बुधवार, 20 अप्रैल 2016

लोग दो तरह के होते हैं...


आप को भी उत्सुकता हो रही होगी कि अब यह कौन सा नया वर्गीकरण लेकर आ गया है लोगों का ...वैसे मैं किसी भी तरह के वर्गीकरण में विश्वास नहीं करता ...लेकिन एक वर्गीकरण मेरे विचार में हमेशा से है ..एक वे लोग जो पेड़-पौधों से प्यार करते हैं और दूसरे वे जो नहीं करते।





मैं कईं बार एक बात पहले भी शेयर कर चुका हूं कि कालेज में हमारी बॉटनी के प्रोफैसर साहब ...श्री एप सी कंवल साहब हमें बहुत अच्छे से बॉटनी पढ़ाते थे..मुझे इस में बहुत रूचि थी...मैं बॉटनी ही पढ़ना चाहता था...पेड़-पौधों की बातें करना, उन के रहस्यों के बारे में जानना अच्छा लगने लगा था...तभी डेंटल कालेज वालों ने बुला लिया...थ्री-ईडिट्एस फिल्म नाम की कोई चीज़ थी नहीं...क्योंकि बीडीएस करने के बाद नौकरी मिल जायेगी ...क्योंकि कालोनी के किसी दूसरे लड़के को मिल गई थी...इसलिए हम भी डैंटल कालेज के सुपुर्द कर दिये गये ..अगले आठ साल के लिए...न चाहते हुए भी ...लेकिन वहां भी दूसरे साल तक पहुंचते पहुंचते मन टिक गया...और टॉप-वॉप करना एक बार शुरू हो गया तो बस! 

वनस्पति विज्ञान के प्रोफैसर साहब की बात करना चाहता हूं...हमें पेड़-पौधों के बारे में बहुत अच्छे से समझाया करते थे..पहली बात पता चला कि इन का भी अस्तित्व हमारी तरह ही है .. (living beings)...पू. सुंदर लाल बहुगुणा के चिपको मूवमेंट के बारे में बताते हुए वे अकसर इतने भाव-विभोर हो जाते थे कि हम सब भी इमोशनल हो जाया करते ..बाल मन वैसे भी कच्ची मिट्टी जैसा होता है ..वही मूवमेंट जिस में जब ठेकेदार के लोग गांवों में पेड़ काटने जाते तो चिपको मूवमेंट से जुड़े लोग पेड़ों के साथ चिपक जाते कि पहले हमें काटो, फिर पेड़ों को काटो...और इस तरह से पेड़ों की अंधाधुंध कटाई पर बहुत रोक लग पाई...

एक काम करिए..चिपको मूवमेंट जैसी महान मुहिम को पास से जानने के लिए गूगल करिए .. chipko movement... पूरा दिन कैसे निकल गया, पता ही नहीं चलेगा..


चलिए चिपको मूवमेंट के बारे में तो आपने जान लिया...अब मैं पोस्ट में थोड़ा सा ओपिनियन डालूंगा...ब्लॉग की सब से बड़ी मजबूरी कह लें या USP कि इस में ब्लॉगर का ओपिनियन भी शामिल होता है ...






पेड़ों के बारे में मेरे जो विचार हैं उन्हें शेयर करना चाह रहा था...ये जो मैं नीचे तस्वीरें लगा रहा हूं ये सब लखनऊ शहर की हैं...शहर के अंदर मैं अकसर देखता हूं कि लोगों की पेड़ों से बेइंतहा मोहब्बत है .. इन की पूजा-अर्चना होती है ...मैं जब किसी पेड़ के इर्द-गिर्द लाल धागे बंधे देखता हूं, उस के नीचे किसी मूर्ति पड़ी देखता हूं जिसके आस पास लाल रंग के कपड़े में लिपटे पानी के मटके और धूप-बत्ती जलती देखता हूं तो मैं बहुत खुश हो जाता हूं..यह खुशी बस इसलिए होती है कि चलिए, यह पेड़ तो कुल्हाड़ी से बच गया, इसे तो इस के आसपास के लोगों ने गोद ले ही रखा है..

जितना भी देश को देखा है यही अनुभव किया है कि जिन क्षेत्रों की पुरातन संस्कृति की धरोहर कायम हैं ..वे लोग किसी न किसी वजह से पेड़-पौधों का सम्मान करते हैं, वहां पर पेड़-पौधे बच जाते हैं ...या फिर जहां पर पेड़ बहुत कम हैं...बड़े महानगरों में जैसे ...वहां भी लोग इन के बारे में बड़े सजग हैं, इन पर कुल्हाडी आसानी से चलने नहीं देते...मैं तो इतना भी कहता हूं कि हमारा इन पेड़ों के प्रति क्या रवैया है, यह हमारी मानसिकता को भी दर्शाता है शायद..

ओपिनियन की बात करूं ...तो मैंने यह अनुभव किया कि पंजाब-हरियाणा में लोगों को पेड़-पौधों से ज़्यादा प्यार नहीं है, मैंने जैसा कि पहले कहा ...यह मेरा ओपिनियन है ..शायद आप को ठीक न लगे, लेकिन जो मैंने बचपन से अनुभव किया...अपने परिवेश में, आस पास ...यहां तक कि अपने परिवार में, उसी के आधार पर ही कुछ कहना चाहता हूं...प्रेम तो दूर, मैंने तो परिवार में भी घने, छायादार पेड़ों को मामूली कारणों की वजह से कटवाते ही देखा...इसे पेड़ों की बेअदबी ही तो कहेंगे!






हरियाणा में हाल ही के जाट अंदोलन के दौरान कितनी बड़ी संख्या में पेड़ काट दिये गये....संख्या मैं भूल गया..लेकिन वह संख्या किसी को भी रूलाने के लिए बहुत थी...काटे भी इसलिए केवल कि सड़कों पर उन्हें बिछा कर रास्ते को रोका जा सके.....जीत गये भाई, थम जीत गये....आरक्षण की बहुत बहुत मुबारकबाद।

कुछ कारण जो मैंने देखे अनुभव किए पेड़ों पर कुल्हाड़ी चलने के ...

धूप रोक रहे हैं, काटो इन पेड़ों को 
एक अहम् कारण पंजाब हरियाणा में पेड़ों को काटने का यह है कि यहां पर जैसे ही सर्दी शुरू होती है ...लोगों को बहुत सी धूप चाहिए....कितनी?...हमारी धूप की भूख इस कद्र बढ़ जाती है कि हमें पेड़ों की हरियाली की वजह से रूक जाने वाली धूप से अचानक बहुत प्यार हो जाता है ...हम तुरंत किसी मजदूर को दिहाड़ी पर लगा कर सब से पहले पेड़ को अच्छे से कटवा दिया करते हैं, धूप तो खुल के आए...कंपकंपाते हाड़ खुले तों!

यह मैं बचपन से देख रहा हूं...निरंतर ... सोचने वाली बात यह है कि क्या धूप ज़रूर उतनी ही जगह में आयेगी...थोड़ा इधर उधर बैठ कर भी धूप श्नान लिया जा सकता है ...लेकिन नहीं, हम से सहन नहीं होता कि पेड़ हमारे हिस्से की धूप को रोक लें

जब हम लोग बिल्कुल छोटे थे तो अकसर सर्दी शुरू होते ही कश्मीर से हातो आ जाया करते थे यह काम करने ...वे ३०-४० रूपये लिया करते और पेड़ लगभग सारा काट दिया करते ...वे कुल्हाडी अपने साथ ही लेकर चला करते थे...

इन बंदरों ने नाक में दम कर रखा है 
एक दूसरा कारण पेड़ों की अंधाधुंध कटाई का यह भी है जो पेड़ बड़े बड़े घरों में लगे हुये हैं उन पर अकसर बंदर आ जाते हैं...अब बंदर तो ठहरे बंदर ...उन्हें कौन शिष्टाचार सिखाए....कभी घर के किसी बाशिंदे की बनियान फाड़ दी या किसी बडे-बुज़ुर्ग को उसने आंखें दिखा दी तो उन की खैर नहीं....तेरी ऐसी की तैसी....तेरी इतनी हिम्मत ...कल सुबह ही तूरा बंदोबस्त करता हूं...सुबह सुबह किसी मजदूर को बुला कर गुस्से में पेड़ ही कटवा दिया जाता है ...न रहेगा बांस न रहेगी बांसुरी ...

पत्ते बहुत गिरने लगे हैं, पेड़ ही कटवा देते हैं
रोज़ रोज़ घर के आंगन में अगर पतझड़ के मौसम में बहुत से पत्ते गिरने लगे हैं ..तो पेड़ को ही अच्छे से कटवा दिया जाए...प्रूनिंग के नाम पर उसे उस की औकात बता दी जाती है ...बस, पत्ते गिरने बंद ..और सभी खुश...

बच्चों के पत्थरों से बचने के लिए 
कभी घर की दीवार के बाहर या अंदर लगे फलदार पेड़ों से बेर, शहतूत या आम लेने के लिए बच्चे पत्थरों का इस्तेमाल करते हैं...आंगने में गिरने वाले इन पत्थरों के चक्कर में कब किसी का दिमाग सटक जाए, कोई भरोसा नहीं, बच्चे तो भाग लिए...कोई बात नहीं, पेड़ तो है, इसी को ही बुरी तरह से कटवा छंटवा कर ही दम लिया जाता है ...अब देखते हैं पत्थर कहां से आते हैं। 





पीपल तो घर की नींव में घुस जायेगा
जितना भयभीत मैंने अपने आस पास के लोगों को पीपल जैसे पेड़ों से होते देखा है, शायद ही किसी और पेड़ से देखा हो ...इन्हें घर में पीपल का छोटा सा पौधा देख कर यही लगता है कि यह घर की नींव में घुस कर बहुत गड़बड़ कर देगा...लेकिन इसे अकसर लोग स्वयं नहीं उखाड़ते...किसी मजदूर को कहते हैं...क्योंकि अगर इसे काटने से अगर कोई पाप वाप लगने वाला इश्यू है तो वह मजदूर ही सुलटे...हम क्यों बेकार उस चक्कर में पड़ें...क्योंकि ऐसी आस्था तो है कि इस तरह के पेड़ पवित्र तो हैं लेिकन घर में नहीं, बाहर किसी जगह पर लगे हुए...जहां पर इन की परिक्रमा ली जाती है, इन पर लाल-पीले धागे बांधे जाते हैं...यह सब कुछ देख कर भी आदमी असमंजस में पड़ जाता है ..
वैसे मजदूर भी अच्छे समझदार हो चले हैं ..वे और कुछ भी काट-उखाड़ देंगे लेकिन पीपल जैसे पेड़ को काटने से मना कर देते हैं.. बहुत अच्छे!

 कीड़े-मकौड़े बहुत हो गये है, कटवाओ इस शहतूत को
कीड़े-मकौड़े अगर घर आंगन में दिखने लगें ना...जिन के छिद्रों के आस पास हम लोग पास ही के खाली मैदान में जाकर आटा डाल कर आते हैं...लेिकन अगर ये घर में दिखने लगें और एक बार यह देख लिया कि यह शहतूत के पेड़ की वजह से आ रहे हैं ...बस, फिर न कोई बचा सके इस शहतूत को...वैसे भी शहतूत काटने वाला सारा पेड़ काट भी देगा और दो टोकरियां भी दे जायेगा...चलो निपटाओ इस को भी, बुलाओ उस काटने वाले को ...मकौड़ों ने नाक में दम कर रखा है!

क्यारी में फुल-गोभी नहीं बढ़ रही तो भी यह शीशम बलि चढ़ता है 
अगर पड़ोस वाली आंटी की फुल-गोभी चंद दिन पहले तैयार हो गई और हमारी अभी बिल्कुल छोटी है तो इस पर मंथन होगा कि कहीं इस बड़े से शीशम की वजह से नीचे ज़मीन तक न धूप सही पहुंचने के चक्कर में तो सब्जी ठीक से बढ़ नहीं रही...ठीक है, कल इस कमबख्त शीशम की छुट्टी करते हैं.

शीशम को तो जड़ से निकलवा देते हैं..
एक घनी पढ़ी लिखी हमारी आंटी जी थी पड़ोस की ...वे पेड़ों की छंटाई नहीं करवाती थीं, सात आठ सौ रूपये में पूरे पेड़ को ही बेच दिया करती थीं...उन्हें हमेशा यही रहता था कि अगर जड़ रहेगी तो फिर से इन के उगने का "खतरा" रहता है। मैं कईं बार देखा करता कि आठ दस मजदूर लग जाते, सारा दिन लगा कर पेड़ काटते, फिर बड़ी मेहनत से उस की जड़ भी निकालते ...ट्राली पर डाल कर उसे सात सौ रूपये थमा कर भाग लेते...और हम जैसों के लिए बहुत से प्रश्न छोड़ जाते ...अजीब सा लगता था यह सब देखना....

पड़ोसी की शिकायत है कि पत्ते उस तरफ़ गिरते हैं, धूप रोक रखी है 
कईं बार पड़ोसी की शिकायत हो जाती है कि आप के पेड़ के पत्ते हमारी तरफ़ गिर रहे हैं, इस ने तो धूप ही रोक ली है हमारे हिस्से की...इसी चक्कर में भी बड़े, छायादार पेड़ों को कोई भी कुल्हाडी से न बचा पाता...

और भी बहुत से अनुभव हैं ...क्या क्या लिखूं....छुट्टी का दिन है, ये चित्रहार के सुंदर गीत सुनिए और छुट्टी मनाईए..बहुत दिनों से इस विषय पर मन के भाव प्रकट करना चाह रहा था... 

लखनऊ शहर में आम जन का पेड़ों के प्रति प्यार देख कर मन खुश होता है ...सर्विस में जैसे होता है ..अच्छा काम करने वालों से भी कोई न कोई तो नाखुश रहते ही हैं...एक बॉस था किसी ज़माने में ..एक बार उसने कहा कि लखनऊ भिजवा देंगे आपको ...हमें लखनऊ के बारे में बिल्कुल पता नहीं था, हमें लगा कि जैसे कि यह काला पानी भिजवाने की बात कह रहे हों, हमारे मुंह से अनायास निकल गया कि अगर लखनऊ तो नहीं जाएंगे, हम त्याग-पत्र दे देंगे...पांच छः साल तक यह सिलसिला चलता रहा ...एक बार शायद कोई हमारा त्याग-पत्र ही चाहता होगा कि चलो, इन के लखनऊ के आर्डर निकाल देते हैं...वहां तो क्या जाएंगे...नौकरी छोड़ देंगे.....लेिकन कहने की बातें और होती हैं....कौन छोड़ता है नौकरी इन छोटी छोटी बातों के लिए... हम लोग आ गये लखनऊ......इतना बढ़िया शहर, बढ़िया लोग .....अब मन में यही मलाल है कि पांच सात साल पहले ही उसने इधर भिजवा दिया होता, हम भी यहां की सभ्यता-संस्कृति को और पास से देख लेते...

बहरहाल, जो मैंने ऊपर पेड़ों की तस्वीरें लगाई हैं ये सब लखनऊ में मैंने दो दिन पहले खींची थी...मैं जहां भी घने, छायादार पेड़ देखता हूं, उन्हें निहारने लगता हूं ...कैमरे में बंद कर लेता हूं...आप अनुमान नहीं लगा सकते कि मुझे ऐसे पेड़ों को निहारने और इन के साथ समय बिताने की कितनी ज़्यादा भूख है ....

आज के इस विचार को यहीं समाप्त करते हैं.... 

ये कहां के आदिवासी हैं, दिखते तो किसी दूर-देश के हैं, लेकिन बोल-वाणी बिल्कुल बाराबंकी वाली ... 😄 😎 😄....but one of my fav. songs...इस की सी.डी मैं अनगिनत बार देख-सुन चुका हूं...my sons make fun of this!😉


लखनऊ की दो बदसूरत सड़कें जो मुझे लगती हैं वे हैं जेल रोड और व्हीआईपी रोड़...कहते हैं इस क्षेत्र में कुछ साल पहले घना जंगल था..बहुत पुराने छायादार पेड़ पौधे...अब तो इन रास्तों पर चलते हुए ऐसे लगता है जैसे आग बरस रही हो...एक भी पेड़ नहीं दिखता, बिल्कुल बदसूरत रास्ते....पता नहीं कौन प्लॉनिंग करता है, सड़क के बीचों बीच डिवाईजर पर भी पेड़ों के नाम पर कांटेदार झाड़ियां लगवा दी गई हैं...कमबख्त ये भी उमस भरी गर्मी में आने जाने वालों की आंखों में घमौड़ियों की तरह चुभती हैं। 


4 टिप्‍पणियां:

  1. वाह सही बात बतायी आपने डा० साब

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    1. धन्यवाद, दर्शन जी, पोस्ट देखने के लिए..आप के नन्हे वैज्ञानिक चेले चपाटे भी खूब काम कर रहे हैं आजकल...अकसर देखता रहता हूं..

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  2. मैने तो अपने गरीबखाने को तो बस पेड़ पौधों से घेर रखा हूँ।बड़ा अच्छा लगता है।गर्मी से भी बचत हो जाती है। सामने छोटा सा पार्क है उस मे 60% तो पेड़ मैने खुद लगाए हैं, बाकी मैंने पड़ोसियों को प्रेरित कर वन महोत्सव के दिन आयोजित कर own ur tree केआधार पर उनसे लगवाए है।
    मैं इसमे अपने श्रेय की बातें नही कर रहा हूँ।बस
    आपके ब्लोग के संदर्भ मे बताना चाहता हूँ कि वास्तव मे लखनऊ वाले पेड़ प्रक्रृति प्राणी से प्रेम
    करते हैं। तभी तो इसे LUCK NOWसे संबोधित करते है। सच मे पेड़ प्रेम प्रकृति ही जीवन है,लखनवी खू्व जानते हैं।
    रही बात आपको लखनऊ से डराने की बात वह
    रेल मे ट्रेड युनीयन को हौवा बनाने वाली वात है।
    सच पुछिए वे आपकी सहायता ही करते हैं, कारण
    प्रशासन के लिए खून पसीना बहाने वाले के साथ
    हम ज्यादती न कर बैठें । धन्यवाद।



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    1. धन्यवाद, सिंहा जी, पोस्ट देखने के लिए और तबीयत से टिप्पणी करने के लिए..आप की शख्शियत का एक ऩया रूप देखने को मिला ..पेड़-प्रेमी का।
      शुक्रिया ..

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