मरीज़ों की बातें सुन सुन कर हम लोग भी उन की ही भाषा बोलने लगते हैं, होता है, आदमी सुबह से शाम जैसी संगत में रहेगा वैसे ही बोलने लगेगा......मजाक की बात, सीरियस न हो जाएं।
सच में दांत का कीड़ा वीड़ा कुछ होता नहीं है, यह केवल दांत की सड़न है जिसे पता नहीं कितने समय से लोगों ने कीड़े की संज्ञा दे दी और बस लीक की फकीरी की सुंदर परंपरा के चलते वही नाम चल निकला.......और इस गलत नाम को और भी पुख्ता किया उन सड़क-छाप दांत का इलाज करने वालों ने जो परेशान मरीज़ को रूमाल में कुछ कीड़ा सा निकाल कर दिखा देते हैं.....अब वे ये कैसे करते हैं, यह मैं नहीं जानता, बस, आप इतना याद रखिए कि दांत की कीड़े नाम के किसी जीव-जंतु का वजूद है ही नहीं।
तो फिर यह सब लफड़ा है क्या?....दरअसल बात यह है कि दांतों में खाना फंसने की वजह से उन पर जब मुंह में मौजूद लाखों-करोड़ों जीवाणु (bacteria) टूट पड़ते हैं तो एसिड (अमल) पैदा होता है जो दांतों को साड़ देता है....एक बार शूरू हो जाने पर यह एक सतत प्रक्रिया है....यह फिर धीरे धीरे दांतों में छेद पैदा कर देती है, सड़न तो होती ही है, जिस से कालापन रहता ही है, इसलिए इसे बुलाया जाने लगा दांत की कीड़ा।
पोस्ट तो मैंने बस आप से यह शेयर करने के लिए लिखी थी कि दांत का कीड़ा (यार, मुझे तो कीड़ा कहने की पक्की लत लग चुकी है, माफ़ कीजिएगा, मैं तो भाई कीड़े शब्द का ही इस्तेमाल करूंगा)...केवल दाड़ों में ही नहीं लगता, कहने का भाव वहीं पर नहीं लगता जहां पर आप को खड्डे दिखें या फिर दांतों की जिन सतहों से हम चबाया करते हैं.......बल्कि किसी भी दांत की जड़ को भी कीड़ा लग सकता है।
रोज़ाना मेरे पास बहुत से मरीज़ ऐसे आते हैं जिन की दांतों की जड़ों में कीड़ा (दंत-क्षय) लग चुका होता है......और बहुत से तब आते हैं जब यह दांत की सड़न नीचे दांत की नस तक पहुंच चुकी होती है.....लेकिन कुछ कुछ अपनी सेहत का ध्यान भी रखते हैं जैसे कि यह साहब जिन की उम्र ६१ वर्ष की है, इन्हें लगा कि यह काला क्यों पड़ रहा है, इसलिए ये दिखाने आए थे।
यह दांत के जड़ की एक उदाहरण है.....जैसा कि आप देख रहे हैं....इस का इलाज बेहद आसान है.....क्या है ना, इस दंत-क्षय को हटाने के बाद हम लोग इस में एक ऐसा मैटीरियल भर देते हैं......जो दांतों के कलर से बिल्कुल मेल खाता है, किसी को पता भी नहीं चलता .......मामला बिल्कुल फिट.........इस तरह के मैटिरियल को ग्लास-ऑयोनोमर कहते हैं। यह कितना समय चलता है, आज से पच्चीस वर्ष पहले जिन लोगों में मैंने किया था, अभी भी वैसे का वैसा ही है, मेरा भाई भी उस में शामिल है। वैसे इस में मेरी कोई जादू नहीं है, यह मैटीरियल ही ऐसा है, बस इस तरह का काम करवाएं किसी प्रशिक्षित दंत चिकित्सक से ही........क्या है ना अगर किसी नीम हकीम के चक्कर में पड़ गए तो वह किसी और लफड़े में भी डाल सकता है, और ये लफड़े कौन कौन से हैं, लिस्ट बहुत लंबी है, फिर कभी इस पर चर्चा करेंगे।
वैसे इस तरह का काम करने के लिए कईं और भी मैटीरियल हैं, लेकिन मैं ग्लास-ऑयोनोमर फिलिगं को ही तरजीह देता हूं...किसी भी अच्छे इम्पोर्टेड ब्रॉंड को, जो ब्रांड मैं पच्चीस वर्ष पहले इस्तेमाल किया करता था, आज भी उन्हें ही करता हूं.....लेकिन लोकल स्तर पर तैयार ये मैटिरियल बिल्कुल बेकार हैं, रद्दी हैं......बस इतना ध्यान रखना होता है।
हां तो बात चल रही थी, दांत की जड़ की सड़न की। अधिकतर इसे बड़ी उम्र के लोगों में देखा जाता है.....अधिकतर....लेकिन पैंतीस-चालीस की उम्र में भी इसे देखता ही हूं। इस का कारण है कि उम्र बढ़ने के साथ हमारे मुंह में पलने वाले जीवाणुओं की किस्म में भी थोड़ा बदलाव आता है, बुज़ुर्गों के मुंह में जो जरासीम रहते हैं, वे इस तरह से दांतों की जड़ों की सड़न पैदा की क्षमता रखते हैं।
यही एक कारण नहीं है, कारण और भी हैं, ब्रुश और दातुन के गलत इस्तेमाल से दांत के ऊपरी हिस्से (क्राउन) और जड़ के बार्डर पर मौजूद एक पतली सी लेयर हट जाती है......वहां पर थोड़ा सा खड्डा हो जाता है, फिर वह खाने फंसने की एक जगह बन जाती है......बस, फिर तो वही सारी दंत क्षय की प्रक्रिया शुरू।
लेकिन आप इतना भारी भरकम समझने के चक्कर में भी मत पड़िए.....चुपचाप किसी प्रशिक्षित दंत चिकित्सक से छःमहीने में एक बार अपने दांतों का निरीक्षण करवा लिया करिए......सही ढंग से ब्रुश करने का इस्तेमाल सीख लें (सीखने की कोई उम्र नहीं होती, झिझकिए मत), और हां, देश में बिकने वाले हर तरह के खुरदरे मंजनों-पेस्टों से दूर रहें, ये दांतों का हुलिया ऐसा बिगाड़ देते हैं कि दांतों की सड़न की तो छोड़िए, दांत इतने कट-फट जाते हैं कि वे पहचान में भी नहीं आते.......अगली पोस्ट में इस को जिक्र करूंगा।
और हां, दांतों की जड़ों के दंत-क्षय से भी बचे रहने का एक सुपरहिट फार्मूला और भी है......हमेशा फ्लोराइड-युक्त पेस्ट ही इस्तेमाल करें.......इस के बारे में बीसियों भ्रांतियों पर रती भर ध्यान न दें, मैं पूरी जिम्मेदारी के साथ कह रहा हूं ना...... छोटी छोटी बातें मानते रहिए और सदैव मुस्कुराते रहिए।
सच में दांत का कीड़ा वीड़ा कुछ होता नहीं है, यह केवल दांत की सड़न है जिसे पता नहीं कितने समय से लोगों ने कीड़े की संज्ञा दे दी और बस लीक की फकीरी की सुंदर परंपरा के चलते वही नाम चल निकला.......और इस गलत नाम को और भी पुख्ता किया उन सड़क-छाप दांत का इलाज करने वालों ने जो परेशान मरीज़ को रूमाल में कुछ कीड़ा सा निकाल कर दिखा देते हैं.....अब वे ये कैसे करते हैं, यह मैं नहीं जानता, बस, आप इतना याद रखिए कि दांत की कीड़े नाम के किसी जीव-जंतु का वजूद है ही नहीं।
तो फिर यह सब लफड़ा है क्या?....दरअसल बात यह है कि दांतों में खाना फंसने की वजह से उन पर जब मुंह में मौजूद लाखों-करोड़ों जीवाणु (bacteria) टूट पड़ते हैं तो एसिड (अमल) पैदा होता है जो दांतों को साड़ देता है....एक बार शूरू हो जाने पर यह एक सतत प्रक्रिया है....यह फिर धीरे धीरे दांतों में छेद पैदा कर देती है, सड़न तो होती ही है, जिस से कालापन रहता ही है, इसलिए इसे बुलाया जाने लगा दांत की कीड़ा।
पोस्ट तो मैंने बस आप से यह शेयर करने के लिए लिखी थी कि दांत का कीड़ा (यार, मुझे तो कीड़ा कहने की पक्की लत लग चुकी है, माफ़ कीजिएगा, मैं तो भाई कीड़े शब्द का ही इस्तेमाल करूंगा)...केवल दाड़ों में ही नहीं लगता, कहने का भाव वहीं पर नहीं लगता जहां पर आप को खड्डे दिखें या फिर दांतों की जिन सतहों से हम चबाया करते हैं.......बल्कि किसी भी दांत की जड़ को भी कीड़ा लग सकता है।
दांत की जड़ का दंत-क्षय (root caries) |
यह दांत के जड़ की एक उदाहरण है.....जैसा कि आप देख रहे हैं....इस का इलाज बेहद आसान है.....क्या है ना, इस दंत-क्षय को हटाने के बाद हम लोग इस में एक ऐसा मैटीरियल भर देते हैं......जो दांतों के कलर से बिल्कुल मेल खाता है, किसी को पता भी नहीं चलता .......मामला बिल्कुल फिट.........इस तरह के मैटिरियल को ग्लास-ऑयोनोमर कहते हैं। यह कितना समय चलता है, आज से पच्चीस वर्ष पहले जिन लोगों में मैंने किया था, अभी भी वैसे का वैसा ही है, मेरा भाई भी उस में शामिल है। वैसे इस में मेरी कोई जादू नहीं है, यह मैटीरियल ही ऐसा है, बस इस तरह का काम करवाएं किसी प्रशिक्षित दंत चिकित्सक से ही........क्या है ना अगर किसी नीम हकीम के चक्कर में पड़ गए तो वह किसी और लफड़े में भी डाल सकता है, और ये लफड़े कौन कौन से हैं, लिस्ट बहुत लंबी है, फिर कभी इस पर चर्चा करेंगे।
वैसे इस तरह का काम करने के लिए कईं और भी मैटीरियल हैं, लेकिन मैं ग्लास-ऑयोनोमर फिलिगं को ही तरजीह देता हूं...किसी भी अच्छे इम्पोर्टेड ब्रॉंड को, जो ब्रांड मैं पच्चीस वर्ष पहले इस्तेमाल किया करता था, आज भी उन्हें ही करता हूं.....लेकिन लोकल स्तर पर तैयार ये मैटिरियल बिल्कुल बेकार हैं, रद्दी हैं......बस इतना ध्यान रखना होता है।
हां तो बात चल रही थी, दांत की जड़ की सड़न की। अधिकतर इसे बड़ी उम्र के लोगों में देखा जाता है.....अधिकतर....लेकिन पैंतीस-चालीस की उम्र में भी इसे देखता ही हूं। इस का कारण है कि उम्र बढ़ने के साथ हमारे मुंह में पलने वाले जीवाणुओं की किस्म में भी थोड़ा बदलाव आता है, बुज़ुर्गों के मुंह में जो जरासीम रहते हैं, वे इस तरह से दांतों की जड़ों की सड़न पैदा की क्षमता रखते हैं।
यही एक कारण नहीं है, कारण और भी हैं, ब्रुश और दातुन के गलत इस्तेमाल से दांत के ऊपरी हिस्से (क्राउन) और जड़ के बार्डर पर मौजूद एक पतली सी लेयर हट जाती है......वहां पर थोड़ा सा खड्डा हो जाता है, फिर वह खाने फंसने की एक जगह बन जाती है......बस, फिर तो वही सारी दंत क्षय की प्रक्रिया शुरू।
लेकिन आप इतना भारी भरकम समझने के चक्कर में भी मत पड़िए.....चुपचाप किसी प्रशिक्षित दंत चिकित्सक से छःमहीने में एक बार अपने दांतों का निरीक्षण करवा लिया करिए......सही ढंग से ब्रुश करने का इस्तेमाल सीख लें (सीखने की कोई उम्र नहीं होती, झिझकिए मत), और हां, देश में बिकने वाले हर तरह के खुरदरे मंजनों-पेस्टों से दूर रहें, ये दांतों का हुलिया ऐसा बिगाड़ देते हैं कि दांतों की सड़न की तो छोड़िए, दांत इतने कट-फट जाते हैं कि वे पहचान में भी नहीं आते.......अगली पोस्ट में इस को जिक्र करूंगा।
और हां, दांतों की जड़ों के दंत-क्षय से भी बचे रहने का एक सुपरहिट फार्मूला और भी है......हमेशा फ्लोराइड-युक्त पेस्ट ही इस्तेमाल करें.......इस के बारे में बीसियों भ्रांतियों पर रती भर ध्यान न दें, मैं पूरी जिम्मेदारी के साथ कह रहा हूं ना...... छोटी छोटी बातें मानते रहिए और सदैव मुस्कुराते रहिए।
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