पिछले हफ्ते की बात होगी..हमारी बाई अपने साथ अपने बेटे को लाई थी...यही चार पांच साल का होगा...मैं लेपटाप पर काम कर रहा था...मेरे पास बैठ कर खुश होता रहा....शायद हैरान भी...जैसे सभी बच्चे होते हैं...दो चार मिनट में बोर हो गया....चुपचाप बैठ गया...मुझे उस की चुप्पी अच्छी नहीं लगी...मैंने रिमोट पकड़ा और कहा कि चलो, यार, तुम टीवी देखो....मैं अभी कार्टून नेकवर्क चेनल ढूंढ ही रहा था कि श्रीमति जी ने उस से पूछा...क्या देखोगे?....
तारक मेहता ...उस का जवाब सुन कर हम दंग रह गये। यह तो उस बच्चे की बात थी....मेरा बेटा भी जब टीवी लगाता है शायद पिछले कईं सालों से तो सब से पहले तो तारक मेहता का उल्टा चश्मा ही लगता है।
मैं अकसर सोचता हूं कि हम ने बच्चों के taste कैसे कर दिए हैं...तारक मेहता देखने में कोई बुराई नहीं है, पारिवारिक सा ही सीरियल है, लेकिन उस की ओव्हरडोज़ हो रही है...सोचने वाली बात है कि बच्चों के िलए बहुत से बेहतर विकल्प हैं जिन के बारे में अकसर बच्चे तो क्या, मां-बाप तक नहीं जानते, अगर जानते भी हैं तो शायद ही उन्हें कभी देखते हों!
आज दोपहर मैं फ्री था..ऐसे ही रिमोट से खेल रहा था कि अचानक पंजाब की इस महान् शख्शियत के दर्शन हो गए. इन का नाम सरदार गुरशरण सिंह जी है...गुरशरण भाजी....जब मैंने गूगल किया तो यह पेज दिख गया.
डी डी भारती पर भी मैंने बाकी का प्रोग्राम पूरा देखा..यहां यह बताना चाहूंगा कि यह पंजाब की एक महान् शख्शियत हैं...इन्होंने विभिन्न सामाजिक विषयों पर जगह जगह जाकर नुक्कड़ नाटकों का मंचन किया।
मुझे याद है १९८१ में जब मैं अमृतसर के सरकारी डेंटल कॉलेज में प्रथम वर्ष का छात्र था तो भी इन्होंने वहां एक नाटक का मंचन किया था...जहां तक मुझे ध्यान में आ रहा है उस का विषय भी राष्ट्रीय एकता को ही समर्पित था।
आज अफसोस है कि मैं इन का पूरा कार्यक्रम नहीं देख सका....लेकिन जितना भी देखा बहुत अच्छा लगा, इस तरह के दिल से कुछ करने वाले विरले ही होते हैं।
आप का मन भी यह सुन कर गदगद हो जाएगा िक यह अपने चार पांच आर्टिस्टों की टीम के साथ कार में ही निकल पड़ते थे...नाटक करने के लिए....कार के अंदर ही जाते जाते रिहर्सल हो जाया करती थी....और एक आर्टिस्ट इस प्रोग्राम में बता रही थीं कि बिना किसी तरह के मेक-अप के ही बिना ही अकसर उन के नाटक हो जाया करते थे...अगर वे किसी जगह पर जा रहे हैं और लेट हो रहे हैं तो वहां पहुंचते ही तुरंत बिना चाय-पानी की परवाह किए बिना पहले नाटक मंचन का काम संपन्न करते थे और बाकी सब बातें बाद में देखी जाती थीं।
१९९० के आसपास की बात है....मैं अपने बड़े भाई के विशेष मित्र संजीव गौड़ को ढूंढ रहा था...चंडीगढ़ में...वे इंडियन एक्सप्रेस में स्पैशल कारसपोंडेंट थे.... पंजाब में गड़बड़ी के दिनों में उन पर जानलेवा हमला हुआ था...वह बाल बाल बचे थे...सुनील गोड़ स्टेटसमेन पेपर में भी सीनियर पद पर रहे थे....
जी हां, मिल गये...कहते हैं न ढूंढने से तो भगवान का भी साक्षात्कार हो जाता है, उस दिन संजीव गौड़ को चंड़ीगढ़ में मिल कर बहुत खुशी हुई थी...उन की मां जी से भी मिले......वे अमृतसर में हमारे घर के ही बिल्कुल पास रहते थे और हमारे पारिवारिक संबंध थे...हम बहुत बार एक दूसरे के यहां आते जाते रहते थे...मैं कईं बार संजीव गौड़ के साथ सिनेमा भी गया था....एक बार भाई कहीं बाहर था, मुझे अच्छे से याद है मैं रोटी,कपड़ा और मकान फिल्म उन्हीं के साथ ही देख कर आया था...१९७० के शुरूआती सालों की बात है।
उस दिन संजीव गौड़ से मिल कर बहुत खुशी हुई...उन्हें मुझ से भी ज़्यादा खुशी हुई थी...आंटी भी मिली थीं...
आप सोच रहे होंगे कि गुरशरण भाजी का नाम लेते लेते मैं यह संजीव गौड़ की बात कैसे करने लग गया....हां, तो दोस्तो, उस दिन मुझे पता चला कि संजीव गौड़ की श्रीमति जी जो पेशे से डाक्टर हैं, वे गुरशरण भाजी की बेटी हैं....मुझे अच्छे से याद है २५ वर्ष पहले का वह दिन ...जब हम लोग बैठ कर उस दिन गुरशरण सिंह के महान् कामों की चर्चा करते रहे थे।
आज भी जब मैंने टीवी पर गुरशरण भाजी को देखा तो मैंने अपने कालेज के साथियों के ग्रुप वालों को व्हाट्सएप पर मैसेज तो किया ....कि आप सभी लोग अभी डी डी भारती लगाइए...और साथ में गुरशऱण भाजी की एक फोटो भी भेजी जो टीवी पर दिख रही थी।
१९९० के तुरंत बाद मैं बंबई चला गया सर्विस के सिलसिले में.....कोई संपर्क नहीं रहा.....अभी चार पांच साल पहले चंड़ीगढ़ में जाकर उन के बारे में पता किया लेकिन कुछ पता नहीं चला.....लेकिन एक बात मैं यहां अवश्य कहना चाहूंगा कि गुरशरण भाजी के दामाद संजीव गौड़ भी एक विलक्षण शख्शियत के मालिक थे....हर समय पढ़ने लिखने के शौकीन....खुशमिजाज और यारों के यार।
मैं सोच रहा हूं कि अभी डी डी भारती के यू-ट्यूब चैनल पर देखूंगा.....अकसर उस चैनल पर डी डी भारती पर प्रसारित हो चुके प्रोग्राम दिख जाते हैं....पता नहीं हम लोग सरकारी चैनलों पर रोज़ाना कितने बेहतरीन कार्यक्रम मिस कर देते हैं......तारक मेहता, कामेडी सर्कस के चक्कर में......दोस्तो, जब बच्चों को इंजीनियरिंग, मैडीकल या कोई भी उच्च शिक्षा दिलाने की बात आती है तो हम सरकारी कालेजों में दाखिले के कितने आतुर दिखते हैं.....लेकिन वही बच्चे जब उन कालेजों से बिल्कुल तुच्छ फीस से कोर्स कर लेते हैं, उन्हें सात समंदर पार भागने की जल्दी होती है.....मोटी कमाई के चक्कर में......आज मुझे सुबह विचार आ रहा था कि सरकारी कालेजों को सभी छात्रों से यह बांड भरवाना चाहिए कि वे लोग १० साल तक देश नहीं छोड़ सकते.....बांड वांड तो होते होंग, कागज़ों का पेट तो टनाटन भरा ही जाता होगा, मुझे नहीं पता, लेकिन उस का कढ़ाई से पालन भी होना चाहिए....
लेिकन यह क्या, सरकारी टी वी चैनल की बात करते करते मैं कहां से कहां पहुंच गया.......विषय ही बदल दिया......कोई बात नहीं, यहीं पर पूर्ण विराम लगाता है..
behtrin
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