सोमवार, 15 नवंबर 2021

पवाड़ा जूतों का ...

"एक तो हमारी समझ में यह नहीं आता कि आप लोग जूते उतरवाने के पीछे क्यों इतना हाथ धो कर पड़े रहते हो हर वक्त" .. जब आईसीयू के बेड नंबर तीन पर ज़िंदगी और मौत की जंग लड़ रही एक दादी के पोते ने बड़ी बेरुखी से संदीप को यह कहा तो उसे कहना ही पड़ा -   " ताकि आप अपने मरीज़ को सही सलामत लेकर घर लौट सको!"

संदीप एक बहुत बड़े सरकारी अस्पताल के आईसीयू में एक मेल-नर्स है ...जिसे आज कर ब्रदर कहने का चलन है...बड़ी निष्ठा से अपना काम करता है ...यह जो एक दादी का पोता उसे कुछ कह गया, यह उस के लिए कुछ नया नहीं था। कभी किसी को आईसीयू के अंदर जाने से रोकने पर, कभी किसी को मरीज़ के पास ज़्यादा न रूकने की ताक़ीद करने पर, कभी जूता बाहर उतार कर आने के लिए कहने पर ...इस तरह की थोड़ी बहुत नोंक-झोंक होती ही रहती थी...

ख़ैर, किसी को बुरा लगे या अच्छा, संदीप किसी को अच्छा-बुरा लगने की परवाह किए बगैर कायदे से अपनी ड्यूटी करता था ताकि आईसीयू में किसी तरह के संक्रमण से मरीज़ों को बचाया जा सके...

संदीप को आज ऐसे ही बैठे बैठे ख़्याल आ रहा था कि जूतों की भी अजब चिक-चिक है...कभी न पहनने की बातें, कभी पहनने की ज़िद्द ....कभी फटे हुए, कभी सिले हुए...किसी के तीन सौ रूपये के ...किसी के छः हज़ार के ...

दो दिन पहले एतवार के दिन गांव से उस का चचेरा भाई बिट्टू उस से मिलने आया था...उसे शहर में कुछ काम था, बैंक के लोन-वोन का कुछ चक्कर था, किसी बड़े अफसर से कुछ सैटिंग करने आया था...सुबह संदीप से कहने लगा - भाई, सुना है यहां की रेस-कोर्स देखने लायक है ...अगर फ़ुर्सत हो तो मुझे भी दिखा दो। संदीप को आज फ़ुर्सत ही थी और वैसे भी बिट्टू इतने बरसों बाद आया था..।

 वे दोनों साढ़े बारह बजे के करीब पहुंच जाते हैं रेस-कोर्स ...संदीप ने मोटर साईकिल पार्किंग में खड़ी की और गेट पर पहुंच गए जहां अंदर जाने के लिए टिकट मिलती थी। संदीप को यह तो पता था कि टिकट लगती है लेकिन उसे लगा कि यही कोई सौ-दो रूपये की टिकट होगी..इसलिए उस की जेब में सात-आठ रूपये ही थे, एटीएम कार्ड भी था वैसे तो..लेकिन यह क्या !

टिकट के काउंटर पर पहुंचने से पहले ही दो दरबानों ने बिट्टू को अंदर जाने से रोक दिया...संदीप को एक झटका सा लगा...बिटटू ने कपड़े भी ठीक ठाक पहने हुए थे ..और लेदर की चप्पल भी नयी ही लग रही थी। लेकिन यही चप्पल का ही तो पंगा था...सिक्यूरिटि गार्ड ने कहा कि बिना शूज़ पहने अंदर नहीं जा सकते। दो चार बार संदीप ने उन से कहा कि कहा कि जाने दो ऐसे ही, पता नहीं था, लेकिन आप लोगों को पता ही है कि ये दरबान कहां मानते हैं...इन का रुआब तो बड़े बड़े को उनकी औकात याद दिला देता है...

संदीप मन ही मन सोच रहा था कि यार, यह तो बड़ी मुसीबत हो गई बैठे-बिठाए...अब कहां से लाएं शूज़.... लेकिन बिट्टू का मन तो अंदर जाने के लिए मचल रहा था..उसने संदीप से कहा कि चलो, यार, कहीं से कोई चालू किस्म के शूज़ खरीद लेते हैं....

दस मिनट बाद वे लोगों मोटरसाईकिल पर बैठ कर एमजी रोड पहुंच गए...ऐसे ही छोटी-मोटी दुकाने थीं, दो तीन दुकानें घूम कर उन्होंने एक गुरगाबी खरीद ली...चार सौ रूपये में ....बिट्टू चाह तो रहा था कि सौ-दो सौ रूपये में ही कुछ मिल जाए...लेकिन उस के लिए उन लोगों को किसी चोर-बाज़ार में ही जाना पड़ता...शायद चले भी जाते, लेकिन वक्त न था।

वापिस लौटते हुए संदीप ने बिटटू को कहा कि अंदर जाने का टिकट ५०० रूपए है...अगर मोबाइल साथ लेकर अंदर जाना है...और दो सौ रूपये अगर मोबाइल बाहर ही रख कर जाना है...बिट्टू ने संदीप से कहा कि वह तो अपना फोन साथ ही रखे, आई फोन है,  वह (बिट्टू) अपना फोन बाहर ही रख देगा। संदीप ने उस से इतना ही कहा कि देखते हैं...

बाइक को दोबारा पार्किंग में खड़ी करने के बाद एन्ट्रेंस गेट की तरफ़ जाते हुए दोनों देख रहे थे जो लोग मर्सिडीज़ से नीचे उतर रहे थे  सिर्फ़ अपने थ्री-पीस सूट की वजह से और महंगी गाडि़यों में आने की वजह ही से उन की पहचान थी...वे दोनों आपस में मज़ाक कर रहे थे अगर इन सेठ लोगों ने यह थ्री-पीस न पहना हो और पैरों में चप्पल पहनी हो तो ये मोहल्ले की किसी किराना दुकान चलाने वाले लगें..उन की शख्शियत में ऐसा कुछ भी न था जिन की वजह से वे कुछ विशिष्ठ लग रहे हों....हंसते हंसते वे लोग अंदर घुस गए...

बिट्टू को उस की ब्राउन पैंट के साथ मैचिंग करती गुरगाबी पहने देख कर एक सिक्यूरिटि गार्ड ने इतना ही कहा ... " यह हुई न बात ! "...लेकिन उन दोनों ने उस की बात को सुना-अनसुना कर दिया...वे वैेसे ही खीज से रहे थे ...मन ही मन बिट्टू ने सिक्यूरिटी गार्ड को दो-तीन गालियां निकालीं और यही सोचा कि वे लोग ठीक हैं जो इन लोगों को इन की औकात का आइना दिखाते रहते हैं....ये लोग ज़्यादा मुंह लगने वाले नहीं होते। 

टिकट खिड़की पर संदीप ने टिकट लेने के लिए पर्स निकाला तो काउंटर पर बैठे स्टॉफ ने कहा कि एक टिकट एक हज़ार की है ...संदीप ने सोचा कि बिट्टू को ही टिकट दिलवा कर अंदर भेज देता हूं ..फिर पता नहीं उसके मन में क्या ख़्याल आया कि उसने दो हज़ार में दो टिकटें खरीद लीं और अंदर चले गए...रेस चल रही थीं ...और हां, अंदर जाने से पहले बिट्टू ने रेस की किताब खरीद ली थी ..चालीस रुपये में ..उसे रेस में बेटिंग करने का कुछ इल्म था...

एक रेस में बिट्टू ने १०० रूपये की बेटिंग की ...चार सौ रूपये जीत गया...फिर उसने एक बार सौ और एक बार दो सौ रूपये की बेटिंग की ...लेकिन वे डूब गये। बि्टटू ने मज़ाक मज़ाक में अपने मुंह पर हल्के से एक चपत लगाई कि मैंने कैसे इतना बेकार दांव लगा दिया..संदीप ने कहा, ज़्यादा सोचा मत कर, जो हो गया उसे बिसार दे, आगे की सुध ले ....गलतियों से सीखना ही आदमी का धर्म है। संदीप बिट्टू को खुश देख कर और भी खुश था...लेकिन वह जिधर भी नज़रें दौड़ा रहा था उसे यही लग रहा था कि यार, अगर यह बंदा सूट की जगह बनियान और पायजामा पहने हो तो रामू हलवाई से भी गया गुज़रा दिखे...और अगर देख, बिट्टू, देख, उस ग्रे-सूट वाले को देख....अगर यह महंगे सूट में न हो तो बाहर खड़े दरबान उसे माली समझ कर बाहर ही रोके रखें...

संदीप और बिट्टू का हंसी मज़ाक भी चल रहा था...संदीप बि्टटू से यही कह रहा था कि यार, हिंदोस्तान में दो देश बसते हैं....भारत और इंडिया ...इन दोनों का पहरावा, इन का रहन-सहन, इन की भाषा, इन की किताबें, इन की कलमें ......सब कुछ अलग अलग है..हम तो हिंदु-मुस्लमान के मुद्दे पर ही अटके पड़े हैं, लेकिन असल मुद्दे तो यही हैं ....असली पवाड़ों की जड़ तो ये सब बाते हैं....इन की फिल्में अलग, इन के नाटक अलग, रेस्ट्रां अलग, बातें अलग .......कुछ भी नहीं मिलता इन दोनों का आपस में ...यह असलियत है ......यही असलियत है....

यही सोचते सोचते वे लोग रेस खत्म होने पर बाहर आ गए...मोटरसाईकिल पर बैठ कर वापिस लौटते हुए संदीप यही सोच रहा था कि ऐसी टुच्ची जगह पर इतना रिजिड ड्रेस-कोड ---समझ से परे है.......अचानक उसे ख्याल आया कि दो दिन पहले जब देश के राष्ट्रपति महोदय पद्म अवार्ड से महान शख्शियतों को सम्मानित कर रहे थे तो जो लोग बिना जूतों के ही वहां पहुंच गये थे या हवाई चप्पल में ही अवार्ड लेने पहुंच गये थे, सारा देश उन की सरलता, उन के काम की विशालता, महानता और विनम्रता की तारीफ़ कर रहा था...और यहां ऐसी जगहों पर लोगों के पैसे की लूट मची हुई है लेकिन सलीके से उसे शूज़ पहना कर, उसे जेंटलमेन होने का मुखौटा पहना कर ....


और हां, अगले दिन जब शाम को संदीप बिट्टू को स्टेशन पर गाड़ी में बिठाने गया तो उसकी नज़र बिट्टू के पास बैठे किसी युवक के सीमेंट में लिपे हुए शूज़ की तरफ़ गई तो वह सोचने लगा कि इस के शूज़ तो उन सफेदपोश लुटेरों से कहीं ज़्यादा चमकदार, शानदार हैं जो दूसरों का माल हड़प कर जाते हैं ....यह बंदा तो सुबह से शाम घरों की चिनाई-लिपाई-पुताई कर के खून-पसीने की खा रहा है...इस के जूते उन सब फरेबियों, जालसाज़ों, फांदेबाज़ों से कहीं ज़्यादा उम्दा हैं...क्योंकि इन पर चिपका हुआ  दिन भर की मेहनत का सबूत इन की शान बढ़ा रहा है...


4 टिप्‍पणियां:

  1. बड़ा ही उम्दा आर्टिकल, सच में दो ही रूप है भारत और इंडिया। बहुत अच्छा लिखा अपने, अपने लेखन से यूं ही दिल की बाते लिखते रहे

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  2. सही कहा ये क्लास स्ट्रगल तो हर जगह ही है। भाषा, कपड़े, भोजन हो या साहित्य। लोग अपने को विशिष्ट दर्शाने के लिए खुद को इन मामलों में अलग करते आए हैं। शायद आगे भी करते रहें। वैसे ये शायद आज से नहीं है पहले से रहा है। भाषा के मामले में तो शायद पाली, प्राकृत के वक्त से रहा है।

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  3. फर्क़ यही है - राष्ट्रपति के फंक्शन में व्यक्ति की महानता देखी जा रही है और रेस कोर्स में घोड़ों की।

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  4. सर वेसे भी जूते की महिमा तो जूते वाले ही जाने। अगर सही मायने में देखा जाये जो पहनने से जयादा कई जगह काम आते है। कभी कभी तो किसी को इसके कारन भूक भी नहीं लगती। वैसे स्वाद का पता नहीं जो उपयोग करे उन्हें ही पता हो। कभी कभी ये दुःख हरण का भी काम करते है। इसने तो कितने सासन करता दे दिए। जो इन का स्वाद ले कर आज देश विदेश में घूम रहे है। वैसे इसकी महिमा निराली है इसे लोग खाना कम खिलाना जयादा पसंद करते है। वैसे ये एक विषेस वर्ग जयादा खाते है जनता तो खिलाती ही है। आप के इस स्टोरी में भी जूते की महिमा है अच्छा लगा पढ़ कर।

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