मंगलवार, 31 दिसंबर 2013

दो वर्षों में भी अपना काम कर लेता है गुटखा..


कल मेरे पास एक १८ वर्षीय युवक आया..देखने में वह लगभग २५ के करीब लग रहा था, मैंने पूछा कि क्या जिम-विम जाते हो, उसने जब हां कहा तो मैंने पूछ लिया कि कहीं बॉडी-बिल्डिंग वाले पावडर तो नहीं लेते। उसने बताया कि नहीं वह सब तो नहीं लेता, लेकिन घर में गाय-भैंसें हैं, इसलिए अच्छा खाते पीते हैं।
बहरहाल उस का वज़न भी काफ़ी ज़्यादा था, इसलिए मैंने उसे संयम से संतुलित आहार लेने की ही सलाह दी। लेकिन अभी उस समस्या के बारे में तो बात हुई नहीं जिस की वजह से वह मेरे पास आया था।
वह मुंह में छालों से परेशान था और उस का मुंह पूरा नहीं खुलता, इस लिए वह परेशान था। मेरे पूछने पर उस ने बताया कि वह गुटखा-पान मसाला पिछले दो वर्षों से खा रहा है, और लगभग १० पाउच तो रोज़ ले ही लेता है लेकिन पिछले ७ दिनों से उसने ये सब खाना बंद कर दिया है क्योंकि मुंह में जो घाव हैं उन की वजह से उन्हें खाने में दिक्कत होने लगी है।
इतने में उस की अम्मी ने कमरे के अंदर झांका तो मैंने उन्हें भी अंदर बुला लिया।
मैंने उस का पूर्ण मुख परीक्षण किया और पाया कि इस १८ वर्ष के युवक को ओरल-सबम्यूक्सफाईब्रोसिस की बीमारी है…यह गुटखे-पानमसाले के सेवन से होती है ..धीरे धीरे मुंह खुलना बंद हो जाता है और मुंह की चमड़ी बिल्कुल चमड़े जैसी सख्त हो जाती है ..और मुंह में घाव होने की वजह से खाने पीने में बेहद परेशानी होती है।
१८ वर्ष की उम्र में इस तरह के मरीज़ हमारे पास कम ही आते हैं……आते तो हैं लेकिन इतनी कम उम्र में यह कम ही आते हैं……ऐसा नहीं है कि यह बीमारी इस उम्र में हो नहीं सकती, ज़रूर हो सकती है और होती है। मैंने इसे १२ वर्षीय एक लड़की में भी देखा था जो राजस्थान से थी और बहुत ही ज़्यादा लाल-मिर्च खाया करती थीं। जी हां, यह बीमारी  उन लोगों में भी होती है जो लोग बहुत ज़्यादा लाल-मिर्च का सेवन करते हैं।
२०-२१ वर्ष के युवकों में तो यह बीमारी मैं पहले कईं बार देख चुका हूं और वे अकसर कहते हैं कि वे पिछले पांच सात वर्षों से गुटखे का सेवन कर रहे हैं। लेकिन शायद यह मेरे लिए यह पहला ही केस था कि उस युवक ने दो वर्ष ही गुटखे का सेवन किया और इस बीमारी के लफड़े में पड़ गया।
मैंने उस से दो तीन बार पूछा कि क्या वह दो वर्षों से गुटखा-पानमसाला खा रहा है, उस ने बताया कि हां, बिल्कुल, दो वर्षों से ही वह इन सब का सेवन कर रहा है। वह इंटर में पढ़ता है। बताने लगा कि दसवीं तक तो स्कूल में बड़ी सख्ती थी, हमारे स्कूल-बैग कि अचानक तलाशी ली जाती थी, इसलिए कक्षा दस तक तो इन के सेवन से बिल्कुल दूर ही रहा। लेकिन ग्याहरवीं कक्षा में जाते जाते इस की लत लग गई।
मैंने उसे बहुत समझाया कि अब इसे नहीं छूना….लगता है समझ तो गया है, वापिस पंद्रह दिन बाद बुलाया है।
दुःख होता है जब हम लोग इतनी छोटी उम्र में युवाओं को इस मर्ज़ का शिकार हुआ पाते हैं…..जैसा कि मैं पहले कईं बार अपने लेखों में लिख चुका हूं कि यह बीमारी कैंसर की पूर्वावस्था है (oral precancerous lesion)……कहने का अभिप्रायः है कि यह कभी भी कैंसर में परिवर्तित हो सकती है।
और धीरे धीरे कितने वर्षों में यह कैंसर पूर्वावस्था पूर्ण रूप से कैंसर में तबदील हो जाएगी और किन लोगों में होगी, यह कुछ नहीं कहा सकता …जैसे कि कल मैंने १८ वर्ष के युवक में इस अवस्था को देखा और कईं बार ३०-३५ वर्ष के युवाओं में यह तकलीफ़ कईं कईं वर्ष के गुटखे सेवन के बाद यह तकलीफ़ होती है, इन के लिए िकसी भी व्यक्ति की इम्यूनिटि (रोग प्रतिरोधक क्षमता), उस ने कितने गुटखे खाए, उस के खान-पान का सामान्य स्तर कैसा है…. बहुत सी बातें हैं जो यह निश्चित करती हैं कि कब कौन कितने समय में इस अजगर की चपेट में आ जाएगा।
इतना पढ़ने के बाद भी अगर किसी का मन गुटखा-पानमसाला मुंह में रखने के लिए ललचाए तो फिर कोई उस को क्या कहे…………..दीवाना और क्या!! जान के भी जो अनजान बने, कोई उस को क्या कहे, दीवाना, है कि नहीं?

गुरुवार, 26 दिसंबर 2013

मुंह न खोल पाना एक गंभीर समस्या...ऐसे भी और वैसे भी!


तीन चार दिन पहले मैं रेल में यात्रा कर रहा था.. एसी डिब्बे में ..लखनऊ से दिल्ली तक तो सब ठीक लगा ..लेकिन दिल्ली से आगे डेढ़ एक घंटे के सफ़र के दौरान अजीब सी बैचेनी होने लगी.. यह मेरे साथ पहली बार नहीं हुआ.. कभी कभी हो ही जाता है…अगर एसी का तापमान ठीक ढंग से सेट न किया जाए, तो अजीब सा लगता है ..आधे सिर में थोड़े थोड़े सिरदर्द से शुरू होता है … और एसिडिटी फिर इतनी बढ़ जाती है कि जब तक उल्टीयां न हो जाएं, चैन नहीं पड़ता।
बस के सफ़र के दौरान तो मोशन-सिकनैस का मैं बचपन से ही शिकार रहा हूं. लेकिन उस के लिए मैंने कुछ सालों से एक जुगाड़ सा कर लिया है.. एवोमीन (Avomine)  की एक गोली बस में चढ़ने से 30-40 मिनट पहले ले लेता हूं। और बस फिर कोई समस्या ही नहीं होती। लेिकन ट्रेन सफ़र के दौरान यह जो दिक्कत हो जाती है ..उस के लिए एक तो यह कईं बार एसी-वेसी का टैम्परेचर कंट्रोल और कईं बार मेरी बाहर कहीं भी न चाय पीने की आदत है।
घर के अलावा मैं चाय केवल वहीं पीता हूं जहां मेरा मन मानता है, वरना कहीं भी नहीं। इसलिए कईं बार चाय की विदड्रायल से भी ऐसा हो ही जाता है।
लेकिन एक बार जब इस तरह से तबीयत नासाज़ होती है तो फिर कईं कईं घंटे लग जाते हैं.. दुरूस्त होने में……..चलिए अपना दुःखड़ा रोना बंद करूं……बोर हो जाएंगे…
असली बात यह है कि उस दिन जब मैं इन उल्टीयों से परेशान था, बार बार मुंह खोल खोल कर अपनी परेशानी से निजात पाने की कोशिश कर रहा था तो मेरा ध्यान मेरी ही उम्र यानि ५०-५१वर्ष के उस बंदे की तरफ़ गया जिस का मुंह खुलना बिल्कुल बंद हो गया था।
वह मुझे मेरे एक परिचित के पास मिला था.. साथ में उस की २०-२१ वर्ष की बेटी.. हाथ में एक्स-रे एवं अन्य रिपोर्टों का थैला उठाया हुआ, साथ में ही उस की पत्नी भी थी… ग्रामीण पृष्टभूमि से …लेकिन अपने पति की तबीयत के बारे में बेहद चिंतित…हर बात ध्यान से सुनती हुई लेकिन बहुत कम बोलने वाले महिला….उस बेटी को भी अपने बापू की सेहत की बेहद चिंता थी।
इस ५० वर्षीय आदमी को हुआ यह कि यह रोज़ाना बहुत से पान-मसाले गुटखे खाया करता था …लगभग २०-२५ वर्ष से यह सब कुछ खा रहे हैं.. लेकिन अब पिछले कुछ वर्षों से इन का मुंह पूरा नहीं खुल पाता था…इसलिए खाने पीने में दिक्कत होती तो थी लेकिन जैसे तैसे काम चल ही रहा था लेकिन पिछले एक सप्ताह से तो इन का मुंह लगभग खुलना बिल्कुल बंद हो गया है, बस मामूली सा खुलता है ..लेकिन इतना कि उस खुले मुंह में एक ग्लूकोज़ का पतला बिस्कुट भी नहीं जा पाए….और अगर जैसे तैसे दूध-चाय में नरम कर के अंदर धकेल भी दिया जाए तो वह उसे चबा ही न पाए।
बहुत से डाक्टरों को वे इन दिनों दिखा चुके थे .. ईएऩटी स्पैशलिस्ट, जर्नल सर्जन सभी केी पर्चियां उन के पास थीं, दवाईंयां जैसे तैसे वह मुंह में धकेल लिया करता  था…..
उस दिन जब मेरी तबीयत खराब थी तो उस बंदे की हालत का ध्यान आते ही मेरा मन दहल जाता था… जैसा कि मैंने बताया कि वह बस नाम-मात्र ही मुंह खोल पा रहा था लेकिन वह थोड़ा बहुत बोल तो पा ही रहा था ..मैं उस की बात समझ रहा था..
खाने के नाम पर पिछले सात दिनों से थोड़ा बहुत दूध, ज्यूस आदि ……चेहरा बिल्कुल खौफ़जदा पीला पड़ा हुआ.. उस की बेटी ने यह बताया कि इन्हें डर है कि मैं अगर खाऊंगा या खाने की कोशिश भी करूंगा तो मुझे उल्टी जैसा हो जाएगा और फिर उल्टी करने के लिए मेरे से मुंह खोला नहीं जायेगा तो मैं क्या करूंगा। जब मैंने भी इस बात की कल्पना की तो मैं भी कांप उठा, लेकिन मैंने उन्हें ढ़ाढ़स बंधाए रखा कि चिंता न करें, सब ठीक हो जाएगा। 
मेरे परिचित यह जानना चाहते थे कि क्या इन्हें टैटनस या कैंसर आदि तो नहीं है, मैंने समझाया कि नहीं टैटनस नहीं है, यह गुटखे-पानमसाले से होने वाली एक बीमारी है.. इसे सब-म्यूकस फाईब्रोसिस कहते हैं..इस में मुंह धीरे धीरे खुलना बंद हो जाता है … और मुंह की चमड़ी बिल्कुल चमड़े जैसी हो जाती है। इस व्यक्ति  के मुंह के अंदरूनी भाग बिलकुल सूखे चमड़े जैसे सख्त हो चुके थे…..मुंह के अंदर कोई औज़ार आदि डाल कर उसे देखना तक संभव न था। मुंह की इस अवस्था के बारे में मेरे कईं लेख मेरे विभिन्न ब्लॉगों ने सहेज रखे हैं।
मैंने उन सब को अच्छे से समझा दिया कि जगह जगह डाक्टरों के पास जाने की ज़रूरत नहीं है, यहां पर एक सरकारी डैंटल कालेज अस्पताल है, वहां पर एक विभाग होता है..ओरल सर्जरी .. उन के अनुभवी डाक्टरों का रोज़ का काम है इस तरह के मरीज़ों को देखना और उन की मदद करना। वे इस तरह के मरीज़ों के इलाज में सक्षम होते हैं…….वे मुंह के अंदर कुछ टीके आदि लगा कर मुंह को खोलने की कोशिश करते हैं……..फिर आप्रेशन के द्वारा मुंह के अंदर की जकड़न को मिटाने का प्रयास करते हैं। कहने का मतलब एक ओरल सर्जन (डैंटल सर्जन जिन्होंने ओरल सर्जरी में एमडीएस की होती है) ही इस का सब से बेहतर इलाज कर सकता है।
गुटखा इस बंदे ने छोड़ तो दिया है…….लेकिन इतनी देर से, यह देख कर बहुत दुःख हुआ। वैसे तो इसे कैंसर की एक पूर्वअवस्था ही कहते हैं…..(प्री-कैंसर अवस्था) …लेकिन अगर समुचित इलाज हो जाए और गुटखे पानमसाले की लत को हमेशा के लिये लत मार दी जाए तो बहुत से मरीज़ों को अच्छा होते देखा है। वरना अगर डाक्टर की बात माननी नहीं  तो इस तरह की ओरल प्री-कैसर अवस्था भी क्या किसी तरह से कैंसर से कम है?
….  न आदमी खा-पी पाए.. न ही मुंह की सफ़ाई, कुल्ला तक कर नहीं पाए, और हर समय यही टेंशन की अगर उल्टी आने को हो तो क्या होगा, यह सब कुछ सुनना क्या किसी के भी मन में इस भयानक गुटखे-पानमसाले के प्रति नफ़रत पैदा करने के लिए काफ़ी नहीं है।
अगर मेरी कही बात की कुछ भी तासीर है तो अगर इसे पढ़ कर आप में से एक ने भी गुटखे-पानमसाले से हमेशा के लिए तौबा कर ली, तो मेरी मेहनत सफ़ल हो गई, वरना मुझे तो अपना काम करना ही है…..कोई सुने या ना सुने, क्या फ़र्क पड़ता है!
यार यह क्या, पब्लिश का बटन दबाते ही ध्यान आ गया इस पोस्ट के शीर्षक का… ऐसे मुंह नहीं खुलना तो एक गंभीर समस्या है ही, तो फिर वैसे मुंह न खुलना क्या हुआ। वैसे मुंह न खुलने का मतलब यह कि अन्याय, शोषण के प्रति मुंह न खोलना…वह भी एक खतरनाक लक्षण है…..इसी की वजह से ही देश में कईं तथाकथित बाबाओं ने बच्चियों तक का शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक शोषण कर डाला …और जब एक निर्भीक परिवार की बच्ची ने मुंह खोला तो कैसे तहलका मच गया…बाबा भी अंदर, लाडला भी अंदर…….जिस तरह की करतूतों से पर्दाफाश हो रहा है आए दिन उस से तो यही लगता है कि यह खुद को बाबा कहलवाते हैं लेकिन क्या ये मानस भी हैं ?…..इतने ठाठ-बाठ से इतने ऐश्वर्य से ये भोगी बाबा क्या क्या नहीं कर डालते होंगे …ज़ाहिर सी बात है कि जो सामने आता है वह तो आटे में नमक के समान ही होता है……….और यह थी वैसे मुंह खोलने वाली बात………
अब मुझे दे इज़ाज़त….मेरा मुंह भी बार बार खुल रहा है … बड़ी बड़ी जम्हाईयों की वजह से।

शुक्रवार, 20 दिसंबर 2013

अधिक जीते हैं क्रिएटिव लोग..


काफी दिन पहले एक समाचार पत्र में यह स्पेशल रिपोर्ट पढ़ी थी..
पसंद का काम करने और खुश रहने से मानसिक, शारीरिक सेहत अच्छी रहती है।
अमेरिका के न्यूयॉर्क की एक शानदार इमारत का निर्माण एक अत्यंत बुजुर्ग व्यक्ति ने किया है। प्राकृतिक रोशनी से आलोकित और बर्फ़ जैसे सफ़ेद रंग से जगमगाते भवन के पीछे फ्रेंक लॉयड राइट की कल्पना शक्ति झांकती है। राइट ने १९४३ में भवन का डिजाइन बनाना शुरू किया तब जब वे ७६ वर्ष के थे।
गोया ने अपनी सर्वाधिक खूबसूरत पेटिंग ७०वर्ष की अधिक आयु में बनाई थी।
गोएथ की उत्कृष्ट रचना फाउस्ट ८१ वर्ष की अायु में लिखी गई।
गैलीलियो की एक महत्वपूर्ण खोज ७४ वर्ष की आयु में पूरी हुई थी।
अमेरिकी अभिनेत्री मैगी स्मिथ ७८ वर्ष की हो चुकी हैं, फिर भी फिल्मों और टीवी सीरियल में काम कर रही हैं।
८३ साल के वारेन बफेट कारोबार की दुनिया में झंडे गाड़ रहे हैं।
९१ साल की आयु में दुनिया से विदा लेने वाले पाब्लो पिकासो अंत तक पेन्टिग करते रहे।
९८ वर्ष के हरमन वूक ने अपना नया उपन्यास पिछले साल पूरा किया था।
१०० साल तक जीने वाले कामेडियन जॉज बन्रर्स ने ९५ साल की आयु में दो साल का एक कांट्रेक्ट किया था।
मेरे नाना जी ८० वर्ष की ऊपर अवस्था में भी ट्यूशन पढ़ाते थे…….यह १९८० के दशक के शुरूआती दिनों की बात है।

गुरुवार, 19 दिसंबर 2013

बात आस्था की..


मुझे आज एक बार फिर से यह अहसास हुआ कि हमारी उम्र इतनी बड़ी हो गई लेकिन हम लोग अपने देश के बारे में कितना कम जानते हैं, कुछ खास नहीं जानते।  चलिए आप से पूरी बात साझी कर लेता हूं।
मैं आज शाम को साईकिल पर टहल रहा था, साईकिल की एक दुकान पर रूक गया.. उस की ब्रेक ठीक से नहीं लग रही थी। यह साईकिल की दुकान एक मस्जिद के दरवाजे के बिल्कुल बाहर है।
शाम की अज़ान का समय होने वाला था, तो मस्जिद के गेट पर कुछ महिलाएं इक्ट्ठी होनी शुरू हो गईं.. दो-तीन-चार..पांच..इन की गिनती बढ़ती जा रही थी। और लगभग हर महिला की गोद में एक छोटा सा बच्चा दिखाई दिया।

lko1जैसा कि अकसर होता है ..मेरे जैसे लोग आज कल कुछ ज़्यादा ही टैक-सेवी होने का ढोंग करते दिखते हैं ..है कि नहीं? …इसलिए मैं उस साईकिल की दुकान के जिस बैंच पर बैठा हुआ था, वहां से एक तस्वीर खींच ली, जिसे आप यहां ऊपर देख रहे हैं।
और तुरंत इसे फेसबुक पर अपलोड कर दिया। और उस फोटो के साथ अपनी बेवकूफ़ी से भरी बात भी कह डाली.. अंग्रेज़ी में …लखनऊ के किसी धार्मिक स्थल के बाहर दानवीरों की इंतज़ार में।
इतने में क्या हुआ … नमाज़ अदा करने के बाद बंधु बाहर निकलने शुरू हो गये.. मैं देखना चाह रहा था कि क्या ये लोग इन महिलाओं को कुछ दान-वान देंगें क्या ! किसी को देखा नहीं किसी को दान देते लेकिन अचानक मैंने देखा कि ज़्यादातर मुस्लिम भाई-बुज़ुर्ग जो बाहर निकल रहे थे ..वे हर महिला के बच्चे के मुंह पर फूंक मार कर आगे निकल रहे थे। दो-तीन-चार — मेरी उत्सुकता बढ़ती गई… यार, यह क्या चल रहा है, मेरे से रहा नहीं गया। सब से पहले तो इस तस्वीर को मैंने फेसबुक पेज़ से तुरंत डिलीट किया क्योंकि यह बात वह नहीं थी जो मैं सोच रहा था।
उस साईकिल रिपेयर दुकानवाला भी मुस्लिम भाई था। मैंने उस से पूछा कि ज़रा यह तो बताओ कि ये लोग हर बच्चे के मुंह के ऊपर फूंक क्यों मार रहे हैं। उस ने तुरंत जवाब दिया… जिन बच्चों को नज़र जल्दी लग जाती है, उन की  माताएं अपने बच्चों की नज़र उतरवाने के लिए शाम की नमाज़ के समय इन्हें ले कर यहां आती हैं… और इस से इन के बच्चों को नज़र नहीं लगती।
दुकानदार ने आगे बताया कि यह फूंक मारने तक तो ठीक है, लेकिन कुछ माताएं पानी या दूध के गिलास भी साथ लेकर आती हैं, और फिर उन में भी फूंक मरवाने की ख्वाहिश रखती हैं। लेकिन उस ने बताया कि वह उन को ऐसा दूध या पानी में फूंक मरवाने से मना करता रहता है। मेरे प्रश्न को भांप लिया शायद उसने…अपने आप ही कहने लगा कि आप स्वयं ही देखो कि मेरे जैसा ५० का आदमी दूध-पानी में फूंक मारेगा तो ज़रासीम (कीटाणु) भी १-२ साल के बच्चों के शरीर में जाने के इमकाईनात रहते हैं। मैं उस की बात ध्यान से सुन रहा था……कहने लगा कि हमें तो अपने बच्चों का भी मुंह नहीं चूमना चाहिए….कहने लगा मुंह से मतलब कि ऐसे नहीं चूमना चाहिए कि हमारी लार बच्चे के मुंह में चली जाए……..मैं उस की बात से पूरी तरह इत्तफाक रखता हूं।
मैं यही सोचने लगा कि बातें तो यह सारी बड़े पते की कर रहा है… अभी मैं इतनी बात कर ही रहा था कि देखते ही देखते जो १०-१२ बच्चों वाली महिलाएं तुरंत अपने अपने घर लौट रही थीं।
एक बात ध्यान से मैंने नोटिस की ये सभी मुस्लिम वर्ग की महिलाएं ही न थीं, जो मैंने समझा। इस देश में आम आदमी तो बिल्कुल प्रेम, भाईचारे और तखल्लुस से रहते हैं, मैं देख रहा था जिस शिद्दत से वे नमाज़ी बंधु इन बच्चों के चेहरों पर फूंक मार रहे थे ..ऐसे लग रहा था कि इन के अपने ही बच्चे हैं ये सब। अच्छा लगा यह सब देख कर।
मैं सोच रहा था कि हमें स्वयं भी और अपने बच्चों को भी सभी धर्म के धार्मिक स्थलों पर लेकर जाना चाहिए….इस से हमें एक दूसरे को अच्छे से समझने में मदद मिलेगी, प्यार बढ़ेगा। लेकिन जो अकसर देखने में आता है कि एक धर्म का बंदा दूसरे धर्म के धार्मिक स्थान से इस तरह से थोड़ा झिझक कर, शायद थोड़ा कहीं न कहीं डर कर निकलता है जैसे कर्फ्यू लगा हुआ है। नहीं, यह झिझक हमें दूर करनी होगी…….मैं जितना मंदिर में जाना पसंद करता हूं, उतना ही गुरूद्वारे और चर्च में जाना भी मुझे अच्छा लगता है, पीरों की जगह पर, दिल्ली की जामा मस्जिद (बाहर बाहर से), हज़रत निजामुद्दीन ओलिया,  बंबई के हाली अली दरगाह पर जा चुका हूं, इधर लखनऊ में बड़े इमामबाड़े में स्थित मस्जिद में ही हो कर आया हूं. लेकिन सोचता हूं मस्जिदों में और भी जाना चाहता हूं……..
लेकिन आप को अपना अनाड़ीपन  बता दूं …मुझे यही नहीं पता कि क्या गैर मुस्लिम समुदाय के लोग मस्जिद में जा कर प्रार्थना कर सकते  हैं, शायद मेरी यही झिझक है, मुझे यह भी नहीं पता कि वहां पर किस तरह से सजदा करते हैं, बस यही बातें रोक लेती हैं…और हिमाकत से भरी यह बात कि आज लिखते हुए इस बात का ध्यान आ गया ..कभी किसी से इस के बारे में चर्चा करने की शायद ज़रूरत ही नहीं समझी…… बड़े इमामबाड़े में भी जिस समय गया वहां पर मस्जिद बिल्कुल खाली पड़ी थी। लेकिन मुझे पता है कि किसी भी धार्मिक जगह पर कोई कोड-ऑफ-कंडक्ट नाम की चीज़ नहीं होती, हम अपने मन में ही ख्यालों का पुलाव बना कर पकाते रहते हैं।
चलिए अब सोचता हूं कि अपने मित्र ज़ाकिर अली के साथ मस्जिदों में खूब जाऊंगा।
और एक बात, यह पोस्ट आस्था की थी, मैंने साईंस के बारे में कोई बात नहीं की…..इस की साईंस पर किसी दूसरे दिन बात कर लेंगे, क्या जल्दी है। बस, अभी तो इतना ध्यान आ रहा है कि नज़र तो हमारी भी उतरती रही है, कभी मां ने तो कभी उम्र में १० वर्ष बड़ी बहन बचपन में मुझे अच्छे से तैयार-वैयार कर के, केश सज्जा कर के और पावडर इत्यादि लगा कर मेरे मुंह पर सुरमचू (सुरमे दानी का वह हिस्सा जिस से हम सुरमा डाला करते थे) से नज़र बट्टू कभी कभी लगा दिया करती थीं….. बुरी नज़र से बचाने के लिए।

बुधवार, 11 दिसंबर 2013

बदल गईं दवाईयां भी आज

कल मेरी एक महिला मरीज़ ने मुझ से पूछा कि क्या उसे अस्पताल से खुला माउथवॉश मिल जायेगा। मेरे जवाब देने से पहले ही उसे याद आ गया कि वह तो शीशी लाई ही नहीं।

अचानक मुझे भी ४० वर्ष पहले का ज़माना याद आ गया जब कुछ सरकारी अस्पतालों में जाते वक्त लोग कांच की एक दो बोतलें साथ लेकर जाते थे ..पता नहीं डाक्टर कोई पीने वाली दवाई लिख दे तो!

हमारे मोहल्ले में एक आंटी जी रहती थीं..जिन का प्रतिदिन यह नियम था कि सुबह नाश्ते के बाद उन्होंने हमारे पास ही के एक अस्पताल में जाना ही होता था, मुझे अच्छे से याद है कि उन के पास एक खाकी रंग का थैला (पुरानी पैंट से निकाला गया) हुआ करता था जिस में वह एक दो कांच की शीशीयां अवश्य लेकर चलती थीं।

वैसे तो हम लोग उस अस्पताल में कम ही जाते थे क्योंकि न तो वहां पर डाक्टर ढंग से बात ही करते थे ...मरीज़ की तरफ़ देखे बिना उस की तकलीफ़ पूरी सुने बिना...वे नुस्खा लिखना शुरू कर देते थे। हां, कभी कभी आते थे ऐसे भी डाक्टर जो ढंग से पेश आते थे लेकिन अच्छे लोगों की हर जगह ज़रूरत रहती है, जल्द ही उन की बदली हो जाया करती थी। और दूसरी बात यह भी उस अस्पताल में कि वहां पर गिनती की दो-तीन दवाईयां ही आती थीं...एपीसी, सल्फाडायाजीन, टैट्रासाईक्लिन, खाकी गोलियां-- खांसी की और दस्तों को दुरूस्त करने वालीं, खांसी का मीठा शर्बत, बुखार की पीने वाली दवाई...बस, .......नहीं नहीं मच्छी के तेल वाली छोटी छोटी गोलियां ...ये हर एक के नसीब में न हुआ करती थीं। लेकिन हम लोग पट्टी करवाने और टीका लगवाने वही जाते थे।

हम लोग जब भी कभी उस अस्पताल में जाते थे तो वह आंटी हमें ज़रूरत मिलती ... जब वह दवाई ले भी चुकी होतीं तो भी वहां पर किसी न किसी लकड़ी के बैंच पर किसी औरत से बतियाती ही मिलती। अब मुझे उस आंटी का नाम तो याद न था, लेकिन एक बात अच्छे से याद थी उस के बारे में कि सारे मोहल्ले में वह लाल-ब्लाउज वाली महिला के नाम से जानी जाती थीं, क्योंकि वह हमेशा लाल-सुर्ख ब्लाउज़ ही पहने दिखती थीं, ऐसा क्यों करती थी, यह मेरा विषय नहीं है। कल रात ही में मुझे वर्षों बाद जब उस आंटी का ध्यान आया तो मैंने अपनी मां से इतना ही कहा, बीजी, आप को याद है वह लाल-ब्लाउज वाली आंटी.......मेरी मां हंसने लगीं और कह उठीं...हां हां, जो रोज़ अस्पताल ज़रूर जाया करती थीं...वह बड़ी हंसमुख स्वभाव की थीं।

न तो डाक्टर ढंग से बात ही करते, न ही ढंग की दवाईयां, और ऊपर से दवाईयां बिना पैकिंग वाली। किसी कागज़ में लपेटी हुई दवाई दी जातीं। जल्द ही कागज़ से इस कद्र चिपक जातीं कि उन्हें बाहर नाली में ही फैंक दिया जाता। मछली के तेल वाली गोलियों के साथ भी कुछ कुछ ऐसा ही होता था। लेकिन वह खांसी की और बुखार की पीने वाली रंग-बिरंगी दवाई खूब पापुलर थीं, महीने में कुछ दिन ही वे मिलती थीं लेकिन जबरदस्त क्रेज़ था। खांसी और बुखार तो तब तक ठीक ही न होते थे जब तक इन दवाईयों को पी नहीं लिया जाता था। वैसे इन दवाईयों को अधिकतर लोग दारू की खाली कांच की बोतले में ही लेकर आते थे...सभी के कपड़ों के थैलों में एक खाली दारू का पौवा या अधिया होना ज़रूरी होता था, वैसे लोग अधिया उस फार्मासिस्ट के आगे सरकाते कुछ झिझक सी महसूस किया करते थे। लेकिन जो व्यवस्था थी सो थी, वह मैंने ज्यों की त्यों आपके सामने रख दी है।

खाने या पीने वाली दवाई लेने के बाद अगर उस कंपांउडर से पूछ लिया कि यह खानी कैसे है तो वे इस तरह से भड़क जाते थे जैसे किसी ने उन्हें गालियां दे डाली हों.. लोग भी सहमे सहमे से उन को भड़काते न थे, जैसे समझ में आया खा लेते थे वरना खुली नालियां तो हर घर के सामने हुआ ही करती थीं।

एक बात जिसे मैं हमेशा याद करता हूं ..उस अस्पताल की एक लेडी हैल्थ-विज़ीटर ...मुझे याद है वह किस तरह से हम सब के घर जा जा कर मलेरिये की गोलियां दे कर जाती थीं। मेरी मां को एक बार मलेरिया हो गया, सत्तर के दशक की बात है, और घर ही आकर पहले तो वह एक स्लाईड तैयार करतीं और फिर अगले तीन-चार दिन तक रोज़ाना आकर अपने सामने मलेरिया की दवाई खिला कर जाया करतीं.......वह यह सब काम अपने लेडी-साईकिल पर किया करती थीं। उस महिला की डेडीकेशन भी कहीं न कहीं मेरे लिए इंस्पिरेशन रही होगी। हम लोग अकसर उसे याद करते हैं....

हर एक के साथ अच्छे से बात करना, उसे हौंसला देना और मरीज़ को चाहिए क्या होता है, दवाई तो जब अपना काम करेगी तब करेगी। मैं जिस अस्पताल की बात कर रहा हूं वहां पर एक एमबीबीएस लेडी डाक्टर भी हुआ करती थीं, मुझे एक बार बुखार हो गया, १०-१२ साल की अवस्था होगी, मुझे याद है वह मुझे घर देखने आई........आते ही ...उसने यह कहा.....ओ हो, इतना ज़्यादा बुखार........अब डाक्टर के मुंह से ऐसे शब्द मेरे बाल मन इन का मतलब न समझ पाए हों, लेकिन मैं अपने पिता जी के मुंह पर हवाईयां उड़ती ज़रूर देखी थीं कि कहीं यह मरने वाला तो नहीं.....वे मुझे तुरंत एक प्राईव्हेट डाक्टर कपूर के पास ले गये ....उन का मरीज़ों को ठीक करने का अपना अनूठा ढंग था.... सब से ज़्यादा अच्छे से बात सुनने, समझाने और हौंसला देने का अनूठा ढंग.......मैं अगले ही दिन ठीक हो गया।

कांच की दवाई वाली शीशीयों से ध्यान आया कि अमृतसर के पुतलीघर चौक में एक बहुत जैंटलमेन डाक्टर कपूर हुआ करते थे जो दिखने में भी अपने ढील-ढौल से, अपनी बातचीत से भी डाक्टर दिखते थे। वे बहुत काबिल डाक्टर थे, हरफनमौला थे, हर बीमारी का इलाज करते थे.....फैमली डाक्टर की एक परफैक्ट उदाहरण। मुझे याद है ..एक बार मेरी आंख में कुछ चला गया, लाली आ गई, पानी से धोने के बाद भी वह नहीं निकला, शायद कुछ लोहे का कण सा था..रिक्शा लेकर मेरी मां मुझे वहां तुरंत ले गईं.....उन्होंने तुरंत ऊपर की पुतली को पकड़ा और शायद कुछ चुंबक-वुंबक हाथ में लिया ...मुझे नहीं पता क्या था, लेकिन अगल ही क्षण मैं ठीक हो गया।

डाक्टर कपूर पुरानी डिग्री वाले डाक्टर थे, होता था ना कुछ लाइसैंशियट-वियट वाली डिग्री.......हां, जो सब से अहम् बात मैंने उन के क्लिनिक के बारे में बतानी है वह यह कि वे नुस्खा लिखते जिसे हम एक खिड़की पर जाकर उन के कंपांउडर के हाथ थमाते......वह चंद मिनटों में हमें खाने की गोलियां और पीने वाली दवाई की एक -दो शीशीयां थमा देता। कांच की शीशियां जिन पर कागज़ का एक स्टिकर भी लगा रहता कि एक बार में दवाई की कितनी खुराक पीनी है। यह जो मैंने कांच की शीशी की तस्वीर ऊपर लगाई है ...ये डाक्टर कपूर के द्वारा हमें दी जाने वाली शीशीयां भी कुछ इसी तरह की ही हुआ करती थीं जैसी कि आप पहली तस्वीर में देख रहे हैं....बहुत बार तो इन के ऊपर निशान पहले ही से लगा रहता था जैसा कि आप उस तस्वीर में भी देख सकते हैं....कभी कभी उस पर उन का कंपांउडर कागज़ का एक स्टिकर सा लगा देता था जिस तरह का मैंने इस दूसरी तस्वीर में दिखाया है।

दवाईयों का रूप फिर धीरे धीरे बिल्कुल बदलना शुरू हो गया.....कांच की बोतलों की जगह सस्ते से पलास्टिक ने ले ली, खुली दवाईयां भी उन दिनों ऐसा लगता है कि शुद्ध हुआ करती होंगी ..क्योंकि आज कल की फैशनेबुल पैकिंग वाली कुछ दवाईयों को किस तरह से लालच की फंगस लग चुकी है, यह हम नित्य प्रतिदिन मीडिया में देखते हैं। और तो और, कुछ तो दवाईयां ऐसीं कि ऊपर लिखा है ६०रूपये और चलता-पुर्ज़ा मरीज़ उसे १० रूपये में ले उड़ता है, ये काल्पनिक बातें नहीं है, सब कुछ हो रहा है.....। लेकिन अनपढ़, गरीब आदमी को उसे ६० में ही बेचा जाएगा। चलिए, इसे यही छोड़ते हैं, इस पर किसी दूसरे दिन मगजमारी कर लेंगे।

लिखते लिखते और भी इतनी बातें याद आ रही हैं कि इतना सब कुछ तो एक नावल में ही समा पाएगा। इसलिए इस पोस्ट को यहीं विराम देता हूं। इस विषय पर बाकी बातें फिर कभी कर लेंगे।