कल मेरी एक महिला मरीज़ ने मुझ से पूछा कि क्या उसे अस्पताल से खुला माउथवॉश मिल जायेगा। मेरे जवाब देने से पहले ही उसे याद आ गया कि वह तो शीशी लाई ही नहीं।
अचानक मुझे भी ४० वर्ष पहले का ज़माना याद आ गया जब कुछ सरकारी अस्पतालों में जाते वक्त लोग कांच की एक दो बोतलें साथ लेकर जाते थे ..पता नहीं डाक्टर कोई पीने वाली दवाई लिख दे तो!
हमारे मोहल्ले में एक आंटी जी रहती थीं..जिन का प्रतिदिन यह नियम था कि सुबह नाश्ते के बाद उन्होंने हमारे पास ही के एक अस्पताल में जाना ही होता था, मुझे अच्छे से याद है कि उन के पास एक खाकी रंग का थैला (पुरानी पैंट से निकाला गया) हुआ करता था जिस में वह एक दो कांच की शीशीयां अवश्य लेकर चलती थीं।
वैसे तो हम लोग उस अस्पताल में कम ही जाते थे क्योंकि न तो वहां पर डाक्टर ढंग से बात ही करते थे ...मरीज़ की तरफ़ देखे बिना उस की तकलीफ़ पूरी सुने बिना...वे नुस्खा लिखना शुरू कर देते थे। हां, कभी कभी आते थे ऐसे भी डाक्टर जो ढंग से पेश आते थे लेकिन अच्छे लोगों की हर जगह ज़रूरत रहती है, जल्द ही उन की बदली हो जाया करती थी। और दूसरी बात यह भी उस अस्पताल में कि वहां पर गिनती की दो-तीन दवाईयां ही आती थीं...एपीसी, सल्फाडायाजीन, टैट्रासाईक्लिन, खाकी गोलियां-- खांसी की और दस्तों को दुरूस्त करने वालीं, खांसी का मीठा शर्बत, बुखार की पीने वाली दवाई...बस, .......नहीं नहीं मच्छी के तेल वाली छोटी छोटी गोलियां ...ये हर एक के नसीब में न हुआ करती थीं। लेकिन हम लोग पट्टी करवाने और टीका लगवाने वही जाते थे।
हम लोग जब भी कभी उस अस्पताल में जाते थे तो वह आंटी हमें ज़रूरत मिलती ... जब वह दवाई ले भी चुकी होतीं तो भी वहां पर किसी न किसी लकड़ी के बैंच पर किसी औरत से बतियाती ही मिलती। अब मुझे उस आंटी का नाम तो याद न था, लेकिन एक बात अच्छे से याद थी उस के बारे में कि सारे मोहल्ले में वह लाल-ब्लाउज वाली महिला के नाम से जानी जाती थीं, क्योंकि वह हमेशा लाल-सुर्ख ब्लाउज़ ही पहने दिखती थीं, ऐसा क्यों करती थी, यह मेरा विषय नहीं है। कल रात ही में मुझे वर्षों बाद जब उस आंटी का ध्यान आया तो मैंने अपनी मां से इतना ही कहा, बीजी, आप को याद है वह लाल-ब्लाउज वाली आंटी.......मेरी मां हंसने लगीं और कह उठीं...हां हां, जो रोज़ अस्पताल ज़रूर जाया करती थीं...वह बड़ी हंसमुख स्वभाव की थीं।
न तो डाक्टर ढंग से बात ही करते, न ही ढंग की दवाईयां, और ऊपर से दवाईयां बिना पैकिंग वाली। किसी कागज़ में लपेटी हुई दवाई दी जातीं। जल्द ही कागज़ से इस कद्र चिपक जातीं कि उन्हें बाहर नाली में ही फैंक दिया जाता। मछली के तेल वाली गोलियों के साथ भी कुछ कुछ ऐसा ही होता था। लेकिन वह खांसी की और बुखार की पीने वाली रंग-बिरंगी दवाई खूब पापुलर थीं, महीने में कुछ दिन ही वे मिलती थीं लेकिन जबरदस्त क्रेज़ था। खांसी और बुखार तो तब तक ठीक ही न होते थे जब तक इन दवाईयों को पी नहीं लिया जाता था। वैसे इन दवाईयों को अधिकतर लोग दारू की खाली कांच की बोतले में ही लेकर आते थे...सभी के कपड़ों के थैलों में एक खाली दारू का पौवा या अधिया होना ज़रूरी होता था, वैसे लोग अधिया उस फार्मासिस्ट के आगे सरकाते कुछ झिझक सी महसूस किया करते थे। लेकिन जो व्यवस्था थी सो थी, वह मैंने ज्यों की त्यों आपके सामने रख दी है।
खाने या पीने वाली दवाई लेने के बाद अगर उस कंपांउडर से पूछ लिया कि यह खानी कैसे है तो वे इस तरह से भड़क जाते थे जैसे किसी ने उन्हें गालियां दे डाली हों.. लोग भी सहमे सहमे से उन को भड़काते न थे, जैसे समझ में आया खा लेते थे वरना खुली नालियां तो हर घर के सामने हुआ ही करती थीं।
एक बात जिसे मैं हमेशा याद करता हूं ..उस अस्पताल की एक लेडी हैल्थ-विज़ीटर ...मुझे याद है वह किस तरह से हम सब के घर जा जा कर मलेरिये की गोलियां दे कर जाती थीं। मेरी मां को एक बार मलेरिया हो गया, सत्तर के दशक की बात है, और घर ही आकर पहले तो वह एक स्लाईड तैयार करतीं और फिर अगले तीन-चार दिन तक रोज़ाना आकर अपने सामने मलेरिया की दवाई खिला कर जाया करतीं.......वह यह सब काम अपने लेडी-साईकिल पर किया करती थीं। उस महिला की डेडीकेशन भी कहीं न कहीं मेरे लिए इंस्पिरेशन रही होगी। हम लोग अकसर उसे याद करते हैं....
हर एक के साथ अच्छे से बात करना, उसे हौंसला देना और मरीज़ को चाहिए क्या होता है, दवाई तो जब अपना काम करेगी तब करेगी। मैं जिस अस्पताल की बात कर रहा हूं वहां पर एक एमबीबीएस लेडी डाक्टर भी हुआ करती थीं, मुझे एक बार बुखार हो गया, १०-१२ साल की अवस्था होगी, मुझे याद है वह मुझे घर देखने आई........आते ही ...उसने यह कहा.....ओ हो, इतना ज़्यादा बुखार........अब डाक्टर के मुंह से ऐसे शब्द मेरे बाल मन इन का मतलब न समझ पाए हों, लेकिन मैं अपने पिता जी के मुंह पर हवाईयां उड़ती ज़रूर देखी थीं कि कहीं यह मरने वाला तो नहीं.....वे मुझे तुरंत एक प्राईव्हेट डाक्टर कपूर के पास ले गये ....उन का मरीज़ों को ठीक करने का अपना अनूठा ढंग था.... सब से ज़्यादा अच्छे से बात सुनने, समझाने और हौंसला देने का अनूठा ढंग.......मैं अगले ही दिन ठीक हो गया।
कांच की दवाई वाली शीशीयों से ध्यान आया कि अमृतसर के पुतलीघर चौक में एक बहुत जैंटलमेन डाक्टर कपूर हुआ करते थे जो दिखने में भी अपने ढील-ढौल से, अपनी बातचीत से भी डाक्टर दिखते थे। वे बहुत काबिल डाक्टर थे, हरफनमौला थे, हर बीमारी का इलाज करते थे.....फैमली डाक्टर की एक परफैक्ट उदाहरण। मुझे याद है ..एक बार मेरी आंख में कुछ चला गया, लाली आ गई, पानी से धोने के बाद भी वह नहीं निकला, शायद कुछ लोहे का कण सा था..रिक्शा लेकर मेरी मां मुझे वहां तुरंत ले गईं.....उन्होंने तुरंत ऊपर की पुतली को पकड़ा और शायद कुछ चुंबक-वुंबक हाथ में लिया ...मुझे नहीं पता क्या था, लेकिन अगल ही क्षण मैं ठीक हो गया।
डाक्टर कपूर पुरानी डिग्री वाले डाक्टर थे, होता था ना कुछ लाइसैंशियट-वियट वाली डिग्री.......हां, जो सब से अहम् बात मैंने उन के क्लिनिक के बारे में बतानी है वह यह कि वे नुस्खा लिखते जिसे हम एक खिड़की पर जाकर उन के कंपांउडर के हाथ थमाते......वह चंद मिनटों में हमें खाने की गोलियां और पीने वाली दवाई की एक -दो शीशीयां थमा देता। कांच की शीशियां जिन पर कागज़ का एक स्टिकर भी लगा रहता कि एक बार में दवाई की कितनी खुराक पीनी है। यह जो मैंने कांच की शीशी की तस्वीर ऊपर लगाई है ...ये डाक्टर कपूर के द्वारा हमें दी जाने वाली शीशीयां भी कुछ इसी तरह की ही हुआ करती थीं जैसी कि आप पहली तस्वीर में देख रहे हैं....बहुत बार तो इन के ऊपर निशान पहले ही से लगा रहता था जैसा कि आप उस तस्वीर में भी देख सकते हैं....कभी कभी उस पर उन का कंपांउडर कागज़ का एक स्टिकर सा लगा देता था जिस तरह का मैंने इस दूसरी तस्वीर में दिखाया है।
दवाईयों का रूप फिर धीरे धीरे बिल्कुल बदलना शुरू हो गया.....कांच की बोतलों की जगह सस्ते से पलास्टिक ने ले ली, खुली दवाईयां भी उन दिनों ऐसा लगता है कि शुद्ध हुआ करती होंगी ..क्योंकि आज कल की फैशनेबुल पैकिंग वाली कुछ दवाईयों को किस तरह से लालच की फंगस लग चुकी है, यह हम नित्य प्रतिदिन मीडिया में देखते हैं। और तो और, कुछ तो दवाईयां ऐसीं कि ऊपर लिखा है ६०रूपये और चलता-पुर्ज़ा मरीज़ उसे १० रूपये में ले उड़ता है, ये काल्पनिक बातें नहीं है, सब कुछ हो रहा है.....। लेकिन अनपढ़, गरीब आदमी को उसे ६० में ही बेचा जाएगा। चलिए, इसे यही छोड़ते हैं, इस पर किसी दूसरे दिन मगजमारी कर लेंगे।
लिखते लिखते और भी इतनी बातें याद आ रही हैं कि इतना सब कुछ तो एक नावल में ही समा पाएगा। इसलिए इस पोस्ट को यहीं विराम देता हूं। इस विषय पर बाकी बातें फिर कभी कर लेंगे।
अचानक मुझे भी ४० वर्ष पहले का ज़माना याद आ गया जब कुछ सरकारी अस्पतालों में जाते वक्त लोग कांच की एक दो बोतलें साथ लेकर जाते थे ..पता नहीं डाक्टर कोई पीने वाली दवाई लिख दे तो!
हमारे मोहल्ले में एक आंटी जी रहती थीं..जिन का प्रतिदिन यह नियम था कि सुबह नाश्ते के बाद उन्होंने हमारे पास ही के एक अस्पताल में जाना ही होता था, मुझे अच्छे से याद है कि उन के पास एक खाकी रंग का थैला (पुरानी पैंट से निकाला गया) हुआ करता था जिस में वह एक दो कांच की शीशीयां अवश्य लेकर चलती थीं।
वैसे तो हम लोग उस अस्पताल में कम ही जाते थे क्योंकि न तो वहां पर डाक्टर ढंग से बात ही करते थे ...मरीज़ की तरफ़ देखे बिना उस की तकलीफ़ पूरी सुने बिना...वे नुस्खा लिखना शुरू कर देते थे। हां, कभी कभी आते थे ऐसे भी डाक्टर जो ढंग से पेश आते थे लेकिन अच्छे लोगों की हर जगह ज़रूरत रहती है, जल्द ही उन की बदली हो जाया करती थी। और दूसरी बात यह भी उस अस्पताल में कि वहां पर गिनती की दो-तीन दवाईयां ही आती थीं...एपीसी, सल्फाडायाजीन, टैट्रासाईक्लिन, खाकी गोलियां-- खांसी की और दस्तों को दुरूस्त करने वालीं, खांसी का मीठा शर्बत, बुखार की पीने वाली दवाई...बस, .......नहीं नहीं मच्छी के तेल वाली छोटी छोटी गोलियां ...ये हर एक के नसीब में न हुआ करती थीं। लेकिन हम लोग पट्टी करवाने और टीका लगवाने वही जाते थे।
हम लोग जब भी कभी उस अस्पताल में जाते थे तो वह आंटी हमें ज़रूरत मिलती ... जब वह दवाई ले भी चुकी होतीं तो भी वहां पर किसी न किसी लकड़ी के बैंच पर किसी औरत से बतियाती ही मिलती। अब मुझे उस आंटी का नाम तो याद न था, लेकिन एक बात अच्छे से याद थी उस के बारे में कि सारे मोहल्ले में वह लाल-ब्लाउज वाली महिला के नाम से जानी जाती थीं, क्योंकि वह हमेशा लाल-सुर्ख ब्लाउज़ ही पहने दिखती थीं, ऐसा क्यों करती थी, यह मेरा विषय नहीं है। कल रात ही में मुझे वर्षों बाद जब उस आंटी का ध्यान आया तो मैंने अपनी मां से इतना ही कहा, बीजी, आप को याद है वह लाल-ब्लाउज वाली आंटी.......मेरी मां हंसने लगीं और कह उठीं...हां हां, जो रोज़ अस्पताल ज़रूर जाया करती थीं...वह बड़ी हंसमुख स्वभाव की थीं।
न तो डाक्टर ढंग से बात ही करते, न ही ढंग की दवाईयां, और ऊपर से दवाईयां बिना पैकिंग वाली। किसी कागज़ में लपेटी हुई दवाई दी जातीं। जल्द ही कागज़ से इस कद्र चिपक जातीं कि उन्हें बाहर नाली में ही फैंक दिया जाता। मछली के तेल वाली गोलियों के साथ भी कुछ कुछ ऐसा ही होता था। लेकिन वह खांसी की और बुखार की पीने वाली रंग-बिरंगी दवाई खूब पापुलर थीं, महीने में कुछ दिन ही वे मिलती थीं लेकिन जबरदस्त क्रेज़ था। खांसी और बुखार तो तब तक ठीक ही न होते थे जब तक इन दवाईयों को पी नहीं लिया जाता था। वैसे इन दवाईयों को अधिकतर लोग दारू की खाली कांच की बोतले में ही लेकर आते थे...सभी के कपड़ों के थैलों में एक खाली दारू का पौवा या अधिया होना ज़रूरी होता था, वैसे लोग अधिया उस फार्मासिस्ट के आगे सरकाते कुछ झिझक सी महसूस किया करते थे। लेकिन जो व्यवस्था थी सो थी, वह मैंने ज्यों की त्यों आपके सामने रख दी है।
खाने या पीने वाली दवाई लेने के बाद अगर उस कंपांउडर से पूछ लिया कि यह खानी कैसे है तो वे इस तरह से भड़क जाते थे जैसे किसी ने उन्हें गालियां दे डाली हों.. लोग भी सहमे सहमे से उन को भड़काते न थे, जैसे समझ में आया खा लेते थे वरना खुली नालियां तो हर घर के सामने हुआ ही करती थीं।
एक बात जिसे मैं हमेशा याद करता हूं ..उस अस्पताल की एक लेडी हैल्थ-विज़ीटर ...मुझे याद है वह किस तरह से हम सब के घर जा जा कर मलेरिये की गोलियां दे कर जाती थीं। मेरी मां को एक बार मलेरिया हो गया, सत्तर के दशक की बात है, और घर ही आकर पहले तो वह एक स्लाईड तैयार करतीं और फिर अगले तीन-चार दिन तक रोज़ाना आकर अपने सामने मलेरिया की दवाई खिला कर जाया करतीं.......वह यह सब काम अपने लेडी-साईकिल पर किया करती थीं। उस महिला की डेडीकेशन भी कहीं न कहीं मेरे लिए इंस्पिरेशन रही होगी। हम लोग अकसर उसे याद करते हैं....
हर एक के साथ अच्छे से बात करना, उसे हौंसला देना और मरीज़ को चाहिए क्या होता है, दवाई तो जब अपना काम करेगी तब करेगी। मैं जिस अस्पताल की बात कर रहा हूं वहां पर एक एमबीबीएस लेडी डाक्टर भी हुआ करती थीं, मुझे एक बार बुखार हो गया, १०-१२ साल की अवस्था होगी, मुझे याद है वह मुझे घर देखने आई........आते ही ...उसने यह कहा.....ओ हो, इतना ज़्यादा बुखार........अब डाक्टर के मुंह से ऐसे शब्द मेरे बाल मन इन का मतलब न समझ पाए हों, लेकिन मैं अपने पिता जी के मुंह पर हवाईयां उड़ती ज़रूर देखी थीं कि कहीं यह मरने वाला तो नहीं.....वे मुझे तुरंत एक प्राईव्हेट डाक्टर कपूर के पास ले गये ....उन का मरीज़ों को ठीक करने का अपना अनूठा ढंग था.... सब से ज़्यादा अच्छे से बात सुनने, समझाने और हौंसला देने का अनूठा ढंग.......मैं अगले ही दिन ठीक हो गया।
कांच की दवाई वाली शीशीयों से ध्यान आया कि अमृतसर के पुतलीघर चौक में एक बहुत जैंटलमेन डाक्टर कपूर हुआ करते थे जो दिखने में भी अपने ढील-ढौल से, अपनी बातचीत से भी डाक्टर दिखते थे। वे बहुत काबिल डाक्टर थे, हरफनमौला थे, हर बीमारी का इलाज करते थे.....फैमली डाक्टर की एक परफैक्ट उदाहरण। मुझे याद है ..एक बार मेरी आंख में कुछ चला गया, लाली आ गई, पानी से धोने के बाद भी वह नहीं निकला, शायद कुछ लोहे का कण सा था..रिक्शा लेकर मेरी मां मुझे वहां तुरंत ले गईं.....उन्होंने तुरंत ऊपर की पुतली को पकड़ा और शायद कुछ चुंबक-वुंबक हाथ में लिया ...मुझे नहीं पता क्या था, लेकिन अगल ही क्षण मैं ठीक हो गया।
डाक्टर कपूर पुरानी डिग्री वाले डाक्टर थे, होता था ना कुछ लाइसैंशियट-वियट वाली डिग्री.......हां, जो सब से अहम् बात मैंने उन के क्लिनिक के बारे में बतानी है वह यह कि वे नुस्खा लिखते जिसे हम एक खिड़की पर जाकर उन के कंपांउडर के हाथ थमाते......वह चंद मिनटों में हमें खाने की गोलियां और पीने वाली दवाई की एक -दो शीशीयां थमा देता। कांच की शीशियां जिन पर कागज़ का एक स्टिकर भी लगा रहता कि एक बार में दवाई की कितनी खुराक पीनी है। यह जो मैंने कांच की शीशी की तस्वीर ऊपर लगाई है ...ये डाक्टर कपूर के द्वारा हमें दी जाने वाली शीशीयां भी कुछ इसी तरह की ही हुआ करती थीं जैसी कि आप पहली तस्वीर में देख रहे हैं....बहुत बार तो इन के ऊपर निशान पहले ही से लगा रहता था जैसा कि आप उस तस्वीर में भी देख सकते हैं....कभी कभी उस पर उन का कंपांउडर कागज़ का एक स्टिकर सा लगा देता था जिस तरह का मैंने इस दूसरी तस्वीर में दिखाया है।
दवाईयों का रूप फिर धीरे धीरे बिल्कुल बदलना शुरू हो गया.....कांच की बोतलों की जगह सस्ते से पलास्टिक ने ले ली, खुली दवाईयां भी उन दिनों ऐसा लगता है कि शुद्ध हुआ करती होंगी ..क्योंकि आज कल की फैशनेबुल पैकिंग वाली कुछ दवाईयों को किस तरह से लालच की फंगस लग चुकी है, यह हम नित्य प्रतिदिन मीडिया में देखते हैं। और तो और, कुछ तो दवाईयां ऐसीं कि ऊपर लिखा है ६०रूपये और चलता-पुर्ज़ा मरीज़ उसे १० रूपये में ले उड़ता है, ये काल्पनिक बातें नहीं है, सब कुछ हो रहा है.....। लेकिन अनपढ़, गरीब आदमी को उसे ६० में ही बेचा जाएगा। चलिए, इसे यही छोड़ते हैं, इस पर किसी दूसरे दिन मगजमारी कर लेंगे।
लिखते लिखते और भी इतनी बातें याद आ रही हैं कि इतना सब कुछ तो एक नावल में ही समा पाएगा। इसलिए इस पोस्ट को यहीं विराम देता हूं। इस विषय पर बाकी बातें फिर कभी कर लेंगे।
रोचक संस्मरण
जवाब देंहटाएंप्रणाम
धन्यवाद, सोहिल जी.
जवाब देंहटाएंबढियां आत्मकथात्मक संस्मरण -नावेल हो जाय
जवाब देंहटाएंधन्यवाद, सर, आप से प्रोत्साहन मिला।
हटाएं