मैंने भी टॉपिक इस बार ऐसा चुन लिया है कि ख़त्म ही नहीं हो रहा...मुझे बोरियत भी तो बहुत जल्दी होने लगती है...चलिए, यह इस टॉपिक की आखरी कड़ी है...अभी सोच रहा था कि मैं यह सब लिख क्यों रहा हूं, अपने आप से यूं ही पूछ बैठा तो दिल ने वही जवाब दिया कि गुज़रे दौर के वक्त की कुछ बातों को अपनी यादों की संदूकची में सहेज कर रखना होता है ...कोई पढ़े न पढ़े यह उस का मसला है लेकिन जब तुम खुद इसे पढ़ोंगे तो वे सारे दिन तुम्हारी आंखों के सामने आ जाएँगे..वैसे भी आने वाली पीढ़ी के लिए कुछ तो लिख कर जाना चाहिए...उन्हें यह भी तो पता चलना चाहिए कि लोग जीते कैसे थे, उनमें कितना सब्र था, कैसे मिलजुल कर रहते थे ..वगैरह वगैरह ....और हां कितना ही साधारण लिखा हुआ हो (जैसा कि मैं लिखता हूं, मुझे इस बारे में कोई ख़ुशफ़हमी नहीं है) आने वाले वक्त के लिए वह दस्तावेज़ ही होता है ...अभी हमें लग सकता है कि यार, यह भी क्या लिखनी वाली बाते हैं....लेकिन किसी को कुछ भी लगे ...लेकिन सच्चाई तो यह है कि दिल की बातें कागज़ पर लिख कर खुले बांटने से लिखने वाला आज़ाद हो जाता है ...जब इस तरह का बोझ दिल से उतरता है तो उस से जो राहत मिलती है, यह वही जानते हैं जो बिना किसी बात की परवाह किए बिना लिख देते हैं दिल की तहों में बैठी हुई बातों को ...
पढ़ने वालों को कुछ पता नहीं कि लिखने वाले के साथ क्या बीती, उसने जैसे तस्वीर पेंट करनी है, पाठकों ने उसे ही तो पढ़ना है, उन के पास लिखने वाले की बातों को तसदीक करने का कोई ज़रिया भी तो नहीं...जैसे कि अगर मैं यह बात न लिखूं कि हमें हमारा पहला फ्रिज हमारे चाचा ने 3800 रूपये में दिलाया था...1976 में तो पढ़ने वालों को इस तरह की बातें कहां से पता लगेंगी...लेकिन अगर मैं सच सच बात नहीं कहूंगा तो फिर यह सब लिक्खा-पढ़ी का फायदा ही क्या, चुपचाप मुझे भी सुबह सुबह नेटफ्लिक्स खोल कर बैठ जाना चाहिए...वह मेरी सेहत के लिए बेहतर होगा इस की तुलना में कि मैं झूठ को दबा दूं और या बातों पर सच को ही तोडता मरोड़ता फिरुं...
हां तो सुनिए जनाब हम लोगों के यहां 1976 की गर्मियों के दिनों में फ्रिज आ गया...मैं आठवीं कक्षा में था, हम अमृतसर में रहते थे और यह केल्वीनेटर का फ्रिज हमें चाचा ने भिजवाया था...केल्वीनेटर का फ्रिज था ..शायद यही 165 लिटर का था ...अमृतसर की किसी दुकान से नहीं, दोस्तो, यह सीधी दिल्ली से हमारे यहां आया था...
ऐसा क्या कारण था कि फ्रिज हमारे यहां पर पहुंच गया...उस का कारण जो उन दिनों हमारे कानों में पड़़ा था आप भी सुन लीजिए...बहन की शादी दिसंबर 1975 में हो गई थी, वह मेरे से दस साल बड़ी हैं...अब हमारे सगे-संबंधियों को लगने लगा कि जम्हाई राजा आएंगे तो घर में फ्रिज तो होना ही चाहिए। वैसे भी घर के जम्हाई राजा के घर में फ्रिज था और ज़ाहिर सी बात है उन्हें उस की आदत तो होगी ही..। हां, एक बात और याद आ गई, फ्रिज का होना घर में एक स्टेट्स सिंबल हुआ करता था उस दौर में ...रिश्ते तय करते इस बात का भी ख्याल रखा जाता था ...मामा के भिजवाए उस पोस्ट कार्ड को मैं कैसे भूल सकता हूं...मैंने खुद पढ़ा था ...बड़ी बहन की शादी की बातें चल रही थीं, मैं उदास था मन ही मन में कि बहन इतनी दूर चली जाएंगी...खैर, पिता जी ने अजमेर के पास रह रहे मेरे मामा जी को चिट्ठी लिख भेजी कि ऐसे ऐसे रिश्ते की बात चल रही है, जयपुर जा कर लड़के का घर-बाहर देख कर आ जाओ, फिर देखते हैं, फैसला करते हैं। तो ली, मामा का पोस्ट कार्ड मिल गया...हो आया हूं, जीजा जी, उन के घर। कोठी भी ठीक है और घर में फ्रिज भी पड़ा है। चलिए जी, बात पक्की हो गई।
हां तो इस के बाद 1976 में हमारे यहां फ्रिज आ गया...बड़ा रोमांचक मंज़र था घर में फ्रिज का आना...किस तरह से एहतियात से उस की पैकिंग खोली गई...कुछ कुछ याद तो है ...अरे वाह, बर्फ जमाने का जुगाड़ भी, और सब्जी-अंडे ऱखने का प्रावधान भी, अब आम ठंडे कर हम तक पुहुंचेंगे ...और कांच की बोतलों में ठंडा ठंडा पानी पिएंगे...मुझे याद है अच्छे से हमें ..नहीं मुझे (दूसरों के दिल की वे जानें) तो ऐसे लग रहा था जैसे हमारे यहां कोई बड़ी खतरनाक चीज़ आ गई है जिस की हिफ़ाज़त अब करनी होगी..आस पास के घरों के कुछ लोग तो देखने आए थे ..खास कर के बीजी की सहेलीयां ... सच में बड़े प्यार से रहती थीं सब के साथ...मैंने कहा न कि हमें मारना तो दूर, हमने उन्हें ज़िंदगी में अपने मोहल्ले में किसी के साथ उलझते नहीं देखा..हरेक के साथ मिल जुल कर रहतीं...खैर, अब उस का इस्तेमाल होने लगा ..मुझे इस वक्त ख्याल आ रहा कि उस फिज ने हमारी तो क्या हमारे अड़ोस-पड़ोस वालों की भी ज़िंदगी बदल दी...शुरू शुरू में कोई बर्फ जमाने के लिए पानी से बड़ा बर्तन दे जाता, कोई पानी ठंडा रखने के लिए प्लास्टिक की कैनी दे जाता ..उन्हें बस इतना कहना पड़ता कि इतनी बड़ी कैनी इस के अंदर आ नहीं पाती, छोटी ले आइए...हां, मुझे अच्छे से याद है कि कोई गूंथा हुआ आटा जो बच जाता उसे एक बर्तन में डाल कर दे जाता फ्रिज में रखने के लिए....कभी कभी कोई फ्रीजर में आईसक्रीम जमाने के लिए दे जाता ....लेकिन आस पास के तीन-चार घर ही थे जो ये सेवाएं लेने आते थे ...
इस वक्त सोच रहा हूं कि अब यह दौर है जिस बिल्डिंग में रहता हूूं किसी से बोलचाल तो दूर एक बंदे को भी शक्ल से नहीं जानता किसी के मरने-पैदा होने तक की कोई सांझ नहीं है...वक्त बदल गया है, पहले लोगों में सहनशीलता बहुत थी..छुपाने को था ही नहीं..अब हर कोई अपनी स्पेस के लिए पागल हुआ फिर रहा है ...अब देखिए कि फिज में इस तरह से चीज़ें ऱखने आना,फिर लेने आया, फ्रिज वाले रईसों का हंसते हंसते यह सब काम करना, हरेक के बर्तन का ख्याल रखना कि किस का कौन सा है .....खैर, कईं बार हमें घर में बैठे यह हंसी भी आने लगती कि यार, यह तो यार काम बढ़ा लिया...लेकिन मां-पिता जी के चेहरों पर इस तरह का काम बढ़ जाने की वजह से कोई शिकन न देखी...जब कभी फिज में जगह न होती तो उन्हें किसी को ऐसा कहना भी अपराध-बोध करवा जाता ..हम सब देखते थे ..
खैर, हमारे भी मज़े हो गए..पानी फिज का मिलने लगा..मटकों को हम भूलते चले गए....उस का हमें अब कभी ख्याल भी न आता ...घर में बनी आइसक्रीम भी खाने को मिलने लगी, वाह, क्या स्वाद था उस का..और कस्टर्ड-जैली तो खूब बनता था पहले भी..लेकिन अब तो फ्रिज में ठंडा किया हुआ मिलने लगा...आम....खरबूज़े...मैं नहीं जानता कि वे किस ख़ालिस होते होंगे कि फ्रिज खोलते ही उस के अंदर से जो ठंडी ठंडी, मीठी महक आती तो हम जैसे कश्मीर की ठंडी वादियों का ही आनंद ले लेते...
जैसे कि हर नई चीज़ के साथ होता है,...धीरे धीरे, कुछ ही दिनों में लोगों का अपना बचा हुआ आटा, सब्जी, पानी, आईसक्रीम फ्रिज में रखने के लिए आना कम होता चला गया...शायद कुछ और पड़ोसीयों के घर में फ्रिज उनकी भी दुनिया बदलने आ गया...
लेकिन फ्रिज वाले घर में भी शेखी इस बात की भी बघारी जाती कि कुछ बाशिंदे फ्रिज का ठंडा पानी नहीं पीते, क्योंकि यह उन का गला पकड लेता है, लेकिन पिता जी जब कभी देर शाम या रात के वक्त एक दो लवली पैग मारते फ्रिज से निकले आईसक्यूब डाल कर तो मुझे बड़ा अच्छा लगता ...वे उस गिलास में जिस अंदाज़ से दो चार आईस के क्यूब बड़े इत्मीनान से फैंकते, वह देखना ही मुझे पसंद था ..चाहे वह काम मैंने अब तक की ज़िंदगी में एक बार नहीं किया ...कभी इच्छा ही नहीं ...खाने-पीने वाले सारे खानदान में मैं ही कैसे बच गया..मुझे भी पता नहीं ..मेरी मां से मेरी चाचीयां हंसते हंसते कभी कहतीं कि बहन जी, यह कौन सा धर्मात्मा पैदा कर दिया आप ने ....मां भी कह देती कि जब यह होने वाला था तो मैं रामायण खूब पढ़ा करती थीं, उसी का असर होगा... हा हा हा हा हा हा ...
यहां यह लिख दूं कि मुझे कभी भी दारू पीने की इच्छा नहीं हुई क्योंकि पैथोलॉजी की हमारी प्रोफैसर हमे ंइतना अच्छा पढ़ाती थीं कि क्या कहूं ...यही कोई 18 साल की उम्र रही होगी...एक दिन वह लिवर पर अल्होकल से होने वाले दुष्प्रभाव हमें समझा रही थीं, उन की पैथोलॉजी....बस, उस दिन यह फैसला हो गया कि यह चीज़ तो छूने लायक नहीं है ...और नहीं छुई...घर में भी सब को मना करता था लेकिन कभी किसी ने नहीं मानी..खैर, उस पिटारे को अभी बंद रखते थे, बाद में कभी इच्छा हुई तो उसे भी खोल बैठेंगे, लेकिन अभी तो फिज वाला पिटारा तो समेट लें पहलें...
हां, तो फ्रिज का मज़ा ले तो रहे थे लेकिन मुझे नहीं याद कि कभी मां ने उसमें रखे हुए आटे की रोटी हमारे लिए बनाई हो या कोई बासी सब्जी हमेंं खिलाई हो, सच में मैं पूरी ईमानदारी से इस बात को यहां दर्ज कर रहा हूं कि मुझे नहीं याद, लेकिन इतना पक्का है कि हिंदोस्तान की हर मां जैसी ही तो थी, खुद खा लेती होगी...हमें कहां उस वक्त इस बात की यह फ़िक्र थी कि किसने बासी खाया और किसने ताज़ा..हम अपने नशे में चूर थे....पढ़ने-लिखने-उछल-कूद वाले सुरूर में...
हां, एक बात तो लिखनी भूल गया ...जब फ्रिज आया तो उस के नीचे एक चौकी भी आई थी शायद ...अच्छे से याद नहीं है ..लेकिन फ्रिज को शुरू शुरू के कुछ महीने तो बड़े संभाल कर इस्तेमाल किया जाता रहा। उस में एक चाभी भी लगती थी लेकिन उस ताले को लगाने का तो कोई मक़सद हमें नहीं लगा...हां, एक बात और जब कभी फ्रिज का बल्ब फ्यूज़ हो जाता तो बड़ी सिरदर्दी सी हो जाती ..खैर, उसे तो बदलवा ही लिया जाता ...और हां, अमृतसर की हमारी कॉलोनी में बिजली भी तो कितने कितने समय तक गुल रहती थी ...पानी ठंडा पीने को नहीं मिलता था, एक बात ..लेकिन बर्फ भी नहीं जम पाती थी और जम थोड़ी बहुत जमी हुई होती वह पिघल जाती ...
हां, यह वह दौर था जब फ्रिज के ऊपर प्लास्टिक का एक रेडिमेड कवर भी डाल कर रखा जाता था ताकि उसे ज़्यादा दाग-धब्बों से बचा कर रखा जा सके... ताकि मैल न जमने पाए उस पर ...अभी यह वाक्य लिखते लिखते ख्याल आ रहा है कि फ्रिज के हेंडल के लिए भी तो एक अलग कवर हुआ करता था ताकि घी वाले हाथ उस के हेंंडल पर न लगें...और फ्रिज में बर्फ जमाने के लिए उन दो एल्यूमीनियम की ट्रे के अलावा किसी भी स्टील के डिब्बे में, छोटे पतीले में बर्फ जमा लेते थे ...उस सारी बर्फ को एक केंटर में डाल कर पानी भर लेते थे ..सारा दिन वही पानी पिया जाता ..क्योंकि तब तक इतनी अकल आने लगी थी कि यह बार बार कांच की, प्लास्टिक की बोतलें फ्रिज में रखना, निकालना, और भरना ...भी एक छोटी मोटी सिरदर्दी तो थी ही ..और यह सिरदर्द घर की गृहिणी के हिस्से ही आता था ...इसी बात पर मन ही मन हिंदोस्तान की हर गृहिणी के लिए तालीयां बजा दीजिए....यह अद्भुत है...सच में अद्बुत ...जिसे बस दूसरों के लिए ही जीना आता है, कभी अपना ख्याल नहीं रखा, न खाने का, न पहनने का ...जिस वक्त देखो चक्की की तरह पिसती रहती है ...वैसे यह कोई सेलिब्रेशन की बात भी नहीं है ..यह बदकिस्मती भी है एक तरह से ...जो सारे कुनबे को पाल देती है ...और किसी के पूछने पर इतनी सहमी-सिमटी सी कह देती हैं कि हम तो गृहिणी हैं, किसी काम की नहीं है........नहीं, यही सोच बदलने की ज़रूरत है ... इसीलिए मुझे ये जो अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस विवस भी कॉस्मेटिक सी बातें लगती हैं...दुनिया की नहीं तो कम से कम इस मुल्क की हर औरत की ज़िंदगी भी कुछ बदले तो बात बने ...चलिए, यह तो एक बिल्कुल अलग मुद्दा है ..छोडिए...
हां, अब यह निबंध लिखते लिखते मुझे यह लगने लगा है कि इस की एक किश्त और होनी चाहिए...अभी तक आपने पढ़ा कि हमारे यहां फ्रिज तो आ गया, किस हालात में आया, उसने हमारी और आसपास वालों की ज़िंदगी कैसे बदल डाली, मैंने आप के सामने उतना दिल खोल दिया जितना डाक्टर त्रेहन कहते हैं...लेकिन फिर भी ज़िंदगी इतनी भी न बदली फ्रिज की वजह से क्योंकि उसमें पानी, छाछ, बर्फ, दूध, घर का तैयार किया हुआ मक्खन, और एक दो मौसमी फल रखने के अलावा कुछ था ही नहीं ...क्योंकि इतना ही खरीदने के पैसे थे, बाकी अऩाप-शनाप खरीदोफ़रोख्त को हम जान भी पाते तो कैसे जान पाते ....उस के लिए पैसे चाहिए होते ...लेकिन आज सोच रहा हूं कि यही हमारी खुशकिस्मती थी बेशक ...क्योंकि इसी के रहते हमने सुथरा खाया, सेहतमंद खाया, ताज़ा खाया हमेशा और वही आदतें हमेशा के लिए हमारे साथ हो लीं...
अब एक बार फिर आप के सामने हाज़िर हो कर यह बताऊंगा कि यह जो केल्वीनेवर फ्रिज हमारे यहां 1976 में आया ..यह कैसे 25-30 बरस तक हमें अपनी सेवाएं देता रहा ....मां पिता जी के पास रहा ...और कैसे फिर उस के बाद हमारे पास इतने पैसे हो गए कि हम लोगों ने अपने फ्रिज को एक स्टोर बना दिया, हम उसमें दुनिया भर की चीज़ें ला ला कर रखने नहीं, ठूंसने लगे, एक चीज़ रखते तो दूसरी गिर जाती 😂😂...जी हां, इस के बारे में बातें अगली पोस्ट में ...हमारे एक बहुत वरिष्ठ अधिकारी ने मेरी पिछली पोस्ट में यह लिख भेजा कि सच में अब तो फ्रिज को हम लोगों ने स्टोर ही बना दिया है ...उन्होंने बिल्कुल सही फरमाया....अब इस आधुनिक स्टोर पर तो एक पोस्ट लिखनी बनती है कि नहीं, मित्तरो.....बनती है 😄😄😄😄..बेशक बनती है ..
अब गाना कौन सा सुनाऊं आप को ...अपनी पसंद का तो रोज़ सुनाता हूं...चलिए, आज मां की पसंद का सुनते हैं...मैं बहुत छोटा था तो एक दिन मां अपनी सखी-सहेलियों के साथ तलाश फिल्म देख कर आई ..कईं दिन तक मां उस फिल्म की तारीफ़ करती रही...बलराज साहनी के किरदार की, शर्मिला टैगोर के रोल की तारीफ़ ....बहुत बरसों बाद भी जब हम पूछते कि बीजी, आप बताओ आप को कौन सा गाना पसंद है तो वह उसी फिल्म तलाश का वह गीत याद करतीं....लीजिए आप भी सुनिए... वैसे तो दस लाख एक फिल्म आई थी जिस का गाना था, गरीबों की सुनो, वह तुम्हारी सुनेगा, तुम एक पैसा दोगो वो दस लाख देगा....यह भी गाना मां को बहुत अच्छा लगता था ...
डॉ. साहब, आप बहुत ही स्वाभाविक लिखते हैं. फ्रिज पर निबंध. रामायण का बहुत असर हुआ है. गाना भी एकदम मस्त है. बहुत खूब.
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