रविवार, 6 जून 2010

इंटरनेट लेखन के दांव-पेच..... पाठ संख्या 4

क्यों दूं मैं लिंक अपने लेख में? मेहनत करूं मैं और इस का फल चखें बाकी सब? मुझ से यह ना होगा कि मैं सब को बताता फिरू कि अपने लेख के आइडिया मुझे आते कहां से हैं? क्या ज़रूरत है सारे जग को बताने की इतनी बढ़िया जानकारी आखिर नेट पर पड़ी कहां है ? --- अजीब सी बातें लगती हैं ना दोस्तो, लेकिन यह वेब-राइटिंग वाला ट्रेनिंग कोर्स से पहले मेरी सोच बिल्कुल ऐसी ही थी।
लेकिन इस इंटरनेट लेखन के प्रोग्राम के दौरान नेट पर कंटैंट मुहैया करवाने के बारे में मेरे विचारों में इतना शिफ्ट आया कि मैं ब्यां नहीं कर सकता। जब मैंने कोर्स ज्वाइन किया तो मेरे आइडिया बिल्कुल फिक्सड कि यार, क्या मुसीबत है अपने लेखों में तरह तरह के लिंक देने की ज़हमत उठाने की। जिसे ज़रूरत होगी खुद ढूंढ लेगा---ऐसे संकीर्ण विचार मैंने अपने मन में पाल रखे थे।
लेकिन इंटरनेट लेखन पर वर्कशाप में शिरकत करने पर सही में पता चला कि इंटरनेट की आत्मा आखिर है क्या? -- जब हम इंटरनेट (अंतर्जाल) की बात करते हैं तो हमें मकड़ी के जाल की तरह एक दूसरे के कंटैंट पर लिंक तो करना ही चाहिये। दरअसल इंटरनेट की सुंदरता ही इस लिंक्स की वजह से है ---इस लिये एक अहम् सबक जो मैं उस वर्कशाप से लेकर आया और जिसे मैं हमेशा प्रैक्टिस भी करूंगा -----लिंक लगाएं, लिंक लगाएं और लिंक लगाएं।
लेकिन अपने लेखों में लिंक (हाइपरलिंक) लगाने के भी कुछ संदर से कायदे हैं, नियम हैं जिन्हें मानने से वे लिंक हमारे लेखों की शोभा में चार चांद लगा देते हैं। हां, तो मैं बात कर रहा था कि इस वर्कशाप से पहले मैंने जितना भी कंटैट अपने ब्लॉग पर डाला है उस में लिंक ही नहीं डाले --इस का कारण मैं पहले ही बता चुका हूं।
लेकिन वर्कशाप से लौटने के बाद मैंने जो भी लिखा है उस पर समुचित लिंक डाले हुये हैं--- एक फायदा यह भी है कि लिंक डालने से हमारी ही विश्वसनीयता बढ़ती है और इस से बढ़ कर वैसे देखा जाए तो है ही क्या? अब अगर मैं किसी इलाज की समीक्षा कर रहा हूं, किसी नईं दवाई के बारे में लिख रहा हूं तो क्या एक लिंक के द्वारा पाठकों को यह जानने का भी अधिकार नहीं है कि आखिर मेरी जानकारी का स्रोत क्या है ? मेरे कुछ भी कहने को वे आखिर मानें क्यों ? --क्या पता कुछ लिखने के पीछे मेरा कोई निजी स्वार्थ हो !!
और दूसरी बात यह है कि हम अपने पाठकों को जितने विकल्प देंगे, वे हमारे लेखों पर आने में उतनी ही रूचि दिखायेंगे। लेकिन जब तक समझ नहीं थी तो मैं भी कहां इस तरह के विकल्प देकर राजी था, बस अपना ही राग अलापने में सुख मिलता था। लेकिन फिर धीरे धीरे अपने लेखों में अपनी ही अन्य पोस्टों के लिंक (internal links -- इंटरनल लिंक्स) देने लगा ---- फिर बाद में बाहर के लिंक्स (external links) देने की हिम्मत आने लगी.
हिम्मत शब्द का इस्तेमाल इसलिये कर रहा हूं क्योंकि शूरू शूरू में शायद हमें लगता है कि पहले ही इतनी मुश्किल से कोई पाठक हमारे लेख तक पहुंचा है, बाहर का लिंक देने से तो कहीं यह भी न भाग जाये। लेकिन यह इंटरनेट -- web 2.0 की भावना नहीं है,आज इंटरनेट की स्पिरिट है, बात करने की , बात सुनने की, पाठकों को अधिक से अधिक विकल्प मुहैया करवाने की-----पाठक हमारे एक लेख से अगले पल कहीं और उस से अगले पल कहीं और पहुंचता है तो आखिर हमें एतराज़ क्यों? नेट पर हम भी तो ऐसा ही करते हैं जहां हमें बेहतर विक्लप मिलते हैं हम उधर घूमने निकल पड़ते हैं।
और तो और, हम लोग जब नेट पर कोई लेख आदि देख रहे होते हैं तो इतनी सूझबूझ से लगाये गये लिंकों की वजह से हमारा काम कितना आसान और अनुभव कितना सुखद हो जाता है ----तो हम दूसरों को विशेषकर हिंदी के पाठकों को इन सुखों से क्यों वंचित रखें? यह मैं इसलिये कह रहा हूं क्योंकि हिंदी के लेखों में, चिट्ठों के अलावा भी विभिन्न हिंदी न्यूज़-साइटों पर मुझे इन लिंक्स की कमी खलती है। इस से कहीं न कहीं लेखक की क्रेडिबिलिटी पर चाहे बिलकुल फीका ही सही लेकिन चिंह तो लगता ही है।
हमें उस वेब-राइटिंग वर्कशाप के दौरान यह भी आभास दिलाया गया कि ये जो हाइपरलिंक्स हैं, ये सारे लेख में अच्छे ढंग से बिखरे से हों, ऐसी कोशिश रहनी चाहिए --- हमारे ट्रेनर्ज़ शब्द इस्तेमाल करते थे ---links should be sprinkled throughout the online article. लेकिन लिंक बस नाम के लिये ही टिका देने से भी पाठक चिढ़ से जाते हैं और समझ जाते हैं।
केवल अपने लेख से संबंधित लिंक ही डालें ---- और लिंक्स हम लोग नेट पर मौजूद फोटो के लिये और दूसरे तरह के रिसोर्सेज़ के लिये भी डाल सकते हैं। आप देखिये यह जो आज कल हम लोगों के चिट्ठों पर यह आइकन लगा है ---आप इसे भी पसंद करेंगे और इस के साथ ही तीन-चार पुरानी पोस्टें दिखती हैं, यह भी अच्छा आइडिया है (मेरे ब्लॉग पर भी यह लगा हुआ है) ।
लेकिन लिंक डालते समय इस बात का भी ध्यान रखें कि एक ही लेख में एक लिंक को दोबारा न टिकाया जाए। इस से पाठक को खुन्नस आती है------और डैड-लिंक्स ----Dead links --- बाप रे बाप, इन का तो विशेष ध्यान रखें ----पाठक ने किसी लिंक पर क्लिक किया और वह डैड-लिंक (अर्थात् कोई पेज खुला ही नहीं) निकला तो समझ लें पाठक नाराज़।
हम सब चाहते हैं ना कि हमारे चिट्ठे के लिंक लोग अपने लेखों में, अपने चिट्ठों पर डालें लेकिन पता नहीं हम दूसरों के लिये क्यों आलसी बन जाते हैं --आज जब मैंने इन दांव पेचों को आप के साथ बांटना शुरू किया तो मैंने रवि रतलामी जी के ब्लाग का और समीर लाल जी के ब्लाग का ज़िक्र किया तो मेरा कर्तव्य बनता था कि मैं वहां इन के चिट्ठों के लिंक देता ......लेकिन बस छोटे छोटे कामों के लिये यह आलस के कीड़े का बहाना सा बनाने की आदत हो गई है -----------------लेकिन आप कभी भी लिंक्स डालने में आलस न करें-----यह हमारे लेखन को निखारता है, पारदर्शिता के साथ साथ हमारे कहे को विश्वसनीयता प्रदान करता है।

3 टिप्‍पणियां:

  1. कोई भी लेखन हो विश्वसनीय होना उसकी बड़ी शक्ति है.

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  2. आज ही देखा आपका यह ब्लॉग ... खास कर यह आलेख ... बेहद उम्दा और जरूरी जानकारी मिली ... आपका बहुत बहुत आभार ... और साथ साथ पाबला जी का भी जिस से मुझे आपकी इस पोस्ट का लिंक मिला !

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इस पोस्ट पर आप के विचार जानने का बेसब्री से इंतज़ार है ...