सोमवार, 29 मई 2017

आज गुरू अर्जुन देव जी महाराज का शहीदी पर्व है ..


सुबह उठ कर जब रेडियो ऑन किया तो उस पर पंजाबी गीत पता है कौन सा चल रहा था..तूतक तूतक तूतियां हेज मालो...आ जा तूतां वाले खुह ते ..हेज मालो... मस्ती से भरा गीत है दलेर मेंहदी का ...सो तो है..लेकिन आज के गुरू साहिबान के शहीदी पर्व पर यह गीत बजता देख कर अच्छा नहीं लगा...उसी समय रेडियो बंद कर दिया...

इन गुरूओं पीरों पैगंबरों से जुड़े दिन प्रेरणा दिवस है सारी मानवता के लिए ...मानवता को भूले-बिसरे पाठ याद दिलाने के लिए!!

पिछले साल भी इसी शहीदी पर्व के अवसर पर भी मैंने एक पोस्ट लिखी थी...उसमें भी शायद यही मन के भाव व्यक्त किए थे कि हमें वलियों- पीर-पैगंबरों और उन की याद से जुड़े दिन-दिहाड़ों का ज़्यादा इल्म ही नहीं है ...इसी वजह से हम लोग बार बार भूल कर बैठते हैं ..इन सब भूलों का ज़िक्र मैंने उस पोस्ट में किया था ...उस पोस्ट को देखिएगा....नीचे उस का लिंक दिये दे रहा हूं...उस पोस्ट में आप को गुरू अर्जुन देव जी महाराज के बारे में विस्तृत जानकारी मिल जायेगी....पता होना चाहिए..किस तरह से हम खुली फि़ज़ाओं में अगर सांस ले रहे हैं तो इन सब विभूतियों की वजह से जिन्होंने हंसते हंसते अपनी जां अपने देश-कौम पर न्योछावर कर दी...


आज सुबह मेरी यह किताब पढ़ने की इच्छा हुई ...मेरी मां अकसर यह पढ़ती रहती हैं ...सिखों के दस गुरु और उनका इतिहास ..यह राजा पॉकेट बुक्स द्वारा प्रकाशित की गई है ... आज मैं गुरू जी के बारे में पढ़ रहा था ...

मैंने जिस पोस्ट का नीचे लिंक दिया है उस से आप को पूरी जानकारी मिल जाएगी...जाते जाते सोच रहा हूं इस किताब के कुछ अंश यहां लिख दूं....

गुरू अर्जुन देव जी जब जहांगीर के दरबार में उपस्थित हुए तो उसने सवाल किया - 'तुमने खसुरो की मदद क्यों की?'
'वह मेरी शरण में आया था' .. गुरू साहब ने स्पष्ट जवाब दिया ..  'उस वक्त मैं उस दरबार का सबसे बड़ा सेवक था, जहां किसी किस्म का भेद-भाव नहीं है। जहां सबकी नि-स्वार्थ मदद की जाती है। यदि मैं खुसरो को शरण न देता तो यह गुरू परंपरा का सरासर अपमान होता।' 

'तुमने एक विद्रोही को शरण दी।' बादशाह अपना फैसला सुनाते हुए बोला...'तुम पर दो लाख रुपये का जुर्माना किया जाता है।' 

'मैंने कोई गलत कार्य नहीं किया। गुरु के दरबार में एक विद्रोही का भी वही सम्मान होता है जो एक बादशाह का होता है।' गुरू साहब कहने लगे ...'वहां किसी भी तरह का भेद-भाव नहीं होता. जब मैंने कोई गलत कार्य किया ही नहीं तो जुर्माना कैसा? मैं जुर्माना भरने से इंकार करता हूं। जुर्माना भरने का सीधा-सा अर्थ यह होगा कि मैं अपना अपराध स्वीकार करता हूं. यह नहीं होगा।' 

बादशाह ने उन्हें मृत्यु दंड की सजा सुना दी। सुनकर गुरू साहब हंस पड़े और बोले --'बादशाह! तू मेरे शरीर को मार सकता है, लेकिन मुझे नहीं। मैं फिर जन्म लूंगा और फिर सिख धर्म की सेवा करूंगा।'

पहले तो जहांगीर ने गुरू साहब को तरह तरह की यातनाएं देकर उन्हें इस्लाम धर्म अपनाने के लिए विवश किया। जब गुरु साहब उसकी किसी यातना के सामने नहीं झुके तो उसने उन्हें तड़पा-तड़पाकर मार डालने का आदेश दे दिया। 

दिनांक ३० मई १६०६ को रावी नदी के किनारे एक लोहे की चादर को तपती हुई भट्ठी के ऊपर रखकर लाल किया गया। उस पर गुरू साहब को लिटा कर उन पर गरमा-गर्म रेत डाली गई। इतने अत्याचारों के होते भी गुरू साहब व्याकुल नहीं हुए। उन्होंने हंसते-हंसते आत्म-बलिदान तथा सत्य की रक्षा की। शहीद होते समय गुरू साहब ने परमात्मा को याद करते हुए कहा था .. 'हे करुणामय ईश्वर! मुझे आप जहां भी बिठाओगे, वही स्थान मेरे लिए स्वर्ग है।'

यह पोस्ट भी अगर आप देखना चाहें जिसे मैंने एक साल पहले लिखा था.. शहीदों के सरताज- गुरू अर्जुन देव जी (आप इस लिंक पर क्लिक कर सकते हैं)