आज गुड़ी पर्व दिवस है ...सोच रहा हूं इसे तो डायरी में दर्ज कर देना बनता ही है ... चलिए, कोशिश करते हैं...बहुत कुछ देखा...बहुत कुछ सुना ...लिखना लंबा हो जाएगा...कोई बात नहीं ..कुछ बातें सहेजनी ज़रूरी होती है..
आज मैं सुबह उठा तो उठते ही गुड़ी पर्व का एक कार्ड बनाने लग गया..दरअसल यह मुझे अपने कैलीग्राफी के उस्ताद जी को देना था...लिख तो लिया ...लेकिन मैं अपनी कैलीग्राफी से बहुत कम ही खुश होता हूं ...एक एक अक्षर में जो त्रुटियां रहती हैं वे मैं या गुरु लोग ही जानते हैं ...लेकिन आज तो मैं गुड़ी या गुढ़ी में ही कितना वक्त अटका रहा ...पक्के तौर पर मुझे अभी भी नहीं पता कि यह ड़ से है या ढ़ से है ..
परसों देेर शाम मैंने दादर स्टेशन के ब्रिज पर एक महिला को मोटा सा बांस का टुकड़ा लेकर जाते देखा...यही कोई 5 फीट की लंबाई का होगा...उस के पास बहुत से आम के पत्ते भी थे ...मुझे यह समझ में आया कि गुड़ी पर्व पास ही है ...प्लेटफार्म पर आया तो एक शख्स अपने बैग में आम के पत्ते और गेंदे के फूल ठूंस रहा था ...
खैर, आज मैंने बॉय रोड जाते माहिम, माटुंगा के रास्ते ...तुलसी पाइप लाइन से होते हुए....सारा माहौल गुड़ी पर्व के रंग में रंगा देखा...बहुत अच्छा लग रहा था ..हर तरफ़ रंग बिरंगी झंडियां देखना बहुत भा रहा था ...दादर पश्चिम रेलवे की तरफ़ एक बहुत बड़ी फूलों की मार्कीट है ...वहां पर कल तो बहुत ज़्यादा भीड़ थी, आज कुछ कम ही थी...क्योंकि आज तो त्योहार था ...लोग फूल, पत्ते और सब ज़रूरी चीज़ें कल खरीद कर ले गए होंगे ...आज भी कुछ दुकानदार हमारे लिए गुड़ी पर्व की तैयारियों में लगे हुए थे...उन्हें देख कर मन में यही विचार आता रहा था कि इन का त्योहार कब होता है ...होता भी है कभी कि नहीं ..
खैर, तभी सामने जा रहे एक बहुत बड़े ट्रक पर नज़र गई ..उसमें सैंकड़ों मु्र्गे ठूंसे पड़े थे ...इन बेचारे मुर्गों के मुकद्दर पर मन रो पड़ा कि इन को कभी राहत नहीं ...अगर एक हफ्ते रामू का निवाला बनने से बच भी गए तो उन दिनों शेर खां की प्लेट तक पहुंंचने से नहीं बच पाएंगे ...इतने डरे, सहमे, दुबके, सिमटे मुर्गे देख कर एक बार तो मेरा गुड़ी पर्व का सारा मज़ा किरकिरा हो गया...मुन्नवर राणा की बात बार बार याद आ जाती है इन्हेें देख कर ...पता नहीं किस घड़ी में लिख देते हैं अपने दिल से निकली बात...
एक निवाले के लिए मैंने जिसे मार दिया...
वह परिंदा भी कईं दिन का भूखा निकला...
दादर से आगे भी भायखला तक आते आते हर तरफ़ माहौल गुड़ी पर्व के जश्न से सराबोर ही दिखा ....
ड्य़ूटी पर भी आज मरीज़ कम ही थे ...हमारी ओपीडी में भी सभी साथियों ने बड़ी श्रद्धा से गुड़ी पर्व की पूजा की और सब की सलामती की दुआ की ...पेड़े, नारियल का प्रसाद मिला..समोसे खाए...सब बहुत खुश थे ..अच्छा लगता जब त्योहार की वजह से सब के चेहरे पर खुशियां दिखती हैं ..इन मौकों पर सब के लिए यही दुआएं निकलती हैं कि सब लोग इन उत्सव में अपने अपने तरीके से भाग ले सकें ...
मुझे लगा जैसे कि मना लिया गुड़ी पर्व ...अब घर जाकर राजमांह चावल ठूंसने के बाद बस अब सो जाना है ...लेकिन नहीं, मैं गलत था ...जैसा कि आप को मेरी इस डॉयरी के अगले पन्ने से पता चलेगा...
हां, हमारे मुंबई में रहने वाले एक साथी ने मोबाइल में अपने गृह में स्थापित गुड़ी के दर्शन करवाए...देख कर अच्छा लगा...तभी एक साथी ने बताया कि महानगरों में तो हमें इतने ही से काम चलाना पड़ता है लेकिन गांव में बहुत बड़े बांस की मदद से इस की स्थापना की जाती है ..उन्होंंने कोंकण के एक गांव के घर की वीडियो साझा की जिस से हमें गुड़ी पर्व के एक दूसरे ही गावटी स्वरूप के दर्शन हुए...लीजिए आप भी करिए...
जब भी कोई त्योहार आता है तो हमें यही लगता है कि हमें उस के बारे में कुछ ज़्यादा मालूम ही नहीं...इस के कईं कारण हैं...खैर, गुड़ी पर्व लिख कर जब गूगल से कुछ जानना चाहा तो उसने भी गुड़ी पर्व पर लिखा हुआ एक निबंध हमारे सामने रख दिया ...यह रहा उस का लिंक ..गुड़ी पर्व पर निबंध ...लेकिन उस निबंध को पढ़ कर कुछ ज़्यादा मज़ा आया नहीं...पूरा दिन बीत जाने के बाद हमें यह अहसास हुआ कि इस से अच्छा तो हम सड़कों पर टहलते हुए गुड़ी-पर्व की रौनकों से इस त्योहार को लाइव पढ़ सकते हैं.. समझ भी सकते हैं, इतने भी तो अनाड़ी नहीं कि जनसंचार पढ़ कर भी जनमानस की भावनाओं को न पढ़ पाएं।
अच्छा, एक बात है ...मैं ज़्यादा धर्म, मज़हब की बातें करता नहीं....ज़्यादा क्या, कम भी नहीं करता..क्योंकि एक बार इन मज़हबी चक्करों में पड़ जाओ तो फिर बेकार की बहस, तकरार...सब बेमतलब की चर्चाएं। लेकिन इतना तो लिख ही सकता हूं कि बंबई में कुछ इलाकों में हिंदु ज़्यादा है, कुछ में मुस्लिम ...कुछ में पारसी, कहीं गुज़राती और कहीं पंजाबीयों ने मिनी-पंजाब बनाया हुआ है। यह जो लाल बाग, प्रभादेवी, दादर के इलाके हैं न इन इलाकों में हिंदु बहुत ज़्यादा हैं....जो हर त्योहार को बड़ी धूम-धाम से, बड़ी श्रद्धा से मनाते हैं...आज मुझे इस बात का ख्याल तब आया क्योंकि मैं अभी वापिस लौटते वक्त लालबाग एरिया में ही था कि मुझे गुड़ी पर्व की धूम धाम दिखने लगी...मन बहुत हर्षित हुआ ..
ऐसे ही मैं दादर पहुंच गया....मैंने थोड़ा रास्ता बदल लिया...तुलसी पाइप रोड़ की बजाए मैं भवानी शंकर रोड़ पर आ गया..ताकि कबूतरखाने से होते हुए मैं शिवसेना भवन के सामने से होता हुआ, शीतला मंदिर मार्ग से माहिम, बांद्रा की तरफ़ आ जाऊं...मुझे आज बरसों बाद दादर पश्चिम के इस इलाके से निकलते हुए यह लग रहा था कि मैं इतनी बार दादर (पश्चिम) आता हूं लेकिन कभी भी इस एरिया को अच्छे से एक्सप्लोर नहीं किया मैंने ...उस इलाके में बहुत कुछ है देखने के लिए...रहस्यमयी, रोमांचकारी ....उस एरिया में लगता है जैसे मराठी धरोहर को संजो कर रखे जाने की कोशिश की जा रही है ....
परेल के इलाके में भी दुकानें दुल्हन की तरह सजी हुई थीं...
खैर, मैं कबूतरखाने से होता हुआ जब शिवसेना भवन की तरफ़ आ रहा था तो रास्ते में प्लाझा सिनेमा दिखा ....यह सिनेमा भी एक तरह से मराठी ही नहीं, हिंदी सिनेमा की धरोहर है ..दादासाहेब फाल्के जैसी महान हस्ती का नाम इस से जुड़ा हुआ है ...हमेशा ही से उस राह से निकलते हुए हमेशा ही इस सिनेमा को देखना किसी मराठी, हिंदी चित्रपट के मंदिर के दीदार करने जैसा है ...आज मैंने सोचा कि अगर इस में मराठी फिल्में ही लगती होंगी...तो भी मैं जल्दी ही इस में फिल्म देख कर आऊंगा ...यह मेरी हसरत है ...
अभी थोड़ा आगे निकला ही था शिवसेना भवन के आसपास तो सारा एरिया गुड़ी पर्व के रंगों में डूबा देखा ...हर तरफ़ खूबसूरत, रंग बिरंगी झंडियां ...और त्योहार का माहौल....अभी शिवसेना भवन से आगे निकला ही था कि रास्ते में गुड़ी पर्व के और रंगों को भी देखना नसीब हुआ...
और ये वीडियो देख कर इन खुशियों में हो जाइए...
लेकिन यह क्या, बांद्रा तक पहुंचते पहुंचते ...एक सन्नाटा सा देखने को मिला...शायद गर्मी की वजह से ...आज ही अखबार में आया है कि इस बार मार्च के महीने में मुंबई में जितनी गर्मी पड़ी है, उतनी 122 साल पहले पड़ी थी...कार्टर रोड का समुद्री किनारा भी सूना पड़ा दिखाई दिया...
बाद दोपहर घर पहुंच कर मुझे लगा कि अब तो हो गया..गुड़ी पर्व की रौनकें देख लीं...लेकिन नहीं, अभी भी कुछ तो बाकी था...शाम के वक्त जब जुहू बीच के लिए निकले ही थे कि कार्टर रोड के समुद्री किनारे पर कुछ लोग बड़े अच्छे तरीके से ढोलक जैसा दिखने वाला कोई यंत्र थपथपा रहे थे, देख कर अच्छा लगा...ऊपर जो मैंने कार्टर रोड की दोपहर की सन्नाटे की तस्वीरें लगाई थीं, उन्हें भूल जाइए..अब सूर्यास्त का वक्त था, ख़ूब रौनकें थीं वहां पर इस वक्त और गुड़ी पर्व के उत्सव को चार चांद लगाते वही लोग ..ढोलक जैसा कुछ बजाने वाले ...मुझे अभी याद ही नहीं आ रहा है कि जिस यंत्र को वे लोग बजा रहे थे उसे कहते क्या हैं, लेकिन कुछ चीज़ों का बस लुत्फ उठाना चाहिए...क्या करना है उस के बारे में जान कर ...सच तो यह है कि वह ग्रुप अपने फ़न से आसपास के सभी लोगों को लुत्फअंदोज़ कर रहे थे ...हमने वीडियो भी बनाई और आप भी उन के इस फन का आनंद लीजिए....हमें भी यह देख कर इतना मज़ा आया कि या तो एक वैसा ही ढोलक पकड़ कर हम भी उस ग्रुप में शामिल हो जाएं ...नहीं तो वहीं पर नाचने लगें, ऐसा लग रहा था ..लेकिन वह भी हमारी हज़ारों ख़्वाहिशों जैसी एक हसरत ही थी ..हमें तो जुहू जाने की जल्दी थी कि सूरज के डूब जाने से पहले वहां पहुंच जाएं कैसे भी ...
लीजिए, यह देखिए ... एक मिनट का वीडियो जिसमें इन रब्बी लोगों की सुंदर प्रस्तुति हमने कैद कर ली....इन सब को देख कर यही सबक मिलता है कि खुशियों को मना लेना चाहिए...सिमटे, दुबके, छुपे रहने से कुछ हासिल नहीं होता ...वह गाना भी तो है...आइए...बहार को हम बांट लें....ज़िंदगी के प्यार को हम बांट लें...अब यह वीडियो देख कर हमें यह नगमा कैसे याद आ गया....हमें पता नहीं...लेकिन इन लोगों को इस तरह से खुशियां बांटते देखा तो वह नगमा इस वक्त याद आ गया...
यह लिखने के बाद मुझे याद आया कि इसे ढोलक नहीं इसे तो ड्रम कहते हैं...यह मुझे मेरी बड़ी बहन ने याद दिलाया तो मैंने उन्हें कहा कि मुद्दत से इसे सीखने की भी मेरी बड़ी हसरत है ....वह हंसने लगी लेकिन मैं सच कह रहा था ..क्योंकि मुझे कभी मौका मिला तो मुझे यह सीखना ही है ..वैसे इस में सीखने जैसा है ही क्या...बस, एक थाप के ज़रिए अपनी खुशियों को दूसरों तक पहुंचाने की बात ही तो है ...
जैसे ही सांताक्रूज के वह बच्चों के ऐरोप्लेन वाले गार्डन से आगे निकले ..तो जुहू रोड पर एक बस से भी जश्न की आवाज़ें सुनाई दीं..हमारे पास तो हमारा कैमरा तैयार ही रहता है, इन दुर्लभ लम्हों को कैद कर के पाठकों तक पहुंचाने के लिए...मुझे नहीं पता वे लोग कहां जा रहे थे लेकिन खुशियों के फूल बिखेरते तो जा ही रहे थे ...देखिए, उन का वीडियो ...
दस मिनट में जुहू बीच पहुंच गए...अच्छा था नज़ारा था वहां भी ....बहुत से बच्चे फुटबाल खेल रहे थे ..सैलानी क़ुदरती नज़ारों का आनंद लूट रहे थे...सूरज महाराज जाते जाते अपनी छटा बिखेर रहे थे ...इसीलिए हमने एक फोटो निकाल ली अपनी भी ...
कुछ बच्चे रेत को घर बना रहे थे. ढहा रहे थे, फिर बना रहे थे ..उन्हें देख रहे थे और हमारे विविध भारती पर येसुदास की सुरीली, मनमोहक आवाज़ में यह गीत बज रहा था ...जैसे उस वक्त वहां पर मौजूद लोगों के जज़्बात की तर्जुमानी कर रहा हो ....
और जुहू बीच पर दिन में जिस वक्त भी जाते हैं ...सुबह, दोपहर, शाम, रात...वहां का नज़ारा अलग ही दिखता है ...इस वक्त बच्चे भी मज़े कर रहे थे ...बर्फ के गोले उन्हें खाते देखा तो वहीं उन के पास बैठ जाने की तमन्ना हुई ...किसी ज़माने में हम ने भी बहुत खाए...और उसे चूसते हुए बार बार जो उस पर गोले वाले से मीठा रंग उस पर डलवाने का लुत्फ होता था, उसे कैसे लिख पाऊंगा...नहीं होगा वह ब्यां...
अंधेरा होने लगा था...वापिस लौटने का ख्याल आया....लौटते लौटते देखा कि दो महिलाएं कुछ पूजा का सामान लिए अपने सहायक के साथ सीढ़ीयां उतर कर समंदर की लहरों की तरफ़ जा रही हैं...अब हम से यह मत पूछिए कि वे किस लिए, किस रस्म के लिए वहां जा रही थीं..यह हमें भी नहीं पता...और कैसे पूछें, किस से पूछें...कुछ सवाल दिल में सवाल की शक्ल ही में रहें तो भी क्या हर्ज़ है ...इतने बड़े मुल्क में इतने रस्मो-रिवाज़ हैं कि बंदा किस किस को समझे....किस किस को जाने..!!
घर लौटने पर हमारी कॉलोनी का प्ले-ब्वाय बिल्ला कुछ इस अंदाज़ में दिखा जैेसे पूछ रहा हो कि दिन भर कहां घूमते रहते हो ...हमारी भी कुछ फ़िक्र है कि नहीं....अमृतलाल नागर की कहानी में लखनऊ के बांकों का ज़िक्र है ...इसे भी आप बंबई का बांका ही समझिए..मतलब समझ ही गये होंगे आप ....घर में हम सब का यह फेवरेट है ...इस की चाल-ढाल, इस का सलीका झलकता है ... हा हा हा हा ...
बस, यही सब देखते सोचते घर लौट आए ...आते ही लिखने बैठ गए...जब निंदिया रानी आई तो सो गए...बाकी का लिखना अभी पूरा करने बैठ गये हैं...
और जाते जाते एक बात यह कि बीसियों तस्वीरें, वीडियो देखने के बाद, भायखला से जुहू तक गुड़ी पर्व के दिन घूम लेने पर भी हमें यह अहसास हुआ कि हम अपने आसपास को कितना कम जानते हैं, अपने रस्मो-रिवाज़ से कितने नावाक़िफ हैं.. कितने बेखबर है ...दूसरों की ही नहीं, अपनी खुशियों से भी ...इस के कारण जो मैं समझ पाया हूं अभी तक लिखते-पढ़ते-घूमते हुए ..वे यही हैं कि हम लोग समाज से लगभग कटे हुए हैं...बिना किसी मतलब के हम किसी से बात करना तो दूर आंखें मिलाने से भी कतराते हैं...बात करते वक्त भी किसी की आंखों में कहां देख पाते हैं....किसी के साथ बिना किसी मक़सद के दो पल हंसना, खिलखिलाना तो दूर ...मुस्कुराना भी गुनाह समझते हैं कि इस का कहीं कोई फ़ायदा ही न उठा ले....बिना किसी ख़ास मकसद के हम कुछ भी करते ...जब तक कोई ख़ास काम न हो हम पैदल कहीं आसपास भी नहीं जाते ..लोग क्या कहेंगे...और कईं बार दिल को समझाने के लिए वही बहाना कि इन सब के लिए वक्त ही कहां है, मरने की तो फुर्सत है नहीं....और कौन इतनी गर्मी में बाहर निकले...बस, इसीलिए हम लोग अपने आसपास की दुनिया से ...जो असली दुनिया है ...कटे ही रह जाते हैं...अलग थलग पड़े रहते हैं...अपने नशे में चूर...अपने धन-दौलत, वैभव की मस्ती में डूबे....और इस सब के क्या नतीजे निकलते हैं, इस प्रश्न के साथ मैं बस यहीं पोस्ट को विराम-चिन्ह लगा रहा हूं...
डा कपिल, एक योग्य एवं कर्मठ फ़िज़िशियन ... 👏
हां, इस बार यह गुड़ी पर्व पर इतना लिखने का मन कैसे हो गया...दरअसल दोपहर हमारे एक साथी हैं ..डा कपिल...एक बहुत मेहनती, कर्मठ और शांत फ़िज़िशियन हैं...परसों उन्हें उन की सेवाओं के लिए सम्मानित किया गया तो उन की तस्वीरें हमारे अस्पताल की चीफ़ फ़िज़िशियन मे शेयर की वाट्सएप ग्रुप ...उन तस्वीरों को देख कर हमें तो ऐसे लगा जैसे डा कपिल गुड़ी पर्व के बिल्कुल सही ब्रैंड-अंबैसेडर हैं...गुड़ी पर्व के पोस्टर-ब्वॉय हैं...सच में वह उस पारंपरिक वेश-भूषा में ऐसे ही लग रहे थे ..
हम तो कल रात में कवि सम्मलेन ही देख पाए। महाराष्ट्र में गुड़ी पड़वा की बड़ी धूम रहती है सुना था लेकिन आज आपने सच में इतनी सारी तस्वीर और विडिओ दिखा दिए तो हमें भी ऐसा लगा जैसा हम भी पहुँच गए मायानगरी में
बहुत बढ़िया. गुड़ीपड़वा पर निबंध पढ़ने की आवश्यकता नहीं. कितना सरल और सहज लिखा है. आंखों के सामने जिवंत होता है. खुल कर लिखना आप से सीखना है.😅
जवाब देंहटाएंडॉक्टर साहब यह गुड़ी पर्व नहीं गुढ़ी पाड़वा है बहर हाल आपका संगीतमय ब्लॉग पढ़कर आनंद आ गया
जवाब देंहटाएंहम तो कल रात में कवि सम्मलेन ही देख पाए। महाराष्ट्र में गुड़ी पड़वा की बड़ी धूम रहती है सुना था लेकिन आज आपने सच में इतनी सारी तस्वीर और विडिओ दिखा दिए तो हमें भी ऐसा लगा जैसा हम भी पहुँच गए मायानगरी में
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