चलिए यह भी अच्छा है लखनऊ को भी दो चार दिन में एक सांध्य टाइम्स मिल जायेगा।
सरकार की भी सिरदर्दीयां कम नहीं होती, चारबाग रेलवे स्टेशन के पास यह पोस्टर दिखा...राहगीर इससे लाभान्वित होते होंगे।
चारबाग स्टेशन के बाहर मैंने इस युवक को इस जगह पर पेन्ट ब्रुश से कुछ लगाते देखा तो सोचा कि यह यहां पर ऐसा क्यों कर रहा है, पलट कर पीछे देखा तो यह गोंद से किसी विज्ञापन को चिपकाने में लगा हुआ था।
यह है जी चारबाग रेलवे स्टेशन का नज़ारा। बाहर आने पर भी नज़ारा दिल्ली बंबई रेलवे स्टेशनों जैसा ही है।
चारबाग स्टेशन से मैं नाका हिंडोला की तरफ़ मुड़ा तो इस थियेटर की तरफ ध्यान चला गया....पोस्टर की टांगों के स्टाईल से आप समझ ही गये होंगे कि यहां कौन सी फिल्में लगा करती हैं।
मैं हरे भरे पेड़ों का दीवाना.....मुझे सुबह सुबह इस तरह के नज़ारे देख कर अच्छा नहीं लगा।
मैंने सोचा आज अपने ब्लाग में यह भी दर्ज कर दूं कि २०१५ के अप्रैल महीने में लखनऊ शहर में पानी पीने वाले पाउच दो दो रूपये में बिकते हैं।
आगे कुछ तस्वीरें हैं जिन के बारे में कुछ लिखने ज़रूरी नहीं समझता...वे स्वयं बोल रही हैं।
बाहर से आकर काम करने वाले श्रमिकों की ज़िंदगी बड़ी कठिन है यहां लखनऊ में भी ... लेकिन वे भी क्या करें, पापी पेट का सवाल है .....उन का ही नहीं, उन पर आश्रित पूरे पूरे कुनबे का भी! जैसे तैसे गुजर बसर करते रहते हैं। इन के भी अच्छे दिन आएं तो !!
हां, एक बात और...आज की यात्रा के दौरान एक जगह देखा कि किसी महिला के रोने की आवाज़ आ रही थीं...ऐसा लगा जैसे कोई उसे पीट रहा हो ...उस समय ध्यान आया कि लोग बाग बस टीवी में वह घंटी बजाओ वाला विज्ञापन ही देख लेते हैं.....ऐसी विपदा की घड़ी में कोई घंटी बजाना तो दूर, उधर कोई देखता तक नहीं...
मैं वहां चंद लम्हों के लिए रूका...मैंने देखा एक पक्षाघात (पेरेलाइसिस) से ग्रस्त (जिस का बायां हाथ और पांव ठीक से नहीं चल रहा था) उसने दाएं हाथ में एक लकड़ी उठाई हुई थी......और अंदर से ज़ोर ज़ोर से रोने की आवाज़ आ रही थी...मुझे यही लगा कि यह हरामी का पिल्ला अपनी जोरू पर अपनी मर्दानगी दिखाने के बाद थक कर बाहर आ गया है .....आज एक बार फिर यही लगा कि ईश्वर जो करता है..उस में कुछ गहरा राज़ तो होता ही है.....अगर यह हरामी पेरेलाइसिस होते हुए भी बीवी को पीट सकता है तो अगर यह नार्मल होता तो उस की जान ही निकाल देता.....बाहर खटिया पर औंधी पड़ी एक बच्ची दूध की बोतल मुंह में लगाए अंदर कमरे की तरफ़ टकटकी लगाए ताके जा रही थी......बिल्कुल छोटी ..शायद एक साल की भी नहीं होगी....उस की बेटी होगी।
आज का प्रातःकाल टूर बस ऐसा ही रहा ....कोई बात नहीं अनुभव में इज़ाफ़ा हुआ कि सुबह के समय शहर की तरफ़ नहीं गांव की तरफ़ निकल जाना ठीक है। आप का क्या ख्याल है, लिखिएगा।
आज की यह पोस्ट इन मेहनतकश भाईयों के नाम.....हम मेहनतकश इस दुनिया से जब अपना हिस्सा मांगेंगे ..इक बाग, इक खेत नहीं, हम सारी दुनिया मांगेंगे.......बिल्कुल ठीक बात है, युसूफ भाई भी तो यही कह रहे हैं..