सोमवार, 24 अक्तूबर 2022

दूसरों के कोट्स भी बेगाने ही होते हैं....

किसी इंसान पर जो बीती, ज़िंदगी ने ज़माने ने जैसा उस के साथ बर्ताव किया, उस का क्या तजुर्बा रहा, उसने इन बातों को कोट्स की शक्ल में लिख दिया...किस ज़माने में लिखा, किन हालात में लिखा, उस बंदे की ख़ुद की कितनी जद्दोजहद से भरी थी, हमें कुछ भी तो नहीं पता...लेकिन फिर भी मेरे जैसे लोग यहाँ वहाँ से कोट्स की किताबें इकट्ठा करने में लगे रहते हैं और जब इस तरह की पूरा एक ज़ख़ीरा जमा हो जाता है, इन सब को थोड़ा उलट-पलट कर देख भी लेते हैं कभी कभी ......फिर यह ख़्याल आता है कि यार, ये तो इन के अनुभव थे..शायद इन्हें पढ़ना तो ठीक है, लेकिन ये कोट्स दूसरों की क्या मदद कर पाएँगे....

जी हाँ, मेरा यही ख़्याल है कि इस कायनात में हर इंसान के अपने कोट्स होते हैं ...उस के अनुभवों से, उस ने जो सीखा ज़िंदगी से (अक्ल बादाम खाने से नहीं, ठोकरें खाने से आती है....) वह उन्हें काग़ज़ पर पहले तो उकेरता ही नहीं, शायद वह लिखना नहीं जानता और अगर जानता भी है तो उसे अपने ख़्याल इतने घटिया क़िस्म के लगते हैं कि उन्हें लिख कर सहेज लेने की उसे नहीं पड़ी। ऊपर से हम जैसे ज़रूरत से ज़्यादा पढ़े-लिखे लोग ...हमें अपने से ऊपर कोई दिखता ही नहीं....इसलिए हमें कोट्स भी वही सही लगते हैं जो महँगी किताबों में फ़िरंगियों ने लिखे होते हैं ...कुछ समझ में आते हैं, कुछ नहीं भी आते ...चलिए, दफ़ा करो जो समझ नहीं आते, न आएँ. हम ने कौन सा इन को पेपर देना है....

पहले कोट्स हमें बहुत कम ही दिखते थे ..फुटपाथ पर जो ५-१०-१५ रूपये में जो पोस्टर मिलते थे ...उन्हें हम ऐसे ही अपने कमरों की दीवारों पर चिपका लेते थे और कईं बार दिल बड़ा कर के फ़्रेम भी करवा लेते थे ...ऐसा ही एक फ़्रेम लेकर मैं ३५-३६ बरस पहले मैं अपने होस्टल के गेट से अंदर आ रहा था तो हमारे होस्टल के सुपरिन्टेंडेंट डा चोपड़ा साहब (वह हमारे प्रोफैसर भी थे) मिले...बात हुई ...उन्हें पोस्टर दिखाया....देख कर खुश हुए...उसमें एक बहुत सुंदर घाटी की तस्वीर थी और साथ में बड़े बड़े हरियाली से ढके हुए पहाड़ ...और उस पर लिखा हुआ था ...Prayers Go up, Blessings Come Down!  Seek the Will of God, Nothing more, nothing less, nothing else. मैंने उसे अपने रूम में टांग रखा था, जब भी उस तरफ़ देखता तो मज़ा आ जाता था ...और अभी भी कहीं तो अपने घर की किसी भी शहर की किसी ब्रांच में ज़रूर पड़ा ही होगा...ऐसे ही मैंने यही कोई बीस साल पहले एक फूल को फ्रेम करवा के उस पर कुछ तो लिखवाया था ...वह भी घर की दिल्ली ब्रांच में टंगा हुआ है ...लेकिन देखिए मुझे इस वक्त यही याद नहीं आ रहा कि उस पर लिखवाया क्या था...उस फूल को देखते ही किसी भी बंदे में उसी की तरह खिलने की तमन्ना पैदा हो जाए। 

खैर, कोट्स पढ़ना. ढूँढना मुझे बहुत अच्छा लगता है ..तभी तो मैंने ढेरों किताबें जमा कर रखी हैं.....लेकिन उन सब को देखने- या महसूस करने के बाद मैंने नतीजा यही निकाला है कि हर इंसान की ज़िंदगी अलग है, उसके कोट्स भी अलग होने चाहिए...ठीक है, पढ़ लेते हैं, लेकिन दूसरों पर आश्रित रहने का कोई फ़ायदा नहीं है ...अपने अलग कोट्स बनाइए.....जो कुछ ज़िंदगी से मिला है, जो रह गया, उस की पेस्ट बना कर ....अपनी नोटबुक को कलर कीजिए....

कोट्स ज़रूरी नहीं कि भारी भरकम फ़्रेमों में ही मिलते हैं...ख़ुद भी अगर कोई तस्वीर आप के दिल के बहुत क़रीब है ...तो उस के नीचे कहीं पढ़ी हुई बात लिख सकते हैं....मैंने भी २० बरस पहले ऐसा किया था....जब लगभग ५० साल पुरानी एक तस्वीर दिखी जिसमें घर के सभी लोग थे...एक बहुत ही क़ीमती फ़ोटो....उस के नीचे मैंने लिख दिया....Enjoy the little things in life, someday you will realise those were the big things!! बहुत अच्छा लगा था, और सब को वह फोटो की एक कापी भिजवा दी थी...बड़ी बहन ने तो अभी भी शेल्फ पर उसे सजा रखा है ..

हमारी दिक़्क़त यही है कि हम अपने से ऊपर वाले किसी बंदे की सुन लेते हैं और कम से कम अपने लेवल के बंदे की ही सुनते हैं...दूसरों को हम समझते हैं कि इन्हें कुछ नहीं पता ...यही सब से बड़ी भूल है ...अगर हम सब के साथ अच्छे से बात करते हैं....यह नक़ली तरह से नहीं हो पाता, नकलीपन नक़ली हंसी की तरह दो मिनट में उजागर हो जाता है ...हाँ, अगर सब के साथ खुल कर बात करने से मुझे यही एहसास हुआ कि सभी लोगों की ज़िंदगी कम से कम एक नावल जैसी है ...कम से कम....सच में, वैसे तो कईं नावल लिखे जा सकते हैं..लेकिन नहीं, हम किसी की सुनते नहीं और अगर किसी की बात बुरी लगे तो उस के सिर पर सवार हो जाते हैं.....कल रात की ही बात है ....यही कोई रात दस-साढ़े दस बजे का वक़्त होगा...महालक्ष्मी स्टेशन ...मैं लोकल ट्रेन से नीचे उतरा ...और चिप्स लेकर खाने लगा ...इतने में ज़ोर ज़ोर से आवाज़ें  आ रही थीं एक स्टाल से ...एक लंबा-चौड़ा ४०-४५ बरस का आदमी रेलवे स्टाल के एक कर्मचारी के पीछे पड़ा हुआ था ..उसे गालीयाँ निकाल रहा था कि ऐ ......, तूने मेरी औक़ात निकालने की कोशिश की ......यह ले १०० रूपया रख, यह ले एक और १०० रूपया रख......। बात इतनी हुई कि वह बंदा अपने किसी दोस्त के साथ था, उन्होंने एक समोसा आर्डर किया...उस वर्कर के मुँह से निकल गया कि क्या, आप दोनों एक ही समोसा लेंगे? .....बस, यही सुन कर वह बंदा पागल की तरह उस वर्कर से पेश आने लगा ..गालीयाँ ...उँगली दिखाना....वह वर्कर उस से माफ़ी माँग चुका था....कोई भी अगर बीच बचाव करने लगे तो कह रहा था कि तुम को वकील बनने की ज़रूरत नहीं ......मैंने भी इतना ही कहना चाहा कि उसने माफ़ी तो माँग ली है, माफ़ करो उसे अब ......लेकिन बीच में ही उस पागल ने मुझे भी रोक दिया.....अं...क...ल....., तुम्हें कुछ नहीं पता ...बीच में मत पड़ो।.....मेरी गाड़ी आई और मैं चढ़ गया .....यही सोचते सोचते की अंकल को तो क्या तेरे जैसे समझदार के तो बाप को भी कुछ पता न होगा..............बस, अगर हम लोग इस तरह से दूसरों के साथ पेश आते हैं तो हम कहां किसी की भी बात सुन कर राज़ी हैं......किसी से सीख लेना तो बहुत दूर की बात हो गई। 

हाँ, पहले मैं एक बात जल्दी से दर्ज कर दूँ .....मुझे घमंडी लोगों से बेइंतहा नफ़रत है ....हमारा इतना बड़ा ख़ानदान है, लेकिन घमंड किसी में भी नहीं है ...मैं बड़ा साफ़ साफ़ लिखने वाला हूँ...अगर होता तो लिख देता...सब लोग बडे़ अच्छे से दूसरों के साथ बात करने वाले ..दो एक लोगों में था, मेरे एक कज़िन की पत्नी थी, वह बहुत घमंडी थी यार.....वह दूसरों की तरफ़ ऐसी हिक़ारत भरी निगाहों से देखती थी कि क्या कहें .......और अपनी शेखी बघारने वाली बात भी नहीं है लेकिन जो है, वह है .....मैं भी बिल्कुल भी घमंडी नहीं हूँ ...क्योंकि घमंडी लोग मुझे पता नहीं क्यों पागल जैसे लगने लगते हैं....मेरी बनती भी उन लोगों से ही है जिन में इस पागलपन का कोई अंश न हो.... यह बात पत्थर पर लकीर की तरह है कि हम लोग जिस भी इंसान से मिलते हैं वह हमें कुछ ऐसा सिखाने की क़ाबिलियत रखता है जो हम पहले से नहीं जानते ....लेकिन उस के लिए उसे सुनना तो पडे़गा..

कल मैं एक किताब पढ़ रहा था जिस की फ़ोटो अभी आप को दिखाऊँगा.....दुनिया भर के १०९ लोगों की प्रेरणादायी बातें उस में संकलित हैं.....दो चार पन्ने उलटने के बाद मुझे ख़्याल आया कि यार, देखूँ तो इसमें हिंदोस्तानी कितने हैं...एक ही था....मुझे बहुत अजीब सा लगा ...मैं किताब पीछे हटाई, और चुपचाप सो गया .........सुबह उठा हूँ अभी तो लगा कि जो विचार रात में आ रहे थे उन्हें लिख कर छुट्टी करूँ...


एक बात और ...कोट्स लिखने वाले या कुछ लेखक बडे़ सुपरफिशियल से लगते हैं ....बहुत से इंगलिश लेखक भी या मोटीवेशनल लेखक, मैनेजमेंट गुरू भी बंदे को बाहर बाहर से बदलने की बातें ंकरते हैं......लेकिन मेरा इस में एक प्रतिशत भी भरोसा नहीं है ....मेरा विश्वास है कि किसी को भी मैनेजमेंट तकनीकें रटा कर, कुछ थ्यूरी रटा कर आप नहीं बदल सकते, उसे एक प्रभावशाली मैनेजर में ज़रूर बदल सकते हैं...लेकिन किसी भी बंदे को अंदर से बदलने के लिए कुछ अलग लगता है .....सूफ़ी, संतों की वाणी लगती है, उन की कही बातें लगती हैं जिन्होंने सारी कायनात के भले की बात की...सरबत के भले की बात की ... इसलिए मुझे इन सूफ़ी-संतों की बातें बहुत भाती हैं......

आप के मन में उभर रहा एक सवाल.......इस का मतलब मैं तो अंदर से बदल चुका हूँगा ........उस का मेरा जवाब है ......सवाह से मिट्टी (पंजाबी में हम राख और मिट्टी को ऐसे ही कहते हैं...) 

कोट्स हैं क्या, हमारे तजुर्बे ....किसी से बाँटने हैं तो भी ठीक है, नहीं भी शेयर करने तो अपने लिए ही लिखते रहना चाहिए....मैंने भी ८-१० साल पहले लिखने शुरू किए थे, ५०-१०० लिखे भी थे, फिर उसमें मज़ा आना बंद हो गया...छोड़ दिया....और हाँ, जीवन की कुछ सीख अपनी डॉयरी में अपने लिए भी लिखनी होती हैं और कुछ सीख ऐसी भी होती है जिसे लूज़ पर लिख कर तुरंत अच्छे से फाड़ कर नाली में बहाना होता है .........हा हा हा हा .....

मुझे एक बात और याद आ रही है कि मुझे भी कोट्स-वोट्स यहाँ वहाँ से देखने अच्छे तो लगते हैं.....लेकिन हज़ारों में से एक ही कहीं ऐसा दिखता है जिसे अपनी डॉयरी में कहीं लिख कर सहेज लेता हूँ ...इस का मतलब यह नहीं कि मैं अपनी औक़ात भूल गया हूँ.....नहीं, बिल्कुल नहीं, वह कैसे हो सकता है .....उस हिसाब से मेरे पाँव बिल्कुल ज़मीं पर ही हैं.....लेकिन फिर भी अपने तजुर्बों को कोट्स में लिखते रहना चाहता हूँ .....किसी के लिए नहीं, कोई पढ़े न पढ़े, सीख ले या न ले, लेकिन मेरे ख़ुद के लिए मैं लिखते रहना चाहता हूँ....😀

दीवाली मुबारक ....