और हां, नाई की दुकान पर जब हजामत करवाने जाते तो उसने दुकान की चूने की दीवारों पर हेमा मालिनी से लेकर सायरा बानो ...और धर्मेन्द्र से लेकर राजकुमार तक के पोस्टर पुरानी किसी मायापुरी से फाड़ कर आटे की लेवी के साथ चिपकाए होते ...मुझे हज्जाम की हाथ से चलने वाली मशीन से बडा़ डर लगता था, कमबख्त वह तेज़ नहीं थी, खूंडी थी...बाल ऐसे काटती थी जैसे नोच रही हो, आंसू गिरते गिरते रुक जाते थे जब इन फिल्मी पोस्टरों की तरफ़ नज़र जाती थी...और उस के बाद पापा हलवाई की दुकान पर हमेशा ताज़ी बर्फी का एक छोटा लिफाफा ज़रूर दिला देते थे...
बहुत कम ही होता था कि इंगलिश में छपने वाले मैगज़ीन खरीदते थे ...नौकरी लगने पर तो फिर भी खरीद ही लेते थे..लेकिन उस से पहले ये सब सिने-ब्लिट्ज़, स्टॉर-डस्ट, फिल्म-फेयर किसी लाइब्रेरी से लेकर देख लेते थे, और बहुत सालों तक तो किराये पर ले आते थे...पहले यही कुछ 50 पैसे किराया होता था एक मैगज़ीन का ..फिर आगे चल कर एक रूपया और 1980 के दशक के जाते जाते दो-तीन रूपये भी रोज़ के देने पड़ते थे ...इस तरह की लाइब्रेरी का सीधा फंडा था कि जितनी मैगज़ीन की कीमत है उस का दस-फीसदी तो रोज़ का किराया लेते ही थे...वे दिन भी क्या दिन थे, अच्छे से ...पढ़ने की आदत थी, कुछ न कुछ लोग पढ़ते रहते थे, नावल, फिल्मी रसाले, कोई धार्मिक ग्रंथ, कोई और ज्ञान बांटने वाली किताब......कुछ भी ...हम लोगों के घरों में तो एक भी किताब न थी, लेकिन सब किराये-विराए पर ही या फिर लाइब्रेरी से ही लेकर चलता था...
शायद वहीं से मुझे किताबें खरीदने की लत लग गई ...मैं बहुत किताबें खऱीदता हूं, हिंदी, पंजाबी, उर्दू, इंगलिश....कमरा किताबों से भरा हुआ है...हर टॉपिक पर किताब...चलिए, अब इस बात को यहीं खत्म करते हैं....मैं तो लिखते लिखते पकने लगा हूं, कहीं आप भी न मुझे कोसने लग जाएं...वैसे भी मुझे पाठक कहने लगे हैं कि तुम लिखते बड़ा लंबा-लंबा हो, मैं हंस देता हूं...क्योंकि इसमें मेरा कोई कंट्रोल नहीं होता, जो दिल कहता है लिख, लिखने लगता हूं..लेकिन सोशल-मीडिया पर लिखना अब मुझे कुछ कम करना है ..वॉटसएप पर भी (फेसबुक, इंट्राग्राम, ट्विटर पर अपनी बात बहुत कम रखता हूं) चुप्पी साध लेने में ही भलाई है, यह मैं समझ गया हूं...
हां, तो बातें फिल्मी चल रही थीं...चालीस-पचास साल पहले की बातें हैं - हमारी दिल्लगी थी, रेडियो, यही फिल्मी रसाले, थियेटर जहां जाकर अगर एक बार 'रोटी, कपड़ा, मकान' देख आए तो फिल्म अगले सात दिन तक दिमाग में वही घूमती थी, उस के गीतों में खोए रहना, उस के किरदारों को आस पास ढूंढना, जब रेडियो पर वे गीत बजने तो फिर से उस फिल्म का लुत्फ़ आ जाता था...
एक बात बताऊं ये जो पुराने दौर के लोग थे न ...शैलेन्द्र, साहिर लुधियानवी, कवि प्रदीप, नरेंद्र शर्मा, आनंद बक्शी, हसरत जयपुरी....ये लोग भी क्या थे, इस दुनिया के तो नहीं थे, मेरा बड़ा भाई मुझे परसों कह रहा था कि बिल्ले, इन लोगों को रब ने भेजा ही इस ख़ास मक़सद से था कि जाओ, जा कर दुनिया के लिए कुछ रच कर आए, उन के मन बहलाने के लिए, उन को राह दिखाने के लिए, उन की सोई हुए आत्मा को झकझोरने के लिए कुछ बातें उन के लिए लिख कर आओ....जो बरसों, बरसों, शायद सदियों तक उस की पीढ़ियों के साथ रहें...
मेरा बड़ा भाई भी मेरी तरह रेडियो को दीवाना है, आज से नहीं, बचपन से ही ...हम लोगों को टीवी-नेटफ्लिक्स से कुछ लेना देना नहीं, बस विविध भारती की बातें और कुछ एफएम चैनल जो हमारे पुराने दौर के फिल्मी गीत बजाते हैं, वे सब हमें अपने से लगते हैं...अगर मैं भी कहीं नौकरी-चाकरी न करता होऊं तो सारा दिन किसी घने से छायादार पेड़ के नीचे एक खटिया डाल कर कोई किताब हाथ में लेकर अपने ट्रांजिस्टर पर दिन भर इन गीतों की दुनिया में ही खोया रहूं ....इच्छाओं का क्या है, हमें अपनी बकट-लिस्ट में कुछ भी डालते रहने की पूरी छूट है...😎
जी हां, बिल्कुल सही बात लगी मुझे भी यह ....एक एक गीतकार को ही जब हम देखने लगते हैं तो दंग रह जाते हैं...आनंद बक्शी साहब के काम के आंकड़े हैं, 650 फिल्में और तीन हज़ार से ज़्यादा गीत लिख दिये...कईं बार तो एक गीत लिखने में बीस मिनट से ज़्यादा न लेते थे....मैं उन के बारे में उन के बेटे ने जो किताब लिखी है, नगमें, किस्से, बातें, यादें...वह पढ़ता हूं तो हैरान हो जाता हूं कि किन किन हालात में इन महान गीतकारों ने यह सब कुछ रच दिया...हसरत जयपुरी की बेटी उन से जुड़ी यादें, तस्वीरें, उन की कापी के पन्ने उन की हैंडराइटिंग में लिखे हुए....ये वो गीत हैं जिन्हें 50 सालों से हम सुनते ही जा रहे हैं...जादूगर थे ये सब लोग, मुझे यह यकीं है...इस दुनिया से तो नहीं थे..
ऐसे ऐसे गीत लिख दिए जो ज़िंदगी भर की भावनाओं को दर्शाते हैं...(ज़िंदगी के तआसुरात से जुड़े हैं...) ...कभी कभी किसी बड़े समझदार बंदे से बात होती है तो अच्छा लगता है, दो दिन पहले मेरे ब्लॉग का एक रीड़र जो मुझ से भी बड़ा है, बातों बातों में कहने लगा कि डाक्टर साहब, आपने वह जो गीत एक पोस्ट में लिखा था- कभी पेड़ का साया पेड़ के काम न आया...उस के जब मैंने बोल अच्छे से पढ़े तो मैं बहुत सोचने लगा था...और कल बिग-एफएम पर जब वही गीत बज रहा था तो मैं उस समय अपने बालों को कंघी कर रहा था, कंघी क्या करनी थी भाई, जब उस गीत के ये बोल आए ........तेरी अपनी कहानी ये दर्पण बोल रहा है, भीगी आंख का पानी , हक़ीक़त खोल रहा है...(जिस भले-मानुष ने यह गीत लिखा- रविंद्र जैन साब, वे ख़ुद सूरदास थे) तो, वे कहने लगे कि दर्पण में देख कर कंघी करते करते उन के हाथों से कंघी छूट गई और सच में आंखें भर आईं...कि यार, मैं क्या किया ज़िंदगी भर.....आज सब कुछ याद आ रहा है ...और वह अपने मन की बात शेयर करने लगे कि काश! इन गीतों को पहले कहीं ध्यान से सुना होता...तो अपनी भी ज़िदगी कुछ और ही होती....मैंने इतना ही कहा कि जब जागो तभी सवेरा....There is never a wrong time to do a right thing! (बच्चों के स्कूल की दीवार पर लगे एक पोस्टर पर लिखी बात उस दिन उन को चिपका दी...)..वह हंसने लगे।
यकीनन 40-50-60 साल पुराने फिल्मी गीत हमें सपनीली दुनिया में तो लेकर जाते ही थे....मज़ा आता है, और आज भी उन्हें बार बार सुन कर दिल खुश हो जाता है ...लेकिन कहीं न कहीं वे हमारे किरदार को भी ढालते गए....मिसाल दे रहा हूं रोटी फिल्म के उस गीत का--यार, हमारी बात सुनो, ऐसा इक इंसान चुनो, जिसने पाप न किया हो, जो पापी न हो....इस पापिन को आज सज़ा देंगे मिल कर हम सारे, लेकिन जो पापी न हो वो पहला पत्थर मारे....अब मेरे जैसे बंदे ने जिसने पचास सालों में कम से कम सैंकड़ों बार यह गीत सुन लिया और हर बार कुछ न कुछ सोचा इसे सुनते हुए...अब मैं कैसे किसी को अच्छा-बुरा लेबल कर दूं....मेरे से नहीं होता यह सब, इस का ख़मियाज़ा जो भी हो, भुगतते रहे हैं, आगे भी भुगत लेंगे ...मैं अकसर इस बात को बहुत से लोगों के साथ शेयर कर चुका हूं...जीने दो यार हरेक को ज़िंदगी अपने हिसाब से....हम क्यों बाबा बनने लगते हैं, नसीहतें देने लगते हैं...हर इंसान की ज़िंदगी की अपनी स्क्रिप्ट है, अपना कहानी है, अपने संघर्ष हैं, अपने हालात हैं, परेशानियां हैं, खुशियां हैं, ग़म हैं....बस, लोगों को उन के हालात पर छोड़ दें, उन्हें जी लेने दें...ज़्यादा बाबागिरी के चक्कर में पड़ेंगे ...राम रहीम बाबे की तरह पाप-पुण्य की बातें करते रहेंगे तो उन में ही स्वाद आने लगेगा, गॉड-मेसेंजर समझने लगेंगे ख़ुद को, और पता लगे कि कभी उस की तरह आगे चल कर ज़ेल ही में ठूंस दिए गये हैं....वैसे, एक बात बताऊं मुझे उस के जेल जाने पर बड़ा सुकून मिला था...और मैं उस बेटी की, उस के मां-बाप की प्रशंसा किए बिना नहीं रह सकता जिन्होंने इतने पावरफुल बाबा के कारनामों के बारे में मुंह खोलने की हिम्मत तो की...
मैं जैसे कहता हूं कि मन के अंदर इतना कुछ ठूंस रखा है कि लिखते लिखते पता ही नहीं चलता, किधर का किधर निकल जाता हूं...अब उस बात का ख़्याल आया कि क्यों मैं आज सुबह सुबह ही इस पोस्ट को लिखने लगा हूं ...आज सुबह सुबह मैं ऋषि कपूर से बातें कर रहा था सपनो में ...हमारे बचपन वाले घर की छत है, वहां पर मैं पतंग उड़ा रहा हूं और अचानक मेरी नज़र ऋषि कपूर पर पड़ती है और मैं उसे कहने लगता हूं कि मुझे आपसे दो मिनट बात करनी है....उसने हंसते हुए कहा कि हां, करिए....मैंने पंजाबी में अपनी बात कहनी शुरू की और उससे पूछा कि क्या आप समझ रहे हैं, कितनी बेवकूफी से भरा सवाल है....बिना उस के जवाब का इंतज़ार करते हुए मैंने अपनी बात 3-4 मिनट में कह दी कि किस तरह से मैं बचपन ही से आप की फिल्मों का बहुत बड़ा फैन हूं...😄 फिर अचानक नींद से जाग उठा..अब आप यह देखिए कि मेरी दिलो-दिमाग में क्या चलता होगा कि सपने भी बालीवुड के ही आ जाते हैं कईं बार ...जब कि हमें अपने मां-बाप ही महीनों ख़्वाबों में नहीं आते ...
यह तो फिल्मी दुनिया का जादू न कहूं तो क्या कहूं ..और वह भी 60-70-80 के दशक की फिल्मों की सपनीली दुनिया का जादू...आज कल की बहुत कम फिल्में गले से नीचे उतरती हैं, दिलो-दिमाग़ पर छाए भी तो आखिर कैसे...पुराने फिल्मो से, पुराने गीतों से हमारी यादें, मीठी, कडवी, खट्टी-मिट्टी सभी तरह की जुड़ी हुई हैं...मुझे एक गीत याद आ रहा है जब मैं दूसरी तीसरी जमात में अपने संगी-साथियों के साथ पैदल स्कूल की तरफ़ कूच कर रहा होता तो रास्ते में बहुत से घरों से, बहुत सी दुकानों पर ये गीत बज रहे होते ..दो तो मुझे बड़े अच्छे से याद हैं......बाकी, जैसे जैसे याद आएंगे, इस डॉयरी में लिखता रहूंगा ...😎सोचने वाली बात यह भी है जो इंसान सात-आठ साल की उम्र से ही यह सब सुनता सुनता, इन के दिलकश संगीत में खोये खोये ही जवान हुआ और अब बीस-तीस साल बरसों से इन के लिरिक्स पर ग़ौर करते करते दुनिया को समझने की कोशिश कर रहा हो, उसे कोई क्या कहे.......बेहतर यही न होगा कि उसे उस की दुनिया में अलग छोड़ दिया जाए, उस के हाल पे ...😄
और हां, मेरे गीतों की पसंद-नापसंद की बिना कर ज़्यादा जज्मेंटल होने की कोशिश मत करिए....यह भी लिफ़ाफ़ा देख कर उस के अंदर लिखे मज़मून को भांपने की एक नाकामयाब कोशिश होगी...हम सब ने बहुत सारे मुखौटे लगा रखे हैं, कभी हम कोई उतार देते हैं, कोई नया ओढ़ लेते हैं.......और कुछ नहीं, यह ज़िंदगी है, यही ज़िंदगी का स्टेज है...और क्या 😎
विश्वास नहीं होता कि आप इतने बड़े फिल्मी कीड़े हैं 😁
जवाब देंहटाएंआज सुबह मुझे भी एक बढ़िया गाना याद आ रहा था जोकि बड़ा फ़िलॉसफिकल है - गाड़ी बुला रही है, सीटी बजा रही है (फिल्म - दोस्त)। वाकई आज के गानों में दम नहीं है।
बहुत ही सुन्दर लेख है प्रवीन जी जिन लोगों का बचपन,कैशोर्य और जवानी उस दौर में गुजरा उन्होंने स्वप्निल संसार को खूब जिया। हमारे घर में सभी संगीत प्रेमी थे और रेडियो और टेप रिकॉर्डर बहुत सुने और हर तरह के गीतों पर खूब चिन्तन किया। भाई साहब सच कहते हैं कि उन पुण्य आत्माओं को ईश्वर ने दुनिया की सुप्त आत्मा जगाने के लिए ही भेजा था फिल्मी गीत-संगीत अस्तित्व में न आते तो ना जानें कितनी धुने ना बनती और कितनी भावनाएं अनकही रह जाती। और बहुत आत्मा से लिखते हैं आप। अच्छा लगता है आपको पढ़ना। बस प्रतिक्रिया नहीं दे पाती अक्सर 🙏🙏
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