बुधवार, 2 मार्च 2016

नकल का इलाज काश इतना आसान होता!

सुबह उठ कर रेडियोसिटी एफ एम ऑन किया तो यह बढ़िया सा गीत चल रहा था...यही बात तो मैंने सत्संग ही से समझी है और इसे पक्का करने ही तो वहां जाता हूं ...

"जिस को ढूंढे बाहर-बाहर... वो बैठा है भीतर छुप के 
तेरे अंदर एक समंदर, क्यों ढूंढे तुबके तुबके...
अकल के परदे पीछे कर दे, घूंघट के पट खोल..."


यह गाना बज ही रहा था कि आज के पेपर में एक तस्वीर पर नज़र पड़ गई...अंडरवियर पहन कर कुछ युवा जमीन पर बैठ कर कुछ लिख रहे थे..थोड़ा अजीब सा लगा ...लेकिन फिर ध्यान आया कि होगा, किसी पुलिस या फौज की भर्ती की शारीरिक दक्षता का टेस्ट चल रहा होगा...और नीचे बैठ कर कुछ नाम पता लिख रहे होंगे अपना..



लेकिन ऐसा नहीं था, जब पूरी खबर पढ़ी तो बहुत दुःख हुआ... इस तस्वीर में जो युवा आप को दिख रहे हैं वे फौज में भर्ती के लिए अपनी लिखित परीक्षा दे रहे हैं...

नकल रोकने के लिए यह कैसी व्यवस्था हो गई...कोई बात नहीं, मैंने तो खबर आप तक पहुंचानी थी, इस तरह से परीक्षा लेने वालों की अब क्लास लगेगी.....और ज़रूर लगनी भी चाहिए।


यह तो मैं नहीं कहूंगा कि यह मानव अधिकारों का हनन है ....शायद ऐसा लिखना एक एक्टिविस्ट की भाषा ज़्यादा लगती हो....लेकिन नामकरण आप कर लें, आराम से बैठ कर पेपर लिखने के एक अधिकार का हनन तो है ही यह।


इस के बाद इस पेपर के संपादकीय पर नज़र पड़ गई जिस में संपादक महोदय ने नकल का इलाज सुझाया है...इसे आप भी इस लिंक पर क्लिक कर के पढ़ सकते हैं...बात सही कही गई है।


कल परीक्षाएं शुरू हुई हैं ...स्कूलों विश्वविद्यालयों की ... आज की अखबार में छाई हुई हैं उन की खबरें.. एक झलक देखना चाहेंगे तो देखिए...



इस के बाद जैसे ही अंग्रेज़ी का पेपर उठाया, उस में भी पेपर देते वक्त जिस तरह से छात्रों को ज़मीन पर नीचे बैठे देखा ...दुःख हुआ...पहली तो बात यह कि शायद आज के युग में सभी लोग नीचे इतना समय बैठ ही नहीं पाते...सत्संग में मुझे एक डेढ़ घंटा बैठना पड़ता है तो मुझे नानी याद आ जाती है...मैं मन ही मन सोचने लगता हूं कि अब हो गया न यार, कब खत्म होगा यह...दो िमनट भी ऊपर हो जाएं तो आस पास देखने लगता हूं...हम शायद ही यह कल्पना कर पाएं कि इस तरह से बैठ कर लिखना कितना कठिन होता होगा.. और वह भी एक महत्वपूर्ण परीक्षा जिस के नतीजों पर इन छात्रों का भविष्य टिका रहता है ..लिखना तो मुश्किल है ही ....क्या इस तरह से बैठ कर दिमाग भी चल पाता होगा... इसे यथार्थ के धरातल पर ताकिए....

नीचे बैठने के बिल्कुल कोरे कोरे से आध्यात्मिक, धार्मिक, सांस्कृतिक कारण मैं भी जानता हूं लेकिन सच्चाई यह भी है कि एक छात्र तो इस तरह से अमानवीय स्थिति (इस शब्द का इस्तेमाल कर लूं, यहां अब कुछ भी लिखने से पहले इजाजत लेनी पड़ती है...) या निंदनीय स्थिति कह लूं...जो भी आप को ठीक लगे... में बैठ कर परीक्षा दे रहा है और दूसरा एक खुशकिस्मत छात्र किसी बड़े स्कूल के वातानुकूलित हाल में बैठा अपना पर्चा लिख रहा है ... न ही पहले वाले छात्र को ग्रेस मार्क्स दिए जाएंगे, न ही परीक्षा जांचने वाले को यह दिखेगा कि पर्चा लिखते समय उस के पास बैठने के लिए डेस्क-बेंच था भी कि नहीं, और न ही परीक्षा फल पर ही इस बाबत कोई एंट्री ही होगी....कम से कम एक प्रावधान तो किए जाए कि उत्तर पुस्तिका के बाहर वाले पन्ने पर यह लिखना अनिवार्य कर दें कि परीक्षा बेंच पर बैठ कर दी थी या नीचे ज़मीन पर ... 



हम अपने समय भी बात करते हैं तो हम भी कोई धर्मात्मा थोड़े न थे....जब मैंने पिछले साल अपने बेटे को कहा कि यार, साथ वाले से पूछ लेते इत्ती सी बात तो उसने मुझे हड़का दिया था... मैंने उसे इस लेख में लिखा था लगभग एक साल पहले ....अभी याद आया तो लिंक दे रहा हूं...नकल तो मैंने भी की थी ..(इस पर क्लिक कर के आप इसे पढ़ सकते हैं) ...

हम लोगों के ज़माने में तो पहले हम सब लोग परीक्षा से पहले अपने अपने बेंच चेक करते थे कि ज़्यादा हिल-जुल तो नहीं रहा...अगर ऐसा होता तो हम चेंज करवा लिया करते... और शायद कुछ छात्र अपने डेस्क पर कुछ कुछ लिखने का थोड़ा बहुत पास होने लायक जुगाड़ कर लिया करते थे... चलिए राज़ की बात को राज़ ही रहने देते हैं! लेकिन जब कभी सीटिंग अरेंजमेंट ऐन परीक्षा से पहले बदल दिया जाता तो उन्हें बहुत परेशानी हुआ करती थी..

आगे क्या लिखूं....यह टॉपिक ऐसा है ..जितना लिखेंगे उतना ही कम है...बात बस इतनी है कि कम से कम कोई परीक्षा लेते समय प्रबंधकों को छात्रों की सुविधा का ध्यान तो रखना ही चाहिए... वैसे तो सभी बहुत समझदार हैं, और समझदार को इशारा ही काफ़ी होता है..

विषय बहुत सीरियस हो गया...तस्वीरें देख कर मुझे पता है आप को भी गुस्सा तो आ रहा होगा..... don't worry...आज अखबार में आ गया है, कल से कुछ बदलाव तो ज़रूर होगा...तब तक आप इस पंजाबी गीत को सुन कर मन थोड़ा हल्का कर लें...

हज़ारों पंजाबी गीत सुनने के बाद मैंने यह पाया कि सुखबीर के इस गीत की एनर्जी कुछ ऐसी है कि जो आदमी मन से बीमार है यह उसे भी एक बार तो उछलने पर मजबूर कर दे... पंद्रह बीस साल से गीत चल रहा है ..देखता हूं कि पार्टियों में किस तरह से यह जश्न का माहौल बना देता है ... याद है कुछ साल मैंने यू-ट्यूब पर एक मराठी वेश-भूषा में दिखने वाली अधेड़ महिला को इस की धुन पर डांस करते देखा ...आज भी उस वीडियो को आप के िलेए फिर से ढूंढा.... इस महिला को डांस में से १० से १० मार्क्स....पूरे मन से कर रही हैं यह डांस....मुझे तो एक बार ऐसे लगा कि यह शायद पंजाबी भाषा को समझती हों, लेकिन फिर ध्यान आया कि संगीत की, जश्न की, नृत्य की भी क्या कोई भाषा होती है ....यह लोगों को जोड़ देता है, उन के चेहरों पर खुशियां लाता है ... मस्त कर देता है सब को ...मुझे भी इस गीत के लिरिक्स और संगीत बहुत पसंद है ...सुनिए आप भी ..


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