योग सेहत के लिये अच्छा है, स्तनपान करवाना मां के स्वास्थ्य के लिये भी उत्तम है, गर्भावस्था के दौरान हल्का-फुल्का परिश्रम करना गर्भवती महिला के लिये अच्छा है, धूप में बाहर निकलने से पहले फलां-फलां सन-स्क्रीन लगा लें, .......और भी ऐसी बहुत सी रिसर्चेज़ हो रही हैं जिन्हें मैं रोज़ाना देखता रहता हूं।
एक प्रश्न यह उठता है कि क्या यह बातें हम पहले से नहीं जानते हैं ......यह सब बातें तो हज़ारों साल पहले हमारे शास्त्रों ने हमें सिखा दिया था। लेकिन हमारी समस्या यही है कि हम तब तक किसी बात को मानने से हिचकिचाते रहते हैं जब तक कि उस पर फॉरन की मोहर नहीं लग जाती। योग के साथ भी तो यही हुआ ---योग जब योगा बन कर आया तो लोगों की उस में रूचि जागी।
बहुत सी अखबारें , उन के ऑन-लाइन एडिशन देखने पर यही पाता हूं कि ज़्यादा जगहों पर बस तड़का लगाने पर ज़ोर दिया जा रहा है। किसी हैल्थ अथवा मैडीकल रिसर्च की आम आदमी के लिये प्रासांगिकता क्या है , इस का अकसर ध्यान नहीं रखा जाता।
इतना ज़्यादा ज़ोर उन स्टडीज़ को ही दिया जाता है जो कि अभी चूहों पर हो रही है, फिर खरगोशों पर होंगी ......या कुछ ऐसी रिसर्च जो कि बहुत ही कम लोगों पर हुई है उसे भी बहुत महत्व दिया जाता है। इस तरह के वातावरण में एक आम पाठक का गुमराह होना लगभग तय ही है। अब हर कोई तो हरेक फील्ड की जानकारी हासिल करने से रहा ऐसे में अच्छे पढ़े लिखे लोग भी इस तरह के लेखन के शिकार हुये बिना नहीं रह सकते।
मैंने कुछ प्रकाशनों को लिखा भी है कि आप लोगों विभिन्न प्रकार की स्वास्थ्य संबंधी सामग्री जुटाने से पहले किसी विशेषज्ञ से बात कर लिया करें -----वही छापें, उसे ही ज़्यादा महत्व दें जो कि एक आम आदमी बिना किसी खास हिलडुल के साथ अपने जीवन में तुरंत उतार लें।
सोचता यह भी हूं कि मैडीकल रिसर्च में तरक्की तो बहुत ही हुई है लेकिन इस का उतना फ़र्क क्या लोगों की ज़िंदगी पर भी पड़ा है, मुझे तो लगता है नहीं। लोगों की तकलीफ़ें तो लगता है वहीं की वहीं है।
किसी बीमारी को जल्द ही पकड़ने के क्षेत्र में तो बहुत उन्नति हुई है और कुछ बीमारियों के इलाज में भी बहुत सुधार हुया है लेकिन मुझे नहीं लगता कि इन का लाभ किसी भी तरह से आम आदमी को पहुंचा है .....शायद इस सब का फायदा उन चंद लोगों को ही पहुंचा है जिन की पहुंचे बड़े शहरों के बड़े कारपोरेट अस्पतालों तक है। वरना आम आदमी तो पहली ही कीतरह धनाधन टीबी से मर रहे हैं, दारू की आदत के शिकार हो रहे हैं, तंबाकू लाखों-करोड़ों लोगों को अपना ग्रास बनाये जा रहा है।
अगर मैडीकर फील्ड में इतनी ही तरक्की हो रही है तो इन सब की तरफ़ क्यों इतना ध्यान नहीं दिया जा रहा है। तंबाखू से होने वाले फेफड़े के कैंसर को प्रारंभिक अवस्था में पकड़ने पर इतना ज़ोर दिया जा रहा है लेकिन इस कमबख्त तंबाकू को ही जड़ से ही खत्म क्यों नहीं कर दिया जाता।
मैं अकसर यह भी सोचता हूं कि हम लोगों ने बहुत से रोग स्वयं ही बुलाये होते हैं ----खाने पीने में बदपरहेज़ी, दारू, तंबाकू, शारीरिक परिश्रम करना नहीं, और ऊपर से तरह तरह के भ्रामक विज्ञापनों के चक्कर में आकर अपनी सेहत को खराब करना ................बस यही कुछ हो रहा है।
इसलिये मैडीकल रिसर्च को जानना ज़रूरी तो है लेकिन उस के प्रभाव मे बह ही जाना ठीक नहीं है, कुछ रिसर्च ऐसी है जो कि कुछ कंपनियों द्वारा ही प्रायोजित की गई होती है। इसलिये आंखें और कान खुले रखने बहुत ही ज़रूरी हैं।
बस, एक बात का ध्यान रखिये ----प्रश्न पूछने मत छोड़िये ---------यह आप की सेहत का मामला है।
व्यावसायिक लाभ, रिसर्च भी और तंबाकू भी, दोनो उसी के लिए।
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