एक बात बताऊं...बहुत बार ऐसा होता है कि जब भी मैं कुछ लिखने लगता हूं तो मुझे यही लगता है कि मैं अपनी मां-बोली (मादरी-ज़बान) पंजाबी में ही लिखूं...फिर मुझे लगता है कि नहीं, पंजाबी आज कल लोग बोलने से परहेज़ करते हैं, पढ़ने वाले कहां मिलते हैं...इसलिए मैं पंजाबी में लिखने की अपने दिल की हसरत को दिल ही में रहने देता हूं और हिंदी में लिखने लगता हूं ...अंग्रेज़ी में भी लिख सकता हूं ..लेकिन अपनी बात को ठीक उस तरह से रख नहीं पाता जिस तरह से वह दिल में चल रही होती है...इसलिए मुझे फिर हिंदी की तरफ़ ही मुड़ना पड़ता है ...दरअसल जिस ज़ुबान में मैं लिखता हूं वह हिंदी की बजाए हिंदोस्तानी ज़्यादा है ...
दोस्त ने ग्रुप में यह तस्वीर साझा की और इसी बहाने हमें अपनी औकात याद आ गई...😎 |
कल अपने एक दोस्त ने कॉलेज के साथियों वाले वाट्सएप ग्रुप में एक टूटी हुई हवाई चप्पल की तस्वीर पोस्ट की ...जिसको एक सेफ्टी पिन से जोड़ने का जुगाड़ कर रखा था ...और साथ में एक सवाल था कि क्या आपने कभी ऐसा किया है..? मैंने उसी वक्त सोचा कि यार, किया तो है ......लेकिन यही नहीं किया, जूतों, चप्पलों, गुरगाबियों से बहुत कुछ किया है ....इतनी यादें जुड़ी हुई हैं ..दोस्तो, अब पता नहीं मैं थका हुआ हूं या मुझे जम्हाईयां आ रही हैं, इस बार को आगे लिखने की मेरी इच्छा नहीं है...ठीक है, शुभ-रात्रि ..कल सुबह उठ के देखते हैं ...सुबह की ताज़गी किन किन यादों को दिल के कुएं से निकाल बाहर करेगी...😄सो जाइए अब आप भी और मीठे सपने लीजिए।
प्रवीण ३.११.२१ - रात २३.२० बजे
लो जी, सुबह हो गई है, जहां पर हम रहते हैं वहां पर बाहर कौवों की आवाज़े आना शुरू हो गई हैं...हां, तो अपनी बात कल शुरू ही की थी कि हमें नींद आ गई। अभी बात को पूरा करने की कोशिश करते हैं...जी हां, बिल्कुल कोशिश ही कर सकते हैं, क्योंकि यादों के पिटारे में से जितना भी निकाल कर यहां सजाने की कोशिश करेंगे, फिर भी बहुत कुछ तो रह ही जाएगा...चलिए, जितना बन पड़े उतना ही सही।
जी हां, हम तो जो बातें करेंगे ५०-६० पुरानी ही करेंगे क्योंकि हम उस दौर के गवाह रहे हैं...यह वह दौर था जब हम जैसे मिडल-क्लास घरों के लोगों के पास बाहर-अंदर पहनने के लिए एक जोड़ी ढंग का फुटवेयर होता था और अकसर घर के सभी लोगों के पास अपनी अपनी एक हवाई चप्पल भी हुआ करती थी...हवाई चप्पल कह लें, या कैंची चप्पल ...जहां तक मुझे याद है बाटा कंपनी की आती थी या कोरोना कंपनी की ...लोग तरजीह बाटा कंपनी की हवाई चप्पल को ही दिया करते थे...और यकीं मानिए, इतनी मज़बूत कि रोज़ पहनने पर भी कईं साल न भी सही (अच्छे से याद नही) लेकिन कईं कईं महीनों तक चलती थी, आज कल की हवाई चप्पलों की तरह घिसती बहुत कम थी, उस ज़माने में चप्पल की क्वालिटी का यह भी एक मापदंड (इंडीकेटर) होता था...
बहुत बार तो पहनते पहनते हम ऊब जाया करते थे लेकिन उस की सेहत जस-की-तस बनी रहती थी..टनाटन...उन दिनों हम लोग इतने रईस भी न हुए थे कि उन्हें बॉथरूम चप्पल कह कर उन का अपमान करते ...और करते भी कैसे, हम लोग अकसर उसे ही पहन कर बाज़ार भी हो आते, मेहमान के आने पर साईकिल पर चढ़ कर बर्फी, समोसा भी ले आते ...और सुबह टहलने निकलते तो उसे ही पहन कर हो आते ....क्योंकि ये जो आज कल कईं कईं हज़ार में वाकिंग, रनिंग, जॉगिंग शूज़ मिलते हैं, इन सब की तो हम कभी कल्पना करने की ज़ुर्रत ही न करते थे...
अच्छा, हवाई चप्पल भी खरीदना किसी जश्न से कम न होता था...यही कोई ४-५ रूपये की आती होगी...कईं दिन तक प्रोग्राम बनता कि घर के फलां फलां बंदे के लिए नई हवाई चप्पल लेनी है, उस की चप्पल बिल्कुल घिस गई है, या इतनी बार मोची से उस की तुपाई हो चुकी है कि अब न हो पाएगी...अकसर मां के ही साथ जाते बाज़ार --अमृतसर के पुतलीघर बाज़ार में ...मां किसी दुकान से चप्पल हमारे लिए चप्पल खरीद देतीं...और हमें वहीं दुकान पर पहन कर उसी १० बॉय १० फुट की दुकान में माडल की तरह रैंप-वॉक कर के यह भी मुतमईन होना पड़ता था कि कहीं यह छोटी तो नहीं ...या बड़ी तो नहीं....लेकिन यह काम मैं अकसर अपने एक मास्टर की दुकान पर न कर पाता......कारण?- वही कारण कि यहां तो रैंप-वॉक कर लूंगा, स्कूल में जब उस का ख़मियाज़ा भुगतना पड़ेगा, उस का क्या। हमारे स्कूल के एक मास्टर साब थे, हमें पढ़ाते भी थे, उन की भी जूतों की एक दुकान थी...अगर कभी उन की दुकान पर जाना होता तो मेरी कोशिश रहती कि यार, जो मास्टर जी दे रहे हैं न वही तेरे पैरों के लिए भी और तेरी सलामती के लिए मुबारक है, ज़्यादा दिमाग़ मत लगा...बीजी को कह दे कि हां, बीजी, यही ठीक है। यहां तक कि मास्टर की दुकान से खरीदी चप्पल में अगर कुछ खराबी भी दिखती, जिस का घर आने पर ही पता चलता तो मैं उसे जा कर एक्सचेंज करवाने की भी कभी सोचता तक नहीं था।
और हां, मैं यह कैसे लिखना भूल गया कि पहले अगर घर में एक कैंची चप्पल भी आती थी तो घर के सभी को बताया जाता था...जैसे जैसे घर के अफ़राद के साईकिल खड़े होने लगते, हम उसी वक्त उन चप्पलों को पहन कर, उन के पानी पीते पीते उन के आगे पीछे हो कर आज की उस खरीद के बारे में इत्ला कर देते ..
जब भी कोई नई चप्पल, नया जूता घर में लेकर आता और पहन कर दिखाता तो न्यू-पिंच के चोंचले बाज़ी मां न करती, जूतों पर तो वैसे भी कोई क्या न्यू-पिंच दे,,,,लेकिन मां इतना ज़रूर कहतीं कि ...बड़े चंगे ने, सुख हंडावने होन...(बहुत अच्छे हैं, इन्हें पहन कर सारे सुख तुम्हारे नसीब में आ जाएं) ....यह आशीष हमारे लिए बहुत बड़ी बात थी, और मां की दुआएं तो लगती भी ज़रूर हैं...😄
चलिए जी हवाई चप्पल इतनी पहन ली कि उस का स्ट्रैप टूट गया...कोई बात नहीं, मोची के पास इलाज के लिए ले गए...उन की फीस रहती थी पांच पैसे या दस पैसे ....अगर तो सीधा सीधा उन्होंने स्ट्रैप को टांक ही दिया तो पांच पैसे लेकिन यह काम कितना पुख्ता है, उस की कोई गारंटी न होती थी, लेकिन अगर वे छोटे से चमड़े के टुकड़े के साथ उस टूटी हवाई चप्पल को रिपेयर करते थे तो १० पैसे लेते थे और समझिए कि एक गारंटी जैसी सुविधा भी उस के साथ संलग्न रहती थी...लिखते लिखते सोच रहा हूं कि यार, बस पंजे-दस्से में उस मोची की और क्या जान ले लेते!!
अकसर सफेदपोश लोग चमड़े का टुकड़ा लगे टॉकी वाली चप्पल पहनना पसंद न करते थे ...बस, फिर उसे घर ही में, बाथरूम के लिए रख लिया जाता था और बाहर-अंदर जाने के लिए हैसियत मुताबिक एक और हवाई चप्पल आ जाया करती थी...और हां, जब कोई चप्पल के स्ट्रैप बार बार टूटने लगते तो फिर उस के स्ट्रैप बाज़ार से लाकर ख़ुद ही घर में बदल लिए जाते ...पूरी ज़ोर-अजमाईश करने के बाद कईं बार तो यह काम हो जाता और कईं बार मोची के पास चप्पल ले जाकर पुराने की जगह नए स्ट्रैप लगवा लिये जाते। ये नए स्ट्रैप यही कोई डेढ़-दो रूपये में शायद बिकते थे....मुझे यह इतना अच्छे से याद नहीं है, अब जितना याद कर पा रहा हूं, उसी का आनंद लीजिए 😎...फ़ोकट में।
लिखने बैठे तो कहां से पुरानी पुरानी यादें उमड़-घुमड़ कर आने लगती हैं ...जब तक उन को लिख न दो, कमबख़्त पीछा नहीं छोड़तीं, हां, तो पुरानी हवाई चप्पल को डिस्कार्ड करने का एक और भी क्राईटीरिया हुआ करता था...बहुत बार ऐसा भी होता था कि चप्पल लंबे अरसे से पहने जा रहे हैं लेकिन अभी तक वह मोची की वर्कशाप में नहीं गई ....लेकिन नीचे से वह इतना घिस चुकी है कि गुसलखाने में या आंगन में चलते चलते बंदा स्लिप होने लगे तो भी नई चप्पल की सैंक्शन समझिए मिल ही जाती थी...
जब हवाई चप्पल खरीदने जाते तो उस के रंग का भी ख्याल रखा जाता कि नीले रंग की तो बहुत बार पहन कर पक चुके हैं, इस बार भूरी चप्पल लेते हैं..हा हा हा हा ...सच में हम लोगों ने भी ज़िंदगी भरपूर जी है। कईं बार जब बाज़ार से नए स्ट्रैप लेकर आते तो कईं बार उन का साइज़ बड़ा-छोटा होता तो वह अगले दिन जा कर बदल कर आ जाते ...कईं बार नए स्ट्रैप खरीदते वक्त घर के उस सदस्य की चप्पल के कलर का ख़्याल न आता...न कैसे आता...खरीदारी करने गये साथ किसी तीसरे मैंबर को तो ख़्याल आ ही जाता कि पपू दीयां चप्पलां दा तो रंग नीला ए (पपू की चप्पलों का रंग तो नीला है)...तो उसी रंग का स्ट्रैप खऱीदा जाता ...नहीं, तो अगले दिन जा कर बदल लिया जाता ...
एक चप्पल का स्ट्रैप खरीद कर जब घर में आता तो वह भी बड़ी घटना न सही, लेकिन लगभग सारे घर को खबर हो जाती कि आज फलां फलां बंदे की चप्पलों के नए स्ट्रैप आए हैं, उस की तो मौज हो जाएगी...मुझे अब यह याद नहीं आ रहा कि नए स्ट्रैप तो घर पर नहीं तो मोची के पास जा कर लगवा लिेए, लेकिन उस पुराने खस्ताहाल स्ट्रैप का क्या करते थे, कुछ न करते थे भाई....जहां तक याद है उन की हालत के ऊपर यह निर्भर करता था कि उस पुराने स्ट्रैप को भी वापिस घर हमारे साथ चलना है या नहीं...अगर भविष्य में कभी उस के काम आने की कोई गुंजाइश होती, एमरजेंसी में ही सही, तो उसे मोची से लेकर वापिस घर ले कर आया जाता...फिर उसे कभी इस्तेमाल होते देखा तो नहीं, यही कहीं कचरे-वचरे में डाल दी जाती होगी...
हां, कभी कभी ऐसा भी देखा ...एमरजैंसी है, मोची के पास जाने का वक्त नहीं है, तो जैसे उस दोस्त ने कैंची चप्पल की फोटी भेजी है न ...उसे सेफ्टी पिन से चलने लायक करने की कोशिश भी की जाती थी...लेकिन यह काम दो चार मिनट में अकसर फेल हो जाया करता...मैंने कईं बार लोगों को देखता जिन ने अपनी हवाई चप्पल के स्ट्रैप को एक कपड़े की कतरन (लीर) से बांधा होता ...ईश्वर की अपार कृपा रही हम पर कि कभी इतनी ज़्यादा कड़की के बादल भी हमारे घर पर न मंडराए कि हम मोची का मेहनताना भी बचा लेने के चक्कर में उन्हें घर पर ही मुरम्मत करने लगें...
और एक बात यह हवाई चप्पलें गुस्सा आने पर मार-कुटाई करने का काम भी करती थीं....हमारे घर में तो नहीं हुआ कभी ऐसे, लेकिन मैंने कईं बार लड़ाई झगड़ों में इन हवाई चप्पलों के इस्तेमाल का चश्मदीद गवाह रहा हूं...😎
इस से पहले कि मां एक बात भूल जाऊं इन चप्पलों, वप्पलों, ब्रॉंडेड शूज़ से कुछ नहीं होता....असल बात होती है काबलियत ....मेरे फूफा जी का घर मेरी मां की नानी के गांव में था, हमारी नानी अकसर उन के बारे में बताया करती थीं कि बचपन में उन का बाप चल बसा...उन्होंने इतनी तंगी देखी उस दौर में कि हमारे फूफा जी की मां के पास उन्हें चप्पल दिलाने के लिए पैसे न होते थे, स्कूल दूर था, और दिन गर्मी के, पैरों को जलने से तो बचाना ही था, उन की मां उन के पैरों पर बरगद (बौहड़) के पेड़ के खूब सारे पत्ते मोटी सूतली से बांध कर उन्हें स्कूल भेज देतीं......ऐसी मां को, ऐसे बेटे की याद को सादर नमन....पढ़ाई लिखाई में इतने अच्छे ..कि बाद में देश आज़ाद होने पर जब बंंबई आए तो कालेज में पढ़ाने लगे ....इक्नॉमिक्स में उन का नाम था, कालेज के वाईस-प्रिंसीपल रिटायर हुए ..और कईं किताबें उन्होंने लिखीं...
इस का मतलब तो यही हुआ कि सिर्फ़ कीमती शूज़ से कुछ नही ंहोता, कुछ कर गुज़रने के लिए और भी बहुत असला चाहिए होता है ...दिल में आग, जुनून, उमंग और जोश से भरा जज़्बा....
बहुत बहुत शुक्रिया, बेदी साब, आप की भेजी चप्पल ने तो हमें यादों के समंदर में डुबो दिया....और यह जो हम कभी कभी उड़ने लगते हैं न ...हमारी ऐसी लूत-परेड कर दी कि क्या कहें..😄😄...इसलिए कहते हैं कि पुराने दौर के दोस्तों की बातें भी सुनते रहना चाहिए..
चप्पलों के बारे में बाकी बातें कभी अगली पोस्ट में ....अगर आप की भी कुछ यादें हों तो नीेचे कमैंट में क्यों नहीं लिखते आप। कोई नाराज़गी है क्या!
बहुत बढ़िया. क्या लिखते हो.
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत शुक्रिया, सर...उत्साहवर्धन के लिए...लिखते तो जनाब आप हम से कईं गुणा बेहतर हैं, और आप की किताब इस की गवाह है। आप हिंदी में भी लिखते रहिए, सब को बहुत अच्छा लगेगा...धन्यवाद।
हटाएंवाह सर बहुत खूब। इन्हें हम नायलोन की चप्पल कहते थे। छठवीं कक्षा तक पैर ही बूट जूते व चप्पल थे। शहर आने पर नीली पट्टी वाली नायलॉन की चप्पल के दर्शन हुए। सेफ्टी पिन के अलावा आलपिन कमीज के कॉलर में लगाकर रखता था ताकि जब चप्पल महारानी माँगे तो हाजिर कर सकें। बहुत सुंदर व प्रेरणादायक लिखा है सर। सत्येंद्र सिंह पुणे महाराष्ट्र
जवाब देंहटाएंआदरणीय,इस हौंसलाफ़ज़ाई के लिए बहुत बहुत शुक्रिया...जब एक बात चले तो दूसरे की बात साथ जुड़े तो मेरे ख़्याल में यही साहित्य सृजन है ...आप ने अपना अनुभव साझा किया...तहेदिल से शुक्रिया..आप के ब्लॉग की मैं अगली पोस्ट की इंतज़ार करता रहता हूं...हमें अपनी लेखनी से नवाज़ते रहिए...
हटाएंबहुत रोचक व सुन्दर संस्मरण। आपने जो-जो बातें याद करके लिखी हैं प्रायः उन सबका प्रत्यक्ष अनुभव मैं भी कर चुका हूँ। नयी हवाई चप्पल का अकेला उपभोक्ता होना बहुत अच्छी उपलब्धि का अनुभव देता था। नये स्ट्रैप को पुराने सोल में खुद ही लगा लेना एक विशेष कौशल की मांग करता था। नरकट के तने को चीरकर उसमें स्ट्रैप की घुंडी सीधा फंसाकर छेद के उस पार खींच लेने की तरकीब मुझे किसी ने बतायी थी जिसका कई बार सफल प्रयोग किया था मैंने। साइकिल चलाने वालों की हवाई चप्पल कुछ ज्यादा ही घायल हुआ करती थी।
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