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कल बीबीसी की एक रिपोर्ट दिख गई.....जिसे देख कर बहुत दुःख हुआ कि आज भी यह काम भारत में बहुत सी जगह चल रहा है। एक बार तो यकीन नहीं आया लेकिन जब पूरी रिपोर्ट पढ़ी तो दिल दहल गया कि किन किन मजबूरियों में लोगों को यह काम करने को विवश किया जाता है। --- बीबीसी की रिपोर्ट....भारत का मैला ढोने वाले --तस्वीरों में.
मुझे भी अपनी परसिन्नी की याद आ गई .. अधेड़ उम्र की महिला....१९६७ से १९८४ तक की मेरी यादें --पंजाब..जिस सरकारी क्वार्टर में हम लोग रहते थे उस में ड्राई-लैटरिन ही थी।
और यह परसिन्नी बेचारी रोज़ मैला ढोने आ जाती थी, सभी लोग चाहते थे कि परसिन्नी सुबह सुबह सब से पहले उन के यहां ही पहुंच जाए। हाथ में एक तसला और एक लोहे का एक पतरा सा उठाये रहती थी परसिन्नी।
दर्जनों या फिर पता नहीं कितने घरों वह परसिन्नी मैला ढोने का काम करने जाती होगी......मुझे अच्छे से याद है हर घर से तीन-चार या फिर पांच रूपया महीना उसे मिला करता था। हां, त्योहार के वक्त कुछ ऐसा थोड़ा बहुत ज़्यादा।
कभी कभी किसी घर से चाय या कल की बची रोटी सब्जी भी खाने को मिल जाती थी, और कभी कभी फटे-पुराने कपड़े।
पानी वानी भी वह घर से नहीं मांगा करती थीं....क्योंकि मैंने देखा कि कुछ घरों में जब उसे किसी बर्तन से पानी भी पिलाया जाता था तो उस से बराबर दूरी बना कर रखी जाती थी।
मुझे यह भी याद है कि मुझे उस परसिन्नी पर हमेशा ही तरस आाता था......हर एक (जी हां, हर एक घर में) उस के चाय पीने के लिए एक प्याली जिस का हैंडल टूटा हुआ होता था और जो सब से पुरानी प्याली या गिलास हुआ करता था....वह उस मैला ढोने वाली के लिए रख दी जाती थी। और इस कप को उस टॉयलेट की किसी बन्नी पर टिका दिया करती थी वह चाय वाय पीने के बाद........ जब भी उसे चाय दी जाती तो इस का सीधा सीधा यही मतलब हुआ करता था कि वह अपनी ही प्याली या गिलास में उसे पियेगी।
मुझे यह देख कर बहुत गुस्सा आता था.....सिर दुखता था..... क्यों, यार, परसिन्नी से ऐसा व्यवहार क्यों?.... लेकिन फिर भी जो सच्चाई है वह मैंने ब्यां कर दी है। लेकिन इस बात के लिए मैं अपने मां-बाप की हमेशा प्रशंसा करता हूं कि उन्होंने कभी भी परसिन्नी से अच्छा ही व्यवहार ही किया.....मुझे अच्छे से याद है कि वह शायद दो बातें मेरी मां या मेरे पिता जी से किया करती थीं...... जैसे कोई सलाह आदि लेना। मैंने कईं बार उसे घर में पांच मिनट के लिए किसी पेड़ वेड़ आदि के नीचे सुस्ताते भी देखा। मुझे नहीं याद कि मैंने कभी भी उसे नाम से बुलाया हो......शायद ही कभी आप शब्द का भी इस्तेमाल किया हो.......लेकिन ऐसा लगता है कि किसी आदमी की हम कितनी इज्जत करते हैं यह हमारी आंखों से पता चल ही जाता है, और यह मूक भाषा वह भी जानती थीं।
अब सोचता भी हूं तो कितना मुश्किल लगता है कि यार, पहले एक तसले में मैला डालो, फिर उसे थोड़ा बाहर जाकर किसी बड़े से कचरेदान में पलट कर आओ......फिर वापिस दूसरे घरों से मैला ढो कर फिर से उस कचरेदान में खाली कर के आओ........कितना अमानवीय काम लगता है ना।
मैं इस समय उस परसिन्नी को याद कर रहा हूं तो मेरी आंखें बार बार भर आ रही हैं.......
एक बात और बताऊं आप को.....जिन घरों से तो परसिन्नी सारा मैला अपने तसले में डाल कर ढो कर दूर किसी कचरेदान में डाल आती थी..वे तो खुश.......लेकिन जिन घरों का मैला कभी कभी वह पानी डाल कर बहा देती, बस वही लोग उसे कोसना शुरू कर देते कि यह क्या हुआ.. यह तो सारी गंदगी बाहर खुली नालियों में पहुंच जायेगी। मुझे इस बात पर भी बहुत ही गुस्सा आता कि यार, और क्या इस बेचारी की चार रूपये महीने में जान लोगे?
परसिन्नी जब नहीं आती थी तो क्या होता था.......पता है उस का एक १५-२० साल का लड़का भी था, उस की छुट्टी के दिन कभी कभी वह भी आ जाया करता था......लेकिन मुझे अब लगता है कि उस के लड़के के मन में इस काम के प्रति विद्रोह था........वैसे देखा जाए तो हो भी क्यों नहीं ?
वैसे एक बात बताऊं जिस दिन अपनी परसिन्नी नहीं आती थी..... सारे घर की हालत खराब हो जाया करती थी। उस टायलेट के आसपास बदबू और मक्खियों का बोलबाला हुआ करता था.....फिर लोग अखबार हाथ में लेकर जाया करते थे कि पहली मैल के ऊपर अखबार फैंक कर फिर से उसे मैला करने के लिए तैयार कर सकें।
एक बार जब मैं अपने बेटों को ये सब बातें सुना रहा था तो वे बहुत ठहाका लगा कर हंसने लगे। लेकिन मेरे लिए यह कभी भी ठहाका लगाने का विषय नहीं रहा......ड्राई टॉयलेट को मेरे लिए इस्तेमाल करना तो कुछ भी कष्टदायक नहीं था उस कष्ट की तुलना में जो परसिन्नी रोज़ सहती थी......मुंह पर कपड़ा बांध कर जब वह उस टॉयलेट के अंदर घुसती और पसीना पसीना होकर बाहर निकला करती।
अब मुझे कोई वर्कर कहता है ना कि गुटखा वुटखा खाना इसलिए शुरू किया कि साहब, हमारा काम थोड़ा गंदगी में ही होता है, गुटखा आदि खाने से मन ठीक रहता है, उस समय मेरा ध्यान उस महान् परसिन्नी की तरफ़ चला जाता है क्योंिक उस ने तो कभी तंबाकू न चबाया, न ही कुछ और नशा ही किया।
मैंने बीबीसी की रिपोर्ट देखी तो मुझे अहसास हुआ कि यह काम तो अभी भी देश में कईं जगह चल रहा है। मैंने सोचा कि मेरे दिन बदल गये तो सारे संसार के ही बदल गये। इस परिप्रेक्ष्य में यही कहना है कि लाल किले से जब इस बार घर घर में टॉयलेट बनवाने का वायदा किया गया तो मुझे बहुत अच्छा लगा।
धन्यवाद, डियर परसिन्नी, आप ने जो हमारे लिए इतने वर्ष किया.......हम उस का कर्ज़ कभी चुका ही नहीं सकते। लेकिन एक बात तो है कि मैंने जिस हालात में आप को काम करते देखा, जो आप की हालत देखी......उसने मुझे सफाईकर्मियों की भूमिका के प्रति अति संवेदनशील बना दिया........और मेरा यह विश्वास पक्का हो चुका है कि किसी भी संस्था के लिए सब से अहम् कर्मचारियों की श्रेणी सफ़ाई सेवकों की ही है......ये एक दिन भी नहीं आते तो क्या हालत हो जाती है, संस्था बंद होने के कगार पर आ जाती है। क्या हम ने इन्हें इन का हक लेने दिया........आरक्षण-वक्षण तो मिला तो सोचने वाली बात यह है कि यह परसिन्नी जैसे कितने परिवारों को मिला।
वैसे जब परसिन्नी थक कर बैठ जाती और कोई उदास सी बात करती तो मेरी मां उसे कहती ....परसिन्नी, तू वेखीं, अगले जन्म विच तूं राज करेंगी............... (तुम देखना, अगले जन्म में तुम राज ही करोगी)........और यह सुनकर हल्की हल्की मुस्कान लिए वह अपनी टोकरी उठाती और अगले घर की तरफ़ बढ़ जाती।
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