शुक्रवार, 13 जनवरी 2023

थोड़ी थोड़ी पिया करो.......लेकिन, ठहरिए!!

पचास बरस पहले का दौर याद आता है जब इस गीत या गज़ल का ख्याल आता है ...याद आता है वह वेस्टन कंपनी का टेप-रिकार्डर और उस में टेप पर बज रहा पंकज उधास का गाया वह गीत ....थोड़ी थोड़ी पिया करो...अच्छा लगता था उसे सुनना....१५ बरस पहले २००८ की बात होगी...अभी शायद मुझे ब्लॉगिंग करते एक साल ही हुआ था कि मैंने एक ब्लॉग लिखा था...थोड़ी थोड़ी पिया करो। नहीं, इसमें किसी को दारू पीने के लिए उकसाने वाली बातें न थीं....दिल से लिखा गया एक ब्लॉग था...जो पढ़ने वालों को इतना पसंद आया कि किसी मेहरबान ने उस का उन दिनों एक पॉडकॉस्ट ही बना दिया...

खैर, दारू की जब बात चलती है तो लोगों के दिलो-दिमाग में यही बात घर कर चुकी है कि थोड़ी बहुत पी लेना सेहत के लिए ठीक ही है ...इस से कोई दिक्कत नहीं होती, बल्कि सेहत पर कुछ अच्छा असर ही पड़ता है ..बिना टेंशन को दूर भगाने के लिए यह सब कुछ करता है ...यह तो एक प्रचलित धारणा है ही ...हर जगह ....दारू पीने वालों ने अपने मन को समझा लिया था ...और दारू बेचने वालों की तो बात ही क्या करें...वह लॉबी तो इतनी ताकतवर है कि किसी को कुछ बताने की ज़रूरत है नहीं...

आज बहुत अरसे बाद इस पर लिखने लगा हूं तो इतनी बातें याद आ रही हैं कि लगता है जो जो याद आ रहा है लिख दूं... यादों के झरोखे से दिखने वाले मंज़र कब दूर हो जाते हैं पता ही नहीं चलता....हमारे ताऊ जी के बेटे ने आज से ५०-५५ बरस पहले एक इंगलिश वाइन की शाप खोली...मैं यही कोई सातवीं-आठवीं कक्षा में था...मुझे अच्छे से याद है कि मैं एक दिन उस वाईन-शाप पर गया ...और पता नहीं मुझे क्या करना है, किसी कुर्सी को थोड़ा इधर उधर सरकाना था ...तो वाइन-व्हिस्की या पता नहीं क्या (इंगलिश दारू ही थी) ..उस का एक डिब्बा कार्डबोर्ड का वहां पड़ा था...उन बोतलों से भरा हुआ...मैं जैसे ही उसे उठाया, वह नीचे से फट गया और सारी बोतलें टूट गईं...मुझे बहुत बुरा लगा...थोड़ा डर भी लगा ...वैसे डर बहुत कम था क्योंकि मैं अपने घर वालों को जानता हूं, ये सब बडे़ ही भले लोग हैं, दूसरों को कुछ नहीं कहते तो मुझे इन्होंने क्या कहना था....

लेकिन यह बात तो मेरे दिलोदिमाग में आज भी ताजा है कि इतना बड़ा कांड होने के बावजूद किसी ने मुझे इतना भी नहीं कहा कि यार, यह क्या हो गया....वहां पर ऐसा माहौल था जैसे कुछ हुआ ही नहीं, जैसे रसोई में कोई गिलास टूट गया हो....अभी ख्याल आ रहा है कि हम लोगों से जैसा बर्ताव हुआ होता है, हम वही बर्ताव दुनिया को लौटाते हैं .....खैर, हमारे उस कज़िन की दुकान घाटे का सौदा ही थी...क्योंकि बिजनेस चलाना उन के बस की बात न थी, एक बात ....दूसरी बात यह कि शाम को उन के दोस्तो की महफिल रोज़ उस वाइन-शॉप में ही लग जाती थी...और एक महंगी सी बोतल तो उन को चाहिए होती थी ...और इस के साथ साथ दुनिया भर को दारू उधार देने से (जो कभी वापिस न मिला) वह दुकान का ऐसा दिवाला पिट गया कि उसके शटर नीचे गिर गए.... और उन्होंने आल इंडिया रेडियो में एक अच्छी नौकरी कर ली....इस के बाद बीसियों बरसों तक जब तक कुनबे के बुज़ुर्ग जिंदा रहे ...उन के ठहाके इसी बात पर लगते रहे कि चोपड़ों ने दारू की दुकान खोली और वह तो बंद होनी ही थी ...कोई उस ठेके से जुड़ा कोई किस्सा सुनाने लगता और कोई कुछ ...अरे यार, मैं एक बात तो भूल गया कि यह ठेके हमारे ताऊ जी की कोठी के बाहर ही था, मुझे याद है अंधेरा होते ही एक बोतल उस ठेके से उन के लिए भी पहुंचा दी जाती ..कईं बार तो वह खुद ही आ कर ले जाते ...

वैसे भी यह उन दिनों की बात है जब यह समझा जाता था या यह माना जाता था कि अगर दारू इंगलिश है तो कोई बात नहीं ....यह तो देसी दारू ही है जो शरीर खराब करती है, यही आम धारणा थी लोगों में। और एक बात ...यह जो केंटीन से दारू मिलती थी आर्मी वालों को ..लोगों को उसे पा लेने का बडा़ क्रेज़ था, आर्मी में न काम करने वाले भी इतने व्यापक स्तर पर उस कैंटीन से मिलने वाली दारू का जुगाड़ कैसे कर लेते थे ...यह देख कर बड़ी हैरानी होती थी ...जुगाड़ भी ऐसे ऐसे कि क्या कहें....मौसा जी किसी छावनी में बैंक मैनेजर क्या हो गए, सारे कुनबे में उन का रुतबा बढ़ गया ....पता नहीं मैनेजरी से या इस बात से कि अब वह वहां की कैंटीन से अच्छी क्वालिटी की दारू हासिल करने का जुगाड़ कर पाते ....मुझे उन दिनों की बातें याद आती हैं तो बहुत हंसी आती है जब किसी छत पर या बैठक में दारू की महफिल जमी होती तो कमरे में कितने ठहाके लगा करते ...खुशियां ही खुशियां....सिगरेट से धुएं से भरा कमरा ...ऊल जूल बातें करते बंदे....मुझे पता इसलिए है क्योंकि कईं बार जब बर्फ कम पड़ जाती तो बाज़ार से बर्फ लाकर, दाल मौठ के साथ ...उसे अंदर पहुंचाने की ड्यूटी मेरी या मेरे जैसे किसी दूसरे की लगती थी ....ठहाकों के बावजूद उस कमरे में जा कर अजीब सा महसूस होता था ....जिसे मैं अभी तक कभी लिख नहीं पाया हूं ...खैर, उसे भी लिख दूं कभी तो ... 


खैर, उस दौर में हमारे चाचा लोग ५५५ के सिगरेट पीते थे और जॉनी वॉकर दारू ही लेते थे ....मुझे याद है अच्छे से क्योंकि मुझे उस जानी वाकर, वैटे 69 की खाली बोतलें बहुत पसंद थीं...और हमें उन के खाली होने के बाद फ्रिज में पानी ठंडा रखने के लिए इस्तेमाल करने पर ही हर बार पांच फीसदी नशा हो ही जाता था ...और हम इन सब की रईसी को देख कर बस दांतों तले उंगली ही न दबाते थे ..दंग तो रह ही जाते थे ...५५५ कंपनी का सिगरेट ...जिसे उन दिनों शहर में ढूंढना मुश्किल होता था ....सिगरेट के बारे में भी उन दिनों यही बात मानी जाती थी कि जितना महंगा होगा उतना ही कम खराब होगा....५५५ पीने वाले भी कभी कभी ऐसे ही टशन के लिए बीड़ी के दो कश भी मारा करते थे, मैंने यह सब देखा है । वैसे मुझे गुज़रे दौर में महंगे दारू की खाली बोतलें ही न लुभाती थीं, मुझे अभी भी पुराने दौर की चीज़ों से खास लगाव है ...कुछ महीने पहले किसी एंटीक की दुकान पर ५५५ सिगरेटों की लोहे वाली डिब्बी दिख गई ...मैंने पहले कभी न देखा इस तरह की लोहे की डिब्बी को .......बहुत ज़्यादा महंगी बेच रहा था, खैर, मैंने उसे खरीद लिया ...क्योकि अभी तक तो ऐसी सिगरेट की डिब्बी न देखी थी न सुनी, और न ही आगे ही देखने की कभी उम्मीद ही लगी ....अभी ढूंढने लगा यहां पर फोटो लगाने के लिए तो मिली नहीं......पता नहीं कहीं पर रख कर भूल गया हूं....खैर, नेट से फोटो लेकर यहां लगा देता हूं....



आज सुबह सुबह उठते ही इस दारू का, इन सिगरेटों का ख्याल ऐसे आया कि लगभग ५० बरस पुरानी एक मैगजी़न के पन्ने अभी उलट ही रहा था कि सिगरेट के इस इश्तिहार पर नज़रें जा टिकीं....बस, फिर क्या था, बीते दिन आंखों के सामने घूमने लगे ...कभी यह कभी वो...पढ़ने की तो इच्छा थी नहीं, सोने का भी मन नहीं था चाहे नींद लग रहा था अभी पूरी नहीं हुई.....बस, और कुछ न सूझा तो यही डॉयरी लिखने बैठ गया...

यह डॉयरी लिखने की बात यह है कि जो मुद्दे की बात लिखना मैं चाह रहा हूं ....वह तो मैंने शुरू भी नहीं की। क्या करूं....पुरानी इधर उधर की यादों ने ही ऐसे घेर लिया कि लगा कि पहले इन्हें समेट लूं ...लेकिन फिर भी एक छोटा सा अंश ही समेट पाया ...और जो असल बात है वह कहने से रह गया.....कोई नहीं, अगली पोस्ट में उस बात को करते हैं.......ब्रेक के बाद!!😎😂

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