आज इस शीर्षक के साथ हिन्दुस्तान में एक लेख प्रकाशित हुआ है ....साथ में महाराजा रंजीत सिंह की फोटो थी...उस लेख को जब पढ़ा तो बड़े रोचक तथ्यों का पता चला...जिन्हें यहां शेयर कर रहा हूं...
कोहिनूर के सभी स्वामियों की तुलना में इसका सबसे ज्यादा महाराजा इस्तेमाल रणजीत सिंह ने किया। कोहिनूर से उन्हें जुनून की हद तक मोहब्बत थी, और हर सार्वजनिक मौके पर वह उसे जरूर पहनते थे।
उन्हीं के शासनकाल में पहली बार कोहिनूर ने अपनी अलग पहचान बनाई जो अब तक बरकरार है। नादिर शाह और दुर्रानी के वंशजों ने इसे हमेशा किसी दूसरे कीमती पत्थर, मुगलों ने इसे खास तैमूरी माणिक्य के साथ पहना, नादिर शाह ने जिसे एजुल हूर और दुर्रानियों ने फखराज कहा था। पर अब कोहिनूर अकेले रणजीत सिंह के गले की शोभा बनकर उनके संघर्षों और आजादी के लिए लड़े गए मुश्किल युद्धों का प्रतीक बन चुका था।
दुर्रानी वंश के इस हीरे को हासिल करने को रणजीत सिंह ने अपनी सफलता के चरमोत्कर्ष का प्रतीक चिन्ह मान लिया था। दरअसल वह कोहिनूर को एक ऐसी मोहर मानते थे, जो यह साबित करती कि लड़खड़ाते दुर्रानी वंश के खात्मे का सारा श्रेय उन्हीं को जाता है। शायद यह एक बड़ी वजह रही होगी जिसने महाराजा रणजीत सिंह को हर मौके पर कोहिनूर पहनने की प्रेरणा दी।
जब रणजीत सिंह ने वर्ष 1813 में इस महान हीरे को हासिल किया, तो उन्हें शक था कि शाह शुजा उन्हें बेवकूफ़ भी बना सकता है। यही वजह थी कि उन्होंने तुरंत लाहौर के सारे बड़े जौहरियों को बुलाया और हीरे की प्रामाणिकता की जांच करने का आदेश दिया। उन्हें तब बड़ी राहत मिली और थोड़ी सी हैरानी भी हुई. जब सभी ने इसे खालिस खरा और बेशकीमती करार दिया।
एक पुराने दरबारी ने बाद में इस घटना को याद करते हुए लिखा है - महाराज जब महल लौटे तो उन्होंने दरबार बुलाया। कोहिनूर हीरे का प्रदर्शन किया गया और वहां मौजूद सभी सरदारों, मंत्रियों और विशिष्ट लोगों को इसे देखने का मौका दिया गया। सभी ने बार-बार महाराजा को इस अमूल्य रत्न के हासिल होने पर बधाई दी।
अगले दो दिनों तक रणजीत सिंह ने लाहौर के जौहरियों से इसकी प्रामाणिकता की जांच करवाई।
इसके बाद जब महाराजा इस बात से पूरी तरह से संतुष्ट हो गए कि जो हीरा उनके पास है वह असली कोहिनूर है तो उन्होंने शाह शुजा को सवा लाख रूपए दान में भिजवा दिए। महाराज इसके बाद अमृतसर गये और तुरंत ही अमृतसर के मुख्य जौहरियों को बुलवा भेजा, जिससे यह पता लग सके कि लाहौर के जौहरियों ने कोई गलती तो नहीं की और इस हीरे का असली मूल्य क्या है। उन जौहरियों ने कोहिनूर की ठीक से जांच की और जवाब दिया कि इस बड़े आकार के बेहद खूबसूरत हीरे की कीमत के आगे हर आंकडा़ बौना है। महाराज चाहते थे कि हीरे को कुछ इस शानदार अंदाज और तरतीब से रखा जाए जिसे दुनिया सराहे। वह हीरे को अपनी आंखों से दूर नहीं होने देना चाहते थे। यही वजह थी कि यह काम भी जौहरियों को महाराज की मौजूदगी मे ंही करना पड़ा।
यह काम पूरा हुआ, रणजीत सिंह ने कोहिनूर को अपनी पगड़ी के सामने की तरफ़ लगवाया, हाथी पर सवार हुए और अपने सरदारों ओर सहायकों के साथ शहर के मुख्य मार्ग पर कईं बार-बार आए-गए। कोहिनूर को रणजीत सिहं हर दीवाली, दशहरा और त्योहारों पर बाजूबंद की तरह पहनते थे। उसे हर उस खास व्यक्ति को दिखाया जाता जो दरबार आता था, खासकर दरबार आने वाले हर ब्रिटिश अफसर को। महाराज रणजीत सिंह जब भी मुलतान, पेशावर या किसी जगह दौरे पर जाते, वह अपने साथ कोहिनूर को ले जाते थे।
इसके थोड़े ही दिन बाद महाराजा ने हीरे की कीमत जानने के लिए हीरे के पुराने स्वामियों और उनके परिवारों से दोबारा संपर्क करना शुरू कर दिया। वफा बेगम ने उन्हें बताया - 'अगर कोई बेहद ताकतवर व्यक्ति एक पत्थर को चारों दिशाओं में फेंके और पांचवा पत्थर हवा मे ऊपर की ओर उछाल दिया जाए तो इन सारे पत्थरों के बीच भरे गये सोने-चांदी और जवाहरात का कुल मूल्य भी कोहिनूर की बराबरी नहीं कर सकेगा।'
महाराजा को पूरे जीवन इस बात की चिंता रही कि उनका यह बेशकीमती पत्थर कोई चुरा न ले।
जब रणजीत सिंह इस हीरे को नहीं पहनते तो उसे गोबिंदगढ़ के अभेद्य किले के राजकोष में बहुत ही तगड़ी सुरक्षा के बीच रखा जता। महाराजा ने बहुत से राज्यों की यात्रा की थी और हर जगह इसे लेकर भी गए थे।
कोहेनूर का वह रखवाला
महाराजा के अलावा मिश्र बेली राम ही पूरे राज्य में वह दूसरा व्यक्ति था, जिसे कोहेनूर के प्रबंधन के सर्वाधिकार मिले थे। मिश्र बेली राम हमेशा कोहिनूर के मोती जड़े हुए शानदार डिब्बे को अपने हाथों मे ही रखता था। जब महाराज अपने कामकाज या किसी और वजह से राजमहल से दूर होते तो बेली राम ही महाराजा की शानदार और संवेदनशील अमानत का ख्याल रखता .. बेली राम इस दौरान कोहिनूर को एक साधारण से दिखने वाले डिब्बे में रखता था .. इसके साथ ही ठीक वैसे ही डिब्बों में कोहिनूर के शीशे के दो प्रतिरूप भी रखे जाते थे। अगर महाराज का शाही लश्कर कहीं रात्रि प्रवास करता तो तीने बक्से बेली राम के पलंग से जंजीर के जरिए बांधे जाते।
यात्रा के दौरान भी उन्होंने इसकी सुरक्षा व्यवस्था के लिए कई नायाब तरकीबें ईजाद की थीं। यात्रा के दौरान चालीस ऊंट और उन पर एकदम एक तरह के बक्से रखवाए जाते थे। किसी को नहीं पता होता था कि असली कोहिनूर किस बक्से में रखा गया है। यह बात और थी कि आमतौर पर हर समय सुरक्षाकर्मियों के ठीक पीछे वाले यानी पहले ही बक्से में कोहिनूर रखा जाता था, पर इस बात की सख्त गोपनीयता बरती जाती कि कोहिनूर का असली बक्सा किसी को न पता चले।
महाराजा को पहनने या यात्रा में न होने की दशा में कोहिनूर को गोबिंदगढ़ के तोशाखाने में कड़ी सुरक्षा के बीच रखा जाता था। कश्मीर से लेकर पंजाब तक महाराजा रंजीत सिंह के राज्य में करीब एक करोड़ तीस लाख लोग रहते थे और वह अपनी प्रजा के बीच बहुत ही लोकप्रिय थे।
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लेख थोड़ा आधा अधूरा सा इसलिए लगा कि आप कोहिनूर जैसे हीरे के बारे में रविवारीय अंक में लिख रहे हैं तो कुछ तो इस के बारे में भी लिखिए कि यह हीरा फिरंगियों तक कब और कैसे पहुंचा ...और आज यह किस के सिर का ताज है...और पीछे कुछ चर्चा हो रही थी ...पता नहीं राजनीति थी कि असलियत थी कि कोहेनूर को वापिस लाने की भी कुछ तिकड़म चल रही है...क्या पता कभी हमारी यह भी हसरत पूरी हो जाए....तब तक अच्छे दिनों से ही काम चला लीजिए।
वैसे हर बंदे की हर दौर की अपनी अपनी सिरदर्दीयां हैं ... मुझे सुबह से यही लग रहा है..
आप इसे देख सकते हैं... Kohinoor Diamond of India
अभी कोहिनूर के नाम से गूगल कर रहा था को १९६० की कोहिनूर हिंदी फिल्म का यह गीत यू-ट्यूब पर दिख गया ...सुनिए अगर पुराने हिंदी फिल्मी गीत आप की पसंद में शुमार हैं...
कोहिनूर के सभी स्वामियों की तुलना में इसका सबसे ज्यादा महाराजा इस्तेमाल रणजीत सिंह ने किया। कोहिनूर से उन्हें जुनून की हद तक मोहब्बत थी, और हर सार्वजनिक मौके पर वह उसे जरूर पहनते थे।
उन्हीं के शासनकाल में पहली बार कोहिनूर ने अपनी अलग पहचान बनाई जो अब तक बरकरार है। नादिर शाह और दुर्रानी के वंशजों ने इसे हमेशा किसी दूसरे कीमती पत्थर, मुगलों ने इसे खास तैमूरी माणिक्य के साथ पहना, नादिर शाह ने जिसे एजुल हूर और दुर्रानियों ने फखराज कहा था। पर अब कोहिनूर अकेले रणजीत सिंह के गले की शोभा बनकर उनके संघर्षों और आजादी के लिए लड़े गए मुश्किल युद्धों का प्रतीक बन चुका था।
दुर्रानी वंश के इस हीरे को हासिल करने को रणजीत सिंह ने अपनी सफलता के चरमोत्कर्ष का प्रतीक चिन्ह मान लिया था। दरअसल वह कोहिनूर को एक ऐसी मोहर मानते थे, जो यह साबित करती कि लड़खड़ाते दुर्रानी वंश के खात्मे का सारा श्रेय उन्हीं को जाता है। शायद यह एक बड़ी वजह रही होगी जिसने महाराजा रणजीत सिंह को हर मौके पर कोहिनूर पहनने की प्रेरणा दी।
जब रणजीत सिंह ने वर्ष 1813 में इस महान हीरे को हासिल किया, तो उन्हें शक था कि शाह शुजा उन्हें बेवकूफ़ भी बना सकता है। यही वजह थी कि उन्होंने तुरंत लाहौर के सारे बड़े जौहरियों को बुलाया और हीरे की प्रामाणिकता की जांच करने का आदेश दिया। उन्हें तब बड़ी राहत मिली और थोड़ी सी हैरानी भी हुई. जब सभी ने इसे खालिस खरा और बेशकीमती करार दिया।
एक पुराने दरबारी ने बाद में इस घटना को याद करते हुए लिखा है - महाराज जब महल लौटे तो उन्होंने दरबार बुलाया। कोहिनूर हीरे का प्रदर्शन किया गया और वहां मौजूद सभी सरदारों, मंत्रियों और विशिष्ट लोगों को इसे देखने का मौका दिया गया। सभी ने बार-बार महाराजा को इस अमूल्य रत्न के हासिल होने पर बधाई दी।
अगले दो दिनों तक रणजीत सिंह ने लाहौर के जौहरियों से इसकी प्रामाणिकता की जांच करवाई।
इसके बाद जब महाराजा इस बात से पूरी तरह से संतुष्ट हो गए कि जो हीरा उनके पास है वह असली कोहिनूर है तो उन्होंने शाह शुजा को सवा लाख रूपए दान में भिजवा दिए। महाराज इसके बाद अमृतसर गये और तुरंत ही अमृतसर के मुख्य जौहरियों को बुलवा भेजा, जिससे यह पता लग सके कि लाहौर के जौहरियों ने कोई गलती तो नहीं की और इस हीरे का असली मूल्य क्या है। उन जौहरियों ने कोहिनूर की ठीक से जांच की और जवाब दिया कि इस बड़े आकार के बेहद खूबसूरत हीरे की कीमत के आगे हर आंकडा़ बौना है। महाराज चाहते थे कि हीरे को कुछ इस शानदार अंदाज और तरतीब से रखा जाए जिसे दुनिया सराहे। वह हीरे को अपनी आंखों से दूर नहीं होने देना चाहते थे। यही वजह थी कि यह काम भी जौहरियों को महाराज की मौजूदगी मे ंही करना पड़ा।
यह काम पूरा हुआ, रणजीत सिंह ने कोहिनूर को अपनी पगड़ी के सामने की तरफ़ लगवाया, हाथी पर सवार हुए और अपने सरदारों ओर सहायकों के साथ शहर के मुख्य मार्ग पर कईं बार-बार आए-गए। कोहिनूर को रणजीत सिहं हर दीवाली, दशहरा और त्योहारों पर बाजूबंद की तरह पहनते थे। उसे हर उस खास व्यक्ति को दिखाया जाता जो दरबार आता था, खासकर दरबार आने वाले हर ब्रिटिश अफसर को। महाराज रणजीत सिंह जब भी मुलतान, पेशावर या किसी जगह दौरे पर जाते, वह अपने साथ कोहिनूर को ले जाते थे।
इसके थोड़े ही दिन बाद महाराजा ने हीरे की कीमत जानने के लिए हीरे के पुराने स्वामियों और उनके परिवारों से दोबारा संपर्क करना शुरू कर दिया। वफा बेगम ने उन्हें बताया - 'अगर कोई बेहद ताकतवर व्यक्ति एक पत्थर को चारों दिशाओं में फेंके और पांचवा पत्थर हवा मे ऊपर की ओर उछाल दिया जाए तो इन सारे पत्थरों के बीच भरे गये सोने-चांदी और जवाहरात का कुल मूल्य भी कोहिनूर की बराबरी नहीं कर सकेगा।'
महाराजा को पूरे जीवन इस बात की चिंता रही कि उनका यह बेशकीमती पत्थर कोई चुरा न ले।
जब रणजीत सिंह इस हीरे को नहीं पहनते तो उसे गोबिंदगढ़ के अभेद्य किले के राजकोष में बहुत ही तगड़ी सुरक्षा के बीच रखा जता। महाराजा ने बहुत से राज्यों की यात्रा की थी और हर जगह इसे लेकर भी गए थे।
कोहेनूर का वह रखवाला
महाराजा के अलावा मिश्र बेली राम ही पूरे राज्य में वह दूसरा व्यक्ति था, जिसे कोहेनूर के प्रबंधन के सर्वाधिकार मिले थे। मिश्र बेली राम हमेशा कोहिनूर के मोती जड़े हुए शानदार डिब्बे को अपने हाथों मे ही रखता था। जब महाराज अपने कामकाज या किसी और वजह से राजमहल से दूर होते तो बेली राम ही महाराजा की शानदार और संवेदनशील अमानत का ख्याल रखता .. बेली राम इस दौरान कोहिनूर को एक साधारण से दिखने वाले डिब्बे में रखता था .. इसके साथ ही ठीक वैसे ही डिब्बों में कोहिनूर के शीशे के दो प्रतिरूप भी रखे जाते थे। अगर महाराज का शाही लश्कर कहीं रात्रि प्रवास करता तो तीने बक्से बेली राम के पलंग से जंजीर के जरिए बांधे जाते।
यात्रा के दौरान भी उन्होंने इसकी सुरक्षा व्यवस्था के लिए कई नायाब तरकीबें ईजाद की थीं। यात्रा के दौरान चालीस ऊंट और उन पर एकदम एक तरह के बक्से रखवाए जाते थे। किसी को नहीं पता होता था कि असली कोहिनूर किस बक्से में रखा गया है। यह बात और थी कि आमतौर पर हर समय सुरक्षाकर्मियों के ठीक पीछे वाले यानी पहले ही बक्से में कोहिनूर रखा जाता था, पर इस बात की सख्त गोपनीयता बरती जाती कि कोहिनूर का असली बक्सा किसी को न पता चले।
महाराजा को पहनने या यात्रा में न होने की दशा में कोहिनूर को गोबिंदगढ़ के तोशाखाने में कड़ी सुरक्षा के बीच रखा जाता था। कश्मीर से लेकर पंजाब तक महाराजा रंजीत सिंह के राज्य में करीब एक करोड़ तीस लाख लोग रहते थे और वह अपनी प्रजा के बीच बहुत ही लोकप्रिय थे।
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लेख थोड़ा आधा अधूरा सा इसलिए लगा कि आप कोहिनूर जैसे हीरे के बारे में रविवारीय अंक में लिख रहे हैं तो कुछ तो इस के बारे में भी लिखिए कि यह हीरा फिरंगियों तक कब और कैसे पहुंचा ...और आज यह किस के सिर का ताज है...और पीछे कुछ चर्चा हो रही थी ...पता नहीं राजनीति थी कि असलियत थी कि कोहेनूर को वापिस लाने की भी कुछ तिकड़म चल रही है...क्या पता कभी हमारी यह भी हसरत पूरी हो जाए....तब तक अच्छे दिनों से ही काम चला लीजिए।
वैसे हर बंदे की हर दौर की अपनी अपनी सिरदर्दीयां हैं ... मुझे सुबह से यही लग रहा है..
आप इसे देख सकते हैं... Kohinoor Diamond of India
अभी कोहिनूर के नाम से गूगल कर रहा था को १९६० की कोहिनूर हिंदी फिल्म का यह गीत यू-ट्यूब पर दिख गया ...सुनिए अगर पुराने हिंदी फिल्मी गीत आप की पसंद में शुमार हैं...
क्या कोहिनूर कभी भारत वापिस लाया जा सकेगा।
जवाब देंहटाएंबडा पेचीदा मामला बना दिया गया है।
सही फरमाया आपने।
हटाएंIt was very useful for me. Keep sharing such ideas in the future as well. This was actually what I was looking for, and I am glad to came here! Thanks for sharing the such information with us.
जवाब देंहटाएंI am extremely impressed along with your writing abilities, Thanks for this great share.
जवाब देंहटाएंI don’t know how should I give you thanks! I am totally stunned by your article. You saved my time. Thanks a million for sharing this article.
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