शनिवार, 17 अगस्त 2024

डाक विभाग के नाम पर चल रहा फ़र्ज़ी मैसेज



अभी मैंने यह लिखने के लिए गूगल-डाक्स खोलने की कोशिश की तो दो एक बार नहीं खुला…मुझे यही लगा कि हो गया अपना भी जे-मेल खाता हैक…..लेकिन अगली बार आराम से खुल गया…आए दिन तरह तरह के फिशिंग अटैक, साइबर फ्रॉड ने हमें बात बात पर शक करने की आदत सी डाल दी है ….गलत है या ठीक, मुझे भी नहीं पता…लेकिन ऑनलाइन संसार में दाल में सिर्फ़ कुछ काला ही नहीं है, इस से बढ़ कर कालापन तो है ही …बस, जब तक कोई बचा हुआ है, ठीक है, जब कभी किसी के झांसे में आ गया तो समझिए फिर हो गया कांड…..


अखबारें हमें तरह के फ्रॉड के बारे में सचेत तो करती ही हैं, सरकारी विज्ञापन भी यह काम करते हैं लेकिन आए दिन जैसे ये शातिर लोग नए नए हथकंड़े अपना लेते हैं, इन को समझना बहुत मुश्किल है …इन से बचने का शायद सब से कारगर तरीका यही है कि किसी भी अनजान इंसान द्वारा भेजे गए लिंक पर क्लिक मत करिए….



मुझे भी कुछ दिन पहले एक टैक्स्ट मैसेज आया कि आप अपने पते को दुरुस्त करवा लीजिए, नहीं तो हम आप का पार्सल वापिस भिजवा देंगे …


एक बार नज़रअंदाज़ कर दिया …


दो दिन बाद फिर आया ऐसा ही संदेश ….


वैसे भी मैं उन दिनों हिंदी की कुछ पत्रिकाओं की इंतज़ार कर रहा है जो मुझे रजिस्टर्ड डाक से मिलती हैं। 




इसलिए उस दिन मैंने उस टेक्स्ट में दिए गए लिंक पर क्लिक कर दिया ….और तुरंत एक फॉर्म सा खुल गया जिस में लिखा था कि अपना ठीक ठीक पता लिखिए….


मैंने अपना पूरा पता लिख दिया ….अभी शहर ही लिखने वाला था कि मेरी ट्यूबलाइट जली कि डाक विभाग को जितना मेरी उम्र के लोग जानते हैं, उस से ज़्यादा भी क्या कोई जान सकता है। कब कहीं ऐसा सुना कि डाक विभाग इस तरह के मैसेज भेजने लगा कि पता सही करवा लो ….बस, कुछ गड़बड़ सा लगा तो उस फॉर्म को नहीं भरा….


लेकिन उत्सुकता फिर भी कम नही हुई ….कि कहीं पोस्टल विभाग से ही न हो …उस फॉर्म के नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करने पर जो पेज खुला उस पर लिखा था कि हमें डाक विभाग द्वारा आउटसोर्स किया गया है ….और नीचे एक लिंक था जिस पर किल्क करने पर डाक विभाग की साइट खुल रही थी (वैसे इस लिंक को कोई कहीं भी लगा सकता है, कोई बड़ी बात नहीं) …बस, मैंने फिर एक बार समझ लिया कि शायद यह डाक विभाग द्वारा ही पूछा जा रहा होगा….




मैंने सोचा कि पास ही के एक डाकखाने में जा कर पूछूंगा कि क्या उन का विभाग इस तरह के मैसेज भी भेजने लगा है …


लेकिन उस दिन फुर्सत ही न मिली ….बैठे बैठे जिस जिस फोन से मैसेज आया था …उन को फोन मिलाया लेकिन कोई धार्मिक सा भजन सुनाई दिया लेकिन किसी ने फोन उठाया नहीं, कुछ कुछ समझ में आने लगा और नेटफ्लिक्स पर देखी जामतारा सीरीज़ का भी ख्याल आने लगा …


मैंने उन में से नंबर पर मैसेज किया ….कि कौन हो तुम, तुम फोन भी नहीं उठा रहे…


खैर, उधर से जवाब तो क्या आना था, मैं समझ गया कि ये सब फ्रॉडिए हैं….उस के बाद ऐसे ही कुछ लिख कर गूगल किया तो पता चला कि डाक विभाग तो पहले ही से जनता को इस तरह के साइबर-फ्रॉड के बारे में आगाह कर चुका है….


अब मुझे यह चिंता सताने लगी कि मैंने तो उन के भेजे लिंक पर दो चार बार क्लिक तो किया था ….इस तरह की ज्ञान रखने वाले किसी बंदे से पूछा। उसने कहा कि आइ-फोन में किसी के द्वारा इस तरह से किसी लिंक के ज़रिए घुसपैठ करना लगभग नामुमिकन है….उसने यह भी पूछा कि तुम ने कुछ अपलोड तो नहीं किया ….मैंने कहा …नहीं….


मेरे यह पूछने पर कि अगर मैं अपना पता उन को भेज भी देता तो क्या हो जाता, उसने कहा कि सूचना उन के पास चली जाती ….मैं यही सोचने लगा कि फिर शायद वे लोग पार्सल भेजने वाले फ्रॉड को आगे बढ़ाने का काम करते …..सब गोलमाल है सच में ….वैसे भी हमारे बारे में सब तरह की सूचना हर तरफ़ फैल रही है निरंतर ….सब से ज़्यादा मुझे गुस्सा उस सेल्समेन पर आता है जो किसी स्टोर के केश-काउंटर पर बैठ कर पूछता है …..अपना फोन नंबर बताइए….और हम हर बार यह सोच कर उसे नंबर दे देते हैं जैसे वह हमारा कोई जैक-पॉट लगा देगा ….हर जगह हमारी व्यक्तिगत सूचना बिखरी पड़ी है ….हर जगह ….आधार की वजह से, आधार को यहां-वहां बेतहाशा लिंक करने की वजह से …जगह जगह पर हम लोग कैमरे की नज़र में तो हैं ही, और जहां कैमरे की नज़र में नहीं हैं, वहां पर डिजीटल सर्विलैंस की नज़र में हैं…..कहां जा रहे हैं, क्या खरीद रहे हैं, कहां ठहरे हैं….किधर जा रहे हैं….इस सब का हिसाब रखा जा रहा है ….


और इस तरह के साइबर अटैक्स में, फिशिंग के अटैक में सब से ज़्यादा बुज़ुर्ग लोग फंस रहे हैं….बच्चों ने महंगे महंगे स्मार्ट फोन तो उन के हाथों में थमा दिए हैं, लेकिन आगे उन खिलौनों से कैसे खेलना है, वह उन्हें ज़्यादा नहीं समझता…….क्योंकि किसी अनजान नबंर से आई वीडियो कॉल का जवाब नहीं देना, यह समझ बुज़ुर्गों को ब्लैकमेल होने पर और लाखों रुपए गंवाने पर ही समझ आता है ….


चलिए, छोडे़ें इन फ्रॉड की बेकार बातों को …..कुछ भी हो सकता है अगर ये फ्रॉडिए ठान लें तो ….


खैर, अगले ही दिन घर पहुंचने पर मुझे एक कागज़ पर लिखा डाकखाने की तरफ़ से मैसेज मिला कि आप का लिफाफा आया हुआ है, पांच दिनों के अंदर फलां फलां वक्त पर आ कर ले जाइए (जिस की फोटो आप इस पोस्ट के शुरु में देख रहे हैं)….नहीं तो ……..नहीं तो, वही तो, कुछ नहीं …..ऐसा कुछ भी नहीं लिखा था कि वरना आप का लिफाफा वापिस लौटा देंगे…


अगले दिन वहां जाकर वह कागज़ का टुकडा़ दिखाया ….अपनी पहचान दिखाई ….और वह चिट्ठी मिल गई …बहन की भेजी हुई चिट्ठी थी और साथ में राखी ….अब डाक विभाग को राखी के मौसम में करोड़ों रुपए की आमदनी ज़रूर होती होगी….सब लोग स्पीड-पोस्ट ही से भेजते हैं, ऐसा मुझे लगता है ….जैसा मैं अपने आस पास देखता हूं कईं बरसों से ….लोगों को लगता है कि स्पीड पोस्ट से भेजी है तो देर सवेर मिल तो जाएगी….मैं अकसर यह सोचता हूं कि क्यों लोगों का भरोसा सामान्य डाक से ख़तों से उठ सा गया है ….लिखने के लिए ही शायद मैं भी ऐसा लिख रहा हूं ….भिजवाता मैं भी हर जगह स्पीड पोस्ट ही हूं ….और कभी कभी रजिस्टर्ड डाक के ज़रिए भी ….


वैसे स्पीड पोस्ट का एक किस्सा सुनाऊं….पास की एक बिल्डिंग में रहने वाले किसी शख्स की स्पीड पोस्ट चिट्ठी (जो बहुत ज़रूरी थी ….कोई न कोई कॉर्ड वॉड था) हमें मिली….डाकिया बाबू दे भी गया और वॉचमैन ने ले भी ली, हमारे घर तक पहुंचाने के लिए…ऐसा मैंने पहली बार देखा। खैर, उस स्पीड पोस्ट पर फोन लिखा था, सो फोन कर के उस लिफाफे को सही जगह पर पहुंचा दिया गया…लेकिन हैरानी वाली बात है कि स्पीड पोस्ट के साथ भी ऐसा हो सकता है। 


हां, इस ख़त को बंद करते करते याद आया कि हो तो कुछ भी सकता है ….कुछ दिन पहले मैंने किसी जगह पर कुछ ख़त बिकते देखे….पूरा बंडल था, सौ पचास का …जब अंतर्देशीय पत्र 10 पैसे के हुआ करते थे …1960 के दशक की लिखे ख़त थे …किसी रेल के अफ़सर को लिखे हुए खत थे ….मैंने पढ़े तो नहीं, लेकिन उन को बेचने वाला जो कीमत मांग रहा था, वह मुझे बहुत ही ज़्यादा लगी …..मैं उसे उस की आधी कीमत पर लेने को तैयार था …..क्यों, मेरी क्या रूचि थी इन ख़तों में ….कुछ नहीं, इस तरह के साठ साल पुराने ख़त एक दस्तावेज़ हुआ करते हैं…..बहुत कुछ ब्यां करते हैं उस बीते दिनों के बारे में ….यह किसी की चिट्ठी पढ़ने का मामला नहीं है, है भी क्या करें, जिन लोगों को पुरानी चिट्ठीयां डिस्पोज़ करने की समझ ही नहीं है, उन को कोई क्या कहे….वैसे अगर इस तरह की चिट्ठीयां न हों जिन को इतनी बेफ्रिकी से हम लोग लिखा करते थे ……लिखने वाले ने और पढ़ने वाले ने कभी सोचा भी न होगा कि कभी ये भी कलेक्टर-आईट्म का दर्जा पा लेंगी ……..दुकानदार बहुत ज़्यादा कीमत मांगने को यह कह कर ठीक ठहरा रहा था कि हम भी तो कलेक्टर लोगों से ही खरीदते हैं…….

लेकिन मैं ऐसा नहीं मानता ….


अपनी चिट्ठीयां भी अपने ज़िदा रहते ठीक से ठिकाने लगा देनी चाहिए…..एक सबक यह भी है ……वैसे क्या फ़र्क पड़ता है आंखें मूंदने के बाद कोई क्या करे उन चिट्ठियों को बेचे …उन को कौन किस नज़रिए से पढ़े, कैसे इस्तेमाल करे, कोई सीरिज़ बनाए, कोई नावल लिखे, किस्सा लिखे, जो कुछ भी करे …वह जाने ……लिखने वाले को और उस ख़त पाने वाला को क्या फ़र्क पड़ता है ….हां, इसी बहाने, इन के ज़रिए किसी के बच्चे पल रहे हैं…….मैंने नहीं खरीदीं, लेकिन किसी न किसी ने ज़रूर खरीद ली होंगी, मुझे पक्का विश्वास है ….


एक बात और ….जब मैंने उन फ्रॉड लोगों को यह मैसेज किया तो अगले दिन से ही उन का भेजा लिंक भी खुलना बंद हो गया, मैं ऐसे ही चैक कर रहा था अगले दिन …..पहले कहते थे …बच्चों को हमारे ज़माने से कि अनजान लोगों से कुछ भी लेकर मत खाओ, फिर हम बच्चों को हिदायत देने लगे कि स्कूल आते जाते किसी अनजान बंदे से बात न करो, फिर आज के बच्चों को शायद यह हिदायत है कि किसी अनजान बंदे की तरफ़ देखो भी मत (कहीं सम्मोहन न कर ले, हिप्नोटाइज़ ही न कर ले कोई कमबख्त), बात करने का तो कोई सवाल ही नहीं रहा अब…..फिर धीरे धीरे हम ने वह ज़माना देखा कि किसी अनजान नंबर से आया फोन भी न उठाने का रिवाज़ चल निकला ….अभी भी वह चलन में है…..फिर उस के आगे अब यह किसी अनजान नंबर से आए टैक्सट मैसेज पर दिए लिंक पर क्लिक भी मत करो……इतनी बंदिशों के साथ जीने से क्या हुआ …..जैसे पंजाबी की एक महान् लेखिका अकसर कहती हैं कि हमारी बातें ही सुंघड़ गई हैं (सिमट गई) हैं….हमें बात करना ही नहीं आता अब ….हमें बातों से बात निकालना, दिल खोल कर बात करना जैसे भूल गया हो ….हम हूं. हां, यैस, नो तक ही सीमित हो कर रह जाएंगे …..मैं इस लेखिका से बिल्कुल सहमत हूं….


अब सोच रहा हूं कि अगले साल से यह पत्रिकाएं भी डाक से मंगवाने वाला झमेला खत्म कर दूंगा ...पढ़ लिया अपने हिस्से का जितना पढ़ना था ....अब तो पढ़ने से कहीं ज्यादा गुढ़ने का वक्त आ पहुंचा है ....और ज़िदगी में जब गुढ़ने का वक्त होता है तो अहसास होता है कि इतना पढ़ना तो ज़रुरी था ही नहीं, ज़िंदगी की खुली किताब तो वैसे भी हर पल सिखा ही रही है ....😀😀😁😁😂


सुबह सुबह बेवजह इतनी गूढ़ ज्ञान की बातों से होने वाली बोरियत का एक एंटीडोट भी है मेरे पास....हिना फिल्म का मेरे एक बहुत ही पसंदीदा गीत ....वह भी ख़त के बारे में, चिट्ठी के बारे में .....और मेरी सब से पसंदीदा लाइन इस गीत की .....पल्ले विच अग दे अंगारे नहीं लुकदे ...(इस गीत का लिंक)


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