सारा बचपन और जवानी इन्हीं डालडा घी के परांठों पर ही पले हैं..कम से कम हर रोज़ चार परांठे--दो सुबह स्कूल-जाने से पहले आम के अचार के साथ, साथ में चाय, या दही या बाद के बरसों में बोर्नविटा वाले दूध के साथ...चार परांठों का हिसाब भी तो दे दूं...दो घर में खाते थे और दो स्कूल-कालेज़ में खाने के लिए ले जाते थे ...साथ में आम का अचार और अधिकतर कोई न कोई सूखी सब्जी के साथ।
इस वक्त मुझे लिखते लिखते डालडे में बने परांठों की ख़ुशबू का ख़्याल आ रहा है ...जैसे कि वह हमें घर के किसी कोने में बैठे हुए अपनी तरफ़ खींच लेती थी, वह मां का उस डालडे या रथ के डिब्बे से चम्मच की मदद से घी को निकालना और उसे तवे पर सिंक रहे परांठें पर चुपड़ना....और फिर जो उसमें से धुआं निकलना...हम तो बस उस दृश्य के दीवाने थे...दो तीन परांठे खाने के बाद पेट तो भर भी जाता लेकिन निगाहें न भरती थीं....पंजाबी में कहते हैं ढिड भर जाना पर नीयत न भरना...
मैं अभी लिखने लगा था कि ज़्यादातर घरों में यह डालडा ही इस्तेमाल होता था आज से चालीस-पचास साल पहले ...फिर मुझे लगा कि यार अपनी बात कर, अपने घर की बात कर...ऐसे ही दूसरे के घरों के बारे में ज़्यादा मत कुछ कहा कर। वैसे भी हम लोग दूसरे के घरों में जाते ही कितना था ..सिवाए इस के छुट्टी वाले दिन किसी यार दोस्त के घर जब सुबह सुबह जाते तो एक मंज़र देखने को मिलता ...उसकी मां अंगीठी पर बेतहाशा परांठे पे परांठे सिके जा रही है...क्योंकि उन के कुनबे में सात-आठ लोग तो कम से कम थे ही ..जहां ये लोग बरामदे में लंबी तान कर सोए रहते उस के बिल्कुल पास ही उन की मां ने अंगीठी पर तवा रखा होता ...वही धुएंधार डालडे के परांठे ..साथ साथ वह आवाज़ें देती जाती...वे टीटे उठ जा वे, परांठे तैयार ने ...वे बिट्टे तू वी उठ...। मुझे अच्छे से याद है कि हमारे दोस्त ने आंखे मलते हुए उठना....दांत साफ़ करना तो दूर, बिना हाथ मुंह धोए ही उस को दो तीन गर्मागर्म परांठे पीतल की एक थाली में डाल कर पकड़ा दिए जाते ...और साथ में पीतल के एक गिलास में गर्मागर्म चाय....हां, आम का अचार तो होना लाज़िम था ही ...अब वो लोग यह तसव्वुर भी नहीं कर सकते जिन लोगों ने यह किल्लर कंबीनेशन देखा नहीं कभी ....
हमें उस दोस्त को परांठे छकते देख कर मन ही मन में यही लगता रहता कि ये लोग कितने अच्छे थे, घर वाले किसी को इतना सब खाने को देने से पहले पेस्ट करने को भी नहीं कहते ....बस, हम यह सोचते रहते ...दोस्त की मां हमें भी पूछ लेती कि तू भी खा ले...पता नहीं मैं क्या जवाब देता, याद नहीं इस वक्त....लेकिन इतना याद है कि मैं ऐसे कभी किसी के यहीं खाया नहीं....
देशी घी ....देशी घी का मतलब था पंजाब में वेरका देशी घी...और इसे ज़्यादातर देसी घी कहते थे, जैसे देशी दारू तो कहते हैं हिंदोस्तान में, लेकिन पंजाब में कहते हैं...देसी दारू। रोटी फिल्म के मुमताज़ और राजेश खन्ना पर फिल्माए गए उस ढाबे वाले यादगार सीन से किसी को भी उस दौर में देसी घी की अहमियत का अंदाज़ हो जाएगा। अगर कुछ नहींं भी याद आया तो इस पोस्ट को पढ़ने के बाद रोटी फिल्म देखिए।
सच में घरों में ही कईं बार ऐसा ही होता था...देसी घी को चपातियां चुपड़ने के लिए या एक आध-चम्मच देसी घी दाल में डाल दिया जाता था, या काली तोरई को देसी घी में तैयार किया जाता था....ऐसी और भी बहुत सी बेकार की बातें हैं, लेकिन याद करना पडे़गा उन को। तवे पर डालडा घी में तैर रहे डालडा घी के परांठों का मंज़र तो मैंने पेश करने की कोशिश की ...लेकिन देसी घी में तैयार हो रहे परांठों की तो बात ही क्या करें....सारा घर उस रूहानी खुशबू से महक जाता था...कभी कभी हमें भी देसी घी का परांठा और देसी घी में तैर रहा हलवा नसीब हो जाता था...
कुछ लोग सब्जी भी देसी घी में बनाते थे और सारे मोहल्ले में जो लोग घर में देसी घी ही इस्तेमाल करते थे उन की रईसी का चर्चा दूर दूर तक होता था ...ऐसे ही थे पड़ोस के कपूर आंटी-अंकल...मोहल्ले में दूर-दूर तक उन के बारे में लोगों को पता था कि वे घर मे डालडा घुसने नहीं देते थे ( Another foolish status symbol of 1970s) ...और जब कभी लोग उन के सामने इस बात का ज़िक्र करते तो सच में वे दोनों ऐसे शरमा जाते या ऐसे इतरा देते कि मुझे उसी दौर का वह गीत याद आ जाता ...हाय शरमाऊं किस किस को बताऊं ....अपनी प्रेम कहानियां ...)
लेकिन मैं डालडे पर पला-बड़ा, देशी घी के डिब्बे की तरफ़ क्यों ताक रहा हूं.....आज जब मैं यह लिख रहा हूं तो मुझे नील कमल फिल्म का वह गीत ...खाली डिब्बा खाली बोतल ...खाली सब संसार ...याद आ रहा है...उसमें डालडे का डिब्बा भी दिख रहा है।हमारे ज़माने में यह गीत रेडियो पर खूब बजा करता था...और महमूद के तो हम सब दीवाने हैं ही..
मुझे डालडे से याद आया कि मैं नवीं कक्षा में था, और नौमाही साईंस की परीक्षा में मुझे साईंस के पेपर में ४० में से ३८ अंक मिले थे, उसमें एक सवाल यह भी था कि हाईड्रोजिनेटेड फैट्स (यही डालडा, वालड़ा) कैसे तैयार किया जाता है, उस को तैयार करने की रासायनिक प्रक्रिया लिखनी थी...हमें उन दिनों यह लिख कर ऐसे लगता था मानो हमने ही कोई आविष्कार कर दिया हो...और ऊपर से हमारे साईंस टीचर ने सारी क्लास को मेरी आंसर-शीट दिखा कर बताया कि पेपर लिखने का यह सलीका होता है ...मेरी १५ साल की ब्लागिंग के दौरान कभी इतनी हौंसलाअफ़ज़ाई नहीं हुई, जितनी उस दिन हुई थी।
जब हम कालेज तक पहुंचे तो दिल्ली बंबई में रहने वाले अपने रिश्तेदारों के यहां पोस्टमैन रिफाँइड तेल की इस्तेमाल होते देख कर मां पोस्टमैन का एक बड़ा सुंदर सा चौकोर सा टीन का डिब्बा भी ले कर आने लगी... जहां तक मेरी यादाश्त मेरा साथ दे रही है, यह डालडे की बनिस्पत कुछ या काफ़ी महंगा था, इसलिए डालडा के साथ यह भी आने लगा। फिर धीरे धीरे यही पोस्टमैन ही इस्तेमाल होने लगा...और अब तो बाज़ार में तेलों का एक अलग संसार ही है ...किसी भी दुकान पर तेलों की सजावट देख कर सिर चकरा जाता है ...पढा़ लिखा भी अनपढ़ महसूस करने लगता है ...ऐसे ऐसे लोग हैं जो ऑलिव ऑयल इस्तेमाल करते हैं लेकिन सारा दिन जंक भी खाते हैं...ऊपर से यह मेडीकल वैज्ञानिक ...कभी कुछ खाओ, कभी यह मत खाओ...कभी यह न करो, वो न करो....हमारे बड़े-बुज़ुर्ग यही कहते थे कि सरसों का तेल ही सब से बढ़िया है, खाने-पकाने के लिए...हम भी यही मानते हैं...लेकिन तवे पर परांठे कैसे तैर पाएंगे इस सरसों के तेल में ....जैसे स्कूल में सरसों के तेल से चुपड़े सिर -मुंह दूर से ही भांप लिए जाते थे...वैसे ही उन परांठों की बास भला कौन झेल पायेगा...तो फिर परांठे खाना ही बंद करिए....न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी...न ही पेट बाहर निकलेंगे और न ही अँदर करने के जुगाड़ ढूंढने पड़ेंगे।
वैसे एक बात और भी गांठ बांध लेने वाली यह है कि सिर्फ एक ही चीज़ खाने या न खाने से कुछ होता नहीं...बेलेंस्ड डाइट चाहिए होती है सब को ...सब से पहले मैं अपनी बात ही करूं, फिर दूसरों की करूंगा....मैं कुछ अनाप-शनाप नहीं खाता, लेकिन सारा दिन मीठा खाता रहता हूं ...यह भी बहुत गलत है सेहत के लिए....बहुत से लोगों को जानता हूं सलाद, फल-फ्रूट खाते हैं...स्पराउट्स भी ....लेकिन इस के साथ सारा दिन बीड़ी-सिगरेट से फेफड़ों की सिंकाई भी चालू रहती है...आज के युवा ऑलिव आयल ही इस्तेमाल करेंगे, लेकिन सारा दिन जंक-फूड....गांव में महिलाएं कुछ खाना पका रही थीं, अभी वीडियो देखी, सब कुछ सरसों के तेल में तला हुआ ...डीप-फ्राई किया हुआ...यह भी गलत है, मैंने तो ज़िंदगी का एक ही सिट्टा निकाला है ...कि आप किसी एक भी बंदे की ज़िंदगी बदल नहीं सकते, जो जिस के मुकद्दर में लिखा है, उसे वह मिलेगा....यूं ही हर बंदे को खाने-पीने के उपदेश देने के चक्कर में खुद को हलकान करने की ज़रूरत नहीं, दुनिया जैसे चल रही है, वैसे ही चलेगी....अपने आप को खुश रखिए, मस्त रहिए....और नशे-पत्ते से दूर रहिए....महंगे से महंगे सिगरेट, महंगी से महंगी दारू, महंगे महंगे बॉडी-बिल्डिंग टॉनिक, मोटे शऱीर को पतले करने वाली और पतले को मोटा करने वाली दवाईयां, बिस्कुट सब के सब पंगे हैं....मानो या न मानो.....चाहे तो अपने ऊपर अजमा कर देख लो...
मधुर यादें.
जवाब देंहटाएंजी हाँ ….पोस्ट लिखने के बाद यह भी ख़याल आ रहा है कि कुछ बरसों के बाद शायद १९८० के आस पास रथ और डालडा घी के प्लास्टिक के डिब्बे भी - शायद एक किलो के - भी आ गए थे ! जब रथ और डालडे घी के डब्बे ख़ाली हो जाते थे तो मैं उन में बँटे (कंचे) डाल लेता था !
हटाएंBachpan ki yade yaad aati hai..Kaas koe wo mera pachpan lowta deta...Sari jindgi duawaye deta...
जवाब देंहटाएंवाह डॉक्टर साहब मजा आ गया पुरानी यादों का सफर बहुत शानदार था
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