शुक्रवार, 1 दिसंबर 2023

आज गले का कॉलर देख कर नानी याद आ गई


आज फुटपाथ पर एक बंदा दिखा गले में इस तरह का कॉलर पहने हुए तो मुझे नानी याद आ गई ... कहावत वाली नहीं, असल वाली नानी.....क्योंकि इस तरह का कॉलर हमने सब से पहले इस कायनात में अपनी नानी के गले में जब देखा तो हम सहम से गये थे...

1970 के आसपास की बात है...पिता जी की तबीयत ठीक न थी, नानी बस से अंबाला से अमृतसर आई थीं, पिता जी की तबीयत का हाल चाल पूछने ...उन दिनों भी पांच घंटे ही लगते थे ...आज भी शायद उतने ही लगते हैं इतना विकास होने के बाद भी ...हम ठहरे पक्के रेलों के दीवाने, हमने नानी को कहा कि गाड़ी में आया करो, तो वह झट से हमें समझाया करती ...गाड़ी तो अपने वक्त पर जाती है, बस का क्या है, जब अड़्डे पर जाओ, बस मिल जाती है ....उन्होंने अधिकार यात्राएं बस में कीं और हम लोगों ने गाडि़यों में....चाहे गाड़ी के इंतज़ार में एक दो घंटे स्टेशन पर ही क्यों ने बैठना पड़ता...

खैर, नानी आई तो उस के गले में एक कड़क सा कॉलर देख कर मैं तो भई डर गया....मैं तो बहुत छोटा था, लेकिन मुझे मन ही मन चिंता तो हो ही रही थी कि पता नहीं नानी के साथ क्या लफड़ा हो गया है ...कभी वह उसे उतार देती, कभी लगा लेती ...लेकिन मेरा डर तो लगातार बना हुआ था कि नानी के गले में यह फंदा सा आखिर है क्या!! हमें पता चला कि नानी के गले की हड़्डी बढ़ गई है ...न हमें उस का क ख ग ही पता था, बस हम फ़िक्र कर कर के आधे हुए जा रहे थे ...

खैर, फिर जब मैं बीस तीस बरस का हुआ तो अकसर लोग इस तरह के कॉलर लगाए दिखने लगे ...लेकिन अभी हाल फिलहाल में देखते हैं कि ये कॉलर बडे़ ट्रेंडी से हो गए हैं....छोटे साइज़ के और बिल्कुल नर्म, स्पंज जैसे ......लेकिन वह नानी वाला कालर तो ऐसा था कि वह तो फंदे जैसा दिखता था ...उसे देख कर तो मेरा सिर घूमने लगता था, डर से ....वैसे भी वह इतना सख्त था कि उससे नानी को क्या पता कितना फर्क पड़ा होगा या नहीं.......और वह कॉलर नानी के कमरे की शेल्फ पर अकसर टिका रहता था आगे कईं बरसों तक ...हम जब भी अंबाला जाते तो उसे देख कर थोड़ा उदास तो ज़रुर हो जाते ....यह तो मुझे याद है ...

मेरे भी गलत पोश्चर की वजह से मुझे अकसर सिरदर्द होता ही रहा है ....बिल्कुल यह भी उस का एक कारण है ...क्योंकि मुझे पता नहीं मुझे कंधे झुका कर चलने की आदत कहां से पड़ गई....मुझे बहुत टोका जाता है ....लेकिन शायद मेरे अंदर कहीं यह बात घर कर चुकी है कि अकड़ कर बिल्कुल सीधा तन के चलने वाले लोग घमंडी, गुरूर वाले होते हैं ...और किसी भी बात का घमंड करने के लिए मेरे पास कोई वजह है नहीं, इसलिए मैं हमेशा से झुक कर ही चलता हूं ......लेकिन मुझे इतने बरसों बाद इस बात का अहसास ऐसा हुआ है कि मैं अपनी इस आदत से नफ़रत करता हूं ...नहीं आत्म-विश्वास-वास का कोई चक्कर नहीं है, ईश्वरीय अनुकंपा है....बस ऐसे ही कईं आदतें बेकार में पीछे पड़ जाती हैं, यह झुक कर चलने वाली आदत भी कुछ ऐसी ही है ...

हां, मुुझे भी कुछ बरस पहले कॉलर पहनने का विशेषज्ञ ने मशवरा दिया था....लेकिन मैंने तो दो-तीन दिन पहन कर ही उसे किसी ज़रुरतमंद को दे दिया था...वैसे सिर में दर्द हो, सिर में ऐंठन सी रहे, मतली जैसा लगता हो, चक्कर आने लगें, बार बार उल्टी होने लगे तो आम भाषा में कोई भी बंदा इसे सरवाईकल की बीमारी कह के अपना ज्ञान बघार देता है ...और कुछ लोग तो इलाज भी बता देते हैं....मुझे भी कुछ ज़्यादा पता नहीं इस के बारे में सिवाए इस के कि इस तरह के जब लक्षण हों तो बंदे को तीन विशेषज्ञों के पल्ले पड़ना है, एक तो हड़्डी रोग विशेषज्ञ, एक ईएऩटी स्पेशलिस्ट और बहुत बार एक एमडी फ़िज़िशियन से भी परामर्श लेना भी पड़ता है ...जब किसी को कुछ नहीं मिलता, तो फिर कहा जाता है कि डिप्रेशन (अवसाद) लगता है, चिंता का मर्ज़ है, मनोरोग विशेषज्ञ से मिल लीजिए....

मुझे लगता है ये सब इस तरह की तकलीफ़ें हमारी जीवनशैली से जुड़ी हुई हैं.....न सोने का टाइम, न जागने का, सारा दिन सिर झुकाए किसी न किसी स्क्रीन में अपनी आंखें गड़ाए रहते हैं, खाने-पीने के बारे में तो कहें ही क्या, जंक-फूड़, फॉस्ट-फूड, अजीबोगरीब फूड सप्लीमेंट .......इन सब के बावजूद भी क्या गर्दन में दर्द न होगा ...

मैंने सोचा कवर उतार कर ही सरवाईकल पिल्लो के दीदार करवाए जाएं पढ़ने वालों को ....

पांच छः साल पहले मेरी भी गर्दन में दर्द रहने लगा तो मुझे एक फ़िजि़योथेरेपिस्ट ने कहा कि आप तो एक सरवाईकल पिल्लो ले लो ....जब मैं उसे लेने गया तो पता चला कि वह तो करीब चार हज़ार का था ...कड़वा घूंट भर कर ले तो लिया..लेकिन मुझे उस से बहुत फायदा हुआ है ...अच्छा, सब तरफ से तकिये के बारे में ही तरह तरह के मशवरे सुन सुन कर तंग आ चुके थे, तुम तकिया लिया ही न करो, तुम एक पतली सी चादर रख लिया करो, सिर के नीचे.....और भी कुछ न कुछ हिदायतें ..........लेकिन जब से यह सरवाईकल पिल्लो लिया है, बहुत आराम सुकून महसूस कर रहा हूं ...अब सच में यह पता नहीं कि यह चार हज़ार रूपये जो खर्च किये हैं उस का मनोवैज्ञानिक प्रभाव है या कुछ और ......क्योंकि कोई ज्ञानी हड्डी रोग विशेषज्ञ ही एक बार कह रहा था कि इन सरवाईकल पिल्लो से कोई फ़र्क नहीं पड़ता .......लेकिन मुझे तो फ़र्क पड़ा दिक्खे है ...मैं क्यों झूठ ही कह दूं कि कुछ फ़र्क नहीं हुआ मुझे ...रात में उसे जब सिर के नीचे रखते हैं तो पता ही नहीं चलता कि उसे ले भी रखा है या नहीं.....दिक्कत यह है कि अब बाहर कहीं जाते वक्त उसे उठा कर साथ रखने की इच्छा होती है लेकिन यह सब कहां प्रेक्टीकल है, अब कोई लोहे के ट्रंक लेकर चलने वाले दिन थोड़े न हैं, हो्लडाल वाले दिन भी लद गए .......अब तो अगर हमारे पास स्मार्ट-लगेज नहीं है तो हम अपने आप को पिछड़ा महसूस करते हैं......पिछले बरस ही मैं एक शादी में अपनी एक व्ही-आई-पी की अटैची ले गया....वही जो तीस चालीस बरस पहले नईं नई आई थीं....जिसे पहिये न होते थे ....एक तो स्टेशन पर लोग उस अटैची को ऐसे देख रहे थे जैसे किसी अजायब घर की किसी शै को देख रहे हों और दूसरा,यह कि उसे स्टेशन पर उठाते वक्त मुझे उस दिन भी नानी याद आ गई थी .......छोटी थी अटैची, लेकिन ठूंंसने से हम कहां बाज़ आते हैं....जब तक उस का ताला ही न टूट जाए .....😎😂

पोस्ट लिखने के बाद यू-ट्यूब पर सिरदर्द के ऊपर गीत ढूंढने की थोड़ी सिरदर्दी मोल ली तो यही दिख गया ...जॉन्ही वॉकर साहब का यह हिट गीत ... यह उन दिनों की बात है जब न कोई सरवाईकल के कॉलर था, न सरवाईकल पिल्लो और न ही किसी विशेषज्ञ का मशवरा ही इतनी आसानी से मिल पाता था, लेकिन चंपी सब कुछ ठीक कर देती थी ....

बुधवार, 29 नवंबर 2023

नमक स्वाद अनुसार .....


एक बार टाइम्स ऑफ इंडिया में एक ख़बर दिखी थी -अमेरिका में कुछ रिसर्च हुई है कि अगर लोग जितना नमक खाते हैं, उस में से एक ग्राम नमक खाना कम कर दें तो अमेरिका में करोड़ों-खरबों डालरों की बचत हो जाएगी ...जो पैसा वैसे ज़्यादा नमक खाने से पैदा होने वाली बीमारियों पर खर्च होता है ...मुझे हैरानी नहीं हुई बिल्कुल यह पढ़ कर ...क्योंकि ज़्यादा नमक एक बहुत बड़ा विलेन तो है ही ...पोस्ट लिखने के बाद देखा तो मुझे मेरी एक दस वर्ष पुरानी पोस्ट याद आ गई ....इस के बारे में यह रहा उस का लिंक.

बचपन में हम लोग देखा करते थे कि हर घर में खाने की मेज पर या तो एक छोटी नमकदानी सजी रहती थी ...नहीं तो घर में कहीं भी खाना खाते वक्त कोई न कोई आवाज़ दे ही देता था कि ज़रा नमकदानी तो इधर भेजो....मुझे मेरी बड़ी बहन का ही ज़्यादा नमक खाना याद है ...वह तो ज़रूर ही दाल की कटोरी में एक्सट्रा नमक डालती और फिर उसे अकसर उंगली ही से झट से मिला भी देती दाल में ...बडा़ होेने पर मैं उस के पीछे अकसर पड़ा रहता हूं कि नमक कम खाना चाहिए....कहती हैं कि अब कम खाती हूं ...

मैं यह जो पोस्ट लिखने इस वक्त बैठ गया हूं उस का कारण यह है कि कल की टाइम्स में एक बड़ी अहम् खबर छपी थी कि कम नमक खाने का दर्जा एक तरह से उच्च रक्तचाप की दवाईयां खाने के बराबर है ....और उसमें मेडीकल रिसर्च की भी बात की गई थी ...मुझे उसमें लिखी हर बात मुनासिब लिखी ....दिल्ली के बहुत बड़े हृदय विशेषज्ञ ने भी इस बात की पुष्टि की है ...अगर आप उस खबर को देखना चाहें तो इस लिंक पर क्लिक कर के देख सकते हैं...

Reducing Salt Intake as Beneficial as BP First-line drugs: Study 

(Times of India, Mumbai ....28th Nov, 2023) 

साधारण खाने से जितना नमक हम लोग दाल-सब्जी में खाते हैं उस की कोई खास बात नहीं है ....समस्या यही है कि खाने के अलावा हम लोग दिन भर यहां वहां जंक-फूक खाते रहते हैं वह तो नमक से लैस होता ही है ....हम लोगों की और भी बहुत सी आदते ैहं जो हमारे अंदर ज़्यादा नमक (सोडियम) डंप करती रहती हैं ...

छाछ, लस्सी, गन्ने का रस, अधिकतर फल हमें नमक के बिना काटने को दौड़ते हैं .....यही लगता है क्योंकि हम उन को बिना नमक लेते ही नहीं हैं....दही में भी नमक डालते हैं...शिकंजी में भी नमक जो चुटकी भर डालना होता है, हम उसमें भी मनमर्ज़ी करते हैं....

लिखते 2 ख्याल आया कि बचपन में हम लोग कच्चा आम, ईमली खाते वक्त भी एक हाथ में नमक रखते थे, उस के बिना नहीं खाते थे तरबूज, जामुन, फालसा, छोटे छोटे लाल रंग के बेर भी बिना नमक के नहीं खाते थे ..। लखनऊ में आप कहीं से भी जब मूंगफली लेते हैं तो वह खोमचे वाला उस में तीन चार नमक की पुड़िया ज़रूर रख देता है,  साथ में हरी मिर्च की चटनी भी ....और हां, शकरकंदी लीजिेए भुनी हुई कहीं से ...वह भी हम कहां बिना नमक के खाते हैं, ....नमक और नींबू के बिना शकरकंदी का क्या मज़ा...। 

लखनऊ की बात तो मैंने लिख दी ...लेकिन पंजाब, हरियाणा, दिल्ली विल्ली में हम लोग कहीं भी खड़े हो कर केले खाते हैं तो वह उन को काट कर उन में नमक ठेल देता है क्योंकि घर के बाहर कोई भी केला नमक के बिना खाता ही नहीं ....और वह नमक भी उसमें ऐसे ठूंस देता है जैसे कोई समाज कल्याण कर रहा हो ....केला हो गया, लईया-चना भी हमें नमकीन ही चाहिए, भुजिये मेें तो नमक भरा ही रहता है ....

अभी लिखते लिखते मुझे खुद डर लगने लग गया है कि हमारी खाने-पीने की आदतें भी कितनी खौफनाक हैं ....हम किसी की नहीं सुनते, सेहत से कोई लफड़ा हो जाता है तो हम समझते हैं कि विशेषज्ञ बचा लेगा, वह भगवान है ........ठीक है, छोटा मोटा भगवान तो वह है ही बेशक, एक बार तो मौत के मुंह से बाहर निकाल लेगा .......लेकिन हम कहां अपने खान-पान में कुछ सुधार करने को राज़ी होते हैं इतनी आसानी से ...

खीरा, ककड़ी भी खाएंगे तो भी नमक के साथ, सलाद में भी नमक...शराबी बंधु महफिल में भी कईं बार नमक ही रख लेते हैं अपने साथ (मैंने कई बार देखा कि शराबी बंधु जो काजू-चने न रख पाएं, वे कोई भी आचार ही रख लेते हैं ....और कईं बार तो देसी दारू पीते वक्त कुछ बंधुओं को साथ में चुटकी भर नमक चाटते देखा है .....यह किसी का मज़ाक नहीं बना रहा हूं ....क्योंकि वह काम मैंने कभी नहीं किया.....बस, कुछ बातें सच् सच अपनी पोस्ट में दर्ज करने के लिए लिख रहा हूं....

भुजिया खाने का तो मैं भी बड़ा शौकीन हूं ....लोकल स्टेशन पर बिना सोच विचार किए सेव-मुरमुरा, कुरमुरा, तली हुई मूंगफली, नमकीन दाल.....और भी बहुत कुछ --बस ऐसे ही ट्रेन की इंतज़ार करते करते खरीद लेता हूं ....पहले तो रोजाना ही ऐसा करता था, अब डरने लगा हूं ....महीने में शायद एक दो बार ...और घर में भी बीकानेरी भुजिया इत्यादि खाता ही हूं .........लेकिन यह पोस्ट लिखने भर से मेरी यह खराब आदत सही नहीं ठहराई जा सकती .....अपने पैर पर खुद कुल्हाडी़ मारने वाली बात है .....किसी को कुछ फर्क नहीं पड़ता ....

समोसे, वडा-पाव, भजिया-पाव.....चाइनीज़, हाका, मोमोज़......सच में बाहर जाते हैं तो लगता है जनता रब की बारात में आई हुई है ....(यह एक पंजाबी कहावत है ...इंज लगदै जिवें ओह रब दी जंजे आया होवे)....

काजू भी खाने हैं तो नमक वाले, पिस्ता भी नमक वाला ...भुने हुए चने भी नमकीन.....

कितनी लंबी लिस्ट लिखूंगा .....बस, यही मानिए की दाल-रोटी-सब्जी के अलावा हम जितना कुछ भी नमक वाला खा रहे हैं, वह हम अपने आप से धोखा कर रहे हैं......कुछ लिस्ट तो ऊपर दी है....और एक बात, ये जो आज की नईं जेनरेशन प्रोसैसेड फूड की दीवानी है न, यह सारे का सारा सोडियम से लैस होता है ....हम खुश होते हैं कि टिक्की आधे मिनट में तैयार हो गई, रेडीमेड दाल, चने, पनीर ...गर्म पानी में डालते ही खाने लायक हो गया ....इन के बारे में कभी अपने डाक्टर से बात करिए.....मैं कोई विशेषज्ञ नहीं हूं , सीधी सपाट बातें लिखता हू्ं ......लेकिन मुझे इन सब चीज़ों से बेहद नफरत है....यही वजह है कि मुझे कहीं भी बाहर जा कर खाना पसंद ही नहीं है .......कोई भी हो, कहीं भी है, कुछ भी हो.....बाहर जा कर कंट्रोल नहीं होता, तला-मला, फ्राई आने दो, और उस के बाद जलेबी, आईसक्रीम और गुलाब जामुन जब खाता हूं तो अपने आप से दिल ही दिल में क्या कहता हूं, वह तो मैं लिख भी नहीं सकता...

इस पोस्ट में तो नमक की ही बात कर रहे हैं, लेकिन अकसर जो चीज़ें हमारे खाने पीने की नमक से लैस होती हैं...वे अच्छे-बुरे घी, तेल, मसाले भी लैस होती हैं ...जैसे मटन,मुर्गा, मछली .....कोई भी नॉन-वैज हो...इसलिए उन्हें खाने से होने वाली पेचीदगी और भी ज़्यादा है ...

कहीं किसी पढ़ने वाले को यह नहीं लग रहा कि इतना डराया क्यों जा रहा है.......नहीं, नहीं, ऐसा कुछ नहीं है, वैसे भी कौन किस की सुनता है...हम चिकित्सक हैं, हम ही नहीं किसी की सुनते ....मैंने बताया न कि कैसे भुजिया खाते हैं, कैसे मीठा खाते हैं ....और फिर सिर पकड़ कर एसिडिटी से परेशान हो कर घंटो पड़े रहते हैं.... 

दरसल, नमक -सोडियम क्लोराईड में सोडियम ही विलेन है ....इस का मतलब यह हुआ कि जिन जिन चीज़ों के बनाने में मीठा सोड़ा, बेकिंग पावडर आदि इत्यादि इस्तेमाल होता है उन में भी सोडियम तो है ही ....जो अधिक मात्रा में हमारी सेहत से कैसा खिलवाड़ करता है, यह हम सब जानते हैं....बार बार डाक्टर लोग बताते रहते हैं .....अखबारों में लिखा दिखता है, रेडियो-टीवी पर भी सुनते हैं ....

कभी ख्याल किया हो तो जब कोई दस्त से परेशान हो तो उस के लिए जो ओआरएस (जीवन रक्षक घोल) घर में बनाया जाता है उसमें भी एक लिटर पानी में चीनी, नींबू  के साथ साथ एक चुटकी

 नमक ही डाला जाता है ...

बेकरी के जितने भी उत्पाद हैं, बिस्कुट हो, या पेटीज़ हों या कुछ और, सब कुछ कॉमन-साल्ट से .....और अगर उस से नहीं भी तो किसी न किसी रूप में सोडियम तत्व उसमें मिला ही रहता है ...

यह पोस्ट भी ऐसी है, जो मन में आ  रहा है, लिखते जा रहा हूं...क्या करें, डॉयरी हो या हो ख़त ..हम इसी तरह से लिखते रहे हैं ....

बातें तो बहुत हो गईं ...लेकिन पते की बात इतनी है जो मुझे समझ में आई है कि खाने में ...दाल, रोटी, साग, सब्जी में जितना नमक हम खा लेते हैं बस उतना ही काफी है, उतनी ही ज़रूरी है ....बाकी जो हम यहां वहां से ठूंसते फिरते हैं, वह तो बाद में उत्पात ही मचाता है ...किसी का आज, किसी का कल.......लेकिन तंग तो इस की बहुतायत से लोग रहते ही हैं ....डाक्टर भी क्या करें, कह ही तो सकते हैं.....

मेज़ के ऊपर छोटी नमकदानी रखनी ही नहीं चाहिए.....नमक मांगने के लिए कोई आलस ही करेगा....वरना, दाल, भाजी, सलाद, अमरूद ...छाछ सब में छिड़कने लगेगा....

सीख........आज के पाठ की वही घिसी-पिटी दशकोंं पुरानी सीख है कि नमक का कम इस्तेमाल करें ...जितना कम हो सके .....सब्जियों, फलों के माध्यम से भी हमें नमक (सोडियम) हासिल हो जाता है ...इस की कमी के बारे में इतना चिंता न करें...

हां, लिफाफा बंद करते करते एक बात याद आ गई ...वैसे भी मैं बीपी वीपी का कोई विेशेषज्ञ तो हूं कि मेरी इन बातों पर अंध-श्रद्धा करें और उन्हें पत्थर की लकीर की तरह मान लें, नहीं, आप अपने चिकित्सक से बात करें ....अपने फैसले खुद करें., अपने डाक्टर से बात करने के बाद ....और हां, मुझे कुछ महीने पहले किसी ने पूछा कि शरीर में हमेशा के लिए किसी के नमक कम भी हो सकता है क्या.....मुझे नहीं पता था, मुझे तो बस डी-हाईड्रेशन का ही पता था जिसमें किसी को कुछ दिनों के लिए नींबू-पानी, ओआरएस इत्यादि लेने की सलाह देते हैं....लेकिन उसने बताया कि डाक्टर ने उसे कहा है कि तुम ने हमेशा ही ज़्यादा नमक लेना है ....बात मेरे पल्ले नहीं पड़ी, मैंने साफ साफ कहा कि मुझे ऩहीं पता इस के बारे में ....

पोस्ट पढ़ने के बाद आप क्या सोचेंगे...क्या कुछ असर पड़ेगा भी या नहीं, लेेकिन जैसा कि मैं अकसर सोचता हूं कि इसे लिखना मेरे खुद के लिए एक रिमांइडर का काम करेगा....वैसे तो मैं नमक कम ही लेता हूं ...दही में, छाछ में, नहीं, जूस में नहीं, फ्रूट में नहीं, सलाद में नहीं.....जितना हो सके, ख्याल कर लेता हूं ...जंक भी न के बराबर, महीनों बीत जाते हैं एक वड़ा-पाव, समोसा खाए...बस, मुझे भुजिये इत्यादि खाते वक्त सोच विचार करना होगा .....

केवल नमक ही तो नहीं है नमकीन ... (पंद्रह बरस पुरानी मेरी एक पोस्ट....मुझे उसे पढ़ते पढ़ते हंसी आ रही थी....मैं ही नहीं बदला इतने बरसों में तो पढ़ने वालों से ऐसी उम्मीद क्यों करें, भई..) 😂😎

10 साल पहले भी कुछ लिखा था नमक के बारे में ...अगर देखना चाहें तो यहां देखिए....ज़्यादा नमक का सेवन कितना खतरनाक है!!

वैसे नमक हो, तेल हो, मीठा हो, तीखा हो...जितनी गड़बड़ी हम लोग अपने खानेपीने में कर रहे हैं, उस के बारे में आज की टाइम्स आफ इंडिया में भी एक बहुत बड़े डाक्टर ठक्कर का एक लेख आया है....देखिए, उन्होंने सब कुछ कितना सच सच लिख दिया है, और वह भी इतनी सहजता के साथ ...उस लेख को भी देख लीजिए लगे हाथों.......क्या पता, मेरी बात का नहीं, उन की बात का ही असर हो जाए.....

times of India 29.11.23 (click on pic to read it) 

नमक स्वाद अनुसार....शीर्षक इस लिया रखा क्योंकि उस वक्त इसी का ख्याल आया क्योंकि इसी नाम से एक किताब आई थी 2-3 बरस पहले ...साहित्यिक कृति थी ...कोई डाक्टरी नहीं झाडी़ थी उसमें लेखक ने .....और जो ऊपर बहुत पहले मैंने कल की खबर का लिंक दिया है कि कम नमक को ब्लड-प्रेशर की दवाई जैसी अहमियत दी गई है ....उस का मतलब यह नहीं कि आप जो दवाईयां ले रहे हैं, उन्हें बंद कर दें और नमक खाना कम कर दें.......ऐसा नहीं, दवाईं अपने डाक्टर की सलाह अनुसार लेते रहें, मेरे कहे मुताबिक यह देखें हर वक्त खाते समय कि क्या नमक का यह इस्तेमाल ज़रुरी है या मेरी जान ज़्यादा ज़रूरी है........जो भी जवाब मिले, उसी मुताबिक आगे की रणनीति तय करिए .....😂.....

लेकिन मैं इतने लिखने के बाद अब कल से नमक के इस्तेमाल के बारे में और भी ज़्यादा सचेत रहने की कोशिश करूंगा....एहतियात बरतूंगा....

एक बात और सता रही है ....नमक स्वादानुसार ....यह अकसर पत्रिकाओं में जो रेसिपी लिखी होती हैं उन के नीचे लिखा रहता था....था इसलिए कि अब कहां ये सब इतना छपता है मैगजीन में ...और एक बात, हिंदोस्तानी घरों में अगर कभी दाल या सब्जी में नमक ज़्यादा पड़ जाए तो घर की गृहिणी को ऐसे लगता है मानो उसने कोई संगीन ज़ुल्म कर दिया हो ....इस तरह की दकियानूसी बातें हैं भाई जो कचोटती हैं....नमक ज़्यादा पड़ भी गया तो कौन सा पहाड़ टूट पड़ा.....हमारे मोहल्ले में एक सिपाही रहता था ....जब उस कबख्त की दाल में सिपाहिन से कभी नमक ज़्यादा पड़ जाता था तो रोटी की थाली दूर फैंक देता था.....और सारा घर सहम जाता था....अरे, भई पकी पकाई मिल रही है....खा ले ....नमक ज़्यादा है तो दो चम्मच दही डाल ले...

लिखते लिखते सिर भारी हो गया है खामखां ....चलिए, सुनयना फिल्म की गीत सुनता हूं भारीपन को दूर भगाने के लिए....1979 की फिल्म ...मैंने कालेज में नये नये पैर रखे थे, रात में कभी कभी विविध भारती लग जाता था तो उस में यह गीत बजता था ...सुन कर मज़ा आता था ....परसों इसे बहुत अरसे बाद विविध भारती पर सुना ....


गुरुवार, 23 नवंबर 2023

मुक़द्दर तो उन का भी होता है जिन के हाथ नहीं होते ....

आते जाते रस्तों पर कुछ मंज़र ऐसे होते हैं जो दिलोदिमाग में जैसे सेव हो जाते हैं..सेव ही नहीं हो जाते....लेकिन बार बार उन की फाइल ख़द-ब-ख़ुद खुलती रहती है दिन में कईं बार ...

आज सुबह जब मैंने टाइम्स ऑफ इंडिया के साथ आई इक्नॉमिक टाइम्स खोली तो मुझे दो पन्नों पर पसरा हुआ एक इश्तिहार नज़र आया....इश्तिहार किसी बहुत बड़े प्राईव्हेट बैंक का था...जिसमें एक बाप अपने बेटे को एक टॉय-मोटर कार में बिठा कर घुमा रहा है ....दोनों इस मस्ती का भरपूर आनंद लेते नज़र आए...

इस इश्तिहार को देखने के बाद मुझे दो दिन पुराना मुंबई सीएसटी स्टेशन का एक मंज़र याद आ गया....याद क्या आ गया, वह दृश्य तो मेरे साथ ही रह गया तब से....

दो दिन पहले मैं बाद दोपहर में मुंबई सीएसटी लोकल स्टेशन पर लोकल-ट्रेन से उतरा और मैं प्लेटफार्म पर चल रहा था तो अचानक मैंने एक खड़खड़ाहट की आवाज़ सुनी....देखते ही देखते लोकल ट्रेन के साथ वाले डिब्बे से एक दिव्यांग युवक ने प्लेटफार्म पर लकड़ी से बना एक जुगाड़ सा निकाला जिस के नीचे पहिए लगे हुए थे ...उसे प्लेटफार्म पर रखते ही, वह भी डिब्बे से बाहर कूदा और झट से उस के ऊपर बैठ कर अपने परिवार के साथ बाहर की तरफ़ चलने लगा...

मैं यह देख रहा था कि उस की भुजाओं में अच्छी शक्ति थी जितने बल से वह उस जुगाड़ को चलाने में उन को इस्तेमाल कर रहा था ...मैं यही सोच रहा था कि सब ईश्वर के रंग हैं, अगर किसी चीज़ की कमी रह जाती है तो दूसरे तरीके से उस की भरपाई करने की कोशिश करता है ....

खैर, अभी दस बीस कदम ही चले होंगे कि मैंने देखा कि उस के साथ चलने वाली महिला (संभवत उस की बीवी ही होगी) उस को कुछ पकड़ाने की कोशिश कर रही थी ...मैं उस तरफ़ ठीक से देख नहीं रहा था, इसलिए मुझे लगा कि थैला, बैग इत्यादि उस को थमा रही होगी....

लेकिन नहीं, मुझे उसी वक्त पता चल गया कि उस ने जो छोटा बालक उठाया हुआ था उसे उसने उस की गोद में दिया है ...मुझे इस बात ने छू लिया....

और मैंने थोड़ा आगे चल कर देखा कि वह अबोध बालक अपने बाप की गोद में भरपूर खुश था ....होता भी क्यों न, बाप की गोद मेंं था ....वह इधर उधर के नज़ारे देखते ही उछल रहा था ...

हर बच्चे के लिए उस के सुपर-डुपर हीरो उस के मां-बाप ही होते हैं जिन की गोद ही काफी है ....मनवा बेपरवाह 

मंज़र तो कुछ ज़्यादा ही दिल को छू लेने वाला था कि एक दिव्यांग बाप जिस की दोनों टांगे कटी हुई हैं, वह एक लकड़े के जुगाड़ की मदद से प्लेटफार्म पर चल रहा है, और साथ में अपने नन्हे बालक को भी उस की सवारी करवा रहा है ...

जैसे ही मैंने इस परिवार को देखा तो मुझे भारतीय रेल की महानता का ख्याल भी आया कि इस भारतीय रेल के कारण ही यह पूरा परिवार इस तरह से सफर करते हुए मुंबई सीएसटी तक पहुंच भी गया और जो भी इन का उस दिन का प्रोग्राम रहेगा, उस के बाद इसी तरह से ये लोग अपने आशियाने में भी सकुशल लौट जाएंगे....जय हो भारतीय रेल मैया की...निःसंदेह यह मां की तरह अपने सभी यात्रियों का ख्याल रखती है..

कुछ मंज़र ऐसे होते हैं जो बस उम्र भर याद रह जाते हैं...जून 2007 की बात है, हम लोग कुल्लू-मनाली की यात्रा पर निकले थे...चंडीगढ़ से एक गाड़ी ले ली थी ...उस का ड्राईवर भी छोटी उम्र का ही था...यही कोई 20-22 बरस का रहा होगा....कुल्लू से चले तो मनाली पहुंचने से पहले मनीकरण में एक बहुत ऐतिहासिक गुरूद्वारा है ...कुल्लू से यही कोई एक घंटे का रास्ता होगा....पहाड़ों की सड़कों के बारे में तो आप जानते ही हैं...ऊपर से उस सड़क की मुरम्मत का काम चल रहा था ...जिस की वजह से किनारे एकदम कमज़ोर से ...भुरते हुए ....एकदम शिथिल ...सड़क इतनी संकरी की क्या कहें, लिख नहीं पा रहा हूं ....और सड़क के एक किनारे पर पहाड़ और दूसरी तरफ़ नीचे ब्यास नदी जो पूरे उफान पर थी ...जो पूरे शोर के साथ अपने गन्तव्य की तरफ़ भाग रही थी ....उस रोड़ पर जाते वक्त इतना डर लगा उस दिन कि आज 16-17 बरस हो गए हैं इस बात को ..लेकिन उस के बाद कभी भी किसी रोड़ से डर नहीं लगा....यही लगता है कि अगर उस दिन इतनी जोखिम वाली रोड़ पर ड्राईवर ने गाड़ी चला ली तो दूसरी सड़कों की तो ऐसी की तैसी....यह हुई एक बात...

दूसरी बात यह है कि मैं जिन 7-8 बरसों में लखनऊ में रहा ...वहां के बहुत बड़े बड़े खूबसूरत बाग़ देखने का, उन में सुबह शाम टहलने के बहुत मौके मिले....किसी महिला को वॉकर के साथ सुबह टहलते देखता, किसी को उस की बिल्कुल झुकी हुई रीढ़ की हड्डी के बावजूद भी टहलते देखता तो मैं अचंभित हुए बिना न रह पाता....एक बार तो इतने बुज़ुर्ग को देखा जो चींटी की चाल से चल रहे थे ...85-90 बरस के रहे होंगे ..लेकिन जब मैंने उन से बात की तो उन्होंने बताया कि वे रोज़ाना आते हैं और पूरे बाग का चक्कर काटते हैं....मैं यही सोचता रह गया कि बढ़िया है यह घर से बाहर तो निकलते हैं ..लेकिन कब चक्कर शुरु करते होंगे और कब उसे मुकम्मल कर पाते होंगे...खैर, इस के अलावा भी मैंने बहुत से ऐसे लोगों को देखा जो शायद घुटनों के हालात की वजह से मुश्किल ही से चल पा रहे होते....लेकिन उन का निश्चय पक्का होता.... सुबह की सैर के इन सब किस्सों पर मैंने इस ब्लॉग में दर्जनों पोस्टें भी लिख दीं...केवल इसलिए कि इन यादगार लम्हों को सहेज लिया जाए कैसे भी ...

बंबई में भी लोकल ट्रेनों में 80 बरस से भी ऊपर के बुज़ुर्गों को ट्रेन में आते जाते और खास कर चढ़ते उतरते देख कर अब मुझे हैरानी नहीं होती....क्योंकि यह बात तो मेरी समझ में आ चुकी है कि ये लोग शायद पिछले 60-70 बरस से इन्हीं ट्रेनों पर सफर कर रहे हैं...इन को कौन सेफ्टी समझाएगा...वे इन ट्रेनों के वक्त के बारे में, जिस वक्त इन में भीड़ नहीं रहती, कौन सा लेडीज़, जेंट्स, बुज़ुर्ग डिब्बा किस जगह आएगा और किस में चढ़ना है और कहां से आसानी से बाहर निकलना है, इस पर ये बुज़ुर्ग शोध किए हुए हैं...शारीरिक तौर पर थोडे़ कमज़ोर लगते होेंगे, लेकिन बौद्धिक एवं आत्मिक तौर पर एकदम टनाटन हैं....और कईं वयोवृद्ध महिलाओं पुरूषों ने तो अपनी लाठी के साथ कुछ सामान भी उठाया होता है ....

यह सब मैं क्या लिख रहा हूं...इसलिए लिख रहा हूं कि हम सब इन लोगों से प्रेरणा ले सकें....हम सुबह शाम टहलने न जाना पड़े, इस के लिए नए नए बहाने अपने आप ही से करते हैं अकसर .....लेकिन ऊपर आपने उस दिव्यांग बंदे की चुस्ती-फुर्ती देखी ...अभी उस की फोटो भी लगाऊंगा....सिर्फ इसलिए कि बिना फोटो के आप लोग बात मानते नहीं हो, और अगर फोटो लगी होगी तो सब को प्रेरणा भी मिलेगी कि अगर यह बंदा दुनिया को जीने का अंदाज़ सिखा रहा है, तो हमें तो कुछ भी नहीं हुआ, लेकिन फिर भी हम कभी खुश नहीं रहते ....कभी ईश्वर को कोसते हैं, कभी किसी दूसरे को, कभी तीसरे को ....हर वक्त यही चलता रहता है ....

पल पल हर वक्त हंसते हुए इस ईश्वर का शुक्राना करने के अलावा जीने का कोई तरीका ही नहीं ....कुछ भी तो हमारे नियंत्रण नहीं है, इसलिए ईश्वर जिस भी हालात में रखे, उस का शुक्रिया तो करना बनता ही है ....सांसें चल रही हैं....बाहर गई सांस वापिस लौट कर आ रही है, इस से बड़ी अद्भुत बात क्या होगी....प्रकृति के रहस्य क्या जानेंगे, क्या करेंगे....आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस आ जाए, चैट जीपीटी आ जाए ...मानवीय संवेदनाएं हमेशा से सर्वोपरि हैं, रहेंगी ...इन की पैमाईश कौन करने बैठेगा ...जब तक सांसों की डोर चल रही है, सब कुछ संभव है....

ओ हो ...यह पोस्ट तो बड़ी भारी भरकम लग रही है ....हां, बार बार उस दिव्यांग का ही ख्याल आ रहा है कि उसने हार नहीं मानी, किसी से गिला-शिकवा नहीं किया, अपनी पारिवारिक जिम्मेदारी से मुंह नहीं मोड़ा, अपने नन्हे-मुन्ने को अपनी गोद में लेकर मुंबई दिखाने निकल पड़ा ....जब कि हम अक्सर देखते हैं जो लोग हर तरह से सक्षम होते हैं, साधन-संपन्न होते हैं कईं बार इस तरह के सैर-सपाटे में उन के नौकर-चाकरों ने बाबू को उठाया होता है ....

 और इस इश्तिहार की टैग-लाइन पर गौर फरमाईए.... दौलत के सफर की शुरूआत ...

और हां, यह तस्वीर भी देख लीजिए जो अखबार में दिखी ....ठीक हैं, ये बाप बेटा भी खुश हैं लेकिन जो प्लेटफार्म पर बाप-बेटा एक लकड़ी के पटडे़ पर निकल पडे़ हैं, उन की खुशी..खास कर उस नन्हे बालक की खुशी मुझे किसी तरह से कम न दिखी ...आप को क्या लगता है? कहीं यह मेरी नज़र का धोखा तो नहीं या मुझ से कुछ देखने में छूट रहा है ....

रविवार, 1 अक्टूबर 2023

आज अचानक स्टोव याद आ गया...

15.9.23


आज शाम मैं पैदल स्टेशन की तरफ़ जा रहा था तो मेरी निगाह अचानक मेरे आगे चल रहे एक शख्स पर पडी जिसने स्टोव उठा रखा था....मुझे याद नहीं इस तरह से स्टोव को हाथ में उठाए मैंने आखिरी बार कब देखा था...वह भी स्कूल और कभी कालेज के दिनों में ही ...मैंने झट से इस मंज़र की एक-दो तस्वीरें खींच लीं....क्योंकि एक दो पिछले साल एक एंटीक शॉप में ही देखा था इस तरह का स्टोव...बाकी तो यह सब अब कहां दिखता है...

इंसान भी कितना जिज्ञासु जीव है ...फोटो खींच लेने के बाद मुझे यह चाह होने लगी कि किसी तरह इस शख्स से दो बातें भी हो जाएं...बस फिर क्या था, मैं दो चार कदम तेज़ चला और उस के पास पहुंच कर मुस्कुराते हुए कहने लगा कि आज मुद्दतों के बाद इस स्टोव के दर्शन हुए ....मेरी बात सुन कर वह भी हंसने लगा ...बस, फिर बात चल निकली। 

उस ने बताया कि यह स्टोव उस के पड़ोस में अकेले रहने वाली एक बुढ़िया काकी का है ....उन का पति सरकारी नौकरी करता था, रिटायर होने के बाद अब वह परलोक सिधार चुके हैं, महिला को पेंशन आती है, आराम से बैठ कर खाती है...फ्लैट अपना है उस काकी का ...दो बेड-रूम वाला ....एक लड़की है जिस की शादी हो चुकी है और वह इंगलैड में रहती है। काकी कहीं आती जाती नहीं, और अगर कहीं जाना भी हुआ तो टैक्सी में ही जाती है, मैं उस की मदद के लिए साथ चला जाता हूं। 

वह अपने आप ही कहने लगा कि घर का सामान, सब्जी-फल सब वह ही लाता है..दस बीस रूपये दे देती है ..चाय पिला देती है ...वह कहने लगा कि वैसे तो मदद करने के एवज़ में किसी से कुछ लेना नहीं चाहिए...मैंने कहा, ऐसी क्या बात है, वह खुशी से ही तो देती है तु्म्हें अपना समझ कर। हां. हां --वह कहने लगा कि यह तो है और अगर कभी उस की चाय न पियो तो नाराज़ हो जाती है, गुस्सा करती है कि तुम मेरी चाय भी नहीं पीते। कहने लगा कि आधार कार्ड दिखा रही थी मुझे कुछ दिन पहले 1931 का जन्म है उस काकी है। 

1.10.23

मैंने अभी देखा मैंने इस पोस्ट को लिखना तो दो सप्ताह पहले शुरू किया था ...लेकिन याद है कि अचानक लिखते लिखते नींद आ गई...सो गया...और फिर कभी इसे पूरा करने की इच्छा ही न हुई। 

अब देखता हूं लिखते लिखते क्या बातें उस दिन की याद हैं ..बची खुची। लिखना ज़रुरी है ...कुछ भी जो मन में आए लिखते रहा करें...कुछ भी ...बरसों बाद यही साहित्य कहा जाएगा..। हां, मैंने पूछा कि कहां से इस स्टोव को मुरम्मत करवा लाए। उसने जगह का नाम बताया ....और यह भी बताया कि मुरम्मत पर 50 रूपए खर्च हुए हैं...

चलते चलते मुझे ख्याल आया कि मिट्टी का तेल (घासलेट, केरोसीन) तो आज कल मिलता नहीं है....उसने बताया कि सब मिलता है ..लेकिन अब सफेद रंग में मिलता है और 100 रुपए लिटर मिलता है। वह उस काकी के लिए खरीद के लाता है। रास्ता अभी पड़ा था...और मैंने उस से यह भी पूछ ही लिया कि जैसे एक स्टोव खराब हो गया तो जब तक वह ठीक नहीं हो जाता तब तक उस वृद्धा का खाने-पकाने का काम कैसे चलता है। उसने बताया कि काकी बहुत होशियार है, उसने दो स्टोव रखे हुए हैं, चकाचक हालात में हैं दोनों...एक खराब हुआ तो दूसरे स्टोव से उस का काम चल जाता है। 

मैंने उस से कहा कि आज के ज़माने में भी स्टोव का इस्तेमाल करना ...कुछ हैरान सा करता है। कुकिंग गैस का कनेक्शन क्यों नहीं ले लेतीं वह ...यह सुन कर उसने बताया कि ले सकती हैं, ज़रूर ले सकती हैं लेकिन उसे गैस के चूल्हे से आग लग जाने का डर लगता है ....

मुझे उस की यह बात सुन कर यह ख्याल आया कि यह जलने-जलाने का सिलसिला तो स्टोव के दिनों में भी होता रहा ....मुझे याद है हम छोटे छोटे थे, मां जब स्टोव को जलाने के लिए संघर्ष कर रही होती बार बार पिन मार मार कर और अगर हम साथ ही बैठे होते तो हमें झट से परे कर देती कि दूर रहो, यह अचानक कईं बार धधक पड़ता है ....हम दूर हो जाते ..वह लगी रहती। 

मुझे याद है वर्ष 1972 दिसंबर के आखरी हफ्ते में हमारे यहां अमृतसर में कुकिंग गैस आई थी, कुल खर्च दो सौ रुपए से कम आया था ...सिलेंडर उन दिनों 21 रूपये का होता था.(इस की रसीद बरसों पहले मुझे मेरे पिता जी की लोहे की संदूकची में पड़ी मिली थीं जिस में वह ज़रूरी कागज़ रखते थे) ....दूसरा सिलेंडर उन दिनों नहीं मिलता तो, कईं कईं दिन बुकिंग करवाने के बाद इंतज़ार करना होता था, वेटिंग लिस्ट हुआ करती थी, काला बाज़ारी ज़रूर होती होगी, सुनते थे ...लेकिन अपने पास ये सब साधन नहीं थे, इसलिए इत्मीनान से मां अपनी पुरानी अंगीठी और स्टोव का रुख कर लेती। 

जहां तक मेरी यादाश्त मेरा साथ दे रही है ....गैस सिलेंडर खत्म होने पर या घर में कुकिंग गैस आने से पहले घर में अंगीठी का ही ज़्यादा इस्तेमाल होता था... स्टोव कभी कभी एमरजेंसी में जलाया जाता था क्योंकि मिट्टी का तेल भी उन दिनों राशन की दुकान से ही मिलता था ...यही कोई पांच लिटर महीने का ...और वह राशन की दुकान वाला बड़ा धूर्त था ...कितने चक्कर लगवाता था, बड़ी बहन के लेडी-साईकिल के कैरियर के पीछे पांच लिटर की पीपी लेकर वहां जाना याद है ....और पांच लिटर की उस की क्षमता होते हुए भी वह उसमें पांच लिटर तेल जब डाल देता तो भी वह ऊपर तक न दिखता ....घर आने पर जब मां देखती कि कितना कम है, तो वह भी उसे कोसने लगती....खैर, दिन बढ़िया चल रहे थे ....मिट्टी का तेल तो शायद दूसरी दुकानों से भी मिल ही जाता होगा और कभी हम लोग ले भी आते होंगे ...एमरजैेंसी में ....लेकिन यह सब ब्लैक में कैरोसीन हो या सिनेमा की टिकटें खरीदना ....यह अपने लिए कभी सिरदर्दी न रहा क्योंकि हम लोग हैंथ टू माउथ जीने वाले लोगों की श्रेणी में आते थे ...अब तो कईं फेशुनेबल लफ़्ज़ आ गए हैं ...शू-स्ट्रिंग बजट पर जीना .....इत्यादि इत्यादि ....सही मायने वही लोग जानते हैं जो उस वक्त के साक्षी रहे हैं...

हां, तो अंगीठी तो तभी जलाई जाती थी जब सारा खाना उस पर पकाया जाना होता...लेकिन ऐसे ही चाय वाय उबालने के लिए, दूध गर्म करने के लिए स्टोव ही जला लिया जाता...गैस आने के बाद अंगीठी और चूल्हा दूर होते गए, लेकिन तब भी बढ़िया सी दाल और सरसों का साग इस की आंच पर ही पकता....गैस पर पके हुए सरसों का साग हमे बकबका लगता, दाल भी फीकी लगती ....हा हा हा हा हा ......यह तो हम थे, उन दिनों लोग यह भी शिकायत करने लगे थे अड़ोस-पड़ोस में कि जब से गैस आई है उन के तो पेट मे गैस बनने लगती है ...😎😀 ...वैसे तो जब नए नए स्टील के बर्तन 1970 के आस पास चलने लगे तो यह अफवाह आम थी कि इन के इस्तेमाल से कैंसर हो जाता है ...😇

पीतल का स्टोव मुझे अच्छे से याद है जिस को बार बार मुरम्मत के लिए ले जाना पड़ता था कभी उस का कुछ खराब हो जाता तो कभी कुछ ...लिखते लिखते बातें याद आ जाती है...उन दिनों हमने यह भी सुना था कि कईं बार कोई स्टोव फट गया ....किसी का चेहरा जल गया...मां को इसलिए भी स्टोव से बड़ा खौफ़ लगता था ....उसे एकदम चालू हालत में रखती थीं...मुझे इतना याद है कि जब बहुत छोटे थे तो हमें पांच पैसे की स्टोव की पिन लेकर आनी होती थी ...पांच पैसे की पांच ...जिस से स्टोव को जलाने में मदद मिल जाती थी ...कईं बार दो तीन पिन बार बार स्टोव के सुराख में जब वह न जलता तो मैं परेशान हो जाती ....थक भी जाती होंगी, झुंझलाती भी होंगी ...लेकिन नहीं खाना तो पकना ही होती, चाय और परांठे भी तैयार होने होते  ...इसलिए झट से अंगीठी जलाने की तैयारी करने लगती ....कईं बार सोचता हूं तो लगता है कि मेरी उम्र के अधिकतर लोगों ने भी बहुत से दौर देखे हैं, हम बदलते वक्त के गवाह रहे हैं...और हां, स्टोव जलाने के लिेए एक कॉक भी तो हुआ करता था जिसे मिट्टी के तेल के छोटे से डिब्बे में डुबो कर रखा जाता था ...यह भी स्टोव जलाने में मददगार होता था ...

हां, जब गैस आ गई तो धीरे धीरे जागरूकता के चलते अंगीठी तो रसोई के बाहर ही रखी जाती और स्टोव भी ....उन दिनों हम लोग बहुत डरते थे गैस से ...दिन में जितनी बार गैस को जलाना, उतनी बार बुझा कर, नीचे से उस की नॉब को घुमा कर बंद भी करना ...कस कर ....इतना कस कर कईं बार कि अगली बार मां से वह खुल ही न पाए या कईं बार तो उस गैस की नॉब की चूड़ीयां ही घिल जाती होंगी ....(एक आध बार ऐसा हुआ भी ....पता नहीं क्यों)....

घर में 1972 के आखरी दिनों में गैस आने की बात याद आती है तो उस दिन पहली बार बनी चाय की भी याद आती है ....दो मिनट में चाय तैयार ....करिश्मा लग रहा था। गैस घर में पहुंचने के कुछ दिन पहले पता चल जाता था ...गैस एजैंसी के चक्कर काट काट के जूते घिसवाने के बाद, फिर रसोई में सीमेंट की एक स्लैब का प्रबंध किया गया....उस सरकारी मिस्तरी के लिए भी यह काम नया था ....उसने तो पक्की मजबूत स्लैब जब तैयार कर दी बिल्कुल लेंटर जैसी ....लेकिन जब तक गैस आ गई और उसे उस स्लैब पर रखा गया तो पता चला कि वह तो बहुत ऊची बन गई है ...उस पर काम करने के लिए मां को नीचे दो तीन ईंटे रखनी पड़तीं... परेशान हो गई मां ....फिर उस सरकारी मिस्तरी ने एक दूसरी स्लैब बनाई ....दूसरी दीवार पर ....पहले वाली से एक फुट के करीब नीचे ....फिर वह गैस की जगह बदल गई और पहली स्लैब पर बर्तन सजाए जाने लगे ....हा हा हा ....कुछ दिन पहले मैं और मेरी बड़ी बहन ये सब बातें याद कर खूब हंस रहे थे ....कुछ यादें होती ही ऐसी हैं....

लगता है बंद करूं अब इस पोस्ट को ....बहुत हो गया....गैस की लंबी प्रतीक्षा सूची और कनेक्शन मिल जाने के बाद भी किल्लत, मिट्टी के तेल की काला बाज़ारी.....ये सब बातें मेरी उम्र के लोग भुगत ही चुके होंगे ...लेकिन एक बार की बात है बचपन में जब गैस नहीं आई थी, तेल भी नहीं मिल रहा था और कोयला भी न मिल रहा था ...मुझे एक ही ऐसा वाक्या याद है कि मां ने चूल्हे पर रोटी बनाने के लिए लकड़ी के टॉल (लकड़ी की आरा मशीन) से लकड़ी के डक्क (पंजाबी लफ़्ज़ है लकड़ी के छोटे टुकड़ों के लिए) मंगवाए थे ...मुझे याद है मेरा बडा़ भाई उन को बोरे में ला रहा था ....मैं उस के साथ कुछ दूरी पर पैदल चल रहा हूं....

हम बहुत आधुनिक हो गए हैं....अब ज़माना है दाल सब्जी रोटी परांठे (रेडीमेड) का, रेडी़ टू इट, रेडी टू कुक ....गर्म करने का झंंझट नहीं, एक मिनट दाल को गर्म करने पर माइक्रोवेव में वह मुंह जला देती है ....लेकिन हम भी क्या करें, हमें अंधी दौड़ में पीछे न रह जाने की फ़िक्र है ....हम भाग रहे हैं....हमें अपने खाने-पीने से अब कुछ खास मतलब नहीं रहा ....पेट भर लेते हैं....और उस के नतीजे जो देश समाज के सामने आ रहे हैं, उस के बारे में भी हम सब जानते हैं.....

उस स्टोव वाले बंदे ने आज मेरी यादों के मकड़जाल को छेड़ दिया हो जैसे.....कुछ फिल्मी गाने भी अपने से लगते हैं, गुज़रे ज़माने के परिवेश से मिलते जुलते हैं.....याद दिलाते हैं उन्हीं दिनों की ....मां की भी .... 



शनिवार, 8 जुलाई 2023

चूहेदानी से आप को भी कुछ तो याद आएगा....


कुछ दिनों पहले की बात है घर से कबाड़ निकाला जा रहा था ...मुझे तो ऐसे लगने लगा है कि जिन घरों में भी ज़रुरत से ज़्यादा सामान होता है वे कबाड़ी की दुकान जैसे ही लगने लगते हैं ..लेकिन यह भी एक तरह की बीमारी है जो बस लग जाती है , समय रहते इसका इलाज भी ज़रूरी है...खैर, जैसे ही मुझे यह चूहेदानी दिखी तो मुझे तो गुज़रा ज़माना याद आ गया और मैंने इस की फोटो खींच ली...

मैं यही सोचने लगा कि पहले दिनों में कैसे चूहों से निजात पाई जाती थी ...सब से पहले तो मुझे मेरे स्कूल के पांचवी कक्षा के गुरुजी याद आए ...जिन्होंने हमें उन दिनों यह बताया कि अनाज के भंडारण को कैसे किया जाए कि उसके अंदर चूहे दाखिल न हो पाएं...सच में मुझे उन की एक ही बात याद रह गई ...अनाज के भंडारण के लिए वह भड़ोली आदि की बातें कर रहे थे ...यह एक पंजाबी लफ़्ज़ है मेरे ख्याल है ...दरअसल आज से 50-55 बरस पहले क्या होता था कि गांव-कसबे में अनाज के भंडारण के लिए घरों में मिट्टी की बनी भड़ोली का इस्तेमाल होता था ...फिर धीरे धीरे लोहे की बड़ी बड़ी 5-6-8-10 फुट (ज़रूरत के मुताबिक) पेटियों में घरेलू इस्तेमाल के लिए अनाज रखा जाने लगा....

हां, मुद्दा तो आज का चूहेदानी है ....बचपन की याद है मुझे बस इतनी कि पूरे गली-मोहल्ले में दो तीन घरों में ही लकड़ी की चूहेदानी होती थी, वह कभी खराब न होती थी, कभी धोखा न देती थी ...यह भी एक स्टेटस-सिंबल से कम बात न थी कि सोढी के घर में या कपूर के घर में चूहेदानी है। पहले हम लोग घरों में तरह तरह का कबाड़ खाने-पीने-पहनने का .....इक्ट्ठा ही कहां होने देते थे ...साफ़ सफ़ाई टनाटन हुआ करती थी ...और अगर कभी रसोई में चूहा दिख गया तो बस, फिर किसी के घर से वह लकड़ी की चूहेदानी लानी होती थी। और रात में खाने के वक्त चूहा पकड़ने की साज़िश होती थी कि आज चूहेदानी में रोटी लगा के सोना है ...और मां सोने से पहले रोटी का एक टुकड़ा उस के अंदर किल्ली में फँसा कर ही सोती ...सुबह उठते ही अगर तो चूहा उसमें फंसा हुआ मिलता तो सब की खुशी का पारावार कुछ इस तरह का होता जैसा किसी बहुत बड़े पहाड़ पर विजय हासिल कर ली हो...और अगर उसमें रोटी गायब होती और लेकिन चूहेदानी का मुंह खुले का खुला होता तो ऐसे लगता जैसे पता नहीं कौन सी जंग हार गए हैं, पल भर की मायूसी और फिर ठहाकों का दौर ...कि चूहा पिंजरे से भी बच कर निकल गया....रोटी उड़ा कर ले गया....देखा जाए तो उस दौर के सीखे हुए ये सबक थे ...जाको राखे साईंयां मार सके न कोए....

कल मुंबई की बरसात में भी यह साईकिल सवार दिखा ..एक हाथ से साईकिल चला रहा था, दूसरे से छाता थामे हुए था ...

और जिस घर में चूहा चूहेदानी में फंसा मिलता तो आसपास दो चार लोगों को (खासकर हमारे जैसे शरारती बच्चों को) तो यह पता चल ही जाता और हम आगे की प्रक्रिया सोच कर रोमांचित होते ....मुझे बिल्कुल अच्छे से याद है कि हमारे घर से चार पांच घर छोड़ कर ही एक शाम लाल नाम के अंकल जी रहते थे ..उन के घर में हर सप्ताह महिलाओं का कीर्तन हुआ करता था दोपहर में ...और एक बात उन के बड़े बेटे को मैंने इतनी बार साईकिल पर चूहेदान को पीछे कैरियर पर रख कर जाते देखा कि मुझे जब भी वह बंदा दिखता तो मुझे यही लगता जैसे वह इसी काम के लिए जा रहा है ....अब हर किसी के साईकिल के पीछे कैरियर तो नहीं होता था ..इसलिए कुछ जां बाज़ लोग एक हाथ में चूहेदानी और एक हाथ से साईकिल चलाते हुए अपनी मंज़िल की तरफ़ निकल पड़ते।

हां, तो यह मंज़िल क्या होती थी, हम को अच्छे से पता होता था ...इसलिए जो भी बच्चे किसी को इस तरह चूहेदानी को थामे या साईकिल के पीछे रखे हुए देख लेते, अपने सभी खेल, कंचे, गुल्ली-डंडा .....सब कुछ छोड़-छाड़ कर हम उस साईकिल वाले के पीछे हो लेते ...कोई ज़्यादा दूर नहीं जाना होता था चूहे को उस की मंज़िल तक पहुंचाने के लिए .....यही कोई चार पांच सौ मीटर पर ही उस की मंज़िल होती थी ...यह दो तरह की होती थी ..एक तो कोई खुला सा बड़ा सा नाला ...या पास में ही मौजूद कोई बडा़ सा खेल का मैदान ...यह उस साईकिल सवार की डिस्क्रिशन होती थी ....अपने आसपास पांच सात बच्चों का जमावड़ा देख कर वह भी अपने आप पर, अपनी बहादुरी पर अंदर ही अंदर इतराता तो ज़रूर होगा...

हमारे लिए वह पल रोमांच से भरा होता था जब चूहेदानी का किवाड़ खुलते ही जनाब चूहा जी फुदक कर बाहर निकलते ...लेकिन अकसर नाली में गिरने की बजाए वह उस के किनारे पर लैंड कर के सरपट दौड कर देखते ही देखते आंखों से ओझिल हो जाता.(हम लोगों के बिंदास ठहाके शुरु हो जाते) ..और उस साईकिल वाले बहादुर का मुंह उतर सा जाता कि अगर फिर से यह उसी के घर में आ गया तो ....लेकिन नाले में गिरने से कौन सा गारंटी होती कि वह वापिस न आएगा....आज सोचता हूं तो यही लगता है कि यह सारी प्रक्रिया बस उतने तक महदूद थी कि इस बला को अपने घर से तो निकालो....वापिस लौट कर कहीं भी जाए....

अभी लिखते लिखते याद आया कि कईं बार ऐसा होता था कि घर में कोई चूहेदानी के साथ साईकिल या पैदल यात्रा करने के लिए राज़ी न होता तो उस चूहेदानी के घर के दरवाजे के बाहर ही खोल दिया जाता ....वह नज़ारा हमें इतना रोमांचक न लगता ..लेकिन कभी कभी उस में भी रोमांच का तड़का लग ही जाता जब चूहा पिंजरे से निकल कर मोहल्ले में किसी दूसरे के घर में घुस जाता और अगर उस घर का कोई सदस्य भी यह देख रहा होता तो खामखां एक तकरार सी हो जाती कि यह क्या बात हुई ....अपने घर से निकाल कर इधर भेज दिया...खैर, वह भी बस थोड़े वक्त के लिए ...(कईं बार तो चूहा वापिस अपने पैतृक घर में ही वापिस लौट जाता) ...

बाद में चूहेदानीयां लोहे से तैयार हुई भी मिलने लगीं  और कईं बार तो चूहा रोटी ले कर निकल जाता लेकिन उसमें फंस न पाता ...लेकिन कईं बार बहुत मोटा चूहा अगर उस में फंस जाता तो यह साजिश रचने वाले को उतनी ही ज़्यादा खुशी मिलती। फिर कुछ चूहे मारने की दवाई तो आने लगी जिसे रोटी की जगह उस पिजरे में रखा जाने लगा, जिससे वह मर कर उसी में कैद हो जाता  ...हमेें यह देख कर बहुत बुरा लगता कि यह मारने वारने का क्या चक्कर हुआ ...यह तो बहुत बुरी बात है ...हर किसी को जीने का हक है...


बस, पुरानी यादें तो यहीं तक थीं ....फिर धीरे धीरे पता नहीं चूहे के ज़हर के नाम पर क्या क्या आने लगा ....बेचारे चूहों को शर्तिया मारने की बातें होने लगीं.. ....अब तो बाज़ार में आते जाते देखते हैं कि कुछ ऐसे उत्पाद भी आ गये हैं इसी काम के लिए जिनसे हर्बल गैस निकलती है और वह इन चूहों का सफाया कर देती है ...अकसर बाज़ार में ड़ों आते जाते इस तरह के व्यापारी दिख जाते हैं ....लेकिन मैं इन सब खतरनाक जुगाड़ों का हिमायती नहीं हूं बिल्कुल भी ....

आज दोपहर की बात है ...बंबई के फुटपाथ पर एक बंदा आठ दस छोटे छोटे पाउच रखे बैठा था ..उन पर लिखा था ...रैट-प्वाईज़न ....100% प्वाईज़न---फोटो ले लेता अगर उस वक्त मैं बंबई की उमस की वजह से पसीने से लथपथ न होता ...मैं उसे देख कर यह सोचते हुए आगे बढ़ गया कि क्या ज़माना आ गया, ज़हर के लिए भी सौ-फ़ीसदी की शुद्धता की गारंटी देनी पड़ती है ....व्यापारी भी क्या करें, हर तरफ़ मिलावटखोरी का बोलबाला जो है ....

चलिए, मेरा एक काम तो पूरा हुआ....मैं कईं बार लिखता हूं न कि कुछ पुरानी आइट्म, बातें, यादें मुझे लिखने के लिए प्रॉप्स का काम करती हैं, जैसे डॉंसर प्रॉप्स इस्तेमाल करते हैं, कुछ कुछ शायद उसी तरह से ...वैसे चूहेदानी की पुरानी बातों से आप को कुछ तो अपने दिन भी याद आए ही होंगे, अगर ऐसा है तो लिख दीजिए इस ब्लॉग के नीचे कमैंट्स में ...अगर अनानीमस (बेनामी) टिप्पणी भी लिखना चाहें तो लिख दीजिए....दिल को हल्का कर लीजिए...

बुधवार, 24 मई 2023

बिनाका गीत माला - कुछ यादें , कुछ बातें !

अभी मैं अपने रूम की थोड़ी साफ़ सफ़ाई कर रहा था तो अल्मारी के एक कोने में एक छोटी सी किताब दिख गई ...करीब ५० साल पुरानी है ...नाम है हिट फिल्मी गीत -बिनाका गीतमाला-३ (१९७०-१९७६)- मेरे पास तो यह दो तीन बरसों से ही है, यही बंबई से इसे खरीदा था ...उस दिन यह लग रहा था कि काश, इस के सभी अंक कहीं से भी मिल जाएं तो ले लूं...अमीन सयानी की जादुई आवाज़ भी याद है हम सब को ...

खैर, मुझे उन दिनों की याद करने के लिए ऐसी पुरानी चीज़ें लगती हैं...यह उन दिनों की बात है जब बिनाका गीत माला ही दिसंबर महीने की हमारी सब से बड़ी दिल्लगी हुआ करती थी ...हमें बस यही फ़िक्र रहती थी कि ईश्वर कृपा करें शाम को इस प्रोग्राम के दौरान हमारा रेडियो चलता रहे ....रेडियो भी उन दिनों बड़े नखरे करता था ....कईं पापड़ बेलने पड़ते थे उस की स्पष्ट आवाज़ सुनने के लिए...खैर, कभी आप को अपने रेडियो से जुड़े ब्लॉग का लिंक दूंगा ..जिसमें मैंने रेडियो के बारे में सभी बातें लिख डाली हैं....रेडियो लाईसैंस फीस देने वाले दिनों की बातें भी ..

खैर, मैं इस वक्त जब यह लिख रहा हूं सच में मुझे याद नहीं आ रहा कि क्या मनोरंजन के नाम पर हमारी ज़िंदगी मेे उन दिनों बिनाका गीतमाला के अलावा कुछ था ....अपने आप से पूछता हूं तो पक्का जवाब मिलता है ...नहीं, बिल्कुल नहींं। यह हमारे लिए ऐसे था जैसे आज की पीढ़ी के लिए बिग-बॉस...या कुछ और ...मुझे तो आज के टीवी के प्रोग्रामों के नाम भी नहीं आते ...आठ दस साल से देखा ही नहीं, ऑउट ऑफ टच....😂

हमारे बचपन का सच्चा साथी...मरफी का यह रेडियो ...आज भी देश के किसी कोने में यह हिफ़ाज़त से रखा हुआ है ...धरोहर है अपनी..

और जो इकलौता रेडियो घर में होता था हम उस के रहमोकरम पर रहते थे ...मेरे भाई को भी रेडियो सुनने का बड़ा शौक था...वह तो उस की आवाज़ साफ़ साफ़ सुनने के लिए थपथपाता ऱहता था उस को ...यह जो मैं तस्वीर यहां लगा रहा हूं यह हमारे घर के मरफी रेडियो की तस्वीर है जिस के साथ अनेकों यादें जुड़ी हुई हैं, दबी पड़ी हैं....उन में से कुछ लिख कर हल्कापन महसूस कर लेते हैं...


यह भी इसी किताब का ही एक पन्ना है ...

दिक्कत उन दिनों की यह भी थी कि रेडियो सुनना भी लगभग एक ऐब ही माना जाता था ....पढ़ाई के वक्त तो रेडियो डर डर के सुनते थे और हमारी कोशिश होती थी कि शाम के वक्त पिता जी के दफ्तर से लौटने से पहले सब गाने वाले सुन सना के उसे बंद कर दें और अपनी कोई कापी किताब उठा लें..(आठवीं क्लास में किताब में रख कर एक नावल भी पढ़ा था, बस एक बात ..उस के बाद पढ़ाई से ही कभी फुर्सत न मिली...लेकिन वह अपराध बोध उम्र भर के लिए साथ रह गया) ...रात के वक्त भी सुनने की इतना छूट न थी ...हमारा रेडियो पहले तो गर्म होने में वक्त लेता था ....ये सब बातें १९७० के दशक के शुरूआती बरसों की हैं...फिर तो १९७५ में हमने बुश का एक ट्रांजिस्टर ले लिया था ..बंबई आए हुए थे ...हमारे ताऊ जी का दामाद बुश कंपनी में बड़े ओहदे पर था ...उसने छूट दिलवा दी थी ....और मुझे याद है हम लोग उस ट्रांजिस्टर को शुरू शुरू में बहुत संभाल कर रखते थे ..अभी भी याद है शाम के वक्त आंगन में चारपाईयां बिछी हुई हैं, पंखे लगे हुए हैं, दो तीन अड़ोसी-पड़ोसी बैठे हुए हैं.....उस पर गीत बज रहे हैं, खबरें आ रही हैं, बीबीसी से भी...वह सैलों से भी चलता था और बिजली से भी ...जहां तक मुझे ख्याल है हम उसे बिजली पर ही चलाते थे ...

अगर पढ़ने में दिक्कत हो तो इस इमेज पर क्लिक कर के आसानी से पढ़ सकते हैं..


कहां यार मैं भी किधर निकल गया ....बिनाका गीतमाला की किताब है सामने और मैं कहां चारपाईयों पर उछल कूद करने लगा (उन दिनों हमें यह काम भी करना बहुत पसंद था, चारपाई के टूटने पर अपनी हड्डियों के टूटने की रती भर भी फिक्र न होती थी) ...डायमंड कामिक्स की इस किताब का दाम ३ रूपये लिखा हुआ है जो मुझे लगभग १०० गुणा दाम चुकाने पर मिली ....खरीदने की कोई जबरदस्ती नहीं थी...लेकिन मुझे चाहिए थी...इसे देखते ही मज़ा आ गया था ..

 आज की पीढ़ी को यकीं दिलाने के लिए कि रेडियो सुनने के लिए सालाना १५ रूपये की फीस डाकखाने में जा कर भरनी होती थी ...मैंने भी भरी हुई है ..(यह भी खरीदी हुई कॉपी है)..

ऊपर वाली रेडियो लाईसेंस बुक का एक पन्ना ....

१९७० से १९७६ के दिन अपने भी इन गीतों में डूबे रहने वाले दिन थे ...इस किताब में भी इन सात सालों की लिस्ट लंबी है ..जो बिनाका गीत माला की हिट परेड में शामिल किए गए ..इतनी लंबी लिस्ट कहां लिखता फिरूं....हर साल के पहले नंबर पर आने वाले गीत का नाम यहां लिखता हूं ...

१९७०- बिंदिया चमकेगी चूड़ी खनकेगी...

१९७१- ज़िंदगी इक सफर है सुहाना 

१९७२- दम मारो दम, मिट जाए गम 

१९७३-यारी है इमान मेरा यार, मेरी ज़िदगी 

१९७४- मेरा जीवन कोरा कागज़ कोरा ही रह गया...

१९७५- बाकी कुछ बचा तो महंगाई मार गई ..

१९७६- कभी कभी मेरे दिल में ख्याल आता है ...

अभी मैंने यह सोचा कि अगर मुझे इस पोस्ट के नीचे इन सात बरसों में जो गीत पहले नंबर पर रहे....उन में से एक चुनना होगा तो मैं किसे चुनूंगा ....तो मेरी पसंद बिल्कुल स्पष्ट थी ....और उस वक्त १९७१ में मेरी उम्र थी महज़ ९ साल की ...इतना सुना इस गीत को रेडियो पर, मोहल्ले में लगने वाले लाउड-स्पीकरों पर, सर्कस के मैदानों में.....कि ९-१० साल की उम्र में भी इस गीत का फलसफा शोखी की वजह से हमारे दिलो-दिमाग में कैद तो हो गया, .लेकिन इस की समझ बहुत बरसों बाद आई...😎😁


एक तरफ़ देखिए हमारी पीढ़ी को इन गीतों को सुनने के लिए कितनी मशक्कत करनी पड़ती थी और दूसरी तरफ़ आज ही की मुंबई की तस्वीर देखिए...मोबाइल पर कुछ भी सुनने का जुगाड़ फुटपाथ पर बैठे बैठे भी हो जाता है....👍 

मुंबई - २४.५.२३

मंगलवार, 16 मई 2023

रिप्ड जीन्स - कुछ नेक विचार


रिप्ड जीन्स के बारे में पता तो यही कोई १०-१५ बरस पहले लग गया था ...इस पहने हुए जवान लोग दिखने लगे थे ...लेकिन एक बार मैं दंग रह गया था ...यही कोई आठ दस बरस पहले की बात है ...एक ५-६ साल का बच्चा आया अपनी मां के साथ ....बच्चों को सजने-संवरने का शौक होता ही है ...हम भी उस उम्र में अपने ज़माने में बीस पैसे की वो मोमजामे वाली ऐनक लगा कर पता नहीं खुद को क्या समझने लगते थे ..समझें भी क्यों ने ....वक्त ही ऐसा होता है वो... हां, तो उस छोटे लड़के ने बड़े गॉगल-शॉगल लगाए हुए थे, जीन और टीशर्ट , कैप भी पहनी थी और पूरी फार्म में था ...अचानक मेरी नज़र उस की जीन्स की तरफ़ गई जो मुझे एक दो जगह से फटी दिखी...

यह तुम्हारी जीन्स कैसे फट गई -मैंने उसे पूछा.

डा.साहब, यह फटी नहीं है, इस डैमेज जीन्स को खुद इस की फरमाईश पर खरीदा गया है , उस की मां ने राज़ खोल दिया। 

मुझे उस दिन बड़ी हैरानी हुई कि पांच छः साल का बच्चा भी डैमेज जीन्स पहन रहा है ...और इतने सालों में वाट्सएप पर भी बहुत से वीडियो आते जाते रहते हैं कि बुज़ुर्ग दादी अपने पोते को कुछ पैसे दे कर कहती है कि लाडले, जा, जा के अच्छी से पतलून ले ले ...यह देख कैसे फट चुकी है...। फिर वह दादी को समझाता है कि बेबे, यह फटी नहीं है, इसे पहनने का रिवाज़ है...

वक्त के साथ युवाओं के रोल-मॉडल भी बदल रहे हैं...जो तस्वीर दो दिन पहले अखबार में थी ...उसमें तो पूरी थी, लेकिन यहां इतनी ही लगाना मुनासिब जान पड़ा....

इन रिप्ड जीन्स का लफड़ा एक और भी है.....इन्हें पहन कर अमीर तो और भी रईस दिखने लगता है, लेकिन एक औसत आदमी बेचारा मांगने वाला कोई फरियादी टाइप दिखने लगता है ...अमीर, रईस लोगों का तो पहनना सब की समझ में आ जाता है कि यह कूल, हॉट, मॉड...जो भी कोई समझ ले, वह दिखने के लिए पहनते हैं..और जीन्स जितनी ज़्यादा रिप्ड होगी पहनने वाले का रूआब, रुतबा, ईज्ज़त समाज में, मीडिया में उतनी ही ज़्यादा बढ़ जाती है ..है कि नहीं...अब देखिए दो दिन पहले एक सिने-तारिका की फोटो मैंने अखबार में जब देखी तो मुझे कुछ भी अजीब नहीं लगा, क्योंकि अकसर मुंबई के लोकल स्टेशनों पर, और दूसरे सार्वजनिक स्थानों पर ऐसे फेशनेबुल कपड़े पहने मॉड लोग दिख जाते हैं.....दिख जाते हैं तो भई दिख जाते हैं, क्या करे कोई आंखों पर पट्टी थोड़े न बांध ले...

फैशन के लिए हम कुछ भी करेगा....शौक की कोई कीमत नहीं होती...

लेकिन कईं बार कुछ ऐसे लोग भी रिप्ड जीन्स पहने दिख जाते हैं जिन्हें देख कर लगता है कि इन्होंने फेशन के लिए पहनी है या मजबूरी में .....बस, लफड़ा इन केसों में ही होता है जब समझ नहीं आती, लेकिन वही बात है कुछ लोगों को बेकार में सिरदर्दी मोल लेने की आदत होती है, क्या करना बेकार के इस हिसाब-किताब के चक्कर में पड कर ...तुम्हारी राह चलो, वह उस की ज़िदगी है, उसे जी लेने दो ...

यही कोई पांच छः साल पहले की बात है, मैं एक दिन ज़ारा के शो रूम में गया बेटों के साथ...वहां मैं एक फटी-पुरानी टी-शर्ट देख कर हैरान रह गया...उसे देख कर हैरानगी की बात उस का कटा-फटा होना न था, बल्कि उस पर ३५०० रूपये को टैग लगा हुआ था...जिस तरह की वह टी-शर्ट थी अकसर उस तरह की टी-शर्ट लोग घर में फटका लगाने के लिए भी इस्तेमाल न करें....ऐसा मैं समझता हूं तो समझता फिरूं ...लेकिन शौक की कोई कीमत नहीं होती ...मैं भी तो सौ साल पुरानी विंटेज किताबे, डेढ़ सौ साल पुरानी डिक्शनरीयां, ६० साल पुराने मैगज़ीन और नावल ढूंढता रहता हूं ..कुछ तो चीथड़े हो चुके होते हैं लेकिन खरीदता हूं न मुंह मांगे दामों पर क्योंकि वे मेरे काम की चीज़े ंहैं ...इसी तरह ये चीथड़े दिखने वाले कपड़े भी किसी के कितने काम के होंगे, मैं क्यों इस सब के चक्कर में पढ़ कर अपना सिर दुःखाने का जुगाड़ कर रहा हूं ....और वह भी सुबह-सवेरे।

जान-बूझ कर अच्छी भली पतलून को फड़वा लिया बंदे ने फैशन के चक्कर में......दो दिन पहले दिखा बांदरा स्टेशन पर ...

रिप्ड जीन्स के बारे में यह टुकड़ा लिखने से पहले मैंने सोचा चलो गूगल करता हूं .....मुझे कुछ गलती लगी मैंने लिखा रिग्ड - Rigged jeans - लेकिन गूगल बहुत समझदार है, उसने बराबर मुझे रिप्ड जीन्स का पन्ना खोल कर दे दिया ..कुछ सवाल जवाब भी थे ...एक दो ही पढ़े, बाकी न पढ़ पाया, अगर वे भी पढ़ने लग जाता तो मुमकिन था यह पीस लिखने से रह जाता या फिर आज ड़यूटी पर बेटे की कोई रिप्ड जीन्स पहन कर ही निकल पड़ता ...वैसे एक बार मैंने उसे पहना था घर ही में...सच में उस दिन समझ आई कि ये सब जवानों के काम हैं, बूढ़ी टांगों और घिसे-पिटे घुटनों पर तो ये रिप्ड जीन्स बहुत भद्दी दिखती हैं, कूल-हॉट तो क्या, बंदा सदियों का बीमार दिखने लगता है, मैंने उसी वक्त उसे उतार के परे रख दिया....मैं उस दिन बच्चो ं से मज़ाक कर रहा था कि अब मैं भी यह पहन कर जाया करूंगा ....और वो जैसे हैं ..हां, हां, डैड, पहनो ज़रूर पहनो, यू लुक कूल इन दिस....😎..... i know their satire!!

क्या करें, अंकल, वक्त के साथ कदम के साथ कदम मिला कर चलना पड़ता है ...

अच्छा, गूगल पर जो दो सवाल जवाब देखे, उसमें लिखा था कि लोग इन्हें पहनते क्यों है, जवाब लिखा था, कूल दिखने के लिए और दुनिया को यह बताने के लिए कि वह कैसे दिखते हैं, उन्हें इस की परवाह नहीं है....लेकिन पता नहीं मुझे लगता है कि कुछ और दिखने के लिए भी लोग इसे पहनते होंगे ...कूल, हॉट, अल्ट्रा-मॉड, हिप दिखने के लिए ....इन सब का एक ही मतलब होगा.....आज के दौर की स्लैंग ...


फेशन, शौक से मुझे याद आया हमारे परिवार का नन्हा सा सदस्य (जिस की फोटो यह है) इन दिनों मॉडलिंग में अपनी किस्मत आजमा रहा है ....इसे देखते ही लगता है ..."इन परिदों को भी मिलेगी मंज़िल एक दिन, ये हवा में खुले इन के पंख बोलते हैं..."

पोस्ट को बंद करते वक्त यह है मेरा आज का विचार ...जो मन करे पहनिए...फैशन करिए, कूल दिखिए और इस गर्मी उमस के मौसम में कूल बने भी रहिए...ज़िंदगी ने मिेलेगी दोबारा.....मुझे नहीं पता वह पंजाबी कहावत कैसे बनी ...पाईये जग भांदा ते खाईए मन भांदा....(पहनिए वह जो दुनिया को अच्छा लगे, खाइए वह जो आप को अच्छा लगे).....कोई क्यों न पहने वह सब जो उसे खुशी दे, उसे आराम दे, उस के मूड को अच्छा रखे .....खुश रहिए, मस्त रहिए ..रईसी के जलवे अलग हैं, लेकिन आम बंदे के लिए मेरी सलाह यही है कि दूसरे की रिप्ड देख कर अपनी अच्छी भली पतलून को कटवा-फड़वा लेना ठीक नहीं जान पड़ता ....इस से ईश्वर नाराज़ होता है, उस से वह समझता है हम नाशुक्रे हैं.....जैसे जिन लोगों के पास खाने को सब कुछ है, वे छरहरे दिखने के लिए क्या क्या नहीं करते ताकि भूख न लगे, उस के लिए दवाईयां तक ले लेते हैं ,  भूख अगर लगे भी तो कम ..ताकि वज़न न बढ़े......उन सब के लिए मैं इतना ही कहूंगा कि भूख लगना भी ईश्वर की सब से बड़ी नेहमत है ....जब कभी परिवार में किसी की भूख गायब हो जाती है न तो सारे कुनबे की भूख मर जाती है ...तब इस की क़ीमत पता चलती है......मैंने भी अपने परिवार में दो लोगों की भूख मरती देखी है ...तीन महीने नहीं टिक पाए थे उस के बाद  ....उन को देख हमारी भी भूख मरने लगती थी ...इसलिए हमें ज़रूरत है हर वक्त शुकराने में रहने की ......जो मिल रहा है, खाने को पहनने को ..उसे खुशी खुशी पहनें ...सब से ज़्यादा ज़रूरी सांसे हैं, टांगे हैं .....उन को कैसे ढक रहे हैं या नहीं भी ढक पा रहे हैं, यह कुछ मायने नहीं रखता ....ज़िंदगी का जश्न उन सब चीज़ों के साथ मनाना हमें सीखना होगा जो हमें वरदान के रूप में मिली हुई हैं...आंखें, दिल, चलना-फिरना ......और भूख ....

इस रिप्ड जीन्स की बातों को दिल पर मत लेना यार, जो पहनना है पहनो, मैं भी वही पहनता हूं जो मुझे खुशी देता है, आज सुबह कुछ लिखने के लिए नहीं था, इसलिए यह सब लिख दिया....बस, यूं ही ....

सोमवार, 15 मई 2023

शकरकंदी में भी कीड़े ...


हम लोग बचपन से जो खाते पीते रहते हैं हमें उन चीज़ों की आदत पड़ जाती है...है कि नहीं....इसलिए अकसर डाक्टर लोग छोटे-बच्चों के मां-बाप को यही मशविरा हमेशा देते हैं कि इन को सभी प्रकार की दालें एवं साग-सब्जियों और फलों की आदत डालो अभी से ...अगर बचपन में इन की इस तरफ़ रूचि न हुई तो ये उम्र भर इन पौष्टिक चीज़ों से बचते रहेंगे, दूर भागते रहेंगे....हम जिस दौर के हैं, उन दिनों बच्चों को अकसर एक-आध दाल या सब्जी नहीं भाती थी, लेकिन आज बच्चों को, युवाओं को कोई सी भी एक दाल या एक ही सब्जी चाहिए ...हर दिन ...अमूमन दाल मक्खनी या शाही पनीर ....स्विग्गी से या ज़ोमेटो से ....। चलिए, अब जो है सो है, यह आज एक बहुत बड़ा मसला है...मैंने भी बचपन से ही करेला कभी नहीं खाया और आज तक नहीं खा सका। बचपन में खाने-पीने की सही ट्रेनिंग की यह अहमियत है ...

शकरकंदी और सिंघाडे़ 

खैर, बात तो शकरकंदी की करने वाला था ...यह हमें बचपन से बहुत पसंद रही है...पंजाब में जिस जिले में मैं 30 बरस तक रहा -अमृतसर में- वहां हमें शकरकंदी और सिंघाड़े (water chestnut) सिर्फ ठंडी़ के मौसम में कुछ ही दिनों के लिए बाज़ार में दिखते थे ...और बस हमें इन को उन दिनों कुछ ही बार खाने का मौका मिल पाता था...लेकिन मज़ा आ जाता था उबली हुई शकरकंदी के साथ सिंघाड़े खाते वक्त जब हम लोग साथ में थोड़ा गुड़ ले लेते थे ...

एक पुरानी कहावत है ....भूख में चने बादाम....या ज़रूरत आविष्कार की जननी है ....जहां मैं काम करता हूं पास ही देखा पिछले साल कि ये बाल गोपाल इत्मीनान से शकरकंदी को भून रहे हैं... 🙏

अभी भी ये दोनों चीज़ें बहुत पसंद हैं....लेकिन अब इन चीज़ों में वह पुराने वाला स्वाद नहीं रहा, क्या करें, फिर भी खाना तो है ही ..इसलिए अब शकरकंदी को उबालते वक्त उस में गुड़ डालना पड़ता है ताकि वह खाई तो जा सके। और यहां बंबई में यह शकरकंदी लगभग सारा साल ही दिखती है ...हां, उस के रंग शायद दो तरह के होते हैं...एक तो यह है जो मैंने यहां तस्वीर लगाई है थोड़े लाल से रंग में और दूसरी होती है जो भूरे से रंग वाली ....जो अकसर हम लोग पहले खाते रहे हैं...मुझे नहीं पता इन में फ़र्क क्या है...

शकरकंदी में कीड़े 

कल मैं उबली हुई शकरकंदी से जैसे ही छिलका उतार रहा था तो मुझे कुछ सख्त सा महसूस हुआ ....मैंने थोड़ा जोर से दबाया तो अंदर से काला सड़ा हुआ हिस्सा दिखा ...और थोड़ा और ध्यान से देखा तो पता चला कि उस में तो इतने कीड़े हैं....और एक ही शकरकंदी में ही नहीं, कईं टुकडो़ं में ये कीड़े दिखे....

देखिए, शकरकंदी में कीड़े दिख रहे हैं...मैंने पहली बार देखा इन्हें शकरकंदी में 

खाने पीने की चीज़ों में कीड़े देख कर हम लोग आज भी डर जाते हैं, सहम जाते हैं....जैसे मां जब भिंडी या बेंगन काट रही होती और उसमें से कोई कीड़ा निकलता तो हमें दिखाती और समझाती कि इसलिए मैं तुम लोगों को कहती हूं कि सब्जी कच्ची मत खाया करो...हम लोगों की उन दिनों आदत सी कच्ची सब्जी जैसे भिंड़ी, फुल गोभी आदि का एक आध टुकडा़ उठा कर खाने की ....हमें उन सब्जियों में कीड़ा देख कर इतना ़डर लगता जैसे किसी आतंकवादी को देख लिया हो...

बिना काटे आम खाने वाले भी ख्याल रखें

खाने पीने की चीज़ों में मुझे कुछ भी ऐसा-वैसा नज़र आता है तो मैं ब्लॉग में ज़रूर शेयर करता हूं ताकि सभी पढ़ने वालों को इस की जानकारी हासिल हो ..ऐसे ही आज से 8-10 बरस पहले जब हमें आम को चूस कर खाने की आदत थी ...चूसने के बाद जब उस के छिलके को भी दांतों से कुरेदने लगे तो पता चला कि अंदर तो कीड़े ही कीड़े हैं ....बस उस दिन के बाद फिर कभी आम को काटे बिना खाया नहीं ....अगर कभी ऐसे ही बिना काटे खा भी लेते हैं तो वह घटना बराबर याद आ जाती है, ़डर डर खाते हैं...

लगभग दस बरस पहले मैंने जब आम का यह रूप देखा तो उसे इस ब्लॉग में दर्ज कर दिया था....और मैं अमूमन एक बार लिखने के बाद अपनी पोस्ट पढ़ता नहीं हूं, उसे एडिट करना तो दूर की बात है ....मुझे उसे फिर से पढ़ना कुछ कारण वश असहज कर देता है ....एक रवानगी में जो लिख दिया, उसे क्या बार बार देखना...जो कह दिया सो कह दिया....😎 यह रहा मेरी उस ब्लॉग-पोस्ट का लिंक, देखिएगा....कैसे उन दिनों लखनऊ मेंं आमों की ऐश किया करते थे ...

बिना काटे आम खाना बीमारी मोल लेने जैसा...

हां, तो यह पोस्ट सिर्फ़ इसलिए है क्योंकि हमें अपने खाने पीने के बारे में सचेत रहना चाहिए...मुझे अभी लिखते हुए याद आ रहा था कि शकरकंदी को आज तक हम ने कभी काट कर खाया ही नहीं, छिलका उतारा और खाने लगे ...और हां, बहुत बार अंदर से कुछ सख्त महसूस होता, और कडवाहट सी भी लगती तो हम खा लेते चुपचाप ....यही सोच कर कि कईं बार बादाम भी तो होते हैं कड़वे ...लेकिन अब सोच रहा हूं कि वो सब शकरकंदी अंदर से सड़ी हुई कीडे़ वाली होती होगी ....खैर, अब चिडि़या खेत चुग चुकी है ...अब तो आगे की ही सुध ले सकते हैं....

खाने पीने की चीज़ों से जितना डर कर रहा जाए उतना ही ठीक है...अच्छे से काट कर , देख कर और उस का स्वाद भी अगर बदला दिखे तो फैंक दीजिए,मत खाईए...सेहत से बढ़ कर तो कुछ है नहीं। कड़वेपन से याद आया कि लौकी का जूस पीते वक्त भी ख्याल रखिए....हमारे एक साथी अधिकारी की पिछले बरस लौकी का कड़वा जूस पीने से जान जाती रही ....ध्यान रखिए, और इस नीचे दिए हुए लेख के लिंक को भी देखिएगा...उसमें बहुत उपयोगी जानकारी है इन कड़वी सब्जियों के बारे में ...अपना ख्याल रखिए...बाती छोटी छोटी हैं, लेकिन कईं बार बहुत महंगी साबत होती हैं....

लौकी का रस और वह भी कड़वा  (इस लेख को भी ज़रूर देखिए, कभी फुर्सत में) 

PS... ये जो आज कल हर मौसम में हर सब्जी और फल बाज़ार में दिखते हैं न, यह भी लफड़े की बात ही है ...हम लोग देखा करते थे गर्मी सर्दी की सब्जियां और फल अलग होती थीं....वे उसी मौसम में उगती थी, दिखती थीं और बिकती थीं. अब किसी भी मौसम में कुछ भी खरीद लो...यह क़ुदरत के साथ पंगे लेने वाली बात लगती है मुझे अकसर ...बिन मौसम के सब्जी फल उगाने के लिए बहुत से कीटनाशकों का इस्तेमाल होता है एक बात, और उन को कोल्ड-स्टोरेज़ आदि मेंं रखने के लिए भी बहुत से प्रिज़र्वेटिव इस्तेमाल होते हैं....सब कैमीकल लोचा है, और क्या....इसलिए ताज़ा खाएं, सुथरा खाएं, मौसम के मुताबिक ही सब्जियों एवं फलो का सेवन करें। मुफ्त की एक और नसीहत....आदत से मजबूर, क्या करें।

छोटी सी सीख यही है शकरकंदी भी 😎खाइए ज़रूर, लेकिन काट कर ....अच्छे से देख कर, मैं भी आज के बाद कभी इसे काटे बिना नहीं खाऊंगा...

बुधवार, 26 अप्रैल 2023

डालडे पर पलने वाली पीढ़ी के भी अपने मज़े थे...

मुझे बार बार पूछा जाता है कि तुम्हारी किताब कब आ रही है...क्यों इतनी देर कर रहे हो ...मैं कैसे भी इस तरह के सवालों को टाल जाता हूं कि बस, आलस की बीमारी है ...जी हां, टालने के लिए कह तो देता हूं और फिर जब अपने आप से कहता हूं कि असल बात यह तो नहीं है...दरअसल मैं अपनी पुरानी यादों की गठरीयों को संभालने में ही इतना मसरूफ़ रहता हूं कि यह किताब विताब लिखने के चक्कर में कौन पड़े ....जब कि मैं बड़ी हलीमी से यह लिख रहा हूं कि कोई किताब लिखना भी अब मुश्किल नहीं लगता...एक हफ़्ते भर का काम है, छुट्टी लेकर इत्मीनान से बैठ जाऊं तो लिख लूं एक किताब भी, उतार दूं लोगों के उलाहने भी ... ..लेकिन पिछले बीस बरसों में ऐसा मौका मिला ही नहीं, पता नहीं क्यूं.

मार्च 1963 के फिल्मफेयर में दिखा यह डालडे का डिब्बा जिसने यह पोस्ट लिखने के लिए उकसाया मुझे - स्लोगन देखिए ...माएं जो बच्चों की केयर करती हैं, वे डालडा इस्तेमाल करती हैं .....कुछ सुना सुना नहीं लग रहा ...जैसे वे हाकिंग्ज़ कुकर वाले कहते थे ....जो पत्नी से करते प्यार, वे हॉकिंग से कैसे करें इंकार .... हा हा हा हा 😎

खैर, आज डालडे का ख्याल कहां से आ गया है...लेकिन ख्याल तो उस का आता है जिसे हम कहीं भूल गए हों....जब डालडा बचपन ही से अपनी यादों में बसा हुआ है तो उसे कैसे भूल सकते हैं...लेकिन उस के बारे में लिखने का ख्याल इस लिए आया कि दो दिन पहले मैं 60 बरस पुरानी फिल्मफेयर के पन्ने (मार्च 1963) उलट-पलट रहा था....इसे खरीदा सा कुछ महीने पहले ...तो अचानक मेरी नज़र डालडे के इस इश्तिहार पर टिकी की टिकी रह गईं।  लिखने का मेरा मक़सद एक यह भी होता है कि इसी बहाने आज से 50-60 पुराने दौर की यादें एक पैकेज की तरह इक्ट्ठा हो जाती हैं ..एक ब्लॉग पोस्ट की शक्ल के रूप में ...और कोई पढ़े न पढ़े, ख़ुद की डॉयरी पढ़ने से सुख मिलता ही है...😎

डालडे का नाम सुनते ही, इस का पुराना इश्तिहार किसी मेगज़ीन में देखते ही हमें याद आती है मां के चूल्हे-चौके की ...आग धधक रही अंगीठी की, उस पर रखे तवे पर डालडे घी में तैर रहे नमक-अजवायन के लज़ीज़ परांठों की ...जो बिना किसी हिसाब किताब के सिंकते रहते थे....जब तक जब का पेट न भर जाए और जब तक स्कूल-कॉेलेज के लिए भी वे बन कर डिब्बे में बंद न हो जाते ..। हमें याद है कि यही हमारा नाश्ता होता था ..डालडे में तैयार हुए दो परांठे- कभी आलू के, गोभी, मूली के भी, लेकिन डालडे में गडुच्च, साथ होता था आम का अचार और एक दम कड़क और खूब शक्कर वाली चाय....सच में पेट भरने के साथ साथ, नज़रें भी संतुष्ट हो जाती थीं और आत्मा को भी परम सुख की अनुभूति होती थी ...कभी कभी बेसन का पूड़ा (जिसे शायद कहीं कहीं चिल्ला भी कहते हैं), बेसन वाली रोटी (मिस्सी रोटी), दाल वाली रोटी, परांठे के साथ आलू-प्याज़ के पकौड़े भी अकसर होते थे ....और महीने में कभी एक आध बार ब्रेड भी खा लेते थे ...अच्छे से सिकी हुई मलाई और चीनी लगा कर (हमें तो तब यही भी नहीं पता था उसे मलाई सेंडविच कहते हैं😀)....

कुछ बातें सारी पोस्ट लिखने के बाद याद आती हैं जैसे मुझे यह याद आया कि मुझे चीनी के परांठे भी बहुत भाते थे...डालडे में तले ही परांठों की तो बात ही क्या करें....क्या गज़ब महक आती थी। अच्छा, एक मज़ेदार बात और ...मुझे याद है जब मैं छोटा बच्चा था (बड़ी शरारत करता था..), जब अपनी नानी के यहां गया होता तो देर रात में उठ के बैठ जाता ..रोने लगता कि मुझे चीनी के परांठे खाने हैं...नानी तो ठहरी नानी, बेचारी उसी वक्त स्टोव जला कर लग जाती काम और मुझे भी 1-2 चीनी के परांठे खा कर आराम की नींद आती। 

हां, कहां मैं भी नाश्ते का पिटारा खोल के बैठ गया....अच्छी भली डालडे और मां के चूल्हे में सिक रहे परांठों की हो रही थीं...एक बात मुझे और बहुत याद आती है ...हमारा एक दोस्त था, अब तो उस का नाम भी नहीं याद ...लेकिन छु्टी वाली दिन मैं अकसर सुबह-सुबह उस के घर चला जाता क्योंकि वहां से हमें ग्रांउड में गिल्ली-डंडा, कंचे, पिट्ठू-सेका ...कुछ भी खेलने जाना होता था ...जब मैं उस के घर में पहुंचता सवेरे तो मैं देखता कि उस के घर में भी डालडे के परांठों बनाने का बदसतूर जारी है ...लेकिन हमारे घर के मुकाबले में बड़े स्तर पर...क्योंकि उन के घर में आठ-दस लोग थे....मंज़र याद करता हूं तो मज़ा आ जाता है ...उन के आंगन में आठ-दस चारपाईयां बिछी हुई हैं....उस दोस्त की झाई (मां) बार बार बच्चों को आवाज़ें लगा रही है कि उठो, नाश्ता कर लो..अंगीठी पर  तले जा रहे गर्मागर्म परांठों से जो धुआं निकलता है ना उस खुशनुमा जानलेवा महक को ब्यां कर पाना मेरे बस में नहीं है, यह तो वही समझ सकता है जो उस दौर का साक्षी रहा है....हां, उस दोस्त के घर में जा कर मुझे यह बड़ा अजीब भी लगता और अच्छा भी लगता कि उस दोस्त के भाई-बहन आंखें मलते हुए बिस्तर से उठ रहे हैं और सीधा मां के पास आकर अपनी थाली में परांठे रखते हैं, साथ में चाय का गिलास उठाते हैं और चारपाई पर जा कर इत्मीनान से नाश्ता करने लगते हैं....मैं वहां बैठा बैठा सोच में पड़ जाता कि हमारे घर में तो नियम है कि बिना मुंह हाथ धोए, बिना दांत साफ किए हुए क्यों हम लोग परांठों तक पहुंच नहीं पाते ....

खैर, इसी तरह से डालडे पर हमारी पूरी पीढ़ी पल रही थी ...हम से पिछली पीढ़ी के देशी घी के किस्से सुनते सुनते कि इस डालडे का तो उन्होंने नाम तक न सुना था, सब कुछ ख़ालिस देशी घी में ही बनता था हमारे मां-पिता जी के यहां तो ...देशी घी वेरका तो हमारे यहां भी आता था लेकिन इस्तेमाल कम ही किया जाता था...दाल की कटोरी में डालने के लिए, कभी देशी घी के परांठे बन जाते थे, मक्की की रोटी पर रखे गुड़ को नरम करने के लिए देशी घी लगता था और हलवा बनाने के लिए भी कईं बार वही इस्तेमाल होता था ...कहने का मतलब मेरा यही है कि देशी घी की घर में डिमांड ज़्यादा थी और सप्लाई बहुत कम ...इसलिए बरसों बाद जब मैंने रोटी फिल्म में मुमताज का अपने ढाबे पर वह देशी घी का डॉयलाग सुना तो मुझे बहुत हंसी आई....


डालडा घी को याद करता हूं तो उस डालडे घी से बड़ी मस्ती से चम्मच भर भर के डालडे को निकालती और परांठों पर चुपड़ती मां याद आ जाती है ...ऐसे लगता है जैसे अभी फिर से कहीं से प्रकट हो जाएगी...लेकिन जाने वाले कहां आते हैं, उन की तो यही यादें ही हैं जिन के ज़रिए हम उन खुशनुमा लम्हों को फिर से जी लेते हैं...

डालडे के डिब्बे से जुड़ी कुछ यादें ये हैं कि उस के नए दो किलो या चार किलो के डिब्बे को खोलना भी इतना आसान काम न होता था...उस के ढक्कन के नीचे टीन की सील लगी होती थी। हमारे घर में तो उसे खोलने के लिए एक ओप्नर था....लेकिन फिर भी कभी जिसने भी उस ओप्नर का इस्तेमाल किए बिना उसे खोलना चाहा उसने हाथों पर घाव ही किया ...अच्छा, अभी लिखते लिखते ख्याल आया कि दो और चार किलो के डालडे के डिब्बे हुआ करते थे ...मुझे अब याद नहीं कि क्या एक किलो का भी होता था कि नहीं...शायद इसलिए नहीं याद कि हमने उसे अपने यहां कभी देखा ही नहीं, क्योंकि उन दिनों घरों में जब डालडे की खपत ही इतनी हो रही थी तो क्यों आएगा एक किलो वाला डिब्बा घरों में....

नवीं कक्षा की बात है...हमारे साईंस के अध्यापक श्री सतीश वर्मा जी हमें विज्ञान बड़ी मस्ती से पढ़ाते थे ...उन दिनों मेरे 40 में से 38 अंक आते थे विज्ञान में और कक्षा में मेरी उत्तर-पुस्तिका को घुमाया जाता था ...नवीं कक्षा में जब उन्होंने हमें वनस्पति घी को तैयार करने की विधि समझाई ...Hydogenation of Vegetable Oils ..तो डालडा खाने का और भी मज़ा आने लगा ...वह और भी अपना ही लगने लगा ....ऐसे लगने लगा कि वाह, अब तो हम इसे तैयार करने की विधि भी जानते हैं ...हां, वह सब ट्राई करने के चक्कर में नहीं पड़े, यही गनीमत है लेकिन उस प्रक्रिया को जानना भी कम रोमांचक न था...

डालडे का टीन वाला डिब्बा जो अभी आप ने ऊपर इश्तिहार में देखा वह जब खाली हो जाता तो उस का क्या अंजाम होता था ...वह अकसर तो कबाड़ी को बेच दिया जाता....जैसा कि अभी मैं आप को उस दौर के गीत के ज़रिए दिखाऊंगा जिस में हास्य कलाकार महमूद ने गले में डालडे का खाली डिब्बा डाला हुआ है ... कईं बार उस खाली डिब्बे में चावल-चीनी जैसी खाने पीने के पदार्थ स्टोर किए जाते थे। बहुत बार तो मैं ही अपने कंचे को संभालने के लिए एक दो डिब्बे हथिया लेता था ...एक में पुराने कंचे और दूसरे में नए कंचे....कंचों का मैं किसी ज़माने में चेंपियन था ...क्या निशाना था....शाम को जब कंचों के खेल खत्म हो जाते तो कंचों को उस डालडे के डिब्बे मे ंडाल कर धोना और फिर उन को गिनना, इसी तरह के मेरे शुगल थे ...

एक बात और डालडा डालडा किए जा रहा हूं ....उसी की रट लगा रखी है मैंने ....मैं रथ को कैसे भूल गया ...एक रथ वनस्पति घी भी होता था ...शायद कंपनी ही अलग थी ..कुछ कुछ याद आ रहा है कि घर में कभी डालडे की तारीफ़ करने लग जाते, कभी रथ की ...अच्छा, हम 1975 के आसपास (जहां तक मेरी यादाश्त मेरा साथ दे रही है) ये डालडा और रथ प्लास्टिक के डिब्बों में आने लगे...ये प्लास्टिक के डालडा-रथ के डिब्बे एक किलो के साइज़ के ही आते थे ....मुझे अपने कंचे रखने के लिए वे एक किलो वाले खाली डिब्बे ज़्यादा सुविधाजनक लगते थे ..

अभी हम लोग कालेज जाने लगे थे शायद कि पोस्टमेन घी शुरू हो गया ....यह एक बड़े चोकोर से टीन के आकर्षक डिब्बे में मिलता था ...यह लिक्विड तेल होता था ...मूंगफली का तेल ... इस तेल की घरों में बड़ी इज़्ज़त थी....लेकिन इसे भी कम ही इस्तेमाल किया जाता था क्योंकि यह महंगा था ...शायद दाल-सब्जी के लिए ही ...और हमारे प्रिय परांठों पर अभी भी रथ और डालडा ही चुपड़ा जा रहा था ...😃

यादें भी बारात की तरह होती हैं, हर याद इस बारात में शामिल होना चाहती हैं लेकिन कोई लिखे भी तो कितना लिखे ...कितना डालडा और रथ खाया, बेहिसाब ...कितना जम गया होगा कितना घुल के बह गया होगा...ये तो ईश्वर ही जानता है लेकिन जो मुझे लगता है कि जितना परिश्रम उस दौर में लोग करते थे अधिकतर तो इस्तेमाल ही हो जाता होगा, यह मेरा कोई वैज्ञानिक दृष्टिकोण नहीं है....बस मुझे ऐसा लगता है ...क्या है न, जैसे जैसे देश-समाज में सम्पन्नता आई घी और तेल का भी एक बड़ा बाज़ार बन गया ....यह खाओ, यह मत खाओ......कोई विदेशी तेल के लिए कह रहा है ...कोई देशी ...कोई कुछ कोई कुछ ...कोई  किसी तेल की तारीफ़ में लगा हुआ है तो कोई किसी मक्खन, घी या किसी दूसरे तेल की ....डाक्टरी पढ़ कर भी हम जैसे लोग भी अगर सच में कंफ्यूज़ ही हैं तो फिर जनसाधारण की तो बात ही क्या करें, उन्हें  ताकतवर मार्कीट शक्तियां जो सबक पढ़ाना चाहती हैं, वे देर सवेर उन को अपनी चपेट में ले ही लेती हैं ..कोई भी हथकंडा अपना लेती हैं, डाक्टरों से कहलवा कर, शॉपिंग प्लॉज़ा में एक से साथ एक मुफ्त दे कर ....या और भी बहुत कुछ कर करा के ...सीधे सादे लोगों को झांसे में लेना कोई मुश्किल काम नहीं है ....इश्तिहार बाज़ी का ज़माना है ...सब कुछ मुमकिन है ...ऊपर डालडे के विज्ञापन में ही आपने देखा क्या क्या फ़ायदे गिनवा गए हैं........

खैर, हम लोगों के पास तो कोई विकल्प ही न था, अब परांठे खाने हैं, देशी घी के कनस्तर पहुंच से बाहर हैं तो डालडे-रथ के ही तो खाने पड़ेंगे.....सरसों के तेल के परांठे तो नही न बन सकते....लेकिन यादें तो हैं न हमारी उस से भी जुड़ी हुई ....हमारी मां को कईं चीज़ें सरसों के तेल में भी बनाना अच्छा लगता था ...और उन का ज़ायका भी बहुत अच्छा होता था ...वैसे हमने इतनी उम्र होते होते देखा है कि बहुत से घरों में सरसों का तेल ही इस्तेमाल होता रहा है ...हमारे बड़े-बुज़ुर्ग भी इस की हिमायत करते थे ...क्या था न पहले शुद्धता का कोई इतना मुद्दा भी तो न था...लेकिन सीधे सादे थे अमूमन ...कुछ चीज़ें मुझे याद है हम लोग सरसों के तेल में ही बनी पसंद करते थे ...जैसे कि मेथी आलू...सरसों के तेल में छोंके  हुए आंवले, भिंडी इत्यादि ....

ऊब गया हूं इस डालडे के बारे में लिखते लिखते ...चलिए, विषय को थोड़ा बदलते हैं....मैं जब इस 60 साल पुराने फिल्मफेयर के पन्ने उलट-पलट रहा था तो मुझे बहुत से इश्तिहार और भी दिखे जिन को देख कर भी कुछ कुछ याद तो आता रहा ...चलिए, उनमें से कुछ को यहां पेस्ट करता हूं ...आप भी गुज़रे दौर का मज़ा लीजिए...
तर

मुझे आज पता चला कि वाटरबरी के नाम से ठंडी लगने की भी कोई दवा आती थी....मुझे तो इस के बारे में तब पता चला जब नवीं दसवीं क्लास में जब एक बार डा. साहब हमारी सेहत की जांच करने आए...उन को सब ठीक ही लगा लेकिन मैंने बाद में उन से जा कर कहा कि मुझे कमज़ोरी महसूस होती है ...उन्होंने एक पर्ची पर वाटरबरी टॉनिक लिख दिया....पिता जी बाज़ार से लाए और मैं खुद को पहलवान समझने लग गया 😇

आज हम इस तरह के विज्ञापन का तसव्वुर भी नहीं कर सकते ...पढ़िए ज़रा इसे पूरा ...इस तस्वीर पर क्लिक कर के आसानी से पढ़ पाएंगे ...

फिल्मफेयर के आखिरी पन्ने पर उस दौर के सुपरहिट हीरो बिश्वाजीत की फोटो 

अच्छा तो सिने स्टार्ज़ के बारे में जानने के लिए भी किताबें छपती थीं ... नीचे देखिए... फिल्म स्टारों के पोस्टर बेचने की बात लिखी है ...1963 में भी ढाई रुपल्ली में ...😁

मुझे यह समझ नहीं आया कि यह 16 एमएम की फिल्म का क्या फंड़ा था आज से 60 साल पहले ...अगर इस पोस्ट को पढ़ने वाला कोई पाठक इस पर रोशनी डाल सके तो अच्छा होगा...

फिनिक्स मॉल है अब मुंबई में ....वहां जाते हैं ...लेकिन 60 बरस पहले वहां पर फिनिक्स मिल हुआ करती थी, जहां फिनिक्स फैबरिक्स नाम का कपड़ा तैयार होता था ...यह मेरा अनुमान है ...नाम से मैं ऐसा समझ रहा हूं..

वाह .... फिल्मफेयर के पन्ने पर व्ही.शांताराम जैसे महानायक के दीदार भी हो गए....उस ग्रेट फिल्म डा कोटनीस के एक सीन के के ज़रिए ...

क्या कहें अब इस विज्ञापन के बारे में ....यह तो बीते ज़माने की एक बात हो के रह गई है ...

महान अभिनेत्री  ललिता पवार जो अपने अभिनय से अपनी भूमिका में जान फूंक देती थी ....क्या गजब का फ़न था इन के पास, ये खलनायक शाकाल, गब्बर वब्बर तो बाद में आए....इन की फिल्म देख कर सच में बच्चे तो डर जाते थे ..ये वो लोग थे जिन्होंने अपनी सारी ज़िंदगी हिंदी सिनेमा को समर्पित कर दी....इन की पुण्य याद को सादर नमन...अभी जो मैं नीचे नील कमल फिल्म का गीत एम्बेड करूंगा उस में भी ललिता पवार ने कमाल का अभिनय किया है ...

लो... कर लो बात ....ज्यादा मीठा खाने की सलाह दे रहा यह विज्ञापन 

छुट्टी सब को अच्छी लगती है, इन सिने-तारिकाओं की एक दिन शूटिंग कैंसल हो गई तो ये पिकनिक पर निकल गईं ....और फिल्मफेयर ने उन लम्हों को भी कवर कर लिया ....(पढ़िएगा इसे फोटो पर क्लिक कर के ....आसानी से पढ़ पाएंगे) 


इस टीनोपाल की डिब्बी ने भी सफेदपोशों की नाक में दम किए रखा ....खास कर के गृहिणियों को तो उलझाए रखा इस तरह के विज्ञापनों ने ....उस की शर्ट या साड़ी मेरी साड़ी से सफ़ेद कैसे वाली प्रतिस्पर्धा ... हा हा हा हा ....

लीजिए, डालडे की इतनी बातें सुनने के बाद नील कमल फिल्म का यह गीत भी सुनिए...खाली डिब्बा खाली बोतल ले ले मेरे यार, खाली से मत नफ़रत करना खाली सब संसार.....यह रहा इस का लिंक ...वैसे तो नीचे एम्बेड भी कर रहा हूं लेकिन कईं बार एम्बेड डिसएबल हो जाता है ....और ब्लॉग लिखने वाले को पता ही नहीं चलता...इसी फिल्म का वह सुपर-डुपर गीत था ..बाबुल की दुआएं लेती जा, जा तुझ को सुखी संसार मिले....अभी मेरी बहन की शादी नहीं हुई थी जब यह फिल्म आई थी....मेरे पिता जी अकसर यह गीत सुनते सुनते रो पड़ते थे ...भावुक थे ... लेकिन आप इन चक्करों में मत पडिए, अगर इतनी मशक्कत कर के यह डालडे की पोथी पढ़ कर आप यहां तक पहुंच ही गए हैं तो महमूद साहब की बेहतरीन अदाकारी के साथ फिल्माया गया यह गीत ज़रूर सुनिए...गले में डालडे का डिब्बा लटका रखा है उन्होंने ...ग्रेट कॉमेडियन ऑफ ऑल टाइम्स ....🙏

जल्दी ही फिर किसी किस्से कहानी के साथ मिलते हैं....मुझे खुद पता नहीं इस का टॉपिक क्या होगा, अगर आप के ख्याल में ऐसा कोई विषय है जिस पर लिखा जाना चाहिए...तो नीचे कमेंट में लिखिए...कोशिश करेंगे....अच्छा, अपना ख़्याल रखिए...


PS... इस पोस्ट को लिखने के बाद मैं अपनी बहन से फोन पर बात कर रहा था तो मैंने पूछा कि इन डालडायुक्त बातों में आप भी अपनी यादें जोडिए...आप तो मेरे से 10 बरस बड़ी हैं....उन्होंने जब एक बात सुनाई तो मुझे भी कुछ कुछ याद आ गया ....उन्होंने मुझे कहा कि तुम्हें भी याद होगा कि हम लोग एक बार किराने की दुकान पर थे तो एक बंदे ने चार किलो का डिब्बा उठाया हुआ था ...टीन वाला ..जिस के ऊपर एक हुक सा लगा रहता था ...मुझे भी याद आया कि अचानक वह हुक टूट गया और वह भारी भरकम डिब्बा उस के पांव के ऊपर गया, उस के पैर का अंगूठा भयंकर रूप से कट गया था ....कुछ यादें हमेशा के लिए दिल में कैद हो जाती हैं जैसे...

बहन ने यह भी बताया कि बीजी (हमारी मां) के हाथ के परांठे तो सारे खानदान में मशहूर थे ...जब भी हम लोग ननिहाल जाते तो सभी लोग कहते कि परांंठे तो संतोष ही बनाएगी....और हमारी मौसी तो खास कर के बीजी के परांठों की दीवानी थी...

ऐसे ही है, जब कोई बात पुरानी छिडती है तो सब को अपने दिन याद आते हैं ..और इसी से लेख में ज़िंदगी आती है ...क्या ख्याल है आपका....!