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गुरुवार, 14 अप्रैल 2016

बतरस.....कटहल, गंगा जल, कांग्रेस बूटी और पौधों के नक्षत्रों-गृहों की बातें




आज सुबह एक दुकान पर कुछ लेने के लिए रुका तो बाकी पूजन सामग्री तो समझ में आ रही थी ..ये इंजेक्शन की शीशियां समझ में नहीं आई..मैंने सोचा ...गुलाब जल या केवड़ा जैसा कुछ होगा...


इसे हाथ में उठाया तो पता चला कि यह तो गंगा जल है ...दुकानदार ने पूछने पर बताया कि पांच रूपये की शीशी है ...मैं इसी सोच में पड़ गया कि कुछ साल पहले तक तो ५ लिटर की प्लास्टिक की कैनीयों में बिकता था गंगा जल..अब जब कि पाप इतने बढ़ गये हैं लेकिन गंगा जल की पैकिंग इतनी छोटी हो चली है..एक ध्यान यह भी आया कि पता नहीं पतंजलि इंडस्ट्री इसे कब लांच करेगी...देखते हैं..वैसे टीके की एक शीशी तो इस से भी छोटी आती है !


आज मैं स्टेशन के बाहर खड़ा था..मैंने देखा एक ८० साल के करीब की वृद्ध महिला सीढ़ियां चढ़ रही थी और उस के पीछे ४०-५० के करीब की महिला थी...बहु-बेटी होगी... मुश्किल से वह वृद्धा सीढ़ियां चढ़ रही थीं, मुझे देख कर यही लगा कि उस के पीछे चलने वाली महिला भी धीरे धीरे उस के पीछे उस का साथ देने के लिए चल रही हैं, हाथ में डंडी लिए हुए थे ...शायद उस वृद्धा की ही होगी। 

लेिकन जैसे ही ये दोनों ऊपर पहुंची...मैंने देखा कि वृद्धा से भी ज़्यादा उस अधेड़ उम्र की टांगों की हालत खस्ता थी...उस की टांगे और घुटने तो बिल्कुल मुड़े हुए से ही थे...धीरे धीरे वे दोनों आगे बढ़ गई...

मुझे भी फ्लैट फुट है और घुटनों में लफड़ा तो है ...सुबह सुबह ऐंठन और दर्द--विशेषकर सर्दी के दिनों में आने वाले समय का संकेत दे रहा है...लेकिन टहलने वहलने से अच्छा लगता है, तकलीफ़ बहुत कम है...

उन दो महिलाओं को देख कर यही ध्यान आ रहा था कि हमें हर हालत में ईश्वर का तहेदिल से शुक्रिया अदा करते रहना चाहिए...हर पल....जिस भी हालत में हम हैं..मैं अपने निराश हुए मरीज़ों को भी यही बात कहता हूं हमेशा...कोई मुंह की हड्‍डी तुड़वा लेता है किसी हादसे में ...बहुत निराश है तो मैं कहता हूं अगर आंखें भी चली जातीं, और दिमाग पर भी चोट आ जाती तो क्या कर लेते!...शायद मेरी बातें उन में शुकराने के भाव पैदा कर देती हैं..

इन्हीं महिलाओं की ही बात करें...कि इन से भी कईं गुणा बदतर हैं कुछ लोग जो अपनी दिनचर्या भी नहीं कर सकते, इस तरह की सीढ़ियां तो चढ़ना तो दूर, नहा तक नहीं पातीं अपने आप ....कुछ तो इतने असहाय हैं कि बेड पर लेटे रहते हैं, उठ ही नहीं पाते....वैसे भी हमारा अस्तित्व बस इतना है कि अंदर गई सांस बाहर आई तो आई...हमारे अस्तित्व की एक एक घड़ी ..पल-छिन कहते हैं ना इसे...यह ईश्वरीय अनुकंपा, रहमत ही  है। 

हर हालात में इस सर्वव्यापी, सर्वशक्तिमान कण कण में मौजूद इस निराकार, परमपिता परमात्मा का शुकराना करने की आदत डाल लें...ज़िंदगी अच्छी लगने लगती है....सत्संग की और बातें मुझे कितनी समझ में आई, कितनी नहीं, लेकिन यह बात पक्के से मन में घर कर गई है...


     आज मैं राजकीय उद्यान की तरफ़ निकल गया...वहां पर योग की कक्षा चल रही थी..

बाग में घूमते घूमते यह भी पता चला कि आपातकालीन प्रसाधन नाम की भी कोई चीज़ होती है ...पहली बार इस तरह का नाम सुना है ..कितनी शालीनता से कह दिया गया है कि आपातकाल में ही इसे इस्तेमाल कीजिए...लखनऊ की यही बातें हैं जो यहां से जाने के बाद याद आएंगी..

अच्छा बातें तो होती रहेंगी...मुझे यह बताएँ कि कटहल जिस की हम लोग सब्जी खाते हैं, वह किस तरह की झाड़ी में लगती है...बता पाएंगे, कभी देखा इस की झाड़ी को? ब्लॉग को आगे पढ़ने से पहले रूक जाइए और इस का जवाब मन में रख लीजिएगा...


मैंने इस बाग में इस तरह के फल देखे तो मुझे एक बार लगा कि यह कटहल है...लेकिन यकीं नहीं हुआ...इस तरह के पेड़ पर ये इतने बड़े बड़े फल...

मैं वही खड़ा था तो सामने से हमारी एक कर्मचारी का पति आ रहा था...मैं इन्हें जानता हूं..मैंने पूछा कि यह कटहल ही है? उन्होंने भी इस की पुष्टि की ...

    इस बाग में कटहल के बहुत से पेड़ दिखे...बिल्कुल छोटे फल कुछ नीचे भी गिरे हुए थे...


मैं तो कटहल देख रहा था और यही सोच रहा था कि जो बड़े बड़े फल नीचे गिरते होंगे...अगर वे किसी को नीचे लग जाते होंगे तो ..

यह भी कटहल का ही पेड़ है....हम लोग कुछ साल पहले तक कटहल की सब्जी नहीं खाते थे..लेिकन अब लखनऊ में आने के बाद खाने लगे हैं...यहां सब्जी तो वैसे भी अच्छी ही मिलती है ...मुझे लगता है इस के छिलके को काटने-उतारने का खासा झंझट होता है ...लेकिन यहां दुकानदार उसे उतार कर ही देते हैं..

इस पार्क में मैंने यह देखा कि कुछ रास्तों पर कांग्रेसी बूटी लगी हुई थी...नहीं नहीं, राहुल गांधी में इस का कोई कसूर नहीं है, इस का नाम ही कांग्रेस ग्रास है ...और यह कांग्रेस बूटी सेहत के लिए विशेषकर सांस की तकलीफ़ें पैदा करने के लिए बहुत बदनाम है...सरकारी विभागों में तो इसे काटने और नष्ट करने के लिए (किसी दवाई के छिड़काव से) ठेके दिये जाते हैं...



हर तरफ़ कांग्रेस बूटी की भरमार है ...और चुनाव सिर पर हैं...बाकी आप सब सुधि पाठकगण हैं।



आज बाग में टहलते हुए मेरे ज्ञान में एक इज़ाफ़ा यह भी हुआ कि नक्षत्रों और गृहों के मुताबिक भी पौधे होते हैं...इस की फोटो खींच ली, लेकिन पढ़ा नहीं...कभी फ़ुर्सत होगी तो देख लेंगे..

इस तरह के भीमकाय पौधों के पास से गुजरते ही मुझे अपनी तुच्छता का अहसास हो जाता है ..इसलिए मैं हमेशा ऐसे पौधों की फोटू ज़रूर खींच लेता हूं...मुझे ये बड़ा सुकून देते हैं..अकेले मुझे ही क्यों, सब को ही चैन मिलता है इन के सान्निध्य से...


भाई यह तो पोस्ट आज कटहल स्पैशल ही हो गई दिक्खे है ...बार बार कटहल की फोटू दिख रही है...


इस बाग में प्रवेश करते ही बोतल पाम के ये पौधे आप का स्वागत करते हैं...मुझे इन पौधों को देखना ही बहुत रोमांचिक करता है ..

मैं इस बाग में दो तीन बार पहले भी जा चुका हूं लेकिन मुझे नहीं पता था कि यह इतने बडे़ क्षेत्र में फैला हुआ है ... अच्छा लगा...इस का ट्रेक भी रेतीला है, एक दम बढ़िया....बस, कांग्रेस की बूटी का कुछ हो जाए तो बात बने...यह स्वच्छता मिशन में भाग लेने वाले कुछ लोग जो बस शेल्फी लेनी की फिराक में रहते हैं..अगर ये लोग सब मिल कर एक ही दिन कुछ घंटे का सामूहिक श्रमदान करें तो बूटी से निजात पाई जा सकती है ..


परसों से यह बात बार बार याद आ रही है ...कभी एक जगह लिख कर याद करता हूं, कभी दूसरी जगह ..परफेक्ट वेलापंती...

अब पोस्ट को बंद करते समय चित्रहार भी पेश करना होगा...लीजिए सुनिए...पिछले ४० सालों से धूम मचा रखी है इस ने भी ....न धर्म बुरा, न कर्म बुरा...न गंगा बुरी ..न जल बुरा...

अभी पोस्ट लिखने के बाद किचन की तरफ़ गया पानी पीने तो वहां पर भी कटहल जैसी महक आई..मैंने सोचा कि सुबह की सैर का hang-over ही होगा...तभी सामने देखा तो कटहल की सब्जी पड़ी थी..उस समय यही ध्यान आया कि आज के दिन काश मैंने सुबह से अपनी ट्रांसफर का ध्यान किया होता.... 😎 😎
कटहल की सब्जी ..

गुरुवार, 21 नवंबर 2013

वो कचरेवाली....

मैं उसे बहुत दिन तक देखता रहा.. जब भी देखा उसे अपने काम में तल्लीन ही देखा...सुबह दोपहर शाम हर समय बस हर समय कचरे को बीनते ही देखा।

आज कल जगह जगह पर म्यूनिसिपैलिटि के बड़े बड़े से कूड़ेदान पड़े रहते हैं ना, जिसे हर रोज़ एक गाड़ी उठा कर ले जाती है और उसी जगह पर एक नया कूड़ादान रख जाती है।

बस वह उसी कूड़ेदान के पास ही सारा दिन कूड़ा बीनते दिखती थी। साथ में कभी कभी उस की लगभग एक साल की छोटी बच्ची भी दिखती थी... मां कूड़े में हाथ मार रही है और बच्ची साथ में कूड़ेदान से सटी खड़ी है, एक साल की अबोध बच्ची ...यह सब देख कर मन बेहद दुःखी होता था।

मैं उसे वह सब करते देखा करता था जो कूड़े प्रबंधन के बारे में किताबों में लिखा गया है, प्लास्टिक को अलग कर रही होती, पन्नियों को अलग, कांच को अलग.. फिर यह सब बेचती होगी।

उस की बच्ची उस कूड़ेदान के पास ही एक चटाई पर अकसर सोई दिखती, साथ में एक कुत्ता ...एक दो बार मैंने उसे एक टूटे खिलौने से खेलते देखा ..शायद उस की मां ने उस कचरे से ही ढूंढ निकाला होगा।

उस औरत को ---उम्र उस की कुछ ज़्यादा न होगी...शायद १८-२० की ही रही होगी लेकिन अकसर इस तरह की महिलाओं को समाज जल्द ही उन की उम्र से ज़्यादा परिपक्व कर देता है.... बदकिस्मती....

सुबह ११-१२ बजे के करीब मैं देखता कि उस का पति चटाई पर सोया रहता ... यह भी मेरा एक पूर्वाग्रह ही हो सकता है कि मुझे लगता कि इस ने नशा किया होगा, दारू पी होगी........लेकिन यह निष्कर्ष भी अपने आप में कितना खतरनाक है, मैंने कभी उस बंदे का हाल नहीं पूछा, कोई बात की नहीं, कोई मदद का हाथ नहीं बढ़ाया लेकिन उस के बारे में एक राय तैयार कर ली। अजीब सा लगता था जब इस तरह के विचार आते थे। क्या पता वह बीमार हो या कोई और परेशानी हो...वैसे भी हम जैसों को बहुत ही गरीब किस्म के लोग पागल ही क्यों लगते हैं, यह मैं समझ नहीं पाता हूं.......गरीबी, लाचारी, पैसे की कमी, भूख........बीमार कर ही देती है।

मैंने यह भी देखा कि पास की बिल्डिंगों से जो भी कूड़ा फैंकने आता उस महिला से ज़रूर बतियाता............उन के हाव भाव से ही वह पुरानी कहावत याद आ जाती ....गरीब की जोरू जने खने की भाभी। कुछ निठल्ले दो चार लोगों को बिना वजह उस की बच्ची के साथ खेलते भी देखा। उन का उस की बच्ची की खेल में ध्यान कम और उस महिला की तरफ़ ज़्यादा होता। आगे क्या कहूं........साथ में पड़ी चटाई पर उस का आदमी सोया रहता।

आते जाते जितनी तन्मयता से मेहनत मैंने उस औरत को करते देखा उतना मैंने किसी सरकारी कर्मचारी को नहीं देखा, मैं सोच रहा था क्या आरक्षण के सही पात्र ऐसे लोग नहीं हैं ...इतनी मेहनत, इतनी संघर्ष, इतनी बदहाली ..इतना शोषण...कईं प्रश्न उधर से गुजरते ही मेरे मन में कौंध जाया करते थे।

सरकारी सफाई कर्मीयों को तो कचरे बीनने के लिए तरह तरह के सुरक्षा उपकरण मिलते हैं, बूट, दस्ताने आदि ...लेकिन वह सब कुछ नंगे हाथों से ही कर रही होती थी, बेहद दुःख होता था............ छोटी उम्र, पति की सेहत ठीक नहीं लगती थी और ऊपर से बिल्कुल अबोध बच्ची ... मैं अकसर सोच कर डर जाता कि अगर यह महिला बीमार हो गई तो उस की बच्ची का क्या।

हां, एक बात तो मैं बताना भूल ही गया.... उस की बच्ची बड़ी प्यारी थी, गोल मटोल सी........मैंने उसे कभी रोते नहीं देखा, चुपचाप चटाई पर खेलते या सोते ही देखा या फिर मैं के साथ कचरेदान के साथ खड़े पाया ... दो एक बार मां उस को चटाई पर बैठा कर स्तनपान करवाती भी दिखी।

एक बार मैं शाम को छः सात बजे के करीब जब उधर से गुजरा तो मैंने देखा कि वह एक ट्रांजिस्टर पर रेडियो का कोई प्रोग्राम सुन रही है। अच्छा लगा।

सरकार की इतनी सामाजिक सुरक्षा स्कीमें हैं, अन्य कईं प्रकार के रोज़गार हैं, लेकिन फिर भी बहुत से लोग अभी भी अमानवीय ढंग से जीवनयापन कर रहे हैं............लिखते लिखते ध्यान आया कि कुछ दिन पहले एक मित्र ने किसी महिला की फेसबुक पर एक तस्वीर लगाई ...बेचारी फटेहाल सी लग रही थी, उस की पीठ थी कैमरे की तरफ़.... और वह गंदे नाले जैसी किसी जगह  से अपने हाथों में चुल्लु भर पानी भर कर पी रही थी। उसी फोटो के नीचे एक कमैंट था ...कोई पगली होगी।

नहीं, ऐसा नहीं होता ...हम ओपिनियन बनाने के मामले में हमेशा बहुत आतुर रहते हैं, गरीबी और पागलपन पर्यायवाची शब्द नहीं हैं ना।

बहुत दिनों तक मेरा रास्ता उधर से हो कर गुज़रता था, मुझे दो बातें सब से ज्यादा कचोटती रहीं ....जितने जोखिम भरी परिस्थितियों में वह काम कर रही है, ऐसे में वह क्या सेहतमंद रह पाएगी और दूसरी बात यह कि उस नन्हीं जान की परवरिश का क्या, कहीं पंद्रह वर्ष बाद वह तो इस रोल को न निभाती मिलेगी...

शनिवार, 20 जुलाई 2013

तेज़ाब से मौत नहीं होती, तेज़ाब हर पल मारता है .. भाग २

हां तो मैं पिछली पोस्ट में ९जुलाई २०१३ की दैनिक भास्कर के संपादकीय लेख की बात कर रहा था, यह मुझे इतना छू गया कि मैंने इस की क्लिपिंग संजो कर रखने की बजाए इसे नोटबुक में लिख लिया।
वाक्या ईरान की अमीना का है। इलैक्ट्रोनिक्स की ग्रेजुएट अमीना बहरामी ऑफिस से लौट रही थी कि माजिद मोवाहदी नामक युवक ने उस पर तेजाब फैंका। माजिद उसके पीछे पड़ा था। जबकि अमीना उसे साफ इंकार कर चुकी थी। चेहरा, गला झुलस गया। आंखे जल कर खाक हो गईं। बर्बाद अमीना ने लंबी लड़ाई लडी। ईरान में आंख के बदले आंख का कानून है। उसने वही इंसाफ मांगा। अदालत ने आखिर मान लिया।
लेकिन जब माजिद की आंखों में तेजाब की पांच बूंदें डालकर डॉक्टर उसे अंधा बनाने जा ही रहे थे, ऐन मौके पर अमीना ने उसे माफ कर दिया। दुनिया के मानवाधिकार संगठनों की अपील पर। लेकिन सब सकते में आ गए , जब माजिद ने माफ़ी को कानूनी ढाल बनाकर उसके इलाज का खर्च उठाने से बाद में साफ़ इंकार कर दिया।
दिमाग, दिल और नीयत सब कुछ भ्रष्ट कर देता है तेजाब।
......

पिछले दो दिन से टीवी -अखबार में देख कर अच्छा लगा कि सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि बृहस्पतिवार से तेजाब बिना किसी सरकारी पहचान पत्र के नहीं बिकेगा। और दुकानदार को तेजाब की सारी बिक्री का लेखा जोखा रखना होगा। और भी एक बहुत अच्छी बात कि दुकानदार को बिक्री की सूचना संबंधित पुलिस स्टेशन को भी देनी होगी।
अच्छा है, जितने सख्त नियम हो सकें, बनने चाहिए। एक बात और मैंने सुनी कि जिन लैबोरेट्रीयों में एसिड का इस्तेमाल होता है, उन के लिए भी सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि सुनिश्चित किया जाए कि वे लैब से बाहर एसिड न ले पाएं।
मैं सोच रहा था कि दुकानदार के ऊपर जब इस तरह की बंदिश होगी कि उसे रिकार्ड रखना होगा, पुलिस को सूचित करना होगा, सुप्रीम कोर्ट का निर्णय है , ऐसे में वह क्यों चंद रूपयों के चक्कर में इतनी लफड़ेबाजी में पड़ेगा, लगता है ... such restrictions would definitely act as a deterrant for unscrupulous sale of this killer liquid.

वैसे मैं यह सोच रहा था कि आज से लगभग तीस वर्ष पहले की बात है कि मैं रोहतक की एक दुकान से एसिड लेने गया था ... मुझे याद है उस ने मेरा नाम-पता आदि एक रजिस्टर में लिखवाया था.....मैं उस समय यही सोच रहा था कि इस का क्या फायदा, अगर कोई गलत नाम गलत पता लिखवा कर एसिड का मिसयूज़ कर ले तो उसे कैसे ढूंढोगे।
जो भी हो, एसिड को टॉयलेट की सफ़ाई के लिए इस्तेमाल करने के बहाने मार्कीट में खुले बिकने देना जोखिम से खाली नहीं है, घर के बाहर चल रही युवतियां की सुरक्षा करना हम सब का साझा दायित्व भी है, आप क्या कहते हैं?

शुक्रवार, 19 जुलाई 2013

तेज़ाब से मौत नहीं होती, तेज़ाब हर पल मारता है...भाग १

कितने हादसे हो गये, छोटी छोटी बच्चियों की ज़िंदगीयां खराब कर डालीं इन तेज़ाब फैंकने वाले हैवानों ने।
दस दिन पहले की बात है मुझे अजमेर स्टेशन पर कुछ काम था, मैं बाहर निकला तो मुझे कुछ किताबें खरीदनी थीं, किसी ने बताया कि सामने ही चूड़ी बाज़ार है, बस वहां से बाएं मुड़ेंगे तो किताबों की दुकानें आ जाएंगी।
मैं जिस रास्ते से जा रहा था तो मैं एक दो दुकानों को देख कर हैरान रह गया कि वहां पर एसिड दुकान के बाहर रखा पड़ा था, बोतलों में --पीले रंग का तेज़ाब...वैसे तो कोई खास बात नहीं, एसिड खरीदना वैसे कौन सा इतना मुश्किल काम रहा है, कोई भी जा कर ले आए। लेकिन जिस तरह से बोतलें तैयार कर उसे दुकान के बाहर रख छोड़ा गया था, उसे देख कर मुझे किसी शरारत, दुर्घटना के अंदेशे का ध्यान आ गया।
कितना घिनौना और पाशविक काम है किसी ठीक ठाक बंदे पर तेज़ाब फैंक कर उस की ज़िंदगी को नर्क बना देना।
९जुलाई २०१३ का दैनिक भास्कर (जयपुर) देख कर आस बंधी ....
बगैर कानून िबक रहा है तेज़ाब, सुप्रीम कोर्ट में अहम् सुनवाई आज..... सुप्रीम कोर्ट ने केन्द्र सरकार को चेतावनी दी है कि वह एसिड बेचने के कायदे तय करे। वरना कोर्ट इसकी बिक्री पर ही रोक लगा देगी। 
भास्कर में संपादकीय भी उस दिन था -- तबाही रोकने के लिए तेज़ाब पर ही रोक लगानी चाहिए......
जब पूर्व प्रधानमंत्री एच डी दैवेगोड़ा की पत्नी चेन्नमा पर तेज़ाब फेंका गया तो सारा राष्ट्र भौंचक रह गया था। बारह वर्ष हुए उस वारदात को। उन की पुत्रवधु भी इस हमले का शिकार हुई थी। मामला पारिवारिक कलह का था। हमलावर उन का भतीजा लोकेश था। पूजा कर हरदनहल्ली के शिव मंदिर से बाहर निकली थीं चेन्नमा। लोकेश के हाथ में एक बाल्टी थी। ऊपर पूजा के फूल सजे थे। नीचे तेज़ाब भरा था। वही फैंका। पुलिस को कोई शक न हो सका।
कोई हथियार इतना सस्ता, इतनी आसानी से मिलने वाला और इतनी सरलता से हमले में काम आने वाला हो ही नहीं सकता जितना कि तेजाब। और कोई दूसरा हथियार जिस्म और इंसानियत की ऐसी तबाही नहीं ला सकता, जितना कि तेज़ाब। क्योंकि इसे सुरक्षाकर्मी, स्कैनर, मैटल डिटेक्टर पकड़ ही नही ंसकता, सीसीटीवी भी नहीं।
तेज़ाब से मौत नहीं होती, तेज़ाब हर पल मारता है। 
तेज़ाब फैंकने वाले किस कदर हैवान होते हैं, इसका सबसे हैरान कर देने वाला वाक्या ईरान का अमीना केस है। चलिए इस के बारे में अगली पोस्ट में बात करते हैं।