवत्ता के बारे में आश्वस्त ना हो जायें, हमें इन से तो बच कर ही रहना चाहिये, वरना चीन में मिलने वाले मिल्क-पावडर के बारे में तो आप ने सुन ही लिया।

किसी भी वस्तु पर किसी विदेश का ठप्पा का क्या श्रेष्ट हो गया कि हम लोग उस आइट्म के बारे में बेसिक से प्रश्न पूछने ही भूल गये। और तो और, अकसर आपस में भी लोग इस तरह की चाकलेट्स गिफ्ट वगैरा में देने लगे हैं.......पैकिंग बड़ी कैची होती है, देखने में इन की शेप-वेप बड़ी हाई-फाई होती है, इसलिये अकसर बच्चों को इन से दूर रख पाना अच्छा खासा दिक्कत वाला काम हो जाता है।

चीन के मिल्क-पावडर से ध्यान आ रहा है कि वहां तो ये मामले पकड़ में आ गये लेकिन हम लोगों का यहां क्या पता है कि हम लोग क्या क्या खाये जा रहे हैं, पिये जा रहे हैं.........आप सब यह तो जानते ही हैं ना कि हमारे यहां भी सिंथैटिक मिल्क बनाने के लिये मिल्क-पावडर का इस्तेमाल धड़ल्ले से हो रहा है। लेकिन मैं तो इतने लोगों से पूछ चुका हूं कि दूध में कैमिकल्स की मिलावट है या नहीं ( नहीं, नहीं, पानी की नहीं.....वह तो अब हम लोग स्वीकार कर ही चुके हैं !!)….. उस को जानने का कोई घरेलू जुगाड़ तो होगा..............लेकिन मुझे कोई संतोषजनक जवाब अभी तक मिला नहीं।

रविवार, 14 सितंबर 2008

यह कैसी हिंदी है......कोरी सिरदर्दी है, दोस्तो।


कुछ दिन पहले जब मैं बाहर गया हुआ था तो मुझे मेरे बेटे की ई-मेल मिली ....खासी लंबी थी....इतनी लंबी कि मुझे उसे पढ़ते पढ़ते उस पर खीझ आ रही थी। लिखी तो उस बेचारे ने बहुत आत्मीयता से थी, लेकिन पता है उस खीझ का कारण क्या था.....वह रोमन स्क्रिप्ट में लिखी गई थी। अर्थात् ......Papa, aur aap kaise hain…….and so on……

ई-मेल तो पहले भी वह रोमन स्क्रिप्ट में कईं बार भेजता है, लेकिन कभी ये इतनी अखरती नहीं थीं। शायद इसलिये क्यों कि ये बिल्कुल छोटी छोटी हुआ करती थीं। लेकिन उस लंबी सी मेल को रोमन में पढ़ना ......मैं इतना बोर हुआ कि क्या बताऊं.......बिल्कुल सिरदर्दी सी लगी।

और जब मैं बेटे को मिला तो मैंने उसे कहा है कि यार, देख , तुम तो मुझे मेल इंगलिश में ही किया करो....और अगर तुम्हें हिंदी लिखनी ही हो तो देवनागरी में क्विल-पैड की मदद से लिखा करो।

चूंकि क्विल-पैड में लिखना भी थोड़ा जटिल तो है ही, इसलिये बेहतर यही  होगा कि रोमन में हिंदी लिखने वाले अपनी मेल को जितनी छोटी रखे उतना ही बढ़िया है, वरना तो भई रोमन में हिंदी पढ़ने वाले के सब्र का इम्तिहान हो जाता है। मैं तो यह सोचता हूं कि हिंदी-ब्लागरी में टिपियाते समय भी हमें इस बार का ध्यान रख लेना चाहिये। 
कितनी बार मैं अंग्रेज़ी अखबारों में या कईं बार हिंदी के अखबारों में भी पूरे पन्ने वाले या आधे-पन्ने वाले ऐसे विज्ञापन देखता हूं जो कहने को तो हिंदी में होते हैं लेकिन लिखे होते हैं...रोमन में। इन्हें देख कर भी बहुत अजीब सा लगता है।
सीधी सी बात है कि किसी भी जुबान का फ्लेवर उस की उचित लिपि के साथ ही कायम रह सकता है। वरना वही बात लगती है जिस तरह से थ्री-पीस सूट के साथ बाटा की हवाई चप्पल पहन ली  जाये .....इन दोनों का जैसे कोई मेल नहीं है, उसी तरह से सीधी-सादी हिंदी भाषा को भी अंग्रेज़ी एल्फाबेट का सूट-बूट न ही पहनायें तो बेहतर होगा.....कम से कम पढ़ने वाले का सिर तो नहीं दुःखेगा।

रही बात नेट पर हिंदी लिखने की.......इतने सारे साफ्टवेयर मौजूद हैं...जैसे www.quillpad.com या फिर सब से बढ़िया है कि inscript हिंदी टाइपिंग ही सीख ली जाये.......इसे सीखना बहुत आसान है .....आप अपने कंप्यूटर पर ही इसे सीख सकते हैं.......5-7 दिन में ही की-बोर्ड पर अंगुलियां चलनी शुरू हो जाती हैं....बाकी तो प्रैक्टिस की बात है।
अच्छी तो भई हिंदी टाइपिंग तो आप अपनी फुर्सत में देख लीजियेगा........लेकिन अगर हिंदी को रोमन में लिखना हो तो प्लीज़ लंबी लंबी बातें लिखने से ज़रा गुरेज करें तो बेहतर होगा।