मंगलवार, 13 अगस्त 2024

ए.सी फर्स्ट क्लास की स्टोरी बढ़िया थी, कैप्शन नहीं....

 टाइम्स ऑफ इंडिया का नियमित पाठक हूं …कईं कईं दिन बीच में वक्त नहीं मिलता या थकावट की वजह से दो चार पन्ने ही पलट पाता हूं …अच्छे से पढ़ नहीं पाता और नींद घेर लेती है, लेकिन मन में मलाल रह जाता है…मेरे लिए पिछले 32-33 वर्षों से इसने एक टीचर और दोस्त जैसा काम किया है …बहुत कुछ सीखा है इन पन्नों से ….जब मुंबई के बाहर भी रहे तो पढ़ते टाइम्स ही थे, लेकिन वह वाली टाइम्स मुंबई वाली टाइम्स से बहुत फीकी होती थी ….लेकिन हम अपनी आदत से मजबूर थे…

और हां, कईं बार कुछ लेखों की इंगलिश इतनी कठिन होती है इसमें भी हमें बस इतना तो पता चल जाता है कि यह किस के बारे में है, बस इस के आगे कुछ हाथ-पैर उस स्टोरी की समझ नहीं आता…


लेकिन परसों संडे टाइम्स ऑफ इंडिया में एक स्टोरी छपी थी ….No ruffing it! How AC First class became the ‘kutton ka dabba’. जो लोग तो इस अखबार को रोज़ पढ़ते हैं उन्होंने तो इसे पढ़ भी लिया होगा…मैंने भी उसी दिन पढ़ लिया था, लेकिन मुझे इस का कैप्शन बहुत अजीब सा लगा था …


हमारे घर की शान....यह लगभग सभी कुर्सियों और सोफों  की सीटों को ऐसा कर चुकी हैं ...लेकिन इस लाडली को सब कुछ करने की इजाज़त है, ...चलिए, यह तो घर की बात है ...लेकिन सफर के दौरान पेट्स के पेरेन्टस रेलवे 
 की प्रापर्टी को कैसे किसी तरह के नुकसान से बचाते होंगे, इस वक्त यह सोच रहा हूं... 

इस में क्या लिखा है, वह तो आप पढ़ ही लेंगे ….अभी मैंने देखा जब ऊपर लिंक शेयर किया तो पता चला कि लेख पढ़ने के लिेए सब्सक्राईब करना पड़ता है, मुझे इस सब के बारे में ज़्यादा पता नहीं रहता क्योंकि मैं तो किताबें हो अखबारें ..सब की हार्ड कापी ही पढ़ना पसंद करता हूं …वैसे मैं नीचे इस स्टोरी की एक फोटो भी लगा दूंगा जिस पर क्लिक कर के आप इसे अच्छे से पढ़ सकते हैं कि कैसे फर्स्ट क्लास ए.सी को कुत्तों के डब्बे के नाम से जाना जाने लगा ….


स्टोरी मैंने पूरी पढ़ ली, कैप्शन भी देखा……लेकिन मुझे यह बात बिल्कुल भी हज़्म हुई नहीं कि इस डब्बे को अब कुत्तों का डब्बा कहा जाता है ….मैं इतने विश्वास और भरोसे के साथ इसलिए कह रहा हूं कि ट्रेनें,स्टेशन, प्लेटफार्म, रेलवे के परिसर भी मेरे लिए दूसरे घर जैसे ही हैं…एक दिन किसी भी कारणवश इन ट्रेनों, स्टेशनों पर दुनिया का मेला न देखूं तो बड़ी बेचैनी सी हो जाती है ….ऐसे लगता है कुछ छूट सा गया है, जैसे खाना हज़्म नहीं होगा….और हमारा बेटा तो हम से भी दो गज़ आगे …1990 के दशक में रात के वक्त जब तक हम उसे बंबई सेंट्रल के प्लेटफार्म नं 5 पर दस मिनट रात के वक्त घुमा कर नहीं लाते थे, उसे नींद ही नहीं आती थी….और मेरा तो रेलों से रिश्ता तब से है जब से होश संभाला है ….अमृतसर में डीएवी स्कूल से जब पांचवी-छठी-सातवीं कक्षा में पैदल घर आते थे, तो जानबूझ कर मालगोदाम वाला रास्ता पकड़ते थे ….बड़ा कारण तो था कि उस रास्ते में छाया होती थी, और जब कोई माल गाड़ी पर सामान चढ़ या उतर रहा होता तो हम दो चार मिनट उस को देखते रहते, हमें बड़ा मज़ा आता था इस माल ढुलाई को देख कर ….और उस रास्ते से कैसे जल्दी से घर आ जाता था, पता ही नहीं चलता था….हां, कभी कभी खाकी कपड़े पहने हुए कोई पुलिस सा दिखने वाला उस रास्ते से जाने से टोक भी देता था, लेकिन उस उम्र में कौन परवाह करता है इन सब चीज़ों की …


हां, टाइम्स में छपी इस स्टोरी के कैप्शन को देख कर बहुत अजीब सा लगा …क्योंकि ए.सी फर्स्ट क्लास में सफर करना तो जैसे रेल के मुलाज़िमों के लिए एक हसीं सपने जैसा है। हम भी पिछले 20-22 साल से इसी डब्बे में सफर करते हैं, जब भी मौका मिलता है ….जहां तक मुझे याद है इस डब्बे में सफर करने के लिए रेल अधिकारियों को पात्रता तक पहुंचने में 13 वर्ष तो लग ही जाते हैं…


और इस डब्बे के साथ बहुत बढ़िया सी यादें हैं…राजधानी का और दूसरी गाडियों का ए.सी फर्स्ट क्लास अलग सा होता है, सुविधाओं एवं साज सज्जा के हिसाब से …ऐसा मुझे लगता है। 


मुझे अच्छे से याद है जब मैंने पहली बार वर्ष 2003 या 2004 के आसपास इस डब्बे में यात्रा की थी तो बहुत अच्छा लगा था…शायद नए नए कैमरे वाले फोन आए थे….मेरे पास भी कोई नोकिया वोकिया था जिसे खरीदने के लिए हमारा सारा खानदान फिरोज़पुर छावनी की एक मोबाइल की दुकान में गया था ….अभी भी उसे किसी सोविनियर की तरह रखा हुआ है …दस-बारह हज़ार के करीब आया था उन दिनों …हां, उस कैमरे से फोटो खिंचवाना याद है एसी फर्स्ट क्लास के डब्बे में बैठ कर ….हर चीज़ बेहतरीन ….परदे, स्टॉफ, खाना परोसने का तरीका…..


उन दिनों में –आज से बीस साल पहले….एक तो एसी फर्स्ट क्लास के केबिन में एक वॉश-बेसिन भी हुआ करता था ….हाथ धोने के लिए बाहर जाने की भी ज़रूरत न होती थी, वैसे तो वह बेसिन ढका सा रहता था, लेकिन  इस्तेमाल के वक्त उस कवर को थोड़ा ऊपर करना होता था, और हम हाथ धो लेते थे ….उन दिनों यह बहुत बात लगती थी, राजसी ठाठ-बाठ जैसी….


और, खाना परोसने से पहले उस डब्बे का स्टॉफ नीचे की दोनों सीटों के आगे दो दो खाने के छोटे छोटे लकड़ी के टेबल खोल देता था (वे फोल्डेबल होते थे), और फिर वह सूप से शुरू करता, कैसरोल में खाना आता था। 


एसी फर्स्ट क्लास में लिनिन भी कुछ अलग ही रहता था ….एक दम चकाचक सफेद चादरें और बढ़िया तकिये ….और जब आप अपनी सीट से काल-बेल बजाते थे तो वह आ कर आप का बिस्तर भी बना देता था…..


अब तो इस एसी फर्स्ट क्लास के डिब्बे में ऐसे भी इंडिकेटर लगे रहते हैं कि कौन सा वॉश-रूम, कौन सा वेस्टर्न कमोड (WC) खाली है और किस में कोई गया हुआ है…..और कईं बार तो बाहर एसी फर्स्ट के पैसेज में सीसीटीवी भी लगा देखा है ….


और एक बात तो लिखनी भूल ही गया….यह उन दिनों की बात है जब मैने इस कोच में नया नया सफर करना शुरू किया ….तो एक बात देख कर हैरान था कि उसमें एक वॉश-रूम गुसलखाने का काम भी करता था …उस में आप सिर्फ नहा सकते थे …शॉवर लगा हुआ था…यह भी एक अलग तरह का टशन था उन दिनों ….नहाया हूंगा मैं भी उसमें एक दो बार …फिर शौक पूरा हो गया….


अब आप देखिए कि मेरे जैसे लोगों के पास जब इस एसी फर्स्ट क्लास से जुड़ी इतनी हसीं यादें हैं तो अचानक आप किसी दिन अखबार में पढ़ें कि अब यह कुत्तों का डब्बा बन गया है, तो कैसा लगेगा….अजीब लगा मुझे भी …पढ़ लीजिए आप भी इस स्टोरी को ….स्टोरी में बताया गया है कि एक युवती जो अपने कुत्ते के साथ एक डब्बे को तलाश कर रही थी, जब उसने कुली से पूछा कि एसी फर्स्ट क्लास कहां है तो कुली ने जवाब दिया ….आप कुत्तों वाले डब्बे के बारे में पूछ रही हैं न ….


अपने पालतू, कुत्ते, बिल्लियां लोग गाड़ी में लेकर जाते हैं, पता है…लेेकिन इस एसी फर्स्ट के डिब्बे को कुत्ते वाला डिब्बा कहा जाने लगा है, यह मुझे इस स्टोरी से ही पता चला…..और मैं इस से इत्तेफाक नहीं रखता बिल्कुल कि इस डब्बे को अब इस नाम से बुलाया जाता है …और मुझे तो कुली के द्वारा इस डब्बे को कुत्तों वाले डब्बे के नाम से पुकारना भी अजीब ही लगा ….मैंने तो किसी को आज तक यह कहते नहीं सुना ….और वैसे भी बंबई के तो कुली भी इतने पॉलिशड हैं कि ……


खैर, मुझे भी याद है कि 2017 में जब मां बहुत बीमार थी तो मेरे बेटे ने बिल्ली को बंबई से लखनऊ अपनी दादी को मिलाने लाना था ….हमें तो इस के बारे में कुछ पता नहीं थी, उसने पूछा था हमसे ….लेकिन फिर उसने खुद ही दो टिकटें खरीदीं, एसी फर्स्ट क्लास की पुष्पक एक्सप्रेस की ….और बंबई से लखनऊ बिल्ली के साथ आया ….कुपे में आया था, पूरी तैयारी के साथ बिल्ली की बास्केट के साथ, उस का लिटर और उस की लिटर वाली ट्रे और स्कूप भी लेकर आया था पूरे कायदे से …..मां वैसे तो उस की बिल्ली की बहुत दीवानी थी….मां कहती थीं उसे जैसे तेरी बिल्ली सयानी है, अपने लिए कोई बहू भी ऐसी ही ढूंढना ….और मां खिलखिला कर हंसने लगती थी …लेकिन उस बार जब बिल्ली खुद चल कर मां के पास लखनऊ पहुंची थी तो मां को अपनी सुध-बुध ही न थी, वह तो दर्द से बेहाल पड़ी रहती थीं, और बिल्ली मां के पलंग के ऊपर उन के पैरों के पास बैठी रहती थीं ….बस, दो चार दिन में मां का दुनियावी सफ़र पूरा हो गया……क्या कहें!!


हां, मुझे यहां यह भी लिखना है जो उस टाइम्स की स्टोरी में नहीं लिखा कहीं भी …पालतू जानवर जिस के होते हैं उन को वे बहुत प्यारे होते हैं, बेशक। और रेलवे की बात करें तो यह विभाग बहुत लिबरल है, बहुत बड़े दिल वाला है …हम और आप देखते ही हैं रोज़, और आप इस स्टोरी में भी पढ़ ही लेंगे ….लेकिन एक बात बचपन में किसी किताब में पढ़ी थी कि जहां मेरी नाक शुरू होती है, तुम्हारी आज़ादी वहां खत्म हो जाती है….


मैंने भी देखा है, अंधेरी, बोरिवली स्टेशन पर कुछ लोगों को अपने शेर जैसे कुत्तों के साथ खड़े हो कर ट्रेन का इंतज़ार करते हुए …कभी कभी तो किसी ने उन के मुंह पर एक बास्कट (एक छोटा सा शिकंजा) भी नहीं बांधा होता …और वे इतनी भीड़ भाड़ देख कर उछल कूद भी करने लगते हैं…पालतू जानवरों के मालिकों (नहीं यह शब्द गलत है, स्टोरी में पेरेन्ट्स कहा गया है) …तो हां, पालतू जानवरों के माता-पिता को इन सब बातों का भी अच्छे से ख्याल रखना चाहिए….


और हां, जैसे इस स्टोरी में कहा गया है कि लोग इस लिए भी अपने पालतू ट्रेन के एसी फर्स्ट क्लास के कोच में लेकर जाते हैं क्योंकि वे उन्हें बीच बीच में जब कोई स्टेशन आता है तो प्लेटफार्म पर घुमाने ले जाते हैं…..सोचने वाली बात यह भी है कि क्या भीड़-भाड़ वाले प्लेटफार्मों पर इन को घुमाए बिना काम नहीं चल सकता, क्या है न जनता जनार्दन आम तौर पर डरती है इन भारी भरकम या किसी भी तरह के जानवरों से ………वह अलग बात है कि जनता जनार्दन की सहनशीलता अद्भुत है….जिस के समक्ष मैं सदैव नतमस्तक हूं….


पेट्स की बात हुई तो तेरी मेहरबानियां फिल्म का यह गीत कैसे याद न आता.....




PS.... Times of India Headlines have been quite popular. After assassination attempt on Donald Trump, there was a front page headline-- Donald Trumps Death.  I too was a bit scared to read it for a moment....कि कल खबरों में कह रहे थे कि बंदा ठीक है ..फिर जब मेेेरे दिमाग की बत्ती जली तो समझ में आया कि यह एक बेहतरीन कैप्शन है...जिसे करोड़ों अरबों लोगों ने सराहा ....मैंने भी इस से बढ़िया कैप्शन शायद ही पहले कभी देखा हो .....अगले दो तीन दिनों तक अखबार में इस के बारे में आता रहा ...Power of Apostrophe! जिन बच्चों को अंग्रेज़ी के व्याकरण सीखने में दिक्कत हो उन को इस तरह के कैप्शन सिखा सकते हैं हर चिन्ह के बारे में .....

अभी जब विग्नेश की खबर भी टाइ्म्स में छपी पहले पेज पर तो कैप्शन था.... 100gms crush Billion Hopes...
Amazing expression, 4-words say it all and with so much power and conviction!