दो साल पहले यही लॉकडाउन से ठीक पहले मैं स्कूटर से गिरा .पैर का हड्डी टूट गई ....और वह मेरी काली पैंट भी घुटने वाली जगह से थोड़ी सी फट गई...अभी वह पैंट नई ही थी...और वह फ्लेक्सी-वेस्ट वाली पैंट थी ...यानि एक बार पहनने के बाद उसी जगह पर टिकी रहती थी..यह जो सिर्फ़ बेल्ट के सहारे पर ही पैंटें पहनी जाती हैं उन्हें तो बार बारऊपर सरकाना पड़ता है, यह सिरदर्दी लगता है मुझे...मुझे इस से बहुत चिढ़ भी है ...लेकिन चिढ़ है तो वज़न का पहले ख्याल करना चाहिए था...अभी मेरी यह उम्र गैलस पहन पर अरबपति दिखने की भी तो नहीं है ....कुछ दिन पहले मुझे कपड़ों की अलमारी में वह पैंट दिख गई तो मैंने उसे रफू करवा लिया ...लेकिन जब वह पैंट रफू हो घर आई तो मुझे यह कहा गया कि अब इसे बाहर नहीं पहनना, यह ऐसे ही घर-वर में पहनने के लिए है..
लेकिन मुझे वह पैंट इतनी पसंद है कि मैं तो बाहर भी पहन लेता हूं ...और सोचता हूं कि एक तरफ़ तो रफू की गई पैंट को पहनना अपनी शान के ख़िलाफ़ समझा जाता है, दूसरी तरफ़ ये जो लोग कटी-फटी जीन पहन कर शान से अपने कूल (या हॉट?) होने की स्टेटमेंट दिए फिरते हैं, उन का क्या....पहली बार कुछ देखा टाइम्स में कि देश के किसी शहर के एक कॉलेज में (शायद यह बंगलोर की बात है, मुझे अच्छे से याद नहीं) यह नियम बना है कि डैमेज जीन पहन कर आना मना है ..शायद साथ में कुछ लिखा था ..आर्टीफिशियली डैमेज ..य़ानि जिन्हें खुद से काट-फाड़ कर डैमेज किया गया हो ...
कईं साल हो गए ..लखनऊ की बात है कि एक पांच छः साल का बच्चा आया मेरे पास आया था जिसने ऐसी ही एक कटी-फटी-चीथडे़-2 हुई जीन पहनी हुई थी ...उस की मां ने बताया कि यह इसी की जिद्द पर खऱीदी गई है...मैंने अभी तक उस से छोटे किसी बच्चे को इस तरह की डैमेज जीन पहने नहीं देखा है ..डैमेज जीन के बारे में बहुत से सोशल मीडिया स्टेट्स, वाट्सएप पर तस्वीरें या इतने चुटकुले अकसर दिख जाते हैं कि अब यह कोई नईं या अजीब बात नहीं लगती और देखा जाए तो लगे भी क्यों...हम होते ही कौन हैं किसी को भी पहनने-पचरने के नुस्खे बांटने वाले ...जो किसी को मुनासिब लगता है उसे पहनने का हक है...और रही पुरानी पंजाबी कहावत की बात ...खाईए मन भांदा, पाईए जग भांदा...(खाना वही चाहिए, जो मन को भाए...पहनना वही चाहिए, जो दुनिया को भाए) ...मैं इस कहावत के बिल्कुल ख़िलाफ़ हूं ...दुनिया कौन होती है जिस की वजह से हम लोग अपने पहनावे का कोई फ़ैसला लें। और हां, मैंने एक बात लिखी कि हम कौन होते हैं किसी को कहने वाले कि यह पहनो, यह न पहनो....और ख़्याल अभी यह भी आया कि कहने से होता ही क्या है... कौन सुनता है यार किसी की, और सुने भी क्यों।लिखते लिखते कईं बातें याद आने लगती हैं ...सोशल मीडिया पर तस्वीरें देखना अपनी जगह है, और रास्तों पर आते जाते लोगों को फटे-पुरानी जीन पहने देखना और किसी स्टोर पर ऐसे कपड़े बिकते देखना एक अलग एक्सपीरियंस है .....मैं अलग लिखा है, अच्छा, बुरा कुछ नहीं लगा...वैसे भी लिखने वाले का काम होता है आंखो-देखी को दर्ज करना ...बस।
दो तीन साल पहले की बात होगी मैं बच्चों के साथ ज़ारा के स्टोर पर गया तो वहां पर एक चीथड़े-चीथड़े हो चुकी एक टी-शर्ट देखी थी ...शायद 3500 रूपये की थी ..मैंने अभी तक लोगों को इस तरह से चीथड़े हो चुकी टी-शर्ट तो पहने कम ही देखा है ......लेकिन हां, हॉफ बाजू की कटी-फटी डैनम की डेमेज टी-शर्ट पहने तो देखा ही है ...बेटे के पास भी है एक ऐसी ही जैकेट है जो उसे बहुत पसंद है ...जब मैं इन को कहता हूं कि मुझे भी दिलवा दो एक डैमेज जीन तो हंसते हंसते कहते हैं कि हां, हां, क्यों नहीं ...कलर बताइए, आज ही चलिए। मैं सोचता हूं कि हंसते वे यह सोच कर होंगे कि बापू, यह बूढ़ी हड्डियों और घिसे हुए घुटनों वालों के शौंक नहीं हैं..
कल देर रात तक मैं अपने कपड़ों की अलमारी में रखे कपड़े ज़रा देख रहा था ...देख क्या रहा था, मैं अपनी सभी सफेद कमीज़ें अलग कर रहा था ...क्योंकि इतनी गर्मी में मुझे सफेद रंग ही पहनना अच्छा लगता है...मैंने देखा कि कुछ सफेद रंग के शार्ट कुर्तों की प्रैस खराब हो चुकी थी ..और कुछ गुचड़े-मुचड़े (सिलवटें) हुए पड़े थे... मुझे तभी ख्याल आया कि आज कल मैं कुछ लोगों को लोकल स्टेशनों पर देखता हूं जो बिना इस्तरी किए कपड़े पहने दिखते हैं...मैं सोचता हूं कि यह भी तो ठीक है ...इस्तरी करवाने के चक्कर में पड़ना ही क्यों ...हर किसी की कोई न कोई मजबूरी, शौक या अपना कोई स्टाईल या कोई नई फैशन स्टेटमेंट भी हो सकती है ...इस तरह से सिलवटों वाले कपड़े पहनना....जो किसी को अच्छा लग रहा है, पहन रहा है।
यह जो हम कपड़ों को इस्तरी करवाते हैं न मुझे तो यह भी बहुत अजीब सा लगने लगा है...पहले भी थोड़ा तो लगता ही था लेकिन इस कोविड-वोविड़ की महामारी के बाद तो ज़रूर ही लगने लगा है...क्या इस्तरी, क्या स्टीम-प्रैस, क्या ड्राई-क्लीन और क्या गुच्चड़-मुच्चड़ कपड़े ...सब यहीं के यहीं धरे रह गए...मुझे ऐसा लगता है कि ठीक है, हम अच्छे से प्रैस हुए कपड़े पहनते हैं, क्योंकि अकसर यह उस पेशे की भी एक मांग होती है जो काम हम कर रहे होते हैं...डाक्टर हैं तो मरीज़ एक उम्मीद करते हैं कि उसने ठीक ठाक से कपड़े पहने होंगे...और ठीक-ठाक से उस का क्या मतलब है, यह जानते हम सब कुछ हैं, लेकिन बस ऐसी ही अनाड़ी बनने का ढोंग करते हैं बहुत बार ..जब भी हमें अपनी मर्ज़ी के मुताबिक पोशाक पहननी होती है...। अब वकील हैं, पुलिस वाले हैं, वे भी अच्छे से इस्तरी किए हुए साफ सुथरे कपड़े पहने ही अच्छे दिखते हैं...पुलिस का रूआब भी तो उन की वर्दी से है ...
लेकिन एक बात तो है ...दुनिया वुनिया तो वैसे ही एक ड्रामेबाजी है ...है कि नहीं...और इस में हर किरदार को उस के रोल के मुताबिक तो कपड़े पहनने ही होंगे ...यह ज़रूरी है ..लेकिन यह रोल एक दिन में कुछ घंटों तक ही तो महदूद होता है ..जैसे ही आप का दिन का वह वाला रोल पूरा हो जाए...उतार फैंकिए उस किरदार की पौशाक को भी, और पहन लीजिए जो कुछ भी आप के दिल को पसंद है, मैं भी ऐसा ही करता हूं.. ..मुझे यही लगने लगा है कि लोगों की छोटी छोटी खुशियां हैं ...कोई किसी को कुछ कहे ही क्यों और किसी की कोई भला सुने भी क्यों।
मुझे सच में नहीं पता कि कर्नाटक में कालेज के बच्चों की पोशाक को लेकर क्या चल रहा है ..क्योंकि मैं न तो खबरें ही सुनता हूं और न ही अखबार में इस तरह की खबरें पढ़ने का मेरे पास फालतू वक्त ही होता है ...बस, हिजाब के बारे में कुछ न कुछ चल रहा है ..कोई कह रहा है पहनना है, कोई कह रहा है नहीं। इस के बारे में भी सीधी सीधी बात तो यह है कि जो किसी को अच्छा लगे वह करे ..यह तो पहनावे का ही एक अंग है ...बाकी, इस तरह के मामलों में कोर्ट-कचहरी में जो गहरी,पेचीदा बातें होती हैं, वे सब मेरी समझ से थोड़ी नहीं, कोसों दूर हैं...समझ तो मैं भी सकता हूं अगर चाहूं तो ....लेकिन कभी इच्छा ही नहीं उस तरफ़ दिमाग़ लगाने की।
लिखते लिखते एक बात का और ख्याल आ गया...अकसर देखते रहे हैं कि रईस लोग या धनी लोगों के बच्चे कुछ भी पहन लें ..लोग एक्सेप्ट कर लेते हैं...फैशन है, ये लोग कूल हैं, कूल लोग ऐसे ही पहनते हैं....(कूल-हॉट मैं नहीं जानता-समझता, जब कभी समझ लूंगा तो लिख कर ब्यां कर दू्ंगा..) लेकिन मुझे इस बात से सख्त नफ़रत है जब मध्यम वर्ग या उस से भी थोड़ी कम हैसियत वाले लोगों के बच्चे (खास कर बच्चियां) फैशन के मुताबिक कपड़े पहनती हैं तो अड़ोस-पड़ोस वाले कईं बार तरह तरह की बातें करने लगते हैं...आप और मैं यह सब समझते हैं.....लेकिन मुझे इस बात से बड़ी तकलीफ़ होती है क्योंकि हर इंसान को सुंदर दिखने का, स्टाईलिश दिखने का ...कूल या हॉट स्टेटमेंट देते हुए कुछ भी पहनने का पूरा हक है .....है कि नहीं? और मैं आते जाते जब इस तरह के युवा-युवतियों को अपने मन-पसंद कपड़ों में, कईं बार बिना प्रैस किए हुए भी ...देखता हूं तो मुझे यह देख कर बहुत अच्छा लगता है कि वे अपने पहनावे के बारे में बहुत सहज हैं ..देखा जाए तो हों भी क्यों न.....हर एक की अपनी दुनिया है ....अपना फ़लक है, ..अपना कैनवस है मन-भावन रंग भरने के लिए।
अपने पेशे की मांग को छोड़ कर ...पहनावे से कुछ फर्क पड़ता है या नहीं पता नहीं, लेकिन पहनने वाले का दिल तो खुश रहता ही है ...जीन डैमेज है, पुरानी है, सैकेंड हेंड है, कपड़े प्रैस हैं या गुचड़-मुचड़े हुए हैं, कमीज़ कालर वाली है या बिना कालर वाली...पतलून ब्रांडेड है या नहीं, सूती है या टैरीकॉट की ...बूट 200 रूपये वाले ब्लू-स्टार के हैं या 6000 रूपये के स्केचर्स ...यह सब हर इंसान की हैसियत के ऊपर है ..एक गलती जो हम अकसर करते हैं वह यह है कि हम बहुत बार किसी के कपड़ों से उस का आंकलन ही करने लगते हैं ...लेकिन यह भी एक बीमारी है ...जैसे तुलना करना बीमारी है ...वैसे कपड़ों को देख कर किसी बंदे के बारे में अपनी राय बना लेना भी एक गलती है ...थोड़ा बहुत तो चलिए ठीक है, हम सब यह काम करते ही हैं. लेकिन इस पर ज़्यादा भरोसा करना बंद करिए, बहतु बड़ा धोखा खाएंगे ...ज़िंदगी के तजुर्बे से यह सब सीखा है, इसलिए लिख रहे हैं..
आज सुबह सुबह जल्दी जल्दी मैं क्या उठ गया...मैं यह सब लिखने में लग गया...बात सिर्फ इतनी सी है कि जो जिसे पसंद हो, वह पहने ...हम आज़ाद देश के बाशिंदे हैं...हमें हमारे संविधान ने बहुत से अधिकार दिए हुए हैं...उन में स्पीच का, एक्सप्रेशन का ..बोलने की आज़ादी वाला अधिकार भी तो है ....हम जो पहनते हैं वह भी तो एक तरह से एक्सप्रेशन ही है ...कानूनी ज़ुबान नहीं बोल रहा हूं, दिल की बात कह रहा हूं ..
जो भी है, कईं बार मैं भी ऐसी ऐसी बातेें लिखने लग जाता हूं कि लिखते लिखते मैं ही पक जाता हूं ..पढ़ने वालों का क्या हाल होता होगा...खुदा जाने .....कोशिश करता हूं एक अच्छा सा गीत लगा कर अब यहां से इसी वक्त उठ जाऊं... एक छोटी सी सीख के साथ....जिओ और जीने दो..ज्यादा नसीहतों के चक्कर में, सही गलत के नुस्खों में, मुनासिब, गैर मुनासिब के इश्तिहार मत बांटिए....सहज रहिए...बेकार के पच़ड़ों से दूर रहिए...और खुशी खुशी पहनिए जो भी अच्छा लगता है ...
डॉक्टर प्रवीण चोपड़ा जी के लघु लेख : मनोरंजक, सरल स्वच्छ हास्य प्रेरित, छुपी प्रेरणा लिए, ध्यान_आकर्षक होते हैं! क्योंकि, ये हम सभी, अब वरिष्ठ हो चले जन के, बाल्यकाल किशोरावस्था .. व, बीते_बढ़ते_समय की, सत्य_घटनाओं आधारित हैं! + वर्तमान के नवीन युग से भी समानता लिए, हिन्दी भाषी क्षेत्र की बोलचाल की भाषा शैली में होते हैं! डॉक साब, आप को सरस्वती मां प्रेरित रखें, ऐसे ही लिखते रहें, कलयुगी जीवन पथ, तनाव मुक्त रहेगा, इन स्मरणाजली को लिखतेपढ़ते, कुछ क्षण के लिए।
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