गुरुवार, 1 सितंबर 2016

कहानी ... पहचान की चमक

"आप को शरीर में और कोई कष्ट तो नहीं?"..डाक्टर ने रामदीन से पूछा...

"नहीं, डाक्साब, और कुछ नहीं, बस यह खांसी जुकाम से ही परेशान हूं...कुछ अरसा पहले हम का बताये रहिन कि हम का शूगर है...लेकिन तब से हम ने बराबर परहेज करना शुरू कर दिया और सुबह शाम दो बार आधा आधा चम्मच अजवाईन, मेथी और काली जीरी का पावडर ले लेता हूं...ठीक रहता हूं"


"कभी आपने रक्त की जांच भी करवाई ...कितना अरसा पहले करवाई थी..."

"पर साल ...शायद...उस से भी पहले ...ही करवाये रहे..."

"नहीं, आप को ठीक भी लगे तो भी..परहेज भी करिए, और यह देसी पावडर भी खाते रहिए, इस का कोई नुकसान नहीं है, लेकिन इस के साथ साथ रक्त की जांच भी दो तीन महीने में एक बार तो शूगर के लिए करवा ही लिया कीजिए..."

"ठीक है, करवा लेंगे..."

इतना कहते कहते रामदीन ने अपने बैग से उस देशी पावडर को अपने बैग से निकाल लिया और हथेली पर थोड़ा उंडेल कर उसे दिखाते हुए उस के घटकों की मात्रा के बारे में बताने लगे....

डाक्साब ने कुछ सुना..कुछ अनसुना...उन का ध्यान तो कमरे के बाहर लगी मरीज़ों की भीड़ की आवाज़ों भी तरफ़ था...

"वैसे आप इस डिबिया को साथ ही लेकर चलते हैं" ...डाक्टर ने उत्सुकतावश पूछ ही लिया...

"हमारा कोउना ठिकाना नहीं, आज यहां, कल वहां...इसलिए इस डिबिया को, दांत कूचने के लिए ब्रुश-मंजन, एक जोड़ा कपड़े इस बैग में धरे रखता हूं...दरअसल डाक्दर बाबू, मैं एक वृद्ध आश्रम चलाता हूं और इस एनजीओ को रजिस्टर करवाया हुआ है..."

"आप वृद्ध आश्रम चलाते हैं, कहां, कितने लोग रहते हैं वहां?" ....डाक्टर ने तो जैसे प्रश्नो की झड़ी लगा डाली ...

रामदीन ने बताया ....." रिटायरमैंटी के बाद मैंने ८० हज़ार रूपये बिसवा के हिसाब से अढ़ाई बिसवा जमीन गांव में खरीद ली ..बाराबंकी के पास ही है ...चहारदीवारी करवा दी...बस, अपने हाथ से तीन चार हज़ार खर्च हो जाता है ...वहां पर दो लोग रखे हुए हैं जो अपनी सेवा के लिए पैसा नहीं लेते...

कहीं पर भी कोई बूढ़ा बुज़ुर्ग मिल जाता है ..अच्छे माथे वाला ...या कोई उलझन में बूढ़ा दिख जाता है मारा मारा फिरता तो उसे हम लोग उस आश्रम में ले आते हैं...वहां एक दो दिन रखते हैं...उस के घर फोन करते हैं कि आप का पिता हम लोगों के यहां हैं, ले जाइए...दो दिन के बाद पुलिसिया कार्रवाई करवा देंगे...."

"पुलिसिया कार्रवाई ?"... डाक्टर ने पूछा

"हां, हां, सुप्रीम कोर्ट ने कानून बनाया है कि बुजुर्गों को बच्चे ऐसा ठोकरें खाने के लिए नहीं छोड़ सकते, वरना कार्रवाई होगी और १० हज़ार रूपये का मासिक खर्चा-पानी देना होगा..."

"बस, इतना सुनते ही वे आकर बाप को लिवा ले जाते हैं...और हम लोग उस के परिवार वालों से एक एफीडेविट भी ले लेते हैं...यह कहते रामदीन के चेहरे पर खुशी साफ़ दिख रही थी."

"रामदीन, आप तो बहुत अच्छे काम का बीडा़ उठाए हो....बहुत अच्छे.."- यह कहते हुए डाक्टर ने उसे शाबाशी दी...

"साब, यह काम करने का मुझे ध्यान अपने बूढ़े बाप की हालत से आया...मेरा बाप मेरे भाई के पास रहता था, सारी ज़मीन जायदाद उस से लिखवा कर, उसे घर में ही बंद कर दिया...तिल तिल मरने के लिए....कईं महीने बीत गए...इस दौरान मैं जब भी बापू से मिलने जाऊं..हर बार यही जवाब मिले ...कि बापू तो वहां गये हैं....अब उधर गये हैं....एक बार मुझे शक हुआ...मैंने एक बंद कमरे को देखा तो भाई से पूछा कि यह बंद क्यों हैं.....कमरा खोला ...तो देखा मेरा बाप बुरी हालत में अंदर दुबका पड़ा था, मुझे देखते ही उसने मुझे अपनी कमज़ोर बांहों में कस लिया....मेरा मुंह चूमा....मैंने पूछा ..बाबा, कुछ खाओगे, ..कहने लगा ..हां, बेटा, बर्फी खाऊंगा..... मैंने तुरंत किसी बच्चे को बाज़ार भिजवा कर बर्फी मंगवाई....डाक्साब, बापू ने बर्फी का एक टुकड़ा खाया, पानी का एक गिलास पिया और वहीं मेरी बांहों में ही लुढ़क गया......चल बसा बेचारा, जैसे मेरी ही बाट जोह रहा था.......बहुत से बुज़ुर्गों को इसी तरह से तिल तिल मरने पर मजबूर किया जाता है ...पहले उन से सब कुछ हथिया लिया जाता है ...बस, फिर ठोकर मार दी जाती है.."

 "उस दिन से मैंने यह सोच लिया कि अब यही काम करूंगा ...बुज़ुर्गों के लिए कुछ करूंगा....और मैं इस काम में लग गया....चलता फिरता रहता हूं...ठहरने खाने की कोई चिंता नहीं, कहीं भी जैसा भी रहने खाने को मिल जाता है....मैं खुश हूं..परिवार है, बच्चे हैं, अपना गुज़ारा कर लेते हैं... बीवी से मेरी पटड़ी सारी उम्र नहीं खाई. उस की सोच अलग है, वह सोचती है कि कैसे किसी से कुछ मिल जाए...मैं सोचता हूं कैसे किसी को हम कुछ दे सकें...बस, ऐसे ही है ..."


डाक्टर ने उस के पारिवारिक जीवन में झांकना मुनासिब न समझते हुए विषयांतर किया...."अच्छा, आप को इस एनजीओ चलाने के लिए कहीं से पैसा मिलता है...जैसे कोई सरकारी सहायता आदि?"

"नहीं, नहीं, बिल्कुल कोई पैसा नहीं मिलता ....हम सब लोग मिल कर इंतजाम कर लेते हैं...जिन बुज़ुर्गों को हम अपने यहां लाते हैं...उन्हें एक दो दिन का खाना हमारे सेवक अपने घर से ही खिला देते हैं...वह कोई दिक्कत नहीं है..."

पढ़े-लिखे शहरी लोग तो हर बात में नफ़ा-नुकसान का हिसाब लगा कर ही कुछ करते हैं.....डाक्टर साहब के दिल की बात उन की जुबां पर आ ही गई...."रामदीन, इस एनजीओ से आप को फिर मिलता क्या है?"

"डाक्साब, इलाके मेंं मेरी पूछ है....मेरा एन जी ओ रजिस्टर्ड है, किसी सिपाही दारोगा की इतनी हिम्मत नहीं कि मुझ से ऊंची आवाज में बात करे या मुझे छू भी सके....न ही कोई हम लोगों पर यह इल्जाम ही लगा सकता है कि हम ने किसी बुज़ुर्ग को किडनेप कर के अपने आश्रम में रखा है... एक पहचान है इस की वजह से मेरी " -अपने वृद्ध-आश्रम का विज़िटिंग कार्ड डाक्टर को दिखाते हुए रामदीन एक सांस में ही इतना सब कह गया...

डाक्टर ने उस कार्ड पर रामदीन अध्यक्ष लिखा देखा....फिर से रामदीन की तरफ़ देखा तो उसे रामदीन की आंखों में एक अजीब सी चमक दिखी .........पहचान की चमक!

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