अतीत के झरोखों से आज इस विषय पर कुछ कहने की इच्छा हो रही है....
स्कूल से शुरू करता हूं.. स्कूल के दिनों में जो विषय मुझे सब से बेकार और उबाऊ लगता था ..वह हिस्ट्री-ज्योग्राफी था। मुझे याद है कि मैंने किताबें तो उस की कईं इक्ट्ठी कर रखी थीं लेकिन कभी भी इंटरस्ट आया ही नहीं। मास्टर लोगों के ऊपर भी बड़ा निर्भर करता है ना। स्कूल की छुट्टी होने से पहले वाला पीरियड उसी का था लेकिन वर्दी की वजह से पीटता रहता था वह हम लोगों को --बारी बारी से।
इस विषय में इतना कमज़ोर रहा था कि अभी तक भी हिस्ट्री-ज्योग्राफी का ज्ञान बस यहां तक सीमित है कि हिंदोस्तान से आगे समुद्र हैं ..एक अमेरिका है, एक इंगलैंड ...यूरोप का भी नाम सुना है। बिल्कुल ज़ीरो हूं हिस्ट्री-ज्योग्राफी में। हिस्ट्री पढ़ने की कभी इच्छा नहीं हुई..सिवाए उस पेटू बादशाह के जो बहुत सा खाना खाया करता था....शायद मुहम्मद तुगलक .. और एक महमूद गजनवी के बारे में पढ़ने में रूचि थी जिसने हमारे देश में बड़ी लूटपाट मचाई। बाकी कोई तारीखें याद नहीं हुईं .. नफ़रत थी..... पलासी, पानीपत की पहली, दूसरी, तीसरी लड़ाई.....यार लड़ लो न एक ही बार में, क्यों बार बार लफड़े कर के छात्रों को परेशान करते हो।
दसवीं की परीक्षा के बाद मुझे रिज़ल्ट आने तक इसी बात की चिंता थी कि वैसे तो बाकी विषयों में मेरे ८०-९०प्रतिशत तो आएंगे ही .. लेकिन हिस्ट्री-ज्योग्राफी में फेल हो जाऊंगा.....बड़ी बदनामी हो जायेगी, यही बात परेशान करती रहती थी। लेकिन शुक्र हो उस अनजान टीचर का जिस ने पता नहीं किस शुभ घड़ी में पेपर जांचे होंगे और पता नहीं उस में उसे कौन सी गप्प पसंद आ गई होगी कि १५० में से ९६ अंक आ गए.......पंजाब स्कूल शिक्षा बोर्ड की मेरिट में आने की इतनी खुशी न थी जितनी हिस्ट्री-ज्योग्राफी में पास होने की थी।
हां, कालेज चलते हैं........मेरा कालेज में सब से पसंदीदा सब्जैक्ट था .......बॉटनी.....वनस्पति विज्ञान। बहुत अच्छा लगता था दसवीं के बाद अगले दो साल उस विषय को पढ़ना....पेढ़-पोधों, पत्तियों को जानना अच्छा लगता था.....बहुत ही अच्छा.....इतनी अच्छे से अमृतसर के डीएवी कालेज के कंवल सर पढ़ाया करते थे कि कब पीरियड खल्लास हो जाता था पता ही नहीं चलता था। मैं सोचता था अगर डाक्टरी वाक्टरी में नहीं भी गया तो चुपचाप बीएससी और फिर बॉटनी में एमएससी और उस के बाद पीएचडी करूंगा। आज भी मुझे पेढ़-पौधों- पत्तियों से बेहद लगाव है.. जुड़ाव है........इस कद्र यह जुड़ाव है कि मेरे विचार में सारी कायनात में दो तरह के लोग हैं.......वनस्पति प्रेमी और वनस्पति को प्रेम न करने वाले।
हां, यार, एक बात याद आ गई.....मैंने ३५-३६ साल पुरानी अपनी बॉटनी की एक कापी भी संभाल कर रखी हुई है.... अभी इस ढूंढ कर एक चित्र यहां टिकाता हूं।
अब चलिए मैडीकल कालेज के अनॉटमी विभाग की तरफ़.........मुझे ज़रा भी समझ नहीं आता था. लगता था कि कहां फंस गये। सब कुछ सिर के ऊपर से निकल जाता था। न तो कुछ थ्यूरी और न ही प्रैक्टीकल में पल्ले पड़ता था..... पता नहीं उस विभाग में ही कुछ तो था......सब कुछ डरावना डरावना सा.....सारी बूथियां खौफ़नाक....जैसे शोक मनाने आई हों।
कुछ न समझ पाने के चक्कर में मैं उस में पहली बार फेल हो गया....मैं पहली बार फेल हुआ था.......फिर क्या था, कुछ रट्टे वट्टे लगाये, दो तीन महीने, कुछ भी समझ नहीं आया फिर से.......बस जैसे तैसे पास हो गया सप्लीमैंटरी परीक्षा में......बस उस के बाद सब विषयों में रूचि बनती चली गई........और तीसरे वर्ष में आते आते टेम्पो इतना बन गया कि यूनिवर्सिटी में टॉप घोषित कर दिया गया....बस फिर तो ...उस रास्ते पर चल निकला।
इस पोस्ट की प्रेरणा मुझे मेरे एक मित्र डा कुलदीप बेदी की एक फेसबुक पोस्ट देख कर मिली जिस में उन्होंने एक खोपड़ी की तस्वीर टिकाई थी.....उस पर मैंने जो टिप्पणी दी वह भी आप के साथ शेयर कर रहा हूं.......
"मैं तो देखते ही डर गया.....अनॉटमी की वह खौफ़नाक सप्ली याद आ गई।।।
थैंक गॉड, जैसे तैसे पास हो गये.....
मेरे जैसा बंदा और लेटरल टैरीगॉयड की डाईसैक्शन.....मैं भी एग्जामीनर को इस तरह से ओरिजन और इन्सर्शन दिखाने लगा जैसे वह पहली बार देख रहा है किसी नईं डिस्कवरी को.....उस दिन बड़ा बुरा लगा था.....डियर बेदी।
प्रैक्टीकल का ही तो बस थोड़ा अासरा था, थियूरी तो पहले ही गोल थी। और ऊपर से मैं ग्रेज़ एनाटमी की पोथी ऐसे रोज़ खोल के बैठ जाता था......... और दो मिनट में नींद आ जाया करती थी।"
स्कूल से शुरू करता हूं.. स्कूल के दिनों में जो विषय मुझे सब से बेकार और उबाऊ लगता था ..वह हिस्ट्री-ज्योग्राफी था। मुझे याद है कि मैंने किताबें तो उस की कईं इक्ट्ठी कर रखी थीं लेकिन कभी भी इंटरस्ट आया ही नहीं। मास्टर लोगों के ऊपर भी बड़ा निर्भर करता है ना। स्कूल की छुट्टी होने से पहले वाला पीरियड उसी का था लेकिन वर्दी की वजह से पीटता रहता था वह हम लोगों को --बारी बारी से।
इस विषय में इतना कमज़ोर रहा था कि अभी तक भी हिस्ट्री-ज्योग्राफी का ज्ञान बस यहां तक सीमित है कि हिंदोस्तान से आगे समुद्र हैं ..एक अमेरिका है, एक इंगलैंड ...यूरोप का भी नाम सुना है। बिल्कुल ज़ीरो हूं हिस्ट्री-ज्योग्राफी में। हिस्ट्री पढ़ने की कभी इच्छा नहीं हुई..सिवाए उस पेटू बादशाह के जो बहुत सा खाना खाया करता था....शायद मुहम्मद तुगलक .. और एक महमूद गजनवी के बारे में पढ़ने में रूचि थी जिसने हमारे देश में बड़ी लूटपाट मचाई। बाकी कोई तारीखें याद नहीं हुईं .. नफ़रत थी..... पलासी, पानीपत की पहली, दूसरी, तीसरी लड़ाई.....यार लड़ लो न एक ही बार में, क्यों बार बार लफड़े कर के छात्रों को परेशान करते हो।
दसवीं की परीक्षा के बाद मुझे रिज़ल्ट आने तक इसी बात की चिंता थी कि वैसे तो बाकी विषयों में मेरे ८०-९०प्रतिशत तो आएंगे ही .. लेकिन हिस्ट्री-ज्योग्राफी में फेल हो जाऊंगा.....बड़ी बदनामी हो जायेगी, यही बात परेशान करती रहती थी। लेकिन शुक्र हो उस अनजान टीचर का जिस ने पता नहीं किस शुभ घड़ी में पेपर जांचे होंगे और पता नहीं उस में उसे कौन सी गप्प पसंद आ गई होगी कि १५० में से ९६ अंक आ गए.......पंजाब स्कूल शिक्षा बोर्ड की मेरिट में आने की इतनी खुशी न थी जितनी हिस्ट्री-ज्योग्राफी में पास होने की थी।
हां, कालेज चलते हैं........मेरा कालेज में सब से पसंदीदा सब्जैक्ट था .......बॉटनी.....वनस्पति विज्ञान। बहुत अच्छा लगता था दसवीं के बाद अगले दो साल उस विषय को पढ़ना....पेढ़-पोधों, पत्तियों को जानना अच्छा लगता था.....बहुत ही अच्छा.....इतनी अच्छे से अमृतसर के डीएवी कालेज के कंवल सर पढ़ाया करते थे कि कब पीरियड खल्लास हो जाता था पता ही नहीं चलता था। मैं सोचता था अगर डाक्टरी वाक्टरी में नहीं भी गया तो चुपचाप बीएससी और फिर बॉटनी में एमएससी और उस के बाद पीएचडी करूंगा। आज भी मुझे पेढ़-पौधों- पत्तियों से बेहद लगाव है.. जुड़ाव है........इस कद्र यह जुड़ाव है कि मेरे विचार में सारी कायनात में दो तरह के लोग हैं.......वनस्पति प्रेमी और वनस्पति को प्रेम न करने वाले।
हां, यार, एक बात याद आ गई.....मैंने ३५-३६ साल पुरानी अपनी बॉटनी की एक कापी भी संभाल कर रखी हुई है.... अभी इस ढूंढ कर एक चित्र यहां टिकाता हूं।
अब चलिए मैडीकल कालेज के अनॉटमी विभाग की तरफ़.........मुझे ज़रा भी समझ नहीं आता था. लगता था कि कहां फंस गये। सब कुछ सिर के ऊपर से निकल जाता था। न तो कुछ थ्यूरी और न ही प्रैक्टीकल में पल्ले पड़ता था..... पता नहीं उस विभाग में ही कुछ तो था......सब कुछ डरावना डरावना सा.....सारी बूथियां खौफ़नाक....जैसे शोक मनाने आई हों।
कुछ न समझ पाने के चक्कर में मैं उस में पहली बार फेल हो गया....मैं पहली बार फेल हुआ था.......फिर क्या था, कुछ रट्टे वट्टे लगाये, दो तीन महीने, कुछ भी समझ नहीं आया फिर से.......बस जैसे तैसे पास हो गया सप्लीमैंटरी परीक्षा में......बस उस के बाद सब विषयों में रूचि बनती चली गई........और तीसरे वर्ष में आते आते टेम्पो इतना बन गया कि यूनिवर्सिटी में टॉप घोषित कर दिया गया....बस फिर तो ...उस रास्ते पर चल निकला।
इस पोस्ट की प्रेरणा मुझे मेरे एक मित्र डा कुलदीप बेदी की एक फेसबुक पोस्ट देख कर मिली जिस में उन्होंने एक खोपड़ी की तस्वीर टिकाई थी.....उस पर मैंने जो टिप्पणी दी वह भी आप के साथ शेयर कर रहा हूं.......
"मैं तो देखते ही डर गया.....अनॉटमी की वह खौफ़नाक सप्ली याद आ गई।।।
थैंक गॉड, जैसे तैसे पास हो गये.....
मेरे जैसा बंदा और लेटरल टैरीगॉयड की डाईसैक्शन.....मैं भी एग्जामीनर को इस तरह से ओरिजन और इन्सर्शन दिखाने लगा जैसे वह पहली बार देख रहा है किसी नईं डिस्कवरी को.....उस दिन बड़ा बुरा लगा था.....डियर बेदी।
प्रैक्टीकल का ही तो बस थोड़ा अासरा था, थियूरी तो पहले ही गोल थी। और ऊपर से मैं ग्रेज़ एनाटमी की पोथी ऐसे रोज़ खोल के बैठ जाता था......... और दो मिनट में नींद आ जाया करती थी।"
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