आज जो मैंने एक खबर देखी कि अमीर देशों में लोग डिप्रेशन के ज़्यादा शिकार होते हैं .. अमेरिका में ही कहा जा रहा है कि 30 प्रतिशत से भी ज़्यादा जनसंख्या अवसाद में डूबी हुई है लेकिन साथ ही भारत का भी नाम लिखा हुआ है कि यहां भी अवसाद के बहुत से केस हैं। मैडलाइन पर यह खबर दिखी .. Depression higher in wealthier nations.
भारत में अवसाद के अधिकतर रोगियों की समस्या यह है कि वे कभी किसी मनोरोग विशेषज्ञ के पास गये ही नहीं... अब इन के किसी विशेषज्ञ के पास न जाने के दो पहलू हैं...इसी हम सीधा यह नहीं कह सकते कि ये किसी विशेषज्ञ से परामर्श न लेकर ठीक नहीं कर रहे।
कभी कभी मीडिया में बताया जाता है कि अवसाद जैसे रोगियों की संख्या भारत में बहुत ज़्यादा हैं लेकिन अकसर लोग सोचते हैं कि इस के बारे में किसी विशेषज्ञ के पास जाने से उन की लेबलिंग कहीं यह न हो जाए कि इस का दिमाग खिसका हुआ है, चाहे है यह भ्रांति लेकिन है तो !
मैडीकल नज़रिये से नहीं कह रहा हूं और न ही कह सकता हूं ...लेकिन व्यक्तिगत विचार लिख रहा हूं कि बहुत कम लोग हैं जो डिप्रेशन के लिये अंग्रेज़ी दवाईयां लेकर ठीक होते मैंने देखा है। हां, अगर अवसाद इस तरह का है कि दैनिक दिनचर्या में ही रूकावट पैदा होने लगी है... तो समझा जा सकता है कि एमरजैंसी उपाय के रूप में थोड़ी अवधि के लिये अंग्रेज़ी दवाईयां लेना उचित सा लगता है। एक बार फिर से लिख रहा हूं कि यह मेरी अनुभूति हो सकती है ...क्योंकि मैंने अकसर देखा है कि इस तरह की दवाईयां लेने वाले सुस्त से रहते हैं ....वो चुस्ती वाली कोई बात देखी नहीं। और भी एक बात है कि लोगों के मन में यह भी डर रहता है कि कहीं इन दवाईयों की लत ही न लग जाए ....अब काफ़ी हद तक लोगों का यह सोचना ठीक भी है।
अच्छा, अवसाद के लिये श्रेष्ठ चिकित्सक है आप का फैमिली डाक्टर जो आप के सारे परिवार को, स्रारी पारिवारिक परिस्थितियों को जानता है ... अकसर मनोरोग चिकित्सक के पास आम लोग जा ही नहीं पाते ... उन के पास भी काउंसिलिंग तकनीक द्वारा मरीज को अवसाद से बाहर निकालने की क्षमता होती है लेकिन मैंने यह देखा है लोग अकसर इस चक्कर में पड़ते नहीं... बस, यूं ही कुछ भी जुगाड़ कर के अपने आप इस अवसाद की खाई से बाहर निकलते रहते हैं, फिर फिसलने लगते हैं, फिर किसी सहारे की मदद मिल जाती है।
चाहे हम कुछ भी कहें अभी भी भारत में ऐसी परिस्थितियों के लिये सोशल-बैकअप भी काफ़ी हद तक कायम ही है ....थोड़ा बहुत अवसाद घेरने लगता है तो किसी के यहां मिलने चले जाते हैं, कोई इन्हें मिलने आ जाता है, हंसी ठठ्ठा हो जाता है, बस मजाक मजाक में इन्हें अच्छा लगने लगता है।
और एक खूबसूरत बात देश में यह है ...अधिकांश लोग अपनी आस्था के अनुसार किसी मंदिर, मस्जिद, गुरूद्वारे या किसी अन्य धर्म-स्थल में जा बैठते हैं ...कीर्तन –पूजा-पाठ , भजन, प्रवचन करते हैं, सुनते हैं और इन्हें अच्छा लगने लगता है। कहने का मतलब यही है कि यहां बैक-अप है, लोग अभी भी आपस में बात करते हैं, त्योहार एक साथ मनाते हैं, हर्षोल्लास में भाग लेते हैं ..............यही ज़िंदगी है ... बाकी तो जितना किसी मैडीकल विषय की पेचीदगीयों में पड़ेंगे, कुछ खास हासिल होने वाला नहीं है।
और ये जो बातें मैंने लिखी हैं अवसाद से निकलने के लिये ये कोई अंधश्रद्धा को बढ़ावा देने वाली नहीं हैं....मैं ऐसे अध्ययन देख चुका हूं जिनमें विकसित देशों के वैज्ञानिकों ने यह सिद्ध कर दिया है कि जो लोग आध्यात्मिक बैठकों आदि से जुडे रहते हैं वे अकसर ऐसी तकलीफ़ों से दूर रहते हैं......अच्छा, आप एक बात बताईए, आप जिस भी सत्संग में जाते हैं वहां आप को कभी कोई उदास सा, बिल्कुल हारा हुआ, बिल्कुल चुपचाप, गुमसुम बंदा दिखा है....................कोई जल्दी नहीं, आराम से सोच विचार करना कि आंकड़ें चाहे जो भी कहें कि इतने ज़्यादा भारतीय अवसाद के शिकार हैं, लेकिन फिर भी ये सीमित संसाधनों के बावजूद भी, बहुत सी दैनिक समस्याओं को झेलते हुए ..बस किसी तरह खुश से दिखते हैं।
इसीलिए मुझे कोई उदास सा प्राणी दिखता है तो मैं उसे किसी मनोरोग विशेषज्ञ का रूख करने की बजाए किसी सत्संग में जाने की सलाह दिया करता हूं ... मनोरोग विशेषज्ञ चाहे कहें कि मैं ठीक नहीं करता ....लेकिन मैं तो ऐसा ही ठीक समझता हूं और ऐसा ही करता हूं।
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अवसाद के लिए टेबलेट -- हां या ना?
भारत में अवसाद के अधिकतर रोगियों की समस्या यह है कि वे कभी किसी मनोरोग विशेषज्ञ के पास गये ही नहीं... अब इन के किसी विशेषज्ञ के पास न जाने के दो पहलू हैं...इसी हम सीधा यह नहीं कह सकते कि ये किसी विशेषज्ञ से परामर्श न लेकर ठीक नहीं कर रहे।
कभी कभी मीडिया में बताया जाता है कि अवसाद जैसे रोगियों की संख्या भारत में बहुत ज़्यादा हैं लेकिन अकसर लोग सोचते हैं कि इस के बारे में किसी विशेषज्ञ के पास जाने से उन की लेबलिंग कहीं यह न हो जाए कि इस का दिमाग खिसका हुआ है, चाहे है यह भ्रांति लेकिन है तो !
मैडीकल नज़रिये से नहीं कह रहा हूं और न ही कह सकता हूं ...लेकिन व्यक्तिगत विचार लिख रहा हूं कि बहुत कम लोग हैं जो डिप्रेशन के लिये अंग्रेज़ी दवाईयां लेकर ठीक होते मैंने देखा है। हां, अगर अवसाद इस तरह का है कि दैनिक दिनचर्या में ही रूकावट पैदा होने लगी है... तो समझा जा सकता है कि एमरजैंसी उपाय के रूप में थोड़ी अवधि के लिये अंग्रेज़ी दवाईयां लेना उचित सा लगता है। एक बार फिर से लिख रहा हूं कि यह मेरी अनुभूति हो सकती है ...क्योंकि मैंने अकसर देखा है कि इस तरह की दवाईयां लेने वाले सुस्त से रहते हैं ....वो चुस्ती वाली कोई बात देखी नहीं। और भी एक बात है कि लोगों के मन में यह भी डर रहता है कि कहीं इन दवाईयों की लत ही न लग जाए ....अब काफ़ी हद तक लोगों का यह सोचना ठीक भी है।
अच्छा, अवसाद के लिये श्रेष्ठ चिकित्सक है आप का फैमिली डाक्टर जो आप के सारे परिवार को, स्रारी पारिवारिक परिस्थितियों को जानता है ... अकसर मनोरोग चिकित्सक के पास आम लोग जा ही नहीं पाते ... उन के पास भी काउंसिलिंग तकनीक द्वारा मरीज को अवसाद से बाहर निकालने की क्षमता होती है लेकिन मैंने यह देखा है लोग अकसर इस चक्कर में पड़ते नहीं... बस, यूं ही कुछ भी जुगाड़ कर के अपने आप इस अवसाद की खाई से बाहर निकलते रहते हैं, फिर फिसलने लगते हैं, फिर किसी सहारे की मदद मिल जाती है।
चाहे हम कुछ भी कहें अभी भी भारत में ऐसी परिस्थितियों के लिये सोशल-बैकअप भी काफ़ी हद तक कायम ही है ....थोड़ा बहुत अवसाद घेरने लगता है तो किसी के यहां मिलने चले जाते हैं, कोई इन्हें मिलने आ जाता है, हंसी ठठ्ठा हो जाता है, बस मजाक मजाक में इन्हें अच्छा लगने लगता है।
और एक खूबसूरत बात देश में यह है ...अधिकांश लोग अपनी आस्था के अनुसार किसी मंदिर, मस्जिद, गुरूद्वारे या किसी अन्य धर्म-स्थल में जा बैठते हैं ...कीर्तन –पूजा-पाठ , भजन, प्रवचन करते हैं, सुनते हैं और इन्हें अच्छा लगने लगता है। कहने का मतलब यही है कि यहां बैक-अप है, लोग अभी भी आपस में बात करते हैं, त्योहार एक साथ मनाते हैं, हर्षोल्लास में भाग लेते हैं ..............यही ज़िंदगी है ... बाकी तो जितना किसी मैडीकल विषय की पेचीदगीयों में पड़ेंगे, कुछ खास हासिल होने वाला नहीं है।
और ये जो बातें मैंने लिखी हैं अवसाद से निकलने के लिये ये कोई अंधश्रद्धा को बढ़ावा देने वाली नहीं हैं....मैं ऐसे अध्ययन देख चुका हूं जिनमें विकसित देशों के वैज्ञानिकों ने यह सिद्ध कर दिया है कि जो लोग आध्यात्मिक बैठकों आदि से जुडे रहते हैं वे अकसर ऐसी तकलीफ़ों से दूर रहते हैं......अच्छा, आप एक बात बताईए, आप जिस भी सत्संग में जाते हैं वहां आप को कभी कोई उदास सा, बिल्कुल हारा हुआ, बिल्कुल चुपचाप, गुमसुम बंदा दिखा है....................कोई जल्दी नहीं, आराम से सोच विचार करना कि आंकड़ें चाहे जो भी कहें कि इतने ज़्यादा भारतीय अवसाद के शिकार हैं, लेकिन फिर भी ये सीमित संसाधनों के बावजूद भी, बहुत सी दैनिक समस्याओं को झेलते हुए ..बस किसी तरह खुश से दिखते हैं।
इसीलिए मुझे कोई उदास सा प्राणी दिखता है तो मैं उसे किसी मनोरोग विशेषज्ञ का रूख करने की बजाए किसी सत्संग में जाने की सलाह दिया करता हूं ... मनोरोग विशेषज्ञ चाहे कहें कि मैं ठीक नहीं करता ....लेकिन मैं तो ऐसा ही ठीक समझता हूं और ऐसा ही करता हूं।
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