गुरुवार, 29 जून 2017

किस भाषा में लिखें?

मुझे १५ साल पहले एक नवलेखक शिविर में एक विद्वान की यह बात सुनने का मौका मिला था ..कि हमें अपनी मातृ-भाषा में भी ज़रूर लिखना चाहिए....सोचा उस समय इस के बारे में लेकिन कभी इस बात को गंभीरता से लिया नहीं शायद..

वहां से लौटने के बाद मैं अखबारों के लिए लेख लिखता रहा ...अधिकतर हिंदी में और यदा कदा पंजाबी में....इस के पीछे मेरी यही सोच थी कि पंजाबी अखबारों की रीडरशिप कम है...

२००७ से केवल ब्लॉगिंग कर रहा हूं....अधिकतर हिंदी में ...१० साल हो गये ...१५०० के करीब लेख हो गये...इसी दौरान २०१० के आसपास इंगलिश में भी ब्लॉगिंग शुरू की ...यही कोई तीन चार साल तक की ( चार सौ के करीब लेख) ... अभी भी कभी कभी कोई टैक्नीकल बात कहनी हो तो इंगलिश में ही लिखता हूं...उस के बहुत से कारण हैं...अभी उस में नहीं जाते। 
हिंदी और पंजाबी वाली बात तक ही अपनी बात को सीमित रखता हूं...एक है राष्ट्र भाषा और दूसरी मातृ-भाषा...दोनों का अपना अपना महत्व है..

कल मैं टीवी में प्रधानमंत्री मोदी का नीदरलैंड के हैग में हिंदुवंशियों के समूह में दिये गये भाषण को सुन रहा था...सही बात कही कि कुछ लोग बड़े गर्व से कहते हैं कि उन के बच्चों को भारतीय भाषाएं आती ही नहीं हैं.. ऐसे में १५० साल पहले गये सुरीनाम जा बसे भारतीयों ने तीन चार पीढ़ियों के बाद भी जैसे अपने देश का सभ्यता, संस्कृति को संजो कर रखा है, उस की मोदी तारीफ़ कर रहे थे...

कुछ सप्ताह पहले एक बुक-फेयर में मुझे बलराज साहनी साहब की एक छोटी सी किताब मिल गई थी ...साहित्यकारों के नाम संदेश...उसमें भी यही संदेश था कि हमें अपनी मातृ-भाषा में भी ज़रूर लिखना चाहिए... अच्छा लगा था उस किताब के शुरूआती आठ दस पेज़ पढ़ कर ..अभी पूरी नहीं पढ़ी लेकिन बात पल्ले पड़ गई।

इस में कोई शक नहीं कि बहुत से लोग बच्चों को अपनी मातृ-भाषा में बात करते समय टोकते हैं...इस के बारे में क्या लिखूं, इस के बारे में हम सब लोग अच्छे से जानते हैं कि पंजाबी जैसी भाषायें धीरे धीरे लोग आज की युवा पीढ़ी कम बोलती है...मुझे यह बड़ा अजीब लगता है ...ऐसा नहीं होता कि आप १५-२० साल की उम्र में बच्चों को कहना शुरू करें कि भई, पंजाबी में बात किया करो...और वे ऐसा कर पायेंगे....मुश्किल काम होता उन के लिए भी।

यह तो है बोलने वाली बात ...लिखने की तो बात ही क्या करें!

ज़्यादा बात को खींचने की बजाए, मैं सीधा बात पर आता हूं कि मुझे लगता है कि मैंने पंजाबी में बहुत कम लिखा ...शायद इस का एक कारण यह था कि जब मैं हाथ से लिख कर अखबार में लिख कर भेजता था तो ठीक था, लेेकिन जब से मैंने कंप्यूटर पर काम करना शुरू किया तो मैंने नोटिस किया कि पंजाबी के कुछ शब्द मेरे से लिखे नहीं जा रहे थे क्योंकि मेरे को बिंदी-टिप्पी-अध्धक कंप्यूटर में इस्तेमाल करने मुश्किल लग रहे थे.....बस, ऐसे में धीरे धीरे पंजाबी लिखना कम से कम ब्लॉगिंग में छूट गया....लेकिन मुझे इस का बहुत मलाल है...

जो हमारी मातृभाषा होती है उस में हम सोचते हैं....और अगर उसी में लिखते-पढ़ते हैं तो यह सब बहुत नेचुरल होता है ... जद्दो-जहद नहीं करनी पड़ती।

सही में अगर मौलिकता की, सर्जनात्मकता की बात करें तो वह मातृ-भाषा में लिखते समय स्वतः आयेगी...और अगर अच्छा लिखा होगा तो उसका अपने आप बीसियों भाषाओं में अनुवाद भी हो जायेगा... लिखते समय कभी इस सिरदर्दी की चिंता मत करिए, यह दूसरों के लिए छोड़ दीजिए..बस, आप तो अपनी कह के मुक्त हो जाइए....

हिंदी में लिख तो लेता हूं ...कईं बार शब्दों की वजह से अटक जाता हूं... अपनी बात कहने के लिए वह शब्द नहीं मिल पाता जो मेरे मन के भाव प्रकट कर सके..और अगर मैं जबरदस्ती वहां कोई शब्द हिंदी का फिट कर भी देता हूं तो वह बात बनती नहीं.
मुझे शुरू शुरू में यही लगता था कि हिंदी बड़ी शुद्ध लिखनी चाहिए.. लेकिन ऐसा शायद हो नहीं पाता...हम वही हिंदी लिख पाते हैं जो हमें आती है ...हम वही शब्द इस्तेमाल कर सकते हैं जिन के इस्तेमाल के बारे में हमें पता है ...ऐसे ही धक्के से कुछ शब्द इस्तेमाल करने की कोशिश करते हैं तो फिर गड़बड़ हो जाती है....

मैं अकसर देखता हूं कि हिंदी लेखकों की कहानियां या हिंदी का कोई भी साहित्य पढ़़ते समय मैं कईं शब्दों पर अटक जाता हूं....फिर अनुमान लगाने लगता हूं...यह कहना आसान है कि उसी समय शब्दकोष देख लेना चाहिए, ऐसा नहीं हो पाता मेरे साथ..बस, इसी चक्कर में कुछ ही पन्ने पढ़ कर वह किताब अलमारी में वापिस सरका दी जाती है ...

लेकिन अगर मैं उन लेखकों की हिंदी कहानियां पढ़ता हूं जिन की मातृ-भाषा पंजाबी है तो मैं उन्हें बेहतर तरीके से पढ़ पाता हूं...कुछ शब्दों पर अटकता हूं क्योंकि लेखक जिस भी परिवेश में पले-बढ़े हैं, कुछ शब्द वहां से भी साथ जुड़ ही जाते हैं...लेकिन फिर भी ऐसे लेखकों को पढ़ कर मेरी कमज़ोर हिंदी की हीन-भावना समाप्त होती दिखती है क्योंकि मुझे लगता है कि यह तो मेरी हिंदी से मिलती-जुलती हिंदी ही है ...

कुछ हिंदी के लेखकों को पढ़ता हूं तो ज़्यादा समझ ही नहीं पाता...भारी भरकम शब्द ....मुझे कईं बार लगता है कि ये भारी भरकम शब्द कहीं जानबूझ तो इस्तेमाल नहीं किया जाते होंगे...अपनी अच्छी हिंदी को दिखाने के लिए...लेकिन जो भी हो इस से पढ़ने समझने में मुश्किल होती है ....इसी चक्कर में मैं हिंदी की कविताएं तो बिल्कुल भी समझ ही नहीं पाता....वही समझ में आईं जो स्कूल में मास्टरों ने डंडे के ज़ोर पर समझा दी, बाकी सब गोल।

तकनीकी शब्दावलियों को देखता हूं तो डर जाता हूं ...इतने भारी भरकम शब्द ...कोई कैसे इन शब्दों को समझेगा...इसीलिए हम लोग अपनी मातृ-भाषा में तो दूर अपनी राष्ट्र-भाषा में तकनीकी विषयों को पढ़ा नहीं पा रहे हैं.....और जो देश ऐसा कर रहे हैं वे तारीफ़ के काबिल हैं..

मैं भाषा विज्ञानी नहीं हूं ..जो समझा हूं वही लिखने की कोशिश कर रहा हूं....हां, कठिन शब्दों से याद आया कि लेखक के परिवेश का और उसने किस दौर में लेखन किया, इन सब बातों का भी असर तो साहित्य पर पड़ता ही है ..मैं कल मुंशी प्रेमचंद की कुछ कहानियां पढ़ रहा था ...कुछ शब्द मेरे सिर के ऊपर से ही निकले जा रहे थे।

ऐसा भी नहीं है कि हिंदी में ही यह समस्या है ...अकसर ऐसा भी होता है कि पंजाबी में भी किसी लेखक को पढ़ते हुए कुछ शब्दों पर अटक जाता हूं लेकिन वहां पर वह फ्लो खंडित नहीं होता क्योंकि वहां पर मैं आराम से कयास लगा लेता हूं...
अब ये सब बातें लिख कर ऊबने लगा हूं....लेकिन एक मशविरा तो है कि हमें अपनी मातृ-भाषा में लिखना-पढ़ना हमेशा जारी रखना चाहिए....हम सोशल मीडिया पर आडियो मैसेज तो दूर टैक्स्ट मैसेज भी मातृ-भाषा में नहीं करते ....बात भी मातृ-भाषा में नहीं करते ...और बात करते हुए भी अपने स्कूल कालेज के साथियों को भी "जी..जी " मिमियाने लगते हैं....मुझे इस से बड़ी नफ़रत है .....अगर हम स्कूल कालेज के दौर के ही अपने साथियों को व्हीआईपी ट्रीटमैंट देने लगते हैं तो इसके कईं मतलब हैं...उन के बारे में आप स्वयं सोचिए.......लेेकिन मुझे किसी भी स्कूल कालेज वाले दौर के साथी को जी लगा कर बुलाना बड़ा अजीब लगता है और मैं ऐसा अकसर नही ंकरता ....जहां मुझ से ऐसी एक्सपैक्टेशन भी होती है ...मैं वहां से गोल ही हो जाता हूं..

अपनी मातृ-भाषा में लिखने-पढ़ने का मजा ही कुछ और है ...जैसा कि मैंने ऊपर भी लिखा है कि वहां पर भी कुछ शब्दों में मैं अटक जाता हूं....इस का कारण वही है कि उस लेखक का अपने समय का परिवेश अलग होता है ....कल मैं डा महिन्द्र सिंह रंधावा की आपबीती पढ़ रहा था ..किसी पंजाबी की किसी स्कूल की किताब में प्रकाशित हुई है....पढ़ कर ऐसा लगा कि मैं उन से बातचीत कर रहा हूं...मेरे विचार में यह एक महान् लेखन के लक्षण हैं....और उन्होंने लिखा भी इतनी बेबाकी से था ....डा रंधावा साहब के बारे में अगर आपने नहीं सुना तो यह आप के सामान्य ज्ञान पर ही प्रश्न चिंह लगाती है ....यह देश की एक महान हस्ती हुई हैं ...विकिपीडिया पर इन के बारे में यहां जानिए... डा महेन्द्र सिंह रंधावा 

डा रंधावा साहब की पंजाबी भाषा में लिखी उस आपबीती से चंद पंक्तियां हिंदी में अनुवाद कर के लिख रहा हूं..
 'जून १९३० में मैंने एमएससी आनर्जड बॉटनी पहली श्रेणी में पास की। अब गांव आने के बाद यह सूझ ही नहीं रहा था कि कौन सा काम किया जाए जिस से कि गुज़ारा हो पाए। खेती बाड़ी में बड़ी डिप्रेशन थी और गेहूं डेढ़ रूपये में चालीस किलो के भाव से बिक रही थी।शहरों के लोग तो खुश थे कि गेहूं सस्ती है लेकिन किसानों का बहुत बुरा हाल था। तंग आ कर खेती-बाड़ी में उनका रूझान कम हो रहा था क्योंकि उन्हें उन की मेहनत का सिला नहीं मिल रहा था। फ़ालतू अन्न लोग पशुओं और कुत्तों को खिला रहे थे। गांवों के कुत्ते रोटियां खा खा के तगड़े होते जा रहे थे और दिन-दिहाड़े लोगों पर हमला कर देते थे। इस डिप्रेशन का बाकी काम-धंधों पर भी बड़ा बुरा असर पड़ा और कहीं कोई नौकरी नज़र नहीं आ रही थी।'
लेख बंद करते समय बस यही कहना है कि हिंदी भी पढ़िए, इंगलिश भी पढ़िए...लिखिए....इस के आधार पर विश्व मार्कीट में अपनी विशिष्टता दिखाईए.....लेकिन अपनी मातृ-भाषा को नज़र-अंदाज़ मत करिए....यह मैं किसी भी कट्टरवाद से प्रेरित हो कर नहीं कह रहा ..वह मेरा विषय कभी था ही नहीं और ना ही होगा....लेकिन मातृ-भाषा के अधिक उपयोग से हम अपनी बात को बेहतर ढंग से अभिव्यक्त कर पाते हैं....हमें मन की बातें कहने के लिए शब्द ढूंढने नहीं पड़ते ...मैंने भी सोचा है कि अब पहले से अधिक पंजाबी साहित्य और पंजाबी साहित्यकारों को तवज्जो दूंगा...सोशल मीडिया पर भी मैं पंजाबी जानने वाले अपने साथियों और परिवार के सदस्यों के साथ पंजाबी लिख कर ही बात कहना पसंद करता हूं...पंजाबी गुरमुखी लिपि में लिखी हुई..

बात तो लंबी हो गई पता नहीं अपनी बात ठीक से कह पाया हूं कि नहीं......शायद थोड़ी बहुत तो हो ही गई बात ....और एक बात कि अपनी मातृ-भाषा में लिटरेचर पढ़ने की शुरूआत ऐसे करें कि स्कूल की पंजाबी की पाठ्य-पुस्तकें पढ़ते रहा करें...नेट पर भी पीडीएफ फोर्मेट पर पड़ी हुई हैं.....लेेकिन मेरी तरह इन्हें स्लीपिंग पिल की तरह मत इस्तेमाल करिए...थोड़ा समय रोज़ाना ऐसे साहित्य के साथ बिताइए.....यकीन मानिए यह हमारी मानिसक सेहत के लिए भी बहुत फायदेमंद है...

एक छोटी सा बात जाते जाते कि हम लिखते इसलिए हैं कि जो कोई भी पढ़े उसे समझ में आ जाए...फिर अपनी बात किसी भी भाषा में इतनी घुमावदार ढंग से क्यों कही जाए...बस, इतना सा ध्यान रहे ...और लिखते समय भी यही ध्यान रखा जाए कि पढ़ने वाला कहीं भी अटके नही...हम क्यों नहीं बातचीत वाली भाषा में लिख पाते! लिखने वाले सोचिएगा...मातृ-भाषा की बात ही अलग होती है...उसे सुप्त मत होने दीजिए....जहां तक हो सके। फैशन के लिए कभी कभी एक दो जुमल मातृ-भाषा में बोल कर इसे उपहास का माध्यम न बनाएं, दिक्कत हमें और आने वाली पीढ़ियों को ही होगी।




रविवार, 25 जून 2017

लाहौर में कोहिनूर

आज इस शीर्षक के साथ हिन्दुस्तान में एक लेख प्रकाशित हुआ है ....साथ में महाराजा रंजीत सिंह की फोटो थी...उस लेख को जब पढ़ा तो बड़े रोचक तथ्यों का पता चला...जिन्हें यहां शेयर कर रहा हूं...


कोहिनूर के सभी स्वामियों की तुलना में इसका सबसे ज्यादा महाराजा इस्तेमाल रणजीत सिंह ने किया। कोहिनूर से उन्हें जुनून की हद तक मोहब्बत थी, और हर सार्वजनिक मौके पर वह उसे जरूर पहनते थे।

उन्हीं के शासनकाल में पहली बार कोहिनूर ने अपनी अलग पहचान बनाई जो अब तक बरकरार है। नादिर शाह और दुर्रानी के वंशजों ने इसे हमेशा किसी दूसरे कीमती पत्थर, मुगलों ने इसे खास तैमूरी माणिक्य के साथ पहना, नादिर शाह ने जिसे एजुल हूर और दुर्रानियों ने फखराज कहा था। पर अब कोहिनूर अकेले रणजीत सिंह के गले की शोभा बनकर उनके संघर्षों और आजादी के लिए लड़े गए मुश्किल युद्धों का प्रतीक बन चुका था।

दुर्रानी वंश के इस हीरे को हासिल करने को रणजीत सिंह ने अपनी सफलता के चरमोत्कर्ष का प्रतीक चिन्ह मान लिया था। दरअसल वह कोहिनूर को एक ऐसी मोहर मानते थे, जो यह साबित करती कि लड़खड़ाते दुर्रानी वंश के खात्मे का सारा श्रेय उन्हीं को जाता है। शायद यह एक बड़ी वजह रही होगी जिसने महाराजा रणजीत सिंह को हर मौके पर कोहिनूर पहनने की प्रेरणा दी।


जब रणजीत सिंह ने वर्ष 1813 में इस महान हीरे को हासिल किया, तो उन्हें शक था कि शाह शुजा उन्हें बेवकूफ़ भी बना सकता है। यही वजह थी कि उन्होंने तुरंत लाहौर के सारे बड़े जौहरियों को बुलाया और हीरे की प्रामाणिकता की जांच करने का आदेश दिया। उन्हें तब बड़ी राहत मिली और थोड़ी सी हैरानी भी हुई. जब सभी ने इसे खालिस खरा और बेशकीमती करार दिया।

एक पुराने दरबारी ने बाद में इस घटना को याद करते हुए लिखा है - महाराज जब महल लौटे तो उन्होंने दरबार बुलाया। कोहिनूर हीरे का प्रदर्शन किया गया और वहां मौजूद सभी सरदारों, मंत्रियों और विशिष्ट लोगों को इसे देखने का मौका दिया गया। सभी ने बार-बार महाराजा को इस अमूल्य रत्न के हासिल होने पर बधाई दी।

अगले दो दिनों तक रणजीत सिंह ने लाहौर के जौहरियों से इसकी प्रामाणिकता की जांच करवाई।

इसके बाद जब महाराजा इस बात से पूरी तरह से संतुष्ट हो गए कि जो हीरा उनके पास है वह असली कोहिनूर है तो उन्होंने शाह शुजा को सवा लाख रूपए दान में भिजवा दिए। महाराज इसके बाद अमृतसर गये और तुरंत ही अमृतसर के मुख्य जौहरियों को बुलवा भेजा, जिससे यह पता लग सके कि लाहौर के जौहरियों ने कोई गलती तो नहीं की और इस हीरे का असली मूल्य क्या है। उन जौहरियों ने कोहिनूर की ठीक से जांच की और जवाब दिया कि इस बड़े आकार के बेहद खूबसूरत हीरे की कीमत के आगे हर आंकडा़ बौना है। महाराज चाहते थे कि हीरे को कुछ इस शानदार अंदाज और तरतीब से रखा जाए जिसे दुनिया सराहे। वह हीरे को अपनी आंखों से दूर नहीं होने देना चाहते थे। यही वजह थी कि यह काम भी जौहरियों को महाराज की मौजूदगी मे ंही करना पड़ा।

यह काम पूरा हुआ, रणजीत सिंह ने कोहिनूर को अपनी पगड़ी के सामने की तरफ़ लगवाया, हाथी पर सवार हुए और अपने सरदारों ओर सहायकों के साथ शहर के मुख्य मार्ग पर कईं बार-बार आए-गए। कोहिनूर को रणजीत सिहं हर दीवाली, दशहरा और त्योहारों पर बाजूबंद की तरह पहनते थे। उसे हर उस खास व्यक्ति को दिखाया जाता जो दरबार आता था, खासकर दरबार आने वाले हर ब्रिटिश अफसर को। महाराज रणजीत सिंह जब भी मुलतान, पेशावर या किसी जगह दौरे पर जाते, वह अपने साथ कोहिनूर को ले जाते थे।

इसके थोड़े ही दिन बाद महाराजा ने हीरे की कीमत जानने के लिए हीरे के पुराने स्वामियों और उनके परिवारों से दोबारा संपर्क करना शुरू कर दिया। वफा बेगम ने उन्हें बताया - 'अगर कोई बेहद ताकतवर व्यक्ति एक पत्थर को चारों दिशाओं में फेंके और पांचवा पत्थर हवा मे ऊपर की ओर उछाल दिया जाए तो इन सारे पत्थरों के बीच भरे गये सोने-चांदी और जवाहरात का कुल मूल्य भी कोहिनूर की बराबरी नहीं कर सकेगा।'

महाराजा को पूरे जीवन इस बात की चिंता रही कि उनका यह बेशकीमती पत्थर कोई चुरा न ले। 

जब रणजीत सिंह इस हीरे को नहीं पहनते तो उसे गोबिंदगढ़ के अभेद्य किले के राजकोष में बहुत ही तगड़ी सुरक्षा के बीच रखा जता। महाराजा ने बहुत से राज्यों की यात्रा की थी और हर जगह इसे लेकर भी गए थे।

कोहेनूर का वह रखवाला 

महाराजा के अलावा मिश्र बेली राम ही पूरे राज्य में वह दूसरा व्यक्ति था, जिसे कोहेनूर के प्रबंधन के सर्वाधिकार मिले थे। मिश्र बेली राम हमेशा कोहिनूर के मोती जड़े हुए शानदार डिब्बे को अपने हाथों मे ही रखता था। जब महाराज अपने कामकाज या किसी और वजह से राजमहल से दूर होते तो बेली राम ही महाराजा की शानदार और संवेदनशील अमानत का ख्याल रखता .. बेली राम इस दौरान कोहिनूर को एक साधारण से दिखने वाले डिब्बे में रखता था .. इसके साथ ही ठीक वैसे ही डिब्बों में कोहिनूर के शीशे के दो प्रतिरूप भी रखे जाते थे। अगर महाराज का शाही लश्कर कहीं रात्रि प्रवास करता तो तीने बक्से बेली राम के पलंग से जंजीर के जरिए बांधे जाते।

यात्रा के दौरान भी उन्होंने इसकी सुरक्षा व्यवस्था के लिए कई नायाब तरकीबें ईजाद की थीं। यात्रा के दौरान चालीस ऊंट और उन पर एकदम एक तरह के बक्से रखवाए जाते थे। किसी को नहीं पता होता था कि असली कोहिनूर किस बक्से में रखा गया है। यह बात और थी कि आमतौर पर हर समय सुरक्षाकर्मियों के ठीक पीछे वाले यानी पहले ही बक्से में कोहिनूर रखा जाता था, पर इस बात की सख्त गोपनीयता बरती जाती कि कोहिनूर का असली बक्सा किसी को न पता चले।

महाराजा को पहनने या यात्रा में न होने की दशा में कोहिनूर को गोबिंदगढ़ के तोशाखाने में कड़ी सुरक्षा के बीच रखा जाता था। कश्मीर से लेकर पंजाब तक महाराजा रंजीत सिंह के राज्य में करीब एक करोड़ तीस लाख लोग रहते थे और वह अपनी प्रजा के बीच बहुत ही लोकप्रिय थे।
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लेख थोड़ा आधा अधूरा सा इसलिए लगा कि आप कोहिनूर जैसे हीरे के बारे में रविवारीय अंक में लिख रहे हैं तो कुछ तो इस के बारे में भी लिखिए कि यह हीरा फिरंगियों तक कब और कैसे पहुंचा ...और आज यह किस के सिर का ताज है...और पीछे कुछ चर्चा हो रही थी ...पता नहीं राजनीति थी कि असलियत थी कि कोहेनूर को वापिस लाने की भी कुछ तिकड़म चल रही है...क्या पता कभी हमारी यह भी हसरत पूरी हो जाए....तब तक अच्छे दिनों से ही काम चला लीजिए।

वैसे हर बंदे की हर दौर की अपनी अपनी सिरदर्दीयां हैं ... मुझे सुबह से यही लग रहा है..

आप इसे देख सकते हैं...  Kohinoor Diamond of India 

 अभी कोहिनूर के नाम से गूगल कर रहा था को १९६० की कोहिनूर हिंदी फिल्म का यह गीत यू-ट्यूब पर दिख गया ...सुनिए अगर पुराने हिंदी फिल्मी गीत आप की पसंद में शुमार हैं...



मन को ना खोल पाना भी सेहत के लिए हानिकारक है ...

अभी महान् कथाकार जसवंत सिंह विरदी और नवतेज सिंह की पंजाबी कहानियां जिन का हिंदी में अनुवाद भी हो चुका है, पढ़ रहा था...बेहद उमदा कहानियां..छोटी छोटी ...६-७ पन्नों की कहानियां...ज़िंदगी से जुड़ी हुईं..किसी भारी भरकम शब्द की वजह से मन उलझ नहीं रहा था...इन महान कथाकारों की कहानियां हमारी स्कूल की किताबों में भी थीं...बहुत कुछ सोचने-समझने पर मजबूर करने वाली बातें...

और हां, एक मित्र ने उस दिन देश की एक बड़ी नामचीन पत्रिका के जून २०१७ अंक में अपनी कहानी छपने की बात बताई थी...ले आया था वह रसाला...लेकिन इतनी भारी भरकम भाषा...इतने कठिन शब्द ...कि मैं दो तीन पन्ने तो पढ़े लेकिन पल्ले कुछ खास पढ़ा नहीं...मैं बीच बीच में यही देख रहा था कि अभी पेंचो कितनी और पड़ी है...बस, चंद मिनटों के बाद नहीं झेल पाया...कठिन भाषा, बड़े बड़े शब्द ...

बचपन में हम लोग कैसे छुट्टियों के दिनों में कॉमिक्स और बाल साहित्य को पढ़ने के लिए आतुर रहते थे ..अगर किराये पर लेकर आते तो देर रात या सुबह जल्दी उठ कर उसे निपटाते क्योंकि किराया भरना होता था भई। लेकिन मित्र की कहानी में वह बात नहीं थी..

उस मित्र ने अपनी फेसबुक पोस्ट में इस बात की सूचना दी थी कि उस की कहानी छप रही है ...उस के नीचे बीसियों टिप्पणीयां ...मेरी भी इच्छा हुई कि एक ईमानदार सी टिप्पणी लिख दूं कि मेरे से पूरी पढ़ी ही नहीं गई....लेकिन हमेशा कि तरह ऐसा करने से रूक गया...

उस दिन एक साथी ने एक बुज़ुर्ग के किसी पंजाबी गीत पर मस्त हो कर झूमने की वीडियो शेयर की...उस बाबे की मस्ती देख कर मन मस्त हो गया और कमैंट कर दिया कि यह तो भई मैं ही हूं आज से २० साल बाद ....कल उसने फिर एक वीडियो शेयर की जिस पर उसने कमैंट लिखा कि मैं भी ऐसा ही कभी जीवन जीना चाहूंगा...उस पर भी मैं कुछ ऐसा लिखना चाहता था जिसे पढ़ कर हंसते हुए पेट में बल पड़ जाते ... और अगर वह मेरे सामने होता तो उसे दो चार धफ्फे मार के अपनी बात कह लेता...ठहाकों ठहाकों में ..मसखरे मौलिये की तरह !

मैंने उस पर चार पांच कमैंट तो किये....लेकिन मुझे पता है कि वे मेरे मन के भाव नहीं प्रगट कर पा रहे थे क्योंकि मैं दिल खोल कर लिखने से डर रहा था ...नहीं लिख पाया जो मैं लिखना चाहता था... दरअसल सोशल मीडिया आमने सामने वार्तालाप करने की जगह कभी भी नहीं लेगा..

जब हम लोग एक दूसरे के सामने बैठ कर गप्पबाज़ी करते हैं ...बिना किसी कारण से ...तो उस दौरान जो आदान-प्रदान होता है वह बेजोड़ होता है ...उस का कोई सानी नहीं...नाराज़गी, खुशी, मनमुटाव का तुरंत हिसाब किताब...पीठ पर धफ्फा मार के, ठहाके मार के, या छोटी मोटी गाली निकाल के ...

और कोई बुरा भी नहीं मनाता ....और जो बुरा मनाने वाला होता है ...वह अपने आप इस टोली से किनारे कर लेता है ...

लेकिन सोशल मीडिया में ऐसा नहीं है ...बहुत बार लगता है कि मैं अपना समय ही बरबाद करता हूं वहां पर .. वैसे तो मैं ज़्यादा समझ किसी वाद-विवाद में उलझता ही नहीं......मेरे में कभी इतनी शक्ति थी ही नहीं कि मैं किसी धर्म, नस्ल या जातिवाद किसी अन्य लफड़े में पड़ूं...न ही रूचि रही कभी ऐसी ( Of course, I do have my own strong personal views, which i prefer to keep to myself or my immediate family!!) ....  फिर भी जब हम लोग आमने सामने होते हैं तो बहुत से बातें कर लेते हैं जिन्हें लिखने में झिझक होती है ...शायद झिझक तो मेरे जैसे बंदे को क्या होनी है, डर को ही मैं झिझक कह रहा हूंगा.. 

आपसी वार्तालाप से हल्केपन का अहसास होता है ....सोशल मीडिया पर इंटलेक्चूएल बने रहने से बोझ बढ़ता है ... ऐसा कैसे हो सकता है कि आप जो कमैंट करें वह पॉलिटिक्ली भी सही है ...किसी को बुरा भी न लगे...सब को अच्छा लगे ..आप की छवि भी चमके....भई, ऐसा काम तो फिर पालिटिक्स वाले ही कर सकते हैं...

इतना घुमा फिरा कर क्यों लिख रहा हूं?.....बात सिर्फ़ इतनी है कि मैं सोशल मीडिया पर अपने आप को पूरी तरह से एक्सप्रेस नहीं कर पाता हूं....किसी की आलोचना नहीं कर पाता ..किसी को बुरा लगेगा...कईं बार चुप्पी साधना भी किसी बात को स्वीकार करने जैसा ही होता है .....

बहुत बार होता है कि कुछ कहने की इच्छा होती है ....लेकिन बीसियों कारणों की वजह से उंगलियों पर ताला लगाना पड़ता है कि बात का बतगंड़ न बन जाए कहीं....ये तो कुछ भी टाइप कर के छूट जायेंगी लेकिन खामियाजा तो मुझे ही भुगतना पड़ेगा.....

ब्लॉग पर अपने आप को एक्सप्रेस करना ज़्यादा आसान है ....लेकिन वहां भी मेरे से कमी तो रह ही जाती है ....मैं उन सब महान लेखकों की कल्पना करते हुए उन के चरणों में नतमस्तक हूं जो बेबाकी से सब कुछ लिख कर छुट्टी करते हैं...स्वयंं भी छूट जाते हैं ... और पाठकों को भी अभिव्यक्ति की आज़ादी का थोड़ा मज़ा चखा जाते हैं....लेकिन उस के लिए बड़ी हिम्मत चाहिए होती है ....

बस, इस पोस्ट में कुछ कहने को और है नहीं, अपने आप से यही कह रहा हूं कि मन को खोल लिया करो भाई ...कुछ नहीं होगा...इन सब वाट्सएप कंटैक्ट्स और फेसबुकिया मित्रों से क्या पता कभी ज़िंदगी में मिलना भी है कि नहीं, लेकिन यह जो मन की बातें मन में ही दबी रख के (कि किसी को बुरा नहीं लगे) खुल के अपनी बात न कह पाना भी अपनी सेहत के लिए भी हानिकारक है ....जैसे दंगल फिल्म में बच्चियां अपने बापू को सेहत के लिए हानिकारक कहती हैं... 😀😀😀

लेकिन मुझे नहीं लगता कि मैं खुलेपन से सोशल मीडिया पर कभी टहल पाऊंगा....दरअसल कभी किसी को कोई बात बुरी लग जाती है तो आदमी बेकार की बहसबाजी में पड़ जाता है ....and i just hate that! 


बुधवार, 21 जून 2017

जिह्वा के ज़ख्म को नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते ...

यह तस्वीर एक ५५-५८ साल के एक बंदे की है ..इस तस्वीर में आप इस की जुबान की दाईं तरफ़ एक ज़ख्म देख सकते हैं...
एक महीना पहले यह मरीज़ अस्पताल में दाखिल है...और फिज़िशियन ने इसी जुबान के अल्सर की वजह से मुझे रेफर किया था...


मुझे देखते ही यह ज़ख्म कुछ अलग सा लगा था.. वैसा नहीं लगा जैसा किसी दांत आदि के चुभने से हो जाता है ...लेकिन इस बंदे की हिस्ट्री थोड़ा अलग सी थी..बता रहा था कि कभी हो जाता है, फिर कभी ठीक भी हो जाता है ...इसे विश्वास था कि यह कुछ दिनों में ठीक हो जायेगा..

मैंने जब पूछा कि कोई दांत तो नहीं इस जगह पर गढ़ता...तो इन्होंने मना किया...

मैंने भी किसी डेंटल कॉलेज के किसी विशेषज्ञ से राय लेना मुनासिब समझा...

वह जाने को राजी नहीं था...बड़ी मुश्किल से समझाया कि चेक-अप बहुत ज़रूरी है .. अगर कोई छोटा मोटा नुक्स है तो जल्दी इलाज हो जायेगा...

अगले दिन मैंने फोन किया कि दिखा कर आए...लेकिन बंदा नाराज़ था कि वहां तो पचास सीखने वाले डाक्टरों ने उसे घेर लिया...और मुझे कहने लगा कि मैं वहां नहीं जाऊंगा..

इस का हठ देख कर मैंने भी कहा कि अच्छा, एक काम करो, आप इसे मुझे पंद्रह दिन के बाद फिर एक बार दिखा कर जाइए...तब तक मैंने इन्हें एक माउथवॉश इस्तेमाल करने के लिए और एक जेल इस ज़ख्म पर लगाने के लिए दे दी ...
कुछ दिन मैं नहीं था ...बाहर था ...

आज सुबह ध्यान आया कि बंदे का पता किया जाए...फोन पर बड़ी खुशी से बताने लगे कि वह ज़ख्म बिल्कुल ठीक है ...मुझे भी खुशी हुई... मैंने कहा कि मुझे दिखा कर जाइए...


कुछ ही समय बाद वह मुझे दिखाने आ गए....आप इस तस्वीर में देख सकते हैं कि ज़ख्म पूरी तरह से ठीक हो चुका है ...
मैं थोड़ा हैरान था कि इस तरह का अल्सर जुबान पर हुआ और अपने आप ठीक भी हो गया..

फिर इस बंदे ने मुझे बताया कि डाक्टर साहब आप के मिलने के बाद मुझे लगा कि मेरा एक पीछे वाला हिलता हुआ दांत कभी कभी जुबान के इस हिस्से में गढ़ता था...आप तो बाहर गये हुए थे ...बताने लगा कि मैंने एक दिन दो पैग मार के उस दांत को हिला हिला के उखाड़ दिया ... और हंसने लगा ...

मैंने समझाया कि ऐसा करना कईं बार महंगा भी पड़ जाता है ...खतरनाक काम है!

बहरहाल, उसने बताया कि उस के तीन चार दिन के बाद ही यह ज़ख्म ठीक हो गया....दवाई मैं लगाता भी रहा और कुल्ले भी करता रहा ..

मैंने कहा कि यह तो चलो बहुत बढ़िया है लेकिन फिर भी तंबाकू का बिल्कुल भी इस्तेमाल मत करें....यह जो मुंह के किनारे इस तरह से होंठ फटे हुए हैं...एक तरह से यह भी एक खतरे की घंटी है आने वाले समय के लिए..विशेषकर अगर तंबाकू का इस्तेमाल बंद नहीं किया गया तो ..

डाक्टर के पास जाने के भी आदाब हुआ करते हैं...

मुझे निदा फ़ाज़ली साहब के ये अल्फ़ाज़ अकसर याद आते हैं...

बाग़ में जाने के आदाब हुआ करते हैं
किसी तितली को न फूलों से उड़ाया जाए...
(आदाब- शिष्टाचार) 

इसी तरह से जब हम लोग किसी डाक्टर के पास जाते हैं तो वहां पर भी जाने के आदाब हुआ करते हैं...कम से कम इतना शिष्टाचार तो होना ही चाहिए कि अपने मोबाइल फोन को पैंट की जेब में या महिलाएं अपने हैंड-बैग में डाल लें...यह बहुत ज़रूरी है ...

मैं सब जानता हूं कि बिना मोबाइल हाथ में लिेए भी किसी भी बातें ...कुछ भी रिकार्ड करने की तकनीक है...सब कुछ चल रहा है..लेकिन कुछ जगहों पर हमें विशेष एहतियात बरतनी चाहिए। और डाक्टर का क्लिनिक एक ऐसी जगह है जहां पर आप को अपने मोबाइल को पतलून की जेब में ही ठूंसे रखना चाहिए..

एक बात मैंने अनुभव की है कि जब हम लोग किसी प्राईव्हेट डाक्टर के पास जाते हैं ..हमारी जान निकली होती है ...कुछ तो ताम-झाम ही कईं बार ऐसा मिलता है और कुछ डराने वाली चुप्पी हर तरफ़ ऐसी पसरी होती है कि आप हिम्मत ही नहीं कर पाते कि अपने मोबाइल पर लगे रहें...आप उसे अकसर हाथ में भी नहीं रखते इन जगहों पर ...यह मेरा व्यक्तिगत अनुभव हो सकता है...समय बदल रहा है, आप का क्या अनुभव है, आप जानें।

फिर आते हैं..सरकारी डाक्टर ...मैंने ऐसा सुना है कि जो सरकारी डाक्टर अपनी नौकरी के साथ साथ प्राईव्हेट प्रैक्टिस भी करते हैं...उन का भी मरीज़ों की नज़रों में बड़ा दबदबा होता है ...सच में उन से बात करने में भी डरते हैं...होता है...ज़रूर होता है...

लेकिन देखने में आया है कि जो सरकारी डाक्टर थोड़ा ढंग से बात कर लेते हैं तो मरीज़ और उस के अभिभावक भी तरह तरह की लिबर्टी लेना शुरू कर देते हैं...बहुत सी बातों का कोई असर नहीं पड़ता ...घिसते घिसते बहुत सी बातों को नज़रअंदाज़ करना हम सीख लेते हैं..लेकिन कमबख्त एक बात जो सब से ज़्यादा अखरती है कि हमारे चेंबर में मरीज़ हम से बात करते करते अपने मोबाईल पर किसी से बात करने लगे ....फिर किसी और का फोन आए ... फिर उस से गुफ्तगू चलने लगे ...यकीन मानिए किसी भी डाक्टर के लिए यह बड़ा ईरीटेटिंग बात है ....बहुत गुस्सा आता है... बातचीत का लिंक टूट जाता है ...

लेकिन इस से भी इरीटेटिंग बात यह है कि मरीज़ का तो काम चल रहा है और उस के साथ आया उस का फैमिली मैंबर उधऱ पास ही निरंतर फोन पर लगा हुआ है ...वह भी सहना पड़ता है ... विशेषकर सरकारी सेट-अप में ... और मुझे विश्वास है कि प्राईव्हेट प्रैक्टिस में मरीज़ ऐसा नहीं करते ...लेकिन सब से ज़्यादा गुस्सा तब आता है जब उन के साथ आया हुआ उस मरीज़ का बेटा या बेटी अपने फ़ोन पर तो निरंतर लगा ही हुआ है ... और अचानक मरीज़ का कुछ प्रोसिज़र करते हुए जब आप पीछे मुड़ के देखते हैं तो पाते हैं कि उसने तो फोन फोटो खींचने या वीडियो बनाने के लहज़े में पकड़ा हुआ है ...

तब भी अकसर हम से कुछ कहते नहीं बनता......लेकिन मेरी इतनी बात पर यकीं करिए कि बहुत बार इस तरह की इरीटेटिंग बातों से मरीज़ की ट्रीटमैंट प्लानिंग में थोड़ा बदलाव ज़रूर आ जाता है ...यकीनन.... नहीं, नहीं, मरीज़ का कुछ नुकसान तो नहीं होता ... बस, कहीं न कहीं कुछ कमी तो रह ही जाती है जब किसी डाक्टर को लगे कि कोई आप के पीछे बैठा आप का वीडियो बना रहा है ...

बच्चे छोटे हों या बड़ें....आज कल इन को मेनेज करना भी टेढ़ी खीर है ....लेकिन जहां तक हो सके हम बच्चों को कुछ जगहों पर जैसे किसी डाक्टर के पास जाने के क्या एटीकेट्स हैं, सिखा ही दें तो बेहतर होगा .. एक बात और भी है कि मोबाइल के अलावा भी बातचीत में भी ठहराव होना चाहिए....वह तो हर जगह ही ज़रूरी है ...The other day i was just contemplating that the difference between confidence, over-confidence and arrogance is very subtle, but this Life teaches us everything.

एक छोटा सा संकेत दे रहा हूं जाते जाते कि डाक्टर के पास जब आप बैठे हों या आप का कोई सगा-संबंधी बैठा हो तो यही समझिए कि आप किसी कोर्ट में किसी जज के सामने बैठे हैं...आप की बहुत सी बातें नोटिस की जा रही हैं....समझदार को इशारा ही काफ़ी होता है ...

सब समझते हैं कि हर जगह हर क्षेत्र में बाज़ारवाद है ....कोई अनाड़ी नहीं है .....लेकिन फिर भी डाक्टर, वकील, उस्ताद...को अपनी ऊल-जलूल हरकतों से इरीटेट मत करिए.....इसी में ही मरीज़, मुवक्किल एवं चेले-चपाटे की बेहतरी होती है।