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शनिवार, 23 अप्रैल 2016

हाउसिंग सोसायटी हो तो ऐसी..

जी हां, यह हमारी हाउसिंग सोसायटी पढ़े-लिखों लोगों की है ..लगभस सभी सर्विस में हैं या रिटायर्ड हैं...दरअसल नौकरी पेशा लोग जिस तरह से अपने जैसे लोगों के साथ इतने वर्षों से रहे होते हैं ..उन्हें रिटायर होने के बाद भी उसी तरह के पढ़े लिखे लोगों के साथ रहना अच्छा लगता है।

सब से बड़ी खूबी हमारी सोसायटी की यह है कि किसी बात के लिए भी चिक-चिक नहीं है...सभी कानून कायदे एकदम कड़क हैं...कोई नहीं मानेगा तो भी ये मनवा ही लेते हैं..ऐसा ही होना चाहिए। 

इतना घाटों का पानी भी नहीं पिया हम लोगों ने लेकिन जितना भी पिया है हमारी वर्तमान सोसायटी लगभग एक आदर्श सोसायटी है, मुझे तो पिछले तीन वर्षों में कोई कमी नहीं लगी..हम लोग किराये पर हैं, किराया ज़्यादा तो है ..but it is okay!

कल शाम दरवाजे पर बेल हुई..कॉलोनी का गार्ड था...बेसमेंट पार्किंग एरिया में जो लाइटें जलती है उस के १५० रूपये लेने आया था..ये तीन महीने का बिल है ...बेसमेंट में अलग बिजली का मीटर है ..तीन महीने में जितनी खपत होती है, और एक बेसमेंट में जितनी गाड़ियां खड़ी रहती हैं ...उन में वह बिल बांट दिया जाता है ...कितना बढ़िया तरीका है...वरना अकसर देखते हैं कि बेसमेंट की लाइटें कुछ बिल्डिंगों में हमेशा खराब ही रहती हैं ...और इन को दुरूस्त करवाना कोई अपनी जिम्मेदारी भी नहीं समझता...लेकिन इस तरह की shared responsibility वाली बात बढ़िया है ..आप को कैसी लगी?

कल मैंने नोटिस बोर्ड पर देखा तो एक नोटिस लगा हुआ था..पेट चार्जेज के बारे में ...मैं पहली बार कुछ इस तरह के शुल्क के बारे में पढ़ रहा था कि प्रत्येक डॉगी के लिए ५० रूपये महीना लगेगा..

हर बंदे को पार्किंग अपनी निश्चित जगह ..चाहे वह कवर्ड है या खुले में..अपने निश्चित स्थान पर ही लगानी होती है ...पहले तो कालोनी के गार्ड्स एक स्टिकर चिपका जाते थे जिस पर  लिखा रहता था कि आप अपनी गाड़ी निश्चित स्थान पर ही लगाया कीजिए...

अब कुछ समय से यह गाड़ी के पहिये पर एक कलैंप लगा जाते थे ..जिस से गाड़ी मूव नहीं कर पाती..पहले गार्ड कक्ष में जा कर ५० रूपये जुर्माना भरिए..फिर वह कलैंप खुलेगा...और सबक तो मिल ही जायेगा आगे के लिए। 

हर बात कायदे से होती है ..साफ सफाई एक दम चकाचक ..कोई कूड़ा कर्कट बाहर फैंकता ही नहीं...ये जो कुछ तस्वीरें हैं मैंने आज सुबह ही खींची हैं...साफ़ सुथरी सड़कें...सुबह शाम लोगों के टहलने के बढ़िया जगह है। 




और क्या लिखना रह गया.आज सुबह सुबह लंगूर दिख गये...ये भी कालोनी के मुलाजिम हैं पक्के ...सारा दिन कालोनी की बंदरों से हिफ़ाज़त करते हैं.. 

सिक्योरिटी पूरी तरह से कसी हुई है ...उस के बारे में ज़्यादा कुछ नहीं लिखना चाहता ..घर आने वाले वर्कर्ज़ की भी पूरी वेरीफिकेशन ...तभी कोई कालोनी के अंदर घुस सकता है ..

दैनिक ज़रूरत की सभी चीज़ें कालोनी के अंदर ही दुकानों पर मिल जाती हैं...कालोनी के गेट पर एटीएम भी लग गया है ...

सच में अपने जैसे पढ़े लिखे और अपनी वेवलेंथ वाले लोगों की कालोनी में ही रहना अच्छा लगता है ..वरना बेकार की किट-किट ...अनपढ़ या कम पढ़े लिखे लोगों से पढ़े लिखे लोग जीत नहीं सकते...किसी भी लिहाज से...यहां एक दम बढ़िया है ...सभी अकेले रहते हुए भी एक साथ हैं, और एक साथ रहते हुए भी अकेले हैं...No one intrudes into other person's space!



कालोनी की एक सड़क पर एक घर के बाहर रोज एक विचार लिखा होता है ..कभी कभी मैं इस से सहमत हो जाता हूं ..कभी कभी बिल्कुल नहीं..कभी कभी थोड़ा बहुत ...आज भी पेशेंस वाली बात लिखी है ..लेकिन यह जो अनप्लेसेंट अनुभव वाली बात है, यह मेरे पल्ले नहीं पड़ रही ...मुझे लगता है कि पेशेंस वाली बात तो केवल और केवल सत्संग में बैठ कर समझी जा सकती है या जीवन में पल पल हमें इस की ज़रूरत है ...अगर हम धैर्यवान हैं, सब्र रखते हैं ..तो ज़िंदगी बढ़िया बीतती चली जाती है ...वरना तो ...(आप जानते ही हैं!) 

आज कल कालोनी में लिफ्ट लग रही है ..वैसे तो कुछ बिल्डिंगे तीन मंजिला ही हैं...ग्राउंड प्लस टू..लेकिन कुछ वरिष्ठ नागरिकों की सुविधा के लिए अब कुछ इमारतों में लिफ्टें लग रही हैं... 



आज सुबह दिल्ली नंबर वाली एक गाड़ी का एक खुली सड़क पर इस तरह का एक्सीडेंट हुआ देखा तो बुरा लगा ...इतनी चौड़ी सड़क, इस पर ज्यादा भीड़-भडक्का भी नहीं होती..यह लखनऊ के बंगला बाज़ार पुल से तेलीबाग आने वाली सड़क पर दिखा ...जो रोड रायबरेली रोड में मिल जाती है ..कार के पिछली तरफ़ एक विवाह-शादी का स्टिकर भी लगा हुआ था ..ईश्वर सब को सुरक्षित रखे...सब लोग अपने अपने ठिकाने पर ठीक ठाक पहुंचे...ईश्वर सब की रक्षा करें...समय बहुत बलवान होता है...काश!हम लोग समय़ से डर कर रहें और हमेशा हम में ईश्वर का अहसास बना रहे। 





बुधवार, 20 अप्रैल 2016

लोग दो तरह के होते हैं...


आप को भी उत्सुकता हो रही होगी कि अब यह कौन सा नया वर्गीकरण लेकर आ गया है लोगों का ...वैसे मैं किसी भी तरह के वर्गीकरण में विश्वास नहीं करता ...लेकिन एक वर्गीकरण मेरे विचार में हमेशा से है ..एक वे लोग जो पेड़-पौधों से प्यार करते हैं और दूसरे वे जो नहीं करते।





मैं कईं बार एक बात पहले भी शेयर कर चुका हूं कि कालेज में हमारी बॉटनी के प्रोफैसर साहब ...श्री एप सी कंवल साहब हमें बहुत अच्छे से बॉटनी पढ़ाते थे..मुझे इस में बहुत रूचि थी...मैं बॉटनी ही पढ़ना चाहता था...पेड़-पौधों की बातें करना, उन के रहस्यों के बारे में जानना अच्छा लगने लगा था...तभी डेंटल कालेज वालों ने बुला लिया...थ्री-ईडिट्एस फिल्म नाम की कोई चीज़ थी नहीं...क्योंकि बीडीएस करने के बाद नौकरी मिल जायेगी ...क्योंकि कालोनी के किसी दूसरे लड़के को मिल गई थी...इसलिए हम भी डैंटल कालेज के सुपुर्द कर दिये गये ..अगले आठ साल के लिए...न चाहते हुए भी ...लेकिन वहां भी दूसरे साल तक पहुंचते पहुंचते मन टिक गया...और टॉप-वॉप करना एक बार शुरू हो गया तो बस! 

वनस्पति विज्ञान के प्रोफैसर साहब की बात करना चाहता हूं...हमें पेड़-पौधों के बारे में बहुत अच्छे से समझाया करते थे..पहली बात पता चला कि इन का भी अस्तित्व हमारी तरह ही है .. (living beings)...पू. सुंदर लाल बहुगुणा के चिपको मूवमेंट के बारे में बताते हुए वे अकसर इतने भाव-विभोर हो जाते थे कि हम सब भी इमोशनल हो जाया करते ..बाल मन वैसे भी कच्ची मिट्टी जैसा होता है ..वही मूवमेंट जिस में जब ठेकेदार के लोग गांवों में पेड़ काटने जाते तो चिपको मूवमेंट से जुड़े लोग पेड़ों के साथ चिपक जाते कि पहले हमें काटो, फिर पेड़ों को काटो...और इस तरह से पेड़ों की अंधाधुंध कटाई पर बहुत रोक लग पाई...

एक काम करिए..चिपको मूवमेंट जैसी महान मुहिम को पास से जानने के लिए गूगल करिए .. chipko movement... पूरा दिन कैसे निकल गया, पता ही नहीं चलेगा..


चलिए चिपको मूवमेंट के बारे में तो आपने जान लिया...अब मैं पोस्ट में थोड़ा सा ओपिनियन डालूंगा...ब्लॉग की सब से बड़ी मजबूरी कह लें या USP कि इस में ब्लॉगर का ओपिनियन भी शामिल होता है ...






पेड़ों के बारे में मेरे जो विचार हैं उन्हें शेयर करना चाह रहा था...ये जो मैं नीचे तस्वीरें लगा रहा हूं ये सब लखनऊ शहर की हैं...शहर के अंदर मैं अकसर देखता हूं कि लोगों की पेड़ों से बेइंतहा मोहब्बत है .. इन की पूजा-अर्चना होती है ...मैं जब किसी पेड़ के इर्द-गिर्द लाल धागे बंधे देखता हूं, उस के नीचे किसी मूर्ति पड़ी देखता हूं जिसके आस पास लाल रंग के कपड़े में लिपटे पानी के मटके और धूप-बत्ती जलती देखता हूं तो मैं बहुत खुश हो जाता हूं..यह खुशी बस इसलिए होती है कि चलिए, यह पेड़ तो कुल्हाड़ी से बच गया, इसे तो इस के आसपास के लोगों ने गोद ले ही रखा है..

जितना भी देश को देखा है यही अनुभव किया है कि जिन क्षेत्रों की पुरातन संस्कृति की धरोहर कायम हैं ..वे लोग किसी न किसी वजह से पेड़-पौधों का सम्मान करते हैं, वहां पर पेड़-पौधे बच जाते हैं ...या फिर जहां पर पेड़ बहुत कम हैं...बड़े महानगरों में जैसे ...वहां भी लोग इन के बारे में बड़े सजग हैं, इन पर कुल्हाडी आसानी से चलने नहीं देते...मैं तो इतना भी कहता हूं कि हमारा इन पेड़ों के प्रति क्या रवैया है, यह हमारी मानसिकता को भी दर्शाता है शायद..

ओपिनियन की बात करूं ...तो मैंने यह अनुभव किया कि पंजाब-हरियाणा में लोगों को पेड़-पौधों से ज़्यादा प्यार नहीं है, मैंने जैसा कि पहले कहा ...यह मेरा ओपिनियन है ..शायद आप को ठीक न लगे, लेकिन जो मैंने बचपन से अनुभव किया...अपने परिवेश में, आस पास ...यहां तक कि अपने परिवार में, उसी के आधार पर ही कुछ कहना चाहता हूं...प्रेम तो दूर, मैंने तो परिवार में भी घने, छायादार पेड़ों को मामूली कारणों की वजह से कटवाते ही देखा...इसे पेड़ों की बेअदबी ही तो कहेंगे!






हरियाणा में हाल ही के जाट अंदोलन के दौरान कितनी बड़ी संख्या में पेड़ काट दिये गये....संख्या मैं भूल गया..लेकिन वह संख्या किसी को भी रूलाने के लिए बहुत थी...काटे भी इसलिए केवल कि सड़कों पर उन्हें बिछा कर रास्ते को रोका जा सके.....जीत गये भाई, थम जीत गये....आरक्षण की बहुत बहुत मुबारकबाद।

कुछ कारण जो मैंने देखे अनुभव किए पेड़ों पर कुल्हाड़ी चलने के ...

धूप रोक रहे हैं, काटो इन पेड़ों को 
एक अहम् कारण पंजाब हरियाणा में पेड़ों को काटने का यह है कि यहां पर जैसे ही सर्दी शुरू होती है ...लोगों को बहुत सी धूप चाहिए....कितनी?...हमारी धूप की भूख इस कद्र बढ़ जाती है कि हमें पेड़ों की हरियाली की वजह से रूक जाने वाली धूप से अचानक बहुत प्यार हो जाता है ...हम तुरंत किसी मजदूर को दिहाड़ी पर लगा कर सब से पहले पेड़ को अच्छे से कटवा दिया करते हैं, धूप तो खुल के आए...कंपकंपाते हाड़ खुले तों!

यह मैं बचपन से देख रहा हूं...निरंतर ... सोचने वाली बात यह है कि क्या धूप ज़रूर उतनी ही जगह में आयेगी...थोड़ा इधर उधर बैठ कर भी धूप श्नान लिया जा सकता है ...लेकिन नहीं, हम से सहन नहीं होता कि पेड़ हमारे हिस्से की धूप को रोक लें

जब हम लोग बिल्कुल छोटे थे तो अकसर सर्दी शुरू होते ही कश्मीर से हातो आ जाया करते थे यह काम करने ...वे ३०-४० रूपये लिया करते और पेड़ लगभग सारा काट दिया करते ...वे कुल्हाडी अपने साथ ही लेकर चला करते थे...

इन बंदरों ने नाक में दम कर रखा है 
एक दूसरा कारण पेड़ों की अंधाधुंध कटाई का यह भी है जो पेड़ बड़े बड़े घरों में लगे हुये हैं उन पर अकसर बंदर आ जाते हैं...अब बंदर तो ठहरे बंदर ...उन्हें कौन शिष्टाचार सिखाए....कभी घर के किसी बाशिंदे की बनियान फाड़ दी या किसी बडे-बुज़ुर्ग को उसने आंखें दिखा दी तो उन की खैर नहीं....तेरी ऐसी की तैसी....तेरी इतनी हिम्मत ...कल सुबह ही तूरा बंदोबस्त करता हूं...सुबह सुबह किसी मजदूर को बुला कर गुस्से में पेड़ ही कटवा दिया जाता है ...न रहेगा बांस न रहेगी बांसुरी ...

पत्ते बहुत गिरने लगे हैं, पेड़ ही कटवा देते हैं
रोज़ रोज़ घर के आंगन में अगर पतझड़ के मौसम में बहुत से पत्ते गिरने लगे हैं ..तो पेड़ को ही अच्छे से कटवा दिया जाए...प्रूनिंग के नाम पर उसे उस की औकात बता दी जाती है ...बस, पत्ते गिरने बंद ..और सभी खुश...

बच्चों के पत्थरों से बचने के लिए 
कभी घर की दीवार के बाहर या अंदर लगे फलदार पेड़ों से बेर, शहतूत या आम लेने के लिए बच्चे पत्थरों का इस्तेमाल करते हैं...आंगने में गिरने वाले इन पत्थरों के चक्कर में कब किसी का दिमाग सटक जाए, कोई भरोसा नहीं, बच्चे तो भाग लिए...कोई बात नहीं, पेड़ तो है, इसी को ही बुरी तरह से कटवा छंटवा कर ही दम लिया जाता है ...अब देखते हैं पत्थर कहां से आते हैं। 





पीपल तो घर की नींव में घुस जायेगा
जितना भयभीत मैंने अपने आस पास के लोगों को पीपल जैसे पेड़ों से होते देखा है, शायद ही किसी और पेड़ से देखा हो ...इन्हें घर में पीपल का छोटा सा पौधा देख कर यही लगता है कि यह घर की नींव में घुस कर बहुत गड़बड़ कर देगा...लेकिन इसे अकसर लोग स्वयं नहीं उखाड़ते...किसी मजदूर को कहते हैं...क्योंकि अगर इसे काटने से अगर कोई पाप वाप लगने वाला इश्यू है तो वह मजदूर ही सुलटे...हम क्यों बेकार उस चक्कर में पड़ें...क्योंकि ऐसी आस्था तो है कि इस तरह के पेड़ पवित्र तो हैं लेिकन घर में नहीं, बाहर किसी जगह पर लगे हुए...जहां पर इन की परिक्रमा ली जाती है, इन पर लाल-पीले धागे बांधे जाते हैं...यह सब कुछ देख कर भी आदमी असमंजस में पड़ जाता है ..
वैसे मजदूर भी अच्छे समझदार हो चले हैं ..वे और कुछ भी काट-उखाड़ देंगे लेकिन पीपल जैसे पेड़ को काटने से मना कर देते हैं.. बहुत अच्छे!

 कीड़े-मकौड़े बहुत हो गये है, कटवाओ इस शहतूत को
कीड़े-मकौड़े अगर घर आंगन में दिखने लगें ना...जिन के छिद्रों के आस पास हम लोग पास ही के खाली मैदान में जाकर आटा डाल कर आते हैं...लेिकन अगर ये घर में दिखने लगें और एक बार यह देख लिया कि यह शहतूत के पेड़ की वजह से आ रहे हैं ...बस, फिर न कोई बचा सके इस शहतूत को...वैसे भी शहतूत काटने वाला सारा पेड़ काट भी देगा और दो टोकरियां भी दे जायेगा...चलो निपटाओ इस को भी, बुलाओ उस काटने वाले को ...मकौड़ों ने नाक में दम कर रखा है!

क्यारी में फुल-गोभी नहीं बढ़ रही तो भी यह शीशम बलि चढ़ता है 
अगर पड़ोस वाली आंटी की फुल-गोभी चंद दिन पहले तैयार हो गई और हमारी अभी बिल्कुल छोटी है तो इस पर मंथन होगा कि कहीं इस बड़े से शीशम की वजह से नीचे ज़मीन तक न धूप सही पहुंचने के चक्कर में तो सब्जी ठीक से बढ़ नहीं रही...ठीक है, कल इस कमबख्त शीशम की छुट्टी करते हैं.

शीशम को तो जड़ से निकलवा देते हैं..
एक घनी पढ़ी लिखी हमारी आंटी जी थी पड़ोस की ...वे पेड़ों की छंटाई नहीं करवाती थीं, सात आठ सौ रूपये में पूरे पेड़ को ही बेच दिया करती थीं...उन्हें हमेशा यही रहता था कि अगर जड़ रहेगी तो फिर से इन के उगने का "खतरा" रहता है। मैं कईं बार देखा करता कि आठ दस मजदूर लग जाते, सारा दिन लगा कर पेड़ काटते, फिर बड़ी मेहनत से उस की जड़ भी निकालते ...ट्राली पर डाल कर उसे सात सौ रूपये थमा कर भाग लेते...और हम जैसों के लिए बहुत से प्रश्न छोड़ जाते ...अजीब सा लगता था यह सब देखना....

पड़ोसी की शिकायत है कि पत्ते उस तरफ़ गिरते हैं, धूप रोक रखी है 
कईं बार पड़ोसी की शिकायत हो जाती है कि आप के पेड़ के पत्ते हमारी तरफ़ गिर रहे हैं, इस ने तो धूप ही रोक ली है हमारे हिस्से की...इसी चक्कर में भी बड़े, छायादार पेड़ों को कोई भी कुल्हाडी से न बचा पाता...

और भी बहुत से अनुभव हैं ...क्या क्या लिखूं....छुट्टी का दिन है, ये चित्रहार के सुंदर गीत सुनिए और छुट्टी मनाईए..बहुत दिनों से इस विषय पर मन के भाव प्रकट करना चाह रहा था... 

लखनऊ शहर में आम जन का पेड़ों के प्रति प्यार देख कर मन खुश होता है ...सर्विस में जैसे होता है ..अच्छा काम करने वालों से भी कोई न कोई तो नाखुश रहते ही हैं...एक बॉस था किसी ज़माने में ..एक बार उसने कहा कि लखनऊ भिजवा देंगे आपको ...हमें लखनऊ के बारे में बिल्कुल पता नहीं था, हमें लगा कि जैसे कि यह काला पानी भिजवाने की बात कह रहे हों, हमारे मुंह से अनायास निकल गया कि अगर लखनऊ तो नहीं जाएंगे, हम त्याग-पत्र दे देंगे...पांच छः साल तक यह सिलसिला चलता रहा ...एक बार शायद कोई हमारा त्याग-पत्र ही चाहता होगा कि चलो, इन के लखनऊ के आर्डर निकाल देते हैं...वहां तो क्या जाएंगे...नौकरी छोड़ देंगे.....लेिकन कहने की बातें और होती हैं....कौन छोड़ता है नौकरी इन छोटी छोटी बातों के लिए... हम लोग आ गये लखनऊ......इतना बढ़िया शहर, बढ़िया लोग .....अब मन में यही मलाल है कि पांच सात साल पहले ही उसने इधर भिजवा दिया होता, हम भी यहां की सभ्यता-संस्कृति को और पास से देख लेते...

बहरहाल, जो मैंने ऊपर पेड़ों की तस्वीरें लगाई हैं ये सब लखनऊ में मैंने दो दिन पहले खींची थी...मैं जहां भी घने, छायादार पेड़ देखता हूं, उन्हें निहारने लगता हूं ...कैमरे में बंद कर लेता हूं...आप अनुमान नहीं लगा सकते कि मुझे ऐसे पेड़ों को निहारने और इन के साथ समय बिताने की कितनी ज़्यादा भूख है ....

आज के इस विचार को यहीं समाप्त करते हैं.... 

ये कहां के आदिवासी हैं, दिखते तो किसी दूर-देश के हैं, लेकिन बोल-वाणी बिल्कुल बाराबंकी वाली ... 😄 😎 😄....but one of my fav. songs...इस की सी.डी मैं अनगिनत बार देख-सुन चुका हूं...my sons make fun of this!😉


लखनऊ की दो बदसूरत सड़कें जो मुझे लगती हैं वे हैं जेल रोड और व्हीआईपी रोड़...कहते हैं इस क्षेत्र में कुछ साल पहले घना जंगल था..बहुत पुराने छायादार पेड़ पौधे...अब तो इन रास्तों पर चलते हुए ऐसे लगता है जैसे आग बरस रही हो...एक भी पेड़ नहीं दिखता, बिल्कुल बदसूरत रास्ते....पता नहीं कौन प्लॉनिंग करता है, सड़क के बीचों बीच डिवाईजर पर भी पेड़ों के नाम पर कांटेदार झाड़ियां लगवा दी गई हैं...कमबख्त ये भी उमस भरी गर्मी में आने जाने वालों की आंखों में घमौड़ियों की तरह चुभती हैं। 


बुधवार, 13 अप्रैल 2016

ओए जट्टा आई वैसाखी...

आज सुबह टहल रहा था तो स्कूल के ज़माने से मित्र रमन बब्बर के अमृतसर से वैसाखी के कुछ संदेश आए...यहां पेस्ट कर रहा हूं..बहुत अच्छा लगा...इतने सजीव मैसेज पा कर...रमन बब्बर कज़िन है राज बब्बर साहब के...हर समय मुस्कुराते हैं..और हमें हंसाते रहते हैं...स्कूल के दिनों से ही ...



बाग से लौटने के बाद मैंने सोचा कि हम भी वैसाखी मना लें...जलेबियां-मिठाईयां शाम में खा लेंगे..अभी ऑनलाईन ही इस का जश्न मना लेते हैं...

 मैंने जैसे ही लिखा जट्ट मेले आ गया...तुरंत इस पंजाबी फिल्म का बढ़िया सा ट्रेलर खुल गया...मैंने सोचा चलिए कुछ शुरूआत तो हुई...यह फिल्म २२ अप्रैल को आने वाली है ...इस में जिम्मी शेरगिल ने काम किया है ..शायद कुछ न जानते हों कि जिम्मी शेरगिल हिंदोस्तान की एक महान् हस्ती अमृता शेरगिल के पोते हैं...

जिम्मी को मैंने माचिस फिल्म के प्रीमियर वाले दिन पहली बार १९९५ के आस पास बंबई के मेट्रो थियेटर में देखा था..मुझे अच्छे से याद है ..सब लोग थियेटर से बाहर आ रहे थे ..अचानक मैंने देखा कि यश चोपड़ा साहब किसी युवक से बात करते चल रहे थे...उन्होंने इस के काम की तारीफ़ की ...और अपना कार्ड जिम्मी को दिया...जिम्मी ने बड़े सम्मान-पूर्वक उन के इस अभिवादन को स्वीकार किया...

दो दिन पहले भी हम लोग टाटास्काई के मिनिप्लेक्स पर इन की फिल्म युवा देख रहे थे...आप भी ज़रूर देखिए, अभी तो इस ट्रेलर को देखिए और वैसाखी की खुशियों के रंग में रंग जाइए...
वैसाखी को दिन देश के विभिन्न प्रदेशों में अलग अलग ढंग से मनाया जाता है ..सभी ढंग मुबारक हैं...सभी जश्न का माहौल ही बनाते हैं...

पंजाब में फसल के पकने के बाद आज से इस की कटाई शुरू होती है ..इस का विशेष महत्व पंजाब के लिए इसलिए भी है क्योंकि इसी दिन गुरू गोबिंद सिंह जी ने खालसा पंथ का सृजन किया था..

मुझे लग रहा है कि आज बातें कम करूं...वह तो करता ही रहता हूं...आज इस पोस्ट को वैसाखी स्पैशल ही रहने देते हैं..


आज तो लग रहा है आप से पंजाबी गीत शेयर करता रहूं सारा दिन....इस समय जो याद आ रहे हैं...यहां एम्बेड कर रहा हूं...सैंकड़ों पंजाबी गीतों की मेरे पास कलेक्शन भी है...मुझे भी कईं बार लगता है कि लोग ठीक ही कहते हैं मैं अगर मैं इस तरह की कलेक्शनों के चक्कर में ही पड़ा रहा तो पढ़ाई वढ़ाई कब की होगी...बिल्कुल ठीक है...तभी तो कुछ भी ढंग से कर ही नहीं पाया..

जसविंदर बराड़ के खुले अखाड़े मुझे बेहद पसंद हैं.....२००५ से २०१२ तक मैं नियमित इन की सी.डी देखा सुना करता था...खुले अखाड़े का मतलब है जब ये कलाकार किसी खुले मैदान, गांव में अपने फन से लोगों को निहाल करते हैं...कोई टिकट का झंझट नहीं, कोई सिक्यूरिटी नहीं....बस आप होते हैं और ये कलाकार...आप अपनी फरमाईश करते जाइए और ये थकते नहीं....किस किस का नाम लूं...पंजाब के सभी महान गायकों के खुले अखाड़ों बड़े लोकप्रिय होते हैं क्योंकि ये आम आदमी के दिल की बातें करते हैं..सभ्याचार को पल्लित-पुष्पित करते हैं...और बहुत बार कुछ कुछ बढ़िया नसीहत भी दे जाते हैं...पहली वीडियो में बराड़ मिरजा सुना रही हैं और पहले पांच मिनट जो बातें कर रही हैं वे डायरी में तो क्या अपने मन में नोट करने वाली हैं...पंजाबी नहीं आती, तो भी सुनिए... अपने आप समझ आने लगेगी..

दूसरी वीडियो में बराड़ देश की एक आम समस्या की तरफ़ ध्यान दिला रही हैं युवाओं का ...बिल्कुल बागबान फिल्म के थीम जैसी बात कह रही हैं अपने भाईयों को घर का सारा सामान चाहे तो बांट लो, ज़मीनें बांट लो..लेकिन बापू-बेबे को मत बांट लेना, वे एक दूसरे के बिना रह नहीं पाएंगे.... 

मैंने ऊपर लिखा है ना कि प्यार, मोहब्बत, अपनेपन की कोई भाषा नहीं होती, शुक्र है जश्न का कोई कोड-ऑफ-कंडक्ट भी नहीं होता...बरसों पहले मैंने इस मराठी महिला का यह वीडियो देखा था...मेरे मन में बस गया था यह ...सरबजीत के उस सुपर-़डुपर गीत पर इतना बेहतरीन डांस किया इस महिला ने....Have you noticed she is enjoying what she is doing?...Great lady! वैसे भी कहते हैं कि नाचना, गाना अपनी रूह के लिए होना चाहिए...यानि उस समय आप को यह फिक्र न हो कि कोई देख रहा है कि नहीं... इस औरत ने वही किया है..

जाते जाते अगर टाइम हो तो गुरदास मान को भी थोड़ा सुन लिया जाए...

आज के वैसाखी के पर्व के लिए कहने को बहुत कुछ है, गीत बहुत से हैं..लेकिन अच्छा होगा इस समय आप के सब्र का इम्तिहान न ही लिया जाए...


सोमवार, 11 अप्रैल 2016

घर से ज़्यादा सेफ़ है सड़क...

कईं बार लिखना बड़ा बोरिंग सा लगता है ...लगता है कि आखिर इतनी मगजमारी किस लिए...बिल्कुल कुछ भी लिखने की इच्छा नहीं होती...उस समय मुझे मूड बनाने के लिए अपने दौर के किसी मनपसंद गीत को सुनना पड़ता है ...एक बार नहीं, दो तीन बार...

यह जो ऊपर मैंने लिखा है ..सड़क घर से ज़्यादा सेफ़...ये शब्द हैं लखनऊ के एक बड़े बुज़ुर्ग के ...परसों एक बाज़ार में यह कोई अखबार पढ़ रहे थे.. अचानक एक खून-खराबे की खबर पर मेरी नज़र गई..मैं उसे देखने के लिए रूक गया..सुबह का समय था...इन्होंने पेपर मेरी तरफ़ सरका दिया....मैंने कहा कि लखनऊ जैसी नगरी में भी यह सब कुछ...!...गुब्बार निकालने लगे कि अब तो घर आ के मार जाते हैं...आए दिन खबरें आती हैं...अब तो सड़क घर से ज़्यादा सेफ़ हैं, कहने लगे। मैं भी सोच में पड़ गया। उस ने यह भी कहां कि फलां फलां के राज में इतनी गुंडागर्दी नहीं थी..सभी लोगों को कानून को डर था...

सच में मैं लखनऊ के लोगों की नफ़ाज़त और नज़ाकत से बहुत प्रभावित हूं..यहां के लोग जब बात करते हैं ऐसा लगता है जैसे कानों में मिशरी घोल रहे हों...बेशक यह तो खूबी है यहां लोगों में...और यह इन की जीवनशैली ही है...इस के लिए इन्हें १०० में से ९९ नहीं, १०० नंबर ही मिलने चाहिए...

 मैं भी यहां पिछले तीन सालों में कुछ कुछ सीख गया...और इस के लिए मेरा असिस्टेंट का बड़ा रोल है...उस का सभी से बातचीत करने का ढंग इतना आदरपूर्ण एवं शालीन है ...मुझे तीन सालों में एक बार किसी मरीज़ ने कहा कि आप के असिस्टेंट को बात करने की तहजीब नहीं है...मैंने उसे कहा कि कोई और बात होती तो मैं मान भी लेता, उस के पास रहने से मैं कुछ कुछ सीखने लगा हूं...


बात चीत की बात हो गई ...कर्मकांड की बात भी ज़रूरी है, कर्मकांड में भी एकदम फिट हैं लखनऊ के लोग, पूजा-अर्चना, दान दक्षिणा...सब में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेते हैं...घरों के बाहर पशु-पक्षियों के लिए और जगह जगह प्याऊ दिख जाते हैं...इस पोस्ट में सभी तस्वीरें आज की ही हैं...





यहां की गंगा-जमुनी तहजीब के खूब चर्चे हैं ही ..लेकिन एक बात उस के बारे में यह है कि एक बार मैंने एक साहित्यिक गोष्ठी में शहर की एक नामचीन वयोवृद्ध महिला को यह कहते सुना कि आपसी मिलवर्तन का बस यही मतलब नहीं कि आपने किसी के यहां जा के उन के त्योहारों पर सेवईयां खा लीं और उन्होंने आप के होली पे गुझिया खाईं...उन्होंने कहा कि ये भी ज़रूरी हैं, बेशक, लेकिन इन प्रतीकों से आगे बढ़ने की ज़रूरत है ..मुझे यह बात बहुत अच्छी लगी.. 


अब आता हूं अपने मन के एक प्रश्न पर...जो अकसर मुझे परेशान करता है कि इतने बढ़िया संस्कृति के शहर में इतना खून-खराबा...हर दिन अखबार में यहां पर मारधाड़ की खबरें आती रहती हैं...घर में बैठे निहत्थे, बड़े-बुज़ुर्गों तक को मौत के घाट उतार दिया जाता है....शायद आप के मन में आ रहा हो कि यह किस शहर में नहीं हो सकता...बिल्कुल आप सही कह रहे हैं...लेकिन लखनऊ की नफ़ाज़त, नज़ाकत के टगमें के साथ यह मेल नहीं खाता, इसलिए हैरानगी होती है....


अभी मैं साईकिल भ्रमण से लौटा हूं ....लखनऊ के साईकिल ट्रैकों के बारे में बहुत बार लिख चुका हूं...बहुत अच्छी बात है ..ये अधिकतर खाली पड़े रहते हैं....आज बड़े लंबे अरसे के बाद मैंने एक स्कूली बच्चे को इस पर साईकिल चलाते देखा..खुशी हुई.. मजे की बात यह कि उस समय मैं भी सड़क पर ही साईकिल चला रहा था...





लखनऊ के एलडीए एरिया में भी बहुत बढ़िया ट्रैक हैं... मैंने भी इन ट्रैकों पर साईकिल चला रहा हूं... एक बुज़र्ग मिल गये योग टीचर ..डाक्टर साहब हैं....कहने लगे कि अच्छा करते हैं साईकिल चलाते हैं..वैसे भी अगर ये ट्रैक इस्तेमाल होेंगे तो ही कायम रह पाएंगे...उन्होंने बिल्कुल सही बात कही थी... आगे चल के देखा तो एक ट्रक कुछ इस तरह से खड़ा दिखा... अब सरकार ने ये रास्ते बनाए हैं तो इन का इस्तेमाल भी होना चाहिए....इन को अतिक्रमण से बचाने का मात्र यही उपाय है...


एक बात और ...चाहे इन ट्रैक्स पर साईकिल सवार तो एक ही दिखा ..वह स्कूली बच्चा, लेकिन इन पर पैदल चलने वाले, सुबह भ्रमण पर निकले बहुत से लोग दिख गये.. यही ध्यान आया कि इसी बहाने चलिए देश में पैदल चलने वालों की भी सुनी गईं...वरना इन के तो कोई अधिकार हैं ही नहीं ..

बस करता हूं सुबह सुबह...मैं भी क्या टर्र-टर्र सुबह सुबह...सोमवार की वैसे ही अल्साई सी सुबह है...चलिए एक बढ़िया सा भजन सुनते हैं और इस हफ्ते की शुभ शुरूआत करते हैं......बहुत सुना बचपन में यह भजन...अभी भी सुनता हूं लेकिन मन नहीं भरता...