यह उस दौर की बात है जब हम लोगों के लिए नए साल का मतलब सिर्फ यह होता था कि साल के उन आखिरी दिनों में हमें अपने बाबा आदम के ज़माने वाले रेडियो पर रात के वक्त बिनाका गीत माला सुनाई देती थी ...और मुझे अच्छे से यह भी याद है कि अगर उन दिनों सिबाका गीत माला के दौरान हमारे रेडियो में सिग्नल ठीक से नहीं पहुंच पाता था तो हमारा मूड बहुत ज़्यादा खराब हो जाया करता था...बड़े होने पर पता चला कि वह दिलकश आवाज़ जिस शख्स की होती थी उस महान हस्ती का नाम अमीन सयानी है ... क्या बात थी उस की पेशकश में कि मैं उस दिनों यही कोई तीसरी-चौथी जमात में रहा हूंगा ...लेकिन रेडियो से तो जैसे चिपके रहते थे ...फिर अगले दिन हम लोग स्कूल में चर्चा करते थे कि कौन सा फिल्मी नगमा किस नंबर पर आया ...वह दिन भी क्या मज़ेदार दिन थे ...इस लिंक पर क्लिक करिए और उस दौर को याद करिए....
अच्छा, यह तो हुई बचपन की मासूम सी बातें...हमें कुछ ज़्यादा नए-पुराने साल से मतलब न होता था .. नए साल के आसपास २५ दिसंबर से २-३ जनवरी तक हमारी बड़े दिन की छुट्टियां होती थी, या ठंडी की छुट्टियां (विंटर-वकेशन) होती थीं ...और हमें उदासी थोड़ी सी यह भी होने लगती कि अब तो एक दो दिन में स्कूल खुल जाएंगे ... बकरे की मां कब तक खैर मनाएगी...फिर वही हिसाब किताब की बातें, साईंस की नीरसता ...सब कुछ वापिस झेलना पडे़गा...ये आठ दिन तो अच्छे से कट रहे थे ...जब चाहे उठे, जब चाहे घूमने निकल गए, फिल्म देखने चले गए....और रेडियो सुनते रहते थे...और इस के इलावा कुछ था भी तो नहीं ...एक डालडे के डिब्बे में भरे कंचों के अलावा ...😂😂
लो जी, हम कालेज पहुंच गए ...१६-१७ साल की उम्र में घर में टी वी आ गया....नए साल का मतलब यह भी होता कि ३१ दिसंबर की रात को दूरदर्शन पर एक बहुत बढ़िया ख़ास प्रोग्राम आया करता था ...पहले दो घंटे शायद दस बजे तक तो जालंधर दूरदर्शन की पेशकश हुआ करती ...फिर दिल्ली से अगले दो घंटे प्रसारण होता ...वाह, क्या बात होती ...उस में देश भर के चुनिंदा कलाकार, गायक अपनी प्रस्तुति देते ...मुझे अच्छे से याद है गुरदास मान का भी उन्हीं दिनों नाम होना शुरू हुआ था ...
और हां, उषा उत्थुप को मैं कैसे भूल गया...किस किस का नाम लें....यह प्रोग्राम रात १२ बजे तक चलता था ...फिर हम लोग सो जाते थे ...सारे साल में यही एक दिन होता था जब हम लोग इतना लेट सोते थे ...वरना रात साढ़े नौ बजे या हद १० बजे तक थक-टूट कर नींद आ ही जाती थी ...क्या करते, घर में वही डॉयलाग बार बार सुनने को मिलते ...Early to bed and early to rise ....और मां भी अकसर गुनगुनाया करती ...उठ जाग मुसाफिर भोर भई..अब रैन कहां जो सोवत है....😎
और हां, यह वह दौर था जब लोग एक दूसरे को नये साल के कार्ड भेजा करते थे ...और डाकखानों में उन दिनों काम इतना बढ़ जाता था कि उन की व्यवस्था चोक हो जाया करती थी ...कईं कईं दिन बाद वे कार्ड मिलते थे ....बहुत बार लोगों को शिकायत होती थी कि मिलते भी नहीं थे। आज कल जिस तरह से हर नुक्कड पर मोमोज़ बिक रहे होते हैं ...उन दिनों ऐसे ही नए साल के कार्ड थोक रेट पर बिका करते थे ...यही कोई १५-२० रूपये के १२ ....और किसी को आर्चीज़ से महंगे कार्ड --उन दिनों में भी दस-पंद्रह रूपये वाले कार्ड - भिजवाना कईं बार लोगों की मजबूरी ही लगा करती थी ...जैसा मुझे लगा ... मेरी बात का मतलब आप समझ ही गए होंगे...मैंने कभी यह सब काम नहीं किए....क्या करते, इतने पैसे ही नहीं हुआ करते थे कि इस तरह की चौंचलेबाजी में पड़ा जाए....
फिर देखते ही देखते ....नए वर्ष की पूर्व-संध्या किसी जश्न की बजाए एक शोर में बदल गईं....हर तरफ शोर- शराबा, बे-वजह की दौड़, दिखावा, दारू-शारू....बस, यही सब कुछ....जब से यह चलन शुरु हुआ, तब से नए साल की शुरूआत का जो एक मासूम सा मक़सद अगर हुआ भी करता था वह भी नहीं रहा है....ऊपर से यह वाट्सएप पर नए साल की बधाईयां देने-लेने वालों का तांता...बड़ी चिढ़ है मुझे इन सब संदेशों से ...
मैं यह सोचता हूं कि सुबह उठ कर ...साल नया हो या पुराना....सब से पहले सारी कायनात की सलामती की दुआ कर दें तो उस में सभी लोग शामिल हो जाते हैं...😄मैं किसी को भी बहुत कम नए साल की बधाई भेजता हूं क्योंकि मैं सभी लोगों की सलामती, खुशहाली की दुआ दिल में ही कर लेता हूं ....कईं बार मेरा इन फ़िज़ूल बातों से सिर दर्द ही ट्रिगर हो जाता है और फिर सारा दिन बन्ने लग जाता है ...
अभी बज रहे हैं ११ बज कर ४५ मिनट ...पंद्रह मिनट अभी हैं नए साल के शुरू होने में ...इसलिए अभी यह फिल्मी गीत सुनता सुनता सो रहा हूं ......ताकि न मुझे कोई डिस्टर्ब करे, न ही मैं किसी को करूं ...मै किसी को नए साल की मुबारकबाद का फोन भी नही करता ...क्योंकि मुझे लगता है कि लोग पहले ही ढ़ेरों बधाई संदेशों से त्रस्त होंगे ...उन्हें थोड़ी सांस भी लेने दें...
अच्छा, दोस्तो, इस पोस्ट को पढ़ने वालो, आप सब के लिए २०२२ नईं खुशियां और उमंगे लेकर आए ...और सब से ज़रूरी आप सेहतमंद रहें, खुश रहें, खिले रहें ....और खुशियां बांटते रहें हमेशा ...गुड नाइट ....
यही कोई १५ साल तो हो गये होंगे, इस फिल्म को आए हुए...फिल्म तो बढ़िया थी ही, बेशक...लेकिन इस फिल्म का यह बेहद हसीन डॉयलॉग मेरे तो जैसे दिलो-दिमाग पर छा गया...मुझे याद नहीं मैंने कितनी बार अपने ब्लॉग में इस का ज़िक्र किया...डॉयलॉग क्या है भाई यह तो जैसे हम लोगों के लिए एक आईने का काम कर रहा है ...लेकिन आईना देखने की भी फ़ुर्सत है कहां, हम पहले अंधी रेस तो दौड़ लें..
कुछ दिन पहले मैंने कहीं पढ़ा कि सत्यजीत रे जब ६ साल का बालक था तो उस की मां उसे रबिन्द्रनाथ टैगोर के पास ले कर गई ...और उन्हें उस की कापी पर कुछ लिखने को कहा ...उन्होंने उस की कापी पर यह लिखा ...
Many miles I have roamed, over many a day....
from this land to that, ready for the price to pay..
Mountain ranges and oceans lay in my way..
yet two steps from my door, with wide open eyes..
I did not see the dewdrops on a single sheaf of rice....
इसे लिखने के बाद टैगोर ने उस की मां को कहा कि यह कागज़ इस बालक के पास ही रहने देना, जब यह बड़ा होगा तो इस में लिखी बातें समझ जाएगा। जी हां, हुआ भी वही ...उस बालक ने भी इतनी अहम् बात को ऐसा समझा कि जो फिल्में उसने अपने आस पास के परिवेश में, आस पास के लोगों के बारे में बनाईं, उन की धूम किसी सूबे या देश ही में ही नहीं, सारी दुनिया में वे मास्टरपीस मानी गईं...
कोई भी ज्ञान कहीं से भी मिल जाए...किसी भी उम्र में ले लेना चाहिए...६ साल की उम्र में और मेरी ६० साल की उम्र में फ़र्क है ही कितना ..मुझे भी यह बात इतनी बढ़िया लगी कि मैंने इसे लिख कर एक एंटीक फ्रेम में अपनी स्टड़ी टेबल पर रिमाँइडर के तौर पर टिका दिया है ...अकसर निगाह पड़ जाती है और मन ज़्यादा इधर-उधर भटकने से बचा रहता है ...वरना, हर वक्त यही बात ..यार, मैंने स्विज़रलैंड नहीं देखा, कश्मीर नहीं देखा, नार्थ-इस्ट नहीं देखा...महाबलेश्वर नहीं देखा....और लंबी-चौड़ी लिस्ट ....यहां नहीं गए, वहां नहीं गए....अजंता -एलौरा नहीं गए तो क्या हुए...तस्वीरें तो देख लीं...अब यही लगने लगा है कि सहजता से, आसानी से जहां जाया जा सके ठीक है ...वरना क्यों इतनी मगजमारी की हर वक्त बंदा देश-विदेश के दौरों की प्लॉनिंग ही करता फिरे ...
हम सारी उम्र घूमते ही रहें...फिर भी कुछ न कुछ ही नहीं, बहुत कुछ रह जाएगा...एक किताब पढ़ रहा हूं ...वंडर्ज़ ऑफ दा वर्ल्ड ...यह सात अजूबों की नहीं, दुनिया के बहुत से अजूबों के बारे में बताती है ...पढ़ते हुए यही अहसास होता है कि इतनी बढ़िया दुनिया, इतने बड़े बड़े अजूबे, पहले अगर पढ़ता तो यही लगता कि इन में से ताजमहल के अलावा कुछ भी नहीं देखा, लेकिन अब मन ठहर सा गया है...समझ आने लगी है ..कि नहीं देखा तो भी कोई बात नहीं, जब देखेंगे देख लेंगे ..अगर मुमकिन हुआ तो अच्छा, अगर नामुमकिन हुआ तो भी बढ़िया ...
हम लोगों की परेशानी यही है कि हम दूर दूर की जगहों पर जाते हैं, दूर बैठे लोगों से पेन-फ्रेंडशिप करते हैं....लेकिन अपने पास ही के लोगों से ढंग से तो क्या, बेढंग से भी बोलते-बतियाते नही, आसपास की जगहों में रूचि नहीं लेते ..जहां हम रहते हैं वहां से पांच-दस किलोमीटर के घेरे में आने वाले ऐसे कईं स्थान हैं जिन्हें हम ने कभी देखा ही नहीं ...लेकिन देखें भी तो कैसे, उस के लिए पैदल चलना होगा, किसी टू-व्हीलर पर उन सड़कों को नापना होगा...हम मोटर-गाड़ियों में दूर दूर से जगहों को देखते हैं....और मन ही मन सोचते हैं कि हां, इधर भी कभी आना है ..लेकिन वह कभी कब आता है .....इस का कुछ पता नहीं ...अकसर तो आता ही नहीं...जैसे कल मेरी एक कॉलेज की साथी ने यह बहुत ही हंसाने वाली वीडियो भेजी वाट्सएप पर ...देखते ही मज़ा आ गया....उस में साथ में यही लिखा था कि जब आप रिटायर होने के बाद फैरॉरी लेते हैं तो आप का भी यही हश्र होता है ... 😄😄😄ओ माई गॉड, यह तो मुझे खुद की बीस साल बाद की तस्वीर दिखी...लेकिन ज़िंंदगी जीने की भी इतनी जल्दी क्या है, पहले बैंक-बेलेंस को तो मोटा कर लें...वह कही ज़्यादा ज़रूरी है ...😂😉
वीडियो की तो बात क्या करें, अपनी हालत पर ही हंसी आती रही कि कभी पलंग के नीचे से कुछ निकालना हो तो नानी याद आ जाती है, बाथरूम में किसी चौकी पर बैठ कर उठना ऐसा मुश्किल लगने लगा है कि अब वहां पर खूब ऊंचे स्टूल पर बैठ कर ही खुद को नहलाया जाता है, कपड़े की अलमारी की नीचे की शेल्फों को देख कर गुस्सा आता है कि कौन इतना झुके और कैसे झुके ...इसलिए वहां पर भी कुछ देखने के लिए ऊंचे स्टूल पर बैठना पड़ता है ....यह है हमारी फिटनैस का लेवल...
हम बड़ी बड़ी प्लॉनिंग ही करते रह जाते हैं ...और कब ३० से ६० के हो जाते हैं, पता ही नहीं चलता लेकिन तभी घुटने चीखना चिल्लाना शुरू कर देते हैं ....😄😎😂
पिछले कुछ दिनों से मैं खार-बांद्रा की एक सड़क की तरफ़ से ऑटो पर जब निकलता तो वहां पर राजेश खन्ना पार्क का बोर्ड लगा देखता....कल सुबह सुबह यह धुन सवार हो गई कि वहां हो कर आते हैं..चला गया जी ..वाह, इतना खूबसूरत पार्क ...खुब हरा-भरा ...मज़ा आया वहां जाकर ...दस मिनट टहले, फिर डयूटी जाने का ख्याल आया तो लौट आए....वहां पर राजेश खन्ना की सुपर-डुपर फिल्मों के पोस्टर भी लगे थे जिन्हें देख कर तो और भी अच्छा लगा...मैंने किसी से पूछा कि इस का नाम राजेश खन्ना पार्क है, क्या यह उसने बनाया था...एक टहल रहा बंदा रूक गया और बताने लगा कि हां, बनाया तो उसने था, लेकिन बाद में बीएमसी ने इस का रखरखाव अपने पास ले लिया...
चलिए, रखरखाव कोई भी करे, हमारे लिए अच्छी बात यह है कि पार्क बहुत सुंदर है, बहुत से लोग वहां पर अपने दिलो-दिमाग की चार्जिंग अपने अपने अंदाज़ में बड़े जोशो-खरोश से कर रहे थे, देख कर बहुत ही अच्छा लगा....हमने भी यह निश्चय किया कि किसी दिन आते हैं यहां पर फुर्सत में दो एक घंटे बैठ कर मज़ा लेंगे ...देखते हैं, वे फुर्सत के पल कब आते हैं...
ज़्यादा दूर न भी जाएं या जा पाएं तो घर ही के आसपास गलियों की खाक छानते ही हमें ऐसी ऐसी चीज़ें, कलाकारों के ऐसे काम दिख जाएंगे कि एक बात तो दांतों तले अंगुली दबाते दबाते रह जाएं...
दो-तीन साल पहले की बात है ...मैं अपनी बहन के पास जयपुर गया तो हमने एक पार्क में जाने का प्रोग्राम बनाया...इतना बड़ा पार्क ...हम लोग वहां दो घंटे घूमते रहे ...हमें वापिस निकलने का रास्ता ढूंढने में दिक्कत हुई ....बहन ४० साल से जयपुर में है, वहां पर पहली बार मेरे साथ गई थी...यही हाल हम सब का है, हम अपने शहरों को अमूमन इतना ही देख पाते हैं, जानने की बात न ही करें...
डयूटी से आने पर आज दो तीन घंटे सोया रहा ...सिर दर्द से परेशान था...रात साढ़े आठ नौ बजे उठा तो ख्याल आया कि एक दवाई खरीदनी है ..नानावटी अस्पताल का नुस्खा था...पाली हिल के एरिया में तीन-चार दुकानें छान लीं...नहीं मिली दवाई .. दिन-रात चलने वाली वेलनैस कैमिस्ट की एक दुकान है ...उन के यहां भी न मिली ..कहने लगे कल शाम को मिलेगी...लेकिन इतना वक्त किस के पास होता है आजकल कि चक्कर मारते फिरो एक दवाई के लिए...
मैंने वेलनैस वाले कैमिस्ट से ही पूछा कि यह मिलेगी कहां ...कहने लगा कि किसी अस्पताल की फार्मेसी से ही मिल पाएगी...मैंने पूछा होली-फैमिली से मिलेगी? - उसने कहा कि हां, वहां ज़रूर मिल जाएगी। मैं होली-फैमिली की तरफ़ चल दिया...रास्ते में मुझे यही ख्याल आ रहा था कि दवाई तो यह बहुत सस्ती होगी, इसलिए ही नहीं मिल रही। वरना, महंगे टॉनिक, सप्लीमैंट जैसी दवाईयां तो आज कल छोटे से छोटे कैमिस्ट ऱखने लगे हैं...
होली फैमिली वाले सिक्योरिटी गार्ड ने अंदर जाने से पहले नुस्खा चैक किया...मैंने फार्मेसी के काउंटर पर बैठी महिला को पर्चा दिया तो उसे देखते ही वह अपनी साथी फार्मासिस्ट से बुदबुदाई...नानावटी अस्पताल की प्रिस्क्रिप्शन है। खैर, वह दो मिनट तक कंप्यूटर में तांका-झांका करने के बाद कहने लगी कि हम तो अपने अस्पताल के डाक्टर की प्रिस्क्रिप्शन पर ही दवाई देते हैं। खैर, बंबई में किसी से भी बहस फिज़ूल है ..यह ज्ञान बहुत ज़रूरी है। उसने कहा कि अस्पताल के बाहर जो कैमिस्ट है, उस से पता कर लीजिेए।
बाहर आते वक्त मैंने उस सिक्योरिटी गार्ड से पूछा कि तुमने मेरा पर्चा चैक तो किया लेकिन उसमें देखा क्या...अगर मुझे यहां से दवाई नहीं मिलनी थी, तो मुझे यहीं से लौटा देते, क्योंकि ये तो बाहर के नुस्खे पर दवाई देते ही नहीं। सिक्योरिटी वाला कहता है कि अगर हम अंदर नहीं जाने देते तो लोग हम से उलझते हैं, हम क्या करें...और उसने बताया कि ऐसा नहीं है कि बाहर के नुस्खे पर दवाई नहीं मिलती, किसी को मिल जाती है, किसी को नहीं देते ....मैंने वहीं पर उस बात पर मिट्टी डाली और उस महिला के द्वारा बताए गये कैमिस्ट के पास चला गया लेकिन वहां भी नहीं मिली...कहने लगा कि इस की खपत कम है, इसलिए रखते नहीं। हां, उसने यह कहा कि लीलावती अस्पताल से पता कर लीजिए, वहां ज़रूर मिल जाएगी।
मैं लीलावती अस्पताल पहुंच गया...वहां पर भी उसने कंप्यूटर में देख कर यही बताया कि यह दवाई इस स्ट्रैंथ की नहीं है, इस से ज़्यादा की है ...आप इधर ही लैफ्ट में चले जाइए...नोबल कैमिस्ट है, वहां से पता कर लीजिए। मुझे तो आते वक्त कोई न कोई नोबल, न कोई क्रयूएल कैमिस्ट दिखा...लेकिन लगभग एक डेढ़ किलोमीटर के बाद हिल रोड पर मेहबूब स्टूडियो के सामने एक दवाई की दुकान पर नज़र गई तो नोबल लिखा था...उस के अंदर जा कर पूछा तो वहां से दवाई मिल गई ...कुल चालीस रूपये की दवाई थी ....और एक-डेढ़ घंटे की स्कीम हो गई।
मुझे यही लगता है ..पता नहीं अब ठीक लगता है या नहीं, कि ऐसी सस्ती दवाईयां रख कर वे लोग अपनी इंवेंट्री क्यो बढ़ाने लगें...इन में कमाई ही क्या है...अभी मैं दवाई ले रहा था कि एक जेंटलमेन आया कि खांसी की दवाई लेनी है। मुझे अपना बचपन याद आ गया कि हम लोग या हमारे मां-बाप भी तो ऐसे ही अमृतसर इस्लामाबाद चौक पर सरदार कैमिस्ट के पास जा कर खड़े हो जाते थे कि हमें यह तकलीफ है, वह एक दो सवाल पूछता और हमें दो-तीन खुराक दे देता ...यही कोई १५-२० रुपये में (४५-५० साल पुरानी बातें ...) ...मेरे माता पिता की नज़रों में वह अमृतसर का सब से सयाना कैमिस्ट था ...जब भी मेरा गला खराब होता, थूक निगलने में भी दिक्कत होने लगती तो मेरे पापा दफ्तर से लौटते वक्त वहां से दो-चार टैरामाइसिन की खुराकें ले आते ...और हम एक-दो कैप्सूल और पापा से हल्की सी डांट खाने के बाद टनाटन हो जाते ...और पापा की डांट यही होती कि यार, खट्टे चूरन मत खाया कर, उसमें टाटरी पड़ी होती है, तू समझता क्यों नहीं ...
आज इस ४० रूपये की दवाई खरीदने के चक्कर में मुझे जब इतनी भाग-दौड़ करनी पड़ी तो मुझे यही ख्याल आ रहा था कि एक तो यह हालत है और दूसरी तरफ़ सरकारी अस्पतालों में दवाईयों के अंबार लगे हुए हैं...फिर भी !!!!!😷चुप रह यार, चुप भी रहना सीख ले...वरना किसी दिन बुरा फंसोगे तुम ....खुद को समझाने की कोशिश कर रहा हूं...
अभी अभी उठा हूं...आज बड़ा दिन है ...हैपी क्रिसमिस है ...लेकिन इतनी शांत और ठहरी ठहरी सी सुबह...चलिए, सुबह की इस सुंदर बेला का जश्न मनाने के लिए एक खूबसूरत गीत सुनते हैं पहले...बातों का क्या है, वे तो होती ही रहेंगी...
मुझे आज अचानक ख्याल आ रहा है कि आज से ४०-५० साल पहले कोई भी तीज-त्यौहार का दिन हो या कहीं भी जागरण हो, रामलीला हो, होली-दीवाली हो या पड़ोस में किसी के घर में महिलाओं की कीर्तन मंडली ने दोपहर में कीर्तन ही करना होता या कहीं पर सुंदर-पाठ का आयोजन होता, सत्यनारायण की पूजा होनी होती, सरकारी पब्लिसिटी महकमे की ओर से कोई फिल्म ही दिखाई जानी होती तो उस से कईं घंटे पहले हमें ऊंची ऊंची आवाज़ में बड़े बड़े लाउड-स्पीकरों पर बज रहे अपने मनपसंद फिल्मी गीतों के ज़रिए उस की सूचना मिल जाती ..
लाउड स्पीकर ही क्यों...राखी, भैया दूज आदि के दिन तो सुबह सुबह सभी घरों में ऊंची ऊंची आवाज़ में राखी से जुड़े सुपर-डुपर गीत बजने लगते ...हमें भी यूं लगता कि हां, यार, आज जश्न का दिन है ..
इन फिल्मी गीतों की अहमियत हमारे लिए इतनी थी कि वे उम्र भर के लिए हमारे साथ ही हो लिए...होली के दिन जब तक वे गीत नहीं बजते ..होली जैसा लगता ही नहीं कुछ ...😂😂प्रूफ के लिए इस लिंक पर क्लिक करिए और यह गीत सुनिए....आज न छोडेंगे...खेलेंगे हम होली...
मेरी तो बचपन-जवानी की सारी यादें अमृतसर शहर की हैं...लेकिन अकसर यह सभी शहरों की ही दास्तां होगी ... गली,मोहल्ले और अड़ोस-पड़ोस में किसी के घर किसी शादी का आयोजन होता तो सुबह ही छत पर बड़े बड़े स्पीकर से हमें अपने मनपसंद फिल्मी गीत सुनने लगते ....बहुत मज़ा आता था ...बार बार सुन कर भी हम कहां बोर होते थे ...यह कमबख्त बोर लफ़्ज़ ही से हम वाकिफ़ न थे, हमें तो वैसे भी हर पल उत्सव जैसा लगता था..हर वक्त अपनी ही सुनहरे ख़्वाबों में खोए-खोए से अपने आप में मस्त रहना ...ज़िंदगी को एक वक्त में एक ही दिन के लिए ही जीना ही हमें जीना लगता था...
१९७५ की बात है ...शोले फिल्म जब आई तो हमें बडे़ बड़े लाउड स्पीकरों पर दिलकश फिल्मी गीतों के साथ साथ फिल्मों के ़डायलॉग भी हमें सुनने को मिलने लगे ...गब्बर, कालिया, जय-वीरू की बातें और बसंती की चुलबुली बातें जैसे हमें रट गईं ....अपने सिलेबस से भी कहीं ज़्यादा अच्छे से...लोगों में सहनशक्ति थी ...किसी के दुःख सुख का ख्याल रखते थे ...थोड़ी बहुत असुविधा भी होती थी तो चुपचाप सह लेते थे ...पंजाबी च कहंदे ने जर लैंदे सी...लेकिन हमें तो यह सब बहुत अच्छा लगता था...
हम भी उस वक्त किताब-कापी लेकर मेज़ पर पढ़ने का नाटक करने बैठ तो जाते थे लेकिन कमबख्त सारा ध्यान उस लाउड-स्पीकर से बज रहे गीतों पर ही हुआ करता था ...
किसी के यहां रात में जागरण होना होता तो शाम ही से माता की भेंटे बजने लगती ...कहने का मतलब की पूरा माहौल तैयार हो जाता था रात होते होते ...अभी लिखते लिखते ख्याल आ रहा कि अमृतसर के इस्लामाबाद एरिया में एक पीर की जगह थी ..जहां पर लोग वीरवार के दिन सरसों का तेल कटोरी में ले जाकर चढ़ाया करते थे ...कहते थे इस से मन्नत पूरी हो जाती है ...लेकिन मेरी तो न हुई ...बेवकूफी की हद यह कि नवीं-दसवीं कक्षा में जब स्वपन-दोष (वेट-ड्रीम्स) की शुरूआत हुई तो मैं तो भई परेशान रहने लगा, पढ़ाई में मन ही न लगता...यही लगने लगा कि यह कौन सी बीमारी लग गई....मन ही मन मैंने देखा कि पीर बाबा के बारे में बताते हैं कि वह जगह बड़ी पहुंची हुई है ...
मैंने भी वहां पर वीरवार के दिन सरसों का तेल लेकर पहुंच जाना और वहां पर जल रहे दीयों में उसे डाल कर आना और दिल की गहराईयों से यही अरदास करता कि बाबा, मुझे इस बीमारी से छुटकारा दिला दो ....लेकिन कईं साल बाद पता चला कि यह स्वपन-दोष कोई दोष तो है ही नहीं, यह तो सामान्य सी बात है और सभी को इस अवस्था से गुज़रना ही पड़ता है ...उसमें पीर क्या उखाड़ लेता ...हम लोग भी ऐसे बुद्दू थे...थे से मतलब?😂😎सच में हमें दीन-दुनिया की कुछ समझ न थी, न ही हम लोग लोग किसी बड़े बुज़ुर्ग के साथ, यहां तक कि बड़े भाई के साथ ही ऐसी कोई बात करते थे कि उन से ही पूछ लें कि ऐसा क्यों हो रहा है....लेकिन पूछते कैसे, हमें तो लगता कि इसमें भी हमारा ही कोई दोष है ....😎😎
चलिए, पुरानी बातों पर मिट्टी डालें ...हां, तो पीर बाबे की जगह पर तो फिल्मी कव्वालियां तो लाउड-स्पीकर पर चल ही रही होतीं ...कुछ लोगों के घरों में जिन की मन्नत पूरी हो चुकी होती ....(खुदा जाने उन की क्या मन्नत पूरी हो चुकी होती, मैंने तो अपनी बेवकूफ मन्नत की पोल-पट्टी खुद ही खोल दी है...😎😂)...तो उन के घर मे एक देग में शाम के वक्त गुड़ वाले मीठे चावल पकाए जाते और उस देग को एक साईकिल रिक्शा पर रख कर उस पीर की मजार पर लेकर जाया जाता और वहां आने वाले भक्तों में उसे बांटा जाता ....और उस घर में शाम से ही वहीं फिल्मी सूफी-कव्वालियां बड़े बड़े लाउड-स्पीकरों पर हमें सुनाई देने लगतीं...
और जहां तक धुंधला सा ख्याल आ रहा है कि किसी के यहां शोक में अगर कोई आयोजन होना होता - भोग, श्रद्धांजलि आदि--वहां पर वही माईं डिप्रेसिंग से गीत की माईं तू संसार में लेकर क्या आया है, लेकर क्या जाएगा, ये चौरासी का फेर है, ये सब डराने वाली बातें ..नरक में जाएगा, स्वर्ग में सीट बुक करवा ले .....सच में हमें उस उम्र में ये सब बेकार की बातें ...मन को उदास करने वाली बातें बहुत बुरी लगतीं, हां, आज भी लगती हैं....सच में उस वक्त सारे ऐसे गीत बजते जैसे अगले दो घंटे में सारी दुनिया तबाह होने वाली है ...
और क्या होता था....त्योहारों पर ...मिठाईयां खाई जातीं, केक खाए जाते (तब काटने का चलन न था...बस हमें केक-खाने का ही पता था....)और बहुत से लोग नए-नए कपड़े इन त्योहारों पर पहनने के लिए खरीदते ... देखा जाए तो उस नज़रिए से तो अब दिन जश्न का दिन होना चाहिए ...लेकिन ऐसा है नहीं ...क्यों नहीं है, यह हमें ख़ुद से पूछना होगा...आराम से, इत्मीनान से, सुकून से खुद के साथ बैठ कर ...मुझे लगता है हम इतने समझदार हो गए हैं कि अब हमने जश्न के लम्हों की बजाए सुख-वैभव की चीज़ों में खुशियां ढूंढना शुरू कर दिया है .....
बस करूं, मैं भी बड़े दिन के क्या लिखने बैठ गया..रात में मैं ईज़ी-चियर पर पडे़-पड़े वह गीत याद करता रहा ...हमारे दौर का बहुत ही पापुलर गीत .....
क्रिसमिस की बहुत बहुत बधाईयां ....और भी बहुत सी यादें हैं, इस त्यौहार की ..फिर कभी आप से कहेंगे...😂....अभी यू-टयूब पर बचपन वाले पीर-बाबे को सर्च करना चाहा तो बीसियों रिज़ल्ट आ गए...मैंने चुपचाप उसे बंद कर दिया ...कि कहीं फिर से तेल चढ़ाने के चक्कर में न फंस जाऊं...बहुत मुश्किल से तो पहले ही उस फिसलन से बाहर निकला हूं....आराम से यही गीत वीत ही सुनते हैं...और बड़े दिन के जश्न में शामिल हो जाते हैं....
"एक तो हमारी समझ में यह नहीं आता कि आप लोग जूते उतरवाने के पीछे क्यों इतना हाथ धो कर पड़े रहते हो हर वक्त" .. जब आईसीयू के बेड नंबर तीन पर ज़िंदगी और मौत की जंग लड़ रही एक दादी के पोते ने बड़ी बेरुखी से संदीप को यह कहा तो उसे कहना ही पड़ा - " ताकि आप अपने मरीज़ को सही सलामत लेकर घर लौट सको!"
संदीप एक बहुत बड़े सरकारी अस्पताल के आईसीयू में एक मेल-नर्स है ...जिसे आज कर ब्रदर कहने का चलन है...बड़ी निष्ठा से अपना काम करता है ...यह जो एक दादी का पोता उसे कुछ कह गया, यह उस के लिए कुछ नया नहीं था। कभी किसी को आईसीयू के अंदर जाने से रोकने पर, कभी किसी को मरीज़ के पास ज़्यादा न रूकने की ताक़ीद करने पर, कभी जूता बाहर उतार कर आने के लिए कहने पर ...इस तरह की थोड़ी बहुत नोंक-झोंक होती ही रहती थी...
ख़ैर, किसी को बुरा लगे या अच्छा, संदीप किसी को अच्छा-बुरा लगने की परवाह किए बगैर कायदे से अपनी ड्यूटी करता था ताकि आईसीयू में किसी तरह के संक्रमण से मरीज़ों को बचाया जा सके...
संदीप को आज ऐसे ही बैठे बैठे ख़्याल आ रहा था कि जूतों की भी अजब चिक-चिक है...कभी न पहनने की बातें, कभी पहनने की ज़िद्द ....कभी फटे हुए, कभी सिले हुए...किसी के तीन सौ रूपये के ...किसी के छः हज़ार के ...
दो दिन पहले एतवार के दिन गांव से उस का चचेरा भाई बिट्टू उस से मिलने आया था...उसे शहर में कुछ काम था, बैंक के लोन-वोन का कुछ चक्कर था, किसी बड़े अफसर से कुछ सैटिंग करने आया था...सुबह संदीप से कहने लगा - भाई, सुना है यहां की रेस-कोर्स देखने लायक है ...अगर फ़ुर्सत हो तो मुझे भी दिखा दो। संदीप को आज फ़ुर्सत ही थी और वैसे भी बिट्टू इतने बरसों बाद आया था..।
वे दोनों साढ़े बारह बजे के करीब पहुंच जाते हैं रेस-कोर्स ...संदीप ने मोटर साईकिल पार्किंग में खड़ी की और गेट पर पहुंच गए जहां अंदर जाने के लिए टिकट मिलती थी। संदीप को यह तो पता था कि टिकट लगती है लेकिन उसे लगा कि यही कोई सौ-दो रूपये की टिकट होगी..इसलिए उस की जेब में सात-आठ रूपये ही थे, एटीएम कार्ड भी था वैसे तो..लेकिन यह क्या !
टिकट के काउंटर पर पहुंचने से पहले ही दो दरबानों ने बिट्टू को अंदर जाने से रोक दिया...संदीप को एक झटका सा लगा...बिटटू ने कपड़े भी ठीक ठाक पहने हुए थे ..और लेदर की चप्पल भी नयी ही लग रही थी। लेकिन यही चप्पल का ही तो पंगा था...सिक्यूरिटि गार्ड ने कहा कि बिना शूज़ पहने अंदर नहीं जा सकते। दो चार बार संदीप ने उन से कहा कि कहा कि जाने दो ऐसे ही, पता नहीं था, लेकिन आप लोगों को पता ही है कि ये दरबान कहां मानते हैं...इन का रुआब तो बड़े बड़े को उनकी औकात याद दिला देता है...
संदीप मन ही मन सोच रहा था कि यार, यह तो बड़ी मुसीबत हो गई बैठे-बिठाए...अब कहां से लाएं शूज़.... लेकिन बिट्टू का मन तो अंदर जाने के लिए मचल रहा था..उसने संदीप से कहा कि चलो, यार, कहीं से कोई चालू किस्म के शूज़ खरीद लेते हैं....
दस मिनट बाद वे लोगों मोटरसाईकिल पर बैठ कर एमजी रोड पहुंच गए...ऐसे ही छोटी-मोटी दुकाने थीं, दो तीन दुकानें घूम कर उन्होंने एक गुरगाबी खरीद ली...चार सौ रूपये में ....बिट्टू चाह तो रहा था कि सौ-दो सौ रूपये में ही कुछ मिल जाए...लेकिन उस के लिए उन लोगों को किसी चोर-बाज़ार में ही जाना पड़ता...शायद चले भी जाते, लेकिन वक्त न था।
वापिस लौटते हुए संदीप ने बिटटू को कहा कि अंदर जाने का टिकट ५०० रूपए है...अगर मोबाइल साथ लेकर अंदर जाना है...और दो सौ रूपये अगर मोबाइल बाहर ही रख कर जाना है...बिट्टू ने संदीप से कहा कि वह तो अपना फोन साथ ही रखे, आई फोन है, वह (बिट्टू) अपना फोन बाहर ही रख देगा। संदीप ने उस से इतना ही कहा कि देखते हैं...
बाइक को दोबारा पार्किंग में खड़ी करने के बाद एन्ट्रेंस गेट की तरफ़ जाते हुए दोनों देख रहे थे जो लोग मर्सिडीज़ से नीचे उतर रहे थे सिर्फ़ अपने थ्री-पीस सूट की वजह से और महंगी गाडि़यों में आने की वजह ही से उन की पहचान थी...वे दोनों आपस में मज़ाक कर रहे थे अगर इन सेठ लोगों ने यह थ्री-पीस न पहना हो और पैरों में चप्पल पहनी हो तो ये मोहल्ले की किसी किराना दुकान चलाने वाले लगें..उन की शख्शियत में ऐसा कुछ भी न था जिन की वजह से वे कुछ विशिष्ठ लग रहे हों....हंसते हंसते वे लोग अंदर घुस गए...
बिट्टू को उस की ब्राउन पैंट के साथ मैचिंग करती गुरगाबी पहने देख कर एक सिक्यूरिटि गार्ड ने इतना ही कहा ... " यह हुई न बात ! "...लेकिन उन दोनों ने उस की बात को सुना-अनसुना कर दिया...वे वैेसे ही खीज से रहे थे ...मन ही मन बिट्टू ने सिक्यूरिटी गार्ड को दो-तीन गालियां निकालीं और यही सोचा कि वे लोग ठीक हैं जो इन लोगों को इन की औकात का आइना दिखाते रहते हैं....ये लोग ज़्यादा मुंह लगने वाले नहीं होते।
टिकट खिड़की पर संदीप ने टिकट लेने के लिए पर्स निकाला तो काउंटर पर बैठे स्टॉफ ने कहा कि एक टिकट एक हज़ार की है ...संदीप ने सोचा कि बिट्टू को ही टिकट दिलवा कर अंदर भेज देता हूं ..फिर पता नहीं उसके मन में क्या ख़्याल आया कि उसने दो हज़ार में दो टिकटें खरीद लीं और अंदर चले गए...रेस चल रही थीं ...और हां, अंदर जाने से पहले बिट्टू ने रेस की किताब खरीद ली थी ..चालीस रुपये में ..उसे रेस में बेटिंग करने का कुछ इल्म था...
एक रेस में बिट्टू ने १०० रूपये की बेटिंग की ...चार सौ रूपये जीत गया...फिर उसने एक बार सौ और एक बार दो सौ रूपये की बेटिंग की ...लेकिन वे डूब गये। बि्टटू ने मज़ाक मज़ाक में अपने मुंह पर हल्के से एक चपत लगाई कि मैंने कैसे इतना बेकार दांव लगा दिया..संदीप ने कहा, ज़्यादा सोचा मत कर, जो हो गया उसे बिसार दे, आगे की सुध ले ....गलतियों से सीखना ही आदमी का धर्म है। संदीप बिट्टू को खुश देख कर और भी खुश था...लेकिन वह जिधर भी नज़रें दौड़ा रहा था उसे यही लग रहा था कि यार, अगर यह बंदा सूट की जगह बनियान और पायजामा पहने हो तो रामू हलवाई से भी गया गुज़रा दिखे...और अगर देख, बिट्टू, देख, उस ग्रे-सूट वाले को देख....अगर यह महंगे सूट में न हो तो बाहर खड़े दरबान उसे माली समझ कर बाहर ही रोके रखें...
संदीप और बिट्टू का हंसी मज़ाक भी चल रहा था...संदीप बि्टटू से यही कह रहा था कि यार, हिंदोस्तान में दो देश बसते हैं....भारत और इंडिया ...इन दोनों का पहरावा, इन का रहन-सहन, इन की भाषा, इन की किताबें, इन की कलमें ......सब कुछ अलग अलग है..हम तो हिंदु-मुस्लमान के मुद्दे पर ही अटके पड़े हैं, लेकिन असल मुद्दे तो यही हैं ....असली पवाड़ों की जड़ तो ये सब बाते हैं....इन की फिल्में अलग, इन के नाटक अलग, रेस्ट्रां अलग, बातें अलग .......कुछ भी नहीं मिलता इन दोनों का आपस में ...यह असलियत है ......यही असलियत है....
यही सोचते सोचते वे लोग रेस खत्म होने पर बाहर आ गए...मोटरसाईकिल पर बैठ कर वापिस लौटते हुए संदीप यही सोच रहा था कि ऐसी टुच्ची जगह पर इतना रिजिड ड्रेस-कोड ---समझ से परे है.......अचानक उसे ख्याल आया कि दो दिन पहले जब देश के राष्ट्रपति महोदय पद्म अवार्ड से महान शख्शियतों को सम्मानित कर रहे थे तो जो लोग बिना जूतों के ही वहां पहुंच गये थे या हवाई चप्पल में ही अवार्ड लेने पहुंच गये थे, सारा देश उन की सरलता, उन के काम की विशालता, महानता और विनम्रता की तारीफ़ कर रहा था...और यहां ऐसी जगहों पर लोगों के पैसे की लूट मची हुई है लेकिन सलीके से उसे शूज़ पहना कर, उसे जेंटलमेन होने का मुखौटा पहना कर ....
और हां, अगले दिन जब शाम को संदीप बिट्टू को स्टेशन पर गाड़ी में बिठाने गया तो उसकी नज़र बिट्टू के पास बैठे किसी युवक के सीमेंट में लिपे हुए शूज़ की तरफ़ गई तो वह सोचने लगा कि इस के शूज़ तो उन सफेदपोश लुटेरों से कहीं ज़्यादा चमकदार, शानदार हैं जो दूसरों का माल हड़प कर जाते हैं ....यह बंदा तो सुबह से शाम घरों की चिनाई-लिपाई-पुताई कर के खून-पसीने की खा रहा है...इस के जूते उन सब फरेबियों, जालसाज़ों, फांदेबाज़ों से कहीं ज़्यादा उम्दा हैं...क्योंकि इन पर चिपका हुआ दिन भर की मेहनत का सबूत इन की शान बढ़ा रहा है...
मेरी पिछली पोस्ट शायद आपने देखी होगी...अगर नहीं देखी, तो कभी फ़ुर्सत में देख लीजिएगा...यकीं है आप बोर नहीं होंगे ...यह रहा उस का लिंक ...जब टूटी हुई चप्पलों को सिलवा लिया जाता था...
हां, तो बड़े भाई को बहुत पसंद आई ....और जो उन्होंने उस के ऊपर मुझे टिप्पणी लिख कर भेजी, मैं वह देख कर बहुत हंसा...क्योंकि इतने पते की बात पता नहीं मैं कैसे लिखनी भूल गया था...वैसे भी मैं तो अकसर कहता ही हूं अपनी बड़ी बहन से और बड़े भाई से जो मेरे से क्रमशः १० और ८ साल बड़े हैं कि हमारे माहौल में रहने का उन के पास मेरे से कहीं ज़्यादा ख़ज़ाना है ...तभी तो वे कभी कभी ऐसी बातें कह देते हैं कि मैं भी हैरान हो जाता हूं...
हां, तो भाई ने लिखा कि पोस्ट पढ़ कर उन्हें भी वह गुज़रा दौर याद आ गया...और वे लिखते हैं - चप्पल चाहे कितनी भी बुरी तरह से टूटी होती, लेकिन उसे उसी हालत में लेकर घर लौटना ज़रूरी होता था...और टूटी हुई चप्पल घर लाने के लिए बंदे को चाहे कितना भी आढ़ा-तिरछा, टेढ़ा-मेढ़ा होकर चलना पड़ता, वह चलता ...कईं बार तो चप्पल हाथ में उठा कर नंगे पांव चलते हुए घर तक पहुंचते और कईं बार टूटी चप्पल से घिसट-घिसट कर चलते हुए और हाथ से साईकल के हैंडल को थामे हुए घर पहुंच कर ऐसी फीलिंग आती थी मानो कोई किला फतह कर के पहुंचे हों...
भाई मुझे जब सामने बैठ कर यह बात करता है तो हंसते हंसते पूछता है कि उस माई हावी टुट्टी चप्पल नूं बाहर ही सुट्ट के फ़ारिग हो कर घर लौटने का रिवाज़ नहीं सी, न जाने क्यों...
भाई आगे लिखता है टूटी चप्पल घर पर पहुंचाने के बाद फिर लगभग घर के सारे लोग उसे देखते ताकि एक अहम फ़ैसला लिया जा सके कि चप्पल नई खरीदनी है या उसी को ही गंढवा (सिलवा) कर काम चल सकता है...और इस फ़ैसले में महीने के उस दिन का भी बड़ा अहम रोल था जिस दिन चप्पल टूटने का हादसा पेश आया होता ...क्योंकि राशन, स्कूल की फीसें, दूध-साग-सब्जी का जुगाड़ करते करते, उस वक्त घरेलू बजट की हालत कितनी नाज़ुक है, इन सब से यह तय होता था कि चप्पल नयी आयेगी या पुरानी ही से अभी काम चलेगा..ख़ैर, अगर तो चप्पल नयी आ जाती तो कम से कम कईं महीनों क्या, एक बरस तक तो फिर बंदा चैन की बंसी बजाते हुए चलता, उस चप्पल को पहन कर एक दो महीने तो उस नई चप्पल की वजह से इतराता रहता क्योंकि यह नशा भी एक अलग किस्म का ही था, जिन्होंने इस नशे को कभी किया है, वे ही जान पाएंगे...लेकिन अगर उस टूटी चप्पल को गंढवा के ही काम चलाने का फ़ैसला ले लिया गया है तो फिर यही सिलसिला चप्पल टूटने का और घसीटते हुए उसे घर के आंगन तक पहुंचाने का आगे भी चलता ही रहता जब तक कि ..............आप नहीं समझेंगे, छोड़ो, आगे चलते हैं। यह सब भी भाई ने ही याद दिलाया है।एक बात जो क़ाबिलेतारीफ़ यह भी लिख दूं कि वह पीढ़ी इतनी समझदार थी कि मां-बाप के बिन कहे कि उन के हालात समझती थी...किसी भी चीज़ के लिए ज़िद्द नहीं करती थी....वाह, क्या दौर था वह भी!!
हां, तो भाई साहब को मैंने भी उन के टूटे हुए शूज़ की बात याद दिला दी...तो जनाब हुआ यूं कि भाई सात-आठ साल का रहा होगा...निक्कर, बुशर्ट पहन रखी है उसने....पापा के चार पांच दोस्तो ने एक फोटो खिंचवानी थी, भाई भी वहीं पास ही खेलता हुआ फोटो खिंचवाने के वक्त पापा के पास जा पहुंचा और उस फोटो में उस की भी फोटो है...मुझे वह फोटो बड़ी प्यारी लगती है ...मेरा तो शायद उस तरफ़ ख्याल भी न जाता, और मेरे लिए यह कोई ख़ास या मामूली बात भी नहीं कि उस फोटो में भाई के बूट आगे से फटे हुए हैं....लेकिन पहले घरों मे तस्वीरें कम ही होती थीं, जब भी घर में रखी तस्वीरें देखी जातीं तो मां अपनी तरफ़ से यह बात ज़रूर याद दिला देती सब को ..देखो, पपू तो वैसे ही खेल रहा था, और फटे बूट में ही पहुंच गया फोटो खिंचवाने।
मैंने मां से कभी नहीं पूछा...ज़िंदगी भर, और न ही भाई से कभी पूछा कि क्या इस आगे से फटे हुए बूट के अलावा भी भाई के पास कोई दूसरे बूट भी थे....लेकिन पूछना वहां होता है जहां कुछ पता न हो, मुझे यकीं है कि उस के पास कोई और जूता होगा ही नहीं....ख़ैर, कोई बात नहीं, बड़े लोगों के जूते कोई नहीं देखता....महान् साहित्यकार प्रेम चंद के भी जूते टूटे हुए थे...और परसों-नरसों जिन लोगों को पद्म सम्मान से सुशोभित किया गया है उनमें से एक देवी तो नंगे पांव ही महामहिम के पास पहुंची थी और दूसरी एक देवी जो पंजाब से आई थी उन्होंने पैर में हवाई चप्पल पहनी हुई थी ....यह सब क्या सिद्ध करता है, आप भी जानते हैं....
आज इस बात को यहीं पर विराम देते हैं. आगे की बातें फिर कभी करेंगे... खुश रहिए, मस्त रहिए...मैं हमेशा कहता हूं कि ज़िंदगी में पैर कहीं ज़्यादा ज़रूरी हैं, वे चलते रहने चाहिेए....इन चप्पलों, बूटों की ऐसी की तैसी ...ये हैं तो ठीक है, जिन के पास जूते नहीं होते क्या वे ज़िंदगी नहीं जीते....आप का क्या ख़्याल है?
हमारे बचपन का साथी...डालडा घी...आज सुबह इस का ख्याल आ गया जब कल की अख़बार के पन्ने उलट रहा था तो एक हेल्थ-कैप्सूल दिख गया जिस में वनस्पति घी की जम कर बुराईयां की गई थीं...मुझे भी बचपन याद आ गया - वह दौर जब मां के द्वारा अंगीठी पर रखे तवे पर डालडा घी में सिक रहे, नहीं, नहीं सिक नहीं ...तैर रहे परांठों को देख कर हमारे रोम-रोम में ख़ुशी की एक लहर दौड़ जाया करती थी..
सारा बचपन और जवानी इन्हीं डालडा घी के परांठों पर ही पले हैं..कम से कम हर रोज़ चार परांठे--दो सुबह स्कूल-जाने से पहले आम के अचार के साथ, साथ में चाय, या दही या बाद के बरसों में बोर्नविटा वाले दूध के साथ...चार परांठों का हिसाब भी तो दे दूं...दो घर में खाते थे और दो स्कूल-कालेज़ में खाने के लिए ले जाते थे ...साथ में आम का अचार और अधिकतर कोई न कोई सूखी सब्जी के साथ।
इस वक्त मुझे लिखते लिखते डालडे में बने परांठों की ख़ुशबू का ख़्याल आ रहा है ...जैसे कि वह हमें घर के किसी कोने में बैठे हुए अपनी तरफ़ खींच लेती थी, वह मां का उस डालडे या रथ के डिब्बे से चम्मच की मदद से घी को निकालना और उसे तवे पर सिंक रहे परांठें पर चुपड़ना....और फिर जो उसमें से धुआं निकलना...हम तो बस उस दृश्य के दीवाने थे...दो तीन परांठे खाने के बाद पेट तो भर भी जाता लेकिन निगाहें न भरती थीं....पंजाबी में कहते हैं ढिड भर जाना पर नीयत न भरना...
मैं अभी लिखने लगा था कि ज़्यादातर घरों में यह डालडा ही इस्तेमाल होता था आज से चालीस-पचास साल पहले ...फिर मुझे लगा कि यार अपनी बात कर, अपने घर की बात कर...ऐसे ही दूसरे के घरों के बारे में ज़्यादा मत कुछ कहा कर। वैसे भी हम लोग दूसरे के घरों में जाते ही कितना था ..सिवाए इस के छुट्टी वाले दिन किसी यार दोस्त के घर जब सुबह सुबह जाते तो एक मंज़र देखने को मिलता ...उसकी मां अंगीठी पर बेतहाशा परांठे पे परांठे सिके जा रही है...क्योंकि उन के कुनबे में सात-आठ लोग तो कम से कम थे ही ..जहां ये लोग बरामदे में लंबी तान कर सोए रहते उस के बिल्कुल पास ही उन की मां ने अंगीठी पर तवा रखा होता ...वही धुएंधार डालडे के परांठे ..साथ साथ वह आवाज़ें देती जाती...वे टीटे उठ जा वे, परांठे तैयार ने ...वे बिट्टे तू वी उठ...। मुझे अच्छे से याद है कि हमारे दोस्त ने आंखे मलते हुए उठना....दांत साफ़ करना तो दूर, बिना हाथ मुंह धोए ही उस को दो तीन गर्मागर्म परांठे पीतल की एक थाली में डाल कर पकड़ा दिए जाते ...और साथ में पीतल के एक गिलास में गर्मागर्म चाय....हां, आम का अचार तो होना लाज़िम था ही ...अब वो लोग यह तसव्वुर भी नहीं कर सकते जिन लोगों ने यह किल्लर कंबीनेशन देखा नहीं कभी ....
हमें उस दोस्त को परांठे छकते देख कर मन ही मन में यही लगता रहता कि ये लोग कितने अच्छे थे, घर वाले किसी को इतना सब खाने को देने से पहले पेस्ट करने को भी नहीं कहते ....बस, हम यह सोचते रहते ...दोस्त की मां हमें भी पूछ लेती कि तू भी खा ले...पता नहीं मैं क्या जवाब देता, याद नहीं इस वक्त....लेकिन इतना याद है कि मैं ऐसे कभी किसी के यहीं खाया नहीं....
देशी घी ....देशी घी का मतलब था पंजाब में वेरका देशी घी...और इसे ज़्यादातर देसी घी कहते थे, जैसे देशी दारू तो कहते हैं हिंदोस्तान में, लेकिन पंजाब में कहते हैं...देसी दारू। रोटी फिल्म के मुमताज़ और राजेश खन्ना पर फिल्माए गए उस ढाबे वाले यादगार सीन से किसी को भी उस दौर में देसी घी की अहमियत का अंदाज़ हो जाएगा। अगर कुछ नहींं भी याद आया तो इस पोस्ट को पढ़ने के बाद रोटी फिल्म देखिए।
सच में घरों में ही कईं बार ऐसा ही होता था...देसी घी को चपातियां चुपड़ने के लिए या एक आध-चम्मच देसी घी दाल में डाल दिया जाता था, या काली तोरई को देसी घी में तैयार किया जाता था....ऐसी और भी बहुत सी बेकार की बातें हैं, लेकिन याद करना पडे़गा उन को। तवे पर डालडा घी में तैर रहे डालडा घी के परांठों का मंज़र तो मैंने पेश करने की कोशिश की ...लेकिन देसी घी में तैयार हो रहे परांठों की तो बात ही क्या करें....सारा घर उस रूहानी खुशबू से महक जाता था...कभी कभी हमें भी देसी घी का परांठा और देसी घी में तैर रहा हलवा नसीब हो जाता था...
कुछ लोग सब्जी भी देसी घी में बनाते थे और सारे मोहल्ले में जो लोग घर में देसी घी ही इस्तेमाल करते थे उन की रईसी का चर्चा दूर दूर तक होता था ...ऐसे ही थे पड़ोस के कपूर आंटी-अंकल...मोहल्ले में दूर-दूर तक उन के बारे में लोगों को पता था कि वे घर मे डालडा घुसने नहीं देते थे ( Another foolish status symbol of 1970s) ...और जब कभी लोग उन के सामने इस बात का ज़िक्र करते तो सच में वे दोनों ऐसे शरमा जाते या ऐसे इतरा देते कि मुझे उसी दौर का वह गीत याद आ जाता ...हाय शरमाऊं किस किस को बताऊं ....अपनी प्रेम कहानियां ...)
लेकिन मैं डालडे पर पला-बड़ा, देशी घी के डिब्बे की तरफ़ क्यों ताक रहा हूं.....आज जब मैं यह लिख रहा हूं तो मुझे नील कमल फिल्म का वह गीत ...खाली डिब्बा खाली बोतल ...खाली सब संसार ...याद आ रहा है...उसमें डालडे का डिब्बा भी दिख रहा है।हमारे ज़माने में यह गीत रेडियो पर खूब बजा करता था...और महमूद के तो हम सब दीवाने हैं ही..
मुझे डालडे से याद आया कि मैं नवीं कक्षा में था, और नौमाही साईंस की परीक्षा में मुझे साईंस के पेपर में ४० में से ३८ अंक मिले थे, उसमें एक सवाल यह भी था कि हाईड्रोजिनेटेड फैट्स (यही डालडा, वालड़ा) कैसे तैयार किया जाता है, उस को तैयार करने की रासायनिक प्रक्रिया लिखनी थी...हमें उन दिनों यह लिख कर ऐसे लगता था मानो हमने ही कोई आविष्कार कर दिया हो...और ऊपर से हमारे साईंस टीचर ने सारी क्लास को मेरी आंसर-शीट दिखा कर बताया कि पेपर लिखने का यह सलीका होता है ...मेरी १५ साल की ब्लागिंग के दौरान कभी इतनी हौंसलाअफ़ज़ाई नहीं हुई, जितनी उस दिन हुई थी।
जब हम कालेज तक पहुंचे तो दिल्ली बंबई में रहने वाले अपने रिश्तेदारों के यहां पोस्टमैन रिफाँइड तेल की इस्तेमाल होते देख कर मां पोस्टमैन का एक बड़ा सुंदर सा चौकोर सा टीन का डिब्बा भी ले कर आने लगी... जहां तक मेरी यादाश्त मेरा साथ दे रही है, यह डालडे की बनिस्पत कुछ या काफ़ी महंगा था, इसलिए डालडा के साथ यह भी आने लगा। फिर धीरे धीरे यही पोस्टमैन ही इस्तेमाल होने लगा...और अब तो बाज़ार में तेलों का एक अलग संसार ही है ...किसी भी दुकान पर तेलों की सजावट देख कर सिर चकरा जाता है ...पढा़ लिखा भी अनपढ़ महसूस करने लगता है ...ऐसे ऐसे लोग हैं जो ऑलिव ऑयल इस्तेमाल करते हैं लेकिन सारा दिन जंक भी खाते हैं...ऊपर से यह मेडीकल वैज्ञानिक ...कभी कुछ खाओ, कभी यह मत खाओ...कभी यह न करो, वो न करो....हमारे बड़े-बुज़ुर्ग यही कहते थे कि सरसों का तेल ही सब से बढ़िया है, खाने-पकाने के लिए...हम भी यही मानते हैं...लेकिन तवे पर परांठे कैसे तैर पाएंगे इस सरसों के तेल में ....जैसे स्कूल में सरसों के तेल से चुपड़े सिर -मुंह दूर से ही भांप लिए जाते थे...वैसे ही उन परांठों की बास भला कौन झेल पायेगा...तो फिर परांठे खाना ही बंद करिए....न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी...न ही पेट बाहर निकलेंगे और न ही अँदर करने के जुगाड़ ढूंढने पड़ेंगे।
वैसे एक बात और भी गांठ बांध लेने वाली यह है कि सिर्फ एक ही चीज़ खाने या न खाने से कुछ होता नहीं...बेलेंस्ड डाइट चाहिए होती है सब को ...सब से पहले मैं अपनी बात ही करूं, फिर दूसरों की करूंगा....मैं कुछ अनाप-शनाप नहीं खाता, लेकिन सारा दिन मीठा खाता रहता हूं ...यह भी बहुत गलत है सेहत के लिए....बहुत से लोगों को जानता हूं सलाद, फल-फ्रूट खाते हैं...स्पराउट्स भी ....लेकिन इस के साथ सारा दिन बीड़ी-सिगरेट से फेफड़ों की सिंकाई भी चालू रहती है...आज के युवा ऑलिव आयल ही इस्तेमाल करेंगे, लेकिन सारा दिन जंक-फूड....गांव में महिलाएं कुछ खाना पका रही थीं, अभी वीडियो देखी, सब कुछ सरसों के तेल में तला हुआ ...डीप-फ्राई किया हुआ...यह भी गलत है, मैंने तो ज़िंदगी का एक ही सिट्टा निकाला है ...कि आप किसी एक भी बंदे की ज़िंदगी बदल नहीं सकते, जो जिस के मुकद्दर में लिखा है, उसे वह मिलेगा....यूं ही हर बंदे को खाने-पीने के उपदेश देने के चक्कर में खुद को हलकान करने की ज़रूरत नहीं, दुनिया जैसे चल रही है, वैसे ही चलेगी....अपने आप को खुश रखिए, मस्त रहिए....और नशे-पत्ते से दूर रहिए....महंगे से महंगे सिगरेट, महंगी से महंगी दारू, महंगे महंगे बॉडी-बिल्डिंग टॉनिक, मोटे शऱीर को पतले करने वाली और पतले को मोटा करने वाली दवाईयां, बिस्कुट सब के सब पंगे हैं....मानो या न मानो.....चाहे तो अपने ऊपर अजमा कर देख लो...
कल का अख़बार अभी देख रहा था तो टाइम्स ऑफ इंडिया की इस ख़बर पर नज़र पड़ गईं...हैरानी यह हुई कि पेज़ थ्री पर नहीं, टाइम्स जैसे अख़बार ने पेज़ दो पर इसे छाप दिया...हैं कुछ लोग जो जानवरों से भी इंसानों की तरह ही मुहब्बत करते हैं, वरना यह कायनात चल न पाती। यहां पर हरामी से हरामी और मेहरबान से मेहरबान लोग भरे पड़े हैं...
जानवरों से प्यार से पेश आने वाली बात पर मुझे यह बात याद आ गई कि जब हम लोगों को इंसानों से ही पेश आने की तहज़ीब नहीं है तो जानवर किस खेत की मूली हैं...मैंने जितनी भी पढ़ाई की या नहीं है, जितनी भी किताबों में टक्करें मारी हैं या नहीं मारी हैं, जितने भी सत्संगों में जाकर पाखंड भोरे हैं ...(मेरा मन कभी भी सत्संग में न तो लगता था, न ही कभी लगता है ...बस, मैं अपनी मां की खुशी के लिए उन के साथ रविवार के दिन ज़रूर जाता था...और मन ही मन कुढ़ता भी रहता था कि यार, इस काम के चक्कर में सारी छुट्टी .....लग गई (फिल इन दॉ ब्लैंक्स कर लीजिए, जो पंजाबी जानते हैं😎)....कईं बार मां को कह भी देता कि बीजी, मेरा दिल नहीं करता, बस, चला जाता हूं क्योंकि आप को वहां ले कर जाने वाला कोई नहीं है....वह भी संजीदा हो कर कह देती कि बिल्ले, दिल नहीं करदा जेकर, तू न जाया कर, मैं तां घर बैठ के वी रब दा ना लै लैनी हां...!!) लेकिन जब तक मां की सेहत ठीक थी, हम दोनों सत्संग चले ही जाते थे...(मेरा मन बिल्कुल भी न होते हुए...).
क्यों चिढ़ है मुझे इन पाखंडों से, बाहरी दिखावे से, अपने आप को दूसरे से बेहतर समझने की आदत से, ऐवें ही भोरी च रहन ते....क्योंकि सब बातों का सार तो एक ही है कि हम किसी को पैसा नहीं भी दे सकते न दें, और किसी की कोई सहायता करने में सक्षम नहीं हैं तो न करें, कोई जबरदस्ती नहीं चल सकती ....लेकिन ज़िंदगी का केवल एक फंड़ा होना चाहिए कि हर बंदे के साथ बातचीत ऐसे करें जैसे कि मेरे मां-बाप कहा करते थे और वे ऐसे ही थे कि जैसे बात करते करते किसी के पेट में घुस जाए बंदा...इतनी सादगी, इतनी विनम्रता, इतनी झुकाव हो ..सामने वाले बंदे के बौद्धिक स्तर को देख कर उस तक पहुंच कर बात की जाए...उसे किसी भी तरह से उस की कमज़ोर या विषम परिस्थिति का अहसास होने देना ही कम्यूनिकेशन की एक बहुत बड़ी त्रासदी है ...मैं ऐसा समझता हूं ...अमूमन मैं किसी के साथ आपा नहीं खोता....ड्यूटी पर कभी किसी के साथ ऊंची आवाज़ में बात हो भी जाए तो मैं जब तक उस के खेद प्रकट न कर दूं ..मुझे चैन नहीं आता...
मैंने कहीं यह भी पढ़ा था कि किसी जेंटलमेन की निशानी क्या है ...(कहीं मैं भी तो अपने आप को कोई जेंटलमेन नहीं समझ रहा (नहीं, नहीं, मुझे अपनी औकात पता है)। उस में लिखा था कि कोई इंसान जेंटलमेन है या नहीं, इस का अंदाज़ा आप इस बात से लगा सकते हैं कि जो जेंटलमेन होगा वह उस व्यक्ति से भी बहुत अच्छे तरीके से पेश आएगा जिस के साथ उस का कोई वास्ता नहीं है और जो किसी भी तरह से उसे नुकसान पहुंचाने के क़ाबिल नहीं है.....मुझे यह बात बेहद पसंद आई...फिर मैंने देखा कि हम डरते हैं उन लोगों से जो हमें नुकसान पहुंचाने की स्थिति में हैं, उन से तो पेश आते हैं, कमबख्त इतना झुक जाते हैं जैसे रब ने रीड़ दी ही नहीं, बातों में इतनी मिठास घोल देते हैं कि सुनने वाले को सुन कर ही डॉयबीटीज़ हो जाए... लेकिन जो लोग हमें लगता है, हमारा कुछ बिगाड़ नहीं सकते, हम उन के साथ ठीक से पेश भी नहीं आते...अमूमन मैंने ऐसा देखा है, शायद मेरे देखने में नुक्स हो (वैसे आंखों की जांच कुछ महीने करवाई तो थी) ..लेकिन जो दिखता है वही लिखता हूं ...और यह भी यहां जोड़ दूं कि उस लिहाज से मैं भी कोई जेंटलमेन कतई नहीं हूं....लेकिन हां, मुझे अपने अल्फ़ाज़ का पूरा ख़्याल रहता है, कभी ये इधर हो जाएं तो फ़ौरन इन्हें सुधार लेता हूं ...और बहुत बार माफ़ी मांगने से भी गुरेज़ नहीं करता ...(उन से भी जो किसी तरह से मेरा नुकसान कर पाने की स्थिति में नहीं हैं...) ...तो क्या ये बातें मुझे जेंटलमैन की श्रेणी में ले आती हैं?...नहीं भाई नहीं..)
यहां पर हम लोग इंसानों से ढंग से पेश आने की बात कर रहे हैं, दुनिया में लोग परे से परे पड़े हैं....एक पंजाबी गीत का ख्याल आ गया है, उसे नीचे लगा दूंगा..पंजाबी तो वैसे सब ही समझ लेते हैं, नहीं समझ सकते तो भी लगा दूंगा ..क्योंकि मैं उसे एक ज़रूरी खुराक की तरह सुन लेता हूं जब भी मुझे कुलदीप मानक की याद आती है ...वह इस गीत में कहते हैं कि दुनिया में लोग परे से परे पड़े हैं, बेवकूफ इंसान तू किस भ्रम में जी रहा है ...)....मुझे भी यह बहुत ज़रूरी लगता है कि किताबी ज्ञान के साथ साथ झुकना, विनम्रता होना भी बेहद....बेहद...बेहद ज़रूरी है ...मैं जब भी कभी ऐसे लोगों से बात करता हूं मुझे लगता है मैं फरिश्तों से बात कर रहा हूं...
पंजाबी में एक बड़ी पापुलर कहावत है जो बचपन से हम लोग घर में अकसर सुना करते थे ...हमारी ज़ुबान ही है जो हमें हम चाहें तो हमें राजा बना दे, और यही ज़ुबान हम अगर ख़्याल न करें तो छित्तर भी पड़वा सकती है...बिल्कुल सही बात है ...बस, सारा लफ़्ज़ों का ही फेर है ....सब के पास वही हैं, किन को कहां इस्तेमाल करना है, और कैसे इस्तेमाल करना है...ज़िदंगी का यही फ़लसफ़ा है ...क्यों होता है कि कुछ लोगों के साथ आप का बार बार बात करने को दिल करता है और कुछ लोगों को आप एवॉयड करते हो ....सोचने वाली बात है...
इंसान तो इंसान , कुछ लोगों को जब रास्ते पर चल रहे जानवरों से भी इतनी मुहब्बत करते हैं तो मेरी आंखें टपके न भी सही, भीग तो जाती ही हैं और जब मैं ऐसे लोगों को देखता हूं मुझे लगता है मैंने कोई फरिश्ता देख लिया हो....मैं एक ऐसी ही महिला की बात कर रहा हूं ...उस की उम्र यही कोई ६० के करीब होगी...सुबह अकसर देखता हूं वह अपने कंधों पर कैट-फूड (बिल्लीयों का खाना) और पानी लेकर निकलती है ...और जगह जगह उस की इंतज़ार में बैठी बिल्लीयों को छोटी छोटी कटोरियों में ऐसे खाना परोसती हैं जितना आज के मशीनी दौर में कुछ औरतें भी अपने बच्चों को न दे पाती होंगी ...(नौकरी के चक्कर में या अनेकों और व्यस्तताओं के रहते ) ....फिर जब वे उस खाने को खा रही होती हैं तो उन दस-पंद्रह बिल्लीयों को सहला कर प्यार करती है, बिना किसी जल्दबाजी के उन का खाना फ़िनिश होने का इंतज़ार करती है....इस महिला को दूर से तकना ही मुझे किसी देवी को तकने जैसा लगता है ...मैं फोटो खींचने का शैदाई तो हूं लेकिन मैंने कभी इन के इन ख़ुशनुमा पलों को कैमरे में कैद करने की बेवकूफ़ी नहीं की....मुझे लगता है कि यह अगर करूंगा तो बहुत घटिया काम हो जाएगा....या तो यह कांसिएस हो जाएंगी, शायद बिल्लीयों के खाने में ही खलल पड़ जाए...बस, इस तरह की बातें सोच कर मैं यह गुस्ताखी नहीं करता ....एक साल पहले जब यह दो तीन बिल्लीयों को खाना खिला रही थीं, और इन की पीठ मेरी तरफ़ थी, उस दिन एक फोटो ज़रूर खींची थी...एक रिमाइंडर के तौर पर कि ऐसे लोग भी हैं....)
इसी बात पर मुझे निदा फ़ाज़ली साहब की नसीहत याद आ गई....
बाग में जाने के भी आदाब हुआ करते हैं...
फूलों से तितलियों को न उड़ाया जाए...!!
मैंने ज़िंदगी को बंद कमरों में नहीं, बाहर निकल कर जिया है, देखा है...इसलिेए मेरे पास इस तरह के बहुत से वाक्यात हैं बताने के लिए...लेकिन बहुत बार कुछ लिखने का मन ही नहीं होता...क्या करें..इस पोस्ट को शुरू तो कर लिया है लेकिन लगता है बेकार की बातें लिख दी हैं, लेकिन जो लिख दिया है, अपनी ही डॉयरी से उसे डिलीट क्या करना...पड़ा रहने देते हैं...
कम्यूनिकेशन इतना बड़ा मौज़ू है मुझे नहीं पता था...१९९२ में मैं टाटा इंस्टीच्यूट ऑफ सोशल साईंसेस में जब हास्पीटल एडमिनिस्ट्रेशन की पढ़ाई कर रहा था तो हमारा एक विषय था कम्यूनिकेशन....जो हमें एक साल तक पढ़ाया गया...तीस साल की उम्र थी मेरी और मुझे यह अफ़सोस हुआ कि यह सब हम लोगों ने स्कूल में ही क्यों नहीं पढ़ा....कम्यूनिकेशन बस लिखा हुआ या बोला जाने वाला शब्द ही नहीं है, इस के साथ बहुत सी और बातें जुड़ी हैं जो यह बात तय करती हैं कि हम किसी के साथ क़ायदे से पेश आ भी रहे हैं या नहीं.....कभी इस के बारे में और भी बहुत सी बातें करेंगे .
ज़िंदगी की सच्चाई यह है, बाकी सब बकवास है .....हमें ज़्यादा उड़ने-उछलने की ज़रूरत कतई नहीं है!
एक बात बताऊं...बहुत बार ऐसा होता है कि जब भी मैं कुछ लिखने लगता हूं तो मुझे यही लगता है कि मैं अपनी मां-बोली (मादरी-ज़बान) पंजाबी में ही लिखूं...फिर मुझे लगता है कि नहीं, पंजाबी आज कल लोग बोलने से परहेज़ करते हैं, पढ़ने वाले कहां मिलते हैं...इसलिए मैं पंजाबी में लिखने की अपने दिल की हसरत को दिल ही में रहने देता हूं और हिंदी में लिखने लगता हूं ...अंग्रेज़ी में भी लिख सकता हूं ..लेकिन अपनी बात को ठीक उस तरह से रख नहीं पाता जिस तरह से वह दिल में चल रही होती है...इसलिए मुझे फिर हिंदी की तरफ़ ही मुड़ना पड़ता है ...दरअसल जिस ज़ुबान में मैं लिखता हूं वह हिंदी की बजाए हिंदोस्तानी ज़्यादा है ...
दोस्त ने ग्रुप में यह तस्वीर साझा की और इसी बहाने हमें अपनी औकात याद आ गई...😎
कल अपने एक दोस्त ने कॉलेज के साथियों वाले वाट्सएप ग्रुप में एक टूटी हुई हवाई चप्पल की तस्वीर पोस्ट की ...जिसको एक सेफ्टी पिन से जोड़ने का जुगाड़ कर रखा था ...और साथ में एक सवाल था कि क्या आपने कभी ऐसा किया है..? मैंने उसी वक्त सोचा कि यार, किया तो है ......लेकिन यही नहीं किया, जूतों, चप्पलों, गुरगाबियों से बहुत कुछ किया है ....इतनी यादें जुड़ी हुई हैं ..दोस्तो, अब पता नहीं मैं थका हुआ हूं या मुझे जम्हाईयां आ रही हैं, इस बार को आगे लिखने की मेरी इच्छा नहीं है...ठीक है, शुभ-रात्रि ..कल सुबह उठ के देखते हैं ...सुबह की ताज़गी किन किन यादों को दिल के कुएं से निकाल बाहर करेगी...😄सो जाइए अब आप भी और मीठे सपने लीजिए।
प्रवीण ३.११.२१ - रात २३.२० बजे
लो जी, सुबह हो गई है, जहां पर हम रहते हैं वहां पर बाहर कौवों की आवाज़े आना शुरू हो गई हैं...हां, तो अपनी बात कल शुरू ही की थी कि हमें नींद आ गई। अभी बात को पूरा करने की कोशिश करते हैं...जी हां, बिल्कुल कोशिश ही कर सकते हैं, क्योंकि यादों के पिटारे में से जितना भी निकाल कर यहां सजाने की कोशिश करेंगे, फिर भी बहुत कुछ तो रह ही जाएगा...चलिए, जितना बन पड़े उतना ही सही।
जी हां, हम तो जो बातें करेंगे ५०-६० पुरानी ही करेंगे क्योंकि हम उस दौर के गवाह रहे हैं...यह वह दौर था जब हम जैसे मिडल-क्लास घरों के लोगों के पास बाहर-अंदर पहनने के लिए एक जोड़ी ढंग का फुटवेयर होता था और अकसर घर के सभी लोगों के पास अपनी अपनी एक हवाई चप्पल भी हुआ करती थी...हवाई चप्पल कह लें, या कैंची चप्पल ...जहां तक मुझे याद है बाटा कंपनी की आती थी या कोरोना कंपनी की ...लोग तरजीह बाटा कंपनी की हवाई चप्पल को ही दिया करते थे...और यकीं मानिए, इतनी मज़बूत कि रोज़ पहनने पर भी कईं साल न भी सही (अच्छे से याद नही) लेकिन कईं कईं महीनों तक चलती थी, आज कल की हवाई चप्पलों की तरह घिसती बहुत कम थी, उस ज़माने में चप्पल की क्वालिटी का यह भी एक मापदंड (इंडीकेटर) होता था...
बहुत बार तो पहनते पहनते हम ऊब जाया करते थे लेकिन उस की सेहत जस-की-तस बनी रहती थी..टनाटन...उन दिनों हम लोग इतने रईस भी न हुए थे कि उन्हें बॉथरूम चप्पल कह कर उन का अपमान करते ...और करते भी कैसे, हम लोग अकसर उसे ही पहन कर बाज़ार भी हो आते, मेहमान के आने पर साईकिल पर चढ़ कर बर्फी, समोसा भी ले आते ...और सुबह टहलने निकलते तो उसे ही पहन कर हो आते ....क्योंकि ये जो आज कल कईं कईं हज़ार में वाकिंग, रनिंग, जॉगिंग शूज़ मिलते हैं, इन सब की तो हम कभी कल्पना करने की ज़ुर्रत ही न करते थे...
अच्छा, हवाई चप्पल भी खरीदना किसी जश्न से कम न होता था...यही कोई ४-५ रूपये की आती होगी...कईं दिन तक प्रोग्राम बनता कि घर के फलां फलां बंदे के लिए नई हवाई चप्पल लेनी है, उस की चप्पल बिल्कुल घिस गई है, या इतनी बार मोची से उस की तुपाई हो चुकी है कि अब न हो पाएगी...अकसर मां के ही साथ जाते बाज़ार --अमृतसर के पुतलीघर बाज़ार में ...मां किसी दुकान से चप्पल हमारे लिए चप्पल खरीद देतीं...और हमें वहीं दुकान पर पहन कर उसी १० बॉय १० फुट की दुकान में माडल की तरह रैंप-वॉक कर के यह भी मुतमईन होना पड़ता था कि कहीं यह छोटी तो नहीं ...या बड़ी तो नहीं....लेकिन यह काम मैं अकसर अपने एक मास्टर की दुकान पर न कर पाता......कारण?- वही कारण कि यहां तो रैंप-वॉक कर लूंगा, स्कूल में जब उस का ख़मियाज़ा भुगतना पड़ेगा, उस का क्या। हमारे स्कूल के एक मास्टर साब थे, हमें पढ़ाते भी थे, उन की भी जूतों की एक दुकान थी...अगर कभी उन की दुकान पर जाना होता तो मेरी कोशिश रहती कि यार, जो मास्टर जी दे रहे हैं न वही तेरे पैरों के लिए भी और तेरी सलामती के लिए मुबारक है, ज़्यादा दिमाग़ मत लगा...बीजी को कह दे कि हां, बीजी, यही ठीक है। यहां तक कि मास्टर की दुकान से खरीदी चप्पल में अगर कुछ खराबी भी दिखती, जिस का घर आने पर ही पता चलता तो मैं उसे जा कर एक्सचेंज करवाने की भी कभी सोचता तक नहीं था।
और हां, मैं यह कैसे लिखना भूल गया कि पहले अगर घर में एक कैंची चप्पल भी आती थी तो घर के सभी को बताया जाता था...जैसे जैसे घर के अफ़राद के साईकिल खड़े होने लगते, हम उसी वक्त उन चप्पलों को पहन कर, उन के पानी पीते पीते उन के आगे पीछे हो कर आज की उस खरीद के बारे में इत्ला कर देते ..
जब भी कोई नई चप्पल, नया जूता घर में लेकर आता और पहन कर दिखाता तो न्यू-पिंच के चोंचले बाज़ी मां न करती, जूतों पर तो वैसे भी कोई क्या न्यू-पिंच दे,,,,लेकिन मां इतना ज़रूर कहतीं कि ...बड़े चंगे ने, सुख हंडावने होन...(बहुत अच्छे हैं, इन्हें पहन कर सारे सुख तुम्हारे नसीब में आ जाएं) ....यह आशीष हमारे लिए बहुत बड़ी बात थी, और मां की दुआएं तो लगती भी ज़रूर हैं...😄
चलिए जी हवाई चप्पल इतनी पहन ली कि उस का स्ट्रैप टूट गया...कोई बात नहीं, मोची के पास इलाज के लिए ले गए...उन की फीस रहती थी पांच पैसे या दस पैसे ....अगर तो सीधा सीधा उन्होंने स्ट्रैप को टांक ही दिया तो पांच पैसे लेकिन यह काम कितना पुख्ता है, उस की कोई गारंटी न होती थी, लेकिन अगर वे छोटे से चमड़े के टुकड़े के साथ उस टूटी हवाई चप्पल को रिपेयर करते थे तो १० पैसे लेते थे और समझिए कि एक गारंटी जैसी सुविधा भी उस के साथ संलग्न रहती थी...लिखते लिखते सोच रहा हूं कि यार, बस पंजे-दस्से में उस मोची की और क्या जान ले लेते!!
अकसर सफेदपोश लोग चमड़े का टुकड़ा लगे टॉकी वाली चप्पल पहनना पसंद न करते थे ...बस, फिर उसे घर ही में, बाथरूम के लिए रख लिया जाता था और बाहर-अंदर जाने के लिए हैसियत मुताबिक एक और हवाई चप्पल आ जाया करती थी...और हां, जब कोई चप्पल के स्ट्रैप बार बार टूटने लगते तो फिर उस के स्ट्रैप बाज़ार से लाकर ख़ुद ही घर में बदल लिए जाते ...पूरी ज़ोर-अजमाईश करने के बाद कईं बार तो यह काम हो जाता और कईं बार मोची के पास चप्पल ले जाकर पुराने की जगह नए स्ट्रैप लगवा लिये जाते। ये नए स्ट्रैप यही कोई डेढ़-दो रूपये में शायद बिकते थे....मुझे यह इतना अच्छे से याद नहीं है, अब जितना याद कर पा रहा हूं, उसी का आनंद लीजिए 😎...फ़ोकट में।
लिखने बैठे तो कहां से पुरानी पुरानी यादें उमड़-घुमड़ कर आने लगती हैं ...जब तक उन को लिख न दो, कमबख़्त पीछा नहीं छोड़तीं, हां, तो पुरानी हवाई चप्पल को डिस्कार्ड करने का एक और भी क्राईटीरिया हुआ करता था...बहुत बार ऐसा भी होता था कि चप्पल लंबे अरसे से पहने जा रहे हैं लेकिन अभी तक वह मोची की वर्कशाप में नहीं गई ....लेकिन नीचे से वह इतना घिस चुकी है कि गुसलखाने में या आंगन में चलते चलते बंदा स्लिप होने लगे तो भी नई चप्पल की सैंक्शन समझिए मिल ही जाती थी...
जब हवाई चप्पल खरीदने जाते तो उस के रंग का भी ख्याल रखा जाता कि नीले रंग की तो बहुत बार पहन कर पक चुके हैं, इस बार भूरी चप्पल लेते हैं..हा हा हा हा ...सच में हम लोगों ने भी ज़िंदगी भरपूर जी है। कईं बार जब बाज़ार से नए स्ट्रैप लेकर आते तो कईं बार उन का साइज़ बड़ा-छोटा होता तो वह अगले दिन जा कर बदल कर आ जाते ...कईं बार नए स्ट्रैप खरीदते वक्त घर के उस सदस्य की चप्पल के कलर का ख़्याल न आता...न कैसे आता...खरीदारी करने गये साथ किसी तीसरे मैंबर को तो ख़्याल आ ही जाता कि पपू दीयां चप्पलां दा तो रंग नीला ए (पपू की चप्पलों का रंग तो नीला है)...तो उसी रंग का स्ट्रैप खऱीदा जाता ...नहीं, तो अगले दिन जा कर बदल लिया जाता ...
एक चप्पल का स्ट्रैप खरीद कर जब घर में आता तो वह भी बड़ी घटना न सही, लेकिन लगभग सारे घर को खबर हो जाती कि आज फलां फलां बंदे की चप्पलों के नए स्ट्रैप आए हैं, उस की तो मौज हो जाएगी...मुझे अब यह याद नहीं आ रहा कि नए स्ट्रैप तो घर पर नहीं तो मोची के पास जा कर लगवा लिेए, लेकिन उस पुराने खस्ताहाल स्ट्रैप का क्या करते थे, कुछ न करते थे भाई....जहां तक याद है उन की हालत के ऊपर यह निर्भर करता था कि उस पुराने स्ट्रैप को भी वापिस घर हमारे साथ चलना है या नहीं...अगर भविष्य में कभी उस के काम आने की कोई गुंजाइश होती, एमरजेंसी में ही सही, तो उसे मोची से लेकर वापिस घर ले कर आया जाता...फिर उसे कभी इस्तेमाल होते देखा तो नहीं, यही कहीं कचरे-वचरे में डाल दी जाती होगी...
हां, कभी कभी ऐसा भी देखा ...एमरजैंसी है, मोची के पास जाने का वक्त नहीं है, तो जैसे उस दोस्त ने कैंची चप्पल की फोटी भेजी है न ...उसे सेफ्टी पिन से चलने लायक करने की कोशिश भी की जाती थी...लेकिन यह काम दो चार मिनट में अकसर फेल हो जाया करता...मैंने कईं बार लोगों को देखता जिन ने अपनी हवाई चप्पल के स्ट्रैप को एक कपड़े की कतरन (लीर) से बांधा होता ...ईश्वर की अपार कृपा रही हम पर कि कभी इतनी ज़्यादा कड़की के बादल भी हमारे घर पर न मंडराए कि हम मोची का मेहनताना भी बचा लेने के चक्कर में उन्हें घर पर ही मुरम्मत करने लगें...
और एक बात यह हवाई चप्पलें गुस्सा आने पर मार-कुटाई करने का काम भी करती थीं....हमारे घर में तो नहीं हुआ कभी ऐसे, लेकिन मैंने कईं बार लड़ाई झगड़ों में इन हवाई चप्पलों के इस्तेमाल का चश्मदीद गवाह रहा हूं...😎
इस से पहले कि मां एक बात भूल जाऊं इन चप्पलों, वप्पलों, ब्रॉंडेड शूज़ से कुछ नहीं होता....असल बात होती है काबलियत ....मेरे फूफा जी का घर मेरी मां की नानी के गांव में था, हमारी नानी अकसर उन के बारे में बताया करती थीं कि बचपन में उन का बाप चल बसा...उन्होंने इतनी तंगी देखी उस दौर में कि हमारे फूफा जी की मां के पास उन्हें चप्पल दिलाने के लिए पैसे न होते थे, स्कूल दूर था, और दिन गर्मी के, पैरों को जलने से तो बचाना ही था, उन की मां उन के पैरों पर बरगद (बौहड़) के पेड़ के खूब सारे पत्ते मोटी सूतली से बांध कर उन्हें स्कूल भेज देतीं......ऐसी मां को, ऐसे बेटे की याद को सादर नमन....पढ़ाई लिखाई में इतने अच्छे ..कि बाद में देश आज़ाद होने पर जब बंंबई आए तो कालेज में पढ़ाने लगे ....इक्नॉमिक्स में उन का नाम था, कालेज के वाईस-प्रिंसीपल रिटायर हुए ..और कईं किताबें उन्होंने लिखीं...
इस का मतलब तो यही हुआ कि सिर्फ़ कीमती शूज़ से कुछ नही ंहोता, कुछ कर गुज़रने के लिए और भी बहुत असला चाहिए होता है ...दिल में आग, जुनून, उमंग और जोश से भरा जज़्बा....
बहुत बहुत शुक्रिया, बेदी साब, आप की भेजी चप्पल ने तो हमें यादों के समंदर में डुबो दिया....और यह जो हम कभी कभी उड़ने लगते हैं न ...हमारी ऐसी लूत-परेड कर दी कि क्या कहें..😄😄...इसलिए कहते हैं कि पुराने दौर के दोस्तों की बातें भी सुनते रहना चाहिए..
चप्पलों के बारे में बाकी बातें कभी अगली पोस्ट में ....अगर आप की भी कुछ यादें हों तो नीेचे कमैंट में क्यों नहीं लिखते आप। कोई नाराज़गी है क्या!
अगर हमारे दौर के फिल्मी गीतकारों को जिनको स्वर्गवासी हुए भी ज़माना गुज़र गया, यह पता चले कि उन के लिखे अल्फ़ाज़ के लोग इतने बरसों बाद भी इतने दीवाने हैं और अगर वे फ़रियाद करें (वहीं स्वर्ग में अगर कोई पिटिशन डालने की व्यवस्था होती) कि उन्हें फिर से पुराना चोले में हिंदोस्तान रवाना कर दिया जाए ..तो ख़ुदा भी उन की यह फ़रमाईश मान लेता।
सांसें....कितना ख़ूबसूरत लफ़्ज़ है न , है कि नहीं! सब से पहले तो मुझे इस बात का ख़्याल आ रहा है कि यह जो हिंदी-उर्दू का विवाद खड़ा किए रहते हैं न ....यह सांसें भी उर्दू का ही लफ़्ज़ है, इस का क्या करें, इसे बोलना बंद कर दें या इन लेना ही बंद कर दें, क्या आप और हम इन के बिना रह पाएंगे...बिल्कुल ऐसे ही हिंदोस्तानी ज़बान न तो हिंदी है न ही उर्दू है ...वह मिली-जुली हिंदी-उर्दू की एक गंगा-जमुनी दरिया की तरह हिंदोस्तान के हर कोने में बह रही है ...ज़बान किसी धर्म की, मज़हब की नहीं होती, यह किसी की मिल्कियत भी नहीं होती, ज़बान तो इलाकों की होती है...अगर यह बात किसी की समझ में आ जाए तो ठीक है, यह उसी की ज़िंदगी आसान कर देगा...वरना जो है सो है। मुझे भी इतनी सी बात ५५ साल की उम्र में उर्दू की पहली जमात में पता चली थी...
सांसें....बेहद खूबसूरत लफ़्ज़, जो देखा जाए तो हर पल हमारी ज़िंदगी के साथ रहता है पल..पल...हर पल। जब हम लोग किसी बाबा-वाबा को सत्संग में सुना करते और वह सांसों की अहमियत पर बोलते थे तो हमें कहां समझ में आता था यह सब...हमें तो बस जम्हाईयां आती रहती थीं कि बहुत हो गया यार, अभी भी भोग पड़ने में बीस मिनट लगेंगे, तब कहीं प्रसाद लेकर यहां से निकलेंगे...
कितनी बार सुन चुके हैं, पढ़ चुके हैं कि ज़िंदगी से ज़्यादा गिले-शिकवे करने का कोई मतलब है नहीं, बात बस इतनी सी है कि अगर बाहर गई एक सांस लौट कर वापिस आ रही है न, इस का मतलब सब ठीक है...कुछ साल पहले की बात है, बड़ा बेटा जब बाली गया था तो उसने समंदर के नीचे स्वीमिंग की थी, जिसे स्कूबा-डाईविंग कहते हैं...उसने भी वहां से वापिस लौटना पर यही ज्ञान दिया था कि बाप, जब तक बंदे की सांसें चल रही हैं न, सब ठीक है....इस के आगे कुछ टेंशन करने का मतलब है भी तो नहीं।
बात है भी कितने पते की है! सांसे ये जो हमारी चल रही हैं, मैं अकसर सोचता हूं कि क्या यह किसी करिश्मे से कम हैं...सारे शरीर में लाखों-करोड़ों रासायनिक प्रक्रियाएं निरंतर चल रही हैं ....चौबीस घंटे, सातों दिन ...एसिड-बेलेंस मेन्टेन हो रहा है, शरीर में इलैक्ट्रोलाइट बेलेंस भी हो रहा है, अनेकों तरह की पदार्थ हमारी ग्रंथियों से निकल रहे हैं जो विभिन्न क्रियाओं को कंट्रोल कर रहे हैं...अब क्या क्या लिखें, ईश्वर की दी गई नेमतों की फेहरिस्त बनाने लगें....है कि नहीं बेवकूफ़ी वाली बात ........बात तो सिर्फ़ इतनी सी है जो जितनी जल्दी समझ आ जाए उतना ही अच्छा है ...कि हमें हर सांस के साथ ईश्वर को याद करना है, हर पल, हर श्वास के साथ प्रभु का शुक्रिया अदा करना है ...कि आप की अपार कृपा से सांसें चल रही हैं, वरना शु्क्रिया करने की बजाए, इन सांसों को अपनी अकल से समझने की कोशिश करेंगे तो हाथ कुछ नहीं आएगा....यह सब रेहमत की बातें हैं, जैसे जैसे हमारी लिखाई-पढ़ाई बढ़ने लगती है, हम ख़ुद को कुछ समझने लगते हैं ये रब्बी बातें हमारी समझ में आना कम हो जाती हैं ...हम समझते हैं कि हम धन-दौलत के बलबूते सब कुछ अपने कंट्रोल में रखेंगे .....लेकिन ऐसा होता कहां है! इत्मीनान से पलों के साथ जिएं...ज़्यादा टेंशन से, ज़्यादा सोच-विचार से कुछ मिलने वाला नहीं, जो हाथ में है वह भी सरक जाएगा।
सांसें ...इतना ख़ूबसूरत लफ़्ज़ और बातें मैं इस के बारे में इतनी पकाने वाली लिखता जा रहा हूं ...इतने खूबसूरत शब्द के बारे में बातें भी ख़ुशगवार ही होना चाहिए...वैसे यह काम हमारे फिल्मी गीतकार बख़ूबी कर गये हैंं....मैं जब भी फिल्मी दुनिया के दिलकश गीतों को याद करता हूं तो मुझे सांसें लफ़्ज़ का ख्याल आते ही दो तीन गीत याद आ जाते हैं....एक तो वही है ...मधुबन खुशबू देता है, सागर सावन देता है ......चलती है लहरा के पवन ..कि सांस सभी की चलती रहे। यह गीत मेरे मन के बहुत करीब है ...इतने बरसों से इसे देखते सुनते यह मन में पक्का घऱ बना चुका है...
सांसों की जब बात चली तो कल बड़े भाई ने ३१ साल पुराना यह गीत भी याद दिला दिया....सांसों की ज़रूरत है जैसे ज़िंदगी के लिए ..यह भी बहुत खूबसूरत गीत है। हिंदी फिल्मों के नगमों के साथ अकसर हमारें ढ़ेरों यादें जुड़ी होती हैं...१९९० के जुलाई माह में हम लोग शादी के बाद मसूरी घूमने गए थे ...वहां पर जुलाई में मौसम बड़ा ख़ुशग़वार था ...हल्की हल्की बारिश की फुहार चलती ही रहती थी, बादलों की आंख-मिचौली भी चलती रहती ...मुझे याद है हम लोगों को वहां की सड़कों पर टहलते हुए दुकानदारों के टेपरिकार्डरों पर चलता यह गीत बहुत बार सुनाई पड़ता ....'आशिकी' फिल्म का यह बेहद सुपरहिट गीत है ...यह पिक्चर उन्हीं दिनों रिलीज़ हुई थी...
सांसों पर लिखे बहुत से गीत और भी याद आ रहे हैं ...
सांसों पर लिखते लिखते अब बोर सा होने लगा हूं ...सोच रहा हूं फिर से थोड़ा सो ही जाऊं..लेकिन यह बात है कि सांसों पर बहुत से नग्मे हैं ...जिन्हें हम नेट पर तलाश कर सकते हैं...सांसों को जिस भी नज़रिए से देखा जाए, शोखी की निगाह से, रूहानियत की निगाह से, ज़िंदगी के फ़लसफ़े की निगाह से .......गीतकार अपनी बात लिख कर हमें दे गए हैं....हम उन्हें सुनें न, उन से सबक न लें तो कसूर किसका है😎
सच बात है कि दर्पण झूठ नहीं बोलता....वो बात अलग है जब वह हमारी पसंद मुताबिक हमारी तस्वीर दिखा नहीं पाता, सफेद बाल, झुर्रियां जब दिखाने लगता है तो हम उसे कोसने लगते हैं...है कि नहीं....
आज मेरे बड़े भाई ने मेरे साथ दर्पण फिल्म का एक गीत शेयर किया जिस का लिंक मैं यहां नीचे लगा रहा हूं ...आप इस पर क्लिक कर के उसे सुन सकते हैं...आनंद बख्शी की कलम का जादू है ...वे इस के गीतकार हैं ...
भाई ने मुझे कहा कि वह जो तपस्या फिल्म का भी जो गीत है न ...कभी पेड़ का साया, पेड़ के काम न आया...उस गीत में जब ये लाइनें आती हैं न ...तेरी अपनी कहानी यह दर्पण बोल रहा है, भीगी आँख का पानी हक़ीक़त खोल रहा है ...जब वह इस गीत के सुरों में डूबे हुए थे तो उन्हें दर्पण फिल्म पर और भी कुछ गीत याद आने लगे...
दर्पण चीज़ ही ऐसी है ...भाई को दर्पण से गीत याद आ गए ...हमें तो बचपन ही याद आ गया....जब हम लोग बिल्कुल छोटे थे तो घर में एक शीशा होता था जो सारे कुनबे के बालों पर कंघी करने के काम में आता था...और एक छोटा सा शीशा था जिसे पापा अपनी दाढ़ी बनाते वक्त रज़ाई पर ही रख लिया करते थे...और हां, मां के पास भी तो एक बिल्कुल छोटा सा था अपना शीशा हुआ करता था..यह शीशा कोई अलग न था, एक गोल पावडर की डिब्बी में ही फिक्स हुआ रहता था, जिसे मां अकसर ट्रेन में यात्रा करते वक्त अपने पर्स में रख तो लेती लेकिन हमने मां को कभी ट्रेन में इसे इस्तेमाल करते नहीं देखा...कभी कभार किसी शादी ब्याह में ज़रूर वह इस पावडर की डिब्बी को इस्तेमाल ज़रूर कर लेती....उन्हें वैसे भी कासमेटिक्स का बिल्कुल भी शौक न था...
लिखते वक्त कैसे पुरानी पुरानी बातें याद आने लगती हैं...अच्छा, एक भ्रांति थी, थी या है, ख़ुदा जाने ...आज कल तो लोग अपने अपने पिंजरों में क़ैद रहते हैं, किसी फ़ुर्सत है छोटी छोटी बातें करने और सोचने की ...हां, तो भ्रांति यह थी कि अगर मैंने किसी आसपास के बच्चे को या अपने ही बेटे को आइना दिखा दिया तो बडे़-बुज़ुर्ग टोरक देते थे....न कर वे, ओहनूं टट्टीयां लग जानीयां ने ...(इसे शीशा मत दिखा, उसे जुलाब लग जाएंगे)...मुझे तो कभी यह लॉजिक समझ में आया नहीं....कि आईने और जुलाब का यह कैसा रिश्ता है ....और यह बात भी याद आ गई कि कैसे जब हम लोग आठवीं-नवीं कक्षा तक पहुंचते पहुंचते आइने में अपना चेहरा बार बार देखने लगते हैं ....और पुराने दौर में लोग तब उस तरूण का मज़ाक उड़ाने लगते कि देखो, इसे हवा लग रही है....देखते जाओ। 😎ये जो आदमकद शीशे, ये जो ड्रेसिंग टेबल हैं न, ये भी हर घर में कहां होते थे...लेकिन जब इस तरह की चीज़ें घर के लिए खरीदी जातीं तो बहुत अच्छा फील होता था...कईं महीनों, बरसों तक कंघी करने का मज़ा कईं गुना न भी सही, कम से कम दो गुना तो हो ही जाया करता।
और कुछ गीत जो भाई ने लिख भेजे ...दर्पण पर ...दो तो यही हैं...इन में से किसी पर भी क्लिक कर के आप इन्हें देख-सुन सकते हैं...
भाई का मशविरा है कि दरअसल ये जो सीटी, एमआरआई और एक्स-रे, वैक्स-रे हैं, इन का नाम भी कुछ दर्पण, आईना, शीशे जैसे होना चाहिए क्योंकि वे कह रहे हैं कि ये सब टेस्ट भी कोई कम नहीं हैं...एक आईना ही तो हैं, दूध का दूध पानी का पानी कर देते हैं....और सच सामने ले कर आ जाते हैं....बंदा चाहे हंसे या रो ले...
बात है भी कितनी सही...सच में, हम लोग दुनिया भर के फ़ैसलों को चेलेंज कर लेते हैं, अपनी धन-दौलत और रुतबे का रूआब दिखा कर...ये हम सब देखते ही हैं ...कोई छिपी बात नहीं है ...लेकिन मैं एक बार हमेशा यही कहता हूं कि डाक्टर लोग ही ऐसे हैं, इन की पारखी निगाहें जब कुछ देख लेती हैं, ताड़ लेती हैं और जब ये इन एक्सरे, सीटीस्कैन, एमआरआई रूपी आइने में मरीज़ की तस्वीर देखते हुए अपनी क़लम से अपना फ़रमान लिखते हैं ....उन को कभी कोई चेलेंज नहीं कर पाया, है कि नहीं...इसलिए मैं कहता हूं कि डाक्टर अगर अल्ला, ईश्वर, गॉड न भी हों तो कम से कम उस के भेजे हुए उस के मैसेंजर ज़रूर हैं, जैसे फिल्मों के गीत भी उस ख़ुदा के भेजे बंदे हैं, जिन का मक़सद है आवाम को अपनी अल्फ़ाज़ के ज़रिए रास्ता दिखाना ...
कुछ याद आया? ...मेरे हम उम्र लोगों को तो ज़रूर कुछ कुछ याद आया होगा कि ये नाम उन फिल्मी मैगज़ीन के हैं जिन के साथ साथ हम बड़े हुए हैं...जैसे आजकल की पीड़ी को नेटफ्लिक्स के किसी शो के अगले सीज़न का इंतज़ार रहता है, हम अकसर इन फिल्मी रसालों के अगले मासिक अंक के आने का इंतज़ार किया करते थे...खरीदते तो शायद मायापुरी ही थे दुकान से (यह 25पैसे की मिल जाती थी, हर सप्ताह नईं आती थी), पर जब तक किताबों की दुकान पर खड़े खड़े दो-तीन दूसरी फिल्मी रसालों के पन्ने न उलट-पलट लेते तो जैसे सुकून न मिलता था।
और हां, नाई की दुकान पर जब हजामत करवाने जाते तो उसने दुकान की चूने की दीवारों पर हेमा मालिनी से लेकर सायरा बानो ...और धर्मेन्द्र से लेकर राजकुमार तक के पोस्टर पुरानी किसी मायापुरी से फाड़ कर आटे की लेवी के साथ चिपकाए होते ...मुझे हज्जाम की हाथ से चलने वाली मशीन से बडा़ डर लगता था, कमबख्त वह तेज़ नहीं थी, खूंडी थी...बाल ऐसे काटती थी जैसे नोच रही हो, आंसू गिरते गिरते रुक जाते थे जब इन फिल्मी पोस्टरों की तरफ़ नज़र जाती थी...और उस के बाद पापा हलवाई की दुकान पर हमेशा ताज़ी बर्फी का एक छोटा लिफाफा ज़रूर दिला देते थे...
बहुत कम ही होता था कि इंगलिश में छपने वाले मैगज़ीन खरीदते थे ...नौकरी लगने पर तो फिर भी खरीद ही लेते थे..लेकिन उस से पहले ये सब सिने-ब्लिट्ज़, स्टॉर-डस्ट, फिल्म-फेयर किसी लाइब्रेरी से लेकर देख लेते थे, और बहुत सालों तक तो किराये पर ले आते थे...पहले यही कुछ 50 पैसे किराया होता था एक मैगज़ीन का ..फिर आगे चल कर एक रूपया और 1980 के दशक के जाते जाते दो-तीन रूपये भी रोज़ के देने पड़ते थे ...इस तरह की लाइब्रेरी का सीधा फंडा था कि जितनी मैगज़ीन की कीमत है उस का दस-फीसदी तो रोज़ का किराया लेते ही थे...वे दिन भी क्या दिन थे, अच्छे से ...पढ़ने की आदत थी, कुछ न कुछ लोग पढ़ते रहते थे, नावल, फिल्मी रसाले, कोई धार्मिक ग्रंथ, कोई और ज्ञान बांटने वाली किताब......कुछ भी ...हम लोगों के घरों में तो एक भी किताब न थी, लेकिन सब किराये-विराए पर ही या फिर लाइब्रेरी से ही लेकर चलता था...
शायद वहीं से मुझे किताबें खरीदने की लत लग गई ...मैं बहुत किताबें खऱीदता हूं, हिंदी, पंजाबी, उर्दू, इंगलिश....कमरा किताबों से भरा हुआ है...हर टॉपिक पर किताब...चलिए, अब इस बात को यहीं खत्म करते हैं....मैं तो लिखते लिखते पकने लगा हूं, कहीं आप भी न मुझे कोसने लग जाएं...वैसे भी मुझे पाठक कहने लगे हैं कि तुम लिखते बड़ा लंबा-लंबा हो, मैं हंस देता हूं...क्योंकि इसमें मेरा कोई कंट्रोल नहीं होता, जो दिल कहता है लिख, लिखने लगता हूं..लेकिन सोशल-मीडिया पर लिखना अब मुझे कुछ कम करना है ..वॉटसएप पर भी (फेसबुक, इंट्राग्राम, ट्विटर पर अपनी बात बहुत कम रखता हूं) चुप्पी साध लेने में ही भलाई है, यह मैं समझ गया हूं...
हां, तो बातें फिल्मी चल रही थीं...चालीस-पचास साल पहले की बातें हैं - हमारी दिल्लगी थी, रेडियो, यही फिल्मी रसाले, थियेटर जहां जाकर अगर एक बार 'रोटी, कपड़ा, मकान' देख आए तो फिल्म अगले सात दिन तक दिमाग में वही घूमती थी, उस के गीतों में खोए रहना, उस के किरदारों को आस पास ढूंढना, जब रेडियो पर वे गीत बजने तो फिर से उस फिल्म का लुत्फ़ आ जाता था...
एक बात बताऊं ये जो पुराने दौर के लोग थे न ...शैलेन्द्र, साहिर लुधियानवी, कवि प्रदीप, नरेंद्र शर्मा, आनंद बक्शी, हसरत जयपुरी....ये लोग भी क्या थे, इस दुनिया के तो नहीं थे, मेरा बड़ा भाई मुझे परसों कह रहा था कि बिल्ले, इन लोगों को रब ने भेजा ही इस ख़ास मक़सद से था कि जाओ, जा कर दुनिया के लिए कुछ रच कर आए, उन के मन बहलाने के लिए, उन को राह दिखाने के लिए, उन की सोई हुए आत्मा को झकझोरने के लिए कुछ बातें उन के लिए लिख कर आओ....जो बरसों, बरसों, शायद सदियों तक उस की पीढ़ियों के साथ रहें...
मेरा बड़ा भाई भी मेरी तरह रेडियो को दीवाना है, आज से नहीं, बचपन से ही ...हम लोगों को टीवी-नेटफ्लिक्स से कुछ लेना देना नहीं, बस विविध भारती की बातें और कुछ एफएम चैनल जो हमारे पुराने दौर के फिल्मी गीत बजाते हैं, वे सब हमें अपने से लगते हैं...अगर मैं भी कहीं नौकरी-चाकरी न करता होऊं तो सारा दिन किसी घने से छायादार पेड़ के नीचे एक खटिया डाल कर कोई किताब हाथ में लेकर अपने ट्रांजिस्टर पर दिन भर इन गीतों की दुनिया में ही खोया रहूं ....इच्छाओं का क्या है, हमें अपनी बकट-लिस्ट में कुछ भी डालते रहने की पूरी छूट है...😎
जी हां, बिल्कुल सही बात लगी मुझे भी यह ....एक एक गीतकार को ही जब हम देखने लगते हैं तो दंग रह जाते हैं...आनंद बक्शी साहब के काम के आंकड़े हैं, 650 फिल्में और तीन हज़ार से ज़्यादा गीत लिख दिये...कईं बार तो एक गीत लिखने में बीस मिनट से ज़्यादा न लेते थे....मैं उन के बारे में उन के बेटे ने जो किताब लिखी है, नगमें, किस्से, बातें, यादें...वह पढ़ता हूं तो हैरान हो जाता हूं कि किन किन हालात में इन महान गीतकारों ने यह सब कुछ रच दिया...हसरत जयपुरी की बेटी उन से जुड़ी यादें, तस्वीरें, उन की कापी के पन्ने उन की हैंडराइटिंग में लिखे हुए....ये वो गीत हैं जिन्हें 50 सालों से हम सुनते ही जा रहे हैं...जादूगर थे ये सब लोग, मुझे यह यकीं है...इस दुनिया से तो नहीं थे..
ऐसे ऐसे गीत लिख दिए जो ज़िंदगी भर की भावनाओं को दर्शाते हैं...(ज़िंदगी के तआसुरात से जुड़े हैं...) ...कभी कभी किसी बड़े समझदार बंदे से बात होती है तो अच्छा लगता है, दो दिन पहले मेरे ब्लॉग का एक रीड़र जो मुझ से भी बड़ा है, बातों बातों में कहने लगा कि डाक्टर साहब, आपने वह जो गीत एक पोस्ट में लिखा था- कभी पेड़ का साया पेड़ के काम न आया...उस के जब मैंने बोल अच्छे से पढ़े तो मैं बहुत सोचने लगा था...और कल बिग-एफएम पर जब वही गीत बज रहा था तो मैं उस समय अपने बालों को कंघी कर रहा था, कंघी क्या करनी थी भाई, जब उस गीत के ये बोल आए ........तेरी अपनी कहानी ये दर्पण बोल रहा है, भीगी आंख का पानी , हक़ीक़त खोल रहा है...(जिस भले-मानुष ने यह गीत लिखा- रविंद्र जैन साब, वे ख़ुद सूरदास थे) तो, वे कहने लगे कि दर्पण में देख कर कंघी करते करते उन के हाथों से कंघी छूट गई और सच में आंखें भर आईं...कि यार, मैं क्या किया ज़िंदगी भर.....आज सब कुछ याद आ रहा है ...और वह अपने मन की बात शेयर करने लगे कि काश! इन गीतों को पहले कहीं ध्यान से सुना होता...तो अपनी भी ज़िदगी कुछ और ही होती....मैंने इतना ही कहा कि जब जागो तभी सवेरा....There is never a wrong time to do a right thing! (बच्चों के स्कूल की दीवार पर लगे एक पोस्टर पर लिखी बात उस दिन उन को चिपका दी...)..वह हंसने लगे।
यकीनन 40-50-60 साल पुराने फिल्मी गीत हमें सपनीली दुनिया में तो लेकर जाते ही थे....मज़ा आता है, और आज भी उन्हें बार बार सुन कर दिल खुश हो जाता है ...लेकिन कहीं न कहीं वे हमारे किरदार को भी ढालते गए....मिसाल दे रहा हूं रोटी फिल्म के उस गीत का--यार, हमारी बात सुनो, ऐसा इक इंसान चुनो, जिसने पाप न किया हो, जो पापी न हो....इस पापिन को आज सज़ा देंगे मिल कर हम सारे, लेकिन जो पापी न हो वो पहला पत्थर मारे....अब मेरे जैसे बंदे ने जिसने पचास सालों में कम से कम सैंकड़ों बार यह गीत सुन लिया और हर बार कुछ न कुछ सोचा इसे सुनते हुए...अब मैं कैसे किसी को अच्छा-बुरा लेबल कर दूं....मेरे से नहीं होता यह सब, इस का ख़मियाज़ा जो भी हो, भुगतते रहे हैं, आगे भी भुगत लेंगे ...मैं अकसर इस बात को बहुत से लोगों के साथ शेयर कर चुका हूं...जीने दो यार हरेक को ज़िंदगी अपने हिसाब से....हम क्यों बाबा बनने लगते हैं, नसीहतें देने लगते हैं...हर इंसान की ज़िंदगी की अपनी स्क्रिप्ट है, अपना कहानी है, अपने संघर्ष हैं, अपने हालात हैं, परेशानियां हैं, खुशियां हैं, ग़म हैं....बस, लोगों को उन के हालात पर छोड़ दें, उन्हें जी लेने दें...ज़्यादा बाबागिरी के चक्कर में पड़ेंगे ...राम रहीम बाबे की तरह पाप-पुण्य की बातें करते रहेंगे तो उन में ही स्वाद आने लगेगा, गॉड-मेसेंजर समझने लगेंगे ख़ुद को, और पता लगे कि कभी उस की तरह आगे चल कर ज़ेल ही में ठूंस दिए गये हैं....वैसे, एक बात बताऊं मुझे उस के जेल जाने पर बड़ा सुकून मिला था...और मैं उस बेटी की, उस के मां-बाप की प्रशंसा किए बिना नहीं रह सकता जिन्होंने इतने पावरफुल बाबा के कारनामों के बारे में मुंह खोलने की हिम्मत तो की...
मैं जैसे कहता हूं कि मन के अंदर इतना कुछ ठूंस रखा है कि लिखते लिखते पता ही नहीं चलता, किधर का किधर निकल जाता हूं...अब उस बात का ख़्याल आया कि क्यों मैं आज सुबह सुबह ही इस पोस्ट को लिखने लगा हूं ...आज सुबह सुबह मैं ऋषि कपूर से बातें कर रहा था सपनो में ...हमारे बचपन वाले घर की छत है, वहां पर मैं पतंग उड़ा रहा हूं और अचानक मेरी नज़र ऋषि कपूर पर पड़ती है और मैं उसे कहने लगता हूं कि मुझे आपसे दो मिनट बात करनी है....उसने हंसते हुए कहा कि हां, करिए....मैंने पंजाबी में अपनी बात कहनी शुरू की और उससे पूछा कि क्या आप समझ रहे हैं, कितनी बेवकूफी से भरा सवाल है....बिना उस के जवाब का इंतज़ार करते हुए मैंने अपनी बात 3-4 मिनट में कह दी कि किस तरह से मैं बचपन ही से आप की फिल्मों का बहुत बड़ा फैन हूं...😄 फिर अचानक नींद से जाग उठा..अब आप यह देखिए कि मेरी दिलो-दिमाग में क्या चलता होगा कि सपने भी बालीवुड के ही आ जाते हैं कईं बार ...जब कि हमें अपने मां-बाप ही महीनों ख़्वाबों में नहीं आते ...
यह तो फिल्मी दुनिया का जादू न कहूं तो क्या कहूं ..और वह भी 60-70-80 के दशक की फिल्मों की सपनीली दुनिया का जादू...आज कल की बहुत कम फिल्में गले से नीचे उतरती हैं, दिलो-दिमाग़ पर छाए भी तो आखिर कैसे...पुराने फिल्मो से, पुराने गीतों से हमारी यादें, मीठी, कडवी, खट्टी-मिट्टी सभी तरह की जुड़ी हुई हैं...मुझे एक गीत याद आ रहा है जब मैं दूसरी तीसरी जमात में अपने संगी-साथियों के साथ पैदल स्कूल की तरफ़ कूच कर रहा होता तो रास्ते में बहुत से घरों से, बहुत सी दुकानों पर ये गीत बज रहे होते ..दो तो मुझे बड़े अच्छे से याद हैं......बाकी, जैसे जैसे याद आएंगे, इस डॉयरी में लिखता रहूंगा ...😎सोचने वाली बात यह भी है जो इंसान सात-आठ साल की उम्र से ही यह सब सुनता सुनता, इन के दिलकश संगीत में खोये खोये ही जवान हुआ और अब बीस-तीस साल बरसों से इन के लिरिक्स पर ग़ौर करते करते दुनिया को समझने की कोशिश कर रहा हो, उसे कोई क्या कहे.......बेहतर यही न होगा कि उसे उस की दुनिया में अलग छोड़ दिया जाए, उस के हाल पे ...😄
और हां, मेरे गीतों की पसंद-नापसंद की बिना कर ज़्यादा जज्मेंटल होने की कोशिश मत करिए....यह भी लिफ़ाफ़ा देख कर उस के अंदर लिखे मज़मून को भांपने की एक नाकामयाब कोशिश होगी...हम सब ने बहुत सारे मुखौटे लगा रखे हैं, कभी हम कोई उतार देते हैं, कोई नया ओढ़ लेते हैं.......और कुछ नहीं, यह ज़िंदगी है, यही ज़िंदगी का स्टेज है...और क्या 😎
लंबे अरसे से अख़बार पढ़ना भी बंद ही था...लेकिन फिर लगता है कि हमारे दौर के लोग अगर अख़बार भी पढ़ना छोड़ देंगे तो फिर करेंगे क्या! तीन अखबारों का मैं फैन रहा हूं...बचपन से लेकर लगभग बीस साल की उम्र तक दा-ट्रिब्यून जो चंडीगढ़ से छपता है, उस के बाद दिल्ली से छपने वाला हिंदुस्तान टाइम्स बहुत अच्छा लगता था, कुछ साल दिल्ली और एनसीआर में रहते हुए ज़्यादातर उसे ही पढ़ता था .....लेेकिन लगभग पिछले 30 साल से जहां भी रहा कोशिश यही रही कि टाइम्स ऑफ इंडिया ज़रूर देख लिया करू...
ये सब वे पेपर हैं जिन से बहुत कुछ सीखने को मिलता है ...दीन दुनिया का पता चलता है ...और भी बहुत कुछ ...हां, कुछ ख़बरें पढ कर मन खऱाब भी होता है ..लेकिन अख़बार वाले भी क्या करें, उन्होंने वही तो दिखाना था जो समाज में घट रहा है ...वैसे भी टाइम्स ऑफ इंडिया जैसे पेपर की रिपोर्टिंग बहुत बेलेंस्ड होती है, मैं क्या, सब लोग जानते हैं ....यह किसी की भी तरफ़ कभी झुका हुआ नहीं लगता....मुझे तो यही समझ आया है ...बाकी, बड़े बड़े धुरंधऱ लोग हैं जो 'बिटविन दा लाइन्स' अच्छे से पढ़ना जानते हैं , ज़ाहिर है उन्हें ज़्यादा पता होगा...
अब आप को लग रहा होगा कि तुम बातें इधर उधर की हांक रहे हो और पोस्ट पर यह झटका, झटकई का शीर्षक टिका रखा है...इस का कारण यह है कि मुझे आज अचानक 1970 के दशक के ये अल्फ़ाज़ ज़ेहन में आ रहे हैं....अमृतसर के दिनों की बातें...घर, बाहर हम ये शब्द सुनते ही थे..उन दिनों हम मीट-मुर्गा (ज़्यादातर मीट ही...जहां तक ध्यान है, मुर्गा मीट से कुछ महंगा होता था..) खाते थे, जब बाज़ार में किसी काम के लिए जाते तो घर के किसी सदस्य की यह बात सुनाई भी दे जाती...
" अच्छा, ऐसा करना ...आती बार पुतलीघर वाले झटकई से आधा किलो मीट, कलेजी या कीमा लेते आना। कीमा उसे हाथ ही से बनाने के लिेए कहना "
" पुतलीघर वाला झटकई ठीक मीट देता है, झटका ही बेचता है ..."
अब आप भी पशोपेश में पड़ गये होंगे कि यह बातें कैसी कर रहा है आज...झटका, झटकई ...लेकिन मुझे भी इन अल्फ़ाज़ के मानी कुछ साल पहले ही पता चले...हमें बचपन और जवानी के उस दौर में यह सब सोचने की कहां फुर्सत कि झटका, झटकई ...और ....(नहीं, नहीं, इतना ही काफ़ी है) ...क्या हैं, हमें तो इतना पता था कि मीट बेचने वाले को हम कसाई नहीं, झटकई कहते हैं और उसने अपनी मीट की दुकान के कांच पर बड़े बड़े अक्षरों में ...."यहां झटका बकरे का मीट मिलता है".., लिखवा रखा होता था। हम उन दिनों अपनी मस्ती में ही इतने मस्त होते हैं कि इन फ़िज़ूल की बातों का हमें कभी ध्यान ही न आया, न ही हम ने कभी बेफ़िज़ूल बातों में ख़ुद को उलझाया करते थे...
लेकिन बहुत बरसों बाद यह पता चल गया कि बकरे का झटका जाने का मतलब होता है उसे एक ही झटके से, एक ही वार से मारा जाता है....जब यह बात पता चली तो मन बहुत दुःखी भी हुआ था..शायद तब तक हम लोग मीट वीट खाना बंद भी कर चुके थे ...28 साल से मीट-मछली-चिकन कभी खाया नहीं, कभी खाने की इच्छा भी नहीं हुई ...क्योंकि कुछ बातें हमारी समझ में आ गई थीं...
बाद में जब हम लोगों ने घाट घाट का पानी पीना शुरू किया ...पंजाब के अलावा दूसरे सूबों के कुछ शहरों में भी रहने लगे तो वहां पर मीट की बहुत सी दुकानों पर हलाल लिखा रहता था...एक मुस्लिम दोस्त ने बता दिया कि इस का मतलब है कि इस बकरे को एक तयशुया तरीके से काटा गया है...और मैं तो ख़ुद ही यह समझने लगा था कि हलाल और झटका मीट एक ही होता होगा...
लेकिन सारी बातें तो नेट पर धरी पड़ी हैं, हमें वाट्सएप से फ़ुर्सत हो तो हम कहीं और देखें...अभी गूगल पर यही कुछ सर्च कर रहा था, तो इस न्यूज़ स्टोरी पर नज़र पड गई...आप भी देखिए...
हमारे मुल्क में एक तो इस तरह के मुद्दे पर बातें बड़ा सोच समझ कर करनी पड़ती हैं....कौन जाने कब कौन सी बात को मज़हबी रंग दे दिया जाए...नेट से वैसे भी सब कुछ पता चल ही जाता है ...बस, खबरों को छानते वक्त छाननी अच्छी होनी चाहिए हाथ में ... आज मुझे यह पता चल गया कि हलाल और झटका एक ही बात नहीं है....वैसे तो एक ही है यार, जानवर तो बेचारा मर ही गया न ...चाहे विधि कोई भी अपना लो, भाई....वह तो गया बेचारा....बाकी, तो सब लड़ाई-झगड़े के मुद्दे हैं, अगर वैसे ही इस देश में कम हों तो इसे भी उस में शामिल कर लीजिए...
झगड़े की बात पर आज के पेपर में यह बात दिख गई कि केरल में एक महिला दुकानदार ने अपनी मीट की दुकान पर यह बोर्ड लगा दिया कि उस के यहां नॉन-हलाल मीट बिकता है ...बस, टूट पड़े लोग उस पर ...आप देखिए ख़बर को ...
Times of India, Mumbai - Oct.27, 2021
जब तक मैंने वह ऊपर वाला बीबीसी का लिंक नहीं खोला था, मुझे यही लग रहा था कि नॉन-हलाल का मतलब वही पंजाब में बिकने वाला झटका मीट होगा.....नहीं, मैं गलत था...नॉन-हलाल से मतलब कुछ और ही था...
लड़ाई, झगड़े, फ़साद करने का बहाना चाहिए...आप ने इस ख़बर में पढ़ लिया होगा ...इतने धर्म हैं यहां, इतना मुख़्तलिफ़ खाना पीना है, इस में पड़ कर जब चाहे जितना चाहे लड़ लें, लड़ते लड़ते मर जाएं, कोई छुड़ाने न आएगा....मरने वालों की चिताओं पर पॉलिटिकल नॉन लगाने लोग उमड़ पडेंगे ...बेहतर होगा, हम सब शांति से जिएं और दूसरों को भी जीने दें..
वैसे भी हम लोगों का कुछ भी बर्दाश्त करने का मादा बिल्कुल ख़त्म हो चुका है...आज की अख़बार में यह भी ख़बर दिखी कि परसों यहां मुंबई में एक 15-16 साल के छात्र को उसके दो साथियों ने एक बार ऐसे ही मज़ाक में सिर पर थोड़ा हाथ मार दिया....उसे इतना बुरा लगा कि अगले दिन उसने उनमें से एक को चाकू से गोद कर मार डाला ...
काश, हम सब थोड़ा सा सहनशील बन जाएं....यह नहीं वे बन जाएं, वो बन जाएं, ये बन जाएं....हमाम मे ं हम सब नंगे हैं, इसलिए चुपचाप हमें थोड़ा सा सहना सीखना ही होगा, थोड़ा सा किसी की बात को झेलना ही होगा....हर बात पर तुनकमिज़ाजी बहुत नुकसान कर देती अकसर ...इस गीत से ही चलिए कुछ सीख लेते हैं....और नफ़रत की लाठी को तोड़ कर, जला ही डालते हैं ताकि फिर से उस के जुड़ने की गुंजाईश ही न रहे ....
लेकिन पोस्ट का लिफाफा बंद करते करते यह ख़्याल आ गया - झटका हो गया, ङटकई भी हो गया लेकिन यह झटका महाप्रसाद क्या हुआ...कुछ खास नहीं, इसे आप आज से 50 साल पहले के ज़माने की स्लैंग कह सकते हैं....अकसर घर में जब बात चलती, ख़ास कर किसी मेहमान के आने पर कि खाने में क्या बनाया जाए तो कहीं से यह आवाज़ आ जाती....झटका महाप्रसाद ही बनेगा, और क्या 😄....यानि कि मीट ही बनाया जाए...😎