हिन्दुस्तान ९ जनवरी २०१५ |
उर्दू के नामी शायर मुनव्वर राना को इस बार का साहित्य अकादमी पुरस्कार दिया गया है। मुनव्वर राना हिंदी पाठकों और श्रोताओं में भी बहुत लोकप्रिय हैं। उनका गद्य भी बहुत चुस्त और जीवंत है।
मुनव्वर राना कि किताब शहदाबा को हाल ही में साहित्य अकादमी अवार्ड से सम्मानित किए जाने की घोषणा हुई थी। पिछले दिनों इन के एकल पाठ मुनव्वर बस मुनव्वर का।
यह काव्य पाठ इसी कामयाबी के मद्देनजर रखा गया था। शेर पढ़ने से पहले मुनव्वर राना ने इस किताब के वजूद में आने का कहानी सुनाई। उन्होंने कहा कि वह दस महीने से लगातार अस्पताल के बिस्तर पर पड़े थे। आईना देखते तो महसूस होता कि सामान समेटने का वक्त आ गया है।
इन्हीं दिनों उन्होंने अपनी तमामतर शायरी को समेटते हुए शहदाबा की रचना की। उन्होंने कहा कि ये किताब मेरी तमामतर शायरी की बटोरन है। बार बार मुनव्वर राना के बारे में कहा जाता है कि वह आसान जुबां में शायरी करते हैं।
इस बारे में मुनव्वर राना ने एक किस्सा सुनाया कि वह कलकत्ते के होटल में अपनी जवानी के दिनों में खाना खा रहे थे जब एक मजदूर को दाल में गुलाब जामुन मिलाकर खाते देखा। वजह पूछने पर मजदूर ने कहा कि बचपन में खाना खिलाने की गरज से मां अक्सर खाने में कुछ मीठा मिला देती थी। कल रात मां को ख्वाब में देखा तो आज यों खाना खआ रहा हूं। मुनव्वर कहते हैं जब उन्होंने अपनी मशहूर गजल मां लिखी तो इस बात का ध्यान रखा कि उसके अहसास उन जैसे उर्दू नवाज को तो समझ आए हीं साथ साथ उस मजदूर जिसका साहित्य और अदब से कोई वास्ता नहीं...वह भी आसानी से समझ सके।
मुनव्वर की पहली गजल का यह शेयर....
पेड़ उम्मीद का यह सोचकर न काटा अभी।
फल न देगा तो हवाएं आएंगी।
कुछ और ...
जब भी मेरी कश्ती सैलाब में आ जाती है,
मां दुआ करती हुई ख्वाब में आ जाती है।
कलंदर सगंमरमर के मकानों में नहीं मिलता।
मैं असली घी हूं बनिया की दुकानों में नहीं मिलता।
एक कम पढ़े लिखे का कलम होके रह गई।
यह ज़िंदगी भी गूंगे का गम होके रह गई।
इश्क है तो इश्क का इज़हार होना चाहिए
आपको चेहरे से भी बीमार होना चाहिए।
आप दरिया हैं तो फिर इस वक्त हम खतरे में हैं
आप कश्ती हैं तो हमको पार होना चाहिए।
जिंदगी कब तलक दूर दूर फिराएगी हमें
टूटा-फूटा ही सही घरबार होना चाहिए।
अपनी यादों से कहो इक दिन की छुट्टी दें मुझे
इश्क के हिस्से में भी इतवार होना चाहिए।
हिन्दुस्तान ११जनवरी २०१५ |
बहुत बहुत बधाईयां, मुनव्वर साहब।
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