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रविवार, 16 मई 2010

मैडीकल न्यूज़ - आप के लिये

कुछ मीठा हो जाए ---टीका लगवाने से पहले

टीका लगवाने से पहले मीठा खा लेने से दर्द कम होता है और एक महीने से एक वर्ष तक की उम्र के बच्चों के लिये डाक्टरों एवं नर्सों को सिफारिश की गई है कि इन्हें टीका लगाने से पहले ग्लूकोज़ अथवा शुकरोज़ के पानी के घोल की कुछ बूंदे ---ज़्यादा से ज़्यादा आधा चम्मच ----दे देनी चाहिये। इस से इन शिशुओं को टीका लगवाने में कम दर्द होता है।

एक और रिपोर्ट में पढ़ रहा था कि इस तरह से अगर छोटे बच्चों को कम पीड़ा होगी तो उस से टीकाकरण के कार्यक्रम को भी एक प्रोत्साहन मिलेगा क्योंकि ऐसा देखा गया है कि अगर बच्चा ज़्यादा ही रोने लगता है या उस की परेशानी देख कर कुछ मां-बाप अगली बार टीका लगवाने से पीछे हट जाते हैं।

इस खबर में बताई बात को मानने के लिये एक तरह से देखा जाए तो किसी कानून की कोई आवश्यकता नहीं है लेकिन कुछ फिजूल के प्रश्न ये हो सकते हैं ---कितना ग्लूकोज़ अथवा शुकरोज़ खरीदा जाए, कहां से खरीदा जाए कि सस्ता मिले, इस का घोल कौन बनायेगा, .........और भी तरह तरह के सवाल।

कहने का भाव है कि बात बढ़िया लगी हो तो मां-बाप स्वयं इस तरह की पहल कर लें कि बच्चों को टीका लगवाने के लिये ले जाते वक्त इस तरह का थोडा़ घोल स्वयं तैयार कर के ले जाएं ताकि उस टीकाकरण कक्ष में घुसते वक्त शिशु को उसे पिला दें। आप का क्या ख्याल है ? और ध्यान आया कि हमारी मातायें चोट लगने पर हमें एक चम्मच चीनी क्यों खिला दिया करती थीं और हम लोग झट से दर्द भूल जाया करते थे।

पांच साल के कम उ्म्र के शिशुओं की आधी से ज़्यादा मौतें पांच देशों में

विश्व भर में पांच साल से कम आयु के शिशुओं की जितनी मौतें होती हैं उन की लगभग आधी संख्या चीन, नाईज़ीरिया, भारत, कॉंगो और पाकिस्तान में होती हैं।

और जो 88 लाख के करीब मौतें एक साल में पांच वर्ष से कम बच्चों की होती हैं उन में से दो-तिहाई तो निमोनिया, दस्त रोग, मलेरिया, संक्रमण की वजह से रक्त में विष बन जाने से (blood poisoning) हो जाती हैं।

कुछ अन्य कारण हैं बच्चे के जन्म के दौरान होने वाले जटिल परिस्थितियां, जन्म के दौरान बच्चे को ऑक्सीजन की कमी और जन्म से ही होने वाले शरीर की कुछ खामियां --- complications during child birth, lack of oxygen to the newly born during birth and congenital defects.

और एक बात जो आंखे खोलने वाली है वह यह है कि इन मौतों में से 40फीसदी के लगभग मौतें शिशु के जन्म के 27 दिनों के अंदर ही हो जाती हैं।

यह तो हुई खबर, और इसी बहाने में अपने तंत्र को टटोलना चाहिये। बच्चे के जन्म के दौरान उत्पन्न होने वाली जटिलताओं का सब से प्रमुख कारण है बिना-प्रशिक्षण ग्रहण की हुई किसी दाई का डिलीवरी करवाना। और जो यह छोटे छोटे बच्चों में सैप्टीसीमिया (septicemia)---- "blood poisoning" हो जाता है इस का भी एक प्रमुख कारण है कि इस तरह की जो डिलीवरी घर में ही किसी भी "सयानी औरत" द्वारा की जाती हैं उन में नाडू (cord) को गंदे ब्लेड आदि से काटे जाने के कारण इंफैक्शन हो जाती है जो बहुत बार जानलेवा सिद्ध होती है।

और यह जो निमोनिया की बात हुई ---यह भी छोटे बच्चों के लिये जानलेवा सिद्ध हो जाता है। और इस की रोकथाम के लिये यह बहुत ज़रूरी है कि बच्चों को मातायें स्तन-पान करवायें जो कि रोग-प्रतिरोधक एंटीबाडीज़ से लैस होता है। और नियमित टीकाकरण भी इस से बचाव के लिये बहुत महत्वपूर्ण है -----ठीक उसी तरह से जिस तरह से यह सिफारिश की जाती है कि शिशुओं को पहले तीन माह में स्तन-पान के अलावा बाहर से पानी भी न दिया जाए ताकि उसे दस्त-रोग से बचाये रखा जा सके। और ध्यान तो यह भी आ रहा है कि नवजात शिशुओं को पहले 40 दिन तक जो घर के अंदर ही रखने की प्रथा थी -- हो न हो उस का भी कोई वैज्ञानिक औचित्य अवश्य होगा-------और अब अगले ही दिन से बच्चे के गाल थपथपाने, उस की पप्पियां लेनी और देनी शुरु हो जाती हैं -----इन सब से नवजात शिशुओं को संक्रमण होने का खतरा बढ़ जाता है।

अमेरिका में सलाद के पत्तों को भी मार्कीट से वापिस उठा लिया गया ....
अमेरिका में सलाद के पत्तों (lettuce leaves) को मार्कीट से इस लिये वापिस उठा लिया गया क्योंकि उन में ई-कोलाई (E.coli) नामक जावीणु के होने की पुष्टि हो गई थी। इस जीवाणुओं की वजह से इस तरह के पदार्थ खाने वाले को इंफैक्शन हो सकती है --- जिस में मामूली दस्त रोग से मल के साथ रक्त का बहना शामिल है और कईं बार तो इस की वजह से गुर्दे का स्वास्थ्य भी इतनी बुरी तरह से प्रभावित हो जाता है कि यह जान तक ले सकता है।

अब सोचने के बात है कि क्या हमारे यहां सब कुछ एकदम फिट मिल रहा है--- इस प्रश्न का जवाब हम सब लोग जानते हैं लेकिन शायद हम इस तरह की तकलीफ़ें-बीमारियां सहने के इतने अभयस्त से हो चुके हैं कि हमें हर वक्त यही लगता है कि यह सब्जियों में मौजूद किसी जीवाणुओं की वजह से नहीं है, बल्कि हमारे खाने-पीने में कोई बदपरहेज़ी हो गई होगी----- कितनी बार सब्जियों को अच्छी तरह से धोने की बात होती रहती है, ऐसे ही बिना धोये कच्ची न खाने के लिये मना किया जाता है।

जाते जाते ध्यान आ रहा है कि वैसे हम लोग इतने भी बुरे नहीं हैं ---- कल सुबह बेटे ने कहा कि स्कूल के लिये पर्यावरण पर कोई नारा बताइये ---मैं नेट पर कुछ काम कर रहा था ---मैंने environment quotes लिख कर सर्च की ---जो परिणआम आये उन में से एक यह भी था ----

" कम विकसित देशों में कभी पानी मत पियो और बहुत ज़्यादा विकसित देशों की हवा में कभी सांस न लो "...................
और हम यूं ही ईर्ष्या करते रहते हैं कि वो हम से बेहतर हैं ------लेकिन कैसे, यह सोचने की बात है -----Today's Food for Thought !!

शनिवार, 24 अप्रैल 2010

कैंसर के केसों के ओव्हर-डॉयग्नोसिस का हुआ खुलासा

अकसर हम लोग यही जानते हैं कि कैंसर को जितनी शुरूआती अवस्था में पकड़ लिया जाए उतना ही बेहतर है। लेकिन मंजे हुये चिकित्सा वैज्ञानिकों ने यह निष्कर्ष निकाला है कि कैंसर का ओव्हर-डॉयग्नोसिस हो रहा है---इस का मतलब यह है कि ऐसे केसों की भी कैंसर से लेबलिंग कर दी जाती है जो आगे चल कर न तो मरीज़ में कोई तकलीफ़ ही पैदा करते और न ही मरीज़ की इन से मौत ही होती।

वैज्ञानिकों ने घोषणा की है कि मैमोग्रॉफी से पच्चीस प्रतिशत तक स्तन-कैंसर के केसों का, और प्रोस्टेट स्पैसीफिक ऐंटीजन(protein specific antigen -- PSA test) द्वारा प्रोस्टेट कैंसर के साठ प्रतिशत केसों को ओव्हर-डॉयग्नोसिस हो रहा है। और छाती के एक्स-रे एवं थूक के परीक्षण से फेफड़ों के कैंसर का डायग्नोसिस करने के मामलों में भी लगभग पचास फीसदी ओव्हर-डायग्नोसिस हो ही जाता है।

चिकित्सा वैज्ञानिकों ने अन्य तरह के कैंसरों के बारे में भी यह पता लगाया है कि पिछले तीस वर्षों में उन कैंसरों के नये केसों में तो वृद्धि हुई है लेकिन उन कैंसरों से मरने वालों की संख्या में कोई बढ़ोतरी नहीं हुई है। इस का सीधा मतलब है कि कैंसर के मामलों में ओव्हर-ड़ॉयग्नोसिस हो रही है और ज़ाहिर सी बात है कि एक बार डायग्नोसिस हो गया ---फिर वह चाहे जैनुयिन हो या ओव्हर-डायग्नोसिस----तो फिर उस का उपचार तो शूरू हो जायेगा।
To address the problem, patients must be adequately informed of the nature and the magnitude of the trade-off involved with early cancer detection. Equally important, researchers need to work to develop better estimates of the magnitude of overdiagnosis and develop clinical strategies to help minimize it.
---Journal of National Cancer Institute
आवाज़ उठने लगी है कि हमें कैंसर के डायग्नोसिस एवं उपचार में मॉलीकुलर एवं इम्यूनोलॉजी (molecular & immunological techniques) लाकर और भी सुधार करने की बहुत ज़्यादा ज़रूरत है।

मंगलवार, 20 अप्रैल 2010

ज्यादा पका हुआ मीट बढ़ा देता है ब्लैडर कैंसर का रिस्क

यह तो हम सब जानते ही हैं कि कम पका हुआ (undercooked meat) मीट खाने से फूड-प्वाईज़निंग के साथ ही साथ अन्य कईं तरह की बीमारियां होने का भी रिस्क रहता है।

लेकिन ज़्यादा पका हुआ मीट भी क्या सेफ़ है! -- इस से मूत्राशय का कैंसर होने का खतरा दोगुना हो जाता है। अमेरिका में एक स्टडी जिसे 1700 लोगों पर किया गया और जो 12 साल तक चली है उस के बाद चिकित्सा वैज्ञानिकों ने ये परिणाम दुनिया के सामने रखे हैं। यहां तक कि बहुत ज़्यादा मीट खाने से भी यह रिस्क बढ़ जाता है।

वैसे तो यह रिस्क तली हुई मछली एवं चिकन खाने से भी बढ़ जाता है।

मीट को फ्राई करने से, इस की ग्रिलिंग एवं बारबीक्यूइंग करने से कैंसर पैदा करने वाले कुछ रासायन पैदा हो जाते हैं जिन्हें हीटरोसाईक्लिक एमीनज़ (heterocyclic amines) कहा जाता है जो कि मूत्राशय का कैंसर उत्पन्न करने के लिये विलेन का काम करते हैं। इस स्टडी ने एक बार फिर से यह सिद्ध कर दिया है कि हमारे खान-पान का कैंसर से कितना गहरा संबंध है।

वैसे तो धूम्रपान भी मूत्राशय के कैंसर के लिये सब से महत्वपूर्ण कारण है जिस से सीधे तौर पर तंबाकू का त्याग करने से बचा जा सकता है।

शनिवार, 25 अप्रैल 2009

मैडीकल रिसर्च किस दिशा में जा रही है ?

योग सेहत के लिये अच्छा है, स्तनपान करवाना मां के स्वास्थ्य के लिये भी उत्तम है, गर्भावस्था के दौरान हल्का-फुल्का परिश्रम करना गर्भवती महिला के लिये अच्छा है, धूप में बाहर निकलने से पहले फलां-फलां सन-स्क्रीन लगा लें, .......और भी ऐसी बहुत सी रिसर्चेज़ हो रही हैं जिन्हें मैं रोज़ाना देखता रहता हूं।

एक प्रश्न यह उठता है कि क्या यह बातें हम पहले से नहीं जानते हैं ......यह सब बातें तो हज़ारों साल पहले हमारे शास्त्रों ने हमें सिखा दिया था। लेकिन हमारी समस्या यही है कि हम तब तक किसी बात को मानने से हिचकिचाते रहते हैं जब तक कि उस पर फॉरन की मोहर नहीं लग जाती। योग के साथ भी तो यही हुआ ---योग जब योगा बन कर आया तो लोगों की उस में रूचि जागी।

बहुत सी अखबारें , उन के ऑन-लाइन एडिशन देखने पर यही पाता हूं कि ज़्यादा जगहों पर बस तड़का लगाने पर ज़ोर दिया जा रहा है। किसी हैल्थ अथवा मैडीकल रिसर्च की आम आदमी के लिये प्रासांगिकता क्या है , इस का अकसर ध्यान नहीं रखा जाता।

इतना ज़्यादा ज़ोर उन स्टडीज़ को ही दिया जाता है जो कि अभी चूहों पर हो रही है, फिर खरगोशों पर होंगी ......या कुछ ऐसी रिसर्च जो कि बहुत ही कम लोगों पर हुई है उसे भी बहुत महत्व दिया जाता है। इस तरह के वातावरण में एक आम पाठक का गुमराह होना लगभग तय ही है। अब हर कोई तो हरेक फील्ड की जानकारी हासिल करने से रहा ऐसे में अच्छे पढ़े लिखे लोग भी इस तरह के लेखन के शिकार हुये बिना नहीं रह सकते।

मैंने कुछ प्रकाशनों को लिखा भी है कि आप लोगों विभिन्न प्रकार की स्वास्थ्य संबंधी सामग्री जुटाने से पहले किसी विशेषज्ञ से बात कर लिया करें -----वही छापें, उसे ही ज़्यादा महत्व दें जो कि एक आम आदमी बिना किसी खास हिलडुल के साथ अपने जीवन में तुरंत उतार लें।

सोचता यह भी हूं कि मैडीकल रिसर्च में तरक्की तो बहुत ही हुई है लेकिन इस का उतना फ़र्क क्या लोगों की ज़िंदगी पर भी पड़ा है, मुझे तो लगता है नहीं। लोगों की तकलीफ़ें तो लगता है वहीं की वहीं है।

किसी बीमारी को जल्द ही पकड़ने के क्षेत्र में तो बहुत उन्नति हुई है और कुछ बीमारियों के इलाज में भी बहुत सुधार हुया है लेकिन मुझे नहीं लगता कि इन का लाभ किसी भी तरह से आम आदमी को पहुंचा है .....शायद इस सब का फायदा उन चंद लोगों को ही पहुंचा है जिन की पहुंचे बड़े शहरों के बड़े कारपोरेट अस्पतालों तक है। वरना आम आदमी तो पहली ही कीतरह धनाधन टीबी से मर रहे हैं, दारू की आदत के शिकार हो रहे हैं, तंबाकू लाखों-करोड़ों लोगों को अपना ग्रास बनाये जा रहा है।

अगर मैडीकर फील्ड में इतनी ही तरक्की हो रही है तो इन सब की तरफ़ क्यों इतना ध्यान नहीं दिया जा रहा है। तंबाखू से होने वाले फेफड़े के कैंसर को प्रारंभिक अवस्था में पकड़ने पर इतना ज़ोर दिया जा रहा है लेकिन इस कमबख्त तंबाकू को ही जड़ से ही खत्म क्यों नहीं कर दिया जाता।

मैं अकसर यह भी सोचता हूं कि हम लोगों ने बहुत से रोग स्वयं ही बुलाये होते हैं ----खाने पीने में बदपरहेज़ी, दारू, तंबाकू, शारीरिक परिश्रम करना नहीं, और ऊपर से तरह तरह के भ्रामक विज्ञापनों के चक्कर में आकर अपनी सेहत को खराब करना ................बस यही कुछ हो रहा है।

इसलिये मैडीकल रिसर्च को जानना ज़रूरी तो है लेकिन उस के प्रभाव मे बह ही जाना ठीक नहीं है, कुछ रिसर्च ऐसी है जो कि कुछ कंपनियों द्वारा ही प्रायोजित की गई होती है। इसलिये आंखें और कान खुले रखने बहुत ही ज़रूरी हैं।

बस, एक बात का ध्यान रखिये ----प्रश्न पूछने मत छोड़िये ---------यह आप की सेहत का मामला है।

सोमवार, 2 मार्च 2009

मंदी से बेहाल विदेशी महिलायें बेच रही हैं अपने डिम्ब (eggs)…..

मेरा एक मित्र जो विश्वविद्यालय में जर्नलिज़्म का प्रोफैसर है उसे इस बात से बहुत चिढ़ है कि हिंदोस्तान के भिखारियों का चेहरा सारे संसार में जाना जाता है ---उस का कहना है कि भिखारी तो दूसरे देशों में भी हैं, कुछ लोगों का हाल-बेहाल है लेकिन उन का चेहरा दुनिया के सामने नज़र नहीं आता। इसलिये वह हमें बता रहा था कि जब वह पिछली बार विदेश गया --- देश का मेरे को ध्यान नहीं आ रहा ---- वहां पर उस ने जब एक भिखारी को पांच डालर की भीख दी तो उस ने उस भिखारी की तस्वीर भी खींच ली ----कह रहा था कि केवल इस बात के प्रमाण के तौर पर कि भिखमंगे उन देशों में भी हैं।

कल रविवार की अखबार की वह वाली खबर देख कर मन बहुत बेचैन हुआ जिस का शीर्षक था कि ऑस्कर अवार्ड समारोह से लौटने पर स्लम-डॉग मिलिनेयर के एक नन्हे कलाकार की उस के बाप ने की जम कर पिटाई --- कारण यह था कि वह उसे घर से बाहर आकर टीवी पत्रकारों को इंटरव्यू देने के लिये राज़ी कर रहा था। स्लम-डॉग मिलिनेयर में हिंदोस्तानियों की गरीब बस्ती के हालात सारे संसार ने देखे क्योंकि एक विदेशी ने इस कंसैप्ट पर यह हिट फिल्म बना डाली। हिंदोस्तानी फिल्मकारों को विदेशों के कुछ ऐसे ही मुद्दे पकड़ कर फिल्में बनाने से भला कौन रोक रहा है ---- आइडिया तो यह भी बुरा नहीं कि वहां पर कुछ महिलायें अपने निर्वाह के लिये अपने डिम्ब बेचने को इतनी आतुर हैं।

फिल्म से ध्यान आया कि रयूटर्ज़ की साइट पर इस न्यूज़-आइटम ( यह रहा इस का वेबलिंक) से पता चला है कि आर्थिक मंदी से बेहाल होकर ऐसी महिलायों की संख्या बढ़ रही है जो कि अमेरिकी फर्टिलिटि क्लीनिकों पर जा कर अपने अंडे (डिम्ब) बेचने को तैयार हैं जिस के लिये उन्हें दस हज़ार पौंड तक का मुआवजा दिया जा सकता है।

न्यूज़-रिपोर्ट में एक एक्ट्रैस के बारे में लिखा गया है कि नवंबर के महीने से उसके पास कोई काम नहीं है, इसलिये उस ने कुछ पैसे कमाने के लिये अपने एग्ज़ बेचने का निर्णय किया है। इस रकम से वह अपने क्रैडिट कार्ड बिल और अपने फ्लैट का किराया भर पायेगी। औसतन लगभग पांच हज़ार पौंड इस काम के लिये मिल जाते हैं।

लेकिन ध्यान देने योग्य बात यह भी तो है कि केवल किसी महिला की इच्छा ही काफ़ी नहीं है कि वह अपने डिम्ब बेचना चाहती है --- उसे इस काम के लिये योग्य भी होना पड़ता है। जो संस्था इस काम में कार्यरत है उस के अनुसार जितने प्रार्थना-पत्र उसे प्राप्त होते हैं उस में से पांच से सात फीसदी केसों को ही डिम्ब-दान के योग्य पाया जाता है। इस के लिये योग्यता यही है कि डिम्ब-दान करनी वाली महिला बीस से तीस साल की उम्र की हो, सेहतमंद , आकर्षक व्यक्तित्व वाली हो और अच्छी पढ़ी लिखी होनी चाहिये।

जो महिलायें ये डिम्ब-दान करना चाहती हैं उन का मैडीकल, मनोवैज्ञानिक एवं जैनेटिक टैस्ट किया जाता है और साथ ही उन की पृष्ठभूमि की भी जांच की जाती है। अगर किसी महिला का चयन कर लिया जाता है तो उसे तब तक कुछ हारमोन इंजैक्शन लगवाने होते हैं जब तक कि उस के डिम्ब उस के शरीर से निकाले जाने के लिये तैयार नहीं हो जाते।

और ऐसा कहा जा रहा है कि यह काम किसी दूसरी महिला की मदद के लिये किया जा रहा है --- ये किसी दूसरी महिला को एक महान उपहार देने का एक ढंग है जो कि सामान्य तरीके से मां बन पाने में सक्षम नहीं होती। काम बहुत महान है, इस में तो कोई शक नहीं ---- लेकिन यह कहना कि यह उपहार है , किसी ज़रूरतमंद विवाहित जोड़े की मदद करना मात्र है, क्या ये बातें आसानी से आप के गले के नीचे सरक रही हैं ?---- खैर, कोई बात नहीं ---- मैं तो केवल यही सोच रहा हूं कि अगर यह इतना ही नोबल मिशन है, अगर किसी उपहार से इस की तुलना की जा रही है तो यह पांच से दस हज़ार पौंड बीच में पड़े क्या कर रहे हैं। चलिये, हम कुछ नहीं कहेंगे ----- डिम्ब बेचने वाली महिला का भी काम हो गया और उस डिम्ब को कृत्तिम-फर्टिलाईज़ेशन ( इन-विट्रो-फर्टिलाइज़ेशन) के माध्यम से गृहण करने वाली किसी भावी मां का भी काम चल गया ----- बहुत खुशी की बात है।

एक विचार है ----विदेशी फिल्मकार ने आकर हमारी धारावी झोंपड़-पट्टी का चेहरा सारी दुनिया के सामने रखा और कईं ऑस्कर उस की झोली में आ पड़े ----यार, कोई अपने देश का फिल्मकार भी उन अमीर देशों की कोई ऐसी ही बात लेकर सारी दुनिया के सामने रख कर क्यों नहीं ऑस्कर लाता ? ---एक आइडिया तो मैंने दे ही दिया है ----डिम्ब-दान ( दान ??) करने वाली महिलायों के इर्द-गिर्द घूमती और बहुत कुछ सोचने पर मजबूर कर देने वाली ऐसी ही किसी थीम को लेकर भी कभी कोई फिल्म बननी चाहिये।

लेकिन जो पुरूष अपने शुक्राणु दान (??) करना चाहते हैं उन्हें इतना ज़्यादा उत्साहित होने की कोई खास वजह नहीं है ----उन्हें हर बार शुक्राणु दान करने के लिये 60 डालर ही मिलते हैं ----------यहां तो मर्द लोग मात खा गये !! …..क्या पता आने वाले समय में इस देश के बेरोज़गार, लाचार, बेहाल युवकों को भी इसी काम से ही कभी कभी अपना काम चलाना होगा !!

स्लम-डॉग मिलिनेयर देख ली है ---- सब से ज़्यादा उन सब बाल कलाकारों की अदाकारी मुझे पसंद आई ----क्योंकि वे सब नन्हे शैतान तो जन्मजात अभिनेता ही हैं , उन सब नन्हे कलाकारों के उजले भविष्य की कामना के साथ और उन के लिये बहुत बहुत शुभकामनाओं के साथ यही विराम ले रहा हूं।

सोमवार, 17 नवंबर 2008

मैडीकल तप्सरा ------------1.

समाचार है कि नाईज़ीरिया की मिलेटरी में पिछले पांच वर्षों में एच.आई.व्ही एवं एड्स के 94000 केस मिले हैं जिन में से सात हज़ार फौजी इस के दवाईयां भी ले रहे हैं।

क्या आप जानते हैं कि नीदरलैंड में मैजिक मशरूम भी मिलती हैं- चलिये कोई बात नहीं, क्योंकि वैसे भी नीदरलैंड ने इन पर एक दिसंबर से प्रतिबंध लगाने का फैसला किया है। वहां की स्वास्थ्य मिनिस्ट्री ने कहा है कि इन मैजिक मशरूम की वजह से इसे खाने वाले लोगों में अजीबोगरीब तरह के काल्पनिक ख्याल आने लगते हैं ( hallucinogenic effects) जिस से उस बंदे का बिहेवियर अटपटा सा और रिस्की हो सकता है। सूखी हुई मैजिक मशरूम को बेचना और अपने यहां रखना तो पहले ही से कानूनी तौर पर मना है। पिछले साल वहां पर एक 17साल की फ्रैंच टूरिस्ट ने इन्हीं मैजिक मशरूम को खाने के बाद एमसटर्डम के एक पुल से कूद कर जान दे दी थी--- वैसे अपने यहां भी तो हम लोग कभी कभी मीडिया में देख-सुन ही लेते हैं कि फलां फलां जगह पर जहरीली मशरूम खाने से इतने लोग अपनी जान गंवा बैठे ----इसलिये मशरूम तो ज़रूर खाइये, लेकिन इस बात का भी ध्यान रखिये।

महिलायें ज़रा ध्यान करें ---देश में जो महिलायें गर्भावस्था के दौरान उचित पोषण लेती हैं उन का प्रतिशत तो बेहद कम है, लेकिन अधिकतर महिलायें जो पर्याप्त मात्रा में उच्च स्तर का पोषण नहीं ले पाती हैं उन की संख्या बहुत ही ज़्यादा है और कुछ महिलायें हैं या उन के सगे-संबंधी हैं जो समझते हैं कि इस दौरान उसे खूब सारा मक्खन, देसी घी देना चाहिये । अच्छा तो खबर यह है कि न्यू-यार्क सिटी में चूहों पर किये गये एक अध्ययन में पाया गया है कि गर्भावस्था के दौरान ज़्यादा फैट्स लेने से गर्भ में विकसित हो रहे शिशु के दिमाग में कुछ इस तरह के स्थायी बदलाव हो जाते हैं जिन के कारण ज़िंदगी के शुरूआती दौर में उसे ज़रूरत से ज़्यादा खाने की लत लग जाती है जिस की वजह से इस शुरूआती दौर में ही उस का मोटापा बढ़ जाता है। इस अध्ययन को जर्नल ऑफ न्यूरोसाईंस में प्रकाशित किया गया है।

अमेरिका के सब से सेहतमंद शहर का नाम बतलाईये ----यह है बर्लिंगटन। वहां के लोग एक्सरसाईज़ भी खूब करते हैं, वहां पर मोटापा, डायबिटिज़ और खराब सेहत के अन्य इंडीकेटर्ज़ का प्रतिशत भी काफी कम है। वहां पर लोग साईकिल खूब चलाते हैं, हाईकिंग, स्कियिंग ( hiking and skiing) करते हैं और अधिकतर सेहतमंद खाना खाते हैं।

हलकाये हुये कुत्ते का डर क्यों लगता है ?---क्योंकि उस के काटने से या कुछ अन्य जानवरों के काटने से रेबीज़ नाम की बीमारी हो सकती है जो जानलेवा होती है। लेकिन एक बड़ी खबर यह है कि ब्राज़ील में एक 15 साल का लड़का जिसका रेबीज़ की बीमारी( जिस में दिमाग में सूजन आ जाती है) के लिये इलाज हुआ है , उस में सफलता हाथ लगी है। यह सारी दुनिया में रेबीज बीमारी के ठीक होने वाला दूसरा केस है -----बहुत अच्छी खबर है, हम लोगों में आस बंध गई कि हां, कुछ तो हो रेबीज़ का भी निकट भविष्य में हो ही सकता है। ध्यान रहे कि इस लड़के में रेबीज़ की बीमारी चमगादड़ के द्वारा काट लेने से हो गई थी और इसे एक महीने हास्पीटल में रहना पड़ा। पिछले 20 सालों में ब्राज़ील में रेबीज़ के 629 केस पाये गये।

बस एक माज़ा की दूरी है ---थोड़ी पागल पंथी भी ज़रूरी है ----इस विज्ञापन से याद आया ज़ोहरा सहगल जी का वह सुपरहिस्ट जबरदस्त विज्ञापन ---मैं तो जितनी बार भी यह विज्ञापन देखता हूं बहुत खुश हो जाता हूं क्योंकि मेरी निगाह में ज़ोहरा सहगल जी इस देश की सब से ज़हीन बुज़ुर्ग हैं। इस वक्त मुझे उन का ध्यान इस लिये आ गया कि क्योंकि आज कल यह रिसर्च चल रही है कि जो लोग 80 साल की उम्र के बाद भी बहुत ज़िंदादिल, खुशमिज़ाज और ज़हीन रहते हैं उन में और उन बुजुर्गों में आखिर क्या फर्क़ होता है जो बढ़ती उम्र के साथ अपनी यादाश्त खो बैठते हैं और इस रिसर्च से पता चला है कि जिन बुजुर्गों की यादाश्त एकदम अच्छी बनी रहती है उन में एक टाऊ (tau) नामक प्रोटीन के फाईबर-टाइप के उलझाव( fiber-like tangles of a protein linked with Alzheimer’s Disease)- कम होते हैं।

यूनाईटेड अरब एमेरिरेट्स (UAE) की सरकार ने यह फैसला किया है कि बच्चों को स्कूल में दाखिल करने पहले उन के रक्त एवं यूरिन की जांच की जायेगी। यह इसलिये किया जा रहा है ताकि छोटी उम्र में ही कुछ बीमारियों से बचने के उपाय कर लिये जायें। छोटे छोटे बच्चों में एनीमिया( खून की कमी), डायबिटिज़ और थैलेसिमिया रोग कईं वर्षों तक बिना किसी जांच के अपनी जड़े पक्की होने तक बढ़ता ही रहता है । प्रस्ताव के अनुसार ये टैस्ट पहले तो के.जी क्लास में दाखिले के समय, उस के बाद जब बच्चा पांचवी कक्षा में आयेगा और उस के बाद नवीं कक्षा में आने के बाद उस की यह जांच हुआ करेगी।

गुरुवार, 21 अगस्त 2008

मनीला में खुला पहला स्तन-दूध बैंक....

फिलिपिन्स की राजधानी मनीला अब माताओं को एक बैंक की सुविधा उपलब्ध हो गई है ...जहां पर वे पैसा नहीं बल्कि स्तन-दूध जमा करवा पायेंगी और निकलवा भी पायेंगी।

फिलिपिन्स का यह पहला कम्यूनिटी मिल्क बैंक पिछले शुक्रवार को खुला है और इस का उद्देश्य ही यह है कि उन बीमार बच्चों की मदद की जा सके जो इतने कमज़ोर हैं कि वे स्तन-पान करने में ही असमर्थ हैं या ऐसी माताओं की मदद के लिये जो शिशु को तुरंत अपना दूध नहीं पिला पातीं।
जिस दिन यह बैंक खुला उस दिन दो सो माताओं ने कम से कम 125 मिली दूध इस बैंक को भेंट किया। स्तन-दूध को इक्ट्ठा करने के लिये एक मैनुअल पंप का इस्तेमाल किया गया जिसे हर दूध-दाता ( Milk donor) ने लगभग 15 मिनट के लिये इस्तेमाल किया । एक मैनुअल ब्रैस्ट पंप की कीमत लगभग 40 यू.एस डालर बताई गई है।

खबर के मुताबिक हर मां से प्राप्त दूध को एक स्टैरीलाइज्ड कंटेनर में रखा जायेगा, जिसे कूलर में ट्रांसफर कर दिया जायेगा और स्थानीय हस्पताल में भेज दिया जायेगा। हास्पीटल के पास दूध को छः महीने तक रखने की सुविधा उपलब्ध है।

अभी यह खबर पढ़ी ही थी कि अमेरिका आंकड़ों पर भी नज़र पड़ गई।वहां पर 77फीसदी महिलायें स्तनपान करवाना शुरू तो करती हैं लेकिन छः महीने तक इसे केवल 36 फीसदी महिलायें ही करवा पाती हैं जब कि सरकार इस संख्या को 2010 तक 50 फीसदी तक तो लेकर जाना ही चाहती है। अमेरिकन एसोशिएशन ऑफ पैडीएटरिक्स शिशु को पहला पूरा साल ही मां का दूध देने की सिफारिश करता है।

तो , इस से गर्भवती भारतीय महिलाओं एवं बिलकुल छोटे शिशुओं की माताओं को भी तो एक अहम् सबक मिल रहा है ।

गुरुवार, 3 अप्रैल 2008

मैडीकल खबरों की खबर...1.



अब यह खबर लोगों को इतना क्यों डरा रही है कि आइसक्रीम खाने से हड्डीयां कमज़ोर हो सकती हैं। यह खबर जो आप यहां देख रहे हैं यह आज के ही पेपर में छपी है। जब सुबह सुबह मैं इस तरह की खबरों के दर्शन कर लेता हूं ना तो परेशान हो उठता हूं....क्योंकि मैं जानता हूं कि इन हिंदी अखबारों का दायरा बहुत बड़ा है और एक औसत पाठक इन में लिखी एक-एक लाइन को बहुत बारीकी से पढ़ता तो है ही उस पर अमल करने की भी कोशिश करता है।

इस तरह की त्रुटियां जहां भी मुझे हिंदी या पंजाबी के पेपरों में दिखती रही हैं मैं इन को संबंधित सम्पादकों के नोटिस में ई-मेल, फैक्स के ज़रिये पिछले चार-पांच वर्षों से लाता रहा हूं, लेकिन सिवाय एक-दो बार के जब कि अगले ही दिन संपादक ने संपादक के नाम पत्रों वाले कॉलम में इन्हें वैसे का वैसे छाप दिया.....ज़्यादातर मौकों पर इस पर कोई ध्यान ना दिया गया । अब यही काम अपनी इस ब्लोग पर कर लेता हूं क्योंकि मैंने देखा है कि इस हिंदी-ब्लोगोस्फीयर में भी बहुत से पत्रकार हैं जिन को इस विषय के बारे में अवेयर/सैंसेटाइज़ किया जा सकता है।

खैर, आज की यह खबर तो आप पढ़ें। मुझे तो यह बड़ी ही अजीब सी खबर लगी ....केवल इस की बढ़िया सी तस्वीरें और हैडिंग्ज़ ही न देखे जायें, कुछ बातें इस में लिखी बातों की भी हो जायें तो बेहतर होगा।

इस में और बातें तो की गई हैं कि बर्फ की सिल्लीयों में धूल-मिट्टी और मक्खियां लगती रहती हैं, लेकिन जिस पानी से यह बर्फ बनती है उस के बारे में भी बात होनी लाज़मी थी कि नहीं ....सारा दोष तो उस पानी का ही है।
अब अगले पैराग्राफ में यह भी बहुत ठोक-पीट कर कह तो दिया गया कि पानी में फ्लोराइड की मात्रा अधिक नहीं होनी चाहिये। अब कितना आसान है इस तरह की स्टेटमैंट जारी कर देना कि यह होना चाहिये वो होना चाहिये........अब ऐसा तो हो नहीं सकता कि आइसक्रीम की फैक्टरी वाला इस काम के लिये कोई अलग पानी इस्तेमाल करता है जिस में फ्लोराइड की मात्रा अधिक होती है और वह ऐसा भी नहीं करता होगा कि इस फ्लोराइड को बाहर से इस पानी में मिला देता हो.....उस के लिये ना तो ऐसा करना मुनासिब ही है और ना ही उस के द्वारा ऐसा करना संभव ही है। वैसे भी उसे ज्यादा फ्लोराइड वाले पानी को इस्तेमाल करने से कोई विशेष लाभ तो मिलने से रहा। तो, बात सीधी सी इतनी है कि जो भी पानी उस के पास उपलब्ध है वह वही तो इस्तेमाल करेगा............लेकिन जो भी हो , इस का शुद्धिकरण किया जाना बेहद लाजमी है, सिवाय उस फ्लोराइड के ज़्यादा-कम के चक्कर में पड़े हुये क्योंकि पानी में फ्लोराइड की मात्रा को नियंत्रित करने के लिये अमीर देशों में तो बहुत महंगे प्लांट लगे हुये हैं लेकिन हम लोग तो अभी इस मुद्दे पर बात न ही करें तो बेहतर होगा...............क्योंकि अभी मच्छरों से छुटकारा पाने जैसे और भी तो बहुत से बेसिक मुद्दे हैं। वैसे पेय जल में ज़्यादा फ्लोराइड वाला मुद्धा एक अच्छा खासा विषय है जिस के हडि्डयों एवं दांतों पर बुरे प्रभावों के बारे में फिर कभी चर्चा करेंगे।

बात केवल इतनी है कि जिस एरिये की जनता जो पानी पी रही है उसी पानी से ही तो ये बर्फ, बर्फ के गोले बन रहे हैं........ऐसे में सारा दिन मजबूरी वश यही पानी पीने से जो असर इन बशिंदों की हड्डियों पर पड़ेगा, यकीन मानिये एक बर्फ का गोला खाने से उस में आखिर क्या अंतर पड़ने वाला है, इसी समय यही सोच रहा हूं!!

एक विचार यह भी आ रहा है कि अपने ही प्रोफैशन से जुड़े व्यक्तियों की बातें काटते हुये अच्छा तो नहीं लगता, बहुत समय तक मैं यह सब कुछ पढ़ कर चुप रहता था, अपने आप में कुढ़ता रहता है ....अब मैं इन बातों को उजागर करता हूं...क्योंकि मैं यह अच्छी तरह से यह समझ गया हूं कि अगर मेरे जैसे लोग इस काम का बीड़ा नहीं उठायेंगे तो और कौन यह काम करने आयेगा!!

अब इस खबर की एक अजीबो-गरीब बात यह देखिये कि कहीं भी इस आइस-क्रीम बनाने के लिये इस्तेमाल किये जाने वाले दूध के ऊपर इस ने बिल्कुल भी सवालिया निशान नहीं उठाया....सवालिया निशान की तो छोड़िये, इस का जिक्र तक करने की ज़रूरत नहीं समझी !!....वैसे मेरी तरह आप को भी पांच-सात रूपये में बिकने वाली आइसक्रीम की सोफ्टी देख कर हैरानगी तो बहुत होती होगी कि पांच-सात रूपये में इतना ज़्यादा........हो न हो, जरूर कुछ तो गड़बड़ होती है, वरना पांच-सात रूपये में यह सब कैसे मिल सकता है। मुझे भी नहीं पता ये लोग क्या मिलाते हैं क्या नहीं !!..

इस खबर में एक दंत-चिकित्सक यह कह रहे हैं कि अगर आइस-क्रीम खाई है तो ब्रुश कर के सोना चाहिये.....नहीं तो दांतों मे ठंडा-गर्म लगने लगता है। अब इस के बारे में तो इतना ही कहना चाहूंगा कि आइसक्रीम खाने के दिन ही नहीं ...रोजाना रात को सोने से पहले ब्रुश करना निहायत ज़रूरी है। और, ऐसा न करना दांतों की हर प्रकार की तकलीफों को जन्म देता है............सिर्फ दांतो में ठंडा-गर्म लगना ही नहीं, हां उन तकलीफों में से एक यह हो सकता है।

चलते चलते यही कहना चाहूंगा कि बाज़ार में बिकने वाली इन आइसक्रीम और गोलों में सब कुछ गड़बड़ ही है..........जैसा कि आप इस खबर में भी पढ़ रहे हैं कि तरह तरह के नुकसानदायक रंग इस्तेमाल किये जाते हैं, बर्फ खराब, बर्फ को बनाने के लिये इस्तेमाल किया जाने वाला पानी गड़बड़, सैकरीन का प्रयोग, अजीबोगरीब फ्लेवरर्ज़....क्योंकि अकसर इन आइसक्रीम वालों को , गोलों को किसी तरह से नियंत्रित नहीं किया जा सकता .....( या, कोई करना नहीं चाहता !!....क्या आप यह सोच रहे हैं ?)…..ऐसे हालात में आखिर इस तरह की आइसक्रीम, बर्फ के गोलों वगैरा के चक्कर में आखिर पड़े तो क्यों पड़ें ?........वैसे बात सोचने की है कि नहीं !

मंगलवार, 22 जनवरी 2008

थोड़ी थोड़ी पिया करो...?


तंग आ गया हूं, दोस्तो, मैं मरीजों की इस बात का जवाब दे देकर जब वे यह कहते हैं कि यह बात तो आजकल आप डाक्टर लोग ही कहते हो कि थोड़ी थोड़ी पीने में कोई खराबी नहीं है। इस का जो जवाब मैं उन्हें देता हूं—उस पर तो मैं बाद में आता हूं, पहले ब्रिटेन में हुई एक स्टडी के बारे में आप को बताना चाहूंगा।

कैंब्रिज यूनिवर्सिटी के रिसर्चकर्त्ताओं ने यह निष्कर्ष निकाला है कि जिन लोगों की जीवन-शैली में चार स्वस्थ आदतें शामिल हैं----धूम्रपान न करना, शीरीरिक कसरत करना, थोड़ी-थोड़ी दारू पीना,और दिन में पांच बार किसी फल अथवा सब्जी का सेवन करना ---- ये लोग उऩ लोगों की बजाय 14वर्ष ज्यादा जीतें हैं जिन लोगों में इन चारों में से कोई एक बिहेव्यिर भी नहीं होता। इस रिसर्च को 45 से 79 वर्ष के बीस हज़ार पुरूषों एवं औरतों पर किया गया।

यह तो हुई इस रिसर्च की बात....अब आती है मेरी बात...अर्थात् बाल की खाल उतारने की बारी। एक बार ऐसा अध्ययन लोगों की नज़र में आ गया ,तो बस वे समझते हैं कि उन्हें तो मिल गया है एक परमिट पूरी मैडीकल कम्यूनिटी की तरफ से कि पियो, पियो, डोंट वरी, पियो ...अगर जीना है तो पियो......बस कुछ कुछ ठीक उस गाने की तरह ही ....पीने वालों को पीने का बहाना चाहिए।

अब मेरी व्यक्तिगत राय सुनिए। जब कोई मरीज मेरे से ऐसी बात पूछता है तो मैं उस से पूछता हूं कि पहले तो यह बताओ कि तुम्हारा स्टैंडर्ड आफ लिविंग उन विदेशियों जैसा है.... जिस तरह का जीवन वे लोग जी रहे हैं....क्या आपने तंबाकू का सेवन छोड़ दिया है, रिसर्च ने तो कह दिया धूम्रपान...लेकिन हमें तो चबाने वाले एवं मुंह में रखे जाने तंबाकू से भी उतना ही डरना है। दूसरी बात है शारीरिक कसरत की ---तो क्या वह करते हो। अकसर जवाब मिलता है ...क्या करें, इच्छा तो होती है, लेकिन टाइम ही नहीं मिलता। आगे पूछता हूं कि दिन में पांच बार कोई फल अथवा सब्जी लेते हो.....उस का जवाब मिलता है कि अब इस महंगाई में यह फ्रूट वूट रोज़ाना कहां से ले पाते हैं, दाल रोटी चल जाए – तब भी गनीमत जानिए। तो, फिर मेरी बारी होती है बोलने की ---जब पहली तीन शर्तें तो पूरी की नहीं, और जो सब से आसान बात लगी जिस से अपनी बीसियों साल पुरानी आदत पर एक पर्दा डालने का बहाना मिल रहा है, वह अपनाने में आप को बड़ी सुविधा महसूस हो रही है।

इसलिए मैं तो व्यक्तिगत तौर पर भी ऐसी किसी भी स्टेटमैंट का घोर विरोधी हूं जिस में थोड़ी-थोडी़ पीने की बात कही जाती है। इस के कारणों की चर्चा थोडी़ विस्तार से करते हैं। दोस्तो, हम ने न तो खाने में परहेज किया...घी, तेल दबा के खाए जा रहे हैं, ट्रांस-फैट्स से लैस जंक फूड्स में हमारी रूचि दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही है, उस के ऊपर यह दारू को भी अपने जीवन में शामिल कर लेंगे तो क्या हम अपने पैरों पर स्वयं कुल्हाड़ी मारने का काम नहीं करेंगे। शत-प्रतिशत करेंगे, क्यों नहीं करेंगे !

मेरा यह दृढ़ विश्वास है कि सेहत को ठीक रखने के लिए आखिर दारू का क्या काम है....This is just an escape route…... अब अगर हम यह कहें कि मन को थोड़ा रिलैक्स करने के लिए 1-2 छोटे छोटे पैग मारने में क्या हर्ज है, यह तो बात बिलकुल अनुचित जान पड़ती है, वो वैस्टर्न वर्ड तो इस तनाव को दूर भगाने के लिए अपने यहां की ओरियंटल बातों जैसे कि योग, मैडीटेशन को अपना रहा है और हम वही उन के घिसे-पिटे रास्ते पर आगे बढ़ने की कोशिश कर रहे हैं।

एक बात और भी है न कि अगर छोटे-छोटे पैग मारने की किसी डाक्टर ने सलाह दे भी दी, तो क्या गारंटी है कि वे छोटे पैग पटियाला पैग में नहीं बदलेंगे। क्योंकि मुझे पता है न कि हमारे लोग इस सुरा के मामले में इतने मैच्योर नहीं है। यह जानना भी बेहद जरूरी है कि अच्छी क्वालिटी की शराब कुछ कम खराब असर करती है और वह भी तब जब साथ में खाने का पूरा ध्यान रखा जाए..यानि प्रोटीन का भी पीने वालों की डाइट में पूरा समावेश हो। अमीर देशों में तो वे ड्राइ-फ्रूट को भी पीते समय साथ रखते हैं............लेकिन हमारे अधिकांश लोग न तो ढंग की दारू ही खरीदने में समर्थ हैं, न ही कुछ ढंग का खाने को ही रखते हैं.....अब कटे हुए प्याज को आम के आचार के साथ चाटते हुए जो बंदा दारू पी रहा है, वह अपना लिवर ही जला रहा है, और क्या ! इस का अभिप्रायः कृपया यह मत लीजिए कि महंगी शराब जिसे काजू के साथ खाया जाए उस की कोई बात नहीं ----बात है, दोस्तो, बिल्कुल बात है। नुकसान तो वह भी करती ही है -----There is absolutely no doubt about that.

एक बात और भी है न कि जब आदमी शराब पीनी शुरू करता है न, तो पहले तो वह उस को पीता है, बाद में मैंने तो अपनी प्रैक्टिस में यही देखा है कि उस की ज़रूरत बढ़ती ही जाती है......जैसे लोग कहते हैं न कि फिर शराब बंदे को पीना शुरू कर देती है,और धीरे धीरे उस को पूरा चट कर जाती है।

क्या मैं नहीं पीता ?---आप की उत्सुकता भी शांत किए देता हूं। दोस्तो, मैं गीता के ऊपर हाथ रख कर सौगंध खा कर कहता हूं कि दारू तो दूर मैंने आज तक बीयर को भी नहीं चखा। इस के लिए मैं ज्यादातर श्रेय गौरमिंट मैडीकल कालेज , अमृतसर की पैथालोजी विभाग की अपनी प्रोफैसर मिसिज वडेरा को देता हूं जिस ने 18-19 साल की उम्र में हमें अल्कोहल के हमारे शरीर पर विशेषकर लिवर पर होने वाले खतरनाक प्रभावों को इतने बेहतरीन ढंग से पढ़ाया कि मैंने मन ही मन कसम खा ली कि कुछ भी हो, इस ज़हर को कभी नहीं छूना। सोचता हूं कि यार, ये टीचर लोग भी क्या ग्रेट चीज़ होते हैं न, क्यों कुछ टीचर्ज़ की बातों में इतनी कशिश होती है, इतना मर्म होता है कि उन की एक एक बात मन में घर जाती है..................क्योंकि वे सब अपना काम दिल से, शत-प्रतिशत समर्पण भाव से कर रहे होते हैं। आप इस के बारे में क्या कहते हैं, दोस्तो, कमैंट्स में लिखना।

सो, Lesson of the story is…….Please, please, please…..please stay away from alcohol…………..यह हमारी सीधी सादी मासूम ज़िंदगी में केवल ज़हर घोलती है। क्या हमारे आसपास वैसे ही तरह तरह का ज़हर कम फैला हुया है कि ऊपर से हमें इस के लेने की भी ज़रूरत महसूस हो रही है।

अच्छा, तो दोस्तो, अब उंगलियों को विराम दे रहा हूं क्योंकि खाने का समय हो गया है।

22.1.08 (9pm)

रविवार, 13 जनवरी 2008

हैल्थ-न्यूज़ अपडेट- II

HIV Test होने से करोड़ों लोगों को रिस्क
यह समस्या हमारे देश में ही नहीं, अमेरिका में भी हैअभी तक अमेरिका की एक-तिहाई जनसंख्या ने हीएचआईव्ही टैस्ट करवाया हैयहां तक कि असुरक्षित संभोग करने वाले एवं नशे के लिए सूईंयों का इस्तेमालकरने वाले लोगों में से भी केवल एक चौथाई लोगों पर यह टैस्ट किया गया हैइसी वजह के कारण ही इसइंफैक्शन के फैलने को रोकना बेहद मुश्किल जान पड़ रहा है
चिकित्सा विशेषज्ञों का यही मानना है कि HIV testing की सुविधाओं को और भी ज्यादा व्यापक बनाना होगाऔर इसे सामान्य हैल्थ चैक-अप का एक हिस्सा ही बनाना होगा
अमेरिका के यू.एस सैंटर फार डिसीज़ कंट्रोल एंड प्रिवेंशन के अनुसार अमेरिका में 11लाख लोग HIV infection सेग्रस्त हैं जिनमें से 25प्रतिशत तो यह जानते भी नहीं हैं कि उन में वायरस हैयही 25% लोग आधी से ज्यादा नईइंफैक्शन फैला रहे हैं क्योंकि ये बचाव के सुरक्षात्मक तरीके नहीं अपनाते
मलेरिया से बचाव का टीका----
मलेरिया के टीके पर हो रही शुरूआती रिसर्च से काफी उत्साहवर्द्धक परिणाम मिल रहे हैंवैज्ञानिकों के अनुसारइस से अफ्रीकी शिशुओं में मलेरिया होने के रिस्क में 65प्रतिशत कमी आईइसी टीम ने यह भी पाया कि मलेरियाका टीका सुरक्षित हैइससे पहले हुए एक अध्ययन के अनुसार 1से 4वर्ष के बच्चों में इस टीके से नये मलेरियासंक्रमण का रिस्क 45% तक घट जाता हैइस टीके पर शोध कर रहे वैज्ञानिकों ने इस टीके से उत्पन्नऐंटीबाडीज़(रोग प्रतिऱोधक गुण) के कारण मलेरिया इंफैक्शन के कम होते रिस्क को सिद्ध किया है
उच्च रक्त-चाप का कंट्रोल भी टीके से-----
क्या आश्चर्यजनक नहीं लगता कि उच्च रक्त-चाप को कंट्रोल करने के लिए डाक्टर केवल लगवाने का नुस्खा हीथमा देंलेकिन अमेरिकन हार्ट एसोशिएशन के बैज्ञानिकों को एक ऐसे ही टीके के परीक्षण से अच्छे परिणाम मिलेहैंइन्हें उम्मीद है कि उम्र भर तक उच्च रक्तचाप के कंट्रोल के लिए बस चंद टीके ही पर्याप्त होंगे
यह नया टीका शरीर में एंजियोटैंसन-II (angiotensin II)नामक रसायन की उत्पति को रोकता हैऔर इसरसायन की वजह से ही रक्तचाप बढ़ता है क्योंकि यह एंजियोटैंसन हमारी धमनियों एवं शिराओं (blood vessels) में सिकुड़न पैदा करता हैआजकल बाज़ार में बी पी के कंट्रोल के लिए उपलब्ध बहुत सी दवाईयां भी इसीएंजियोटैंसन- II को ही अपना निशाना बनाती हैंइस टीके पर अभी और भी काम होना बाकी है
दोस्तो, यह बीपी को टीके से कंट्रोल करने वाली बात लिखते लिखते मैं तो यही सोच रहा हूं कि आखिर हमारी यहकुदरत से आगे निकल जाने की दौड़ कहां तक चलेगी.....क्या हम वास्तव में उस से आगे निकल जाएंगे ?----- असंभव !!.............Mother Nature is so full of mysteries ……..लेकिन फिर भी कुछ नया सोचना, कुछ नयाकरना, कुछ नये नये सपने देखना, हवाई किले बनाना....यही तो ज़िंदगी है.......हमारी लाइफ इसी के इर्द-गिर्द हीघूमती है

PS……….I trust I have told my fellow bloggers that my teenage son is behind my starting these blogs…..he told me that dad, go ahead, you can now write in Hindi on the net…….I was a bit skeptical about it….but he insisted and I took the plunge. But, now I want to tell you that he is annoyed with me ----simply because of the fact that I am so much time to this blog posts. He quite often laughingly says…….पापा, मैं ते बडा़ पछताना वां कि ओह केहड़ी घड़ी सी जदों मैं तुहानूं इस हिंदीलिखन बारे दस दित्ता.......( पापा, मैं तो सचमुच पछता रहा हूं कि वह कौन सी घड़ी थी जिस समय मैंने आप कोइस हिंदीविंदी लिखने के बारे में बतला दिया.....मैंने तो अपने पैरों पर खुद कुल्हाड़ी मार ली है) ...........उस के ऐसेकहने के पीछे छुपे कारण को तो, दोस्तो, आप समझ ही चुके होंगे.....यही कि अब उसे नेट पर बैठने के लिए समय़कम मिलता है ....क्योंकि बापू ज्यादा टैक-सेवी हो गया हैआप ही थोड़ा समझाइए उसे कि यह तो उस के लिएवैसी ही blessing in disguise है क्योंकि प्लस-टू की बोर्ड परीक्षा के लिए ब्लागिंग सिलेबस में है ही नहीं
मैंने कुछ बोर करना तो नहीं शुरू कर दिया.....अच्छा दोस्तो, फिर मिलते हैं....हैपी लोहड़ी......अभी बाहर सेबार-बार आवाज़े रही हैं कि अब बाहर भी आओ, लोहड़ी जलानी है...................लेकिन ब्लागिये भी ठहरे पक्केगपोड़ी, एक बार की-पैड पर हाथ थिरकने लगे कि बस ठहरने का नाम ही नहीं लेते..........उस प्रभु से यही प्रार्थना हैकि सब ब्लागियों के हाथ यूं ही निरंतर चलते रहें ताकि वे सब मिल कर ज्ञान की अलख जगाते रहें....। .


हैल्थ-न्यूज़ अपडेट......1.


गुर्दे की बीमारी के बढ़ते केस लेकिन अधिकांश रोगी अनजान
अमेरिका की नेशनल इंस्टीच्यूट आफ हैल्थ के एक अध्ययन से यह बात सामने आई है कि अमेरिका में गुर्दे कीलम्बे समय तक चलने वाली बीमारी (क्रानिक केस) के केस तेज़ी से बढ़ रहे हैं लेकिन इस से ग्रस्त अधिकांश लोगोंको इस का आभास तक नहीं हैयही वजह है कि गुर्दे को स्थायी रूप से क्षतिग्रस्त होने अथवा गुर्दा फेल होने कीरोकथाम के उपाय समय रहते ठीक से नहीं हो पाते जिस से मरीज़ों को डायलासिस या गुर्दे के प्रत्यारोपण (किडनीट्रांस्प्लांट) करवाने को विवश होना पड़ता है

इस अध्ययन के अनुसार अमेरिका में 260लाख लोग (अमेरिका की जनसंख्या का 13प्रतिशत हिस्सा) गुर्दे कीजटिल बीमारी से ग्रस्त हैंमधुमेह, उच्च रक्तचाप , मोटापा इत्यादि इस के लिए ज़िम्मेदार हैंगुर्दे की बीमारी कीमुख्य त्रासदी ही यही है कि यह बहुत उग्र रूप धारण करने तक भी शांत ही रहती हैलेकिन अगर हमें इस कासमय रहते पता चल जाए तो गुर्दे को फेल होने से बचाने के लिए काफी कुछ किया जा सकता हैइसलिए जिसे भीशुगर रोग (डायबिटिज़), उच्च रक्तचाप या परिवार में गुर्दे की बीमारी की हिस्ट्री है तो उसे नियमित रूप से गुर्दे कीकार्यप्रणाली को चैक करने हेतु रक्त की जांच (ब्लड यूरिया, क्रियट्नीन आदि) एवं मूत्र परीक्षण नियमित तौर परकरवाते रहना चाहिए

बहुत से टी.बी रोगी एच.आई.व्ही से भी ग्रस्त---- एक रिपोर्ट
अमेरिका के लगभग एक तिहाई टीबी के मरीज यह नहीं जानते कि क्या वे एचआईव्ही संक्रमण से भी ग्रस्त हैं किनहीं ??- यह तथ्य इस बात को ही रेखांकित करता है कि इन मरीज़ों का एच.आई.व्ही टैस्ट करवाने हेतु ठोस कदमउठाने की जरूरत हैविश्व भर में एच.आई.व्ही से ग्रस्त रोगियों की मृत्यु का का एक अहम् कारण बेकाबू हुया टीबीरोग ही है
अमेरिका के सैंटर फार डिसीज़ कंट्रोल के अनुसार 2005 में अमेरिका में सभी सक्रिय टीबी के मरीज़ों में से 9 प्रतिशत को एच.आई.व्ही संक्रमण से भी ग्रस्त पाया गया थालेकिन 31प्रतिशत टी.बी मरीज़ों में तो इस का पतानहीं चल पाया कि उन्हें एच.आई.व्ही संक्रमण है या नहीं क्योंकि ये लोग वो लोग थे जिन्होंने या तो स्वयं यह टैस्टकरवाने से मना ही कर दिया अथवा इन को टैस्ट करवाने की सलाह ही नहीं दी गईअब यह सिद्ध हो चुका है किएचआईव्ही संक्रमण टी बी रोग को बढ़ा देता है और टी.बी रोग एचआईव्ही संक्रमण को बेकाबू कर देता हैअमेरिका के सेंटर फार डिसीज़ कंट्रोल ने सभी टीबी मरीज़ों की रूटीन एचआईव्ही टैस्टिंग की सिफारिश की है

यह पोस्ट लिखते लिखते यही ध्यान रहा है कि अगर अमेरिका में यह स्थिति है तो इस देश में क्या हालातहोंगे----हमारी तो भई वही बात लगती है कि जैसै कबूतर अपनी आंखें बंद कर के यही सोच पाल लेता है कि अबबिल्ली का कोई रिस्क नहीं है !!

मोटापा कम करने वाली दवा पर लगा प्रश्न-चिन्ह----
मोटापा कम करने वाली दवाई लेने की तैयारी करने वालों के लिए एक बुरी खबर यह है कि एक ऐसी ही दवाईरिमोनाबेंट को ले रहे रोगियों में डिप्रेशन (अवसाद) एवं अत्यधिक तनावग्रस्त रहने जैसे मानसिक विकार उत्पन्नहोने की आशंका दोगुनी बताई गई हैचिकित्सा वैज्ञानिक वैसे तो पहले से ही इस दवाई को आत्महत्या के विचारपैदा करने के साथ लिंक कर चुके हैंब्रिटिश मैडीकल जर्नल के एक अध्ययन के अनुसार इस दवाई के उपयोग सेमोटापे में कुछ खास कमी आती भी नहीं है और ज्यादातर लोगों का मोटापा बना ही रहता है

मंगलवार, 1 जनवरी 2008

हवाई यात्रा के दौरान टी.बी से ग्रस्त महिला के साथ बैठे लोगों की तलाश

अमेरिका में स्वास्थ्य अधिकारी आज कल वहां के 17 स्टेटों में एक तलाश में बेहद मसरूफ हैं। दिसंबर07 के शुरू शुरू में नेपाल मूल की एक 30वर्षीय महिला ने भारत से सैन-फ्रांसिस्को तक हवाई-यात्रा की, जिस दौरान शिकागो में उस का यात्रा-विराम भी हुया- ऐसे ही लगता है कि इस महिला का उस तलाश से क्या संबंध ?- यह महिला इस तरह की टीबी से ग्रस्त है जिस में दवाईयों भी बेअसर होती हैं।
सैन-फ्रांसिस्को पहुंचने के एक हफ्ते बाद जब वह महिला इलाज के लिए स्टेनफोर्ड यूनिवर्सिटी अस्पताल में पहुंची तो विशेषज्ञों को उस का परीक्षण करने का बाद यह पता चला कि वह तो टीबी के अति व्यग्र एवं खतरनाक किस्म से ग्रस्त है।
स्वास्थ्य अधिकारियों ने तो इस की सूचना भी दी है कि वह महिला भारत से शिकागो की फ्लाईट के दौरान 35वीं लाइन में बैठी हुईं थीं। स्वास्थ्य अधिकारियों ने कहा है कि उस फ्लाईट में यात्रा कर रहे अन्य 44 यात्री जो उस महिला के इतने आस-पास थे कि उन्हें भी टीबी रोग हो सकता है, लेकिन इस रिस्क को इतना ज्यादा भी नहीं बताया गया है। स्वास्थ्य एजॆंसी ने यह सलाह दी है कि इन सब 44 लोगों को अब टीबी के लिए अपना टैस्ट करवा लेना चाहिए और उस के 10 सप्ताह बाद भी दोबारा से यह टैस्ट करवाना चाहिए। जून2006 से जून 2007 के बीच यह सरकारी स्वास्थ्य एजेंसी ( सेंटर फार डिसीज़ कंट्रोल) लगभग एक सौ ऐसी ही तलाशों में व्यस्त रही।
यह सब आप को भी बहुत हैरत-अंगेज़ लग रहा होगा-- मुझे भी लगा। लेकिन उन देशों में टीबी जैसे संक्रमक रोगों से बचाव के प्रोग्राम कुछ इस तरह के ही जबरदस्त हैं कि हम लोग दांतों तले उंगली दबाते दबाते रह जाते हैं। अब आप ही देखिए एक फ्लाईट में यात्रा कर रही टीबी रोगी के सह-यात्रियों की तलाश और उन्हें अपने टैस्ट करवाने की सलाह। इसे ही कहते हैं बचाव !! दोस्तो, आप भी इस टीबी के बारे में अकसर मीडिया में देखते-पढ़ते रहते होंगे जिस में टीबी की दवाईयां भी कुछ असर नहीं करतीं। इस का कारण ?---मुख्यतः तो यही कि टीबी से ग्रस्त मरीज बीच बीच में इलाज छोड़ देते हैं, पूरा कोर्स करते नहीं, पूरी डोज़ लेते नहीं----और इस सब के साथसाथ आज कल के परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो एड्स जैसी बीमारी से जुझ रहे मरीज़ों के लिए भी यह भयंकर किस्म का टीबी रोग जिस में कोई दवा काम नहीं करती, जानलेवा सिद्ध होता है। ऐसे में अमेरिका की स्वास्थ्य एजेंसी कैसे भला कोई चांस कैसे ले सकती है।
दोस्तो, आज मुझे मैडीकल कालेज में अपनी पढाई के दौरान की एक बात याद आ रही है---किसी ने मैडीसन के प्रोफैसर साहब से प्रश्न किया कि सर, हमारे देश में टीबी कितने लोगों को है ?- उन्होंने ने जवाब दिया कि आप इस का कुछ कुछ अंदाज़ा इस बात से लगा लें कि आप जिस बस में यात्रा कर रहे हैं, आप यह मान कर चलें कि उस में एक टीबी से ग्रस्त व्यक्ति है---साथियो, इस बात को ध्यान रखिए कि यह बात 20साल पुरानी है। लेकिन दोस्तो, क्या हम ने उस यात्री के सहयात्रियों को क्या कभी ढूंढने की कोशिश की ??????----ठसाठस भरी हुईं हमारी बसें, बंदे के ऊपर बंदा चढ़ा हुया, बीडी़ के धुएं का लगातार साथ - चाहे खांस-खांस कर पेट दुःखने लग जाए और मुंह पर रूमाल या हाथ रखने का कोई रिवाज़ नहीं--- ऐसे में हम कब उन सहयात्रियों को ढूंढ पाएंगे। वैसे बात सोचने की है या नहीं ,दोस्तो। आप को भी क्या लग नहीं रहा कि दुनिया तो हमारे सिर्फ आंकड़ों के दीवानेपन के बहुत आगे निकल चुकी है। चलिए , हम भी इस से सबक सीखने की कोशिश करते हैं।
Wish you a wonderful 2008 full of HAPPINESS.......HAPPINESS......HAPPINESS....................yes, so much happiness that literally no space is left for anything else to stay on . God bless you all.....take care!!

शुक्रवार, 21 दिसंबर 2007

सिंदूर का एक ब्रांड भी निशाने पर........

हाल ही में अमेरिका की फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन ने सिंदूर के एक ब्रांड को लेकर चेतावनी जारी की है। उस ब्रांड के सिंदूर की लेबलिंग के साथ कुछ गड़बड़ थी- वह यह कि उस की पैकिंग के ऊपर लिखा गया था कि यह बेहद स्वादिष्ट सिंदूर है। रैसिपीज़ के लिए कंपनी ने अपनी वेब-साइट पर आने का निमंत्रण कंपनी ने अपने ग्राहकों को दिया था। इस के परिणामस्वरूप लोगों ने उस सिंदूर को खाना बनाने के लिए उपयोग करना शुरू कर दिया होगा, जिस के परिणाम स्वरूप दो केस लैड प्वाईज़निंग के इस अथारिटी के नोटिस में आ गये, जिस के परिणाम स्वरूप यह चेतावनी जारी की गई है। साथ में यह भी बताया गया कि हाई-लैड कंटैंट वाले सिंदूर को सिर पर या चेहरे पर लगाना जोखिम मोल लेने से कम नहीं है।
दोस्तो, एक बात जिस से मैं अचंभित हूं कि वहां की एफडीआई कितनी सजग संस्था कितनी सजग संस्था है.....एक सिंदूर तक पर उस की पैनी निगाहें, यहां तक की उस की पैकिंग भी उन की कयामत भरी नज़रों से बच न पाईं। तो , दोस्तो, इस से हम सहज ही यह अंदाज़ा लगा सकते हैं कि वे किस शिद्दत से काम करते होंगे। हालाकि ये सिंदूर वहां दक्षिण-एशियाई मूल की महिलाओं के द्वारा अपने सिर पर, चेहरे पर अथवा उन के धार्मिक फंक्शनों पर ही इस्तेमाल होता होगा।
और अपने यहां के कास्मैटिक्स की तो बात ही क्या करें.....कास्मैटिक्स के नाम पर कुछ भी मिलता, खूब धडल्ले से फुटपाथों पर बिकता है और खूब चाव से मांगों में भरा जाता है, होठों पर लगाया जाता है और अच्छे-खासे चेहरे पर लिपा जाता है। वैसे बात सोचने की है या नहीं?

मंगलवार, 18 दिसंबर 2007

जंक फूड के शौकीन बेटे को डैडी के लिवर ने बचा लिया...

अभी अभी अंग्रेज़ी के अखबार में यह रिपोर्ट पढ़ी है कि कैसे मुंबई में एक जंक फूड के शौकीन बेटे को उस के डैडी के लिवर ने बचा लिया। रिपोर्ट में बताया गया है कि वह 18साल का लड़का रोड-साइड की दुकानों से कबाब एवं अन्य प्रकार के जंक-फूड खाने का अच्छा खासा शौकीन था। इस शौक की वजह से वह हैपेटाइटिस ए एवं ई की चपेट में आ गया। घर वाले ने तो साधारण पीलिया ही समझा- लेकिन जल्दी ही उस के लिवर फेल की बात सामने आ गई। उस के डैडी ने अपने लिवर का एक हिस्सा (600ग्राम) देकर बेटे में लिवर ट्रांस्पलांट करवा कर उस की जान बचा ली। रिपोर्ट में यह भी बताया गया कि शायद मुंबई में यह पहला अपनी किस्म का लिवर-ट्रांसप्लांट आप्रेशन था जो कि एक एमरजेंसी के तौर पर किया गया। रिपोर्ट में एक बार फिर यह रेखांकित किया गया है कि जंक फूड हमारी सेहत को किस तरह से बर्बाद कर सकता है और हमें मौत के मुंह में धकेल सकता है। इस बच्चे के पिता तो यह सारा इलाज करवाने में सक्षम थे और उन्होंने सब समय पर करवा दिया--- देश में आखिर कितने लोगों की ऐसा ट्रीटमैंट पाने की हैसियत है। खैर जो भी हो इन रिपोर्टों से लिवर की बीमारीयों से ग्रसित रोगियों में आशा की एक किरण देखने को मिलती है। वैसे देश में लिवर टांस्पलांट का ट्रेंड चल निकला है, चिकितस्क इस में महारत हासिल कर रहे हैं, अच्छा है.....लेकिन मई 2007 तक देश में 318 लिवर ट्रांसप्लांट ही हुए हैं। एक बड़ी महत्वपूर्ण बात जो देखने में आई है वह यह है कि हमारे देश में अभी तक जितने भी लिवर ट्रांसप्लांट हुए है उन में से लिवर का प्रत्यारोपित होने वाला हिस्सा जिंदा डोनर से प्राप्त हुया --- जब कि अमेरिका में लगभग 90 प्रतिशत केसों में यह लिवर ब्रेन-डैड व्यक्तियों से प्राप्त हो रहा है। विशेषज्ञ ऐसे बताते है कि भारत में यह जो लाइव लिवर ट्रांस्पलांट का चलन शुरू हुया है यह चिंताजनक ही है क्योंकि लिवर का एक हिस्सा दान देने वाले को कुछ रिस्क तो होता ही है- डोनर को एक आप्रेशन करवाना होता है जिस में उस के लिवर का एक हिस्सा निकाला जाता है।
यह एक अच्छी रिपोर्ट थी लेकिन इस में जानकारी और मुहैया करवाई जाती तो बहुत अच्छा होता- यह बताना चाहिए था कि इस पर कितना खर्च आता है, मरीज को एवं उस के डोनर को कितने दिन हास्पीटल में रहना होता है, लिवर की किन बीमारियों को इस से ठीक कर पाना संभव है- एवं देश में किन किन सैंटरों पर ऐसा आप्रेशन करवाना संभव है।
वैसे तो ये सुविधाएं देश के महानगरों में ही उपलब्ध होती हैं। लेकिन फिर भी अगर हम समय तरह अपने लिवर की सेहत की खातिक अपनी खान-पान को सुधार ही लें तो कितना बेहतर होगा। प्रकृति के वरदानों का हमें तभी अहसास होता है जब हम कभी कभी अपनी लापरवाही (या बेवकूफी) की वजह से किसी ऐसी बीमारी को आमंत्रण दे डालते हैं।
कृपया जंक फूड से और रास्ते पर बिकने वाले खाद्य पदार्थों से दूरी बना कर रखें। और पीने वाले पानी की स्वच्छता का हमेशा ध्यान रखें---- हैपेटाइटिस ए एवं इ ऐ ऐसे खाद्य पदार्थों से ही अपनी चपेट में लेता है।

Wish you all pink of health and spirits.......take care,plz!!

शुक्रवार, 14 दिसंबर 2007

क्या अब हमारी बुजर्ग औरतों को भी शराब पिला कर छोड़ोगे ?

क्या अब हमारे देश की बुजुर्ग औरतों को भी शराब पिलाओगे........आप भी धन्य हो
आज के ही एक अच्छे खासे प्रसिद्ध हिंदी के एक समाचार-पत्र में एक खबर दिखी. शीर्षक था...बुढ़ापे में उम्र बढ़ाती है शराब....खबर में लिखा था कि आस्ट्रेलिया में किए गए एक सर्वेक्षण के अनुसार 70 साल से ज्यादा आयु वर्ग की जो महिलाएं दिन में एक या दो बार शराब का सेवन करती हैं, वह शराब का सेवन न करने वालों की तुलना में अधिक उम्र तक जीती हैं. अच्छी खासी लंबी खबर लगी हुई थी। ऐसी खबरें पढ़ कर इन समाचार-पत्रों की दयनीय हालत का ध्यान आता है। वैसे देखा जाए तो इन के हालात तो अच्छे खासे हैं.....बस पता नहीं क्यों ये ऐसी खबरें लगा के फिज़ूल की अटैंशन बटोरना चाहते हैं। अब सिडनी की औरतें शराब पिएं तो पिएं....... इस देश की सीधी सादी औरतें के मन में काहे ऐसी बातें भर रहे हो भई। उन देशों की महिलाएं अपने स्वास्थ्य के प्रति कितनी सचेत हैं इस का बखान भी यहां कि अखबारों में किया करो भाई, वे अपने अधिकारों को लेकर कितनी सचेत हैं, यह भी लिखो, उन को कितना अच्छा आहार उपलब्ध है, यह कौन लिखेगा, वे कितनी नियमितता से अपनी छाती की जांच(मैमोग्राफी) करवाती रहती हैं ताकि वे स्तन के कैंसर से बच सके, उन देशों की औरतों को गर्भाशय के कैंसर से बचाने के लिए कौन से टीके लगाए जा रहे हैं , जिन के बारे में मेरे देश की करोड़ों-अरबों बहनों नें अभी सुना भी न होगा.......इस सब के बारे में लिखो, तुम उसे उल्टे रास्ते पर चलने के संकेत दे रहे हो। आंचल में दूध - आंख में पानी वाली इस देश की आम महिला की सेहत की बात करो....वो कैसे दिन प्रति दिन पीली पड़ती जा रही है, कैसे उस की आंखें अंदर धंसती जा रही हैं। एक डाक्टर होने के नाते मेरा यह दृढ़ विश्वास है कि ऐसे बकवास सर्वेक्षण हिंदी के समाचार पत्रों में नहीं छपने चाहिए ....जी हां, एक सुधि पाठक के लिए ये बकवास ही तो हैं. जिन देशों में इन की प्रसांगिकता होगी वे जो मरजी पिलाते फिरें। लेकिन ...मेरे देश की एक अनपढ़ से अनपढ़ नारी भी इतनी समझ रखती है कि वे ऐसी बातों को सिरे से नकार दें और ऐसा अनाप-शनाप मशविरा देने वाले को एक तमाचा भी जड़ दें तो कोई बड़ी बात न होगी। इसलिए ऐसी खबरें छापने से पहले कभी भी उस की सामाजिक एवं सांस्कृतिक सरोकारिता का भी ध्यान रखा जाए तो ही ठीक है।