मंगलवार, 12 जनवरी 2016

सुबह सवेरे कुछ टहलने की ही बात कर लें आज..

  इस पोस्ट की शुरूआत कश्मीर की फिज़ाओं के नाम... मुझे अकसर बहुत याद आती है इस ज़न्नत की। 


जब भी मैं किसी शहर में भव्य बाग बगीचे और खुले मैदान देखता हूं तो अचानक मेरा ध्यान बंबई की तरफ चला जाता है कि वहां इस तरह की खुली जगहों की कितनी कमी है..

दो दिन पहले की बात है कि मैं और बेटा रोहतक में थे.. सुबह हम ने सोचा कि ऐसे ही स्कूटर पर घूम कर आते हैं.. हम लोग निकल पड़े... दिल्ली रोड़ पर हम महर्षि दयानंद यूनिवर्सिटी की तरफ़ मुड़ गये... एक पार्क को देखा तो सोचा कि चलो यहीं पर रुक जाते हैं।

                     यह पार्क बहुत ही बढ़िया है ...प्रकृति की गोद में.. किसी तरह का प्रदूषण नहीं और खुशगवार फिज़ाएं...

उस पार्क के गेट के बाहर वायु गुणवत्ता की चेकिंग के लिए यह यंत्र सा लगा था... मुझे नहीं समझ में आया कि इस को यहां लगाने का क्या उद्देश्य है..लेकिन अब मैंने छोटी-बड़ी बहुत सी बातों का load लेना बंद कर दिया है.. होगा, यार, कुछ कारण होगा...अब, हर बात को जानने की क्या पड़ी है!

पार्क में आप देख सकते हैं कितने बढ़िया रास्ते बने हुए हैं.. लेिकन जो बात मुझे बहुत खली उस दिन ...रविवार का दिन सुबह ८.३० के करीब का समय .. गुलाबी धूप निकली हुई थी...लेकिन इस पार्क में इतना सन्नाटा देख कर मन दुःखी हुआ। सरकारें कितने लाखों-करोड़ों रूपये इन जगहों के रख-रखाव पर खर्च कर देती हैं...लेिकन जनता इन का शायद उतना लाभ उठा नहीं पाती....

जैसा कि मैंने ऊपर लिखा कि जिस शहर में इन सब स्थानों की कमी रहती है, वहां के लोग इन का महत्व समझ सकते हैं। मुझे ध्यान में आ रहा है कि बंबई प्रवास के दौरान उन दस सालों में अगर सुबह भ्रमण का विचार भी आता था तो बंबई सेंट्रल से पहले चर्नी रोड़ पर हम चार पांच लोग चले जाया करते थे लोकल ट्रेन से ..फिर चौपाटी से नरीमन प्वाईंट तक पैदल टहलते पहुंचते थे.. वहां से चर्चगेट स्टेशन से लोकल ट्रेन पकड़ कर बंबई सेंट्रल स्टेशन लौट आते थे...स्टेशन पर ही घर था। मैं कहना चाह रहा हूं कि इस तरह से टहलने जाना एक बोझिल काम लगता था बहुत बार..


और बहुत बार बंबई सेंट्रल से स्कूटर पर या लोकल गाड़ी में पास ही महालक्ष्मी रेसकोर्स चले जाया करते थे.. वह भी बड़ा सुखद अनुभव था... कुछ फिल्म स्टार जैसे कि बिंदु, नादिरा, सतीश शाह तो रोज़ाना वहां टहलने आया करते थे.. बंबई में टहलने के लिए वह अच्छी जगह है.. एक जॉगर्स पार्क भी है..लेकिन वह खासा दूर होने की वजह से कुछ महीनों में ही वहां का टूर लग पाता था.. बात मैं बस यही कहना चाह रहा हूं कि बंबई जैसे महानगरों के रहने वाले इन जगहों की कद्र जानते हैं...

शायद हम इन जगहों की कद्र नहीं करते .. वरना इतनी खुशगवार रविवार की गुलाबी धूप में इतना सन्नाटा क्यों!..दरअसल मुझे नहीं पता कि लोग उस दिन पहले ही टहल कर लौट गये हों...कुछ कह नहीं सकता, लेकिन ऐसा लगा नहीं...मैं भी जब इस पार्क के बाहर लगा बोर्ड देख रहा था तो मुझे पता चला कि इसे शुरू हुए १६ साल हो गये हैं और इस दौरान मैं भी तो बीसियों बार रोहतक हो कर आ चुका हूं ....लेिकन अकसर कहां हम इन जगहों की परवाह करते हैं! याद आ रहा कुछ महीने पहले भी इस पार्क के आगे से गुज़र रहा था तो बस बाहर खुदे हुए सुंदर दोहे पढ़ के ही मैंने अपने आप को धन्य महसूस कर लिया था....पार्क में घुसने तक की ज़हमत नही थी उठाई।

                               यह जो आप रास्ता देख रहे हैं यह हैल्थ ट्रैक है जो पार्क की बाउंडरी के बाहर बना हुआ है..










                             
                                       यह दोहे उस पार्क के बाहर दिख गये... थोड़े थोड़े समय में आए ...थोड़े थोड़े नहीं।











आप शायद सोच रहे होंगे कि बाग में इतना सन्नाटा कि लोग दिख ही नहीं रहे.......ऐसी बात नहीं है, आठ दस लोग दिखे तो थे... जिन पार्कों में एंट्री करने के लिए टिकट लेनी पड़ती है, वहां पर लोग जाते हैं... लेकिन इतने बेहतरीन पार्कों की लोग परवाह नहीं करते... मुझे कईं बार लगता है कि हम लोग बस सरकारों की आलोचना ही करने में रूचि रखते हैं....लेिकन इस चक्कर में बहुत बार अच्छी सुविधाओं का लाभ ही नहीं उठा पाते।

वैसे भी मैंने नोटिस किया है कि पंजाब हरियाणा में लोगों की टहलने वहलने में ज़्यादा रूचि है नहीं... यह बिल्कुल मेरी व्यक्तिगत राय है .. शायद बिल्कुल सुपरफिशियल सी ... लेकिन मैंने ऐसा ही महसूस किया....लखनऊ में देखता हूं लोगों की टहलने में अच्छी रूचि है...सुबह सुबह पार्क टहलने वालों से शोभायामान हो रहे होते हैं......यहां लखनऊ में पार्क हैं भी बहुत से .. और इन का रख-रखाव भी बढ़िया है

......कुछ पार्क तो हैं जिन में आप सुबह आठ नौ बजे तक ही हो कर आ सकते हैं ...उन के बाद ये स्कूल-कालेज के छात्र-छात्राओं के मीटिंग प्वाईंट बन जाते हैं.. जी हां, स्कूली बच्चों को भी स्कूल के समय इन से बाहर आते देखा है.. दुःख तो होता है लेकिन किसे कहें ! बस, इस के बारे में आगे क्या लिखूं, समझदार को ईशारा ही काफ़ी है!


हां, लिखते लिखते एक बात का ध्यान आ गया.....उस दिन मुझे ध्यान आ रहा था कि हम लोग सुबह न टहलने जाना पड़े इस के लिए जितने बहाने हम इजाद कर सकते हैं, कर लेते हैं.....और ये कभी खत्म नहीं होते ... लेकिन जब मैं इन बहाने के बारे में सोच रहा था तो मेरे बेटे ने व्हाट्सएप पर मुझे एक मैसेज भेजा था, जिसे मैं यहां शेयर कर रहा हूं कि जो दिव्यांग जन हैं, वे बहाने नहीं करते .....ईश्वर ने हमें अच्छी भली टांगे, पैर दिये हैं...लेिकन फिर भी .....

उस दिन टहलने के बाद शायद हमें लगा होगा कि हम ने बहुत महान काम कर लिया है ...इसलिए हम लोग वहीं से रोहतक की आलू-पूरी की मशहूर दुकान की तरफ़ निकल गए....तभी समझ में आया कि पार्कों में इतना सन्नाटा क्यों था, शायद उस समय जिन लोगों को पार्कों में होना चाहिए था, वे सभी आलू-पूरी-लस्सी का जश्न मनाते दिखे......सेहत हमारी, निर्णय भी ज़ाहिर है हमारे ही होंगे ...जैसे आज मेरे एक मरीज़ को जब मैंने कहा कि भाई, अब तो यह पान छोड़ दो..तो उस ने भी भरपूर बेतकल्लुफ़ी से ठहाका लगा कर  यह कहते हुए मेरा मुंह बंद कर दिया ...डाक्टर साहब, अब तो यह आदत मेरे साथ ही जायेगी। मैं भी चुप हो गया, उस का फैसला पक्का था, आगे कहना को बचा ही क्या था!