आज फिर मैं रोड़-इंस्पैक्टरी करते हुए चारबाग स्टेशन के आगे से गुजर रहा था तो देखा कि एक युवक खड़ा था और एक अधेड़ उम्र का बंदा उस की पतलून की जिप से कुछ कर रहा था..तभी उस बंदे की औज़ारों की तरफ़ देखा तो पाया कि यह तो उस की ज़िप रिपेयर करने में लगा हुआ है..
ठीक है, खुली ज़िप भी जो बंद न हो या अटक जाए ..वह तो एक एमरजेंसी तो होती ही है..आज तक यही पता था कि जिप खराब होने पर पतलून को दर्जी के यहां ही देना होता है ..आज पहली बार पता चला कि यह काम एमरजेंसी में खड़े खड़े भी कुछ लोग कर देते हैं।
इन की फोटो खींचने का तो प्रश्न ही नहीं उठता था..वैसे मेरी जेब में आज कैमरा थी भी नहीं...जानबूझ कर मैं उसे घर पर ही छोड़ गया था...मैंने यही सोचा कि देखते हैं कौन सा पहाड़ टूट पड़ता है मोबाइल जेब में न रखने से..
दरअसल कल शाम जब मैं टहलने गया तो भी मैं सेलफोन घर पर ही छोड़ गया था...सच में बड़ा मज़ा आया...न बार बार की टुं टुं... न चूं चूं...ठंडी हवा का इतना लुत्फ़ आया कि मैं ब्यां नहीं कर सकता...कल दोपहर में खाना-छाछ-तरबूज सब कुछ इतना ठूंस लिया कि शाम होते होते सिर भारी होने लगा..इसलिए मैं निकल पड़ा टहलने खुली हवा में...तबीयत अच्छी हो गई...कुछ समय टहलने के बाद..उल्टी जैसा हुआ और हुई भी..उसके बाद तुरंत हल्कापन महसूस हो गया..
मैं आज सुबह की रोड़-इंस्पैक्टरी की बात कर रहा था.. उस जिप रिपेयर वाले से थोड़ा आगे चलने पर पाया कि कुछ लोग नीचे जमीन पर चौकड़ी लगा कर अपनी दाड़ी बनवा रहे हैं...दाड़ी बनाने वाला एक लकड़ी की चौकी पर बिराजमान था और उसने उतनी जगह पर एक छाता भी लगवा रखा था..
मैं यही सोचता हुआ जा रहा था कि ये सब कारीगर भी हमारी दिनचर्या का एक अभिन्न अंग हैं...आम आदमी की इन पर बहुत निर्भरता है ... इन सब लोगों का विकास भी कौशल विकास ही है ...थोड़े थोड़े पैसों में लोगों का काम हो जाता है ..और इन का जीविकोपार्जन।
थोड़ा आगे चलने पर मैंने नवभारत टाइम्स खरीदी..संडे के दिन मेरी कोशिश रहती है कि मैं इसे भी ज़रूर देख लूं..अभी मैं थोड़ा ही आगे गया था तो मैंने सुना डी जे का तेज़ म्यूज़िक चल रहा है...आगे देखा तो पता चला कि जैसे लोग कोई मूर्ति विसर्जन करने जा रहे हों...लेकिन ऐसा लगा तो नहीं...खूब तेज़ तेज़ म्यूज़िक चल रहा था...सब से आगे डी जे की वैन थी...फिर कुछ बच्चे और युवा साथ साथ नृत्य करने में मशरूफ थे... उस के पीछे एक खुले छोटे ट्रक में एक महिला को कुछ "पवन"जैसे आ रही थी...वह ज़ोर ज़ोर से अपनी सिर और बाजू हिलाए जा रहीं थीं..जो कि अधितकर डी जे गाने से मैच ही कर रही थी... कुछ समय के लिए लखबीर सिंह लक्खे का यह गीत बजा..एक दो मिनट के लिए...बाकी तो हनी सिंह के गीत ही बज रहे थे...
मुझे नहीं पता था, एक युवक ट्रक से हलवे-चने का प्रसाद लेकर आ रहा था और साथ में हंस हंस कर लोटपोट हुआ जा रहा था...उस ने ही किसी दूसरे बंदे को हंसते हुए कहा....(पूरा नहीं लिख पाऊंगा)... हनी सिंह का गीत लगा रखा है!
सब की अपनी अपनी आस्था है...मुझे तो बस इस बात की खुशी थी कि इसी बहाने लोग एक साथ मिल कर हंस-खेल रहे हैं..बाकी तो अपनी अपनी श्रद्धा की बातें हैं...उन में उलझ कर हम इन हल्के-फुल्के पलों का भी मज़ा किरकिरा कर लेते हैं..राहगीर एंज्वाय कर रहे थे, हल्वे-चने का प्रसाद का मजा ले रहे थे, यह अपने आप में बड़ी बात है।
ओह अम्मा यह क्या हुआ....अचानक एक अम्मा प्रसाद लेकर आई तो किसी दूसरे का हाथ लगा उस का दोना िगर गया...वह असमंजस में थी, मैंने तुरंत कहा ...आप फिर से लीजिए जाकर ...वह फुर्ती से पिछले ट्रक की तरफ़ गई और फिर से प्रसाद पा लिया....मुझे बड़ा इत्मीनान हुआ।
कुछ दिन पहले एक फेसबुक मित्र जो कि ब्राह्मण हैं उन्होंने एक पोस्ट लिखी फोटो सहित कि किसी के यहां तिलक पर गये हुए थे तो पंडित जी मंत्रोच्चारण के साथ साथ जैसे कि स्टेज-पर्फार्मैंस दे रहे हों, उन्होंने ऐसा अनुभव किया.. फोटो से भी ऐसा ही लग रहा था.. वैसे यह भी होना तो तय ही था जिस तरह से टीवी चैनलों पर कथा-वाचकों को भी बीच बीच में पर्फार्म करना पड़ता है...
पता नहीं आज वहां खड़े खड़े राधे मां और निर्मल बाबा जी की बहुत याद आई...वैसे मैंने आज सुबह ही पेपर में एक भजन संध्या के बारे में भी पढ़ा था जिस में कुछ लाइव-पर्फार्मैंस की बात की गई थी...
पता नहीं मैं भी क्यों आज लाइव-पर्फार्मैंस के पीछे हाथ धो कर क्यों पड़ गया हूं...हम सब भी सुबह से शाम क्या कर रहे हैं...नाटक ही तो करते हैं ...हा हा हा हा, कम से कम अपने बारे में तो मैं पूरे यकीं के साथ कह सकता हूं...और राज कपूर साहब ने तो चालीस-पचास साल पहले ही कह दिया था..दुनिया इक सर्कस है.....
ठीक है, खुली ज़िप भी जो बंद न हो या अटक जाए ..वह तो एक एमरजेंसी तो होती ही है..आज तक यही पता था कि जिप खराब होने पर पतलून को दर्जी के यहां ही देना होता है ..आज पहली बार पता चला कि यह काम एमरजेंसी में खड़े खड़े भी कुछ लोग कर देते हैं।
इन की फोटो खींचने का तो प्रश्न ही नहीं उठता था..वैसे मेरी जेब में आज कैमरा थी भी नहीं...जानबूझ कर मैं उसे घर पर ही छोड़ गया था...मैंने यही सोचा कि देखते हैं कौन सा पहाड़ टूट पड़ता है मोबाइल जेब में न रखने से..
दरअसल कल शाम जब मैं टहलने गया तो भी मैं सेलफोन घर पर ही छोड़ गया था...सच में बड़ा मज़ा आया...न बार बार की टुं टुं... न चूं चूं...ठंडी हवा का इतना लुत्फ़ आया कि मैं ब्यां नहीं कर सकता...कल दोपहर में खाना-छाछ-तरबूज सब कुछ इतना ठूंस लिया कि शाम होते होते सिर भारी होने लगा..इसलिए मैं निकल पड़ा टहलने खुली हवा में...तबीयत अच्छी हो गई...कुछ समय टहलने के बाद..उल्टी जैसा हुआ और हुई भी..उसके बाद तुरंत हल्कापन महसूस हो गया..
मैं आज सुबह की रोड़-इंस्पैक्टरी की बात कर रहा था.. उस जिप रिपेयर वाले से थोड़ा आगे चलने पर पाया कि कुछ लोग नीचे जमीन पर चौकड़ी लगा कर अपनी दाड़ी बनवा रहे हैं...दाड़ी बनाने वाला एक लकड़ी की चौकी पर बिराजमान था और उसने उतनी जगह पर एक छाता भी लगवा रखा था..
मैं यही सोचता हुआ जा रहा था कि ये सब कारीगर भी हमारी दिनचर्या का एक अभिन्न अंग हैं...आम आदमी की इन पर बहुत निर्भरता है ... इन सब लोगों का विकास भी कौशल विकास ही है ...थोड़े थोड़े पैसों में लोगों का काम हो जाता है ..और इन का जीविकोपार्जन।
थोड़ा आगे चलने पर मैंने नवभारत टाइम्स खरीदी..संडे के दिन मेरी कोशिश रहती है कि मैं इसे भी ज़रूर देख लूं..अभी मैं थोड़ा ही आगे गया था तो मैंने सुना डी जे का तेज़ म्यूज़िक चल रहा है...आगे देखा तो पता चला कि जैसे लोग कोई मूर्ति विसर्जन करने जा रहे हों...लेकिन ऐसा लगा तो नहीं...खूब तेज़ तेज़ म्यूज़िक चल रहा था...सब से आगे डी जे की वैन थी...फिर कुछ बच्चे और युवा साथ साथ नृत्य करने में मशरूफ थे... उस के पीछे एक खुले छोटे ट्रक में एक महिला को कुछ "पवन"जैसे आ रही थी...वह ज़ोर ज़ोर से अपनी सिर और बाजू हिलाए जा रहीं थीं..जो कि अधितकर डी जे गाने से मैच ही कर रही थी... कुछ समय के लिए लखबीर सिंह लक्खे का यह गीत बजा..एक दो मिनट के लिए...बाकी तो हनी सिंह के गीत ही बज रहे थे...
मुझे नहीं पता था, एक युवक ट्रक से हलवे-चने का प्रसाद लेकर आ रहा था और साथ में हंस हंस कर लोटपोट हुआ जा रहा था...उस ने ही किसी दूसरे बंदे को हंसते हुए कहा....(पूरा नहीं लिख पाऊंगा)... हनी सिंह का गीत लगा रखा है!
सब की अपनी अपनी आस्था है...मुझे तो बस इस बात की खुशी थी कि इसी बहाने लोग एक साथ मिल कर हंस-खेल रहे हैं..बाकी तो अपनी अपनी श्रद्धा की बातें हैं...उन में उलझ कर हम इन हल्के-फुल्के पलों का भी मज़ा किरकिरा कर लेते हैं..राहगीर एंज्वाय कर रहे थे, हल्वे-चने का प्रसाद का मजा ले रहे थे, यह अपने आप में बड़ी बात है।
ओह अम्मा यह क्या हुआ....अचानक एक अम्मा प्रसाद लेकर आई तो किसी दूसरे का हाथ लगा उस का दोना िगर गया...वह असमंजस में थी, मैंने तुरंत कहा ...आप फिर से लीजिए जाकर ...वह फुर्ती से पिछले ट्रक की तरफ़ गई और फिर से प्रसाद पा लिया....मुझे बड़ा इत्मीनान हुआ।
कुछ दिन पहले एक फेसबुक मित्र जो कि ब्राह्मण हैं उन्होंने एक पोस्ट लिखी फोटो सहित कि किसी के यहां तिलक पर गये हुए थे तो पंडित जी मंत्रोच्चारण के साथ साथ जैसे कि स्टेज-पर्फार्मैंस दे रहे हों, उन्होंने ऐसा अनुभव किया.. फोटो से भी ऐसा ही लग रहा था.. वैसे यह भी होना तो तय ही था जिस तरह से टीवी चैनलों पर कथा-वाचकों को भी बीच बीच में पर्फार्म करना पड़ता है...
पता नहीं आज वहां खड़े खड़े राधे मां और निर्मल बाबा जी की बहुत याद आई...वैसे मैंने आज सुबह ही पेपर में एक भजन संध्या के बारे में भी पढ़ा था जिस में कुछ लाइव-पर्फार्मैंस की बात की गई थी...
पता नहीं मैं भी क्यों आज लाइव-पर्फार्मैंस के पीछे हाथ धो कर क्यों पड़ गया हूं...हम सब भी सुबह से शाम क्या कर रहे हैं...नाटक ही तो करते हैं ...हा हा हा हा, कम से कम अपने बारे में तो मैं पूरे यकीं के साथ कह सकता हूं...और राज कपूर साहब ने तो चालीस-पचास साल पहले ही कह दिया था..दुनिया इक सर्कस है.....
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