शुक्रवार, 2 अगस्त 2024

कारवां गुज़र गया ...ग़ुबार देखते रहे ..(मो. रफी की याद में)


उस दौर के गवाह हैं हम जब लोग सिनेमा देखने जाते थे तो सिनेमा के कंपाउंड में उस फिल्म के गीत या कभी कभी स्टोरी की एक छोटी सी बुकलेट भी बिका करती थी....25 पैसे की या 50 पैसे की ...लेकिन हमारे से भी पहले दौर में यह आठ-दस पैसे की भी बिका करती थीं...मुझे इसलिए यह पता है कि कईं बार किसी एंटीक शॉप में ये दिख जाती हैं....अब वही 10 पैसे वाली बुकलेट ...दरअसल बुकलेट भी नहीं,एक पेम्फलेट जैसा कागज़....अब यह 100 रूपए और कभी कभी 150 रूपए में बिकती हैं....यह खरीदने वाले कीे बेचैनी पर मुनस्सर होता है ....क्योंकि एक बार ऐसी आइटम दिख गई ....फिर कभी दिखने का चांस लगभग शून्य के बराबर होता है ...मैंने भी कुछ खरीदी हुई हैं ....

खैर, फिर अगला दौर होता था ...जब फिल्म देख ली...तो उस के बाद जब भी रेडियो पर गीत बजता और उस पन्ने को उठा लिया जाता और रेडियो पर बज रहे गीत के साथ साथ उसे भी गुनगुनाया जाता ....जब मुझे मुखड़े या पहले अंतरे तक पहुंचते ही यह पता चल जाता कि यार, अपनी आवाज़ तो बिल्कुल गधे जैसी निकल रही है....यह तो मज़ाक बन रहा है....चुपचाप उसे मन ही मन गुनगुनाने लगते ....

फिर दौर आया ....गायकों की किताबों का ...जिसमें उन के 100,150, 200 गीतों के बोल लिखे होते ....लता, रफी, मुकेश, महेंद्र कपूर के गीत ...ये किताबें इतनी पापुलर थीं कि फुटपाथ पर भी बिकती थीं...उन दिनों खरीदी किताबें कब कहां रद्दी में चली गईं, या बाढ़ की चपेट में आ गईं....पता ही नहीं चला.....40 साल बाद उन को एंटीक की दुकानों से खरीदना पड़ा ....कभी कभी उन के पन्ने अभी भी उलट लेता हूं...

गीतों की लिस्ट ....यू-ट्यूब पर बनती है, प्ले-लिस्ट और भी कईं एप्स पर .....लेकिन जो लिस्ट किसी म्यूज़िक कंसर्ट में बैठ कर वहां गाए हुए गीतों की होती है, उस का तो जवाब ही नहीं हो सकता....मैंने भी पिछले 11-12 बरसों में बहुत से म्यूज़िक कंसर्ट देखे ....सभी के सभी लखनऊ में या बंबई में .....और अकसर मैं उन गीतों की पहली लाइन गूगल कीप पर लिख लेता हूं ....उस लिस्ट का क्या करता हूं ...वह कभी बाद में बताऊंगा....और हां, यह लिस्ट-विस्ट बनाने का काम इसलिए हो पाता है क्योंकि मुझे नहीं याद कि मैं कभी किसी म्यूज़िक-कंसर्ट में लेट पहुंचा हूं ....बिल्कुल बचपन जवानी में फिल्म देखने की तरह ...वक्त से पहले ही पहुंच जाता हूं....पहले ट्रेलर देखते थे ...थियेटर के आस पास से थोड़ी पेट-पूजा कर लेते थे, फ्रेश भी हो लेते ....फिल्म के हाल में घुसने से पहले यानि एक दम टनाटन ...पेट भरा हुआ....मूत्राशय खाली हुआ ....ताकि बीच में कहीं बसंती की कोई चुलबुली बात मिस न हो जाए, और गब्बर जब अपने चमड़े की बेल्ट हवा में उड़ाते हुए दहाडे तो कहीं मूत्राशय के किवाड़ न खुल जाएं.....


परसों 31 जुलाई को रफी साहब की 44 वीं बरसी थी और इस मौके पर षणमुखानंद हाल में हाल की तरफ़ से और रफी साहब के परिवार की तरफ़ से इस प्रोग्राम में जाने का मौका मिला....शायद से पहली बार हुआ कि हम लोग वहां लगभग आधा घंटा लेट पहुंचे थे ...सच मानिए कभी कालेज में किसी लेक्चर के छूटने का इतना दुःख नहीं हुआ ....इतना क्या, बिल्कुल भी नहीं हुआ....इसलिए गीतों की लिस्ट बनाने का मन ही न हुआ...वैसे भी रफी साहब के गाए गीतों की क्या लिस्ट बनाएं....मां की लोरी के साथ साथ उन के गीत रेडियो, लाउड-स्पीकर पर बचपन ही से हमारे दुःख-सुख के साथी रहे हैं....उन के गीतों में समंदर में मेरे जैसा चार फुट गहरे स्विमिंग पूल में फुदकने वाला क्या डूबेगा....इसलिए प्रोग्राम का आनंद लेते रहे और मैंने सोचा कि जब कोई एक गीत ऐसा आएगा जब मैं वीडियो बनाने से अपने आप को रोक नहीं पाऊंगा तो बस वह एक व्हीडियो बना लूंगा ....


षणमुखानंद हाल खचाखच भरा हुआ था ....अभी लिखते लिखते ख्याल आया कि मैं किसी भी प्रोग्राम के बाद इस तरह की पोस्ट लिखने क्यों बैठ जाता हूं...उस का कारण यह है कि मुझे हमेशा लगता है कि जिन हसीं पलों को मैंने उस हाल में जीया ....उस का थोड़ा सा ज़ायका ही सी दूसरे लोगों तक भी पहुंचे ....और ऐसा करने में मेहनत तो लगती है ...(अब मैं टोका-टोकी करने वालों की परवाह नहीं करता, मैं उन की छटपटाहट समझ सकता हूं....हैं इक्का दुक्का.....मेरे एक साथी ने मुझे दो तीन साल पहले सलाह दी थी कि यार, मार गोली ...दफा कर ...जो काम करने में खुशी मिलती है, लगा रह  ....लोगों का क्या है, कुछ तो लोग कहेंगे...लोगों का काम है कहना...) ...और एक कारण यह है कि खास लोग हैं जिन को मैं चिट्ठी नहीं लिख पाता हूं ....इसलिए इस तरह की पोस्टें चिट्ठी का भी काम करती हैं... और एक कारण है, बडा़ खुदगर्जी वाला कि इस से इस तरह का कंटेंट एक जगह संभला रहता है ...बाद में कभी देखने से मन खुश हो जाता है, जैसे की अभी मैं बाद में 12 बरस पहले की एक वीडियो शेयर करूंगा और बताऊंगा उस के बारे में ...) 

रफी साहब बडे़ सूफी, रब्बी, बहुत नेक इंसान थे ....उन की दरियादिली के किस्सों से यू-ट्यूब भरा पड़ा है ....बहुत ही पारिवारिक इंसान थे, थोडे़ से शर्मीले भी ....(लेकिन यह शर्मीलापन कभी उन के गीतों में तो हमें नहीं दिखा....).....और जो पंजाबी जानने वाले थे उन के साथ ठेठ पंजाबी में ही बात करते थे ....हां,पंजाबी से याद आया....उन्होंने पंजाबी गीत और पंजाबी फिल्मों के भी बहुत से गीत गाए....मुझे इस वक्त मेरे स्कूल कालेज के दिनों में आई एक फिल्म लाडली का उन का गाया एक गीत चेते आ गया.....बहुत बजा करता था यह हमारे रेडियो पर ....सानूं ज़ोरां नाल लग्गी ए प्यास गोरिए....। दो दिन पहले मैं बीबी रंजीत कौर (एक महान पंजाबी गायिका) की एक इंटरव्यू सुन रहा था जिसमें वह उन के साथ गाए हुए गीत याद कर रही थीं....वह बता रही थीं कि जब उन्होंने ऱफी साहब के साथ पंजाबी फिल्म का गीत गाने का मौका मिला तो वह सातवें आसमां पर थीं...क्योंकि वह तो खुद रफी साहब के गीतों की इतनी बड़ी फैन थी....(और मैं बीबी रंजीत कौर के गीतों का फैन जो उन्होंने मो. सदीक के साथ गाए...बहुत सुनता था...कैसेटें खरीद खरीद कर ....साईडें बदल बदल कर, कैसेट को आगे पीछे खिसका-2 कर मैंने अपने इकलौते टू-इन-वन का हैड कईं बार खराब कर लिया था...अब इतने पैसे भी नहीं होते थे कि बार बार हैड चेंज करवा लिया जाए...जैसे तैसे खुद ही उसे साफ करने का जुगाड़ करना पड़ता...कभी चल जाता, कभी मायूस होना पड़ता। हां, बीबी रंजीत कौर रफी साहब के साथ गाए हुए जिस पंजाबी फिल्म का ज़िक्र कर रही थी, वह पंजाबी फिल्म सैदां जोगन का था ....हस बल्लिए, नहीं ओ हसना...., आप भी सुनिए, हम ने तो बहुत सुना है ...अभी भी सुनते हैं। मुझे भी यह गीत बहुत पसंद है। 

रफी साहब की तो बात क्या करें, उन्होंने बहुत सी ज़ुबानोंं में गीत गाए हैं...और धार्मिक गीत भी ऐसे ऐसे गाए हैं जो कि बेहद लोकप्रिय हैं...हां, प्रोग्राम के दौरान जब वह गीत पेश किया तो सारा हाल जैसे झूमने लगा....परदा है परदा....(अमर अकबर एंथोनी)

कल भी प्रोग्राम के दौरान बीच बीच में पुराने लोग इस दरवेश मो रफी की बातें याद कर रहे थे ....एक शख्स ने बताया कि रफी साहब और माला सिन्हा पास पास ही रहते थे ...एक बिल्डिंग के फासले पर....एक बार माला सिन्हा रफी साहब के पास गईं कि चेरिटी के लिए ....एक चर्च के लिए शो करना है , आप करेंगे क्या। रफी साहब ने कहा कि क्यों नहीं। और वह चैरिटी शो जब इसी षणमुखानंद हाल में हुआ तो उन्होंने और माला सिन्हा ने 3 घंटे तक अपनी गायकी से श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर दिया.....और जब प्रोग्राम के बाद आर्गेनाईज़र रफी साहब को उन को एन्वेल्प देने लगा तो उन्होंने लेने से इंकार कर दिया यह कहते हुए कि यह तो एक भले-मकसद के लिए था ...चेरिटी थी....

यह कोई अकेला किस्सा नहीं है, रफी साहब की दरियादिली का, नेकनियती का .....अनेकों अनेक ऐसे प्रेरणादायी संस्मरण हैं लोगों के पास शेयर करने के लिए...लेकिन हमें फुर्सत ही कहां हैं किसी की सुनने की .....
 
प्रोग्राम के दौरान एक सुपर सीनियर सिटीज़न आए....उन्होंने एक बात जब शेयर की तो हाल में बैठे लोगों के रोंगटे खड़े हो गए...सभी लोग तालियां बजाने लगे...उन्होंने बताया कि रफी साहब जो 31 जुलाई 1980 को इस जहां से रुख्सत हुए....उन को सांताक्रुज़ कब्रिस्तान में सुपुर्द-ए-ख़ाक किया गया....वह बताने लगे कि उन्होंने अपने साथियों के साथ मिल कर सोचा कि जहां पर रफी साहब दफन हैं, उस जगह को थोड़ा देकोरेट किया जाए....लेकिन उन्होंने बताया कि इस्लाम मेंं इसकी इजाज़त नहीं है ...उन्होंने बड़ी नामचीन फिल्मी हस्तियों का नाम लेकर बताया कि ये सब हस्तियों को भी उसी कब्रिस्तान में सुपुर्द-ए-ख़ाक किया गया था, लेकिन उन सब की कब्रें रिप्लेस हो चुकी हैं.........लेकिन रफी साहिब की कब्र एक ऐसी वाहिद कब्र है जिसे किसी ने आज तक इन 44 बरसों में छुआ तक नहीं...इस तरह का था रफी साहब का आम लोगों से जुड़ाव ....और लोगों की उन के लिए मोहब्बत....🙏

और हां, सुपर सीनियर सिटीज़न की बात हुई तो मुझे एक दूसरे लगभग या उस के भी परे पहुंचे सुपर सीनियर सिटीज़न याद आ गए ....कल जब मो. रफी साहब का एक गीत पेश किया जा रहा है, तो वह अपने पूरी तबीयत से नाच रहे थे ...उन्हें देख कर वही बात याद आई कि उम्र का क्या है, नंबर है एक ...इंसान के अंदर का बालपन हमेशा ज़िंदा रहना चाहिए ..



प्रोग्राम के आखिर में जो गीत पेेश किया गया ....वह भी लाजवाब है ....


कारवां गुज़र गया, ग़ुबार देखते रहे ....इसे लिखने वाले महान गीतकार थे .गोपालदास नीरज ..आज इस पोस्ट के बहाने उन को भी याद करने का मौका मिला....आज से 10-11 साल पहले लखनऊ में उन के 90 वें जन्मदिन के मौके पर एक प्रोग्राम में शिरकत करने का मौका मिला ..उस के अगले साल भी ...वहां उन को सुनने का भी मौका मिला था....उस दिन का यह छोटा सा वीडियो भी देखिए....वह कह रहे हैं ....बम्बों और बारूद की भाषा ऐसी भाई दुनिया को ...आग लगाना याद रहा, हम आग बुझाना भूल गए....


उन के जन्मदिन वाले प्रोग्रामों में उन के लिखे हुए सुपर डुपर गीत जब पेश किए जाते तो खचाखच भरा हुआ सारा हाल झूमने लगता.....शोखियों में घोला जाए..फूलों का शबाब, देख भाई ज़रा देख के चलो, आज मदहोश हुआ जाए रे, मेघा छाए आधी रात, जब राधा ने माला जपी शाम की, लिखे जो खत तुझे ...इस तरह के अनेकों गीत उन की कलम से निकले तोहफे हैं.....अरे भाई, मैं कैसे वह गीत भूल गया...खिलते हैं गुल यहां...खिल के बिखरने को ... लिखते लिखते उंगलियां थक जाती हैं सच में, लेकिन इन लोगों ने जो खजाना हमें सौंपा है, हम तो उस को लिख ही नहीं पाते, हां, इन को जब बजता सुनते हैं तो झूमने ज़रूर लगते हैं.... 



मो रफी साहब के अनेकों गीत हैं, इस वक्त मुझे उन का गाया यह गीत याद आ रहा है .....जब से होश संभाली है, 5-6 बरस की उम्र से ...इसे पहले रेडियो पर, फिर टीवी पर, हर जगह बजते देखा....


लिखना तो अभी और भी कुछ है ....लेकिन कभी कभी लिखते लिखते भी मन ऊब सा जाता है ....चलिए, फिर, आज इतनी बातें लिख कर लिफाफा बंद करता हूं...