यह लाइन मेरी लिखी नहीं है ...लगे रहो मुन्नाभाई के एक गीत की लाइन है ....लेकिन छोटी सी यह लाइन है बहुत पते की ...सोचने पर मजबूर करती तो है ही...इस लिंक पर क्लिक कर के आप इसे सुन सकते हैं ..आज से ४०-४५ बरस पहले जब घर-मोहल्लों में नया नया टीवी आया तो एक ही चैनल था और बहुत बार तो उस बक्से के सामने तब तक चिपके रहते थे जब तक कि टीवी वाले नमस्ते कह कर अपने प्रोग्राम बंद न कर देते थे...
अब १०८ चैनल नहीं हैं...इन की गिनती कईं सैंकड़ों में तो होगी ही ...लेकिन इन्हें देखना तो दूर की बात है, कभी गिनती जानने की भी इच्छा ही नहीं हुई। क्योंकि मुझे अच्छे से याद भी नहीं कि टीवी देखे हुए कितने बरस हो गए...कच्चा पक्का आईडिया इतना है कि मां थीं तो वह खबरिया चैनल ज़रूर देखती थीं ...और करती भी क्या घर में सारा दिन अकेले बैठे बैठे....खैर, मां को जुदा हुए पांच बरस हो गए ..शायद उन के बाद कभी रिचार्ज ही नहीं करवाया...
ऐसी क्या नाराज़गी हो गई टीवी से ? - नहीं, ऐसी कोई नाराज़गी नहीं है, बस टीवी देखना, उस पर खबरें सुनना नहीं अच्छा लगता तो नहीं अच्छा लगता, कोई मजबूरी नहीं है कि ज़रूर उन्हें सुनना ही है, ऐसा भी तो नहीं है, कोई कानून भी तो नहीं है न अभी तक ....जब कभी ऐसा कोई नियम आएगा तो देखा जाएगा....तब तक तो ऐसे ही चलेगा...दरअसल टीवी पर जब हमने उछल उछल कर परोसी जाने वाली, सर-दर्द पैदा करने वाली खबरें देखनी-सुननी शुरू की तो हमारी तबीयत ही बिगड़ने लगी ...एक तो बाहर से थके-मांदे आओ और सोफे पर पसरते ही वही सेंसेशनल खबरों का पिटारा खोले हुए चैनल ....बस, यूं ही कईं बरस पहले यह निश्चय कर लिया कि हटाओ यार इन्हें ....ये तो बीमार कर के रहेंगे ....बस, इसी तरह से टीवी ज़िंदगी से निकल बाहर हो गया...
जहां तक ये ड्रामे, सीरियल, नौटंकी की बात है ...वह सब तो असल ज़िंदगी में जहां हम लोग काम करते हैं, जहां रहते हैं ...वहां ही यह सब कुछ इतना दिख जाता है कि छोटे या बड़े परदे पर भी यह सब देखा जाए, सच में सहन नहीं कर पाते ...सहन नहीं कर पाते तो होता क्या है, कुछ खास नहीं, बस जो लोग संवेदनशील होते हैं, उन्हें सर-दर्द पकड़ लेता है जो सेरिडॉन से भी नहीं जाता ...वैसे भी बार बार दर्द की टिकिया खाने से कहीं बेहतर है कि सर-दर्द पैदा करने वाली चीज़ को ही ज़िंदगी से बाहर किया जाए...और यहां मैं कुछ बी बढ़ा-चढ़ा कर नहीं लिख रहा हूं ..ऐसा लिखने की मेरी क्या मजबूरी हो सकती है, कुछ भी तो नहीं ....लेकिन जो आपबीती है वह तो लिखने वाले लोग लिख कर ही दम लेते हैं ...
ये जो ओटीटी प्लेटफार्म आ गए हैं ...इन पर जो फिल्में या सीरिज़ आती हैं ...कईं बार देखने बैठते हैं तो दस-पंद्रह मिनट में ही या तो बंद कर देते हैं या उसे देखते देखते जब १०-१५ मिनट में सो जाते हैं ..पता ही नहीं चलता...और हां, यह जो १०-१५ मिनट की समय अवधि लिख रहा हूं, पूरी सच्चाई से लिख रहा हूं ......क्या करें, हमारा मन लगता ही नहीं इस तरह के कंटेंट में ....क्योंकि हम ने १९६०,७०,८० का फिल्मों का सुनहरा दौर देखा हुआ है ... जब एक एक फिल्म हमें दिनों तक सोचने पर मजबूर करती थी और बहुत सी फिल्मों में जो सीख थी वह जाने-अनजाने हमेशा हमें रास्ता दिखाया करती थी ..
मुझे क्यों है आज कल की अधिकतर फिल्मों, ड्रामों , सीरियल्ज़ या सीरीज़ से इतनी शिकायत ....बस दो बातें कर के अपनी बात समाप्त करूंगा ..सब से पहला कारण तो यही है कि जिस भाषा का इस्तेमाल वे लोग करते हैं या तो वह बिल्कुल फिरंगी टाइप लगती है ...या इतनी फुटपाथ छाप ज़ुबान का इस्तेमाल होता है कि वह एक आम भारतीय की भाषा है ही नहीं ...स्क्रिप्ट में बार बार पर गालियां लिखने से कोई लेखन महान नहीं हो जाता ...पुराने दौर की फिल्में देखिए, किस तरह की भाषा का इस्तेमाल होता है ....क्योंकि उन सब फिल्म मेकर्ज़ के सामाजिक सरोकार थे जिन को उन्होंने बखूबी निभाया ...
भाषा से याद आया ..पुरानी कोई भी फिल्म देख लीजिए...आप को संवाद में या नगमों में जो भाषा सुनने को मिलेगी ....वह भाषा ही एक आम हिंदोस्तानी की भाषा है ....न वह हिंदी है न उर्दू है ...वह तो हिंदोस्तानी है जिसे हिंदोस्तान बोलता है, उस में हिंदी भी है और उर्दू भी...ज़मीन के ऊपर बार्डर की लकीर खींचने से लोग तो इधर-उधर तितर-बितर हो सकते हैं...भाषाएं नहीं ऐसे बंटा करतीं....लोग उर्दू को मुस्लमानों की और हिंदी को हिंदुओं की भाषा समझने की बेवकूफी करने लगे ...और यह एक बिल्कुल गलत नज़रिया है....फालतू सोच है ...क्योंकि भाषाएं मुल्कों की नहीं, मज़हबों की नहीं, इलाकों की हुआ करती हैं...लेकिन हमें पहले एक दूसरे से लड़ने-मरने से फ़ुर्सत मिले तब न हम भाषा-वाषा के बारे में सोचें....जो आवाज़ें यहां वहां से हिंदोस्तानी भाषा के समर्थन में उठती हैं, वे कब से कैसे खामोश हो गईं, किसी को पता ही नहीं चलता।
उर्दू की बात छोड ही दीजिए, हिंदी तक आज की पीढ़ी लिखना नहीं जानती, जो जानते हैं वे लिखते नहीं या लिखना नहीं चाहते ...फिल्मों में काम करने वाले कलाकार जो आज कल की पीढ़ी के रोल-माडल हैं वे तो हिंदी पढ़ना ही नहीं जानते ...इसलिए सारी स्क्रिप्ट अकसर देवनागरी की बजाए रोमन में ही लिखी जाती है ...अब वह कहने को हिंदी तो हो गई लेकिन हर ज़ुबान के विभिन्न अक्षरों की आकृतियां-सजावट-डिज़ाईनिंग, उन की बनावट-बुनावट भी उस ज़ुबान का ही हिस्सा हुआ करती है ....उन से भी बहुत कुछ ब्यां होता है ..बिना लिपि के वह ज़ुबान कैसी ...निष्प्राण, बिना रुह वाली ज़ुबान जिसे रोमन स्क्रिप्ट में भी कलाकार लोग सही उच्चारण के साथ पढ़ नहीं पाते ...और बडे फ़ख्र से कहते हैं कि मेरी हिंदी बिल्कुल अच्छी नहीं है ...और बाद में डबिंग-वबिंग से सारी बातों पर परदा पड़ जाता है ...
हम वैसा ही लिखेंगे जैसा हम पढ़ेंगे ...यह बात उन लेखकों के लिेए है जो फिल्में, सीरियल या दूसरा कुछ भी लिख रहे हैं...उन का कोई कसूर नहीं ...अपना अनमोल हिंदी या आंचलिक भाषाओं या क्षेत्रीय भाषाओं का साहित्य अकसर उन्होंने पढ़ा ही नहीं हुआ....पुरानी फिल्मों की कद्र वे जानते नहीं, पुराने डॉयलाग , गीत उन्हें सुनने में बहुत अच्छे लगते हैं लेकिन हर तरफ रिमिक्सिंग का दौर है ...आज कल आप देखिए बहुत ही कम फिल्में ऐसी बन रही हैं जिन के डॉयलाग आप को बहुत मुतासिर करते हैं, और बहुत ही कम गीत ऐसे हैं जो हमारे साथ फिल्म देखने के बाद बने रहते हैं, वरना हमें याद ही नहीं रहता कि क्या गीत था...क्योंकि उस के लिरिक्स की मुझे तो समझ ही नहीं आती कि गीतकार कहने का क्या चाह रहा है ...शायद मेरी अब उम्र हो गई है मुझे इसलिए समझ न आती हो , अगर आप को आती हो तो नीचे कमैंट में जाते जाते एक लाइन टिका दीजिएगा।
फिल्में, ड्रामे लिखने वालों के ऊपर भी पूरा दोष मढ़ देना कितना मुनासिब है, मैं नहीं जानता, मैं कोई भाषाविद् नहीं हूं ...न ही फिल्मकार हूं, बस एक आम हिंदोस्तानी की तरह अपने मन की बात लिख रहा हूं ....अभिव्यक्ति की आज़ादी का इस्तेमाल कर रहा हूं ...जो लिखने वाले हैं वे भी तो आज के समाज से ही आते हैं ....और अगर साहित्य या फिल्में हमारे समाज का दर्पण होती हैं, जो बिल्कुल सत्य बात है ...तो फिर वे लोग तो वही लिखेंगे जो आज समाज में घट रहा है ...जो वे देख रहे हैं, जिस के बीच वे पले-बढ़े हैं, जिस तरह का कंटेट देखते-सुनते वे बड़े हुए हैं ...अब क़लम की पैनी धार के लिए इतनी सारी चीज़ें जो दरकार होती हैं, वे आएं तो आएं कहां से ....और दुनिया एक झटके में उन का काम आसां कर देती है ...जेनरेशन गैप ..दो पीढ़ीयों की सोच में फ़र्क की बात है, और कुछ नहीं ....चलिए, जो भी चल रहा है, वह ऐसे ही चलता रहेगा लेकिन इतना तो हम देख ही रहे हैं जिस तरह का अधिकतर कंटेंट बन रहा है .(अपवाद तो हमेशा से रहे ही हैं), उसे अगर कोई एक बार भी देख ले तो गनीमत है ...मेरे से तो नहीं देखा जाता ...ऊपर लिख ही चुका हूं ...इसी वजह से वे कालजयी रचनाएं बन ही नहीं पाती ..वैसे गीत नहीं बन पाते जिन्हें हम पचास बरसों से हज़ारों बार सुन चुके हैं लेकिन कान अभी भी तरसते हैं उन को सुनने के लिए....है कि नहीं?
पुराने दौर के फिल्म बनाने वालों ने संघर्ष देखा....देश के विभाजन की त्रासदी को झेला, बंबई में आने पर कहीं खाने या ठहरने का ठिकाना नहीं, इधर उधर भटकना, मारे मारे फिरना...फिर रात कैसे भी कहीं भी पसर कर काट लेना, मुफलिसी, मायूसी, अभाव, देश के दयनीय हालात, भूखमरी, सूखा, बीमारी .....उन सब महान फिल्ममेकर्ज़ ने वह सब देखा, उसे हंडाया (जिया), और सब कुछ उन के अंदर आत्मसात होता चला गया ....जिन महान गीतकारों के गीत हम सुनते नहीं थकते, जिन संगीतकारों या गायकों के हम मुरीद हैं, सब की ज़िंदगी की अमूनन ऐसी ही कहानी थी ...मैं तो इन लोगों के बारे में पढ़ता रहता हूं और इसलिए इन लोगों के लिए मेरे दिल में बहुत इज़्ज़त है ...लेकिन आज कल की पीढ़ी जो आगे आ रही है, उन्होंने संघर्ष देखा ही नहीं, वह कहते हैं न कि मुंह में चांदी के चम्मच के साथ पैदा हुए ...अपना अपना मुकद्दर है, वे फिल्मों में आए भी ज़रूर, लेकिन एक-दो-चार फिल्मों के बाद ऐसे गायब हुए कि न तो कभी कहीं नज़र ही आए, न ही कभी याद आए...
रेडियो पर भी यही सरदर्दी है ....बहुत से चैनल हैं ..लेकिन अकसर बहुत से ऐसे हैं जिन पर इस तरह की भाषा का इस्तेमाल होता है या ऐसा कंटेंट परोसा जाता है कि वहां पांच मिनट भी नहीं टिका जाता ....क्योंकि लगता ही नहीं कि वे अपनी बात कर रहे हैं ....मेरा बेटा भी लंबे समय तक एक काफी मशहूर प्राईव्हेट एफएम चैनल पर रेडियो-जॉकी रहा ... और शाम के वक्त तीन चार घंटे का उस का रोज़ाना एक टॉक-शो होता था ....जिसे बताते हैं युवा लोग बहुत पसंद करते थे ....लेकिन ईमानदारी से कहूं तो मैंने उस प्रोग्राम को कभी नहीं सुना ...यह इसलिए लिख रहा हूं कि क्योंकि मुझे पता है वह मेरे ब्लॉग भी कभी नहीं पड़ता ...जब कभी उसे लिंक भेजता हूं तो इतना ज़रूर लिख देता है कि पापा, बाद में पढूंगा ....। मैं पढ़ने-लिखने की पूरी आज़ादी का पैरोकार हूं, मैं उसे इतना भी नहीं कह पाता कि बाद में पढ़ने वाली बात तो यह है कि बेटा, मैं तुम्हारी दादी की डॉयरी तक पढ़ने की फ़ुर्सत नहीं निकाल पाता ...जो वह इतने चाव से लिखा करती थीं कि उस के नाते-पोतियां पढ़ेंगे और उसे याद किया करेंगे कि दादी भी पढ़ी लिखी थी (ऐसा वह अकसर कहा करती थीं...).
अच्छा तो जाते जाते यह भी बता दें कि अगर मुझे आज के कंटेंट से इतनी शिकायत है तो मैं फिर मन बहलाने के लिए करता क्या हूं ...टाइम्स आफ इंडिया देखता हूं, किताबों और मैगजीनों को अकसर उठा लेता हूं, कभी कभी दो चार मिनट के जो वाट्सएप पर वीडियो या मैसेज दिख जाते हैं, वे देख लेता हूं ...वैसे वह भी बहुत कम ...और हां, रेडियो पर विविध भारती या आकाशवाणी सुनता हूं ..और पुराने दौर का जब कोई गीत याद आ जाता है तो उसे बिना एयर-फोन के दो चार बार सुन लेता हूं ....डायरी लिखता हूं कभी कभी लेकिन वो सब नहीं लिख पाता जो लिखना चाहता हूं ...कुदरत के साथ वक्त बिता लेता हूं कभी कभी ...हंसमुख इंसानों से मिलना-जुलना पसंद है जो खुल कर अपनी बात करें और खुल कर मेरी भी सुनें ...और इतना सब कुछ करने के बाद अगर वक्त बच जाता है तो ख्याली पुलाव बनाने लगता हूं ...भूख का ख्याल भी तो रखना पड़ता है ...हा हा हा हा 😎
वैसे मैं इतना ज्ञान बघारता नहीं हूं जितना आज इस पोस्ट में लिख दिया है ....लेकिन हर इंसान का कुछ उसूल होता है, अपना यह है कि ब्लॉग में जो भी लिखा है, १५ साल से उसे कभी भी एडिट नहीं किया, उसे डिलीट करने का तो सवाल ही नहीं पैदा होता ..कम से कम लिखने में इतना ईमानदारी तो बरत ही लेता हूं...अगर आप इसे पढ़ते पढते इस लाइन तक पहुंच ही गये हैं तो मेरी कच्ची कलम को झेलने के लिए बहुत शुक्रिया....गाना सुनते हैं अभी एक....
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