कल 23 मार्च थी...रह रह कर हस्ताक्षर के नीचे तारीख़ लिखते वक्त फिरोज़पुर में बिताए अपने 6-7 बरस याद आ रहे थे...यह दिन होता था ...शहीदेआज़म भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव की अज़ीम कुर्बानी को याद करने का ...और इस दिन एक तरह से मेले की शक्ल में जनता हुसैनीवाला बार्डर पर पहुंचा करती थी..
शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले..
वतन पर मिटने वालों का यही बाकी निशां होगा...
स्कूल की लाईब्रेरी में, अपने स्कूल के प्रिंसीपल के कमरे में, उस नाई की दुकान पर जहां हम हजामत करवाने जाते थे हर जगह में हमें भगत सिह और इन के साथियों की तस्वीरें दिखा करतीं....बहुत से लोगों के घरों मे भी गुरूओँ, पीर पैगंबरों के बीचो बीच आज़ादी के इस मतलावे की तस्वीर भी दीवार के किसी कील पर टंगी होती ...अब भगवंत मान ने यह फैसला किया कि सरकारी दफ्तरों में उस की तस्वीरें न लगाई जाएं...बल्कि बाबा साहेब डा. अम्बेडकर और भगत सिंह की तस्वीरें लगाई जाएं...बहुत अच्छा लगा था उस दिन यह सुन कर और ऐसा होते देख कर भी...
भगत सिंह जैसे आज़ादी के मतलवाले के साथ मेरी मुलाकात एक किताब के ज़रिए हुई थी...मुझे जब पांचवी कक्षा में जिला स्तरीय मेरिट छात्रवृत्ति के लिए चुना गया तो डीएवी स्कूल अमृतसर के वार्षिक पारितोषिक वितरण उत्सव के दौरान मुझे तीन चार किताबें मिली थीं, उन में से एक थी ..शहीद भगत सिंह। उन दिनों घर में स्कूल-कॉलेज की किताबों के अलावा कोई किताब न होने की वजह से भी उन तीन चार किताबें में सारे घर की बहुत रूचि थी...मैंने तो उन को अच्छे से पढ़ा ही, मेरी मां ने भी उन्हें पढ़ा और हम दोनों पढ़ कर फिर उन के बारे में बातचीत भी करते थे ....तो, जनाब यह थी कि अपनी उस जांबाज़ से पहली मुलाकात..
बाद में जब हम बड़े हो गए तो यहां वहां अख़बारों में इन तीनों मतवालों के बारे में पढ़ते तो रोम रोम में ऐसे लोगों के जज़्बे के प्रति आदर की भावना पैदा होती...साथ साथ रेडियो टीवी पर भी इन के बारे में सुनते रहते....एक किताब के बारे में पढ़ा जो भगत सिहं जेल में पढ़ा करते थे ...वह किताब इंगलिश में थी, और उस की जिन पंक्तियों को भगत सिंह ने पढ़ते हुए पेंसिल से अंडरलाइन किया था, बाद में उस के ऊपर भी चर्चा हुआ करती थी...बाद में इन की जिंदगी के ऊपर बहुत सी फिल्में भी बनीं ...एक से बढ़ कर एक.....जो भी है, जिस तरह का बलिदान देश की आजादी के लिए इन वीर जवानों ने दिया वह कााबिले-तारीफ़ क्या, और किसी इनाम के काबिल क्या, इन के इस जज़्बे के आगे तो देश का एक एक बाशिंदा ज़मीन पर लेट कर नतमस्तक ही हो सकता है, इस के सिवा कुछ नहीं...अभी चंद रोज़ पहले एक खबर पढ़ी कहीं कि कुछ जगहों पर भगत सिंह को भारत-रतन जैसा कुछ अवार्ड देने की जब मांग हुई तो सरकार ने कहा कि उन का बलिदान देश के किसी भी अवार्ड से बहुत ऊंचा है ...यह बात पढ़ कर बहुत अच्छा लगा।
हां, मैं तो आप को सुबह सुबह हुसैनीवाला बार्डर लेकर जा रहा था ..मैं तो वहां पर साईकिल, स्कूटर पर भी बहुत बार हो कर आया ...यह जगह फिरोज़पुर छावनी रेलवे स्टेशन से महज़ 8 किलोमीटर की दूरी पर है ...इस जगह पर इन तीनों शहीदों की याद में एक स्मारक बना हुआ है ...और उस पर लिखा हुआ ङै कि यह वह स्थान है जहां पर इन तीनों शहीदों के पार्थिव शरीर सतलुज दरिया में अंग्रेज़ हुकूमत के द्वारा फांसी देने के बाद पानी में बहा दिए गये थे । हुआ यूं कि जो दिन इन तीनों की फांसी के लिए मुकर्रर था उस के एक दिन पहले ही इन्हें फांसी दे दी गई...क्योंकि फिरंगियों को यह अंदेशा था कि इन की फांसी के वक्त इलाके में बहुत बड़ा बवाल उठ सकता है ....फिरंगियों को जो ठीक लगता था उन्होंने किया ..लेकिन फिर भी इन की शहादत ने देश के बच्चे बच्चे के दिलोदिमाग में फिरंगी हुकुमत के लिए नफ़रत के ऐसे बीज बो दिए जो फिर आज़ादी की सुंदर बेल के रूप में ही पल्लिवत-पुष्पित हुए ....
हर रोज़ आस पास के जो लोग भी और बाहर से आने वाले टुरिस्ट भी जो हुसैनीवाला बार्डर को देखने जाते हैं वे सब शहीदेआज़म के स्मारक पर भी नतमस्तक हो कर आते हैं...मुझे वहां गये 15-16 बरस हो गये हैं ..लेकिन इस जगह को इस के बाद बहुत अच्छे से डिवेल्प किया गया है ...जिन दिनों हम वहां जाया करते थे वहां पर भगत सिंह की माता जी बीबी विद्यावती देवी की भी समाधि पर भी हम ज़रूर हो कर आते ....उन्हें पंजाब माता का दर्जा हासिल है, ज़ाहिर है कोई बड़ी बात नहीं ...सोच रहा हूं कि इस से ऊपर भी कोई दर्जा होता तो वह उस की भी हकदार थी ....लेकिन फिर ख्याल आया कि जब पंजूाब ने उस शेरनी को अपनी मां ही मान लिया तो फिर उस के ऊपर, उस से बढ़ कर क्या और रुतबा होगा ...किसी मां के रुतबे से ऊपर....🙏🙏🙏🙏🙏
भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरू की शहादत से जुड़े इस स्मारक जिस जगह पर बना है वहां पर हुसैनीवाला स्टेशन का खंडहर भी दिखाई देता है ...यह भारत की तरफ़ उत्तर रेलवे का आखिरी स्टेशन है ....1965 की भारत-पाकिस्तान की जंग के वक्त पाकिस्तान की तरफ़ से की गई गोलाबारी में यह क्षतिग्रस्त हो गया...और आज यह इतिहास के गवाह की तरह खड़ा है ...अभी तो वहां पर कुछ म्यूज़ियम भी बनाया जा चुका है या बन चुका है ..लेकिन जिस बात को मैं यहां लिखना चाहता हूं वह यह है कि फिरोजुपर से हुसैनीवाला बार्डर की तरफ़ अब ट्रेनें नहीं चलतीं..(हुसैनीवाला स्टेशन की दूसरी तरफ़ पंजाब का ज़िला है कसूर)....लेकिन 23 मार्च के दिन रेलवे प्रशासन द्वारा हर साल ट्रेनें चलती हैं जो लोगों को फिरोज़ुपर छावनी से लेकर हुसैनीवाला तक जाती हैं जहां पर यह स्मारक है ...और उन दिन इस ट्रेन के कईं फेरे लगते हैं...लोगों को ले कर जाने और वापिस लिवाने के लिए...मेरी भी बड़ी हसरत थी उस दिन गाड़ी में वहां तक जाने के लिए लेकिन वहीं बात कि ह़ज़ारों ख्वाहिशें ऐसीं कि हर ख्वाहिश पे दम निकले ....
हां तो उस स्मारक पर नतमस्तक होने के बाद लोग फिर हुसैनीवाला भारत-पाक बार्डर पर परेड देखने जाते हैं...वहां पर बिल्कुल वाघा बार्डर जैसा मंज़र होता है ...परेड के वक्त जब दोनों देशों के जवान अपने अपने राष्ट्रीय ध्वज के सलामी करते हैं ...सैंकड़ों लोगों के हुजूम में ...इधर की तरफ़ भी, उधर भी ...फिरोज़ुपर में शहीदेआज़़म के स्मारक और इंडो-पाक बार्डर देखने के लोग बाहर से आए लोग भी इतने लालायित रहते हैं कि वे इन जगहों के दर्शन के लिए वक्त निकाल कर, प्रोग्राम बना कर ही आते हैं...मुझे याद नहीं कि हमारे फिरोज़ुपर में रहते कोई मेहमान हमारे यहां आया हो और हम उसे अपने साथ लेकर वहां न गये हों...2004 से पहले किसी आटो-वाटो में या मैं स्कूटर पर ही ले जाता था ...बाद में जब कार आ गई तो क्या बात थी....वहां जा कर पहले तो भगत सिंह और उस की साथियों और उन की माताश्री की समाधि पर नतमस्तक हो कर वे आत्मविभोर हुए बिना न रह पाते ..और इस के साथ शाम के वक्त होने वाली बार्डर पर परेड को देख कर देशभक्ति के जज़्बे से लबरेज हम लौट आते ...रास्ते में सोचते सोचते कि जिन वीर-बांकुरों ने इस लिए अपनी जानों की कुर्बानी दे दी कि हम आज़ाद देश में खुल कर सांस ले पा रहे हैं ...अब हमारी इतना तो फ़र्ज़ है कि हम ऐसा कुछ न करें जिस से उन की आत्मा को कोई कष्ट पहुंचे और इस आज़ादी पर कोई आंच आए, इस महान देश की अस्मिता के बारे में कोई भी संशय़ कर पाए...ऐसा कुछ भी न करने का जज़्बा लिए हम अंधेरा होते होते देर शाम अपने आशियानों की तरफ़ लौट आते ...
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