गुरुवार, 7 मई 2009

अप्राकृतिक यौन-संबंधों का तूफ़ान ( सैक्सुयल परवर्शन्ज़ का अजगर )

आज एक बहुत ही बोल्ड किस्म की पोस्ट लिख रहा हूं ---लिखने से पहले कितने ही दिन यही सोचता रहा हूं कि इस विषय पर लिखूं कि नहीं लिखूं----लेकिन फिर यही ध्यान आया कि अगर पाठकों तक सही जानकारी पहुंचेगी ही नहीं तो यह जो तरह तरह के अप्राकृतिक यौन संबंधों की तेज़ आंधी-तूफ़ान सी चल रही है उस से बचने के लिये लोग किस तरह से उपाय कर पायेंगे।


चलिये, शुरू करते हैं---इन बलात्कार की खबरों से। आपने भी यह तो नोटिस किया ही होगा कि जब हम लोग छोटे थे और जब कभी महीनों के बाद किसी अखबार में बलात्कार की खबर छपती थी तो एक सनसनी फैल जाया करती थी। लोग हैरान-परेशान से हो जाया करते थे और उस केस से लगभग अपने आप को पर्सनली एन्वॉल्व करते हुये उस केस को मीडिया के माध्यम से पूरा फॉलो-अप करते थे कि उस कमबख्त अपराधी का आखिर हुआ क्या ?


आज का दौर देखिये---लगभग हर रोज़ अखबार में बलात्कार की खबरें छप रही हैं लेकिन लोगों की अब इस में रूचि नहीं रही ----अब वे इस में भी क्रूरता के ऐंगल की तलाश करते फिरते हैं ---अब पब्लिक की फेवरिट खबर हो गई है सामूहिक बलात्कार की खबरें ---जिन्हें मीडिया परोसता भी बहुत सलीके से है। आप भी ज़रा सोचिये कि हिंदोस्तानी के वहशी दरिंदों को आखिर इस गैंग-रेप का विचार कहां से आया ?

सामूहिक बलात्कार की खबर किसी दिन अगर नहीं दिखेगी तो इस तरह की खबर दिख जायेगी की एक 70 वर्षीय बुजुर्ग ने एक छः साल की अबोध बच्ची के साथ मुंह काला किया। छः साल की ही क्यों, इस से कम उम्र की बच्चियों के साथ दुराचार की वारदातें हम मीडिया में देखते सुनते रहते हैं।

और अकसर पुरूष के साथ पुरूष के शारीरिक संबंधों ( male homosexuals) की खबरों भी हैड-लाइन बनने लगी हैं ----लेकिन महिलायें भी क्यों पीछे रहें ? --- उन के भी अंतरंग संबंधों ( लैस्बियन – lesbian relationship) की बातें मीडिया लगातार परोसता ही रहता है , इन समलैंगिक जोड़ों की शादियां भी खूब चर्चा में रहती हैं। और जब कभी विकसितदेशों में इन समलैंगिक संबंधों पर कोई नया कानून बनता है या किसी कानून का वहां विरोध बनता है तो उसे अपने यहां मीडिया के लोग खूब मिर्च-मसाला लगा कर परोसते हैं।

कॉन्डोम के विज्ञापन ऐसे आते हैं जैसे कि किसी नये तरह के पिज़ा के बारे में बताया गया हो --- फ्लेवर्ड कॉन्डोम ---- अब इस तरह के विज्ञापन देख कर किसी पाठक के मन में क्या भाव उत्पन्न होते हैं , मुझे नहीं लगता मेरा इस के बारे में कुछ लिखना यहां ज़रूरी है । एक विज्ञापन ने तो कमबख्त सभी फ्लेवर्ज़ की लिस्ट ही छाप रखी होती है---- मैंगो, स्ट्राबरी.......और साथ में नीचे लिखा होता है कि बनॉनॉ फ्लेवर ट्राई किया क्या ?

अब आगे चलें ---- यह जो आजकल लोग थ्री-सम, फोर-सम की बातें करते हैं .......यह जो सामूहिक सैक्स क्रीडायों की बातें होती हैं ----क्या यह सब कुछ इतना लाइटली लेने योग्य है ? बिल्कुल नहीं -----ये सब की सब बीमारियां हैं, कमबख्त लोगों को लाइलाज रोग परोसने के बहाने हैं, शारीरिक तौर पर तो तबाह करने के साधन हैं ही ये सब, मानसिक तौर पर भी ये यौन-विकृतियां आदमी को खत्म कर देती हैं। एक बार अगर कोई इस अंधी, अंधेर गली में घुस गया तो समझ लीजिये उस का तो काम हो गया । उस का फिर इस तरह के संबंधों से बाहर निकलना मुश्किल हो जाता है -----हर तरह की ब्लैक-मेलिंग, वीडियो फिल्मिंग, दांपत्य जीवन पर बहुत ही बुरा असर और उस से भी ज़्यादा बुरा असर बच्चों के विकास पर -----उन बेचारों का भी मानसिक तौर पर बीमार होना लगभग तय ही होता है।


अब कोई अगर यह सोच रहा है कि यह सब तो अमीर, विकसित देशों में ही होता है तो हमें उस बंदे के भोलेपन पर तरस ही आयेगा। जिस तरह से यौन-विकृतियां हम जगह जगह देख-सुन रहे हैं ----गैंग-रेप, स्पॉउस स्वैपिंग, बाईसैक्सुयल लोग .........ये सब अब कैसे विकसित देशों तक ही सीमित रह पाई हैं ? ग्लोबलाईज़ेशन का ज़माना है तो कैसे कोई भी देश कोई भी ऐसी वैसी चीज़ ट्राई करने में पीछे रह सकता है।


आज से दस साल पहले की बातें याद करूं तो ध्यान आता है कि बंबई के अंग्रेज़ी के अखबारों में ढ़ेरों ऐसे विज्ञापन आते थे ( पता नहीं अब भी ज़रूर आते होंगे...या फिर अब इंटरनेट ने लोगों की मुश्किलों को आसान कर दिया है) ...... कि इस वीकएंड पर अगर ब्राड-माईंडेड दंपति बिल्कुल बिनदास पार्टी में हिस्सा लेना चाहते हैं तो इस मोबाइल नंबर पर बात करें ----साथ में यह भी लिखा होता था कि सब साफ़-सुथरे लोग हैं, ऊंची पोजीशन वाले लोग हैं, और साथ में किसी कोने में यह भी लिखा हुआ दिखता था कि इस के बारे में पूरी गोपनीयता रखी जायेगी ( Confidentiality assured!).


आये दिन बड़े शहरों में अमीरज़ादों की रेव-पार्टियां सुर्खियों में होती हैं। अब इन रेव पार्टी में क्या क्या चलता है इस का अंदाज़ा लगाने के लिये बस अपनी कल्पना के घोडे दौड़ाने की ही ज़रूरत है। ड्रग्स चलती हैं, नशे के टीके चलते हैं, दारू बहती है तो फिर इस के आगे भी सब कुछ क्यों नहीं चलता होगा ? ----आप ने बिल्कुल सही सोचा ---जी हां, सब कुछ चलता ही है।


अब कितनी यौन-विकृतियों के बारे में लिखें ----आप सब कुछ जानते हैं। लेकिन मेरा केवल एक ही प्रश्न है कि ये आज से बीस-तीस साल पहले कहां थीं ? वह भी दौर था कि महीनों बाद किसी युवती के रेप की खबर देख कर देश का खून खौलने लगता था लेकिन आज साले इस खून को क्या हो गया कि छोटी छोटी नाबालिग अबोध बच्चियों के साथ दुष्कर्म की खबरें देख-सुन कर भी यह खून बर्फ़ जैसा जमा ही रहता है ? क्यों एक 25 साल का युवक एक अस्सी साल की औरत के साथ मुंह काला करने पर उतारू हो रहा है ? हो सके तो कभी इस के बारे में सोचियेगा।


25 साल की उम्र में 1987 में एमडीएस करते हुये जब हमें एड्स के विषय पर एक सैमीनार तैयार करने को कहा गया तो हम लोगों ने पहली बार होमोसैक्सुएलिटि ( male homosexuals) का शब्द सुना था । और ये ग्रुप-सैक्स, थ्री-सम, फोर-सम, मुख-मैथुन (ओरल सैक्स), एनल सैक्स (गुदा मैथुन), स्पॉउस स्वैपिंग( एक रात के लिये पति-पत्नी की अदला-बदली) , वन-नाइट स्टैंड -----इन (यहां पर मैंने एक छोटी सी गाली लिखी थी ) विकृतियों के बारे में शायद हिंदोस्तान के चंद लोग ही जानते होंगे। लेकिन सोचने की बात तो यही है कि फिर यह सारा कचरा आया कहां से -------निःसंदेह यह सारा कचरा पोर्नोग्राफी के ज़रिये विश्व भर में फैल रहा है। मैं तो जब भी इस पोर्नोग्राफी के बारे में दो बातें ही जानता हूं ---------सीधा सा नियम है जो इनपुट हम लोग इस के अंदर डालेंगे वैसी ही आउटपुट बाहर निकलेगी। बेशक कोई कितना भी धर्मात्मा क्यों न हो , अगर अश्लील तस्वीरें, फिल्में देखी जायेंगी , अश्लील वार्तालाप में संलिप्त होगा तो फिर परिणाम भयंकर तो निकलेंगे ही।


अब आप भी यह सोच रहे होंगे कि डाक्टर तू भी क्या.....सुबह सुबह नसीहतों की घुट्टी लेकर कहां से आ टपका है ! मैं भी इस तरह के विषयों पर लिखने से पहले बहुत सोचता रहता हूं कि लिखूं कि नहीं लिखूं -----लेकिन फिर जब मन बेकाबू हो जाता है तो लिखना ही पड़ता है। इस तरह के विषयों के बारे में लोगों में बहुत ही अज्ञानता है --- लोग आपस में इन विषयों पर बात करते हुये झिझकते हैं, मीडिया-प्रिंट एवं इलैक्ट्रोनिक इन यौन विकृतियों जैसे विषयों पर खुल कर कुछ कहने से कतराता है --- तो फिर हम जैसे मलंग लोगों को कुछ तो करना ही होगा। लेकिन खफ़ा मत होईये, मैं बस कुछ मुख्य बिंदु यहां लिख कर खिसक लूंगा ----


--- पुरूष समलैंगिक को एचआईव्ही संक्रमण होने का खतरा बहुत अधिक होता है। यह विज्ञान ने सिद्ध कर दिया है और इस विकृति के परिणाम हम देख ही रहे हैं।

---- जिन महिलायों को गर्भाशय का कैंसर है उन सब के प्रति आदर एवं सहानुभूति के साथ यहां यह लिखना ज़रूरी समझता हूं कि इस तरह के कैंसर के लिये एक से ज़्यादा पुरूषों के साथ शारीरिक संबंध स्थापित किया जाना अपने आप में एक रिस्क फैक्टर है। नोट करें रिस्क फैक्टर है !!

---- यह जो तरह तरह के फ्लवर्ड कॉन्डोम के विज्ञापन दे कर लोगों को किस विकृति की तरफ़ उकसाया जा रहा है , इस का अनुमान आप सहज ही लगा सकते हैं। फ्लेवर्ड ही क्यों आज कल तो ब्रिटेन में शाकाहारी कॉन्डोम( vegetarian condom) ने धूम मचा रखी है। यकीन ना आये तो गूगल सर्च कर के देख लें। बाकी अंदर की बातें आप स्वयं समझ लें -----अब सब कुछ मैं ही लिखूं क्या ?

---- जो अंग जिस काम के लिये बना है उससे वही काम लिया जायेगा तो बात ठीक है-----वरना किसी तरह का अननैचुरल( अप्राकृतिक) यौनाचार अपने साथ तबाही ही लेकर आता है। ओरल-सैक्स ( मुख मैथुन) से तरह तरह की अन्य बीमारियों के साथ साथ ह्यूमन-पैपीलोमा वॉयरस ( human papilloma virus) के ट्रांसफर होने का खतरा बहुत बड़ा होता है ( यह वही वॉयरस है जिसे कि गर्भाशय के मुख के कैंसर के बहुत से केसों के लिये दोषी पाया गया है)। ओरल-सैक्स के द्वारा इस तरह के वॉयरस के ट्रांसफर का जो खतरा बना रहता है उस से गले के कैंसर के बहुत से केस सामने आये हैं, यह मैंने कुछ अरसा पहले ही एक मैडीकल स्टडी के परिणामों को देखते हुये जाना था।

----यह जो वन-नाईट स्टैंड है, ग्रुप सैशन, थ्री सम, फोर-सम हैं ---ये सब की सब दिमागी बीमारियां हैं -----वह इसलिये कि इन के दौरान भयंकर किस्म की लाइलाज बीमारियां मोल लेने का पूरा अवसर मिलता है लेकिन फिर भी इन तरह की यौन-क्रीडायों ( परवर्शन्ज़) में लिप्त होने वाले बस एक खेल ही समझते हैं। ऐसा बिलकुल नहीं है, यह तो बस आग है। बाहर के विकसित देशों में इन यौन-जनित रोगों की वजह यही है कि वहां पर उन्मुक्त यौनाचार है । लेकिन हम लोग की क्या स्थिति है यह कोई स्टडी खुल कर कह नहीं रही है !! वैसे भी जब इस तरह के विषयों पर कुछ कहने-सुनने की बात आती है तो हम लोग कबूतर की तरह आंखें बंद कर लेने में ही अपनी भलाई समझते हुये यह सोच लेते हैं कि इस से बिल्ली भाग जायेगी।


खजुराहों की गुफायों पर आकृतियां( माफ़ कीजिये मैंने देखा नहीं है, बस सुना ही है , उसी आधार पर ही लिख रहा हूं) , कोणार्क की सैंकड़ों साल पुरानी आकृतियां ---- आप यही सोच रहे हैं ना कि डाक्टर फिर वह सब क्या है , लेकिन इमानदारी से इस का मेरे पास कोई जवाब नही है, ज़रूरी तो नहीं कि जो सदियों पुरानी बातें हैं सब पर हाथ आजमाना ही है, वैसे भी हम लोग कब सारी पुरातन बातों को मान ही लेते हैं------हज़ारों साल पहले हमारे तपी-पपीश्वरों ने तो योग-ध्यान-प्राणायाम् को भी अपनी दिनचर्या में शामिल करने की गुज़ारिश की थी, लेकिन अगर हम उन की ये बातें कहां मान रहे हैं ?


बस, दोस्तो, आज तो इन सैक्स-परवर्शन्ज़ के बारे में बातें करने की ओवर-डोज़ सी ही हो गई है ---इसलिये यही यह कह कर आप से आज्ञा लेता हूं कि किसी भी तरह का अननैचुरल सैक्सुयल आचरण केवल खतरा ही खतरा है ----------एक बार इस सुनामी की चपेट में कोई आ जाये तो फिर ......। कहने वाले ऐसे ही तो नहीं कहते कि एक बार मुंह को खून लग जाये तो बस ........।।

10 टिप्‍पणियां:

  1. माननीय डो. साहब आपका यह लेख समाजिक चेतना के चिंतन को दर्शाता है । ये जो नयी मांसिक विकृतिया हमारे समाज मे आती जा रही है । इसके लिये नयी तकनीकी ज्यादा जिम्मेदार है तकनीकी का बढ़ावा भी जरूरी है लेकिन यह दुर्भाग्य है कि जो चाकू सब्जी काटने के काम आता है उसको लोग गर्दन काटने के काम मे ले रहे है । यह सब विदेशों से आयातित अश्लील सी डी ,डीवीडी के कारण हो रहा है । रही सही कसर हमारे समाज मे योन ज्ञान को वैज्ञानिक ढंग से देने कि कोई व्यवस्था नही है बच्चे या बडे जो कुच्छ सीखते है वो कचरा ज्ञान ही प्राप्त करते है ।

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  2. बेहतरीन सराहनीय लेख, आज आधुनिकता के दौर में इस तरह की घटनाऐं प्राय: देखी जा सकती है। महिला के सम्‍बन्‍ध के ये घटनाऍं तो प्रत्‍यक्ष रूप से खबरी रूप में हम पढ़ सकते है किन्‍तु बहुत मामलो में हम यह देखते है कि पुरूष(बाल) के रूप में इसे दबा दिया जाता है। क्‍योकि परिवार वाले भी इस मामले को तूल देने के बचते है।

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  3. अच्छा जानकारीप्रद लेख है। किन्तु अपने समाज के हर दोष के लिए विदेशों या नई तकनीकों को दोष देना कहाँ तक सही है?
    70 के दशक में जब पहली बार किसी समलैंगिक से मिलना हुआ तब तक यह शब्द सुना भी नहीं था। तब न तो हम विदेशी टी वी कार्यक्रम देखते थे न ही नेट था। तब भी छात्रावासों में ऐसे लोग होते थे। हम स्वयं भी बहुत से अच्छे बुरे कामों का आविष्कार कर लेते हैं। सब बुराइयों के लिए विदेश की सहायता की आवश्यकता नहीं है, हम इन कामों में स्वावलम्बी हैं। तब और अब में अन्तर केवल इतना है कि तब समलैंगिक खुले बाहर नहीं आते थे और यह सब दबे छिपे ढंग से होता था अब बहुत से लोग स्वीकार करते हैं व मीडिया इनकी चर्चा करता है।
    बलात्कार के केस बढ़े अवश्य होंगे किन्तु पहले स्त्रियाँ शिकायत करने की बजाए चुप रहना या मर जाना पसन्द करती थीं। समाज में विकार बढ़े हैं व साथ साथ शिकायत दर्ज करवाना, टी वी चैनलों का विस्तार और इन समाचारों का छपना भी बढ़ा है। साथ में ही समाजिक बन्धन भी टूटे हैं। पहले जो अत्याचार गरीब व दलित स्त्रियों के साथ होते थे वे अब सबके साथ होने लगे हैं।
    घुघूती बासूती

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  4. आप तो हल्किया लिए ! अब डाक्टर का लिखा है तो किन्तु परन्तु क्या करना ! प्रोफेसनल विचार है ! एक भारतीय डाक्टर के प्रोफेसनल विचार !

    जरा गर्भाशय कैंसर वाली बात की पुष्टि में संदर्भ दीजियेगा ! ब्यवहार विद तो कहते हैं यह सब मनुष्य प्रजाति के एक्स्प्लोरिटरी व्यवहार हैं ! हाँ जो इन प्रव्रत्तियों को लेकर व्यवसाय अंगडाई ले झूम रहे हैं -वह गलत है ! शेष अपनी अपनी मान्यताएं हैं -हाँ आपको अनालिन्गास,कनिलिगास ,या फेलैश्यो या सेक्स के दीगर विविध प्रकारों के विस्तृत वर्णन के साथ ही उनसे जुड़े रोगों के रोकथाम और सावधानियों पर जरा ज्यादा तफसील से बताना था -पर यह एक पोस्ट में संभव नहीं है ! बताते रहियेगा !

    बातें तो और भी करनी है पर वो क्या है ना सेक्स अभी इस नादाँ हिन्दी ब्लागजगत में टैबू ही है !

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  5. @ अरविंद जी, गर्भाशय के कैंसर वाली बात की पुष्टि के लिये संदर्भ ढूंढने के लिये गूगल सर्च की तो पहला रिज़ल्ट जो दिखा उस का URL यहां दे रहा हूं http://www.ncbi.nlm.nih.gov/pubmed/9222772

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  6. @ अरविंद जी, और जो शब्द लिख कर सर्च की थी वे थे multiple sex partners as a risk factor for cervical cancer.
    अरविंद जी, आप की टिप्पणी के लिये धन्यवाद, आपने जो सुझाव दिये हैं ---उन पर भी लिखने की कोशिश करूंगा।

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  7. बहुत जानकारीप्रद लेख था... आपके विचार पढ़कर अच्छा लगा... काश पूरा हिंदुस्तान एक साथ इस विषय पर सोच सके...

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  8. इन सारी विकृतियों पर लिखने के लिये बहुत बहुत धन्यवाद। सेक्स एजुकेशन पर आप जैसे अनुभवी डाक्टरों की क्या राय है, कभी समय मिले तो लिखियेगा।

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  9. एक साहसी और जागरुक आलेख के साथ ज्ञानवर्धक जानकारी..आपका बहुत आभार!!

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  10. सभी प्राणियों में परमात्मा ने मनुष्य को सर्वश्रेठ बनाया है। बुद्धि भी दी है। पर बुद्धि का उपयोग वह नहीं करता क्यॊंकि ईश्वर ने उसे स्वतंत्रता दी है। वह जो चाहे कर सकता है और अपने कर्मों के फल भुगतता है। इसीलिये उसे उचित शिक्षा देना जरुरी है। पशु-पक्षियों को इसकी आवश्यकता नहीं है क्योंकि वे प्रकृति के अनुसार जीते हैं। पर इंसान अप्राकृतिक हो जाते हैं क्योंकि वह जिद्दी और अज्ञानी हो जाता है। कुछ भी करता है और कहता है जो होगा देखा जायेगा ऐसा विचार रखता है। परिणाम स्वरूप वह नर्क में जाता है और नाना प्रकार की यातनायें यम दूतों द्वारा पाता है। कुछ लोग तो जीते जी नर्क भोगते हैं। इसके बावजूद भी कुकर्म करने का विचार उनके मन से नहीं जाता। यह एक बडी़ विडंबना है। पढे़ लिखे सभ्य कहलाने वाले लोग नैतिकता के नाम पर मुँह बिचकाते हैं। पाप का इलाज दवाई या मेडिकल-साइंस से नहीं होता। इसके लिये तो आदमी को अपनी शुद्धीकरण करना पड़ता है। अतः जो लोग So what कह कर मनमानी करते हैं वे अवश्य उसका फल पाते हैं। यह कर्म का सिध्हाँत है। जैसी करनी वैसी भरनी चाहे वह कोई भी हो। उसे भगवान भी ठीक नहीं कर सकता। उसे खुद को ठीक करना होता है। यह प्रकृति का नियम है। हम लोग विकास के नाम पर बहुत अप्राकृत हो रहें हैं। इसीलिये नई-नई बीमारियों का जन्म हो रहा है। डाक्टर लोग खुद शराब और सिगरेट पीते हैं। अनेकों ढोंगी गुरू हो गये हैं। अबोध लोगों का यौन-शोषण करते हैं। पोल खुल जाने के बाद भी उनके शिष्य उनका साथ नहीं छोड़ते। आज भ्रष्टाचार अनेकों जगह है और पनप भी रहे हैं। ऐसे में क्या मानवता की क्या गति होगी? उस परमात्मा ने तो मनुष्य को आनंद देने के लिये बनाया है।
    boy का boy ही दोस्त होना उचित है और girl का girl friend होना ठीक है। अन्यथा सब भाई-बहिन ही हैं। केवल शादी के बाद ही पति-पत्नी हो सहते है। यह सभ्य समाज का नियम है।
    पर सब उल्टा-पुल्टा हो गया है। आप उन्हें समझा भी नहीं सकते। ठीक है भाई आप की जिन्दगी है भगवान ने दी है। आप जो चाहे सो करो और फल पावो।
    पर हमारी बातों पर एक बार जरूर विचार कर लेना।
    हम तो मुक्त हैं।

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इस पोस्ट पर आप के विचार जानने का बेसब्री से इंतज़ार है ...