कईं बार लिखना बड़ा बोरिंग सा लगता है ...लगता है कि आखिर इतनी मगजमारी किस लिए...बिल्कुल कुछ भी लिखने की इच्छा नहीं होती...उस समय मुझे मूड बनाने के लिए अपने दौर के किसी मनपसंद गीत को सुनना पड़ता है ...एक बार नहीं, दो तीन बार...
यह जो ऊपर मैंने लिखा है ..सड़क घर से ज़्यादा सेफ़...ये शब्द हैं लखनऊ के एक बड़े बुज़ुर्ग के ...परसों एक बाज़ार में यह कोई अखबार पढ़ रहे थे.. अचानक एक खून-खराबे की खबर पर मेरी नज़र गई..मैं उसे देखने के लिए रूक गया..सुबह का समय था...इन्होंने पेपर मेरी तरफ़ सरका दिया....मैंने कहा कि लखनऊ जैसी नगरी में भी यह सब कुछ...!...गुब्बार निकालने लगे कि अब तो घर आ के मार जाते हैं...आए दिन खबरें आती हैं...अब तो सड़क घर से ज़्यादा सेफ़ हैं, कहने लगे। मैं भी सोच में पड़ गया। उस ने यह भी कहां कि फलां फलां के राज में इतनी गुंडागर्दी नहीं थी..सभी लोगों को कानून को डर था...
सच में मैं लखनऊ के लोगों की नफ़ाज़त और नज़ाकत से बहुत प्रभावित हूं..यहां के लोग जब बात करते हैं ऐसा लगता है जैसे कानों में मिशरी घोल रहे हों...बेशक यह तो खूबी है यहां लोगों में...और यह इन की जीवनशैली ही है...इस के लिए इन्हें १०० में से ९९ नहीं, १०० नंबर ही मिलने चाहिए...
मैं भी यहां पिछले तीन सालों में कुछ कुछ सीख गया...और इस के लिए मेरा असिस्टेंट का बड़ा रोल है...उस का सभी से बातचीत करने का ढंग इतना आदरपूर्ण एवं शालीन है ...मुझे तीन सालों में एक बार किसी मरीज़ ने कहा कि आप के असिस्टेंट को बात करने की तहजीब नहीं है...मैंने उसे कहा कि कोई और बात होती तो मैं मान भी लेता, उस के पास रहने से मैं कुछ कुछ सीखने लगा हूं...
बात चीत की बात हो गई ...कर्मकांड की बात भी ज़रूरी है, कर्मकांड में भी एकदम फिट हैं लखनऊ के लोग, पूजा-अर्चना, दान दक्षिणा...सब में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेते हैं...घरों के बाहर पशु-पक्षियों के लिए और जगह जगह प्याऊ दिख जाते हैं...इस पोस्ट में सभी तस्वीरें आज की ही हैं...
यहां की गंगा-जमुनी तहजीब के खूब चर्चे हैं ही ..लेकिन एक बात उस के बारे में यह है कि एक बार मैंने एक साहित्यिक गोष्ठी में शहर की एक नामचीन वयोवृद्ध महिला को यह कहते सुना कि आपसी मिलवर्तन का बस यही मतलब नहीं कि आपने किसी के यहां जा के उन के त्योहारों पर सेवईयां खा लीं और उन्होंने आप के होली पे गुझिया खाईं...उन्होंने कहा कि ये भी ज़रूरी हैं, बेशक, लेकिन इन प्रतीकों से आगे बढ़ने की ज़रूरत है ..मुझे यह बात बहुत अच्छी लगी..
अब आता हूं अपने मन के एक प्रश्न पर...जो अकसर मुझे परेशान करता है कि इतने बढ़िया संस्कृति के शहर में इतना खून-खराबा...हर दिन अखबार में यहां पर मारधाड़ की खबरें आती रहती हैं...घर में बैठे निहत्थे, बड़े-बुज़ुर्गों तक को मौत के घाट उतार दिया जाता है....शायद आप के मन में आ रहा हो कि यह किस शहर में नहीं हो सकता...बिल्कुल आप सही कह रहे हैं...लेकिन लखनऊ की नफ़ाज़त, नज़ाकत के टगमें के साथ यह मेल नहीं खाता, इसलिए हैरानगी होती है....
अभी मैं साईकिल भ्रमण से लौटा हूं ....लखनऊ के साईकिल ट्रैकों के बारे में बहुत बार लिख चुका हूं...बहुत अच्छी बात है ..ये अधिकतर खाली पड़े रहते हैं....आज बड़े लंबे अरसे के बाद मैंने एक स्कूली बच्चे को इस पर साईकिल चलाते देखा..खुशी हुई.. मजे की बात यह कि उस समय मैं भी सड़क पर ही साईकिल चला रहा था...
लखनऊ के एलडीए एरिया में भी बहुत बढ़िया ट्रैक हैं... मैंने भी इन ट्रैकों पर साईकिल चला रहा हूं... एक बुज़र्ग मिल गये योग टीचर ..डाक्टर साहब हैं....कहने लगे कि अच्छा करते हैं साईकिल चलाते हैं..वैसे भी अगर ये ट्रैक इस्तेमाल होेंगे तो ही कायम रह पाएंगे...उन्होंने बिल्कुल सही बात कही थी... आगे चल के देखा तो एक ट्रक कुछ इस तरह से खड़ा दिखा... अब सरकार ने ये रास्ते बनाए हैं तो इन का इस्तेमाल भी होना चाहिए....इन को अतिक्रमण से बचाने का मात्र यही उपाय है...
एक बात और ...चाहे इन ट्रैक्स पर साईकिल सवार तो एक ही दिखा ..वह स्कूली बच्चा, लेकिन इन पर पैदल चलने वाले, सुबह भ्रमण पर निकले बहुत से लोग दिख गये.. यही ध्यान आया कि इसी बहाने चलिए देश में पैदल चलने वालों की भी सुनी गईं...वरना इन के तो कोई अधिकार हैं ही नहीं ..
बस करता हूं सुबह सुबह...मैं भी क्या टर्र-टर्र सुबह सुबह...सोमवार की वैसे ही अल्साई सी सुबह है...चलिए एक बढ़िया सा भजन सुनते हैं और इस हफ्ते की शुभ शुरूआत करते हैं......बहुत सुना बचपन में यह भजन...अभी भी सुनता हूं लेकिन मन नहीं भरता...
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